कुल पेज दृश्य

सोमवार, 3 सितंबर 2012

विज्ञान भैरव तंत्र विधि—66 (ओशो)

   ‘मित्र और अजनबी के प्रति, मान और अपमान में, असमता और समभाव रखो।
      असमता के बीच समभाव रखो। यह आधार है। तुम्‍हारे भीतर क्‍या घटित हो रहा है। दो चीजें घटित हो रही है। तुम्‍हारे भीतर कोई चीज निरंतर वैसी ही रहती है; वह कभी नहीं बदलती। शायद तुमने इसका निरीक्षण न किया हो। शायद तुमने अभी इसका साक्षात्‍कार न किया हो। लेकिन अगर निरीक्षण करोगे तो जानोंगे कि तुम्‍हारे भीतर कुछ है जो निरंतर वही का वही रहता है। उसी के कारण तुम्‍हारा एक व्‍यक्‍तित्‍व होता है। उसी के कारण तुम अपने को केंद्रित अनुभव करते हो; अन्‍यथा तुम एक अराजकता हो जाओगे।
     
      तुम कहते हो; मेरा बचपन। अब इस बचपन का क्‍या बच रहा है? यह कौन है जो कहता है: मेरा बचपन यह मेरा, मुझे, मैं कौन है। तुम्‍हारे बचपन का तो कुछ भी शेष नहीं बचा है। यदि तुम्‍हारे बचपन के चित्र तुम्‍हें पहली दफा दिखाए जाये तो तुम उन्‍हें पहचान भी नहीं सकोगे। सब कुछ इतना बदल गया है। तुम्‍हारा शरीर अब वही नहीं है। उसकी एक कोशिश भी वही नहीं है।
      शरीर शास्‍त्री कहते है कि शरीर एक प्रवाह हैसरित-प्रवाह। प्रत्‍येक क्षण अनेक पुरानी कोशिकाएं मर रही है। और अनेक नई कोशिकाएं बन रही है। सात वर्षों के भीतर तुम्‍हारा शरीर बिलकुल बदल जाता है। अगर तुम सत्‍तर साल जीने वाल हो तो इस बीच तुम्‍हारा शरीर दस बार बदल जायेगा। पूरा का पूरा बदल जाता है। प्रत्‍येक क्षण तुम्‍हारा शरीर बदल रहा है।
और तुम्‍हारा मन बदल रहा है। जैसे तुम अपने बचपन के शरीर का चित्र नहीं पहचान सकते हो वैसे ही यदि तुम्‍हारे बचपन के मन का चित्र बनाना संभव हो तो तुम उसे भी नहीं पहचान पाओगे। तुम्‍हारा मन तो तुम्‍हारे शरीर से भी ज्‍यादा प्रवाहमान है। हर एक क्षण में बदल जाता है। एक क्षण के लिए भी कुछ स्‍थाई नहीं है। ठहरा हुआ नहीं है। मन के तल पर सुबह तुम कुछ थे; शाम तुम बिलकुल ही भिन्‍न व्‍यक्‍ति हो जाते हो।
      जब भी कोई व्‍यक्‍ति बुद्ध से मिलने आता था तो उसे विदा होते समय बुद्ध उससे कहते थे: ‘’स्‍मरण रहे, जो व्‍यक्‍ति मुझ से मिलने आया था वही आदमी वापस नहीं जा रहा है। तुम अब बिलकुल भिन्‍न आदमी हो। तुम्‍हारा मन बदल गया है।
      बुद्ध जैसे व्‍यक्‍ति से मिलकर तुम्‍हारा मन वही नहीं रह सकता, उसकी बदलाहट अनिवार्य हैवह बदलाहट चाहे भले के लिए हो या बुरे के लिए। तुम एक मन लेकिर वही गये थे; तुम भिन्‍न ही मन लेकिर वहां सक वापस आओगे। कुछ बदल गया है। कुछ नया उससे जुड़ गया है। कुछ पुराना उससे अलग हो गया है।
      और अगर तुम किसी से नहीं भी मिलते हो, बस अपने साथ अकेले रहते हो, तो भी तुम वही नहीं रह सकते। पल-पल नदी वह रही है। हेराक्‍लाइटस ने कहा है कि तुम एक ही नदी में दो बार नहीं प्रवेश कर सकते। यही बात मनुष्‍य के संबंध में सही है। तुम एक ही मनुष्‍य से दो बार  नहीं मिल सकते । असंभव है यह। और इसी तथ्‍य के कारणऔर इसके प्रति हमारे अज्ञान के कारणहमारा जीवन संताप बन जाता है। क्‍योंकि तुम्‍हारी अपेक्षा रहती है। कि दूसरा सदा वही रहेगा।
      तुम अपने शरीर को देखो, वह बदल रहा है। तुम अपने मन को समझो, वह भी बदल रहा है। कुछ भी वही का वही नहीं रहता है। वहां तक की लगातार दो क्षणों के लिए भी कुछ तुमने अपने मित्र को अजनबी की भांति नहीं देखा है तो तुमने देखा ही नहीं है। अपनी पत्‍नी को देखा; क्‍या तुम सच ही उसको जानते हो? हो सकता है तुम उसके साथ बीस वर्षों से, या उसे भी ज्‍यादा समय से रह रहे हो। लेकिन वह अजनबी ही रहती है। तुम जितना ज्‍यादा उसके साथ रहते हो उतनी ही संभावना है अपरिचित ही रहो। तुम उससे कितना ही प्रेम करते हो उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता।  
      सच तो यह है कि तुम उसे जितना ज्‍यादा प्रेम करोगे वह उतनी ही रहस्‍यमय मालूम पड़ेगी। कारण यह है कि तुम उसे जितना ज्‍यादा प्रेम करोगे। तुम उतने ही अधिक गहरे उसमे प्रवेश करोगे। और तुम्हें मालूम पड़ेगा कि वह कितनी नदी जैसी प्रवाहमान है, परिवर्तनशील है, जीवंत है और प्रति पल नई और भिन्‍न है।
अगर तुम गहरे नहीं देखते हो, अगर तुम इसी तल से बंधे हो कि वह तुम्‍हारी पत्‍नी है, कि उसका यह नाम है, तो तुमने एक हिस्‍से को पकड़ लिया है, और उस हिस्‍से को तुम अपनी पत्‍नी की भांति देखते रहते हो। और तब जब भी तुम्‍हारी पत्‍नी में कुछ बदलाहट होगी, वह उस बदलाहट को तुमसे छिपायेगी।  जब वह प्रेमपूर्ण नहीं होगी तब भी तुमसे प्रेम का अभिनय करेगी, क्‍योंकि तुम्‍हें उससे प्रेम की अपेक्षा है। और तब उसके कुछ नकली और झूठ रूप तुम्‍हारे सामने होंगे। क्‍योंकि उसे बदलने कि इजाजत नहीं है। उसे स्‍वयं होने की इजाजत नहीं है। कुछ ऊपर से लादा जा रहा है और तब सारा संबंध मुर्दा हो जाता है।
      तुम जितना ही प्रेम करोगे, उतना ही परिवर्तन का पहलू दिखाई देगा। तब तुम प्रत्‍येक क्षण अजनबी हो; जब तुम भविष्‍यवाणी नहीं कर सकते कि तुम्‍हारा पति कल सुबह कैसे भविष्‍यवाणी कर सकती है। भविष्‍यवाणी तो तभी हो सकती है। यदि तुम्‍हारा पति मुर्दा हो; तब तुम भविष्‍यवाणी कर सकती है। केवल वस्‍तुओं के संबंध में भविष्‍यवाणी हो सकती है। व्‍यक्‍तियों के संबंध में भविष्‍यवाणी नहीं हो सकती। अगर किसी व्‍यक्‍ति के संबंध में भविष्‍यवाणी की जा सके तो जान लो कि वह मुर्दा है, वह मर चुका है। उसका जीवित होना झूठ है। इसीलिए उसके बारे में भविष्‍यवाणी हो सकती है। व्‍यक्‍तियों के संबंध में कोई भविष्‍यवाणी नहीं हो सकती है। क्‍योंकि बदलाहट संभव है।     
      अपने मित्र को अजनबी की भांति देखो; वह अजनबी ही है। और डरों मत। हम अजनबी से डरते है; इसलिए हम भूल जाते है। कि मित्र भी अजनबी है। अगर तुम अपने मित्र में भी अजनबी को देख सको तो तुम्‍हें कभी निराशा नहीं होगी। क्‍योंकि अजनबी से तुम अपेक्षा नहीं होती है। मित्र के संबंध में तुम सदा निश्‍चित होते है। तुम उससे जो कुछ चाहोगे। वह नहीं होता है। इससे ही अपेक्षा पैदा होती है। और निराशा हाथ लगती है। क्‍योंकि कोई व्‍यक्‍ति तुम्‍हारी अपेक्षाओं को नहीं पूरा कर सकता है। कोई यहां तुम्‍हारी अपेक्षाएं पूरी करने के लिए नहीं है। सब यहां अपने  अपेक्षाएं पूरी करने के लिए है। कोई तुम्‍हारी अपेक्षाएं पूरी करने के लिए नहीं है। लेकिन तुम्‍हें अपेक्षा है कि दूसरे तुम्‍हारी अपेक्षाएं पूरी करें। और दूसरों को अपेक्षा है कि तुम उनकी अपेक्षाएं पूरी करो। और तब कलह है, संघर्ष है, हिंसा है
और दुःख है।
      अपने मित्र को अजनबी की भांति देखो; वह अजनबी ही है। और डरों मत। हम अजनबी से डरते है; इसलिए हम भूल जाते है कि मित्र भी अजनबी है। अगर तुम अपने मित्र में भी अजनबी को देख सको तो तुम्‍हें कभी निराशा नहीं होगी। क्‍योंकि अजनबी से तुम्‍हें अपेक्षा नहीं होती है। मित्र के संबंध में तुम सदा निश्‍चित होते हो कि तुम उससे जो कुछ चाहोगे वह पूरा करेगा; इससे ही अपेक्षा पैदा होती है।  और निराशा हाथ लगती है। क्‍योंकि कोई व्‍यक्‍ति तुम्‍हारी अपेक्षाओं को नहीं पूरा कर सकता है। कोई यहां तुम्‍हारी अपेक्षाएं पूरी करने के लिए नहीं है। सब यहां अपनी अपेक्षा है। कि दूसरे तुम्‍हारी अपेक्षाएं पूरी करें,और दूसरों को अपेक्षा है कि तुम उनकी अपेक्षाएं पूरी करो। और कब कलह है, संघर्ष हिंसा है और दूःख है।      
      अजनबी को सदा स्‍मरण रखो। मत भूलों कि तुम्‍हारा घनिष्ठ मित्र भी अजनबी है। दूर से भी दूर है। अगर यह भाव, यह ज्ञान घटित हो जाए, तो फिर तुम अजनबी में भी मित्र को देख सकते हो। यदि मित्र अजनबी हो सकता है तो अजनबी भी मित्र हो सकता है।
      किसी अजनबी को देखो; उसे तुम्‍हारी भाषा नहीं आती है। वह तुम्‍हारे देश का नहीं है। तुम्‍हारे धर्म का नहीं है। तुम्‍हारे रंग का नहीं है। तुम गोरे हो और वह काला है। या तुम काले हो और वह गोरा है। भाषा के जरिए तुम्‍हारे और उसके बीच कोई संवाद संभव नहीं है। तुम्‍हारे और उसके पूजा स्‍थल भी एक नहीं है। राष्‍ट्र, धर्म, जाति, वर्ण, रंग—कहीं भी कोई समान भूमि नहीं है। वह बिलकुल अजनबी है। लेकिन उसकी आंखों में झांको, वहां एक ही मनुष्‍यता मिलेगी। वह समान भूमि है। उसके भीतर वहीं जीवन है जो तुममें है; वह समान भूमि है। और अस्‍तित्‍व भी वहीं है; वह तुम दोनों के मित्र होने का आधार है। तुम उसकी भाषा भले हीन समझो, लेकिन उसको तो समझ सकते हो। मौन से भी संवाद घटित होता है। उसकी आँखो में गहरे, झांकने भर से प्रकट हो सकता है।
      और अगर तुम गहरे देखना जान लो तो शत्रु भी तुम्‍हें धोखा नहीं दे सकता; तुम उसके भीतर मित्र को देख लोगे। वह यह नहीं सिद्ध कर सता कि वह तुम्‍हारा मित्र नहीं है। वह तुमसे कितना ही दूर हो, तुम्‍हारे पास ही है; क्‍योंकि तुम उसी अस्‍तित्‍व की धारा में हो, उसी नदी में हो, जिसमे वह है। तुम दोनों अस्‍तित्‍व के तल पर एक ही जमीन पर खड़े हो।
      और अगर वह भाव प्रगाढ़ हो तो एक वृक्ष भी तुमसे बहुत दूर नहीं है। तब एक पत्‍थर भी बहुत अगल नहीं है। एक पत्‍थर कितना अजनबी है। उसके साथ तुम्‍हारा कोई तालमेल नहीं है; उसके साथ संवाद की कोई संभावना नहीं है। लेकिन वहां भी वही अस्‍तित्‍व है; पत्‍थर का भी अस्‍तित्‍व है, वह भी अस्‍तित्‍व का अंश है। वह भी होने के जगत में भागीदार है। वह है। उसमें भी जीवन है। वह भी स्‍थान घेरता है; वह भी समय में जीता है। सूरज उसके लिए भी उगता है। जैसे तुम्‍हारे लिए उगता है। एक दिन वह नहीं था। जैसे तुम नहीं थे। और एक दिन जैसे तुम मर जाओगे। वह भी मर जाएगा। पत्‍थर भी एक दिन विदा
हो जाएगा।
      अस्‍तित्‍व में हम मिलते है; यह मिलन ही मित्रता है। व्‍यक्‍तित्‍व में हम भिन्‍न है, अभिव्‍यक्‍ति में हम भिन्‍न है; लेकिन तत्‍वत: हम एक ही है। अभिव्‍यक्‍ति में रूप में हम अजनबी है; उस तल पर हम एक दूसरे के कितने ही करीब आएं, लेकिन दूर ही रहेंगे। तुम पास-पास बैठ सकते हो, एक दूसरे को आलिंगन में ले सकत हो; लेकिन इससे ज्‍यादा निकट आने की संभावना नहीं है। जहां तक तुम्‍हारे बदलते व्‍यक्‍तित्‍व का संबंध है, तुम एक नहीं हो सकते हो। तुम कभी समान नहीं हो। तुम सदा भिन्‍न हो, अजनबी हो। उस तल पर तुम नहीं मिल सकते क्‍योंकि मिलने के पले ही तुम बदल जाते हो। मिलन की कोई संभावना नहीं है। जहां तक शरीर का संबंध है, मन का संबंध है, मिलन संभव नहीं है। क्‍योंकि इसके पहले कि तुम मिलो तुम वही नहीं रहते।
      क्‍या तुमने कभी ख्‍याल किया है। तुम्‍हें किसी के प्रति प्रेम उमगता है। गहन प्रेम तुम उस प्रेम से भर जाते हो; लेकिन जैसे ही तुम जाते हो और कहते हो कि मैं तुम्‍हें प्रेम करता हूं, वह प्रेम विलीन हो जाता है। क्‍या तुमने निरीक्षण किया है कि वह प्रेम अब नहीं रहा, उसकी स्‍मृति भर शेष है। अभी वह था और अभी वह नहीं है। तुमने उसे अभिव्‍यक्‍त किया, उसे प्रकट किया; यही तथ्‍य उसे परिवर्तन के जगत में ले आया। जब उसकी प्रतीति हुई थी, हो सकता है वह प्रेम तुम्‍हारे प्राणों का हिस्‍सा रहा हो; लेकिन जब तुम उसे अभिव्‍यक्‍त करते हो तो तुम उसे समय और परिवर्तन के जगत में ले आते है; अब वह सरित प्रवाह में प्रविष्‍ट हो रहा है। जब तुम कहते हो कि मैं तुम्‍हें करता हूं, तब तक शायद वह बिलकुल ही गायब हो चुका हो। यह बहुत कठिन है; लेकिन अगर तुम निरीक्षण करोगे तो यह तथ्‍य बन जाएगा।
      तब तुम देख सकते हो कि मित्र में अजनबी है और अजनबी ने मित्र है। और तब तुम असमानता के बीच समभाव रख सकते हो। परिधि पर तुम बदलते रहते हो, लेकिन केंद्र पर, प्राणों में वही बन रहते हो।
      मान और अपमान में......।
      कौन सम्‍मानित होता है। और कौन अपमानित होता है? तुम? कभी नहीं। जो सतत बदल रहा है और जो तुम नहीं हो, सिर्फ वहीं मान अपमान अनुभव करता है। कोई तुम्‍हारा सम्‍मान करता है। और अगर तुमने समझा कि यह व्‍यक्‍ति मेरा सम्‍मान कर रहा है। तो तुम कठिनाई में पड़ोगे। वह तुम्‍हें नहीं, तुम्‍हारी किसी खास अभिव्‍यक्‍ति को, किसी रूप विशेष को सम्‍मानित कर रहा है। वह तुम्‍हें कैसे जान सकता है? तुम स्‍वयं अपने को नहीं जानते हो। वह तुम्‍हारे सतत बदलते व्‍यक्‍तित्‍व के किसी रूप विशेष का सम्‍मान कर रहा हूं; वह तुम्‍हारी किसी अभिव्‍यक्‍ति का सम्‍मान कर रहा है। तुम दयावान हो, प्रेमपूर्ण हो; वह उसका सम्‍मान कर रहा है। लेकिन वह दया, वह प्रेम परिधि पर है। अगले क्षण तुम घृणा से भर सकते हो। हो सकता है फूल न रहें; कांटे ही कांटे हों। तुम इतने प्रसन्‍नन रहो; उदास और दुःखी होओ। तुम कठोर हो सकते हो, क्रोध में हो सकते हो। तब वह तुम्‍हारा अपमान करेगा। और हो सकता है। और दूसरे दिन साधु कर सकते है। आज वे तुम्‍हें महात्‍मा कह सकते है। और कल वे तुम्‍हारे खिलाफ हो सकते हो। तुम्‍हें पत्‍थर मार सकते है।  
      यह क्‍या है? वे तुम्‍हारी परिधि से परिचित होते है। वे कभी तुमसे परिचित नहीं होते। यह स्‍मरण रहे कि जो कुछ भी कह रहे है। वह तुम्‍हारे संबंध में नहीं है। तुम बाहर छूट जाते हो; तुम परे रह जाते हो। उसकी निंदा, उसकी प्रशंसा,वह जो भी करते है, उसका तुम्‍हारे साथ कोई भी संबंध नहीं है।
      गांव में एक लड़की गर्भवती हो गई। उसने अपने मां बाप से कहा कि उसके गर्भ के लिए यह साधु ही जिम्‍मेदार है। और सारा गांव उसके खिलाफ उठ खड़ा हुआ। लोग आए और उन्‍होंने उसके झोंपड़े में आग लगा दी। सुबह का समय था। और बड़ी सर्द सुबह थी—जाड़े की सुबह। उन्‍होंने नवजात शिशु को उस भिक्षु के ऊपर फेंक दिया। और लड़की के पिता ने भिक्षु से कहा: यह तुम्‍हारा बच्‍चा है; इसे सम्‍हालो। भिक्षु ने इतना ही कहा: ऐसा है क्‍या?’ और तभी बच्‍चा रोने लगा। तो भिक्षु भीड़ को भूल कर,बच्‍चे को सम्‍हालने लगा।
      भीड़ भिक्षु के झोंपड़े को जलाकर वापस लौट गई। इधर बच्‍चे को भूख लगी, लेकिन भिक्षु के पास दूध खरीदने के पैसे नही थे। तो वह नगर में बच्‍चे के लिए भीख मांगने गया। लेकिन अब उसे कौन भीख देता? वह जहां भी गया, लोगों ने अपने घरों के दरवाजे बंद कर लिए। सब जगह उसे निंदा और गालियां ही मिली।     
      आखिर में भिक्षु उसी घर के सामने पहुंचा जो उस बच्‍चे की मां का घर था। वह लड़की बहुत संताप में थी। तभी उसे बच्‍चे के रोने की आवाज सुनाई दी। वह द्वार पर खड़ा भिक्षु कह रहा था। मुझे मत दो, मैं पापी हूं, लेकिन यह बच्‍चा तो पापी नहीं है। इसके लिए थोड़ा दूध दे दरो। तब उस लड़की से नहीं रहा गया। उसने कबूल कर लिया कि बच्‍चे के असली पिता को छिपाने के लिए उसने इस भिक्षु का नाम लिया था। वह बिलकुल बेकसूर है।
      अब पूरा नगर फिर साधु के पास जमा हो गया। लोग उसके पैरों में गिरकर क्षमा मांगने लगे। और लड़की के पिता ने आकर भिक्षु से बच्‍चे को वापस ले लिया और आंसुओं से भरी आंखों से कहा: ऐसा है क्‍या? आपने सुबह ही इनकार क्‍यों नही किया? कि यह बच्‍चा आपका नहीं है। भिक्षु ने केवल इतना ही कहा कि ऐसा है क्‍या?’
      अगर तुम अनासक्‍त रहने का प्रयत्‍न करते हो तो तुम परिधि पर ही हो; तुम्‍हें अभी केंद्र का कुछ पता नहीं है। केंद्र अनासक्‍त है। वह सदा अनासक्‍त है। वह पार है; वह सदा अस्‍पर्शित है। नीचे कुछ भी घटे, यह केंद्र सदा अनछुआ ही रहता है। सदा कुंवारा ही रहता है।      
      तो परस्‍पर विरोधी स्‍थितियों में इस विधि का प्रयोग करो; और अपने भीतर उसे अनुभव करते चलो जो सदा समान है। जब कोई तुम्‍हारा अपमान करे तो अपने ध्‍यान को उस बिंदू पर ले जाओ जहां तुम सिर्फ उस आदमी को सुन रहे हो, बिना किसी प्रतिक्रिया के बस सुन रहे हो। यह अपमान की स्‍थिति है। फिर कोई तुम्‍हारा सम्‍मान कर रहा है। उसे भी सुनो, सिर्फ सुनो। निंदा-प्रशंसा, मान-अपमान, सब में सिर्फ सुनो। तुम्‍हारी परिधि बेचैन होगी, उसे भी देखो। केवल देख बदलने की कोशिश मत करो। उसे देखो, और स्‍वयं केंद्र से जुड़े रहो। तब तुम्‍हें वह अनासक्‍ति उपलब्‍ध होगी जो आरोपित नहीं है। जो सहज है, स्‍वाभाविक है।
      और एक बार तुमने इस सहज अनासक्‍ति की प्रतीति हो जाए तो फिर कुछ भी तुम्‍हें बेचैन नहीं कर सकेगा। तुम शांत बने रहोगे। संसार में कुछ भी होगा तुम अकंप बने रहोगे। तब कोई तुम्‍हारी हत्‍या भी करेगा तो सिर्फ शरीर ही स्‍पर्श करेगा। तुम अस्पर्शित रहोगे। तुम सबके पार रहोगे। और  यह पार रहना ही तुम्‍हें अस्‍तित्‍व में प्रवेश देगा। वह पार रहना ही तुम्‍हें आनंद से, शाश्‍वत से, सत्‍य में प्रतिष्‍ठित करेगा।
      शंकर कहते है कि मैं उस व्‍यक्‍ति को संन्‍यासी कहता हूं, जो जानता है कि क्‍या अनित्‍य है और क्‍या नित्‍य है। क्‍या चलायमान है और क्‍या अचल है। भारतीय दर्शन इसे ही विवेक कहता है। परिवर्तन और सनातन की पहचान ही विवेक है, बोध है।
      तुम जो कुछ भी कर रहे हो, उसमे इस सूत्र का प्रयोग बड़ी गहराई के साथ और बड़ी सरलता के साथ किया जा सकता है। तुम्‍हें भूख लगी है; इसमे दोनों स्‍थितियों को स्‍मरण रखो। भूख की प्रतीति परिधि को होती है। क्‍योंकि परिधि को ही भोजन की जरूरत है। ईंधन की जरूरत है। तुम्‍हें भोजन की कोई जरूरत नहीं है; तुम्‍हें ईंधन की कोई जरूरत नहीं है। यह शरीर की जरूरत है।
      स्‍मरण रहे, जब भी भूख लगती है। शरीर को लगती है। तुम बस उसके जानने वाल हो। अगर तुम नहीं होते तो भूख नहीं जानी जा सकती है। और अगर शरीर नहीं होता तो भूख नहीं होती। शरीर को भूख तो लग सकती है, लेकिन उसे उसका ज्ञान नहीं हो सकता है। और तुम जानते तो हो, लेकिन तुम्‍हें भूख नहीं लगती।
      तो कभी मत कहो कि मुझे भूख लगी है। सदा यही कहो,और महसूस करने का प्रयास करो की किसे भूख लगी है। उपवास की विधि ध्‍यानी के यही स्‍थिति उत्‍पन्‍न करता है। की मेरा शरीर भूखा है। अपने जानने पर जोर दो। यह विवेक है। तुम बूढ़े हो, कभी मत कहो कि मैं बूढ़ा हूं, इतना ही कहो कि यह शरीर बूढा हो गया है। और तब मृत्‍यु के क्षण में तुम जान सकोगे की मैं नहीं मर रहा। यह शरीर मर रहा है। मैं केवल शरीर बदल रहा हूं। घर बदल रहा हूं। और अगर यह विवेक प्रगाढ़ हो तो किसी दिन अचानक बुद्धत्‍व घटित हो जाएगा।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग-तीन
प्रवचन-41

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें