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शुक्रवार, 7 जून 2019

नये समाज की खोज-(प्रवचन-15)

जीवन एक समग्रता है-(प्रवचन-पंद्रहवां)

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
लेकिन मजा यह है कि कम्युनिज्म अब बिलकुल क्रांतिकारी नहीं रहा है, अब वह भी एक रिएक्शनरी विचारधारा है। जब कोई विचार पैदा होता है तब तो वह क्रांतिकारी होता है, और जैसे ही वह संगठित हो जाता है, संप्रदाय बन जाता है, व्यवस्था हो जाती है, उसकी क्रांति मर जाती है। बुद्ध जब बात कहे तो वह क्रांतिकारी थी; और जैसे ही बौद्ध धर्म बना, वह खत्म हो गई क्रांति। महावीर ने जब बात कही, बड़ी क्रांतिकारी थी; जैसे ही जैनी खड़े हुए, क्रांति खत्म हो गई।

उन्होंने भी बुतपरस्ती शुरू की।

हां, वह शुरू हो जाएगी। माक्र्स ने जो बात कही, वह बड़ी क्रांतिकारी थी; लेकिन जैसे ही माक्र्ससिस्ट पैदा हुए कि वह क्रांति गई।


तो फिर सामाजिक कार्यक्रम में जो प्रेक्टिकल प्रोग्राम बनेगा कंस्ट्रक्टिव, और कोई न कोई नेता प्रोग्राम देगा कि यह करना होगा, यह करना होगा। जैसा कि आपने कल बोला कोटिचंद्रयज्ञ के बारे में। तब तो कुछ न कुछ गड़बड़ होगी कार्यक्रम में, प्रेक्टिकल सेंस में।

इसीलिए मेरा कहना यह है कि समाज को सतत क्रांति की जरूरत है। यानी मैं कुछ कहूं, इससे क्रांति खत्म नहीं हो जाती; कल मैं भी स्थापित स्वार्थ बन सकता हूं। क्रांति की जरूरत रहेगी। दूसरे आदमी को क्रांति करनी पड़ेगी। यानी मेरा कहना यह है कि क्रांति जो है वह जीवन का सतत तत्व है। ऐसा दिन कभी नहीं आएगा जब क्रांति की जरूरत नहीं होगी। क्योंकि जो भी क्रांति आएगी, वह बहुत जल्दी--जैसे ही सफल होगी--स्थापित स्वार्थ बन जाएगी। क्रांति जब तक सफल नहीं होती, तब तक वह क्रांति है; और वह जैसे ही सफल हुई कि उसका खुद का न्यस्त स्वार्थ शुरू हो जाता है, उसकी व्यवस्था बन जाती है। तो मेरा कहना यह है कि क्रांति जारी रहेगी। और जो सच में क्रांतिकारी है, जो सच में क्रांतिकारी है, वह खुद अपनी ही क्रांति के खिलाफ भी हो जाएगा--जैसे ही क्रांति का स्वार्थ निश्चित हुआ।

तो इसका मानी यह हुआ कि आप क्रांति को कुसुम-फूल के साथ आपने जो उपमा दी है, वह पत्थर नहीं है, क्रांति भी एक फूल है, वह बिगसता रहेगा।
बिलकुल फूल है, बिलकुल बिगसता रहेगा।

अच्छा, मेरा पहला सवाल यह है कि मूर्तिभंजन करने वाला, क्या खुद अपनी मूर्ति को प्रजा-मानस में मूर्तिभंजक के रूप में प्रस्थापित नहीं करेगा?

अगर वह सच में मूर्तिभंजक है, तो वह अपनी मूर्ति से भी प्रजा को बचाने की कोशिश करेगा। और अगर वह सिर्फ दूसरों की मूर्तियों का भंजन करना चाहता है और अंततः भीतर रस इसमें है कि उसकी मूर्ति स्थापित हो जाए, तब तो सब मूर्तिभंजक पीछे से मूर्तिपूजक और मूर्तिपूजा को शुरू करने वाले बन जाते हैं। लेकिन मेरी दृष्टि यह है कि मूर्तिभंजक अगर सच में मूर्तिभंजक है, तो अपनी प्रतिमा को स्थापित नहीं होने देगा। वह यह संघर्ष भी जारी रखेगा। क्योंकि उसकी लड़ाई किसी की मूर्ति से नहीं है, उसकी लड़ाई मूर्ति के बन जाने से है। जैसे ही मूर्ति बनती है कि वह सत्य-विरोधी हो जाती है।
और वह जो आप कहते हैं, यह खतरा है हमेशा। क्योंकि दुनिया के पिछले सारे मूर्तिभंजकों की मूर्तियां बन चुकी हैं। जीसस मूर्तिभंजक हैं और बुद्ध भी मूर्तिभंजक हैं। लेकिन बुद्ध की तो इतनी मूर्तियां बनीं कि बुत शब्द जो है वह बुद्ध का ही रूपांतरण है, वह बुद्ध का ही बिगड़ा हुआ रूप है। इतनी मूर्तियां बनीं कि बुत का मतलब ही बुद्ध होने लगा, बुत का मतलब ही बुद्ध हो गया।
तो वह बुतपरस्ती पैदा होती है। अब तक यह हुआ है। और अब इससे सीख लेनी चाहिए उन लोगों को जो मूर्तिभंजक हैं। और पहली सीख यह है कि वे अपनी मूर्ति को किसी भी तरह स्थापित न होने दें। क्योंकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपके चित्त में कौन सी मूर्ति है। आपके चित्त में मूर्ति है, कि बात खत्म हो गई। आपका चित्त मूर्ति से मुक्त होना चाहिए। तो मैं तो पूरी चेष्टा करूंगा कि मेरी मूर्ति स्थापित न हो जाए।
अब जैसे कि कल ही मैंने आपसे कहा कि मैं कोई चरित्र का दावा नहीं करता हूं। अगर मुझे अपनी मूर्ति स्थापित करनी है तो मुझे चरित्र का दावा करना चाहिए।

मगर चरित्रवान की मूर्ति स्थापने के लिए।

लोकमानस में चरित्रहीन की मूर्ति की कोई पूजा कभी नहीं हुई है और कभी संभावना नहीं है। चरित्रहीन की मूर्ति स्थापित होने की कोई संभावना नहीं है। मेरा मतलब समझे न? आखिर लोकमानस, मूर्ति बनाने के उसके नियम हैं। मुझे दावा करना चाहिए कि मैं भगवान हूं, मुझे दावा करना चाहिए कि मैं मोक्ष को उपलब्ध कर गया हूं, तब मूर्ति स्थापित होती है। और मुझे कहना चाहिए कि मेरे पैर छूने से तुम मुक्ति पा सकोगे। मुझे, तुम्हें मेरी मूर्ति बनाने में क्या-क्या लाभ होगा, यह भी मुझे बताना चाहिए। अगर मेरी मूर्ति बनाने से कोई लाभ नहीं होता, तो मूर्ति कभी निर्मित नहीं होती।

अच्छा, कोटिचंद्रयज्ञ के बारे में कल आपने बताया कि वह एक जघन्य अपराध है। यह ठीक है। फिर आपने कहा कि कुछ लोगों को तैयार होना चाहिए, जो विरुद्ध में हैं, कि वे खुद वेदी में कूद पड़ें। मगर आप आचार्य की उपाधि लिए हुए हैं, लिए हुए नहीं, दी हुई है, आप पर आरोपित है, इसलिए कोई प्रभावक प्रोग्राम कोई इस संदर्भ में बनाया है, कोई खयाल है उसका--कोटिचंद्रयज्ञ को रोकने के लिए--प्रवचन के सिवाय।

मैं समझा। यानी मेरी तो मान्यता यह है, मेरी मान्यता ही यह है कि सक्रिय कार्यक्रम विचार के ऊहापोह से पैदा होता है। मेरी सक्रिय कार्यक्रम में कोई उत्सुकता नहीं है, मेरी उत्सुकता नहीं है। मेरी उत्सुकता वैचारिक क्रांति में है। और मेरी मान्यता यह है कि विचार वायुमंडल तैयार हो जाए, तो उस वायुमंडल से सक्रिय कार्यक्रम अपने आप पैदा होंगे। उनसे सीधी मुझे कोई उत्सुकता नहीं है।
यानी जैसे कि कल भी बात हुई, वह भूल होती है। मेरे चित्त में, जिसको पाजिटिव प्रोग्राम कहें, उसके लिए कोई जगह नहीं है। मेरी मौलिक दृष्टि निगेटिव है। और मेरा मानना भी यह है कि क्रांति की दृष्टि अनिवार्यरूपेण नकारात्मक होती है। पर उस नकार के प्रभाव से बहुत सा विधायक कार्यक्रम पैदा होता है। वह इतर बात है, वह बाइ-प्रोडक्ट है, उससे सीधा मेरा कोई संबंध नहीं है।

वह बाइ-प्रोडक्ट है।

हां, वह बिलकुल बाइ-प्रोडक्ट है। इसलिए उससे मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। मेरी दृष्टि सिर्फ यह है कि मेरा विचार स्पष्ट हो जाए और मेरा विचार साफ-साफ लोगों तक पहुंच जाए। तो वह जो मैं निषेध कर रहा हूं, अगर स्पष्ट हो जाए, तो विधायक कार्यक्रम उससे अनिवार्यरूपेण पैदा होगा। उसकी मुझे चिंता नहीं है।

तो इससे यह सवाल पैदा होता है कि आप, अगर मैं ठीक समझता हूं तो, मंडन के लिए खंडन करते हैं। पुरानी प्राचीन परिभाषा है। इस नकारात्मकता से एक नयी तकलीफ को जन्म देंगे। क्योंकि जब कोई एक स्टेप छोड़ता है--जो कल आपने बोला--तब उसको दूसरा स्टेप, तब आगे दूसरा स्टेप होता ही है। आपकी विचारधारा में, जो है, उसको छोड़ने का ऐलान है। दूसरा कोई पाजिटिव स्टेप, अभी आप बोले कि पाजिटिव कार्यक्रम नहीं है। तो वह आप बताएंगे? नेचर एब्होर्स वैक्यूम। नकार से जो वैक्यूम पड़ेगा, उसको कुदरत कुछ न कुछ चीज से भर देती है। यह आपकी नकारात्मकता की बातों से जो शून्यता निर्मित होगी इससे उपजित, तो कुछ न कुछ से वैक्यूम भर जाएगा, उसका गंभीर उत्तरदायित्व आप स्वीकार करते हैं?

हांऱ्हां, बिलकुल ही।
दो बातें हैं। पहली तो बात यह कि जिन-जिन चीजों से भरने की संभावना हो सकती है, उन-उन को मैं नकारता हूं। जैसे कि इस कमरे में कोई मुझसे पूछे कि कुर्सी क्या है? तो मैं कहता हूं: टेबल कुर्सी नहीं है; पलंग कुर्सी नहीं है; दीवार कुर्सी नहीं है। मैं कुर्सी को छोड़ कर प्रत्येक चीज को नकारता हूं। सिर्फ रह जाती है कुर्सी!
और मेरी मान्यता है कि जो इतने नकार को समझ लेगा उसे कुर्सी दिखाई पड़ जाएगी! जैसा कि उपनिषद कहते हैं: नेति-नेति! वे कहते हैं: नाट दिस, नाट दैट। वे कहते चले जाते हैं कि यह भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं। छोड़ देते हैं सिर्फ उसको जो है। इस सबको इनकार करने पर जो है, वह रह जाएगा। और जो इतने इनकार से गुजरेगा उसे वह दिखाई पड़ेगा, उसे वह दिखाई पड़ेगा।
और हम क्यों जोर नहीं देते हैं कि यही है सीधा, इसे कहने के लिए। क्योंकि जैसे ही हमने यह कहा, यही है सीधा, वह जो नकार की क्रांति है उससे वह आदमी गुजर ही नहीं पाता। और वही क्रांति उसके मस्तिष्क को विकसित करती है।
पाजिटिव पकड़ लेने से कोई विकास नहीं होता। जैसे हमने कह दिया, यह रही कुर्सी। वह मेरी मानता है और कुर्सी को पकड़ लेता है। अभी उसे पता नहीं चला कि यह कुर्सी क्यों है? यह टेबल क्यों नहीं है? क्योंकि टेबल को उसने इनकार नहीं किया, न उसने दीवार को इनकार किया। उसे तो कुर्सी पकड़ा दी गई, उसने कुर्सी पकड़ ली। उसने मेरी मान कर पकड़ ली।
पाजिटिव इशारा हमेशा बिलीफ पैदा करता है। निगेटिव इशारा कभी भी बिलीफ पैदा नहीं करता। क्योंकि डाउट से गुजर कर वह आदमी विचारशील बनता है। विचारशील बनने पर जब उसे दिखाई पड़ता है कि कुर्सी यह है, तो यह मामला बहुत और हो गया। यानी सत्य का साक्षात उसे होना चाहिए। मैं असत्य बता सकता हूं कि यह असत्य है, यह असत्य है।
मेरा मतलब समझे न?
और जैसे ही नकार से एक शून्य पैदा होता है, अनिवार्यरूपेण शून्य चल नहीं सकता, शून्य भरेगा। हम चाहते भी हैं कि शून्य भरे, हम चाहते भी हैं। लेकिन हम चाहते हैं कि सत्य से शून्य भरे। और असत्य का अगर ठीक-ठीक बोध हो जाए, तो फिर असत्य से यह शून्य कभी नहीं भरेगा।

तो आपकी समझ में उपनिषद थोड़ा सा तो काम आया।

न-न, नेति-नेति सदा ही काम आती है। निगेशन हमेशा ही काम आया है। समझे न आप? दुनिया में जो भी महत्वपूर्ण है, वह हमेशा निगेटिव है।

मगर आपको अभी उपनिषद ही याद आया।

हां, मैं समझा, ठीक कहते हैं न। उपनिषद ही याद इसलिए आया कि नेति-नेति शब्द का जितना सीधा उपयोग उपनिषद ने किया है, दुनिया के किसी शास्त्र ने नहीं किया है। मेरा मतलब समझ रहे हैं न? नेति-नेति की जो प्रक्रिया का सीधा उपयोग किया है। उपनिषद बिलकुल ही नकारात्मक है।

च्वाइसलेस अवेयरनेस, यह भी कोई च्वाइस नहीं है? यही बात आती है, पैराडॉक्स की ही बात आती है।

नहीं, च्वाइसलेस अवेयरनेस च्वाइस नहीं है। च्वाइसलेस का मतलब है कि हम कोई चुनाव नहीं करते हैं, हम कोई विकल्प नहीं चुनते हैं, हम सिर्फ जागते हैं। उस जागने में हम कोई निर्णय नहीं लेते कि यह ठीक है, यह गलत है; यह मानना चाहिए, यह छोड़ना चाहिए। हम कोई निर्णय नहीं लेते। हम सिर्फ जाग कर देखते हैं। इस जाग कर देखने में कोई भी चुनाव नहीं है। और जब तक चुनाव है तब तक हम जाग कर नहीं देख सकते हैं। यानी अवेयरनेस विद च्वाइस, ऐसी कोई चीज नहीं होती। अवेयरनेस ऐज सच इज़ विदाउट च्वाइस। अवेयरनेस होती ही च्वाइसलेस है। तो अवेयरनेस कभी भी च्वाइस के साथ नहीं हो सकती है। क्योंकि च्वाइस का मतलब है कि रस शुरू हो गया, नींद शुरू हो गई।
यहां इतने लोग बैठे हैं, मैंने कहा, बच्चू भाई बढ़िया आदमी हैं। फिर मैं बच्चू भाई के प्रति भी अवेयर नहीं हो सकता; क्योंकि मेरी आसक्ति शुरू हो गई। और जयंत भाई के प्रति भी अवेयर नहीं हो सकता; क्योंकि उनके प्रति मेरा नकार शुरू हो गया। मैं जाग सकता हूं इस कमरे के सारे लोगों के प्रति तभी, जब मेरा कोई चुनाव नहीं है, मैं सिर्फ जाग कर देख रहा हूं।
तो वह जो च्वाइसलेस अवेयरनेस है, वह च्वाइस नहीं है।

एलन वाट ने झेन बुद्धिज्म में यही स्पांटेनियस रिएक्शन का खबर दिया है। अच्छा, मारेलिटी के मूलभूत सिद्धांत विधि-निषेध, इनहीबिशंस की नींव पर बने हुए हैं, इसे आप युवा विश्व को जाहिर में नग्नता का प्रकट आदेश देकर तोड़ रहे हैं। वह एक प्रकार की सूक्ष्म अनैतिकता स्वीकार करते हैं?

नहीं; क्योंकि जो नैतिकता विधि-निषेध पर खड़ी है, उसे मैं अनैतिक मानता हूं। उस नैतिकता को ही मैं...।

और मेरा यह भी खयाल है कि--मैं उसको संडास नहीं कहता--सेक्स के बाथरूम को खुला रखने से क्या सिर्फ सुगंध ही फैलेगी?

इस पर मैं बात कर लेता हूं, पहले यह बात कर लूं।
जिसको हम नैतिकता कहते रहे हैं आज तक, वह नैतिकता नहीं है। वह नैतिकता ही नहीं है। क्योंकि जिस नैतिकता को भय के ऊपर खड़ा करना पड़ता है और डरा कर, स्वर्ग और नरक के प्रलोभन और डर पर, पाप और पुण्य की घबराहट पर, दबाव पर, जबरदस्ती, उसको मैं नैतिक नहीं मानता। क्योंकि यह जबरदस्ती की प्रक्रिया ही अनैतिक है।
नैतिक होने का अर्थ है: एक व्यक्ति की चेतना जागरूक हो। और उस जागरूक चेतना को अनिवार्यरूपेण, जो शुभ है वही करने का भाव पैदा होता है, अशुभ का उसे भाव पैदा नहीं होता। मेरा मतलब कहने का आप समझे न? तो मैं अनैतिकता की तरफ ले जाने का जिम्मा नहीं ले रहा हूं। बल्कि मैं अनैतिकता से नैतिकता की तरफ ले जाने का प्रयास कर रहा हूं।

वही निगेटिव?

हां, निगेटिव ही। और दूसरी जो बात आप कहते हैं कि सेक्स की संडास को खुला रखने से...

संडास नहीं, बाथरूम मैं कहता हूं।
बाथरूम कहिए, इससे क्या फर्क पड़ता है। वह आपको संडास का खयाल है इसलिए बाथरूम कहते हैं। वह सेक्स के बाथरूम को खुला रखने से सुगंध ही फैलेगी, ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं। पहली तो बात यह कि सेक्स का बाथरूम नहीं है, संडास भी नहीं है।

बाग है?

यह सवाल नहीं है। यह जैसे ही हम चुनाव करते हैं न, यह जैसे ही हम थोपते हैं उस पर कुछ, हम कोई भाव ले रहे हैं। सेक्स सिर्फ जीवन का एक सहज तथ्य है, सिर्फ फैक्चुअलिटी है। उस फैक्चुअलिटी को हम चाहें तो संडास भी बना सकते हैं और चाहें तो बाग भी बना सकते हैं। सेक्स अपने आप में न्यूट्रल फैक्ट है। इसको समझ लें। मैं नहीं कह रहा हूं कि बाग है।

आप फर्ड और लारेंस के साथ नहीं हैं।

न। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि बाग है, न मैं कह रहा हूं कि संडास है। मेरा मानना है कि वह जो पुरानी नैतिकता थी, जो संडास कहती थी, उसके खिलाफ लारेंस की बगावत है। वह रिएक्शनरी है लारेंस। अब वह उसको संडास से हटा कर बगीचा कह रहा है।
मैं यह कह रहा हूं कि न मुझे पुरानी नैतिकता से मतलब है, न इन विद्रोहियों से मतलब है। मैं सेक्स को एक तटस्थ तथ्य मानता हूं। हम चाहें तो उसे संडास भी बना सकते हैं। और अगर संडास बनाना हो तो पहला काम दरवाजा बंद कर देना है। हम चाहें तो उसे बगीचा भी बना सकते हैं। और अगर बगीचा बनाना हो तो पहला काम दरवाजा खोल लेना है। यह मैं पहला ही काम कह रहा हूं, इससे काम पूरा नहीं हो गया। समझे न?
लेकिन सेक्स सुगंधपूर्ण बनाया जा सकता है। इतना सुगंधपूर्ण बनाया जा सकता है कि वह प्रेयरफुल हो जाए; इतना सुगंधपूर्ण बनाया जा सकता है कि वह स्प्रिचुअल एक्ट हो जाए। और उसे इतना गर्हित और कुत्सित और निंदित बनाया जा सकता है कि वह...।

मगर वह सब्जेक्ट्स पर आधारित होगा न बनाना। जो सब्जेक्ट्स कम्यूनियन में होंगे, वह सामाजिक व्यवस्था...

उन पर ही होगा। वही मैं कह रहा हूं। बनाने का मतलब आप समझे न?

आपके बारे में मैं नहीं कह सकता। मगर जो...

न-न, उन पर ही होगा। लेकिन उनका चित्त समाज निर्मित करता है। और अगर समाज बचपन से बच्चों को सेक्स का कंडेमनेशन सिखाता है, तो समाज संडास बनाने का इंतजाम कर रहा है। क्योंकि एक लड़के को, एक लड़की को, बीस साल तक सिखाया जाए कि सेक्स पाप है, गर्हित है।
मगर अब थोड़ा सा रिलीज हुआ है, पहले जैसा नहीं है।

हांऱ्हां, मैं कह रहा हूं कि रिलीज हुआ है।

लेकिन हां, क्रिश्चिएनिटी में जैसा सीन है, वैसे हमारे में तो...

वह जैसे ही आप कहते हैं कि रिलीज हुआ है, आप मानते हैं कि वहां कुछ अभी जकड़ा हुआ है, जिसमें से कुछ रिलीज हुआ है। लेकिन तथ्य की तरह, तटस्थ तथ्य की तरह उसकी स्वीकृति कहीं भी नहीं है।

सब-कांशस में पड़ा होगा।

वह है न पूरा, वह है। हजारों साल से हमारा जो कलेक्टिव माइंड है, उसमें वह पड़ा हुआ है। तो हम जो रिलीज भी करते हैं थोड़ा सा, वह रिलीज भी टोटल नहीं है। और उस रिलीज से भी टेंशन पैदा होता है, क्योंकि आधा रिलीज होता है, आधा खिंचता है। यानी वह मामला ऐसा है कि जैसे कोई आदमी कार चला रहा हो, एक्सीलरेटर भी दबाता है और ब्रेक भी लगाता है। तो जो कार की हालत होने वाली है, वह आदमी के माइंड की हो रही है। इधर वह एक्सीलरेटर भी दबाता है कि गाड़ी बढ़नी चाहिए, उधर उसका अनकांशस माइंड ब्रेक भी लगाता है। इसमें गाड़ी के सिवाय टूट जाने के, एक्सीडेंट के, कुछ होने वाला नहीं है। इससे तो पुरानी हालत भी बेहतर थी, वह सिर्फ ब्रेक लगाने वाली हालत है--एक। एक सिर्फ पश्चिम की हालत है--एक्सीलरेटर दबाने वाली। अभी जो नया माइंड है वह इन दोनों के बीच में उपद्रव में पड़ गया है।
मेरा मानना है, मेरा मानना यह है कि एक्सीलरेटर भी दबाने योग्य है और उसको दबाने का वक्त है। और उसका ब्रेक भी लगाने योग्य है, लेकिन उसका भी वक्त होता है। और दोनों पर एक साथ लगाने योग्य कभी भी नहीं है। मेरी आप बात समझ रहे हैं न? जो आदमी सेक्स को सुंदर बनाना चाहता है, वह कोई ब्रेक नहीं तोड़ डालेगा; बल्कि मेरा मानना है कि उसका ब्रेक ज्यादा मजबूत साफ-सुथरा होगा। और ब्रेक इसलिए नहीं होगा कि सेक्स पाप है। ब्रेक इसलिए होगा कि सेक्स से बहुल इनर्जी है। और उस इनर्जी को कितना ऊंचा उठाना है, उतना संगृहीत करना जरूरी है।

अच्छा, प्राब्लम टेल के लेखक ए.एस.निल ने स्वयंभू-नीति की बात की है--इनहीबिशनलेस। चर्च था और चर्च में, चर्च के बाहर लड़के लोग प्ले-ग्राउंड में ऊधम करते थे और आवाज भी करते थे। तो क्या हुआ कि एक दिन रविवार आ गया तो लड़कों ने अपने आप ही अपनी स्वयंभू-नीति से ही निश्चित किया कि आज चर्च में कार्यक्रम होगा इसलिए हम यहां दंगा-फसाद, धमाल नहीं करेंगे। तो वह तो क्रिश्चिएनिटी में ही बना हुआ, गुजरा हुआ एक दृष्टांत है। ऐसे भी दृष्टांत मिलते हैं कि जो अपने आप ही वह है। इनहीबिशन है, वहां भी ऐसे उदाहरण मिलते हैं।

ऐसे उदाहरण मिल सकते हैं।

तो यह व्यक्ति पर आधारित है? वह तो एक समूह था लड़कों का।

व्यक्ति पर नहीं, समाज का जो मैकेनिज्म है, उस पर बहुत कुछ निर्भर है। असल में चर्च किसी को बुलाता नहीं। समझ लें। न किसी को रोकता है, न खेलने से रोकता है। लेकिन चर्च इतना आकर्षक हो सकता है, इतना शांत हो सकता है, वहां का संगीत इतना मधुर हो सकता है, प्रार्थना इतनी आनंदपूर्ण हो सकती है कि सामने खेलने वाले बच्चों को लगे कि आज हम चर्च में चलें। लेकिन इसमें अगर कोई समझ रहा हो कि बच्चे चर्च में गए, तो बहुत गलती में है--बच्चे संगीत के लिए गए होंगे, बच्चे प्रार्थना के लिए गए होंगे।

नहीं, चर्च में जाने के लिए नहीं।

मेरा मतलब आप समझे रहे हैं न? वह अगर चर्च में बहुत संगीत बज रहा है, प्रार्थना हो रही है, लोग शांत बैठे हैं, तो भी बच्चे रुक सकते हैं कि हम ऊधम न करें, यह भी संभव है। यह भी संभव है। और यह जितना सहज हो, उतना ही उचित है, महत्वपूर्ण है, श्रेष्ठ है।

उसका कोई हर्ज नहीं।

उसका कोई भी हर्ज नहीं है। जितना सहज हो जीवन, उतना ही महत्वपूर्ण है। और वह तो इनहीबिशनलेस तो होना ही चाहिए व्यक्तित्व।

आपके जो विधान दैनिक पत्र में आए थे गांधीजी के बारे में, तो चरखे को जला दो जैसे विधान शॉक ट्रीटमेंट में यकीनन काम आ सकते हैं, आ रहे हैं। मगर मास माइंड में इससे आपके शुभहितों को थोड़ी सी हानि नहीं पहुंचेगी--आपके शुभहितों को, आपका जो मिशन है?

मैं समझा। दो बातें हैं। दो बातें हैं। एक तो मेरा मिशन क्या है? मेरा मिशन है लोगों में विचार को जगा देना। उसको कोई नुकसान इससे नहीं पहुंचने वाला है, एक बात। दूसरी बात, चरखा जला देने जैसी बात मैंने कभी कही नहीं है।

अच्छा, इट इज़ शॉकिंग! वह तो जनसाधन में छपी भी थी।

कहा जो मैंने है वह यह है, मैंने कहा है कि एक वक्त आ गया है--एक समय था कि गांधी ने अंग्रेजी कपड़े जलवाए--एक वक्त आ गया है कि गांधी ने जो टोपी दी थी लोगों को, वह जलाने के योग्य हो गई है, क्योंकि वह प्रतीक बन गई है अब सत्ता की, ब्यूरोक्रेसी की, शोषण की। एक वक्त आ गया है कि अब वह गांधी की टोपी भी जला दी जाए। यह मैंने कहा था इस संदर्भ में कि जिनको हमने कल सेवक समझा था, उनकी टोपी आज सत्ता का प्रतीक बन गई है। चरखा जलाने की बात मैंने कभी कही नहीं। टोपी! और वह भी मैंने कहा कि वक्त आ गया है कि अब वह टोपी जलाने के योग्य हो गई है।
मगर इन सब चीजों को दूसरी शक्ल दे दी जाती है।

नेहरूजी अपनी इमेज बनाए रखने के लिए हिप्नोटिज्म करते हैं और मैं लोगों के भले के लिए कर रहा हूं, ऐसा कह कर आप अपनी इमेज को थोड़ा सा ईगोइस्ट बना दिए हैं--ऐसा लोगों का खयाल है।

यह भी मैंने कभी नहीं कहा। अब यह भी समझ लेने जैसा है। मैंने कहा कुल इतना कि मनुष्य और बृहत्तर मनुष्यता विचार से कम प्रभावित होती है, सुझाव से ज्यादा प्रभावित होती है। दुनिया में जो बहुत बड़ा जो क्राउड माइंड है, जो भीड़ का मन है, वह विचार वगैरह से प्रभावित कम होता है।
तो मैंने कहा यह कि हिटलर तो जान कर, जितने भी हिप्नोटिक टेक्नीक हैं, उनका उपयोग करता था। जैसे हाल को अंधेरा रखेगा, खुद को ऊंचे मंच पर खड़ा करेगा। प्रकाश सिर्फ हिटलर के ऊपर जले रहेंगे, सारा अंधकार रहेगा। कोई आदमी दो घंटे तक किसी दूसरे को देख नहीं सकेगा, दो घंटे तक उसको हिटलर के ही चेहरे को देखना पड़ेगा। यह इमेज उसके भीतर प्रविष्ट होगी। वैज्ञानिकों से पूछ कर तय किया जाता था कि आंख का पलक कितना ऊंचा रहना चाहिए सुनने वाले का, ताकि आंख के स्नायु शिथिल हो जाएं और सजेस्टेबल हो जाए माइंड।
तो हिटलर तो यह सब जान कर करता था। मैंने कहा यह कि हिटलर यह जान कर करता था। नेहरू ने कभी जान कर यह नहीं किया है, लेकिन नेहरू से यह हुआ है, यह बिलकुल हुआ है। वह प्रोसेस में ऐसा हो गया है, नेहरू को पता भी नहीं है इसका। लेकिन यह हो गया है। मेरा मतलब आप समझ रहे हैं न?

उनका गुलाब भी सिंबल बन गया।

हां, वह सारी चीजें सिंबल बन जाती हैं। अगर नेहरू की जगह आप एक दूसरे आदमी को लाकर खड़ा कर दें भाषण करने को और कहें कि नेहरू भाषण कर रहा है, और गुलाब और सारी पूरी बात हो, तो जनता उतनी ही प्रभावित होगी जितनी नेहरू से। वह जनता नेहरू से प्रभावित नहीं हो रही, वह अपनी इमेज से प्रभावित हो रही है। वह जो इमेज उसने बना रखी है।

नेहरू के सिवाय कोई और ऐसा गुलाब रखता...।

मैं यह नहीं कह रहा, कोई और का नहीं कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि नेहरू की जगह, जनता को पता हो कि नेहरू ही आकर भाषण दे रहे हैं और नेहरू की इमेज पूरी की पूरी बना कर खड़ी कर दी जाए, तो जनता उतनी ही प्रभावित होगी इस आदमी से भी जो कि नेहरू नहीं है।

वे इमेज से काम ले रहे हैं। उनका रिश्ता इमेज से है।
हां, जनता इमेज से प्रभावित हो रही है, नेहरू-वेहरू से नहीं। और आज नेहरू को लाकर आप खड़ा कर दें दूसरी शक्ल में और लोगों को पता न हो कि नेहरू है...।
मैंने पढ़ा ठक्कर बाबा के बाबत, कि ठक्कर बाबा किसी ट्रेन से जा रहे हैं, कहीं से शायद अहमदाबाद आ रहे हैं या कहीं आस-पास। और उनका वहां भाषण होने वाला है, अखबारों में सब फोटो और भाषण की बात छपी है। और थर्ड क्लास के कंपार्टमेंट में एक आदमी बिस्तर लगाए हुए लेटा है। और उस भीड़ में ठक्कर बाबा खड़े हैं और उस आदमी से कहते हैं कि भई तुम थोड़ा हट जाओ, तो मुझे बैठ जाने दो। वह कहता है, खड़े रहो बुङ्ढे! गड़बड़ न करो! और अखबार पढ़ कर वह बगल के आदमी से कहता है कि ठक्कर बाबा का भाषण है, वह सुनने चलना है जरूर, बहुत गजब का आदमी है साहब!
और ठक्कर बाबा बगल में खड़े हैं, उनको बैठने दे नहीं रहा है। यही आदमी कल भीड़ में ठक्कर बाबा को सुनेगा और प्रभावित होगा। यानी हम इमेज से चलते हैं।
तो मैंने कहा यह कि नेहरू का पूरा व्यक्तित्व और सारी व्यवस्था, नेहरू पर कोई पचास हजार रुपया रोज खर्च होता रहा है--सारे इंतजाम, सारी व्यवस्था, सारे शोरगुल में। यह सारा का सारा इंतजाम और सारी व्यवस्था से आदमी प्रभावित होता है।
और यह तो मैंने कभी कहा नहीं कि मैं जो हिप्नोटिज्म...एक तो मैं हिप्नोटिज्म का प्रयोग करता नहीं। समझ लें मेरी बात को! मैं तो चाहता हूं कि आदमी सजग हो जाए हिप्नोटिज्म से और कभी हिप्नोटिक रास्तों से प्रभावित न हो। क्योंकि वही सबसे खतरनाक तरकीब है जिससे आदमी के विचार को चोट पहुंचती है। तो मैं तो समझाना--यह जो बात भी समझाई थी वह इसलिए कि एक-एक आदमी को जानना चाहिए कि किन-किन तरकीबों से आपका दिमाग हिप्नोटिक स्लीप में जाता है। और उन तरकीबों से सावधान रहना चाहिए। क्योंकि जितना आदमी सावधान होगा, उतना ही दुनिया का हिप्नोटिक शोषण कम किया जा सकता है। इसलिए मैंने कहा। मैं तो यह कहता ही नहीं कि मैं हिप्नोटिज्म का प्रयोग करता हूं।
लेकिन वह जो पत्रकार ने गड़बड़ की। हुआ क्या, जो पत्रकार इसमें बातचीत में थे, वे मेरे साथ ट्रेन में बंबई तक गए। और मुझसे उन्होंने कहा कि मुझे कुछ तकलीफ है पेट में। और वह तकलीफ ऐसी है कि डाक्टर मुझे कहते हैं कि पेट में तो तकलीफ नहीं है, शायद आपके मन में ही तकलीफ है। तो क्या आप मुझे बता सकते हैं कि कोई हिप्नोटिक तरकीबों से यह फायदा हो सकता है? तो मैंने उनसे कहा कि बराबर हो सकता है, अगर तकलीफ झूठी है तो हिप्नोटिज्म से फायदा हो सकता है। और उन्होंने कहा, तो क्या आप कभी मुझे सहायता कर सकते हैं? मैंने कहा, मेरे पास वक्त हो तो दोत्तीन दिन के लिए आप आ जाएं, तो मैं हिप्नोटिज्म से पूरी सहायता कर सकता हूं।
मैंने उनसे कहा, हिप्नोटिज्म एक थेरेपी बन सकता है। लेकिन मास-माइंड को प्रभावित करने के लिए बहुत खतरनाक ईजाद है।
मेरा फर्क समझ रहे हैं न आप?
उन सज्जन से मैंने कहा था कि यह थेरेपिटिक हो सकता है। और है। अगर झूठी बीमारी है तो झूठे इलाज से ठीक हो जाएगी, इसमें कोई तकलीफ नहीं है। उन सज्जन से मैंने यह कहा। उन्होंने जाकर अखबार में छापा कि मैं कहता हूं कि मेरे हिप्नोटिज्म से तो फायदा हो सकता है--क्योंकि मैंने उनसे कहा था कि आपकी बीमारी को मैं फायदा पहुंचा सकता हूं--और दूसरों के हिप्नोटिज्म से नुकसान होता है।
मैं हिप्नोटिज्म के सख्त खिलाफ हूं, थेरेपी को सिर्फ छोड़ कर। हिप्नोटिज्म को मैं एक थेरेपी मानता हूं। और जब तक दुनिया में लोग झूठे ढंग से बीमार पड़ते हैं तब तक वह काम कर सकता है। और लोग झूठे बीमार पड़ते हैं, सौ में से पचहत्तर परसेंट बीमारियां तो झूठी होती हैं, जो सिर्फ कल्पना में होती हैं।

आपकी प्रवचन शैली दृष्टांत-प्रधान आडियंस में है, एनक्डोटल है। क्या कभी ऐसा नहीं हो पाता जब एक एनक्डोट के हार्प को दूसरी एनक्डोट की फलश्रुति नुकसान पहुंचाए?

यह फलश्रुति समझने में नुकसान पहुंच सकता है। मेरी तरफ से तो नहीं पहुंचता। क्योंकि मेरी दृष्टि में तो एक सुसंगति है उन दोनों के बीच में; और मैं उसी की तरफ इशारा कर रहा हूं। लेकिन यह कभी हो सकता है। क्योंकि दृष्टांत के बहुत से पहलू हैं। मैं एक पहलू पर जोर दे रहा हूं, हो सकता है आपका ध्यान दूसरे पहलू पर चला जाए।

आपको दृष्टांत कथा को वक्तव्य के अनुकूल बनाने के लिए टि्वस्ट करना पड़ता है, तब तथ्य और तवारीख को थोड़ी सी हानि नहीं पहुंचती है?

नहीं, पहली तो बात यह है, पहली तो बात यह है कि जो भी मैं एनक्डोट उपयोग करता हूं, वे जहां तक तो ऐतिहासिक नहीं होते हैं। अगर ऐतिहासिक होते हैं तब मैं उसको जरा भी बदलता नहीं; उसको वैसा ही रखता हूं, जरा भी बदलता नहीं। हां, अगर ऐतिहासिक नहीं हैं...।

उमाशंकर जी ने...ज्योतिशिंग में आए थे उस दिन...उस दिन वह भैंस वाला सिंगड़ा उग गया, उन्होंने कुछ उपनिषद के ऋषि के बारे में कहा था और आपने वह नागार्जुन के बारे में कहा। ऐसा मुझे, स्मृति ऐसी है मेरी।

हां, मैंने नागार्जुन के बाबत ही कहा। अब इसमें हुआ क्या है कि फेबल जो चल रहे हैं, वे सबने उपयोग किए हैं--वह जैन ग्रंथ में भी मिल जाएगा, वह हिंदू ग्रंथ में भी मिल जाएगा, बौद्ध ग्रंथ में भी मिल जाएगा। तो फेबल्स ऐसे हैं कि वे सामूहिक संपत्ति हो गए हैं, उन पर किसी का हक नहीं रह गया है। वे सबने उपयोग किए हैं अपने-अपने ढंग से। और इसलिए उनके कई तरह से उपयोग हो सकते हैं, बिलकुल हो सकते हैं।
और यह संभावना रहती है, क्योंकि एनक्डोट जो है उसके तो मल्टी आस्पेक्ट्स हैं। अब मैं किसी और आस्पेक्ट से कह रहा हूं, आपको कोई दूसरा आस्पेक्ट खयाल में आ गया तो...

यहां एक मुलाकात में आपने कल ही बताया: धर्म मन बहलाव का साधन है और वैज्ञानिक चिंतन धार्मिक मनुष्य नहीं कर सकता। तो क्या राजा जी और डाक्टर राधाकृष्णन धर्माभिमुख व्यक्ति होते हुए भी वैज्ञानिक चिंतन नहीं चाहते हैं? अतीत में विवेकानंद और दयानंद ने भी समाज को कु-रूढ़ियों से बचाने का प्रयत्न नहीं किया?
दो बातें समझ लेनी चाहिए। पहली तो बात यह कि मेरा मानना है कि जिसको मैं धार्मिक व्यक्ति कह रहा हूं अर्थात तथाकथित धार्मिक व्यक्ति, जिसको हम धार्मिक कहते हैं। मेरी दृष्टि में अभी तक जिसको हम धार्मिक व्यक्ति समझते हैं--सो काल्ड रिलीजस--वह अवैज्ञानिक है। मेरी दृष्टि यह है कि अगर वैज्ञानिक चिंतन हो तो एक नये तरह का रिलीजस माइंड पैदा होता है, जो वैज्ञानिक होगा। उस वैज्ञानिक चित्त में धर्म भी एक विज्ञान की तरह ही प्रवेश करेगा, एक सुपरस्टीशन की तरह नहीं।

राधाकृष्णन में आप वह बात नहीं कह रहे हैं।

नहीं, वह बात नहीं कह रहा हूं! दूसरी बात यह कि राधाकृष्णन को मैं कोई धार्मिक आदमी नहीं मानता, पहली बात, न ही विचारक मानता हूं और न चिंतक मानता हूं। राधाकृष्णन बिलकुल ही एक टीकाकार और एक कमेंट्रेटर और एक अनुवादक से ज्यादा नहीं हैं। अच्छे अनुवादक हैं, सुंदर अनुवादक हैं और बहुत पोएटिक एक्सप्रेशन के अनुवादक हैं। लेकिन न तो एक मौलिक विचार है उनके पास और न ही वे धार्मिक व्यक्ति हैं। धार्मिक व्यक्ति उस अर्थ में जैसे कि रमण; धार्मिक व्यक्ति उस अर्थ में जैसे कि कृष्णमूर्ति; तो उस अर्थ में वे बिलकुल भी धार्मिक नहीं हैं।

उस अर्थ में नहीं हैं!

उसी अर्थ को मैं धार्मिक कहता हूं।

तिरुपति जी का प्रसाद भी लेते हैं!

हांऱ्हां! वे धार्मिक बिलकुल नहीं हैं। बल्कि मेरी अपनी दृष्टि यह है कि उनको अगर कहीं भी तौला जा सके, तो वे एक बहुत ही चालाक किस्म के राजनीतिज्ञ हैं। एक पोलिटीशियन से ज्यादा वे नहीं हैं। और वह भी मैं चालाक किस्म के कहता हूं। क्योंकि पोलिटीशियन भी साफ-सुथरा हो और सीधा हो, तो उसमें भी एक बात होती है। वे साफ-सुथरे और सीधे भी नहीं हैं। वे पीछे के रास्तों से राजनीति पर सारी यात्रा किए हैं।
बनारस यूनिवर्सिटी में जब राधाकृष्णन वाइस चांसलर थे, तो राज बहादुर, वह वहां प्रेसिडेंट था यूनियन का विद्यार्थियों की। तो उसने पीछे एक वक्तव्य में कहा कि जब मैं प्रेसिडेंट था यूनियन का, तो राधाकृष्णन मेरी खुशामद करके और मुझसे कहते थे कि कांग्रेसी नेताओं से मेरी सिफारिश करके आगे मुझे बढ़ाने की कोशिश करो। और डाक्टर लोहिया ने उसका वक्तव्य पार्लियामेंट में भी पेश किया।

इट इज़ नाट टु बी प्रिंटेड?

नहीं, मैं नहीं कहता। प्रिंट-व्रिंट करो जो करना है, उसमें कोई हर्जा नहीं है। उसमें कोई हर्जा नहीं है। इसमें कोई चिंता की बात नहीं है।
राधाकृष्णन को मैं कोई न तो धार्मिक आदमी मानता हूं और न कुछ कोई बड़ा विचारक मानता हूं।

रही विवेकानंद और दयानंद के बारे में।

हां, दयानंद एक बड़े पंडित हैं। और कई अर्थ में मौलिक पंडित हैं, बड़ा मौलिक चिंतन है उनका। लेकिन वे पंडित ही हैं, धार्मिक आदमी नहीं हैं। दयानंद की बजाय विवेकानंद ज्यादा धार्मिक आदमी हैं, मौलिक चिंतक भी हैं।

वह आपके साथ ही एक "संदेश' में एक लेख मैंने देखा है, जिसमें आपका वक्तव्य और विवेकानंद का एक ही हो जाता है। उन्होंने यह कहा था कि देश तमस में गिरा हुआ है और शिष्य, मांस और मछली भी खाओ! क्योंकि देश को रजसत्तत्व से जागरूक करना होगा। एक ही हो गया यह।

विवेकानंद मुझे दयानंद से बहुत ज्यादा धार्मिक आदमी मालूम पड़ते हैं। लेकिन कहता हूं बहुत ज्यादा; पूरे धार्मिक नहीं। पूरा धार्मिक आदमी मैं मानता हूं--जैसे रमण को, रामकृष्ण को। ये आदमी जिसको ठीक रिलीजस आदमी कहें, रिलीजस माइंड जिसे कहें, उस तरह के लोग हैं।

मगर वह तो इनएक्शन, केवल थ्रू निगेटिंग एक्शन थ्रूआउट योर लाइफ...।

हांऱ्हां, बिलकुल हो सकता है। धार्मिक व्यक्ति की अभिव्यक्तियां बहुत तरह की हो सकती हैं। एक धार्मिक व्यक्ति परिपूर्ण रूप से सक्रिय हो सकता है। एक धार्मिक व्यक्ति परिपूर्ण रूप से निष्क्रिय हो सकता है। लेकिन एक मजे की बात है, दोनों के बीच एक खूबी रहेगी: धार्मिक व्यक्ति अगर परिपूर्ण रूप से सक्रिय है तो भी भीतर से निष्क्रिय होगा; और धार्मिक व्यक्ति अगर बाहर से बिलकुल निष्क्रिय है तो भी भीतर से परिपूर्ण सक्रिय रहेगा।

मेरे खयाल से रमण का प्रतिरूप आप हैं, एक्शन को...

यह हो सकता है। मेरी दृष्टि में धार्मिक व्यक्ति की दो स्थितियां हो सकती हैं--या तो उसकी प्रवृत्ति में निवृत्ति होगी या निवृत्ति में उसकी प्रवृत्ति होगी।

गांधी जी का व्यक्ति पर विश्वास था, इसलिए उन्होंने ट्रस्टीशिप का सिद्धांत प्रजा के सामने रखा। और आप जो विरोध कर रहे हैं, इसका मतलब यह नहीं कि आपको व्यक्ति की मानवता पर कोई एतबार नहीं रहा?

मुझे पूरा एतबार है। व्यक्ति की मानवता पर मुझे पूरा एतबार है, व्यक्ति पर मुझे पूरा एतबार है। लेकिन व्यक्ति को, एक व्यक्ति पर एतबार करने से पूरा समाज नहीं बदल जाता है। आप में मुझे एतबार है, आप पर भी मुझे एतबार है, अगर सारे व्यक्ति एक साथ मेरी बात को मान कर बदल जाएं तो समाज बदल जाएगा। लेकिन आप बदल जाते हैं और चालीस करोड़ का समाज का यंत्र नहीं बदलता है। आप पर मुझे एतबार है, एक-एक पर मुझे सब पर एतबार है। लेकिन एक बदलता है और चालीस करोड़ का यंत्र नहीं बदलता है, तो आपकी बदलाहट से कुछ समाज में क्रांति होने वाली नहीं है।
तब फिर जरूरी यह है कि हम एक-एक व्यक्ति के विचार को परसुएड करें, समझाएं-बुझाएं और इस बात के लिए राजी करें कि तुम अकेले मत बदलो, बल्कि समाज के यंत्र को बदलने का सामूहिक प्रयास करो। क्योंकि समूह का जो यंत्र है वह सिर्फ व्यक्ति के हृदय बदल जाने से नहीं बदल जाने वाला, उस यंत्र को भी बदलना पड़ेगा।
जैसे हम यहां इतने लोग बैठे हैं। कंडीशनर चल रहा है, वह एक यंत्र है। बच्चू भाई बदल गए, वे कहते हैं, कंडीशनर नहीं चलना चाहिए। लेकिन हम दस लोग कहते हैं कि कंडीशनर चलना चाहिए। समझे न आप? तो बच्चू भाई क्या कर सकते हैं? बच्चू भाई क्या कर सकते हैं? वह एक यंत्र है, जो हम दस की इच्छा से चल रहा है। बच्चू भाई की भी इच्छा थी, उन्होंने अपनी इच्छा खींच ली, तो बच्चू भाई गिर जाएंगे यंत्र के बाहर; लेकिन यंत्र जारी रहेगा और बच्चू भाई की जगह दूसरा आदमी बैठ जाएगा। उस यंत्र को बदलने के लिए जरूरी है...हम दसों आदमी भी राजी हो जाएं और फिर भी यंत्र को न बदलें, हम दसों भी राजी होकर बैठ गए और यंत्र को न बदलें, तो भी यंत्र जारी रहेगा।

इट इज़ पासिबल?

इसलिए मैंने कहा कि गांधी जी का वह ट्रस्टी का काम नहीं करेगा। वह गांधी जी की ट्रस्टीशिप की बात व्यक्ति पर विश्वास को जाहिर करती है, लेकिन अवैज्ञानिक है। क्योंकि हम कब किस स्थिति में आकर दुनिया के साढ़े तीन अरब लोगों को राजी करेंगे कि तुम अब व्यक्तिगत संपत्ति छोड़ दो या व्यक्तिगत संपत्ति के ट्रस्टी हो जाओ।
तो मेरा कहना यह है कि हमें व्यक्ति के विचार को राजी करके और समूह के यंत्र की प्रक्रिया को तोड़ना और बदलना पड़ेगा।

आप प्रथम परिवेश बदलने का आदेश देते हो, मगर सामाजिक व्यवस्था का परिवर्तन हुए बिना यह कैसे हो सकता है?

बिलकुल ठीक कहते हैं।

पहले सामाजिक व्यवस्था या परिवेश? पहले परिवेश या सामाजिक व्यवस्था?

न, ऐसा पहले और पीछे का प्रश्न ही असंगत है, साथ ही है सारा मामला। वह मुर्गी और अंडे जैसा मामला है कि कौन पहले? वह कोई पहले नहीं है। व्यक्ति का विचार बदलेगा--समाज बदलेगा। समाज बदलेगा--व्यक्ति का विचार बदलेगा। इतने जुड़े हुए हैं ये कि हमें दोनों तरफ प्रयास करना होगा।
विनोबा प्रेरित भूमिदान के संबंध में आपने बताया कि शोषक दान देता है, मगर शोषक नहीं मिट जाता। यह आप कुछ छोटे-मोटे दृष्टांत से जनरलाइज तो नहीं कर रहे हैं?

नहीं, बिलकुल नहीं कर रहा हूं। एक भी दृष्टांत इसके उलटे मिलना मुश्किल है जो मैं कह रहा हूं। यानी एक भी आदमी ऐसा मिलना मुश्किल है जिसने भूमिदान दिया हो, फिर उसने शोषण का कर्म बंद कर दिया--एक भी! यानी मैं जो कह रहा हूं, शोषण का कर्म बंद कर दिया। कर भी नहीं सकता जीते जी, क्योंकि पूरा समाज शोषण का है। वह आदमी जैसे ही जीएगा यहां, वह शोषण जारी करेगा।

ही इज़ जस्ट ए कॉग इन ए ग्रेट मशीनरी।

हां, उस बड़ी मशीन में वह कर क्या सकता है? और अगर समझो वह सब कुछ छोड़ देगा, तो वह भिक्षा-पात्र लेकर बैठ जाएगा, सर्वोदय-पात्र लेकर, और शोषण जारी करेगा। वह करेगा क्या? जब शोषण की व्यवस्था चल रही है और आपको उसमें जीना है...।
हां, एक ही रास्ता है, आप शोषण से बच सकते हैं इस व्यवस्था में कि आप मर जाएं।

सुसाइड?

हां, और कोई रास्ता नहीं है। तो वह आप करेंगे क्या? जयंत भाई को अच्छी लगी मेरी बात और उन्होंने जमीन दान दे दी। फिर जयंत भाई क्या करेंगे? ये कुछ तो करेंगे न इस सोसाइटी में जीने के लिए! ये जो भी करेंगे उसमें शोषण जारी रहेगा। और बहुत संभावना इस बात की है कि जितनी जमीन इन्होंने छोड़ दी है, उसको पैदा करने के लिए तेजी से शोषण करेंगे। क्योंकि इनकी सारी स्थिति डगमगा गई वह छोड़ देने से, उनको फिर वापस पैदा कर लेना पड़ेगा।
तो मैं एकाध-दो उदाहरण के आधार पर नहीं कह रहा हूं। मैं कह रहा हूं कि वह निरपवाद वैसा है।

प्रोसेस ऑफ बिकमिंग में आपको रस है, इससे हम नई-नई परिस्थिति में प्रवेश पाने का साहस व आनंद ले सकेंगे। मगर हमारे एक्ट्स से जो अनिश्चितताएं भी पैदा साथ में होंगी, पैदा कर लेंगे, उसका क्या?

अनिश्चितता बहुत अच्छी बात है। मेरा कहना है कि निश्चितता जीवन का लक्षण नहीं है। अनिश्चितता, वह जो अनसर्टेनटी है, वह जीवन का तत्व है।

ग्लैमर ऑफ अनसर्टेनटी।

हां, तो वह अनसर्टेनटी इतनी रसपूर्ण है कि वह हमें पैदा करनी चाहिए।

वह मिस्टीक बन जाती है।
हां, बिलकुल मिस्टीक है। और वह हमें पैदा करनी चाहिए। सच बात तो यह है कि सिक्योरिटी बिलकुल फाल्स है, जिंदगी इनसिक्योरिटी है। और उस इनसिक्योरिटी में हम कितना रस ले पाते हैं, इस पर ही हमारी जीवन की कला निर्भर है।

भारतीय मानस व्यक्तिगत चारित्र्य के आधार पर स्थगित हो गया है, ऐसा आपने कहा। मगर चारित्र्य शिथिल व्यक्ति ने, समझिए कोई चोर और व्यभिचारी ने कोई सत्य का उच्चारण कर लिया, इससे बेहतर यह नहीं कि चारित्र्य संपन्न व्यक्ति के मुख से यदि वही बात निकले तो वह ज्यादा समाज में प्रभाव उत्पादक सिद्ध होगी?

दो बातें हैं। पहली तो बात, किसे हम चरित्र कहते हैं? जो मैंने अभी नैतिकता के बाबत कहा। जिसको आप चरित्रवान कहते हैं, मैं उसे सिर्फ जबरदस्ती बना हुआ चरित्रवान कहता हूं। वह सप्रेस्ड है। जिस-जिस को आप बुरा कहते हैं, उसने अपने भीतर दबा रखा है। वह सब उसके भीतर मौजूद है। वह कहीं चला नहीं गया है। जिसको आप चरित्रवान कहते हैं।
हां, वह सिर्फ, अगर वह अहिंसा उसने साध ली है ऊपर से, तो भीतर उसके हिंसा मौजूद है। ऊपर से क्षमा साध ली है, भीतर क्रोध मौजूद है। क्योंकि आपकी जो प्रक्रिया है चरित्र को पैदा करने की, वह दमन की है। तो चरित्रवान जो व्यक्ति है वह भीतर से उतना ही चरित्रहीन है जितना कि दूसरा चरित्रहीन बाहर से आपको चरित्रहीन दिखाई पड़ रहा है। बल्कि एक मेरी और मान्यता है कि सामान्यतः जिसको हम चरित्रहीन कहते हैं, वह ज्यादा सरल, सीधा और साफ हो सकता है। लेकिन जिसको हम चरित्रवान कहते हैं, वह बहुत कुटिल, जटिल और कनिंग होता है। क्योंकि उसको दोहरे व्यक्तित्वों को सम्हालना पड़ता है पूरे वक्त।

स्प्लिट पर्सनैलिटी है।

हां, स्प्लिट पर्सनैलिटी है। मैं उसको चरित्रवान कहता नहीं। मेरा कहना है कि एक और चरित्र है, जो जीवन की स्पांटेनिटी, जो जीवन की सहजता से निकलता है, जो जीवन को समझने से निकलता है। वैसा जो आदमी है, वह जीवन को समझने की वजह से एक तरह से जीता है, दमन की वजह से नहीं। इस वजह से नहीं कि मोक्ष जाना है, इस वजह से भी नहीं कि लोग अच्छा कहेंगे, रिस्पेक्टबिलिटी उसका कारण नहीं है।
लेकिन जिसको आप चरित्रवान कहते हैं, उसका मौलिक कारण सिर्फ रिस्पेक्टबिलिटी है कि लोग आदर देंगे। अगर लोगों का आदर खिसक जाए तो वह चरित्र उसका खिसक जाएगा। मैं उस व्यक्ति को चरित्रवान कहता हूं, जो न रिस्पेक्टबिलिटी के लिए वैसा कर रहा है, न मोक्ष के लिए, न स्वर्ग के लिए, न पुण्य के लिए; उसे आनंदपूर्ण जो है वह कर रहा है, समझपूर्ण जो है वह कर रहा है। ऐसा व्यक्ति चरित्रवान होगा मेरी दृष्टि में। लेकिन ऐसे व्यक्ति को चरित्रवान होने का दावा भी नहीं होगा। ऐसे व्यक्ति को चरित्रवान होने का अहंकार भी नहीं होगा। ऐसे व्यक्ति को चरित्रवान होने का पता भी नहीं होगा। वह कांशस भी नहीं होगा कि मैं चरित्रवान हूं।
तो गार्ड के लिए वह टिकट लेता है ट्रेन में, ऐसा चरित्रवान होगा तथाकथित।

बिलकुल ही, उसके लिए ही लेता है, उसके लिए ही लेता है।

अच्छा, महात्मा जी ने राजकरण में धर्म को प्रवेश दिया। आज लोग कहते हैं कि धर्म प्रवचन के निमित्त आपने धर्म में राजकरण का प्रवेश करवाया। एनी कमेंट?

मेरी दृष्टि यह है, मेरी दृष्टि यह है कि जीवन एक समग्रता है। उसे मैं धर्म, राजनीति और शिक्षा, इस तरह तोड़ता नहीं हूं। मेरे लिए जीवन एक अखंडता है! और जो व्यक्ति जीवन की अखंडता को समझने चलेगा, उस व्यक्ति को जीवन के सारे पहलुओं पर सोचना पड़ेगा और सारे पहलुओं पर विचार भी करना पड़ेगा। तो मैं जीवन को खंड-खंड में, वह कंपार्टमेंटलाइज करने के पक्ष में नहीं हूं। मेरे लिए जीवन एक अखंड इकाई है!
और अब तक लेकिन यही किया गया है कि जीवन को खंड-खंड बांट दिया गया है। एक धार्मिक आदमी है तो वह बस निपट धार्मिक है। उसकी मंदिर तक सीमा है, उसे जीवन की किसी बात पर नहीं बोलना है। जीवन में राजनीति में जो आदमी खड़ा है, उसे मंदिर से कुछ लेना-देना नहीं है, वह अपनी दुनिया में है। ऐसे हमने टुकड़े-टुकड़े बांटे हैं। इन टुकड़ों से समाज भी स्प्लिट पर्सनैलिटी हो गई है और व्यक्ति भी स्प्लिट पर्सनैलिटी हो गई है। मैं इन सबको इकट्ठा करना चाहता हूं। मेरे लिए यह सवाल ही नहीं है।
गांधीजी के लिए यह सवाल था। क्योंकि गांधीजी यह कहते थे कि मैं एक राजनैतिक व्यक्ति हूं और धार्मिक बनने की कोशिश कर रहा हूं। मैं यह नहीं कहता हूं कि मैं एक धार्मिक व्यक्ति हूं और राजनैतिक बनने की कोशिश कर रहा हूं। मैं यह नहीं कहता हूं। मैं यह कहता हूं कि मैं एक व्यक्ति हूं जो जीवन को उसकी अखंडता में देखना और जीना चाहता हूं। उस अखंडता में जो भी आता है, मुझे स्वीकार है। उस अखंडता में मुझे किसी चीज से इनकार नहीं है।

साधना पथ में आपने कहा है: कोई भी प्रकार की वासना वासना ही होती है। यह रमण की दृष्टि-बिंदु से ही मैं कहता हूं, वासना तो वासना ही है। तब आप "जो है' उसको "होना चाहिए' की दिशा में ले जाना चाहते हैं, तो उसमें अभिनिवेशपूर्ण वासना का अंश थोड़ा सा भी है?

जरा भी नहीं है। क्योंकि जो मैं कहता हूं, जो है व्यक्ति, मेरा कहना है, वही हो सकता है, अन्यथा हो ही नहीं सकता। बिकमिंग जो है वह बीइंग से अन्यथा नहीं हो सकती। जो व्यक्ति है, वही हो सकता है। जो फर्क पड़ता है वह सिर्फ बीज और वृक्ष का है। एक बीज है, वह वृक्ष होता है। वृक्ष होता है इसीलिए कि जब वह बीज था तब भी वह छिपे अर्थों में वृक्ष था, सिर्फ अभिव्यक्ति का फर्क पड़ता है। बिकमिंग जो है वह सिर्फ एक्सप्रेशन है।

कृष्णमूर्ति दि फर्स्ट एंड लास्ट फ्रीडम में कहते हैं: दि वेरी आइडिया ऑफ लीडिंग समबडी इज़ एंटी सोशल एंड एंटी स्प्रिचुअल।
बिलकुल ही ठीक कहते हैं। बिलकुल ही ठीक कहते हैं। और न मैं किसी को लीड कर रहा हूं, और न किसी को लीड करने का मेरा खयाल है। जो मुझे ठीक लगता है उसे उसी तरह कह रहा हूं जैसे कि फूल खिल जाए। उससे ज्यादा प्रयोजन नहीं है।

लेकिन आप जब कमेंट करते हैं, क्रिटिसाइज करते हैं, तब तो लोगों के सामने एक चित्र खड़ा होगा कि यह खराब है और यह ठीक है।

हां, बिलकुल ही खड़ा होगा। और उस चित्र को...

उसमें लीडिंग का तत्व आता है।

जरा भी नहीं आता। मैं अपनी दृष्टि जाहिर कर रहा हूं। जैसे ही मैं यह कहूं कि मेरी दृष्टि को मान कर चलो, वैसे ही लीडिंग का तत्व आता है। मेरा कुल कहना इतना है...।

वह तो स्टाइल का सवाल हुआ न।

न-न, स्टाइल का सवाल नहीं है, मेरी दृष्टि का ही पूरा सवाल है। मेरा कहना ही कुल इतना है कि मैंने जो कह दिया...वह तो कृष्णमूर्ति भी अगर लोगों से यह कहते हैं...

हां, वह तो पूछा ही है कि आप गुरु नहीं हैं?

नहीं, अगर यह भी आप लोगों को कहते हैं कि किसी को लीड करना, इसमें भी वासना है, तो यह कहना भी उस अर्थ में लीड करना शुरू हो गया।

महर्षि तो बोलते भी नहीं थे।

न, न, न। तो न बोलें तो भी लीड करना शुरू हो गया।

मौन भी कभी...।

इससे क्या फर्क पड़ता है, इससे क्या फर्क पड़ता है? आप यह कह रहे हैं कि नहीं बोलना चाहिए। इससे फर्क क्या पड़ता है? असल में जीना अभिव्यक्ति है। यू कैन नाट एक्झिस्ट विदाउट एक्सप्रेशन। तो तुम एक्झिस्ट करोगे, तुम्हारा जो भी एक्सप्रेशन हो! मैं कल चुप होकर बैठ जाऊं एक कोने में, तो भी मैं लीड कर रहा हूं एक अर्थ में। क्योंकि जयंत भाई मेरे पास आएंगे और देखेंगे और कहेंगे कि हां, यह आदमी शांत हो गया चुप बैठने से; हम भी जाएं, चुप बैठें और शांत हो जाएं।
मेरा मतलब आप समझ रहे हैं न? आप जब तक जीते हैं तो आप अभिव्यक्त करेंगे, कुछ भी करेंगे अभिव्यक्त, आंख बंद कर लेंगे, तो एक आदमी सोचेगा कि आंख बंद कर लेने से मिलता है सत्य, तो आंख बंद कर लेगा। हमारा जीना अभिव्यक्ति है। इसलिए कोई किसी भी तरह से जीए, जब तक वह जीता है, अभिव्यक्त करेगा। इसलिए इसको मैं लीड करना नहीं कहता। मेरा कहना है कि जब वह सचेष्ट, जब वह चेष्टा करके और आपको अनुगमन देने की कोशिश करता है। और कहता है, मेरे पीछे आओ! जो मैं कहता हूं, उसको मानो! जो मैं कहता हूं, वही सत्य है! जो मैं कहता हूं, वैसे ही चल कर तुम कहीं पहुंच सकोगे, नहीं तो नहीं पहुंच सकोगे! तब वह लीड कर रहा है।
मेरा यह काम नहीं है। मेरा काम कुल इतना है कि मुझे जो ठीक लगता है, जो आनंदपूर्ण है, वह मैं कह देता हूं। बात खत्म हो गई। इससे आगे मेरा आपसे कोई संबंध नहीं है।

कल सामाजिक क्रांति पर बोलते हुए आपने बताया कि धूल में लेटने-खेलने वाले सिंहासन को लात मारने की चेष्टा जताने की तकलीफ क्यों उठाते हैं। मेरा मंतव्य यह है कि आपका अभियान धूल-धूसरित लोगों के सामने है। क्या यह भी एक प्रतिक्रियावादी एटिटयूड नहीं है? रिएक्शनरी एटिटयूड नहीं है?

मैं समझा नहीं क्या मतलब।

आपने कल बताया कि धूल में लेटने-खेलने वाले सिंहासन को लात मारने की चेष्टा जताने की तकलीफ क्यों उठाते हैं। उनका रिएक्शन है। सिंहासन को लात मारने की बात करते हैं। मेरा मंतव्य यह है कि आपका अभियान धूल-धूसरित लोगों के सामने है।

नहीं, मेरा सबके सामने है। मुझे कोई प्रयोजन नहीं धूल-धूसरित से और महल में रहने वाले से।

आप दृष्टांत जब देते थे, तब सिंहासन वाले को धूल वाला ऐसा बोलता है यहां संतुष्ट रह कर। तो कल जो आप कह रहे थे, इसमें से टोन ऐसा लगता था कि आप धूल-धूसरित लोगों के सामने ऐसा कहते हैं।

जरा भी नहीं, जरा भी नहीं। वह जो दृष्टांत मैं दे रहा था, वह तो सिर्फ मैं यह कह रहा था कि लोग दुख में रह कर सुखी आदमी की तरफ देख कर संतोष पाने के न मालूम कितने उपाय खोजते हैं।
मेरे अभियान के लिए किसी आदमी से उसका कोई संबंध नहीं है, न गरीब से, न अमीर से। आदमी से संबंध है। और अभियान से भी मेरा संबंध कुल इतना है कि मुझे जो ठीक लगता है वह मैं कह देता हूं, क्योंकि कहना मुझे आनंदपूर्ण है। बात खत्म हो गई। उसके पीछे कोई अभियान नहीं है, मिशन जैसी भी कोई बात नहीं है।

अच्छा, आप यह तो कबूल करते होंगे न कि प्रतिक्रिया में सत्य वाष्पीभूत हो जाता है?
बिलकुल वाष्पीभूत हो जाता है। प्रतिक्रिया में सत्य कभी बचता ही नहीं, क्योंकि प्रतिक्रिया हमेशा दूसरी अति पर चली जाती है। सत्य तो सिर्फ वहीं बचता है, जहां प्रतिक्रिया भी नहीं है और प्रतिगामिता भी नहीं है। जहां चीजें अत्यंत मध्य में हैं, वह जो गोल्डन मीन है, न हम प्रतिगामी हैं और न प्रतिक्रियावादी हैं, न हम किसी चीज को जोर से पकड़ लिए हैं, न जोर से छोड़ना चाहते हैं, हम मध्य में खड़े होकर चीजों को देखते हैं, वहीं सत्य होता है। सत्य सदा मध्य में है, अतियों पर कभी सत्य नहीं है। और प्रतिक्रिया में हमेशा अति हो जाती है।

आपको आचार्य की उपाधि कबूल है। इस लेबल को आप चाहें तो निगेट कर सकते हैं, जिससे भावुक लोग संकीर्ण अर्थ में आपको धार्मिक न समझ लें। अभी आगे ही बात हुई। आपका वेश-परिवेश भी धर्माचार्य की इमेज को पुष्ट करता है, इसलिए मैं कहता हूं।

हां। आचार्य से मुझे कुछ लेना-देना नहीं है।

आरोपण है?

आरोपण भी क्या है, सिर्फ प्रचलन है। मैं जिस कालेज में प्रोफेसर था, तो उस इलाके में तो प्रोफेसर को हिंदी में आचार्य कहते हैं।

अध्यापक-प्राध्यापक, ऐसा नहीं कहते?

नहीं!

आचार्य यहां प्रिंसिपल को कहते हैं।

वहां प्रिंसिपल को प्राचार्य कहते हैं। वहां प्रिंसिपल को प्राचार्य कहते हैं और प्रोफेसर को आचार्य कहते हैं। वह उसकी वजह से आचार्य लग गया पीछे। न तो आरोपण है, न उसका कोई सवाल है, वह सिर्फ प्रचलन है। उसे बिलकुल ही खत्म कर देना चाहिए। उसे खत्म करने का उपाय करना चाहिए। क्योंकि जो आप कहते हैं उससे भ्रम पैदा होता है, उसे खत्म ही कर देना चाहिए।

मौन का महिमा-महत्व समझाने के लिए, एक घंटे तक...

हां, और वेश-परिवेश की बात भी आपकी रह गई है, वह आपकी बात रह गई है। मुझे जो आनंदपूर्ण है वैसा वेश मैं पहनता हूं। मुझे जो आनंदपूर्ण है वैसा ही मुझे पहनना चाहिए। अगर इस डर से मैं पहनूं कि किसको कैसा लगेगा, तब फिर मैं आपकी दृष्टि में अपनी इमेज को देखने की फिक्र कर रहा हूं। मुझे जो आनंदपूर्ण है वह मैं पहनता हूं।
मैं भी खादी पहनता हूं, कांग्रेस में नहीं मानता।

ठीक है, जो आनंदपूर्ण है वह आप पहनेंगे, वही पहनना चाहिए। अगर मैं इस डर से भी अपने कपड़े बदल दूं कि कहीं मेरे कपड़ों को देख कर कहीं कोई धार्मिक न समझ लेता हो, तब भी मैं आपकी आंख में, आप मुझे क्या समझते हैं, इसकी चिंता कर रहा हूं। मुझे इसकी चिंता नहीं है कि आप क्या समझते हैं।

सार्त्र कहता है न कि दि अदर पीपुल्स लाइफ इज़ हेल।

है ही, बिलकुल है ही। बिलकुल है ही।

मौन का महिमा-महत्व समझाने के लिए एक घंटे तक प्रवचन देना, क्या एक कंट्राडिक्शन नहीं है?

बिलकुल नहीं है, बिलकुल नहीं है। क्योंकि मजा ऐसा है कि अगर सफेद लकीर भी खींचनी हो तो हम काले तख्ते पर खींचते हैं। कंट्राडिक्शन नहीं है। बोलने से भी समझाया जा सकता है कि बोलना बेकार है; और पढ़ने से भी जाना जा सकता है कि पढ़ना व्यर्थ है; और चलने से पता चल सकता है कि कहीं चलने से नहीं पहुंचा जाता है।

आज इतना ही


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