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शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

(माई डायमंड डे विद ओशो--मां प्रेम शून्‍यों (अध्‍याय--02)

हीरा पाया बांठ गठियायों-(मा प्रेम शून्यो )-आत्म कथा 
ज्‍योतिर्मय अंधकार—(अध्‍याय—02)

       भारत में पूना के एक होटल में प्रथम रात्रि व्‍यतीत करने के बाद मैंने सत्‍य की खोज का परित्‍याग करने का निश्‍चय किया। यह होटल बाहर से देखने में अच्‍छा लग रहा था। मैं भारतीय हवाई-अड्डे और रेलवे स्‍टेशन के अपने प्रथम अनुभव के उपरान्‍त थकी-घबराई, कुछ डांवाडोल सी यहां पहुंची थी। स्‍टेशन किसी शरणार्थी शिविर जैसा लग रहा था। वहां प्‍लेटफार्म के ठीक मध्‍य में लोग अपने पूरे परिवार के साथ गठरियों पर सोये हुए थे। और दूसरे यात्री उनके उपर से; उनके आसपास से आ-जा रहे थे। लंगड़े-लूले व भूखे से पीड़ित लोग मेरी और टूट पड़े। भीख मांगने लगे और मुझे यूं घूरकर देखने लगे जैसे मुझे ही खा जाएंगे। कुली और टैक्‍सी ड्राइवर एक दूसरे पर चिल्‍ला रहे थे। हाथापाई कर रहे थे। एक दूसरे के मुंह पर घूंसे मार रहे थे। और सवारी लेने के लिए एक दूसरे का लगभग गला ही घोंट रहे थे। चारों और हजारों लोग-लोग, जनसंख्‍या विस्‍फोट।

      होटल में मेरे कमरे की दीवार पर एक बहुत ही घिनौना पपड़ीदार पीठ वाला-जीव था जिसे मैंने पहले कभी नहीं देखा था। वह तीन इंच लम्‍बा कॉकरोच था—तीन इंच लम्‍बा। वह उड़कर मेरी और आया और मैं इतने जौर से चिल्‍लाई कि लोग वहां भोग आये। मैं एक कॉकरोच को देखकर इतना उपद्रव मचा रही हूं, यह देखकर एक उनमें से व्‍यक्‍ति के चेहरे पर जो विस्‍मयपूर्ण भाव आया थ वह आज भी मुझे याद है। स्‍नान-गृह में मैने नल चलाया तो आश्‍चर्यचकित रह गई। सिंक में से पानी सीधा छपाक से मेरे पाँव पर गिरा। प्‍लम्‍बिंग का काम अधूरा छोड़ दिया गया था। सिंक को नाली से जोड़ने के लिए पाइप ही नहीं था। मैं स्‍वागत-डेस्‍क पर गई, मैनेजर को समझाने की कोशिश की कि क्या हुआ था। फिर उसे स्‍नान गृह ले गई और बिना पाइप का सिंक दिखाया। लेकिन उसे समझ ही न आ सका कि समस्‍या क्‍या है। और वैसे भी उसके पास और कोई कमरा खाली नहीं था।
      पलंग लोहे का था। जिसे कभी नीले पेंट किया गया था। उसके स्‍प्रिंग पलते गद्दे को लगभग भेद रहे थे। उसके ऊपर बुरी तरह फटी दो चादरें थी। जिन्‍हें काफी समय से बदला नही गया था। लेकिन सबसे बुरी बात थी कि मैंने दीवार पर एक बड़ा सा स्‍वास्‍तिक देखा। और समझा की वह खून से चित्रित है। उसे मैंने किसी तरह का काला जादू समझा। तब मुझे मालूम नहीं था। कि स्‍वास्‍तिक का उद्भव भारत में ही हुआ था। और यह शुभ का प्रतीक है। यह हिटलर था जिसने क्रास को उलटकर अनजाने में स्‍वास्‍तिक को अशुभ का प्रतीक बना दिया था। परन्‍तु यह खून से नहीं बल्‍कि एक प्रकार के पत्‍ते से रंगा गया था। जो चबाने पर लाल रंग देता है। चबाने पर इसका असर वैसा ही होता है जैसा तम्‍बाकू का। यहां लोग इसे बहुत खाते है। और जगह-जगह थूकते रहते है।
      रात बहुत हो चुकी थी और मैं बाहर सड़क के पागल कर देनेवाली भीड़ भड़क्‍के में नहीं जाना चाहती थी। इसलिए मैं पूरे कपड़े पहने सारी रात बिस्‍तर पर बैठी रही, उस पर सोने का साहस न जुटा पाई—और रोती रही।
      रेडियों पर भारतीय फ़िल्‍मों के ऊंचे स्‍वर में बजते संगीत ओर लोगों के चिल्‍लाने की आवाज़ सुन मैं सिलवटों से भरे बिस्‍तर से उठी। मैंने कहीं खुली धूप में थोड़े दिनों की छुट्टियाँ मना कर लन्‍दन लौट जाने का निश्‍चय किया। मेरे पास कुछ पुस्‍तकें थी जो मैंने ओशो के पुस्‍तकालय के लिए के लिए आश्रम में देनी थी। अत: मैने आश्रम जाने के लिए रिक्‍शा किया और वहीं से सीधा समुद्र तट पर जाने का विचार बनाया। जैसे ही मैंने रिक्‍शा से बाहर एक कदम रखा और ऊपर देखा तो पाया कि ऋषि वहां खड़ा है। यह वही व्‍यक्‍ति था जिसने स्‍वप्‍न में मुझे एक भेट दी थी। और उसके लिए मैं दो वर्षों से प्रयास कर रही थी। वह मुझे अपने घर ले गया, मुझे आराम करने के लिए बिस्‍तर दिया। मैं वहां एक सप्‍ताह रुकी। अब मैं तैयार थी।    
      मैंने हिन्‍दी प्रवचनों में जाना प्रारम्‍भ किया। ओशो हर सुबह प्रवचन दिया करते थे। एक माह हिन्‍दी में और एक माह अंग्रेजी में। यह महीना हिन्‍दी प्रवचनों का था। उस वक्‍त मेरे पास वे आंखें नहीं थी; जो ओशो की गरिमा व सौंदर्य को देख सकें। लेकिन निश्‍चित ही मुझे कुछ अनुभव जरूर हो रहा था। गुरु चेतना के ऐसे तल पर होता है कि साधारण व्‍यक्‍ति प्रारम्‍भ में उसे समझ नहीं पाता। यह व्‍यक्‍ति का यह अप्रकट रहस्‍यमय रूप होता है। जो गुह्म रहस्‍यों को अनुभव करने की क्षमता रखता है, और यही अनुभव क्षमता उसे किसी तरह गुरु के पास ले जाती है। और उसे पहचानने में सहायक होती है।
      दो घंटे संगमरमर के फ़र्श पर बैठकर उस भाषा को सुनना जिसे आप समझते न हो। कुछ मुर्खतापूर्ण लगता है। लेकिन च्‍वांगत्‍सु सभागार-स्‍तम्‍भों पर टिकी बहुत ऊंची छत—हरे भरे वे मोहक उद्यान से जुड़ा—एक विशिष्‍ट स्‍थान था। हिन्‍दी बोलते हुए ओशो की वाणी में ऐसा मधुर संगीत था, जो मैने पहले कभी नहीं सुना था। मैं हिन्‍दी प्रवचन कभी न चूकती, वे मुझे अंग्रेजी प्रवचनों से भी अधिक पसन्‍द थे।
      वर्षा ऋतु में लोग बहुत कम होते—कई बार लगभग सौ व्‍यक्‍ति ही होते। जब मूसलाधार वर्षा आस पास के उपवन पर पड़ रही होती,उस समय ध्‍यान में डूब जाना अत्‍यंत सहज होता है। और पता भी नहीं चलता। दो घंटे पश्‍चात प्रवचन ‘’आज इतना ही’’, इन शब्‍दों के साथ समाप्‍त होता और मैं सोचती, अरे नहीं, मैं अभी तो बैठी थी। वहां बैठे मुझे इतनी उर्जा का अनुभव होता कि लगता की मैं पूरे सभागार में फेल गई हूं। जंगली घोड़े की तरह गर्दन पीछे फेंके, अयाल उड़ाते सरपट भागते पूरे सभागार में मैं ही हूं। और जब तक मैं स्‍थिर हो शान्‍त बैठती अन्‍तिम शब्‍द बोले जा रहे होते। प्रवचन के अंत में ओशो हमेशा अपनी आवाज इस तरह से धीमी कर देते जैसे कि किसी को हौले से किनारे से विस्‍मृत के गर्त में सरका दिया हो।
      ओशो की सन्निधि में समय अपना अर्थ खो देता है, दो घंटे दो पल हो जाते है।
      में अत्‍यंत जीवंत महसूस कर रही थी। मुझे ऐसा अनुभव हो रहा था जैसे ओशो ने मुझे नया जीवन दे दिया हो। जी तो मैं पहले भी रही थी—शरीर में मैं अपने—आप में प्रसन्‍न थी; लेकिन अब मैं स्‍वयं में एक गुणात्‍मक भेद अनुभव कर रही थी।
      प्रथम कुछ दिनों में प्रवचन के बाद मेरे साथ एक विचित्र घटना घटती: मैं सभागार से भागकर सीधी स्‍नान गृह की और जाती। और वमन करती थी।
      शेष पूरा दिन मैं बिलकुल ठीक रहती: लेकिन अगली सुबह फिर वही होता। मैं कुछ भी नहीं कर पा रही थी। प्रवचन में जाना मैं बंद नहीं कर सकती थी क्‍योंकि उसमें मुझे रस आ रहा था। ओशो को मैं लिख नहीं सकती थी कि प्‍यारे सदगुरू आपके प्रवचनों से मुझे वमन होती है। अत: मैं हर सुबह स्‍नान गृह जाती और वमन करती।
      मितली आना बंद हुआ तो रोना प्रारम्‍भ हो गया। हर सुबह मैं तेज़ी से सभागार से निकलती, आश्रम के उद्यान में किसी एकांत में झाड़ियों की झुरमुट की और बढ़ती और झाड़ियों के बीच सरकार इतना रोती कि आंखे सूज जाती। कई बार तो मैं दोपहर का भोजन के समय तक सिसकती रहती। ऐसा महीनों तक जारी रहा। मुझे समझ में ही न आता कि मैं रो क्‍यों रही हूं। यह अनुभव उदासी जैसा न था, अपितु विस्‍मय के अतिरेक जैसा था।
      निश्‍चित ही आरम्‍भ में शरीर ध्‍यान के प्रति तीव्र प्रतिक्रिया कर सकता है। ध्‍यान शिविरों में ध्‍यान करते हुए या सामूहिक ध्‍यान-प्रयोग करते हुए अगर हमें कोई बीमारी हो जाती तो चिकित्‍सक के पास जाने से पहले पाँच दिन प्रतीक्षा करने की सलाह दी जाती थी। ये रोग हमेशा बदल जाते और बिना दवा के ही तिरोहित हो जाते; क्‍योंकि मौलिक रूप से वे मन की उपज थे। यह बिल्‍कुल स्‍पष्‍ट हो गया कि मन और शरीर इस प्रकार जुड़े हुए है यदि यह बात समझ में आ जाए तो व्‍यक्‍ति बहुत से रोगों से बच सकता है।
      जैसे ही एक महीना बीतता—जिसका पता प्रवचनों के हिन्‍दी और अंग्रेजी में बदलने पर ही लगता था। मैं आश्‍चर्यचकित रह जाती। कि मैं अब भी पूना में ओशो के साथ हूं। हालांकि मैं हमेशा के लिए यहां, आ गई थी। लेकिन मुझे कुछ स्‍पष्‍ट नहीं था। कि यह सब कैसे होगा। ऋषि इन दिनों अपनी आध्‍यात्‍मिक यात्रा को बहुत गम्‍भीरता से ले रहा था। वह ब्रह्मचर्य का पालन कर रहा था। और केवल चावल खाता था। इसलिए प्रथम सप्‍ताह मेरी देखभाल करने के बाद उसने मुझे अपना इंतजाम करने को कहा दिया।
      संन्‍यासिन बनने के बाद मैंने पाया कि पुरूष संन्‍यासी बहुत कोमल और स्‍त्रैण थे। मैंने सोचा, यदि मैं इस रहा पर चल पड़ती हूं तो स्‍पष्‍ट है कि मेरा प्रेम जीवन समाप्‍त हो जाएगा। परंतु मैंने इसकी परवाह नहीं की। मैंने सोचा कि उनतीस वर्ष के जीवन में मैंने बहुत कुछ कर लिया है। तथापि एक सुबह गन्‍ने का रस पीने के लिए कैफ़े डिलाईट जाते समय मेरी मुलाकात एक लम्‍बे, छरहरा, सुनहरे, बालों वाले ब्रिटिश नवयुवक से हुई—उसका नाम था—प्रबुद्ध। मैं उसके ‘’प्रेम में पड़ गई’’ हम दोनों एक ही होटल में ठहरे हुए थे। एक सप्‍ताह बाद हमने सोचा कि क्‍यों ने हम एक ही कमरे में रहे। क्‍योंकि यह सस्‍ता पड़ेगा। यह होटल इतना बुरा नहीं था। जितना वह होटल था जिसमे मैं पहली बार ठहरी थी। लेकिन कॉकरोच, बदबूदार स्‍नान गृह और रात्रि में शोर यहां भी था। यह वर्ष का अत्‍यधिक गरम समय था और बिजली लगातार जाती रहती थी। लेकिन मैं जीवन में इतनी आनन्‍दित पहले कभी नहीं थी।
      प्रत्‍येक रात्रि ओशो अपने भवन के बरामदे में जहां से उद्यान दिखाई देता था—लगभग बाहर से पन्‍द्रह शिष्‍यों को मिलते थे। इसे दर्शन कहा जाता था। इस आत्‍मीय वातावरण में वे नए लोगों से मिलते और उन्‍हें ध्‍यान में कोई कठिनाई आती या पश्‍चिम से आए लोगों को—जिन्‍हें निजी प्रेम संम्बधों में अड़चनें आती, उन्‍हें परामर्श देते थे। जब मेरा नाम पुकारा गया तो मैं लक्ष्‍मी की बगल में बैठी थी। जो एक छोटे से कद की भारतीय महिला थी। ओशो की निजी सचिव थी।
      मुझे स्‍मरण नहीं की ओशो कब वहां आए। मैं उनकी ऊर्जा के प्रभाव में थी। उसने मुझे शीतल कोहरे की भांति चारों और से घेर लिया था। मेरा सिर चकरा रहा था। उनकी आंखों में एक अद्भुत प्रकाश था। उनकी मुद्राओं में एक अलग ही गरिमा थी जिसे मैंने पहले कभी नहीं देखा था, और उनमें एक ऐसी प्रभावशाली सौम्‍यता थी, जिसका बोध मुझे उनके प्रवचनों में बैठे नहीं हुआ था। मैं उनके सामने बैठी थी, कुछ भी बोलने में असमर्थ उन्‍होंने मेरे माथे पर टॉर्च की रोशनी डाली, मुझे रात्रि में करने के लिए एक ध्‍यान विधि बताई। और दो सप्‍ताह के बाद आकर मिलने को कहा। उन्‍होने कहा कि अभी बहुत कुछ प्रकट होने को है। प्रतीक्षा कर रही थी कि मेरे साथ सचमुच कुछ नाटकीय तथा आध्‍यात्‍मिक घटेगा, लेकिन मैंने पाया कि केवल प्रसन्‍नता ही हो रही थी। मैंने ओशो को बताया तो वे बोले:
      और प्रसन्‍नता आएगी,क्‍योंकि एक बार तुमने प्रसन्‍नता के लिए द्वार खोल दिए तो उसका कोई अंत नहीं है। एक बार तुमने अपने-आप को दुःख के लिए खोला तो वह बढ़ता ही चला जाएगा। यह तो बस अपने भीतर की और लौटना है, भीतर स्‍वर मिलाना है.....जैसे तुम रेडियों को किसी विशेष वेव लैंग्‍थ पर मिलाते हो। और किसी खास स्‍टेशन से सम्‍बन्‍ध स्‍थापित हो जाता है। ठीक वैसे ही अगर तुम अपने आप को प्रसन्‍नता से जोड़ने की चेष्‍टा करते हो तो तुम सम्‍पूर्ण प्रसन्‍नता के प्रति ग्रहणशील हो जाओगे। जो इस संसार में उपलब्‍ध है। और यह इतनी है कि कोई इसे नि: शेष नहीं कर सकता। यह महासागर की भांति है.....विशाल। इसका न कोई आदि है, न कोई अंत। और ऐसा ही दुःख के साथ भी है, वह भी अंतहीन है।
      उन्‍होंने कहा कि एक बार तुम प्रसन्‍नता की और उन्‍मुख होने की कला जान जाओ तो यह अनुभूति तब तक गहरी और गहरी होती चली जाएगी और वह घड़ी आ जाएगी जब तुम भूल ही जाओगे कि दुःख का भी कोई आस्‍तित्‍व होता है।
      मुझे स्‍वप्‍न आया कि मैं नीचे गिर रही हूं। और जैसे ही मैं (तेजी से) नीचे-ही-नीचे लुढ़क रही थी। दो फैली बांहों ने मुझे संभाल लिया और वे ओशो थे।
      मेरी अपनी ही धारणा थी। कि ध्‍यान में हनीमून जैसा कुछ घटता है। क्‍योंकि जब मैं पहली बार ओशो के पास आई तो मुझे कई अनूठे अनुभव हुए। मेरे विचार में ऐसा इसलिए हुआ क्‍योंकि मेरी और अपेक्षा नहीं थी। और गुह्म रहस्‍यों के सम्‍बन्‍ध में मैं सर्वथा। एक सुबह ओशो के नजदीक बैठे हुए—सामने तो नहीं। लेकिन इतने करीब कि ओशो की आंखों से सम्‍पर्क स्‍थापित हो सके—मैंने महसूस किया कि एक उर्जा प्रवाह,आणविक छत्रक (अटॉमिक मशरूम) की भांति में मेरे शरीर के भीतर ऊपर की और उठ रहा है। और वक्षस्‍थल के आसपास पहुंचकर विस्फोटक हो रहा है। आनेवाले कुछ वर्षों तक मरा ह्रदय-केंद्र बहुत सी क्रियाओं का क्षेत्र बना रहा।
      मैंने जब पहली बार ओशो को साक्षी के बारे में बोलते सुना तो कुछ समझ नहीं आया। साक्षी को समझने के कुछ प्रथम प्रयासों के बाद मैंने पाया कि जब भी मैं ‘’होश पूर्ण’’ होने की कोशिश करती मेरी सांस रूक जाती। एक ही समय सांस लेना और बोधपूर्ण होना मेरे लिए सम्‍भव ने होता। शायद मैं कठिन प्रयास कर रही थी। और बहुत तनाव से भर जाती थी।
      मुझे समझ आने लगा था कि ओशो संस्‍कारों और मन के बारे में क्‍या कहा रह है। मन कम्‍प्‍यूटर की भांति है, जो माता-पिता, शिक्षक, टेलीविज़न द्वारा संस्‍कारित होता है। मेरा मन तो पॉप गीतों द्वारा संस्‍कारित था। इस सम् बन्धक में मैंने पहले कभी नहीं सोचा था, लेकिन अपने बोर में बहुत सी बातें मेरी पकड़ में आने लगी थी—जैसे की विभिन्‍न परिस्थतियों में मेरी प्रति क्रियाएं,मेरी धारणाएं...मेरा मत। जब मैं पुन: परीक्षण के लिए रुकती तो मुझे याद आता कि मेरे अध्‍यापक ने मुझे यह सिखाया था.....मेरी दादी-नानी का यह विचार था। मेरे पिता जी इस बात में विश्‍वास रखते थे। इन सब में मैं कहां हूं? स्‍वयं से पूछती।
      प्रवचन में बैठे हुए ओशो की आवाज़ सुनते हुए व शब्‍दों के बीच के ठहरावों को सुनते हुए ध्‍यान मुझे सहज ही घटता। मैं बैठती और उस लय को सुनती और बिना चेष्‍टा के ही ध्‍यान घट जाता।    
      प्रवचन मेरे लिए इतने महत्‍वपूर्ण हो गए थे कि मैं रात के समय अनेक बार नींद से जाग जाती और बिस्‍तर से उठकर जाने के लिए तैयार हो जाती। झाड़ियों में रोने का भावात्‍मक  विस्‍फोट शांत होने के बाद प्रवचन मेरे लिए पुष्‍टिदायक हो गए और दिन के शुभारम्‍भं के लिए अनिवार्य हो गए।
      मुझे यह स्‍वप्‍न दिखाई पड़ने लगा कि ओशो की मुद्राएं, उनके हाव-भाव उन सब लोगों से कितने भिन्‍न है। जिन्‍हें मैंने अब तक देखा था। कई बार मैं पूरे प्रवचन के दौरान उनके हाथों की निहारती अचल बैठी रहती। उनके हाथ ही हर चेष्‍टा ललित तथा काव्‍यात्‍मक थी और फिर भी उनमें एक ओज था। एक बल था। जिनमें से महाशक्‍ति नि: सृत होती थी। उनके बोलने का ढंग सम्‍मोहन था। लेकिन वे हमें सम्‍मोहित करते थे ध्‍यान करने के लिए। आध्‍यात्‍मिक मार्ग पर चलने के लिए। वे अपना हाथ हमारी और बढ़ाते, हमें इशारा करते मानों हम बच्‍चें हो। और चलना सीख रहे हों। वे हमें आश्‍वस्‍त करते और आगे बढ़ने के लिए पुकारते ही चले जाते।  
      वे हारे साथ हंसते, हमें कभी गम्‍भीर न होने के लिए कहते और बताते कि गम्‍भीरता एक रोग है और जीवन एक लीला है। जैसे ही वे हमारी और दृष्‍टि डालते, तत्‍क्षण यह अनुभव होता  जैसे कि उन्‍होंने हमें अपना लिया हो, हम विश्‍वासपात्र हो गए हों, हमे ऐसा प्‍यार मिलता जैसा पहले कभी न मिला था। मैं हम शब्‍द का प्रयोग इसलिए कर रही हूं क्‍योंकि वे सबके साथ थे। वे सब से एक-सा प्रेम व स्‍वयं प्रेम हों।
      उनकी करूणा ऐसी थी जो मैंने पहले कभी अनुभव नहीं की थी। में कभी किसी ऐसे व्‍यक्‍ति से नहीं मिली थी, जो अपनी लोकप्रियता को दांव पर लगाकर दूसरों की सहायता हेतु परिस्‍थिति के बारे में सत्‍य बोले।
      मैंने अपना एक सपना ओशो को पत्र में लिखकर भेजा। मैंने सोचा था कि यह एक सुंदर व रंगीन स्‍वप्‍न था। और मेरी इच्‍छा थी कि ओशो भी इसे देखे। मुझे उत्‍तर मिला, स्‍वप्‍न-स्‍वप्‍न ही होते है, अर्थहीन। मुझे बहुत क्रोध आया। आखिर क्‍या ऐसा नहीं था। कि मैं एक बहुत महत्‍वपूर्ण स्‍वप्‍न के कारण ही यहां थी। मैंने वर्षों से स्‍वप्‍नों के लिए एक डायरी लगाई हुई थी। और प्रत्‍येक स्‍वप्‍न के अर्थ को बहुत महत्‍वपूर्ण मानती थी। मैंने प्रवचन के लिए एक प्रश्‍न लिख भेजा कि आपने ऐसा क्‍योंकि कि स्‍वप्‍न अर्थहीन होते है। उनके उत्‍तर का एक अंश था, मैं इतना ही नहीं कर रहा कि स्‍वप्‍न–स्‍वप्‍न होते है। मेरा कहना है कि जो भी तुम देखते हो—जब तुम समझते हो कि तुम जाग रहे हो—वह भी एक स्‍वप्‍न है। वह स्‍वप्‍न जो तुम बंद आंखों से निद्रावस्‍था में देखते हो ओर वह स्‍वप्‍न जो तुम खुली आंखों से तथा कथित जाग्रतवस्‍था में देखते हो—दोनों स्‍वप्‍न है, दोनों अर्थहीन है।
      मुल्‍ला नसरूदीन एक सांझ एक नगर में प्रवेश कर रहा था कि रास्‍ते में उसे गोबर का ढेर पडा दिखाई दिया। वह थोड़ा सा झुका और गौर से देखने लगा और अपने को सम्बोधित करते हुए कहने लगा कि लगता तो वही है।
      वह थोड़ा सा और झुका सूंघा और बोला, गंध भी वैसी ही है। उसने सावधानी से अपने उंगली से उसे उठाया। और चखा। स्‍वाद भी वैसा ही है। शुक्र है मेरा पांव इसमें नहीं पडा।
      विश्लेषण से सतर्क रहो। ओशो ने चेताया।
      मुझे वास्तव में ठेस लगी—उन्‍होंने यह कैसे कह दिया कि मेरा जीवन ही अर्थहीन है। तो फिर मेरे स्‍वप्‍नों का अर्थ। क्‍या वे इसे थोड़े भद्र ढंग से नहीं कह सकते थे। में उनसे ऐसा कुछ नहीं पूछ रही थी जो भड़का है।
      लेकिन यद्यपि मैं अपने-आप को  आग में थोड़ा सा झुलसा हुआ महसूस कर रही थी। तो भी मुझमें इतनी समझ शेष थी कि अभी तक अस्‍तित्‍व के साथ मेरा वैसा तालमेल नहीं बैठा था जिसकी वे चर्चा कर रहे थे। में स्‍वयं को वैसा परिपूर्ण वे आनन्‍दित न पाती जैसे वे दिखते थे। तो सम्‍भव था कि मैं भ्रांति में होऊं कि मेरे जीवन का कोई अर्थ है। उनकी और देखने मात्र से यह समझ में आता कि सत्‍य कुछ और है। एक बहुत गहरा आयाम। कुछ ऐसा जो मैं उनमें तो देख पाती हूं,लेकिन अपने लिए समझ नहीं पाती हू। मैं यह उनकी आंखों में और उनके प्रत्‍येक कृत्‍य में देख सकती थी।
      अपने सम्‍बन्‍ध में जो मेरी गलत धारणा था, वह उन्‍होंने छीन ली और सत्‍य की खोज के लिए भीतर शेष रह गया एक खालीपन। महीने बीत गए। प्रबुद्ध को इंग्‍लैंड जाना था। वहां वह अपने भाई के साथ जो व्‍यवसाय करता था, उसे बंद करना था। उसने मुझे अपने साथ चलने को कहा। मेरी बहन की शादी होने वाली थी। और मैं जानती थी कि मैं एक ही महीने के भीतर लोट आऊंगी। अत: मैं सहमत हो गई। जाने के पीछे एक और कारण भी था यद्यपि वह स्‍पष्‍ट नहीं था। मेरे मन में कहीं गहरे में छुपा था। मैं अपनी नई जीवनशैली में (स्‍वयं को) इतना सुरक्षित अनुभव कर रही थी कि किसी तरह मैं इसकी परीक्षा लेना चाहती थी। मैं क्‍यों जाना चाहती थी, स्‍पष्‍ट नहीं था और जब मैं दर्शन में ओशो को अलविदा कहने के लिए उनसे मिलने गई तो उन्‍होंने मेरे जाने का कारण पूछा। मैं रोने लगी और मात्र इतना कहा, मैं यहां बहुत सुरक्षित महसूस कर रही हूं। वे मुस्‍कुराए और बोले, हां प्रेम सुरक्षा देता है।
      मैं अपने परिवार के प्रति पहलेसे कहीं अधिक उदार और प्रेमपूर्ण थी। मेरी बहन मुझसे दस वर्ष छोटी है। सोलह वर्ष की आयु में जब मैंने घर छोड़ा था तब वह इतनी छोटी थी कि हम वास्तविक अर्थों में कभी मिली ही नहीं थी। मैं हमेशा एक बड़ा बहन बनी रही जो अजनबी की तरह छुट्टियों में आती और लौट जाती। लेकिन इस बार उसके विवाह की पूर्व संध्‍या पर पार्टी में हम दोनो ने सारी रात खूब नृत्‍य किया और मुझे लगा कि पहली बार हम सचमुच एक दूसरे से मिली है। जब मैंने अपने माता-पिता से प्रबुद्ध का परिचय करवाया तो पिता जी को सुनाई दिया पुअर बगर और उसे इसी नाम से ही बुलाया जाने लगा। मेरे माता-पिता प्रसन्‍न थे और आश्वस्त थे कि मेरा जीवन मेरी लिए उपयुक्‍त है। एक बार फिर हमने एक दूसरे से विदाई ली।
      हम भारत लौट आए और गोवा आ पहुंचे। गोवा पूना के लिए वैसे ही जैसे लंदन के लिए ब्राइटन, निकटतम समुद्रतटीय सैरगाह। जहां हम ठहरे थे, उस मकान के पीछे एक ऊंची व सीधी चट्टान थी। एक दिन हम उस चट्टान पर चढ़कर दूसरी और चले गए। उधर से समुद्र तटों की खोज करने। वहां हरे भरे खेत और जंगल हमारे सामने फैले थे। उन्‍हें पार कर हम समुद्रतट पर पहुंचे और कुछ घंटो बाद हम लोट आये। जैसे ही हम चट्टान पर पहुंचे, मैंने चलचित्र की भांति अपने मस्‍तिष्‍क में घूमता एक चित्र देखा। एक व्‍यक्‍ति हम पर गोली चला रहा है। और हम उस से बचने के लिए घास पर लेटे हुए है। कोई हमें आसानी से गोली मार सकता है।
      जैसे ही हम ऊपर चोटी पर पहुंचे, सूर्य आकाश में नीचे उतर रहा था। और केसरी रंग में परिवर्तित हो गया था। हम घर की और नीचे उतरने लगे। चट्टान इस और काफ़ी ऊबड़-खाबड़ थी। टुकड़े इधर उधर बिखरे पड़े थे। ढलान अत्‍यन्‍त सीधी थी और रास्‍ता घुमावदार होने के कारण बीच-बीच में दृष्‍टि से ओझल हो जाता था।
      मैने अपने पीछे एक आवाज सुनी और मुड़कर देखा कि हमसे तीस फ़ुट की दूरी पर एक भारतीय बंदूक लिए खड़ा है। जैसे ही मैं रुकी और उसकी देखा, उसने बंदूक कंधे पर टिकाई, एक घुटने के बल बैठा और हमारी और निशाना साधा। मैं सकते में आ गई। परिस्‍थिति को देखते हुए मेरी प्रतिक्रिया बड़ी धीमी थी। मैंने प्रबुद्ध का कंधा थपथपाया। वह मेरे आगे था ढलान से नीचे उतर रहा था। जब वह पीछे मुड़ा तो मैंने उससे कहां की देखो कोई हमें गोली मारना चाहता है।
      हम नीचे पहुँचे हमारे गोअन पड़ोसी हमारे पास भागे आए। और हमें घर के भीतर ले गए। उन्‍होंने हमें एक अन्‍धेरे कोने में बिठाया। एक प्रकार का आनुष्‍ठानिक नृत्‍य करते हुए हमारे ऊपर पवित्र जल छिड़का। (गोवा के लोग कैथोलिक ईसाई है लेकिन उन्‍होंने इसमे कोई अपना ही मंत्र-तंत्र जोड़ लिया है।)
      हमने उन्‍हें विस्‍तारपूर्वक बताया कि क्‍या हुआ था। हमें बताया गया कि कुछ महीने पहले उस पहाड़ी पर दो पश्‍चिमी व्‍यक्‍तियों की हत्‍या कर दी गई थी।
      मैं चमत्‍कृत थी कि मेरे मन में गोली मारने का विचार कहां से आया। विचार अवश्‍य ही ऊर्जा तरंगें होंगी जो रेडियों तरंगों की भांति विचरती रहती है। बस उनको सही स्‍टेशन से सम्‍पर्क स्‍थापित करने की आवश्‍यकता होती है। हो सकता है इस तरह विचार भी वायु मंडल में विद्यमान रहते हो। इससे मुझे यह स्‍पष्‍ट हुआ कि प्रेमियों को या निकट सम्‍बन्‍धियों को एक ही समय एक ही विचार क्‍यों आता है। और नए घर मे आप अजीब तरंगों को क्‍यों अनुभव करते है। शायद उन विचार तरंगों के कारण अपने एक मित्र के साथ एक प्रयोग किया। मैं एक कमरे में बैठ गई , और वह दूसरे में। मैंने उसे विचार सम्‍प्रेषित किए। यह हमने पले ही निर्धारित कर लिया था कि विचार रंग, ध्वनि, शब्‍द चित्र से सम्बोधित हो सकता है।  और जो भी वह ग्रहण करेगा, उसे लिख लेगा। उसने मेरे दस विचारों में से छह विचार सही पकड़े।
      प्रबुद्ध और मैं पूना लौट आए। मैं ओशो की पुरानी पुस्‍तकों में से एक पुस्‍तक मिस्‍टिक एक्सापिरियंस पढ़ने में मग्‍न हो गई। पाँच वर्ष पूर्व मुम्‍बई में वे अपने शिष्‍यों से जो बोले थे, वह आज के ढंग से बहुत भिन्‍न था। तब उन्‍होंने गुह्म बातों की चर्चा की भी। उन्‍होंने भूत-प्रेतों,चक्रों, मनुष्‍य के साथ शरीरों की व्‍याख्‍या की थी। लेकिन अब अधिक यथार्थ वादी हो गए थे। धरती पर खड़े थे और रहस्‍यात्‍मक और परा प्राकृतिक प्रश्‍नों के उत्‍तर नहीं देते थे। लगभग तीस वर्ष पूर्व जब से ओशो ने प्रवचन देने प्रारम्‍भ किए है। तब से अब तक अपने सामने बैठे श्रोताओं को ध्‍यान में रखते हुए उनमें बहुत परिवर्तन आया है। बाद में उन्‍होंने स्‍वयं कहा था कि मैं मछली के अनुरूप जाल फेंकते है। जब ओशो उन्‍हीं धार्मिक व्‍यक्‍तियों के विषय में बोलते जिनके पक्ष में वे पहले बोल चुके थे। तो कई शिष्‍य उनको छोड़कर चले जाते। लेकिन कुछ साथ रह जाते। और वे कुछ लोग ही वे जो वास्‍तव में उस संदेश को सुन रहे थे। जो देना चाहते थे। कई सप्‍ताह बीत गए। मैं सोच रही थी। कि यह प्रेम यह प्रकाश कुछ ज्‍यादा ही हो गया। कुछ ऊबा देने वाला हो गया है। क्‍यों ने बाली द्वीप जाकर वहां काले जादू का तलाश करूं। कॉर्नवाल में,जब मैं बच्‍ची थी तो शैतान के विचार मात्र से कौतूहल से भर जाती थी। एक बार रात के समय गिरिजाघरों में—जब वहां कोई नहीं होता—मैं जीसस को प्रकट होने के लिए पुकारती थी। लेकिन कुछ ज्‍यादा करने में सफल नहीं हो सकी।
      मैंने ओशो को प्रवचन के लिए एक प्रश्‍न लिखकर भेजा: आप कहते है कि अंधकार में प्रकाश ले जाओ तो अंधकार मिट जाता है। आप प्रकाश है, तो अंधकार कहां है। और अंधकार के लिए भी मेरी लालसा क्‍यों है। उत्‍तर में पहला ही जो वाक्‍य उन्‍होंने बाला, वह मेरे लिए पर्याप्‍त था। उन्‍होंने कहा:
      जब मैं कहता हूं प्रकाश लाओ और अंधकार मिट जाता है। मेरे कहने का तात्‍पर्य है: प्रकाश लाओ और अंधकार ज्‍योतिर्मय हो जाता है।
      ज्‍योतिर्मय अंधकार, ज्‍योतिर्मय अंधकार की खोज है। मैं प्रदीप्‍त हो उठी। फिर कभी मेरे मन में इससे कम की खोज की लालसा नहीं उठी। ज्योतिर्मय अंधकार मेरे लिए जीवन के शिखरों की काव्‍यात्‍मक उच्‍चता का प्रतीक है। जिसकी मुझे अभीप्‍सा है। वे शिखर जो मुझे क्षण भर के लिए झलक दिखाते है और मुझे एक अविस्‍मरणीय मधुरता से भरकर ओझल हो जाते है।
      हालांकि में नौ महीने पहले लंदन से संन्‍यासिन हो गई थी। लेकिन जब प्रथम बार ओशो के चरणों को स्‍पर्श किया तो लगा कि उस समय मैंने वास्‍तव में सन्‍यास लिया है। ओशो के आस पास घटने वाली बहुत सी बातों में से एक बात जिसने मुझे चकित किया;वह थी कि जैसे ही ओशो सभागार से उठकर जाते भारतीय मित्र मंच के पास जाते, झुकते और उस स्‍थान पर माथा टेकते जहां उनके चरण थे। पाश्‍चात्‍य होने के नाते मैंने ऐसी भक्‍ति-भावना कभी नहीं देखी थी। यह देख कर मुझे बहुत आश्‍चर्य होता था।
      जब मेरा दिन आया, तब गुरू-पूर्णिमा का उत्‍सव था—जुलाई मास की पूर्णिमा का यह दिन जब भारत में धार्मिक गुरूओं और शिक्षकों की पूजा की जाती है और उत्‍सव मनाया जाता है।
      ओशो अपनी कुर्सी पर बैठे थे। कुछ गायकों व वादकों, लेट गो की सहज अवस्‍था में हंसते गाते झूमते लोगों से घिरे थे। और फिर थी उन लोगों की कतार जो गुरू-चरणों को स्‍पर्श करना चाहते थे। सभागार खचाखच भरा था। उगते सूर्य के विभिन्‍न रंगों में सज़े लोगों के कारण वातावरण उत्सव मय हो गया था। और अभिभूत करने वाला था। मैं कतार में पीछे जा खड़ी हो गई। जो हरे-भरे उद्यान से होती हुई द्वार तक पहुंच गई थी। अपने आगे खड़े लोगों को देखकर मैंने जाना कि मुझे केवल चरण स्पर्श कर आगे बढ़ जाना है। जैसे ही मैं धीरे-धीरे सरकती हुई उद्यान से सभागार के भीतर पहुंची। अब मैं इस सम्‍बन्‍ध में कुछ सोच भी नहीं रही थी। क्‍योंकि उत्‍सव बहुत संक्रामक था।
      अचानक मैं वहां थी, उनके समक्ष। मुझे इतना ही स्‍मरण है कि मैं उनके सामने झुकी और तब घड़ी भर के लिए सब शून्‍य हो गया था। मुझे कुछ पता नहीं चला। उसके बाद मुझे इतना ही मालूम है कि मैं खड़ी हुई और भागने लगी। मैं भागती हुई चली जा रही थी और अश्रु धार बह रही थी। एक मित्र ने सान्त्वना देने के लिए मुझे रोकना चाहा। उसने सोचा की शायद मेरे साथ कुछ बुरा हुआ है। मैंने उसे धकेल दिया—मुझे दौड़ना था। मैं तब तक दौड़ती ही गई। और में इतना दौड़ना चाहती थी की संसार का अंतिम छोर आ जाये। और मैं उसमे विलीन हो जाऊं।
      उन्‍हीं महीनों में मैंने कुछ मनोचिकित्सक के सामूहिक ध्‍यान प्रयोग किए और अनुभव किया कि वे साक्षी कि प्रारम्‍भिक अवस्‍था के लिए बहुत उपयोगी थे। अपने मनोभावों के लिए सजग होना। उन्‍हें स्‍वयं कसे पृथक अनुभव करना बहुमूल्‍य था। मैं पहली बार अपने नकारात्‍मक मनोभावों को स्‍वीकार करने और उन्‍हें मुक्‍त रूप से व्‍यक्‍त करने में समर्थ हुई थी। पूरे शरीर को कम्‍पित करने वाले क्रोध को अनुभव करना और मात्र इसके प्रति सजग होना ( बिना किसी को चोट पहुँचाए) वस्‍तुत: एक सुंदर अनुभव था।
      स्‍वयं की तलाश के उदेश्‍य से एक ही कमरे में कई दिनों तक बैठे व्‍यक्‍तित्‍वों के समूह की ऊर्जा अत्‍यन्‍त सघन होती है। मुझे स्‍मरण है कि कैसे एक बार मुझे दृष्‍टि भ्रम हुआ और मैंने दीवार को चलते और आकार बदलते देखा। अवश्‍य ही इसका सम्‍बन्‍ध एड्रोलिन (अधि वृक्क) ग्रंथि से निकलने वाले द्रव्‍य से होगा क्‍योंकि निश्‍चित ही कभी-कभी भय विद्यमान रहता था—प्रकट हो तब आनन्‍द की अनुभूति होती है।
      सामूहिक ध्‍यान (गुप थेरेपी) के दौरान एक बार फिर मैं उस प्‍यारे कुबड़े से आविष्‍ट हो गई। और ग्रुप के दूसरे साथियों को तो भय भीत कर दिया, यहां तक कि अनुभवी ग्रुप लीडर भी इस सम् बन्धक में कुछ कहने को असमर्थ था। और फिर एक बार विशेष रूप से सुन्‍दर दर्शन के बाद आश्रम से घर जाते हुए मैंने दो भारतीयों को झगड़ते देखा। मैं उस समय अत्‍यंत संवेदनशील थी। और उस हिंसा ने मुझे इस कदर झकझोर दिया। जैसे ही मैं सड़क पर घर की और जा रही थी, मुझे लगा की कुबड़े ने मुझे फिर अपने वश में कर लिया। और मैं भी उसे रोकना नहीं चाहती थी। मुझे इतना होश था कि स्‍वयं से कह सकूं वृक्षों की छाया में चलती रहो,तुझे कोई देख नहीं पाएगा। मैं अपने शरीर की इस स्‍थूल विकृति से भयभीत नहीं थी। क्‍योंकि इसके साथ आई अपूर्व प्रेम की अनुभूति की तुलना में भौतिक शरीर कुछ भी नहीं था। मैंने इस विषय में कुछ नहीं सोचा। हां एक विचार अवश्‍य आया कि कल ग्रुप लीडर को बताऊंगी। पन्‍द्रह मिनट का रास्‍ता था। मैंने स्‍वयं को बरगद के पेड़ों की छाया में लँगड़ा कर चलते देखा। मेरी आंखें पलट कर ऊपर चढ़ गई थी। जीभ मुंह से बाहर लटक गई थी। घर पहुंचने से थोड़ा पहले मेरा शरीर सीधा होने लगा। और कुबड़ा विलीन हो गया। यह हमारी अंतिम मुलाकात थी। यह सोचकर कि लोग इसे मेरी सनक समझेंगे किसी से इसका उल्‍लेख नहीं किया। और मैंने ओशो से भी इसके बारे में नहीं पूछा क्‍योंकि यह कभी मुझे समस्‍या नही लगा।
      मैंने ओशो को कहते सूना है कि चेतना मन, हिम शैल का अग्रभाग है। और अचेतन मन दमित भय और वासनाओं से ग्रसित है। एक सामान्‍य समाज में जहां ओशो—आश्रम जैसा उदार एवं सुरक्षित वातावरण न हो, मैं ऐसे अनुभव से गुजरने का साहस नहीं जुटा पाती। यह मेरे भीतर दबा ही रह जाता। और जो अनजाना था उसकी सहज अभिव्यक्ति से निर्मलता की अनुभूति के बजाएं मेरे अंदर विषाद पैदा हो जाता। पश्‍चिम में इतने लोग विक्षिप्‍त क्‍यों हो जाते है। विशेष रूप से संवेदनशील वह प्रतिभाशाली व्‍यक्‍ति, जैसे कह कलाकर संगीतज्ञ और लेखक। पूर्व में ऐसा कभी नहीं हुआ है, ध्‍यान इसका कारण हो सकता है। द बिलवेड  नामक प्रवचन शृंखला में ओशो ने कहा है:
      पागलपन दो तरह से सम्‍भव है: या तो जब तुम समान्य स्‍तर से नीचे गिर जाते हो या उससे ऊपर उठ जाते हो। दोनों ही अवस्‍थाओं में तुम पागल हो जाते हो। अगर तुम सामान्‍य से नीचे गिर जाते हो तो तुम रूग्‍ण हो सामान्‍य स्‍तर तक लाने के लिए तुम्हें मनोचिकित्‍सा की आवश्यकता है। अगर तुम सामान्‍य से ऊपर उठ जाते हो तो तुम रूग्‍ण नहीं हो। वास्‍तव में पहली बार तुम पूर्णतया स्‍वस्‍थ हुए हो। क्‍योंकि पहली बार तुम पूर्णता से भर गए हो। तब भयभीत मत होना। यदि तुम्‍हारा पागलपन तुम्‍हारे जीवन में और अधिक समझ लाता है तो भयभीत मत होना। और स्‍मरण रखना, जो पागलपन सामान्‍य से नीचे है, हमेशा अनैच्‍छिक होता है। यही लक्षण है: यह अनैच्‍छिक है। तुम इसे ला नहीं सकते। तुम इसमे खींचे चले जाते हो। और वह पागलपन जो समान्य  से ऊपर है। स्‍वैच्‍छिक है—तुम इसे ला सकते हो—और क्‍योंकि तुम इसे ला सकते हो। तुम इसके स्‍वामी हो। तुम इसे किसी भी क्षण रोक सकते हो। अगर तुम आगे बढ़ जाना चाहते हो तो बढ़ सकते हो। लेकिन नियन्‍ता तुम ही रहते हो।
      यह साधारण पागलपन से सर्वथा भिन्‍न है : तुम स्‍वयं इसमें जा रह हो। और स्‍मरण रखना,यदि तुम स्‍वयं इसमे जा रहे हो तो तुम कभी विक्षिप्‍त नहीं हो सकते, क्‍योंकि विक्षिप्‍तता की सभी सम्‍भावनाओं से तुम मुक्‍त हो चुके हो। तुम इनको इकट्ठा नहीं करते जाओगे। साधारणतया हम दमन ही करते चले जाते
      प्रत्‍येक ग्रुप के अंत में सामूहिक दर्शन होते थे। जिसमें प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति को ओशो से बात करने का अवसर मिलता और ओशो उनकी लम्‍बे समय से लटक रही समस्‍याओं का समाधान देते।
      एक दर्शन में मैंने गर्व से ओशो को बताया कि मेरा अपने क्रोध के साथ सामना हो चुका है। मुझे सचमुच लगा था कि मैंने क्रोध का उसकी समग्रता में अनुभव कर लिया था। मैंने इसे शरीर के रोंए-रोंए में एक शुद्ध उर्जा के रूप में एक उत्‍ताप के रूप में अनुभव कर लिया है। ओशो ने मेरी और देखा और कहा, तुमने केवल शाखाएं देखी है। अब जड़ों को खोजना होगा। मैं क्रोधित हो उठी।
      मैंने उन्‍हें बताया कि मैं एनकांउटर ग्रुप दोबारा करने वाली हूं। उन्‍होंने गहरा सांस लेते हुए कहा कि, हां, कई लोग पहली बार चूक जाते है। यह सच सिद्ध हुआ क्‍योंकि अब तक मुझे ये कला आ गई थी। जो भी मनोभाव उठता उसे मैं उतेजित कर सकती थी। उसे पहचान सकती थी। और फिर उसे व्‍यक्‍त कर सकती थी। यह प्रक्रिया मैंने उस ग्रुप के साथ पूरी कर ली जिसमें हम तीन दिन निरंतर अपने से पूछते है मैं कौन हूं?’ यह ग्रुप वास्‍तव में मेरे लिए था। कुछ ऐसा घटा कि मेरा मन दूर से आती एक आवाज बनकर रह गया और कुछ करने में असमर्थ हो गया। जबकि ‘’मैं’’ वहां थी, हर क्षण में उपस्‍थित और परितृप्‍त। मैं ओशो को अपने प्रवचनों में अ-मन (नौ माइंड) के विषय में बोलते सुनती थी। लेकिन शब्‍द मुझे इसके लिए तैयार नहीं कर पाए थे। परितृप्‍ति शब्‍द को सुनना एक बात है और इस अनुभव करना दूसरी बात है। यह अनुभव लगभग छह घंटों तक होता रहा। मैं मन-ही-मन प्रसन्‍न थी। कि कोई नहीं जान सका कि मेरे साथ क्‍या हुआ है। हम दोपहर का भोजन करने गये। जब मैं भोजन कर रही थी कि प्रबुद्ध रेस्तराँ में प्रविष्‍ट हुआ। अचानक मेरे भीतर एक न उठा। मैं उससे मिलना नहीं चाहती थी। इसलिए मेज के नीचे छीप गई। मालूम नहीं भोजन ने या मित्र की उपस्‍थिति ने उस सम्‍मोहन को तोड़ दिया और उस बिंदु पर वह अनुभव मंद होने लगा। लेकिन उस अनुभव को पूर्णतया मिटने के लिए कुछ दिन लगे। परंतु अब भी उसकी स्‍मृति मेरे सामने कास्मिक कैरेट की भांति लटक रही है। जिसे पाने के लिए मैं पीछे-पीछे जा रही हूं।
      मैं दर्शन में गई और ओशो से कहा कि मैं चिंतित हूं कि कही मुझे वापस न भेज दिया जाए। क्‍योंकि मैं कुछ सारयुक्‍त व उपयोगी नही कर पा रही हूं। मैंने कहा की मैं इस बात से भी चिंतित हूं कि मुझमें आस्‍था का आभाव है। उन्‍होंने मुझे स्‍पष्‍ट किया कि उनका प्रेम इतनी प्रचुरता में है कि वे केवल देते है, पात्रता की आवश्‍यकता नहीं। उन्‍होंने कहा कि मेरा यहां होना ही पर्याप्‍त है; कि योग्‍य पात्र होने के लिए मुझे कुछ नहीं करना, कि वे मुझे प्रेम करते है। और मुझे मेरी सभी कमियों सहित स्‍वीकार करते है।
      मेरा प्रेम पाने के लिए तुम्‍हें इसके योग्‍य होने की बिल्‍कुल जरूरत नहीं। तुम्‍हारा होना ही पर्याप्‍त है। तुम्‍हें कुछ करना नहीं है। तुम्‍हें इसके योग्‍य बनने की जरूरत नहीं है; ये सब व्‍यर्थ की बातें है। इस सब बातों के कारण ही लोगों का शोषण किया गया है। उन्‍हें भटकाया गया है। उन्‍हें नष्‍ट किया गया है।
      तुम वही हो जो तुम हो सकते हो; अधिक की आवश्‍यकता नहीं है। अत: तुम्‍हें तनाव मुक्‍त हो, शांत हो, शांत भाव से मुझे ग्रहण करना है। पात्रता की भाषा में मत सोचो, नहीं तो तुम तनावग्रस्‍त रहोगे। यही तुम्‍हारी समस्‍या है, यही चिंता है, निरंतर—कि तुममें कुछ कमी है कि तुम यह नहीं कर रहे हो, कि तुम वह नहीं कर रहे हो, कि तुम्‍हारी श्रद्धा अधूरी है। तुम एक नहीं हजारों बातें बना लेते हो
      मैं तुम्‍हारी सब कमियाँ स्‍वीकार करता हूं। और तुम्‍हारी सब सीमाओं सहित प्रेम करता हूं। मैं किसी प्रकार का अपराध-भाव पैदा नहीं करना चाहता। वैसे ये सब चालाकियां है। तुम्‍हारी मुझमें आस्‍था नहीं है। तुम स्‍वयं को अपराधी अनुभव करते हो, तब में प्रभावी हो जाता हूं। तुम्‍हारी पात्रता नहीं है। तुम यह नहीं कर रहे हो। तुम वह नहीं कर रहे हो। में तुम्‍हें अपना प्रेम देने में  कटौती कर दूँगा। तब प्रेम एक सौदा हो जाता है। नहीं मैं, तुम्‍हें प्रेम करता हूं क्‍योंकि मैं प्रेम हूं।
      मैं समझ गई कि ये मेरे संस्‍कारों की नींव के पत्‍थरों में से एक था क्‍योंकि वर्षों तक यह अपात्रता उभरती रहेगी। कई बार ओशो ने मुझे सिर्फ होने के लिए कहा, कि मैं अपने में पर्याप्‍त हूं।
      और फिर वे हंसे ओर मेरे लिए कहा कि यदि मुझमें आस्‍था नहीं है तो भी ठीक है, मैं शांत और आनंदित रहूं। उन्‍हें ऐसे भी संन्‍यासी चाहिए जो उनमें श्रद्धा न रखते हो—इससे विविधता बनी रहती हे।
      हमेशा एक जादूगर की भांति समस्‍याओं का समाधान करते और मैं स्‍वयं को वर्तमान में खड़ा पाती जहां कोई समस्‍या नहीं है। और हैरान सी सोचती कि अब मेरा मन कौन सी नई समस्‍या खड़ी करेगा। मुझे संदेह था कि शायद मैं कई बार समस्‍याएं गढ़ती थी ताकि मैं दर्शन में जा सकूं।
      लॉरेंस मुझे मिलने के लिए आया। मैंने उसे करीब दो वर्षों से नहीं देखा था। फिर ऐसा लगा जैसे कुछ समय नहीं बीता था। हम ऐसे मिले जैसे अभी कल ही उसने मुझे भारत के लिए हवाई जहाज़ में बिठाया हो। मेरा ख्‍याल है कि वह परिस्‍थिति की जांच पड़ताल करने और यह देखने आया था कि मैं यहां कुशल और स्‍वस्‍थ हूं। और किसी सम्‍प्रदाय का शिकार तो नहीं हो गई हूं। तब तक उसने ओशो के विषय में पत्र-पत्रिकाओं में नकारात्‍मक अवश्‍य पढ़ लिया होगा। उन पत्रकारों ने जो पूना आए, और वे जो यहां आए तक नहीं उन्‍होंने भी यह लिखा कि ग्रुप थेरेपी में हिंसा होती है। काम गुप्‍त उपासना होती है। दुर्भाग्‍यवश मैंने इतने वर्षों में अभी तक इसे अनुभव नहीं किया।
      लॉरेंस कुछ दिन रुका और ओशो से मिलने दर्शन में गया। हम सब सभागार की तरफ दौड़ें और लॉरेंस पीछे रह गया, क्‍योंकि उसे वहां बंधी रस्‍सी के बारे में कुछ पता नहीं था। पहले पहुंचने वाले आग बैठते और मजे की बात यह थी कि जितना हम अपने पर नियन्‍त्रण रख ध्‍यान पूर्वक चलने की कोशिश करते उतना ही हमारे पाँव तेजी से उठते और मोड़ मुड़ते है। हम दौड़ पड़ते और संगमरमर के फर्श के अंतिम कुछ मीटर तय करने से पहले अपने जूतों को इधर-उधर कहीं भी उतार कर फेंक देते। हमारे बैठ जाने के बाद ओशो पधारते।
      मेरे इस विशिष्‍ट ढंग से प्रवेश के कारण लॉरेंस और मैं बिछुड़ गए। वह पीछे बैठा और मैं आगे।
      ओशो के निकट आकर बात करने के लिए उनका नाम पुकारा गया। हम दोनों इकट्ठे है यह को मालूम नहीं था। लेकिन फिर भी लॉरेंस का नाम पुकारा गया तो ओशो अपनी कुर्सी में घूमे और मेरी और यूं देखा जैसे कि मेरी और से बिजली कौंधीं हो और घंटी बजी हो। बड़ी विचित्र घटना थी। मैं कभी यह समझ न पाई कि कैसे मैंने अनजाने में इतना शक्‍तिशाली संकेत भेज दिया।
      ओशो ने लॉरेंस को एक भेंट दी, उसे वापस आ आश्रम की फिल्‍म बनाने को कहा।
      एक वर्ष बीत गया और मैं प्रत्‍येक महीने पर एक चिन्‍ह लगाती इसे एक छोटा सा चमत्‍कार मानते हुए कि मैं अब भी यहीं हूं। वर्ष का अधिक हिस्‍सा नदी किनारे बैठ बांसुरी बजाने के प्रयत्‍न में व्‍यतीत करते हुए मैंने आश्रम में काम करने का निश्‍चय कर लिया। और सोचा कि आश्रम में काम करने से मैं अधिक संवेदनशील, अधिक ग्रहणशील हो जाऊंगी। और गुरु के लिए अधिक उपलब्‍ध हो सकूंगी। ताकि वे मुझ पर जो भी कार्य करना चाहे कर सकें। मैं काम पाने की इच्‍छा से कई बार ऑफिस गई। लेकिन हर बार मुझसे कहा गया कि पहले ही बहुत लोग काम करनेवाले है। अगर ऑफिस में कोई काम कर सकूं तो ( जैसे—एक अकाउंटैंट आज ही इंग्‍लैड से आई है—वह सविता थी जिसके साथ कुछ वर्ष मेरे कपड़े बदल गये थे।) तभी मुझे काम मिल सकता है। मैं किसी को इस बात का पता नहीं लगने देना चाहती थी कि दस वर्ष में पादरियों,मनस्‍विदों, समाचार-पत्रों,अस्‍पतालों, कैसिनो (जुएखानों) तथा एक पशु शल्‍य चिकित्‍सक के लिए सचिव का कार्य कर चुकी थी। दफ़्तरी जीवन मुझे आकर्षित नहीं करता था। इसलिए मैंने बग़ीचे में माली का काम करना पसंद किया। और करीब पूरा दिन खड़-नल से पानी देती, इंद्रधनुष बनाती व्‍यतीत करती। बाग़वानी को मौज-मस्‍ती समझा जाता था, न कि काम।
      अंतत मुझे अनुकूल काम मिल गया। मैं पुस्तकों के आवरणों पर स्‍क्रीन प्रिटिंग करने लगी। मैंने इस कार्य को भी कुछ समय के लिए बहुत गम्‍भीरतापूर्वक किया। सोचा कि इस तरह में उस विभाग की बॉस बन जाऊंगी। लेकिन एक दिन मैं फिल्‍म तैयार करवाने के लिए शहर में से गुजर रही थी तो देखा एक गली में एक व्‍यक्‍ति मृत पडा है। मैंने स्‍वयं से कहा, देखो वहां तुम गुरु के पास इस लिए नहीं आई थी कि विश्‍व की श्रेष्‍ठ स्‍क्रीन प्रिंटर बन सको।
      पहले ही दिन जब मैंने आश्रम में काम करना शुरू किया तो शीला—जो लक्ष्‍मी की सचिव थी और जिसने हाल ही में काम करना शुरू किया था—मेरे पास आई और पूछा कि क्‍या में प्रतिदिन ऑफिस आकर अपने सहकर्मियों के बारे में यह सूचना दे सकूंगी कि वे कितने घंटे काम करते है। और कब-कब वे बीड़ी-ब्रेक पर जाते है। मैंने उससे कहा कि यह मेरे लिए सम्‍भव नहीं होगा। क्‍योंकि वे सब मेरे मित्र है। उसने कहां की मुझे ये सब करना होगा। क्‍योंकि यह उनके आध्‍यात्‍मिक विकास के लिए है, यदि वे आलसी है तो उनका विकास कैसे होगा, और वे अपने आलस्‍य के प्रति कैसे होश पूर्ण हो कसते है। जब तक इस बारे में उन्‍हें कोई बताएगा नहीं। उसने तर्क दिया। उस समय मैं इतना ही कह पाई कि अच्‍छा लेकिन मैं कभी ऑफिस नहीं गई। और जब भी मुझसे मिलने आती और पूछती कि मेरे सहकर्मी कैसे काम कर रहे है, मैं साफ झूठ बाल जाती और उसका मज़ा लेती। बीड़ी-ब्रेक नहीं, कभी नहीं। हां, प्रतिदिन वे ठीक समय पर आते है और सारा दिन कठोर परिश्रम करते है। बड़ा अजीब लगता है, जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूं। उस काला विधि को कैसे प्रारम्‍भ से ही शीला ने अपने विश्‍वासपात्र जासूसों को भरती करना शुरू कर दिया था। इससे यही स्‍पष्‍ट होता है कि वह महत्‍वाकांक्षी थी, उसमे सत्‍ता की भूख थी जो बाद में विशाल रूप धारण करने वाली थी।
      अब मैं अकेली रह रही थी। एक बार मैं पुरूषों से मुक्‍त थी। क्‍योंकि कुछ ही समय पहले मैं एकसाथ दो पुरूषों के प्रेम में थी। और उसने मुझे पागल कर दिया था। एक दिन यह पागलपन चरम सीमा पर पहुंच गया जब एक मेरे वस्‍त्र फाड़ रहा था और जब घर पहुंची तो प्रबुद्ध फर्नीचर सड़क पर फेंक रहा था। मैंने अकेले रहने का निश्‍चय कर लिया। और नदी किनारे एक घर में रहने चली गई। रातों को बैठी झींगुरों तथा मेंढकों की आवाजें, घड़ी की टिक-टिक और दूर से आ रही कुत्‍तों के भौंकने की आवाज़े सुनती रहती। मुझे अँधेरा प्रिय था।
      जब मैं कुछ खास लोगों के साथ होती तो मुझे लगता कि वे मुझ पर हावी हो रहे है। मैं उनसे आविष्‍ट हो रह हूं। मैं उस व्‍यक्‍ति की भांति चलने लगती चेहरे पर उस जैसे भाव आ जाते और मुझे लगता कि उन्‍हें रोक पाने की इच्‍छा शक्‍ति मुझमें नहीं है। ऐसा कई महीनों तक चलता रहा और मैं स्‍वयं ही इसे सुलझाने की चेष्‍टा करती रही। मैंने सोचा कि अवश्‍य ही इन लोगों की ऊर्जा मुझसे अधिक शक्‍तिशाली होगी। या फिर और कुछ होगा। आखिर यह मेरी सहनशक्‍ति से बाहर हो गया और मैंने ओशो को इस बारे में लिखा। उन्‍होंने मुझे दर्शन में आने के लिए के लिए कहा।
      दर्शन में ओशो बहुत कुछ करते, जैसे तीसरी आँख (आज्ञा चक्र) या ह्रदय चक्र पर टॉर्च की रोशनी डालते और किसी ऐसी चीज़ पर एकटक दृष्‍टि डालते जो दूसरे के लिए अदृश्‍य होती। दर्शन में उनकी गहरी समझ और  अन्‍त दृष्‍टि से यह स्‍पष्‍ट था कि वे जिस व्‍यक्‍ति से बातें कर रहे होते उसके भीतर तक देख सकते थे। उन्‍होंने कहा कि वे तुरंत देख सकते है। कि व्‍यक्‍ति नया साधक है, या पूर्व जन्‍मों में किन्‍हीं गुरूओं के साथ रह चूका है। उस रात उन्‍होंने मुझे बुलाया और मुझे अपना पाँव पकड़ने को कहा। मैं बैठ गई उनका पाँव अपनी गोदी में रखा और रोने लगी। उन्‍होंने बताया कि मेरी अवस्‍था का दूसरों से कुछ लेना-देना नहीं है। और ऐसा कुछ नहीं कि कोई दूसरा मुझ पर हावी हो रहा है। इसका कारण यह था कि मेरा ह्रदय ओशो के प्रति खुल रहा है। जब पहली बार किसी व्‍यक्‍ति  का ह्रदय खुलना आरम्‍भ होता है तब कुछ भी प्रवेश कर सकता है। उनके प्रति खुली होने का अर्थ था सबके लिए ग्रहणशील, संवेदनशील होना। और इस कारण बहुत से लोग निश्‍चय करते है कि बंद ह्रदय के साथ जीना अधिक सुरक्षित हे। उन्‍होंने कहा कि मेरा ह्रदय धीरे-धीरे खुल रहा है। और यह एक सुन्‍दर बात है। लेकिन कभी-कभी इसमे आवारा कुत्‍ता भी प्रवेश कर जाता है। इस लिए इस कुत्‍ते को भगा दो।
      इसका कारण है कि मैं शीध्रातिशीध्र एक कम्यून बनाने में उत्‍सुक हूं—ताकि तुम्‍हें कहीं बहार जाना ही न पड़े। धीरे-धीरे मेरे लोग अपनी चेतना को विकसित करते चले जाएंगे। फिर कोई भी—अगर वह किसी दूसरे की ऊर्जा के प्रभाव में बह गया हो—इतना बुरा अनुभव नहीं करेगा। यह आनंदप्रद होगा। तुम उसका धन्‍यवाद करोगे। कि समीप से गुजरते समय वह तुम्‍हें कुछ सुंदर दे गया। कम्यून का अर्थ ही यही है। किसी भिन्‍न तल पर स्‍पन्‍दित। प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति दूसरे का सहायक हो, और एक उठती लहर की तरह दूसरे को अपने वेग में बहा ले जाए। एक दूसरे की ऊर्जा लहरों पर सवार जितनी दूर तक चाहें यात्रा करें, और किसी को बाहर जाने की आवश्‍यकता नहीं।
(लेट गो)
      बस कुछ दिन और, उन्‍होंने कहा, तीन सप्‍ताह के भीतर सब ठीक हो जायेगा।
      कुछ दिनों पश्‍चात विवेक जो ओशो की देखभाल करती थी मेरे पास आई और पूछने लगी कि क्‍या मैं अपना कार्य बदलना चाहूँगी। उसे ओशो के वस्‍त्रों की धुलाई के लिए किसी की तलाश थी क्‍योंकि उनका धोबी, जो पिछले सात वर्षों से यह कार्य संभाले था, छुट्टी पर जा रहा था। तीन सप्‍ताह के भीतर ही मैं ओशो गृह में थी और मैंने अपना नया कार्य प्रारम्‍भ कर दिया।
 मां प्रेम शुन्‍यों
(माई डायमंड डे विद ओशो) हीरा पायो गांठ गठियायो)
     
     
     

     
     
     


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