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शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

तुम हो एक अंधकार

कुछ दीवारें दे  रही थी
एक रूप और आकर का भ्रम मुझे
गिरा दिया मैंने उसे एक रात के अंधेरे में
थी एक पकड़ वह भी मेरे होने की
जो चिपक गई थी
किसी कोने में अंहकार बन कर
की में हूं एक रूप,
जो देता था मुझे एक गुरूर
उस होनी-अनहोनी से हमने
मोड़ लिया मुख इक मोड़ पर जाकर

जो दिखा रहा था मुझे
रूप बसंत का भ्रम
भर रहा था एक अभिशापित गर्वित गर्व का भान
उस चेहरे को हमने तोड़ दिया—छोड़ दिया।
उस दर्पण के उस छोर पर
उस अभिशापित का बोझ क्‍यों ढोना
फिर वो चाहे सुंदर ही क्‍यों न हो
खुद जो तुम्‍हें रोके मार्ग से
और भटकाए मुझे बार-बार
वह नहीं चाहिए मुझ प्रिय भी
मैं जी लुंगा एक अंजान अपरिचित गली में
एक अंधेरी सरस सरिता में
जो सीतल देगी मुझे मेरे होने में
एक समस्वरता को लिए
उस कालिमा में नहीं है कोई रूप
शायद यही है पूर्ण होने का एक किनार
फिर कैसे हो सकता है
उस दूसरे छोर पर प्रकाश
इस नीरव गर्वित अंधकार के पार
जो दे सके तुझे कोई रूप
तुम खुद ही प्रकाश का भ्रम हो
परंतु मैं जानता हूं
ऐसा नहीं है
तुम खुद हो एक अंधकार
निराकार।
स्‍वामी आनंद प्रसाद मनसा


 

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