जैसे
मुर्गी अपने
बच्चों का
पालन-पोषण
करती है, वैसे ही
यथार्थ में
विशेष ज्ञान
और विशेष कृत्य
का पालन-पोषण
करो।
इस विधि में
मूलभूत बात
है: ‘यथार्थ
में।’ तुम भी बहुत
चीजों का पालन
पोषण करते हो;
लेकिन सपने
में, सत्य में
नहीं। तुम भी
बहुत कुछ करते
हो; लेकिन सपने
में सत्य में
नहीं। सपनों
को पोषण देना
छोड़ दो। सपनों
को बढ़ने में
सहयोग मत दो।
सपनों को अपनी
ऊर्जा मत दो।
सभी सपनों से
अपने को पृथक
कर लो।
यह कठिन
होगा, क्योंकि
सपनों में
तुम्हारे न्यस्त
स्वार्थ है।
अगर तुम अपने
को अचानक
सपनों से बिलकुल
अलग कर लोगे
तो तुम्हें
लगेगा कि मैं
डूब रहा हूं,
मैं मर रहा
हूं। क्योंकि
तुम हमेशा स्थगित
सपनों में
रहते आए हो।
तुम कभी यहां
और अभी नहीं
रहे; तुम सदा
कहीं और रहते
आए हो। तुम
आशा करते रहे हो।
क्या
तुमने पंडोरा
का डब्बा
यूनानी कहानी
सुनी है। किसी
आदमी ने बदला
लेने के लिए
पंडोरा के पास
एक डब्बा
भेजा। इस डब्बे
में से सब रोग
बंद थे जो अभी
मनुष्य जाति
के बीच फैले
है। वे रोग
उसके पहले
नहीं थे; जब वह डब्बा
खुला तो सभी
रोग बाहर निकल
आए। पंडोरा
रोगों को
देखकर डर गई
ओर उसने डब्बा
बंद कर दिया।
केवल एक रोग रह
गया। ओर वह थी
आशा। अन्यथा
आदमी समाप्त
हो गया होता; ये
सारे रोग उसे
मार डालते,
लेकिन आशा के
कारण वह जीवित
रहा।
तुम क्यों
जी रहे हो? क्या
तुमने कभी यह
प्रश्न पूछा
है? यहां और अभी
जीने के लिए
कुछ भी नहीं
है। सिर्फ आशा
है। तुम भी
पंडोरा का डब्बा
ढो रहे हो।
ठीक अभी तुम
क्यों जीवित
हो? हरेक सुबह
तुम क्यों
बिस्तर से उठ
रहे हो। क्यों
तुम रोज-रोज
फिर वही करते
हो जो कल किया
था? यह पुनरूक्ति
क्यों? कारण क्या
है?
मनुष्य
आशा में जीता
है। लेकिन यह
जीवन नहीं है।
अपने को ढोए
चला जाता है।
जब तक तुम यहां
और अभी नहीं
जीते हो, तुम जीवन
नहीं हो। तुम
एक मृत बोझ
हो। और वह कल तो
कभी आने वाला
नहीं है। जब
तुम्हारी सब
आशाएं पूरी हो
जाएंगी। और जब
मृत्यु आएगी
तो तुम्हें
पता चलेगा कि
अब कोई कल
नहीं है, और अब स्थगित
करने का भी
उपाय नहीं है।
तब तुम्हारा
भ्रम टूटेगा; तब
तुम्हें
लगेगा कि यह
धोखा था।
लेकिन किसी
दूसरे ने तुम्हें
धोखा नहीं
दिया। अपनी
दुर्गति के
लिए तुम स्वयं
जिम्मेदार
हो।
इस क्षण
में, वर्तमान
में जीने की
चेष्टा करो
और आशाएं मत
पालो—चाहे वे
किसी भी ढंग
की हों। वे
लौकिक हो सकती
है, पारलौकिक
हो सकती है।
इससे कुछ फर्क
नहीं पड़ता
है। वे
धार्मिक हो
सकती है। किसी
भविष्य में,किसी
दूसरे लोक में,
स्वर्ग में, मृत्यु के
बाद,
निर्वाण में; लेकिन इससे
कोई फर्क नही
पड़ता। तुम
कोई आशा मत
करो। यदि तुम्हें
थोड़ी
निराशा भी
अनुभव हो,
तो भी यही रहो।
यहां और इसी
क्षण से मत
हटो। हटो ही
मत। दुःख सह
लो, लेकिन
आशा को मत
प्रवेश करने
दो। आशा के
द्वारा स्वप्न
प्रवेश करते
है। निराशा
रहो। अगर जीवन
में निराशा है
तो निराशा
रहो। निराशा
को स्वीकार
करो। लेकिन
भविष्य में
होनेवाली
किसी घटना का
सहारा मत लो।
और
तब अचानक
बदलाहट होगी।
जब तुम
वर्तमान में ठहर
जाते हो तो
सपने भी ठहर
जाते है। तब
वे नहीं उठ
सकते, क्योंकि
उनका स्त्रोत
ही बद हो जाता
है। सपने उठते
है। क्योंकि
तुम उन्हें
सहयोग देते
हो। तुम उन्हें
पोषण देते हो।
सहयोग मत दो; पोषण मत दो।
यह
सूत्र कहता
है: ‘विशेष ज्ञान
का पालन-पोषण
करो।’
विशेष
ज्ञान क्या
है? तुम भी पोषण
देते हो; लेकिन तुम
विशेष
सिद्धांतों
को पोषण देते
हो। ज्ञान को
नहीं। तुम
विशेष शास्त्रों
को पोषण देते
हो, ज्ञान को
नहीं। तुम
विशेष
मतवादों को, दर्शन
शास्त्रों को,
विचार-पद्धतियों
को पोषण देते
हो। लेकिन विशेष
ज्ञान को कभी
पोषण नहीं
देते। यह
सूत्र कहता है
कि उन्हें
हटाओं, दूर करो,
शास्त्र और
सिद्धांत
किसी काम के
नहीं है। अपना
अनुभवप्राप्त
करो जो
प्रामाणिक हो;
अपना ही ज्ञान
हासिल करो, और
उसे पोषण दो।
कितना भी छोटा
हो, प्रामाणिक
अनुभव असली
बात है। तुम
उस पर अपने
जीवन को आधार
रख सकते हो।
वे जैसे भी हो, जो
भी हो। सदा
प्रामाणिक
अनुभवों की
चिंता लो जो
तुमने स्वयं
जाने है। क्या
तुमने स्वयं
कुछ जाना है?
तुम बहुत
कुछ जानते हो;
लेकिन तुम्हारा
सब जानना उधार
है। किसी से तुमने
सुना है; किसी ने
तुम्हें
दिया है।
शिक्षकों ने,
मां-बाप ने,
समाज ने, तुम्हें
संस्कारित
किया है। तुम
ईश्वर के
बारे में
जानते हो,
तुम प्रेम के
बारे में
जानते हो, तुम
प्रेम के
संबंध में
जानते है,
तुम ध्यान को
जानते हो।
लेकिन तुम
यथार्थत: कुछ
भी नहीं
जानते। तुमने
इनमें से किसी
का स्वाद
नहीं लिया है।
यह सब उधार
है। किसी
दूसरे ने स्वाद
लिया है; स्वाद
तुम्हारा
निजी नहीं है।
किसी दूसरे ने
देखा है; तुम्हारी
भी आंखें है।
लेकिन तुमने
उनका उपयोग नहीं
किया है। किसी
ने अनुभव किसा—किसी
बुद्ध ने,
किसी जीसस ने—और
तुम उनका
ज्ञान उधार
लिए बैठे हो।
उधार ज्ञान
झूठा है। और
वह तुम्हारे
काम का नहीं
है। उधार
ज्ञान अज्ञान
से भी खतरनाक
है। क्योंकि
अज्ञान तुम्हारा
है, और ज्ञान
उधार है। इससे
तो अज्ञानी
रहना बेहतर
है। कम से कम
तुम्हारा तो
है।
प्रामाणिक तो
है, सच्चा है,
ईमानदार है।
उधार ज्ञान मत
ढ़ोओ; अन्यथा
तुम भूल जाओगे
कि तुम
अज्ञानी हो; और
तुम अज्ञानी
के अज्ञानी
बने रहोगे। यह
सूत्र कहता
है: ‘विशेष
ज्ञान का
पालन-पोषण
करो।’
सदा ही
जानने की
कोशिश इस ढंग
से करो कि वह
सीधा हो, सच हो, प्रत्यक्ष
हो। कोई विश्वास
मत पकड़ो;विश्वास
तुम्हें
भटका देगा।
अपने पर भरोसा
करो। श्रद्धा
करो। और अगर
तुम अपने पर
ही श्रद्धा
नहीं कर सकते
तो किसी दूसरे
पर कैसे
श्रद्धा कर
सकते हो?
सारिपुत्र
बुद्ध के पास
आया और उसने
कहा: ‘मैं
आपमें विश्वास
करने के लिए
आया हूं;मैं
आ गया हूं।
मुझे आप में
श्रद्धा हो, इसमें मेरी
सहायता करें।’ बुद्ध ने
कहा: ‘अगर
तुम्हें स्वयं
में श्रद्धा
नहीं है तो
मुझमें
श्रद्धा कैसे
करोगे?
मुझे भूल जाओ।
पहले स्वयं
में श्रद्धा
करो; तो ही
तुम्हें
किसी दूसरे
में श्रद्धा
होगी।’
यह
स्मरण रहे,
अगर तुम्हें
स्वयं में ही
श्रद्धा नहीं
है। तो किसी
में भी श्रद्धा
नहीं हो सकती।
पहली श्रद्धा
सदा अपने में
होती है। तो
ही वह
प्रवाहित हो
सकती है। बह
सकती है। तो
ही वह दूसरों
तक पहुंच सकती
है। लेकिन अगर
तुम कुछ जानते
ही नहीं हो तो
अपने में
श्रद्धा कैसे
करोगे? अगर
तुम्हें कोई
अनुभव ही नहीं
है तो स्वयं
में श्रद्धा
कैसे होगी?
अपने में
श्रद्धा करो।
और मत सोचो कि
हम परमात्मा
को ही दूसरों
की आंखों से
देखते है;
साधारण
अनुभवों में
भी यही होता
है। कोशिश करो
कि साधारण
अनुभव भी तुम्हारे
अपने अनुभव
हों। वे तुम्हारे
विकास में
सहयोगी
होंगे। वे
तुम्हें
प्रौढ़ बनाएँगे।
वे तुम्हें
परिपक्वता
देंगे।
बडी
अजीब बात है
कि तुम दूसरों
की आँख से
देखते हो तुम
दूसरों की
जिंदगी से
जीते हो। तुम
गुलाब को
सुंदर कहते
हो। क्या यह
सच में ही
तुम्हारा
भाव है। या
तुमने दूसरों
से सुन रखा
है। कि गुलाब
सुंदर होता
है। क्या यह
तुम्हारा
जानना है?
क्या तुमने
जाना है?
तुम कहते हो
कि चाँदनी अच्छी
है, सुंदर
है। क्या यह
तुम्हारा
जानना है?
यह कवि इसके
गीत गाते रहे
है और तुम बस
उन्हें
दुहरा रहे हो?
अगर
तुम तोते जैसे
दुहरा रहे हो
तो तुम अपना
जीवन
प्रामाणिक
रूप से नहीं
जी सकते हो।
जब भी तुम कुछ
कहो, जब भी तुम
कुछ करो,
तो पहल अपने
भीतर जांच कर
लो कि क्या
यह मेरा अपना
जानना है?
मेरा अपना
अनुभव है। उस
सबको बाहर
फेंक दो जो
तुम्हारा
नहीं है;
वह कचरा है।
और सिर्फ उसको
ही मूल्य दो, पोषण दो,
जो तुम्हारा
है। उसके
द्वारा ही
तुम्हारा
विकास होगा।
‘यथार्थ
में विशेष
ज्ञान और
विशेष कृत्य
का पालन-पोषण
करो।’
यहां
यर्थाथ में,
को सदा स्मरण
रखो। कुछ करो।
क्या कभी
तुमने स्वयं
कुछ किया है।
या तुम केवल
दूसरों के
हुक्म बजाते
रहे हो?
केवल दूसरों
का अनुसरण
करते रहे हो, कहते है: ‘अपनी
पत्नी को
प्रेम करो।’ क्या
तुमने
यथार्थत: अपनी
पत्नी को
प्रेम किया है? या तुम
सिर्फ कर्तव्य
निभा रहे हो; क्योंकि
तुम्हें कहा
गया है,
सिखाया गया है
कि पत्नी को
प्रेम करो,
या मां को
प्रेम करो। या
पिता को प्रेम
करो। तुम्हारा
प्रेम भी
अनुकरण मात्र
है। क्या
तुमने कभी ऐसा
महसूस किया है
तुम और प्रेम साथ
थे। बिना किसी
विचार के या
संस्कार के।
क्या तुम्हारे
प्रेम में ऐसा
कभी हुआ है कि
तुम्हारे
प्रेम मे किसी
की सिखावन न
काम कर रही हो? क्या कभी
ऐसा हुआ है कि
तुम किसी का
अनुकरण नहीं
कर रहे हो। क्या
तुमने कभी
प्रामाणिक
रूप से प्रेम
किया है।
तुम
अपने को धोखा
दे रहे हो।
तुम कह सकते
हो कि हां
किया है।
लेकिन कुछ
कहने के पहले
ठीक से
निरीक्षण कर
लो। अगर तुमने
सचमुच प्रेम
किया होता तो
तुम
रूपांतरित हो
जाते; प्रेम
का यह विशेष
कृत्य ही
तुम्हें बदल
डालता। लेकिन
उसने तुम्हें
नहीं बदला। क्योंकि
तुम्हारा
प्रेम झूठा
है। और तुम्हारा
पूरा जीवन ही
झूठ हो गया
है। तुम ऐसे
काम किए जाते
हो जो तुम्हारे
अपने नहीं है।
कुछ करो जो
तुम्हारा
अपना हो;
और उसका पोषण
करो।
बुद्ध
बहुत अच्छे
है; लेकिन तुम
उनका अनुसरण
नहीं कर सकते।
जीसस बहुत,
महावीर बहुत
अच्छे है,
लेकिन तुम
उनका अनुसरण
नहीं कर सकते
हो। और अगर
तुम अनुसरण
करोगे तो तुम
कुरूप हो
जाओगे। तुम
कार्बन कापी
हो जाओगे। तब
तुम झूठे हो
जाओगे। और अस्तित्व
तुम्हें स्वीकार
नहीं करेगा।
वहां कुछ भी
झूठ स्वीकार
नहीं है।
बुद्ध
को प्रेम करो,
जीसस को प्रेम
करो; लेकिन
उनकी कार्बन
कापी मत बनो।
नकल मत करो। सदा
अपनी निजता को
अपने ढंग से
खिलनें दो।
तुम किसी दिन
बुद्ध जैसे हो
जाओगे;
लेकिन मार्ग
बुनियादी तौर
पर तुम्हारा
अपना होगा।
किसी दिन तुम
जीसस जैसे हो
सकते हो।
लेकिन तुम्हारा
यात्रा-पथ
भिन्न होगा।
तुम्हारे
अनुभव भिन्न
होगे। एक बात
पक्की है। जो
भी मार्ग हो, जो भी अनुभव
हो, वह
प्रामाणिक
होना चाहिए।
असली होना
चाहिए। तुम्हारा
होना चाहिए।
तब तुम किसी
ने किसी दिन
पहुंच जाओगे।
असत्य
से तुम सत्य
तक नहीं पहूंच
सकते। असत्य
तुम्हें और
असत्य में ले
जाएगा। जब कुछ
करो तो भली
भांति स्मरण
करो कि यह
तुम्हारा
अपना कृत्य
हो, तुम खुद कर
रहे हो। किसी
का अनुकरण
नहीं कर रहे
हो। तो एक
छोटा सा कृत्य
भी, एक
मुस्कुराहट
भी सतोरी का, समाधि का स्त्रोत
बन सकती है।
तुम
अपने घर लौटते
हो और बच्चों
को देखकर मुस्कराते
हो। यह मुस्कुराहट
झूठी है। तुम
अभिनय कर रहे
हो। तुम इसलिए
मुस्कराते हो
क्योंकि मुस्कराना
चाहिए। यह ऊपर
से चिपकायी गई
मुस्कुराहट
है। यह मुस्कुराहट
कृत्रिम है,
यांत्रिक है।
और तुम इसके
इतने अभ्यस्त
हो चुके हो कि
तुम बिलकुल
भूल ही गये हो
सच्ची मुस्कुराहट
क्या है। तुम
हंस सकते हो।
लेकिन संभव है
वह हंसी तुम्हारे
केंद्र से न आ
रही हो।
सदा
ध्यान रखो कि
तुम जो कर रहे
हो उसमें तुम्हारा
केंद्र सम्मिलित
है या नहीं।
अगर तुम्हारा
केंद्र उस
कृत्य मे सम्मिलित
नहीं है तो
बेहतर है कि
उस कृत्य को
न करो। उसे
बिलकुल भूल
जाओ। कोई तुम्हें
कुछ करने के
लिए मजबूर
नहीं कर रहा
है। बिलकुल मत
करो। अपनी
उर्जा को उस
घड़ी के लिए
बचा कर रखो जब
कोई सच्चा
भाव तुम्हारे
भीतर उठे। और
तब तुम उस में डूब
कर उसे करो।
यो ही मत मुस्कुराओ;
उर्जा को
बचाकर रखो।
मुस्कुराहट
आएगी, जो
तुम्हें
पूरा का पूरा
बदल देगी। वह
समग्र मुस्कुराहट
होगी। तब तुम्हारे
शरीर की एक-एक
कोशिका मुस्कुराएगी।
तब वह विस्फोट
होगा,
अभिनय नहीं
होगा।
और
बच्चे जानते
है, तुम उन्हें
धोखा नहीं दे
सकते हो। और
जब तुम उन्हें
धोखा दे सको, समझ लेना वे
बच्चे नहीं
रहे। वे जानते
है कि कब तुम्हारी
मुस्कुराहट
झूठी होती है।
वे झट ताड़
लेते है। वे जानते
है कि कब तुम्हारे
आंसू झूठे है।
तुम्हारी हंसी
झूठी है। ये
छोटे-छोटे
कृत्य है,
लेकिन तुम
छोटे-छोटे
कृत्यों से
ही बने हो।
किसी बड़े
कृत्य की मत
सोचो; मत
सोचो कि किसी
बड़े कृत्य
में सच्चाई
बरतूंगा। अगर
तुम छोटी-छोटी
चीजों में झूठे
हो तो तुम सदा
झूठे ही
रहोगे। बड़ी चीजों
में झूठ होना
तो और भी सरल
है।
पर
यह सब झूठा
है। थोड़ी कल्पना
करो। कि अगर
समाज की दृष्टि
बदल जाए तो क्या
होगा। ऐसी ही
बदलाहट जब
सोवियत रूस
में या चीन
में हुई तो
तुरंत
साधु-महात्मा
वहां से विदा हो
गये। अस वहां
उनके लिए कोई
आदर नहीं है।
मुझे
याद आता है कि
मेरे एक मित्र,
जो बौद्ध
भिक्षु है,
स्टैलिन के
दिनों में
सोवियत रूप
गये थे। उन्होंने
लौटकर मुझे
बताया कि वहां
जब भी कोई व्यक्ति
उससे हाथ
मिलाता था तो
तुरंत झिझक कर
पीछे हट जाता
था। और कहता
था कि तुम्हारे
हाथ बुर्जआ है।
शोषण के हाथ
है।
उनके
हाथ सचमुच
सुंदर थे;
भिक्षु होकर
उन्हें काम
नहीं करना
पड़ता था। वे
फकीर थे,
शाही फकीर,उनका
श्रम से वास्ता
नहीं पडा था।
उनके हाथ बहुत
कोमल थे।
सुंदर कोमल और
स्त्रैण थे।
भारत में जब
कोई उनके हाथ
छूता तो कहता
कि कितने
सुंदर हाथ है।
लेकिन सोवियत
रूस में जब
कोई उनके हाथ
अपने हाथ में
लेता तो तुरंत
सिकुड़कर
पीछे हट जाता।
उसकी आंखों
में निंदा भर
जाती। और वह उन्हें
कहता कि तुम्हारे
हाथ बुर्जआ
है। शोषक के
हाथ है। वे
वापस आकर
मुझसे बोले कि
मैंने इतना
निंदित महसूस
किया कि मेरा
मत होता है कि
मजदूर हो जाउं।
रूस
में
साधु-महात्मा
विदा हो गए;
क्योंकि आदर
न रहा। सब
साधुता
दिखावटी थी।
प्रदर्शन की
चीज थी। आज रूस
में केवल सच्चा
संत ही संत हो
सकता हे। झूठे
नकली संतों के
लिए वहां कोई
गुंजाइश नही
है। आज तो
वहां संत होने
के लिए भारी
संघर्ष करना
पड़ेगा। क्योंकि
सारा समाज
विरोध में
होगा। भारत
में तो जीने
का सबसे सुगम
ढंग साधु-महात्मा
होना है। सब
लोग आदर देते
है। यहां तुम
झूठे हो सकते
हो। क्योंकि
उसमे लाभ ही
लाभ है।
तो
इसे स्मरण
रखो। सुबह से
ही, जैसे ही तुम
आँख खोलते हो,सिर्फ सच्चे
और प्रामाणिक
होने की चेष्टा
करो। ऐसा कुछ
मत करो जो झूठ
और नकली हो।
सिर्फ सात दिन
के लिए यह स्मरण
बना रहे कि
कुछ भी झूठ और
नकली हो। कुछ
भी अप्रमाणिक
नहीं करना है।
जो भी गंवाना
पड़े जो भी
खोना पड़े खो
जाएं। जो भी
होना हो,
हो जाए;लेकिन
सच्चे बने
रहो। और सात
दिन के भीतर
नए जीवन का
उन्मेष
अनुभव होने
लगेगा। तुम्हारी
मृत पर्तें
टूटने
लगेंगी। और
नयी जीवंत
धारा
प्रवाहित
होने लगेगी।
तुम पहली बार
पुनजींवन
अनुभव करोगे।
फिर से जीवित हो
उठोगे।
कृत्य
का पोषण करो,
ज्ञान का पोषण
करो—यथार्थ
में, स्वप्न
में नहीं। जो
भी करना चाहो
करो। लेकिन ध्यान
रखो कि यह काम
सच में मैं कर
रहा हूं। या
मेरे द्वारा
मेरे मां बाप
कर रहे है?
क्योंकि कब
के जा चुके
मरे हुए लोग, मृत
माता-पिता,
समाज,
पुरानी पीढ़ियाँ, सब तुम्हारे
भीतर अभी
सक्रिय है।
उन्होंने
तुम्हारे
भीतर ऐसे संस्कार
भर दिए है कि
तुम अब भी
उनको ही पूरा
करने में लगे
हो। तुम्हारे
मां-बाप अपने
मृत मां-बाप
को पूरा करते
रहे और तुम
अपने मृत मां
बाप को पूरा
करने मे लगे
हो। और आश्चर्य
कि कोई भी
पूरा नहीं हो
रहा है। तुम
उसे कैसे पूरा
कर सकते हो जो
मर चूका है।
लेकिन मुर्दे
ये सब मुर्दे
तुम्हारे
बीच जी रहे
है।
जब
भी तुम कुछ
करो तो सदा
निरीक्षण करो
कि यह मेरे माध्यम
से मेरे पिता
कर
रहे
है। या मैं कर
रहा हूं। जब
तुम्हें
क्रोध आए तो
ध्यान दो कि
यह मेरा क्रोध
है या इसी ढंग
से मेरे पिता
क्रोध किया
करते थे जिसे-जिसे
में दोहरा भर
रहा हूं।
मैंने
देखा है कि
पीढ़ी दर
पीढ़ी वही
सिलसिला चलता
रहता है।
पुराने ढंग
ढांचे
दोहराते रहते
है। अगर तुम
विवाह करते हो
तो वह विवाह
करीब-करीब
वैसा ही होगा
जैसा तुम्हारे
मां-बाप ने
किया था। तुम
अपने पिता की
भांति व्यवहार
करोगे। तुम्हारी
पत्नी अपनी
मां की भांति
व्यवहार
करेगी। और
दोनों मिलकर
वही सब उपद्रव
करोगे जो उन्होने
किया था।
जब
क्रोध आए तो
गौर से देखो
कि मैं क्रोध
कर रहा हूं या
कि कोई दूसरा
व्यक्ति
क्रोध कर रहा
है रहे है। या
मैं कर रहा
हूं। जब तुम
प्रेम करो तो
याद रखो; तुम
ही प्रेम कर
रहे हो या कोई
और, जब तुम
कुछ बोलों तो
देखो कि मैं
बोल रहा हूं
या मेरा
शिक्षक बोल
रहा है। जब
तुम कोई
भाव-भंगिमा
बनाओ तो देखो
कि यह तुम्हारी
भंगिमा है या
कोई दूसरा ही
वहां है।
यह
कठिन होगा;
लेकिन यही
साधना है,
यही आध्यात्मिक
साधना है। और
सारे झूठों को
विदा करो।
थोड़े समय के
लिए तुम्हें
सुस्ती
पकड़ेगी,
उदासी घेरेंगी; क्योंकि
तुम्हारे
झूठ गिर
जाएंगे। और
सत्य को आने
में और प्रतिष्ठित
होने में
थोड़ा समय
लगेगा।
अंतराल का एक
समय होगा;
उस समय को भी
आने दो। भयभीत
मत होओ। आतंकित
मत होओ।
देर-अबेर तुम्हारे
मुखौटे गिर
जाएंगे। तुम्हारा
झूठा व्यक्तित्व
विलीन हो
जाएगा। और उसकी
जगह तुम्हारा
असली चेहरा
तुम्हारा
प्रामाणिक व्यक्तित्व
अस्तित्व
में आएगा। प्रकट
होगा। और उसी
प्रामाणिक व्यक्तित्व
से तुम ईश्वर
को साक्षात्कार
कर सकते हो।
इसलिए
यह सूत्र कहता
है: जैसे
मुर्गी अपने
बच्चों का
पालन पोषण
करती है। वैसे
ही यथार्थ में
विशेष ज्ञान
और विशेष कृत्य
का पालन-पोषण
करो।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र,
भाग-तीन
प्रवचन-45
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