बहता
जीवन पल-पल
उत्सव
कुछ
मधुर राग किन्हीं
छंदों में
कानों
में आकर कुछ कह जा
देखो
मेरे तुम उत्सव
को
नित
खेल खेलता
अटखेली
वह
नहीं पकड़ता
दीवारे
बह
नहीं बाँधता
बंधन हार
नित
रूप बदलता
जाता है
जीवन
के काल चक्र पर
वो
वह
नहीं देखता
मुड़कर कल
वह
नहीं सिमटना
चाहत में
न तटबंध की
दीवारों में
जो
उसको अविरल
रोक सके
वह
मुक्त हास सा
खिलता है
जीवन
की पल-पल धारों
में
जो धूंधली सी कोई छवि बनी
वहले लेती है पल-पल में
वहले लेती है पल-पल में
कुछ परिचित के आकारों
में
वो
बंधन कितना
मधुर सही
फिर
भी तो वह इक
बंधन है
है
लगा पंख उड़ना
मुझको
किन्हीं
अतल भरी गहराईयों
में
है रूप छवि के पार कहीं
है रूप छवि के पार कहीं
नित
बनते ओर बिगड़ते है
हम
किसको अपना माने
अब
वो छलता सा सब दिखता है
वो छलता सा सब दिखता है
ये
रूकना मृत्यु
तुल्य है
नित
बहना जीवन जीवित
है
मिटने
दो रूप की छवियों
को
बस
काल-गर्ल के गर्भों
में
ये
बंधन तो बस बंधन
है
वो
चाहे कितना मधुर
सही
तुम
आओगे आँखो में
मेरी
बस
इस आस पर सांस मेरी
बस इस साध पर है जीवन
तुम छू लो मूक रहस्य
को
प्राणों
का स्पन्दन सा बन
कर
इन
दूर भटकते सपनों
को
एक
स्वेत धवल बादल
कर दो
एक
प्रेम प्रीत की
बाती बन
कानों
में मूक शब्द
दे दो
इन
सूखे प्राणों में
भर दो
एक
प्रीत प्यार की
सरिता तुम
कल-कल
कलरव का विहंग बनों
उन शब्द का तुम गान
करो
जो
आकर मुझे जगा जाये
स्वयं
अपने पर हम आ जाये
ऐसा जोबन का रंब भरो
ऐसा जोबन का रंब भरो
बस
पाना ही वो पाना
है
जो
खुद अपना ही हो
जाये।
स्वामी
आनंद प्रसाद ‘मनसा’
एक शब्द तुम गान करो
जवाब देंहटाएंजो आकर मुझे जगा जाये
स्वयं अपने पर हम आ जाये
बस पाना ही वो पाना है
जो खुद अपना ही हो जाये।
Aisa laga ki apne hi spane ko ukera gya hai...
Aabhar...
प्रिय शब्दों की गहराई तक जाना ओर उसमें डूबने एक तैरने वाला ही कर सकता है,
हटाएंतुम डूबो एक रहस्य में
ओर उन सपनो के पार चलो
है कहां कही वो मधुरंग हार
सब धूंधली सी परछाई है
तुम मत छूना मुझको प्रिय
तेरे हाथों की छुआन से
मैं फिर लूं गा आकर कोई....
स्वामी आनंद प्रसाद मनसा