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शुक्रवार, 21 जून 2019

नये समाज की खोज-(प्रवचन-17)

नये परिवार का आधार:-(प्रवचन-सत्तरहवां)

विवाह नहीं, प्रेम

मेरे प्रिय आत्मन्!
एक मित्र ने पूछा है कि मैं परिवार के संबंध में कुछ कहूं।
परिवार के संबंध में पहली बात तो यह कहना चाहूंगा कि परिवार मनुष्य के द्वारा निर्मित की गई प्राचीनतम संस्था है, और इसलिए स्वभावतः सबसे ज्यादा सड़-गल गई है। परिवार मनुष्य की अधिकतम बीमारियों का उदगम-स्रोत है। और जब तक परिवार रूपांतरित नहीं होता तब तक मनुष्य के जीवन में शुभ की, सत्य की, सुंदर की संभावनाएं पूरे अर्थों में विकसित नहीं हो सकती हैं।
परिवार जैसा आज तक रहा है, उस परिवार को ठीक से समझने के लिए यह ध्यान में रख लेना जरूरी है कि परिवार का जन्म प्रेम से नहीं, बल्कि प्रेम को रोक कर हुआ है। इसीलिए सारे पुराने समाज प्रेम के पहले ही विवाह पर जोर देते रहे हैं। सारे पुराने समाजों का आग्रह रहा है कि विवाह पहले हो, प्रेम पीछे आए। विवाह पर जोर देने का अर्थ एक ही है कि परिवार एक यांत्रिक व्यवस्था बन सके। प्रेम के साथ यांत्रिक व्यवस्था का तालमेल बिठाना कठिन है।

इसलिए जिस दिन दुनिया में प्रेम पूरी तरह मुक्त होगा, उस दिन परिवार आमूल रूप से बदल जाने को मजबूर हो जाएगा। जिस दिन से प्रेम को थोड़ी सी छूट मिलनी शुरू हुई है, उसी दिन से परिवार की नींव डगमगानी शुरू हो गई है। जिन समाजों में प्रेम ने जगह बना ली है, उन समाजों में परिवार बिखरती हुई व्यवस्था है, टूटती हुई व्यवस्था है।
यह पहली बात समझ लेनी जरूरी है कि परिवार की बुनियाद में हमने प्रेम को काट दिया है। तब परिवार एक व्यवस्था है, एक संस्था है, एक प्रेम की घटना नहीं। स्वभावतः जहां व्यवस्था है वहां कुशलता तो हो सकती है, लेकिन मनुष्य की आत्मा के विकास की संभावना क्षीण हो जाती है। प्रेम को व्यवस्थित नहीं किया जा सकता। यद्यपि यह सच है कि प्रेम अपने ढंग की व्यवस्था लाता है, वह दूसरी बात है। अगर दो व्यक्ति प्रेम करते हैं और पास रहना चाहते हैं, तो उनके पास रहने में एक अनुशासन, एक व्यवस्था होगी। लेकिन वह व्यवस्था प्रमुख नहीं होगी, प्रेम का परिणाम भर होगा।
लेकिन अगर दो व्यक्तियों को हम साथ रहने को मजबूर कर दें, तो भी उनमें एक तरह की पसंद पैदा हो जाएगी। लेकिन वह पसंद प्रेम नहीं है। और अगर व्यवस्था के भीतर हम दो व्यक्तियों को साथ बांध दें, दो कैदियों को भी जेलखाने में एक कोठरी में बंद कर दें, तो भी वे धीरे-धीरे एक-दूसरे को चाहने लगेंगे। वह चाहना प्रेम नहीं है। लाइकिंग और लव में फर्क है।
तो एक पति और पत्नी यदि एक-दूसरे के साथ रह कर एक-दूसरे को चाहने लगते हैं, तो इसे प्रेम समझ लेने की भूल में पड़ जाने की कोई भी जरूरत नहीं है। दो व्यक्ति यदि रोज साथ उठेंगे, साथ खाएंगे, काम करेंगे, सोएंगे, तो स्वभावतः दोनों...
इसलिए हमारा परिवार अपनी जड़ में कलह से ग्रस्त है। जहां सिर्फ पसंद पैदा हो गई है साथ रहने से, एसोसिएशन से, जहां प्रेम नहीं है, वहां दो व्यक्तियों के बीच वह शांति, वह आनंद निर्मित नहीं हो सकता, जो कि वस्तुतः परिवार का आधार होना चाहिए। इसलिए चौबीस घंटे कलह परिवार की कथा होगी। और यह कलह रोज बढ़ती जा रही है।
एक दिन था कि यह कलह न थी। ऐसा नहीं था कि उस दिन परिवार के नियम दूसरे थे। कलह न होने का कारण था कि स्त्री को किसी तरह की आत्मा नहीं थी, स्त्री को किसी तरह का व्यक्तित्व नहीं था, स्त्री को किसी तरह की स्वतंत्रता नहीं थी। स्त्री को इस बुरी तरह दबाया गया था कि उससे सारा व्यक्तित्व छीन लिया गया था। तब कोई कलह न थी। मालिक और गुलाम के बीच, अगर पूरी व्यवस्था हो, तो कलह का कोई भी कारण नहीं होता है।
लेकिन जैसे-जैसे मनुष्यता की समझ और विवेक विकसित हुआ, हमें दिखाई पड़ा कि स्त्री के साथ भयंकर अन्याय हुआ है। और जैसे-जैसे स्त्री को स्वतंत्रता दी गई, वैसे-वैसे कलह बढ़ने लगी। क्योंकि गुलाम और मालिक के बीच कलह न थी, वह बात दूसरी थी। लेकिन दो समान हैसियत के, समान व्यक्तित्व वाले व्यक्तियों के बीच यदि प्रेम न हो, तो सिर्फ व्यवस्था कलह नहीं रोक सकती।
और यह भी इस संबंध में समझ लेना जरूरी है कि फासला जितना ज्यादा हो, उतनी कलह की संभावना कम होती है; फासला जितना कम होता जाए, उतनी कलह की संभावना बढ़ती जाती है। यह भी ध्यान रहे, फासला जितना ज्यादा हो, उतनी प्रेम की संभावना भी कम होती है; फासला जितना करीब होता जाए, उतनी ही प्रेम की संभावना भी बढ़ती है।
मेरा मतलब?
मेरा मतलब यह है कि हम, समझ लें कि बड़ौदा की एक स्त्री अगर रास्ते से गुजरे, तो बड़ौदा की महारानी अगर रास्ते से गुजरे और हीरों के हार पहने हो तो साधारण स्त्री को उससे कोईर् ईष्या नहीं होगी। क्योंकि फासला बहुत ज्यादा है, वहर् ईष्या के पार है। रानी एलिजाबेथ को देख कर सड़क पर किसी स्त्री को कोईर् ईष्या पैदा नहीं होती। फासला बहुत ज्यादा है। हमारीर् ईष्या की भी परिधि होती है। लेकिन पड़ोस की स्त्री अगर हीरे का हार पहन ले तोर् ईष्या शुरू हो जाती है। हमारीर् ईष्या के घेरे में पड़ जाती है।
जब तक स्त्री मनुष्य ही नहीं थी तब तक उपद्रव नहीं था, व्यवस्था से काम चल सकता था।
चीन में पति अपनी स्त्री की हत्या कर दे तो उस पर मुकदमा नहीं चल सकता था। क्योंकि स्त्री में कोई आत्मा नहीं होती, उसे मारने का सवाल कहां उठता है! और फिर अपनी चीज को मारने का हकदार हूं। अगर मैं अपनी कुर्सी को तोड़ दूं, तो कौन अदालत मुझ पर मुकदमा चला सकती है! अगर मैं अपनी स्त्री को मार डालूं तो किसी अदालत को हक क्या है, मालकियत मेरी है! तो चीन में कभी भी पत्नी के मार डालने पर किसी तरह का मुकदमा नहीं चल सकता था। स्त्री की कोई आत्मा नहीं थी।
सारी दुनिया में, इस देश में भी स्त्री के पास कोई व्यक्तित्व नहीं था। जब तक व्यक्तित्व नहीं था तब तक व्यवस्था बिलकुल ठीक चली। वह व्यवस्था ऊपर से ठीक मालूम पड़ती थी, आधी मनुष्यता उसके नीचे गुलामी और जंजीरों की जिंदगी को बसर कर रही थी। इसलिए परिवार सुव्यवस्थित मालूम होता था।
जेलखाने में बड़ी व्यवस्था दिखाई पड़ती है, क्योंकि संतरी बंदूकें लिए खड़े हुए हैं और कैदी अपना काम कर रहे हैं। लेकिन उस व्यवस्था के नीचे मनुष्य की आत्मा दबी हुई है।
ऐसी ही व्यवस्था थी। लेकिन जिस दिन से मनुष्य की बुद्धि विकसित हुई है, हमारी समझ बढ़ी, हमारी सहानुभूति बढ़ी, हमारा चिंतन और विचार बढ़ा और स्त्री को हमने पुरुष के बराबर समानता की स्वीकृति देनी शुरू की है, उस दिन से परिवार की नींव हिल गई। क्योंकि परिवार एक पुरानी गुलामी थी। स्त्री और पुरुष समान होंगे तो उनके बीच प्रेम होगा। और प्रेम के पीछे ही परिवार हो सकता है, प्रेम के पहले परिवार नहीं हो सकता।
प्रेम अगर पहले होगा तो परिवार इतना सुनियोजित नहीं हो सकता जितना कि विवाह वाला परिवार सुनियोजित था। प्रेम के अपने खतरे हैं। प्रेम की अपनी संभावनाएं, अपनी असंभावनाएं, अपनी दुर्घटनाएं हैं, जो विवाह की नहीं हैं। विवाह बहुत सिक्योरिटी की, सुरक्षा की व्यवस्था है। विवाह जीवन भर के लिए इंतजाम है। और इसलिए विवाह के इंतजाम को चलाए रखने के लिए हमें हजार तरह की अनैतिकताएं पैदा करनी पड़ीं। इसलिए यदि मैं आपसे कहूं कि परिवार एक अनैतिक संस्था सिद्ध हो गई है, तो कुछ अतिशयोक्ति नहीं कर रहा हूं।
विवाह को व्यवस्थित रखने के लिए वेश्या पैदा करनी पड़ी। वेश्या जो है विवाह का दूसरा पहलू है। एक पुरुष और एक स्त्री को हम बिना प्रेम के दोनों को साथ रहने के लिए आजीवन के लिए बांध देते हैं, और उनके बीच कोई प्रेम नहीं है। उनके बीच ज्यादा से ज्यादा यौन का शारीरिक संबंध हो सकता है, हृदय के प्रेम का कोई संबंध नहीं है। तो यह आदमी प्रेम खोजने कहीं जाएगा, यह आदमी प्रेम खोजने के लिए कुछ रास्ते बनाएगा। निश्चित ही पड़ोस के पुरुष इससे भयभीत होंगे, क्योंकि यह आदमी अगर पड़ोस की पत्नियों में प्रेम खोजने निकल जाए तो उपद्रव होगा। इसलिए सारे पुरुष मिल कर एक बात तय कर लेंगे कि सभी स्त्रियां नहीं, गांव में कुछ स्त्रियां छोड़ी जा सकती हैं जो किसी की भी नहीं हैं और उनके साथ कोई भी किसी तरह के संबंध बना सकता है।
हिंदुस्तान में बुद्ध के जमाने में हर गांव में एक नगरवधू होती थी। गांव की जो सुंदरतम स्त्री होती थी, सारे गांव के लोग यह तय कर लेते थे, इसका कोई पति नहीं हो सकेगा। क्योंकि सुंदरतम स्त्री का पति होने से बड़ी प्रतियोगिता पैदा होगी और झंझट पैदा होगी। इसलिए पूरा गांव ही इसका पति हो जाएगा, वह नगरवधू हो जाएगी। उस स्त्री को नगरवधू का सम्मान दे दिया जाएगा। अब उसका कोई प्रतियोगी नहीं है, उसके ऊपर कोई मालकियत नहीं है, पूरा गांव उसका व्यवहार और उपयोग कर सकता है।
नगरवधू बड़ा सुंदर शब्द है। वेश्या कहें तो जरा बुरा लगता है।
फिर मंदिरों के आस-पास दासियां, देव-दासियां उत्पन्न हुईं। वे सब वेश्याएं थीं। हिंदुस्तान में भी, यूनान में भी, सभी मंदिरों के आस-पास स्त्रियों के समूह इकट्ठे किए गए। वे गांव के उन सब लोगों को तृप्त करने के लिए जरूरी थे जो अपनी स्त्री को प्रेम कर पाने में असमर्थ थे।
तब एक अजीब घटना घटी कि बच्चे किसी और से पैदा करना है, प्रेम किसी और से करना है। तब स्त्री सिर्फ बच्चे पैदा करने की एक मशीन रह गई। निश्चित ही, स्त्रियों को यदि स्वतंत्रता होती तो पुरुष-वेश्याएं भी पैदा होतीं। लेकिन स्त्रियों को कोई स्वतंत्रता नहीं थी, इसलिए स्त्री-वेश्याएं भर पैदा हुईं।
लेकिन पिछले पचास वर्षों में पश्चिम के कुछ मुल्कों में पुरुष-वेश्याएं भी पैदा हो गई हैं, क्योंकि स्त्री को भी स्वतंत्रता मिल गई है। आज लंदन में स्त्री-वेश्याएं ही नहीं, पुरुष-वेश्याएं भी उपलब्ध हैं। वेश्याएं नहीं कहना चाहिए, कहना चाहिए वेश्य। लेकिन वेश्य से कुछ और आप गलती न समझ लें इसलिए मैं पुरुष-वेश्या कह रहा हूं। वेश्या का मतलब सिर्फ होता है बेचने वाली, वेश्य का मतलब होता है बेचने वाला। तो लंदन के पार्कों के आस-पास आज पुरुष भी खड़े हैं--वैसा ही रंग-रोगन लगा कर जैसे स्त्रियां सदा खड़ी होती रही हैं--और स्त्रियों के लिए निमंत्रण दे रहे हैं कि वे उपलब्ध हैं इतने पैसे में, एक रात, इतने घंटों के लिए।
स्त्री स्वतंत्र हुई तो पुरुष-वेश्या पैदा हो गई। इसका मतलब यह है कि स्त्री परतंत्र थी इसलिए सिर्फ स्त्री-वेश्याएं दुनिया में उत्पन्न हो पाई थीं। और स्त्री-वेश्याओं की जरूरत पड़ गई थी, क्योंकि विवाह प्रेम की आकांक्षा को तृप्त नहीं कर पा रहा था।
अब सारी दुनिया के बुद्धिमान लोग कहते हैं कि वेश्याएं नहीं होनी चाहिए। लेकिन उनमें से किसी को भी पता नहीं है कि वेश्याएं उसी दिन नहीं होंगी, जिस दिन विवाह की पुरानी व्यवस्था नहीं होगी। जब तक पुरानी व्यवस्था है, तब तक वेश्याएं भी होंगी। क्योंकि वे उसी सिक्के का दूसरा पहलू हैं। अब यह बड़े आश्चर्य की बात है कि जिन सती-साध्वी स्त्रियों की हम बड़ी प्रशंसा करते हैं कि महासती हैं, साध्वी हैं, हमें पता नहीं कि उन्हीं सती-साध्वियों की वजह से वेश्या पैदा हुई है।
जब तक हम इस बात पर जोर देंगे कि दो व्यक्ति बिना प्रेम के साथ रहने को मजबूर किए जाएं, चाहे पंडित-पुरोहित उनकी जन्मकुंडली मिला कर तय कर रहे हों...। कैसा आश्चर्य है! प्रेम कहीं जन्मकुंडलियों से तय हो सकता है! और अगर जन्मकुंडलियां प्रेम तय करती थीं तो जन्मकुंडलियों से तय हुए विवाह सुखद और आनंदपूर्ण होने चाहिए। लेकिन उनके भीतर कलह के सिवाय कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता है। अगर हममें थोड़ी भी बुद्धि हो तो सारी जन्मकुंडलियां फाड़ देने जैसी हो गई हैं। हम जाकर देख लें चारों तरफ विवाह को।
आज मुझे सैकड़ों युवक और युवतियां मिलते हैं, जो कहते हैं कि हम अपने मां-बाप को देख कर ही विवाह करने से डर गए हैं। जो उनके बीच हो रहा है, अगर यही होना है, तो इससे बेहतर है अविवाहित रह जाएं। आज अमेरिका में लाखों युवक और युवतियां अविवाहित रह गए हैं। इसलिए नहीं कि उन्हें कोई ब्रह्मचर्य साधना है; इसलिए नहीं कि उन्हें कोई परमात्मा खोजना है; इसलिए नहीं कि उन्हें कोई चित्रकला की साधना करनी है या संगीत की साधना करनी है; सिर्फ इसलिए कि मां-बाप को देख कर वे चौंक गए हैं और डर गए हैं।
मां-बाप ने एक अच्छा इंतजाम किया था बाल-विवाह का। चौंकने और डरने का उपाय न था। इसके पहले कि आप चौंकते और डरते और पहचानते, आप अपने को पाते कि विवाहित हो गए हैं। इसलिए जब तक बाल-विवाह था, तब तक एक शिकंजा बहुत गहरा था। लेकिन पच्चीस साल का पढ़ा-लिखा युवक और युवती पच्चीस बार सोचेंगे विवाह करने के लिए; देखेंगे कि चारों तरफ विवाह का परिणाम क्या हुआ है! जो चारों तरफ दिखाई पड़ता है वह बहुत दुखद है।
हां, ऊपर से चेहरे रंगे-पुते दिखाई पड़ते हैं। सड़क पर पति और पत्नी चलते हैं तो ऐसा मालूम पड़ता है कि किसी स्वर्ग में रह रहे हैं। सभी फिल्में विवाह की जगह जाकर समाप्त हो जाती हैं। और सभी कहानियां विवाह के बाद एक वाक्य पर पूरी हो जाती हैं--कि उसके बाद वे दोनों आनंद से रहने लगे। इसके बाद की कोई बताता नहीं कि वह आनंद कैसा हुआ? कहानी खत्म हो जाती है कि विवाह के बाद दोनों आनंद से रहने लगे।
असली कहानी यहीं से शुरू होती है। और वह कहानी आनंद की नहीं है, वह कहानी बहुत दुख की है। इसलिए उसे छेड़ना ही कोई फिल्म उचित नहीं समझती और कोई कथाकार उसको छेड़ना उचित नहीं समझता। विवाह के पहले तक कहानी चलती है, विवाह पर दि एंड, इति आ जाती है। असली कहानी वहीं से शुरू होती है। लेकिन उसे हम छिपाते रहे हैं। हमने आज तक खोल कर नहीं रखा कि एक पति-पत्नी के बीच जो लंबे नरक की कथा गुजरती है वह क्या है।
नहीं, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सभी के बीच गुजरती है। सौ में शायद एक मौका होता है जब पति और पत्नी के बीच स्वर्ग भी गुजरता है। लेकिन सौ में निन्यानबे मौके पर नरक ही गुजरता है। होना उलटा चाहिए कि सौ में निन्यानबे मौके पर पति और पत्नी के बीच स्वर्ग गुजरे; एक मौके पर भूल-चूक हो जाए, बीमारी हो जाए, रुग्णता हो जाए, एक मौके पर नरक गुजर सके। लेकिन ऐसा नहीं है, हालतें उलटी हैं।
मैंने सुना है, एक पति अपनी पत्नी का बहुत भक्त था। आमतौर से सभी पति होते हैं। क्योंकि जिसे हम दबाते हैं उससे हमें दबना भी पड़ता है और जिसे हम भयभीत करते हैं उससे हमें भयभीत भी होना पड़ता है। यह म्युचुअल, यह पारस्परिक संबंध है। वह पति भी बहुत पत्नी-भक्त था। निरंतर अपनी पत्नी की प्रशंसा करता था।
फिर अचानक उसकी पत्नी बीमार पड़ी और मरने के करीब पहुंच गई। यद्यपि वह डाक्टरों को लाता था, दवाई करता था, लेकिन इतनी रौनक उसके चेहरे पर कभी नहीं देखी गई थी जितनी रौनक पत्नी के मरने के करीब आने से आने लगी। फिर उसकी पत्नी मर गई, वह बहुत रोया। लेकिन जिन्होंने भी देखा वे हैरान हुए! उसके रोने में भी खुशी की कोई झलक थी, उसके रोने के पीछे से भी खुशी की किरणें दिखाई पड़ती थीं। जैसे कोई निर्भार हो गया; जैसे स्वतंत्र हो गया; जैसे मुक्ति मिल गई।
फिर उसकी पत्नी का ताबूत बनाया गया, उसकी अरथी सजाई गई। फिर अरथी को लेकर वे बाहर निकले। सामने ही एक नीम का दरख्त था, अरथी उससे टकरा गई; और पत्नी के भीतर से चीख की आवाज निकली, अरथी उतारनी पड़ी, वह जिंदा थी!
फिर वह तीन साल और जिंदा रही। पत्नी-भक्त फिर पत्नी-भक्त हो गया, उदासी फिर उसकी लौट आई। फिर वह वापस वैसे ही जीने लगा, उसी रूटीन, उसी ढर्रे में। तीन साल बाद उसकी पत्नी फिर मरी। वह छाती पीट कर रो रहा था। फिर ताबूत तैयार हुआ, अरथी बाहर निकली, वह छाती पीटते हुए एकदम चिल्लाया कि भाइयो, जरा सम्हाल कर निकालना, फिर नीम से मत टकरा देना!
यह एक आदमी की कहानी हो तो कहा जा सकता है कहानी होगी। यह पति की ही कहानी हो तो कहा जा सकता है होगी कहानी। पत्नी की भी, पति की भी, मनःस्थिति यही है। ऐसी पत्नी खोजनी मुश्किल है जिसने किसी क्षण में न सोचा हो कि इससे तो अच्छा था अविवाहित रह जाते! ऐसा पति खोजना मुश्किल है जिसने किसी दुखद क्षण में न सोचा हो कि इस पत्नी से कैसे छुटकारा हो जाए! अगर वह हिंसक हुआ तो सोचता है कि पत्नी को कैसे मार डाले!
पतियों के सपने अगर खोजे जाएं तो बहुत बड़े हिस्से में पत्नियों के मारने के सपने उनमें से निकलते हैं। पत्नी चूंकि उतनी हिंसक नहीं होती, आत्महिंसक होती है, इसलिए अगर उसके सपने खोजे जाएं तो खुद को आग लगा लेने, पानी में डुबा देने, कुएं में गिरा देने के सपनों की भरमार होती है। पत्नी पति से छूटना चाहे तो आत्महत्या की सोचती है; पति पत्नी से छूटना चाहे तो हत्या की सोचता है। ये सोचने के ढंग हैं। लेकिन यह आश्चर्यजनक है कि पति-पत्नी के बीच संबंध क्या है?
असल में मौलिक रूप से चूंकि हम प्रेम को इनकार कर देते हैं परिवार में, इसलिए फिर प्रेम की संभावना क्षीण होती चली जाती है। और प्रेम एक घटना है, जो घटे तो घटती है, न घटे तो नहीं घटती है।
लेकिन हमने पति और पत्नी को उसी आधार पर बनाया जिस आधार पर मां और बेटा बनता है, भाई और बहन बनते हैं--गिवेन। मैं अपनी मां को नहीं बदल सकता; कोई उपाय नहीं है। मैं अपनी बहन को नहीं बदल सकता; कोई उपाय नहीं है। मैं अपने पिता को नहीं बदल सकता; कोई उपाय नहीं है। ये सारे संबंध दिए हुए संबंध हैं, जो मुझे जन्म के साथ मिलते हैं। इन संबंधों के बाद मैं हूं, इन संबंधों के पहले मैं हूं ही नहीं जो चुनाव कर सकूं। हमने पत्नी के संबंध को भी इन्हीं संबंधों की व्यवस्था में सूत्रबद्ध कर दिया। और हम पत्नी को भी गिवेन मानते हैं, वह भी मिली हुई है। इसलिए बाल-विवाह बहुत उचित पड़ता था। छोटे बच्चे, आठ साल, दस साल, बारह साल के बच्चों को हम दूल्हा-दुल्हन बना कर घोड़े पर सवार कर देते थे। जब वे होश में आते थे पंद्रह-सोलह-सत्रह साल में, तब वे पाते थे कि पत्नी भी मिली हुई है, जैसे बहन मिली हुई है, मां मिली हुई है, बाप मिला हुआ है।
जिंदगी में एक संबंध है चुनाव का, बाकी सब संबंध चुनावहीन हैं। एक संबंध है डिसीसिव: विवाह का। एक संबंध है जहां व्यक्ति निर्णायक हो सकता है। वह भी हमने छीन लिया। व्यक्ति की स्वतंत्रता पर जो बड़ी से बड़ी चोट हो सकती है, वह उसके प्रेम के चुनाव को छीन लेना है। क्योंकि वह एक मौका है जब वह चुनाव कर सके कि वह किसको पत्नी बनाना चाहता है या किसको पति बनाना चाहती है। पिता तो चुनने का कोई उपाय नहीं है, मां चुनने का कोई उपाय नहीं है, बहन चुनने का, भाई चुनने का कोई उपाय नहीं है। और कोई संबंध चुने नहीं जा सकते। सिर्फ एक च्वाइस, एक डिसीसिवनेस का मौका आदमी को मिलता है कि वह अपने प्रेम-पात्र को चुन ले।
हमने जो परिवार बनाया था उसमें हमने यह चुनाव की स्वतंत्रता भी छीन ली थी। पत्नी भी गिवेन, पति भी गिवेन; वह भी मिला हुआ था, वह भी प्राकृतिक घटना हो गई; वहां भी मनुष्य की आत्मा को स्वतंत्रता का कोई उपाय न रहा।
और ध्यान रहे, जिस प्रेम को हम चुनते नहीं हैं, वह प्रेम प्रेम नहीं हो पाता। जिस प्रेम को मैंने नहीं चुना है, जिस प्रेम के चुनाव में मैं अंतिम निर्णायक नहीं हूं, आखिरी निर्णायक नहीं हूं, वह प्रेम प्रेम नहीं हो सकता। और दूसरी बात: जो प्रेम मेरे लिए किन्हीं और ने चुना है, वह प्रेम परतंत्रता बन जाएगा। दूसरे का चुना हुआ प्रेम परतंत्रता बन जाता है।
परिवार की जो व्यवस्था इतनी रुग्ण, इतनी विकृत और इतनी कुरूप हो गई, उसका कारण था कि वह प्रेम-विरोधी है। लेकिन क्यों है प्रेम-विरोधी? आखिर क्या कारण था कि जिन लोगों ने सोचा--मनु ने, या याज्ञवल्क्य ने, या मूसा ने, या किसी ने भी--जिन्होंने भी परिवार के संबंध में नियम दिए, क्या कारण था कि उन्होंने व्यक्ति को प्रेम की स्वतंत्रता न दी?
प्रेम बहुत खतरनाक मालूम पड़ा। है भी! प्रेम आग है! जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है वह खतरनाक है, सिर्फ मौत खतरनाक नहीं है। क्योंकि मरने के बाद न फिर आप बीमार पड़ सकते, न मर सकते। जिंदगी में तो सब खतरा है। प्रेम उसमें सबसे खतरनाक तत्व है, आग के साथ खेलना है! लेकिन उस आग के साथ खेलने में ही आपके भीतर के व्यक्तित्व की फ्लावरिंग, आपके व्यक्तित्व के भीतर का फूल खिलता है--उस स्वतंत्रता में, उस संघर्ष में, उस प्रेम के शिखर पर चढ़ने में, उस यात्रा में और उस खतरे में। प्रतिपल प्रेम का खतरा है! क्योंकि प्रेम आज है, जरूरी नहीं कि कल हो।
लेकिन विवाह आज भी है और कल भी होगा, परसों भी होगा। विवाह भविष्य के लिए सुनिश्चितता है। प्रेम बहुत अनिश्चय है, प्रेम अनसर्टेनटी है। इसलिए डर है। इसलिए सब डरे हुए लोग प्रेम से बचेंगे और विवाह को वरण करेंगे। सिर्फ अभय लोग प्रेम को स्वीकार करेंगे और कहेंगे, अगर प्रेम से विवाह निकलता हो निकले और न निकलता हो न निकले।
प्रेम का मतलब है: पल-पल जीना। प्रेम का मतलब है कि आज मैं आपको प्रेम करता हूं, लेकिन कल का क्या भरोसा! कल के लिए मैं आज से कैसे निर्णय ले सकता हूं! और मैं कल क्या करूंगा, उसका मैं आज से कैसे सुनिश्चित आश्वासन दे सकता हूं!
इसलिए प्रेम मोमेंट टु मोमेंट लिविंग है--अभी और यहां।
नहीं, यह अर्थ नहीं है कि कल प्रेम टूट ही जाएगा! सच तो यह है कि अगर आज के क्षण में प्रेम जीया गया है तो कल और गहरा हो जाएगा। लेकिन वह अनिश्चित है, वह निश्चित नहीं है। पुनरुक्ति नहीं है, कि कल भी उसे दोहराने की कोई मजबूरी है।
तो प्रेम तो ऐसा है जैसे फूल है, सुबह खिलता है, सांझ मुरझा सकता है। उसी फूल के नीचे एक पत्थर पड़ा रहता है। वह पत्थर सांझ फूल से कहता है, पागल! इससे तो पत्थर होना बेहतर। क्योंकि हम कभी नहीं मुरझाते; हम जहां पड़े हैं वहीं पड़े रहते हैं। तू क्षणिक है, हम स्थायी हैं। लेकिन फिर भी स्थायी पत्थर को कोई क्षणिक फूल के मुकाबले नहीं चुनेगा।
अगर मैं आपको कहूं तो कहना चाहूंगा कि प्रेम का फूल क्षण में खिलता है, मुरझाने का सदा डर है! इसीलिए उसका रस भी है, इसलिए उसका आकर्षण भी है, फूल इसीलिए इतने जोर से पुकारता भी है, क्योंकि सांझ नहीं होगा! पत्थर विवाह है, पड़ा है तो पड़ा है, वह अंत नहीं होता, उसकी कल बिलकुल सुनिश्चित व्यवस्था है। इसीलिए आकर्षणहीन है।
इसीलिए प्रेयसी को पत्नी बनाया नहीं कि प्रेयसी का आकर्षण गया नहीं। प्रेमी को पति बनाया नहीं कि आकर्षण गया नहीं। इधर प्रेमी पति बना, उधर अचानक पाया जाता है कि आकर्षण खो गया। क्योंकि चीजें सुनिश्चित हो गईं, स्थिर हो गईं। अब प्रेम मांगा जा सकता है, अब प्रेम की डिमांड की जा सकती है। अब अगर प्रेम न दिया जाए तो झगड़ा किया जा सकता है, अब अगर प्रेम न मिले तो कलह हो सकती है। अब प्रेम एक दुकानदारी, एक सौदा, एक कांट्रैक्ट, एक समझौता हो गया।
हमारा विवाह, जिस पर हमारा पूरा परिवार खड़ा है, एक कांट्रैक्ट है, एक समझौता है, एक व्यापारी व्यवस्था है, जिसमें दो व्यक्ति यह कसम खा रहे हैं कि अब हम एक-दूसरे को सदा प्रेम करेंगे और जो प्रेम नहीं करेगा वह अनैतिक सिद्ध होगा। तब एक बड़ी अदभुत अनैतिकता घटती है कि हम प्रेम नहीं करते और प्रेम का दिखावा करते रहते हैं। इससे बड़ी कोई अनैतिकता नहीं हो सकती। जिस व्यक्ति से मेरा प्रेम नहीं है उसको अगर मैं प्रेम का दिखावा करता हूं, तो उसे तृप्ति तो मिलती नहीं, सिर्फ धोखा ही मिलता है। और यह बहुत इम्मारल है, बहुत अनैतिक है। जिस व्यक्ति से मेरा प्रेम नहीं है उसको मैं प्रेम के डायलाग और प्रेम की भाषा बोलता हूं, सीखे हुए अभिनय करता हूं--स्वभावतः मैं बहुत बड़ा धोखा दे रहा हूं। और जो आदमी प्रेम में भी धोखा दे रहा है, वह आदमी और किस चीज में धोखा नहीं देगा!
जो आदमी प्रेम में भी धोखा देने से नहीं डर रहा, अगर वह पैसे में धोखा दे तो इल्जाम लगाना गलत है। अगर वह बाजार पर दूकान पर बैठ कर धोखा दे तो इल्जाम बेकार है। अगर वह कालाबाजारी करे, अगर वह रिश्वतखोरी करे, स्मगलिंग करे, फिर बेकार है उससे कुछ भी कहना। क्योंकि जो आदमी प्रेम में स्मगलिंग कर रहा है, जो आदमी प्रेम में धोखा दे रहा है, जो प्रेम में नकली नोट जारी कर रहा है, उस आदमी का अब कोई भरोसा नहीं, वह पूरी जिंदगी में धोखेबाज सिद्ध हो जाएगा।
उन भयभीत लोगों ने विवाह को ईजाद किया, प्रेम को हटाया। मैं आपसे कहना चाहता हूं, भविष्य का जो परिवार होगा वह विवाह की बुनियाद पर नहीं होगा। इसलिए स्वभावतः भविष्य का परिवार अतीत के परिवार से बुनियादी रूप से भिन्न होगा। उसको परिवार कहना भी शायद ठीक नहीं है, उसे शायद मित्रों का एक मिलन, संबंधियों का नहीं; वह मिलन भी सुनिश्चित फिक्स्ड नहीं, लिक्विड, वह भी तरल। प्रेम उसका आधार होगा।
अब यह आश्चर्य की बात है कि रूस अकेला मुल्क है जहां वेश्या समाप्त हो गई। यह थोड़ा सोचने जैसा है कि कारण क्या हुआ है कि रूस में वेश्या समाप्त हो गई? और हम आध्यात्मिक लोग कभी भी वेश्या को समाप्त न कर पाए। और एक गैर-आध्यात्मिक मुल्क, एक नास्तिक मुल्क, एक भौतिकवादी मुल्क, जिसके चिंतन की बहुत ऊंचाइयां नहीं हैं, जिसके चिंतन के बहुत व्यापक आयाम नहीं हैं, जिसका चिंतन बहुत पदार्थ केंद्रित है, वह वेश्या को कैसे समाप्त कर पाया?
कुल एक छोटा सा कारण आधारभूत बना। और वह कारण यह था कि रूस में विवाह व्यवस्था न रही, प्रेम उसका आधार हुआ--एक। दूसरा, रूस ने विवाह में सब तरह की बाधाएं डालनी शुरू कीं और तलाक में सब तरह की सुविधाएं दीं।
हमारे यहां उलटी हालत है सारी दुनिया में। अगर दो आदमियों को विवाह करना है तो हम बिलकुल फिकर नहीं करते उनकी कि कोई पूछताछ की जाए, कोई जांच-पड़ताल की जाए, कुछ उनसे कहा जाए कि साल भर और प्रेम में रहो। शायद साल भर में तुम्हारा मन बदल जाए। तो इतनी जल्दी, इतनी जल्दी मत करो। होना तो यही चाहिए कि समाज, जब भी कोई दो व्यक्ति विवाह का आवेदन करें, तो उनसे दो साल का वक्त मांगे कि तुम दो साल और प्रेम में जीओ, तुम और दो साल मिलो-जुलो, नाचो, खेलो-कूदो, तुम दो साल और प्रेमी और प्रेयसी रहो। और छह-छह महीने में तुम हमें वापस फार्म भर कर भेजते रहना कि अभी तक दिल बदल तो नहीं गया। और अगर दो साल बाद भी तुम निर्णय पर पक्के रहो कि विवाह करना ही है, तो विवाह कर लेना।
ऐसे विवाह में तलाक की संभावना बहुत क्षीण हो जाएगी।
और जब भी कोई तलाक करना चाहे तो उसे तत्काल सुविधा मिलनी चाहिए। इतनी सुविधा कि अगर दो व्यक्तियों में से एक व्यक्ति दरख्वास्त दे दे अदालत में, तो दूसरे को पूछने की भी जरूरत नहीं होनी चाहिए। क्योंकि क्या सवाल है दूसरे से पूछने का? यह संबंध जो है एक ही तोड़ सकता है। और अगर एक ने तोड़ दिया तो दूसरे की बनाए रखने की इच्छा हो तब भी क्या प्रयोजन है? कोई प्रयोजन नहीं है। एक व्यक्ति दरख्वास्त दे दे कि मेरा विवाह समाप्त, तो विवाह समाप्त हो जाना चाहिए।
रूस ने तलाक को बहुत सरल कर दिया। जब पहली दफा यह किया गया तो रूस के सिद्धांतवादियों को खयाल था कि एकदम तलाक बढ़ जाएंगे। लेकिन आज रूस में दुनिया में सबसे कम तलाक हैं, पांच प्रतिशत। और अमेरिका में जहां तलाक बहुत कठिन है, वहां चालीस प्रतिशत तक तलाक की संख्या पहुंच गई।
यह जरा सोचने जैसा है कि आदमी का मन कैसे काम करता है। अमेरिका में चालीस परसेंट तलाक है। और डर है कि यह परसेंटेज और बढ़ जाएगी। क्योंकि चालीस परसेंट होने की वजह से, वे जो नासमझ सिद्धांतवादी और न्यायविद होते हैं, वे और तलाक को कसते चले जाते हैं। वे सोचते हैं, जितना हम जोर से कसेंगे, उतना तलाक कम होगा।
असल में जितना जोर से तलाक कसा जाता है, उतना ही ज्यादा होगा। क्योंकि जहां परतंत्रता जितनी सख्त हो जाए, दीवारें तोड़ कर बाहर निकलने की उतनी आकांक्षा पैदा हो जाती है।
आप यहां बैठे हैं, अपनी मर्जी से मुझे सुनने आए हैं। आप अभी उठ कर जाना चाहें तो आपके लिए कोई रुकावट नहीं है। लेकिन अचानक आपको पता चले कि अब एक घंटे तक आप इस कमरे के बाहर नहीं निकल सकते हैं, तो यह नहीं निकलने की सूचना मात्र आप में से बहुत सों को निकलने की आकांक्षा बन जाएगी। क्योंकि यह परतंत्रता मालूम होने लगेगी, यह हमारी आत्मा पर बोझ मालूम होने लगेगा।
रूस में पांच प्रतिशत तलाक, वह भी रोज कम होता जा रहा है। क्योंकि लोग बहुत सोच-विचार कर, जब एक व्यक्ति को सब तरफ से परख लेते हैं, उसके साथ जी लेते हैं, तब विवाह कर रहे हैं। विवाह उनका बहुत सोचा-समझा हुआ निर्णय है। वह जल्दी में लिया गया निर्णय नहीं है।
अमेरिका में प्रेम-विवाह भी असफल हो रहा है। उसका कारण है कि जैसे जन्मकुंडली मिलाने की बात असफल हो गई, वैसे ही प्रेम-विवाह असफल हो रहा है। क्योंकि प्रेम-विवाह भी बहुत सुविचारित, दो व्यक्तियों के निकट आकर लिया गया निर्णय नहीं है, दो व्यक्तियों के चेहरों को देख कर लिया गया निर्णय है। चेहरों को देख कर लिए गए निर्णय बहुत गहरे और कीमती नहीं हो सकते।
और ध्यान रहे, हम सब अपने चेहरे से दूसरे को धोखा देते हैं। अगर मुझे कोई अपरिचित स्त्री मिले, तो मैं उससे घंटे भर तक जिस भांति से व्यवहार करूंगा, वह व्यवहार मेरा एक स्त्री के साथ चालीस साल तक नहीं रह सकता। वह घंटे भर तक जो व्यवहार है, औपचारिक है, फार्मल है। इसलिए हम अजनबी आदमी से जितने भले ढंग से पेश आते हैं उतने परिचित आदमी से नहीं आते भले ढंग से पेश। ट्रेन में दो आदमी जैसी बात करते हैं, तो देख कर लगता है दोनों जेंटलमैन हैं, दोनों ही सभ्य आदमी हैं। लेकिन वे ही आदमी दोनों मित्र हो जाएं तो गाली-गलौज शुरू हो जाती है, क्योंकि औपचारिकता टूट जाती है।
लड़के और लड़कियां जब एक-दूसरे से मिलते हैं, तो दोनों ही अभिनय कर रहे होते हैं, अपने चेहरे दिखा रहे होते हैं, अपनी असलियत नहीं। अगर इस क्षण में उन्होंने कोई निर्णय ले लिया, तो कल जब वे साथ जीएंगे तो आकाश के तारों के नीचे जिस लड़की को कविता की भांति पाया था, बर्तन मलते वक्त वह कविता नहीं रह जाएगी। बर्तन मलते वक्त वह बिलकुल भूत-प्रेत मालूम पड़ेगी। जिस लड़के में सुगंध ही सुगंध आई थी, जब वह दिन भर मेहनत करके खेत में, बगीचे में, फैक्ट्री में से लौटेगा तो उसके पसीने में बदबू आएगी। असल में समुद्र के तट पर जब मां-बाप की चोरी से कोई लड़का किसी लड़की को मिलता है, तो जो उसमें सुगंध आती है वह उसकी नहीं होती, वह फ्रेंच परफ्यूम की होती है। उसकी असली सुगंध तो जब वह खेत से मेहनत करके लौटेगा, फैक्ट्री से मेहनत करके लौटेगा, तब उसके शरीर का जो ओडर है, उसके शरीर की जो गंध है, वह पहली दफा पता चलेगी। उसके पहले तो जो सुगंधें हैं वे सब फ्रेंच के बाजारों में तैयार होती हैं, वे सुगंधें होंगी। उस सुगंध से प्रेम हो जाएगा, फिर पसीने की दुर्गंध का क्या होगा? बस टूटना शुरू हो जाएगा।
अमेरिका में प्रेम-विवाह भी टूट रहा है। हिंदुस्तान जैसे मुल्कों में अरेंज मैरिज टूट रही है। लेकिन अमेरिका में प्रेम-विवाह टूटता देख कर हिंदुस्तान का पुरोहित, पंडित, हिंदुस्तान का पुरातन-पंथी कहता है कि देखो, हम ही बेहतर हैं। हमारा विवाह बिलकुल ठीक चल रहा है।
आपका विवाह बिलकुल ठीक चल रहा है, क्योंकि वह मरी हुई व्यवस्था है। उसमें टूटने तक की भी जान नहीं है। टूटने के लिए भी जिंदगी चाहिए। कोई चीज टूटे, इसके लिए भी थोड़ी ताकत चाहिए। और अमेरिका में जो टूट रहा है वह प्रेम-विवाह नहीं टूट रहा है, प्रेम के चेहरे टूट रहे हैं।
अब प्रेम की असलियत के लिए दुनिया में हमने अभी कहीं भी पूरा मौका नहीं दिया। और न देने के लिए हमारी जो नैतिक व्यवस्था है वह बाधा डालती है। लड़के और लड़कियों को हम बांट कर रखते हैं। कालेज हैं, कहने को को-एजुकेशनल हैं; कहने को है कि लड़के और लड़कियां साथ पढ़ते हैं। लड़के और लड़कियां अभी भी साथ नहीं पढ़ते हैं! क्योंकि जब तक लड़के और लड़कियां साथ खेल नहीं सकते, तब तक साथ पढ़ कैसे सकते हैं? जब तक लड़के और लड़कियां एक होस्टल में साथ रह नहीं सकते, तब तक लड़के और लड़कियां साथ पढ़ कैसे सकते हैं?
जब तक लड़के और लड़कियां एक-दूसरे के कंधे में हाथ डाल कर खड़े नहीं हो सकते, तब तक साथ पढ़ नहीं सकते; नाम है साथ पढ़ने का। को-एजुकेशनल नहीं है अभी हमारा कोई भी स्कूल या कोई भी कालेज। लड़कियां एक तरफ बैठी हैं बेंचों पर, लड़के एक तरफ बैठे हैं, प्रोफेसर कांस्टेबल की तरह बीच में खड़ा हुआ है। न लड़के पढ़ पा रहे हैं, न लड़कियां पढ़ पा रही हैं। क्योंकि जब तक लड़कियां पास मौजूद हैं तब तक लड़के कैसे पढ़ें? जब तक लड़के पास मौजूद हैं तब तक लड़कियां कैसे पढ़ें? और जब तक लड़के-लड़कियां मौजूद हैं तो प्रोफेसर पढ़ाए कैसे? यह को-एजुकेशन नहीं है, को-मिसएजुकेशन है, यह को-मिसएजुकेशन है।
साथ हम स्त्री-पुरुष को अब तक स्वीकार नहीं कर पाते। और जब तक हम उन्हें साथ स्वीकार न कर पाएं तब तक उनके जीवन में प्रेम का स्वर पैदा नहीं हो पाता। प्रेम के स्वर के लिए सिचुएशन चाहिए, एक व्यवस्था चाहिए जहां स्त्री और पुरुष समान भाव से स्वीकृत हैं। जहां लड़के और लड़कियां खेल रहे हैं, दौड़ रहे हैं, लड़ रहे हैं, तैर रहे हैं, भाग रहे हैं, साथ गपशप कर रहे हैं, और इसमें कोई चिंतित होने का कारण नहीं है।
बड़े आश्चर्य की बात यह है कि जिन कारणों से हम चिंतित हैं वे कारण हमारे पूरे जीवन को विकृत किए जा रहे हैं। स्त्री और पुरुष के बीच के संबंधों को हम कब स्वस्थ भाव से ले सकेंगे? जब हम स्त्री और पुरुष के बीच के संबंधों को पूर्ण स्वस्थता, सहजता, निसर्गता से ले सकेंगे, तभी एक नया परिवार पैदा हो सकेगा। हमारा पुराना परिवार परवर्टेड है। क्योंकि उसमें बुनियादी परवर्शन है। वह बुनियादी डर काम का, यौन का भय है कि कहीं यौन के संबंध न हो जाएं। और यौन के संबंध होंगे ही, वे रुकेंगे नहीं, उनके रोकने का कोई उपाय नहीं।
हां, रोकने की चेष्टा से वे विकृत जरूर हो जाएंगे, परवर्टेड हो जाएंगे, बीमार हो जाएंगे, रुग्ण हो जाएंगे। और एक बार अगर जीवन की कोई भी मूलधारा विकृत हो जाए तो उसे वापस लौटाना बहुत कष्ट-साध्य हो जाता है, उसे अपनी जगह पर लाना बहुत मुश्किल हो जाता है। इसलिए उचित यही है कि हम जीवन की धारा को उसकी सहजता में स्वीकार करें।
फिर हमारी जो पुरानी चिंतना थी, उसमें तो भय के कुछ कारण भी थे। बड़ा डर यही था कि कहीं लड़के और लड़कियां अविवाहित अवस्था में संतति जन्म न दे दें! वही डर था। उस डर के लिए कोई उपाय नहीं था उनके पास सिवाय कि लड़के-लड़कियों को बहुत दूर रखो। और ऐसे-ऐसे अर्थहीन मूढ़तापूर्ण उपाय भी किए गए जिनकी कल्पना करनी भी मुश्किल है।
अभी अगर आप यूरोप के म्यूजियम्स में जाएं तो उन म्यूजियम्स में एक अजीब चीज आप जरूर देख लेना, उसका नाम है: चेस्टिटी बेल्ट। सतीत्व-रक्षा की व्यवस्था के लिए एक ताला बनाया गया था कि पति अगर युद्ध पर जाए तो पत्नी की कमर में एक खास तरह का पट्टा पहना कर लॉक कर जाता था। वह स्त्री फिर किसी से संभोग नहीं कर सकती थी।
लेकिन आप जानते हैं कि जहां भी ताले होते हैं, वहां नकली चाबियां बन जाती हैं। और जो सतीत्व तालों पर निर्भर करता हो, वह सतीत्व कितना गहरा हो सकता है? जिस सतीत्व की रक्षा के लिए ताला लगाना पड़ता हो, वह सतीत्व कितना है, कितना अर्थ रखता है? उस सतीत्व का कितना मूल्य है?
तो मैंने सुनी है एक कहानी। मैंने सुना है कि एक युवक युद्ध पर जाता था। अपनी पत्नी को उसने चेस्टिटी बेल्ट पहना दिया था, ताला लगा दिया था। मजबूत कीमती से कीमती ताला उसने और बेल्ट खरीदा था। फिर भी उसे डर था कि कहीं कोई उपद्रव न हो जाए। उसे यह भी डर था कि कहीं उसकी रास्ते में कहीं चाबी गिर जाए, किसी दुश्मन के हाथ पड़ जाए, किसी मित्र के हाथ पड़ जाए। तो उसका जो निकटतम मित्र था, उससे उसने कहा कि यह चाबी मैं तुम्हारे पास छोड़े जाता हूं--तुम पर मैं भरोसा कर सकता हूं--इस चाबी को अपनी तिजोरी में सम्हाल कर रखना और जब मैं लौट कर आऊं तो मुझे वापस लौटा देना। क्योंकि यह चाबी कहीं गिर जाए तो भी मुसीबत है, खो जाए तो भी मुसीबत है, कोई ले जाए तो भी मुसीबत है। और तुम मेरे भरोसे के आदमी हो, तुम पर मैं भरोसा कर सकता हूं। यह चाबी सम्हाल कर रखना। वह अपने घोड़े पर सवार हुआ और गांव के बाहर ही नहीं पहुंचा था कि उसने देखा कि पीछे से कोई घोड़ा तेजी से आ रहा है। मित्र चला आ रहा था। उस मित्र ने आकर कहा कि तुम गलत चाबी दे दिए मालूम पड़ता है। यह तो लगती ही नहीं है।
यह होने वाला है, यह होने ही वाला है। जहां चाबियों और तालों पर नैतिकता निर्भर होगी, वहां यह होगा ही।
हमारी सारी नैतिकता तालों और चाबियों की नैतिकता है। यह दूसरी बात है कि हम अलग-अलग तरह के चेस्टिटी बेल्ट खोजते हैं। बाप पहरा दिए है, भाई पहरा दिए है, पति पहरा दिए है, बेटा पहरा दिए है--पहरे चल रहे हैं। ऋषि-मुनियों ने कहा है कि स्त्री को कभी बिना पहरे के नहीं छोड़ना। अगर लड़की हो तो बाप पहरा दे, अगर युवा हो तो पति पहरा दे, अगर बूढ़ी हो जाए तो बेटा पहरा दे, स्त्री को कभी अलग मत छोड़ना।
कैसी अनैतिक बुद्धि है! और ऐसी अनैतिक बुद्धि से कहीं कोई परिवार निर्मित होगा जहां पहरे दिए जा रहे हैं? और ऐसी अनैतिक बुद्धि पर जो परिवार बनेगा वह परिवार स्वस्थ होगा? मुझे नहीं दिखाई पड़ता। मैं मानता हूं कि परिवार उसी दिन स्वस्थ होगा जिस दिन हम यौन के तथ्य को सरलता से, सहजता से, जैसा वह जीवन में है, उसे स्वीकार कर लेंगे।
और ध्यान रहे, जितना हमने असहज व्यवस्था की है उतना आदमी असहज होता चला गया। राम को बेचारों को सीता की परीक्षा लेनी पड़ी, अग्नि की परीक्षा। यह सब चेस्टिटी बेल्ट का मामला है। इतनी क्या घबराने की बात थी? राम को सीता पर इतना भी भरोसा नहीं? राम जैसे अदभुत व्यक्ति को भी सीता पर इतना भरोसा नहीं कि उसकी अग्निपरीक्षा लें!
और अग्निपरीक्षा लेने से भी कुछ तय न हुआ। अग्निपरीक्षा से वह स्त्री गुजर गई तो भी एक साधारण आदमी के कह देने से उस स्त्री को घर के बाहर निकाल देना पड़ा। और तब वह गर्भवती थी, दो जुड़वां बच्चे उसके पेट में थे। जैसे दूध से कोई मक्खी को फेंक दे, ऐसे हमारे मर्यादा पुरुषोत्तम ने उसे बाहर फेंक दिया।
यह कैसी नैतिकता है! यह कैसी अजीब सी बीमार नैतिकता है! और इस बीमार नैतिकता के कारण सारी मनुष्य-जाति धीरे-धीरे सेक्स आब्सेस्ड हो गई है। यौन ही उसके चिंतन का सब आधार हो गया है। सब दिखावा है। भीतर यौन चिंतन चलता है। और पूरे वक्त उसी की फिकर लगी है।
पत्नी पति से भयभीत है, पत्नी पति से भयभीत है। पत्नी जब सांझ पति से पूछती है--कहां से आ रहे हो? तब भी वह सेक्स ही पूछ रही है। पति जरा देर हो गया है तो घर जाते डर रहा है, तब भी वह सेक्स से ही डर रहा है। पति जब घर जा रहा है तब वह सोच रहा है कि क्या उत्तर देना है कि इतनी देर कहां हो गई है। पत्नी, जरा देर हो गई है घर आने में पति के, तो बेचैन है, परेशान है। यह सब क्या है? ये कोई हमारे बीच स्वस्थ संबंध हैं? हम मित्र हैं कि हम दुश्मन हैं? हम एक-दूसरे के पहरेदार हैं? हम एक-दूसरे के कारागृह के जेलर हैं? कि हम एक-दूसरे के ऊपर जंजीरें लिए हुए, संगीनें लिए खड़े हुए कोई नौकरी बजा रहे हैं? कि हमारा कोई संबंध है एक-दूसरे से प्रेम का।
नहीं, प्रेम है ही नहीं, इसलिए यह सारा उपद्रव है। तो मैं पहली बात तो यह कहना चाहूं कि परिवार विवाह की बुनियाद से हट जाना चाहिए। विवाह ने परिवार को बीमार कर दिया है। परिवार प्रेम के आधार पर खड़ा होना चाहिए।
निश्चित ही, प्रेम के आधार पर खड़े होने पर बहुत कुछ बदलना पड़ेगा। लेकिन वह बदलने योग्य है। बहुत से खतरे लेने पड़ेंगे। लेकिन वे खतरे भी लेने योग्य हैं। और बहुत सी नई दृष्टियां पैदा करनी पड़ेंगी। वे दृष्टियां भी पैदा करने योग्य हैं।
जैसे उदाहरण के लिए, मैं समझता हूं कि हमारे परिवार की जो पकड़ है वह भी जीवन को नुकसान पहुंचाती है, वह पकड़ भी ढीली होनी चाहिए। अगर मेरे पिता और पड़ोसी में झगड़ा हो जाए तो मुझे अनिवार्य रूप से अपने पिता का साथ देना चाहिए, यह परिवार की पकड़ है, क्योंकि वे मेरे पिता हैं। और हो सकता है वे गलत हों और परिवार पड़ोस का जो झगड़ने वाला दुश्मन है वह सही हो। लेकिन परिवार मेरा कहेगा कि अपने बाप का साथ दो, अपने भाई का साथ दो, अपनी मां का साथ दो। पड़ोसी का साथ मत देना। सही-गलत का सवाल नहीं है। सही या गलत, परिवार मेरा है।
तो परिवार के साथ हमारी जो आइडेंटिटी है वह हमें सही और गलत की परख से रोक देती है। हो सकता है पड़ोसी ही ठीक हो। और तब परिवार की पकड़ अगर हमारे ऊपर कम हो जाए तो मैं अपने पिता को कह सकूं कि पड़ोसी ठीक है और अगर लड़ाई जारी होगी तो मैं पड़ोसी की तरफ हूं।
और ध्यान रहे, यह छोटा मामला नहीं है। क्योंकि यही फैल कर फिर हिंदुस्तान-पाकिस्तान का मामला बनता है, यही फैल कर फिर हिंदुस्तान-चीन का मामला बनता है। इसके बुनियाद में परिवार की पकड़ है। हिंदुस्तान ठीक होगा हर हालत में, क्योंकि मैं हिंदुस्तान में रहता हूं। तो फिर पाकिस्तान का आदमी भी सोचता है पाकिस्तान ठीक होगा हर हालत में, क्योंकि पाकिस्तान उसका परिवार है। तब दुनिया में कभी तय नहीं हो पाता कि ठीक क्या है। ठीक कभी तय नहीं हो पाएगा।
परिवार की पकड़ टूट जाए, तो मैं मानता हूं, राष्ट्र की पकड़ तत्काल टूट जाएगी। परिवार की पकड़ ही फैल कर राष्ट्रीयता बनती है, नेशनेलिटी बनती है। और जब तक दुनिया में राष्ट्र नहीं मिटता तब तक दुनिया में मनुष्यता के जन्म का कोई उपाय नहीं है। राष्ट्र मिटने चाहिए, मनुष्यता एक होनी चाहिए।
लेकिन परिवार की पकड़ बहुत गहरी है। और परिवार फैल कर फिर जाति बनता है, राष्ट्र बनता है। और तब बड़ी कठिनाई खड़ी हो जाती है। आज तक तय नहीं हो पाया--कौन सही है? जब दो राष्ट्र लड़ते हैं तो दोनों ही सही होते हैं।
जर्मनी और इंग्लैंड लड़े दूसरे महायुद्ध में। तो इंग्लैंड का आर्चबिशप भगवान से प्रार्थना करता रहा कि मेरे राष्ट्र को जिताओ, क्रिश्चियन भगवान से। और जर्मनी का बिशप भी क्रिश्चियन भगवान से प्रार्थना करता रहा कि मेरे राष्ट्र को जिताओ, क्योंकि मेरा राष्ट्र धर्म के पक्ष में है। और इंग्लैंड भी धर्म के पक्ष में है। और दोनों पुरोहित एक ही जीसस के और एक ही भगवान से प्रार्थना करते हैं, एक ही बाइबिल को हाथ में रख कर।
बड़ी हैरानी की बात है! ऐसा मालूम होता है कि सही-झूठ का कोई मापदंड ही नहीं है। कुछ तय करना ही संभव नहीं हो पाता। क्योंकि जो मेरा है वह ठीक है। जब तक हम दूसरे निर्णय पर न पहुंचें--कि जो ठीक है वही मेरा है--तब तक बहुत कठिनाई है। और इस निर्णय पर पहुंचने के लिए परिवार की पकड़ ढीली होनी चाहिए।
अच्छा होगा कि जिंदगी में एकाध-दो बार पत्नी बदल जाती हो और बच्चे एक परिवार से दूसरे परिवार में यात्रा कर जाते हों, बुरा नहीं है। क्योंकि इसके परिणाम ये होंगे कि वह जो क्लिंगिंग है परिवार की, वह विदा हो जाएगी। और जिस दिन परिवार नीचे से विदा हो जाएगा, उस दिन ऊपर से राष्ट्र विदा हो जाएगा। वह परिवार का फैला हुआ रूप है। कभी आपने खयाल किया कि परिवार की पकड़ की वजह से दुनिया में संप्रदाय बने हुए हैं, अन्यथा मिट जाएं।

एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि ये हिंदू और मुसलमान और यह सब पागलपन के मिटाने का उपाय क्या है?

परिवार को विदा करो! अगर परिवार बचता है तो हिंदू-मुसलमान विदा नहीं हो सकते। क्योंकि हिंदू-मुसलमान ने ट्रिक समझ ली है और परिवार की जड़ों को पकड़ लिया है। अब आप अपने परिवार को मानते हैं। आपका परिवार एक धर्म में है, एक संप्रदाय में है। इसीलिए परिवार कोशिश करता है कि उसी धर्म में विवाह हो बेटे का, बेटी का। क्योंकि अगर दूसरे धर्म में यात्रा शुरू हो गई तो परिवार बिखरने लगेगा। वे परिवार की जो मौलिक जड़ें हैं, उनमें बिखराव हो जाएगा। इसलिए एक जाति, एक भाषा, एक धर्म, एक देश, इसमें हम विवाह करेंगे। ताकि हम आगे के लिए भी बंटवारा साफ रख सकें।
अगर हिंदुस्तान में हिंदू-मुसलमान के घरों में विवाह होते होते, तो हिंदुस्तान-पाकिस्तान कभी भी नहीं बंट सकता था। जिन लोगों ने हिंदू और मुसलमानों को विवाह करने से रोका, वे ही लोग हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बंटवारे के लिए जिम्मेवार हैं। अगर हिंदुस्तान में हमने हिंदू लड़की और मुसलमान लड़के को विवाह करने दिया होता, मुसलमान लड़की और हिंदू लड़के को विवाह करने दिया होता, तो कैसे निर्णय हो पाता कि कौन हिंदू है? कौन मुसलमान है? कैसे निर्णय हो पाता कि किसका परिवार पाकिस्तान जाए और किसका परिवार हिंदुस्तान में रहे? सब परिवारों को बंटना पड़ता। वह असंभव था।
लेकिन विवाह की व्यवस्था ने वह संभव बना दिया। एक मुल्क दो हिस्सों में टूट गया। अब भी हम उन्हीं रेखाओं में बंटे हुए जी रहे हैं।
मैं हिंदुस्तान के भावी बच्चों से कहता हूं कि भूल कर अपनी जाति में शादी मत करना, भूल कर अपने धर्म में शादी मत करना। क्योंकि धर्म में और जाति में शादी करने का परिणाम हिंदू-मुस्लिम दंगे है। जाति और धर्म में शादी करने का परिणाम है कि अहमदाबाद में मुसलमान जलेंगे, कराची में हिंदू जलेंगे और जगह-जगह हिंदू-मुस्लिम की छाती में छुरा भोंका जाएगा।
लेकिन अगर मेरी पत्नी मुसलमान हो तो फिर मुसलमान की छाती में छुरा भोंकना बहुत मुश्किल हो जाएगा मेरे लिए। और मेरे बच्चे, वे हिंदू-मुसलमान दोनों होंगे। उन बच्चों की फिर कोई भी क्लिंगिंग न रह जाएगी। उनकी कोई पकड़ न रह जाएगी। अगर वे हिंदू की छाती में छुरा भोंकना चाहेंगे तो उन्हें अपने बाप की याद आएगी और अगर वे मुसलमान की मस्जिद में आग लगाना चाहेंगे तो उन्हें अपनी मां की याद आएगी। उन बच्चों की क्लिंगिंग टूट जाएगी।
यह जो हमारा परिवार है एक रूप-रेखा में बंधा हुआ है, इसे बिखराने की जरूरत है, इसके दरवाजे खोलने की जरूरत है। इसमें आने दें।
इस परिवार के कारण ही व्यक्तिगत संपत्ति को बचने में सहयोग मिला। मेरी संपत्ति मेरे बेटे की संपत्ति हो जाती है; मेरे बेटे की संपत्ति उसके बेटे की संपत्ति हो जाएगी; संपत्ति पर कब्जा जारी रहेगा। इस संपत्ति पर कब्जा जारी रहने के कारण बहुत नुकसान हुए। अगर यह परिवारों में थोड़ा बिखराव हो तो संपत्ति धीरे-धीरे अपने आप--बिना किसी समाजवाद के लाए, बिना ऊपर से जबरदस्ती समाजवाद थोपे और राष्ट्रीयकरण किए--संपत्ति की जो व्यक्तिगत पकड़ है, वह व्यक्तिगत परिवार के बिखराव के साथ विदा हो जाएगी। संपत्ति धीरे-धीरे अपने आप समाज की हो जाएगी।
अब मेरे एक मित्र हैं बेल्जियम में, उनके संबंध में कोई मुझे एक मजाक सुना रहा था। उनकी तीसरी पत्नी है। एक दिन उनके बच्चे आपस में लड़ रहे हैं तो उनकी पत्नी ने उनसे कहा कि देख रहे हैं आप, मेरे और तुम्हारे बच्चे मिल कर हमारे बच्चों को मार रहे हैं।
समझे आप? उसने कहा, मेरे और तुम्हारे बच्चे मिल कर हमारे बच्चों को मार रहे हैं। इस पत्नी के भी अपने बच्चे हैं पहले पति से, इस पति के भी अपने बच्चे हैं पहली पत्नी से और इन दोनों के भी बच्चे हैं। तो तीन तरह के बच्चे हैं उस घर में--मेरे, तुम्हारे, हमारे। और वह पत्नी कह रही है कि मेरे और तुम्हारे बच्चे मिल कर हमारे बच्चों को मार रहे हैं।
अब जिस घर में बच्चे इतने विभिन्न हैं उस घर में एक तरलता होगी। और स्वभावतः उस घर में पिता का हृदय और बड़ा चाहिए, मां का हृदय भी और बड़ा चाहिए। अपने बच्चे को ही प्रेम करना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है, कोई बहुत बड़ी ऊंची मनुष्यता का लक्षण नहीं है। लेकिन अगर मेरी पत्नी किसी और के बच्चों को लेकर मेरे घर में आती है और उन बच्चों को भी मैं प्रेम कर पाऊं, तो एक घटना घटती है। लेकिन उस डर से ही कि कहीं ऐसा न हो कि किसी और के बच्चों को मुझे प्रेम करना पड़े, हमने एक दीवार बना कर रखी है। यह परिवार अब तक मनुष्य को मनुष्य से तोड़ने का कारण बना है, जोड़ने का कारण नहीं बन सका। तरलता चाहिए, सॉलिडिटी नहीं, लिक्विडिटी चाहिए। जितना परिवार ठोस पत्थर की तरह होगा, उतना खतरनाक है। परिवार पानी की तरह पिघला हुआ बहता हुआ चाहिए।
असल में मेरे और आपके परिवार के बीच बहुत साफ, सुनिश्चित रेखा नहीं चाहिए। हमारे और आपके परिवार एक-दूसरे में प्रवेश करते हुए, ट्रेसपास करते हुए होने चाहिए। अगर पूरे देश के परिवार एक-दूसरे में प्रवेश करते हों तो अपने आप एक समाज का जन्म होता है। समाज तब तक पैदा नहीं हो पाता जब तक परिवार बहुत सख्त हैं, क्योंकि तब परिवार टूटे रहते हैं अलग-अलग टुकड़ों में और समाज को जोड़ने वाली बीच में कोई धारा नहीं होती। इसलिए जिस देश में परिवार जितने महत्वपूर्ण रहे हैं, उस देश में सामाजिकता उतनी ही कमजोर रही है।
जैसे हमारे देश में। हमारा देश परिवारों का सबसे पुराना देश है। और हमारे देश में परिवार की बड़ी लंबी कथा है। और हमारे देश में परिवार को हमने बड़ा पूज्य समझा है, बड़ा होली और बहुत पवित्र समझा हुआ है। और उस परिवार के कारण इस देश में सामाजिकता, सोशिएलिटी पैदा नहीं हो पाई। हमारे मुल्क में सामाजिकता बिलकुल नहीं है। मैं अपने परिवार में जीता हूं, आप अपने परिवार में जीते हैं। और हमारे परिवार कटे, अलग, आइलैंड्स की तरह हैं, एक सागर की तरह मिले हुए नहीं।
मेरी समझ में, अगर विवाह की जगह प्रेम और प्रेम के पीछे विवाह हो; तलाक की अधिकतम सुविधा, विवाह की अधिकतम असुविधा; परिवारों की तरलता, जाति और धर्मों का आग्रह नहीं; और मेरा परिवार ठीक हर हालत में, ऐसी भ्रांति नहीं; तो हम एक नये तरह के परिवार को जन्म दे पा सकते हैं। और इस नये तरह के परिवार को अगर हम जन्म न दें तो भविष्य में हम बड़ी कठिनाइयों में पड़ते चले जाएंगे।
जगत आगे बढ़ गया और परिवार पीछे खड़ा रह गया है। परिवार है पांच हजार साल पुराना और दुनिया है बीसवीं सदी की। परिवार के ढंग और व्यवस्थाएं सब प्राचीन और जगत बिलकुल नया और परिस्थितियां बिलकुल नई। इस नई परिस्थिति में नये तरह के परिवार का जन्म होना अत्यंत जरूरी है। और इस परिवार के जन्म होते ही हमारी बहुत सी रुग्ण व्यवस्थाएं हिंदू-मुसलमान की, ईसाई की, जैन की, अपने आप टूट जाएंगी। किन्हीं महात्माओं को समझाने की जरूरत नहीं है कि हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई हैं। किन्हीं महात्माओं को समझाने की जरूरत नहीं है कि अल्लाह-ईश्वर एक के ही नाम हैं।
असल में जीवन के नीचे से उस व्यवस्था को तोड़ने की जरूरत है, जिसकी वजह से अल्लाह-ईश्वर दो नाम हो गए हैं; और जिसकी वजह से हिंदू-मुसलमान दो हो गए हैं; उस भीतर से व्यवस्था को तोड़ने की जरूरत है। परिवार बिखेर देना है।
लेकिन डर लगता है हमें। हमें लगता है कि परिवार बिखर जाए तो क्या होगा? बिना यह सोचे हमें डर लगता है कि परिवार के होने से क्या हो रहा है! परिवार के बिखरने से क्या होगा?
कुछ नुकसान होने वाला नहीं है। परिवार के बिखरने का मतलब ही इतना है कि बड़ा परिवार बनेगा। छोटे परिवार की टुकड़ियां टूट जाएंगी, बड़ा परिवार बनेगा। और जितना बड़ा परिवार बनेगा उतना ही समाजवाद सहज विकसित होगा।
और अगर बड़ा परिवार नहीं बनाना है तो समाजवाद छाती पर पत्थर की तरह आएगा, ऊपर से संगीन की तरह आएगा, दिल्ली से आएगा। और दिल्ली से आया हुआ समाजवाद खतरनाक है। वह जबरदस्ती ऊपर से संगीन के बल आएगा। नीचे से या तो परिवार को बड़ा करो, फैलाओ और पूरे समाज को परिवार बना दो। और या फिर ऊपर से ताकत के बल से आपसे छीना जाएगा, तोड़ा जाएगा। वह तोड़ने में आत्मा के बहुत से तंतु टूट जाएंगे। उस जबरदस्ती में आत्मा की सारी स्वतंत्रता छिन जाएगी। उस जबरदस्तीपूर्ण आग्रह में, उस वाद में पूरा देश एक कारागृह बन जाएगा।
अगर इस कारागृह से बचना हो, तो हमें नीचे के परिवार के यूनिट्स ढीले करने चाहिए और धीरे-धीरे परिवार को बड़ा करना चाहिए। एक गांव परिवार बन जाए। अगर एक गांव पूरा परिवार बन जाता है, लिक्विड हो जाता है, तो हमें व्यक्तिगत संपत्ति मिटानी नहीं पड़ेगी; बिना व्यक्तिगत संपत्ति को मिटाए सामाजिक संपत्ति का जन्म हो जाएगा। अगर एक प्रदेश परिवार बन जाता है, तो हमें कानून नहीं बनाना पड़ेगा राष्ट्रीयकरण का, उस प्रदेश की संपत्ति प्रदेश की है और हो जाएगी। व्यक्ति भी बचेगा, व्यक्ति की गरिमा भी बचेगी और व्यक्तिगत संपत्ति अपने आप विदा हो जाएगी।
और अगर हमने यह आग्रह जारी रखा, हमारे पुराने टुकड़े जिंदा रखने की हमने कोशिश की, तो जबरदस्ती ये टुकड़े तोड़ने पड़ेंगे। और व्यक्तिगत संपत्ति को बिखराने में व्यक्ति की सारी स्वतंत्रता के बिखर जाने का डर है। इसलिए मेरे मस्तिष्क में समाजवाद की एक धारणा है और वह धारणा है परिवार के विस्तार से समाजवाद के फलित होने की। और मेरी दृष्टि में हिंदू-मुसलमान को मिटाने की एक धारणा है और वह धारणा है हिंदू-मुसलमान को भाई-भाई समझाने की नहीं; उससे कुछ भी नहीं हुआ, उससे बल्कि नुकसान हुआ। अगर हिंदुस्तान के समझदार नेता हिंदू और मुसलमानों को भाई-भाई होना न समझाते तो शायद पार्टीशन न होता!
उसके कारण हैं। क्योंकि जब हमने पचास साल तक निरंतर कहा कि हिंदू-मुसलमान भाई-भाई हैं, हिंदू-मुसलमान भाई-भाई हैं। फिर भी हिंदू-मुसलमान एक साथ रहने को राजी न हुए, तो भाई-भाई के तर्क ने लोगों को खयाल दिया कि अगर दो भाई साथ न रह सकते हों तो संपत्ति का बंटवारा कर लेना चाहिए। पार्टीशन, दो भाइयों के बीच झगड़े का आखिरी निपटारा है।
अगर गांधी जी ने हिंदुस्तान को मुसलमान-हिंदू के भाई-भाई की शिक्षा न दी होती तो पार्टीशन का लाजिक खयाल में नहीं आ सकता था। असल में पार्टीशन सदा दो भाइयों के बीच में होता है। पार्टीशन होने के पहले, दोनों भाई हैं, इसकी हवा पैदा होनी जरूरी थी। अगर यह हवा पैदा न होती तो खयाल में भी न आता कि हिंदुस्तान का बंटवारा हो। जब एक दफा यह खयाल पैदा हो गया कि दोनों सगे भाई हैं और साथ रहने में मजबूर हैं, तो स्वाभाविक लाजिकल कनक्लूजन, जो तार्किक निष्कर्ष था वह यह हुआ कि फिर ठीक है बंटवारा कर लें, जैसे कि दो भाई लड़ते हैं और बंटवारा कर लेते हैं। फिर गांधी जी को या किसी को कहने का उपाय न रहा कि बंटवारा न होने देंगे।
हम कभी नहीं कहते कि ईसाई-ईसाई भाई-भाई हैं। हम यह क्यों कहते हैं कि हिंदू-मुसलमान भाई-भाई हैं? हिंदू-ईसाई भाई-भाई हैं? यह भाई-भाई का कहना जो है खतरे की सूचना है, इससे पता चलना शुरू हो गया कि झगड़ा खड़ा है।...
तब तक परिवार तरल नहीं हो सकता। क्योंकि पिता अपने दिमाग से सारा इंतजाम करेगा। अगर पिता अपने लड़के का विवाह करेगा तो स्वभावतः ब्राह्मण पिता ब्राह्मण लड़की से विवाह करेगा। अरेंज मैरिज सोच-समझ कर की जाएगी तो पिता...
तो हम प्रेम करें। प्रेम पहले शुरू हो जाता है, पीछे पता चलता है--कौन हिंदू है, कौन मुसलमान है। और जब एक बार प्रेम शुरू हो जाए तो हिंदू-मुसलमान दो कौड़ी की बातें हैं, उनको फेंका जा सकता है, उनका कोई मूल्य नहीं है। जहां प्रेम नहीं है वहीं उन बातों का मूल्य है; जहां प्रेम की शुरुआत है वहां कोई मूल्य नहीं है। अगर हम अपने लड़के-लड़कियों को करीब ला सकें, तो बीस साल में हिंदुस्तान में हिंदू-मुसलमान का कोई सवाल नहीं रहेगा--सिर्फ बीस साल में। क्योंकि बीस साल में एक जेनरेशन, एक पीढ़ी बदल जाती है। सिर्फ बीस साल का सवाल है। और अगर हम अपने मुल्क के लड़के-लड़कियों को बहुत निकट ला सकें, तो आने वाले पचास साल में हिंदुस्तान-पाकिस्तान को अलग रहने की कोई जरूरत न रह जाएगी।
सच बात तो यह है कि आदमी की जितनी बुद्धिमत्ता मशीनों और पशुओं के संबंध में काम में आ रही है, उतनी बुद्धिमत्ता खुद के संबंध में काम नहीं आ रही है। हम सब जानते हैं कि अंग्रेज बैल को, अंग्रेज सांड को लाकर हिंदू गाय से विवाहित करवा देने से जो बच्चे पैदा होते हैं उनकी ताकत का कोई मुकाबला नहीं। लेकिन यही व्यवहार हम आदमी के साथ नहीं कर पा रहे। यह बायोलाजिकल समझ आदमी के साथ में उपयोग में नहीं आ पा रही है।
सच बात यह है, संबंध जितने दूर के होंगे, बच्चे उतने स्वस्थ, उतने बुद्धिमान होंगे। जितनी क्रास-ब्रीडिंग होगी। सच तो यह है कि जितने दूर की बहुएं हमारे घरों में आ सकें और हमारी लड़कियां जितने दूर के घरों में बहुएं बन सकें, उतने इस जगत में मनुष्य का रूप, सौंदर्य, स्वास्थ्य, बुद्धि, सब विकसित होगी। लेकिन हमारे परिवार रुकावट डाल रहे हैं।
नहीं, अंतर्जातीय ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय विवाह भविष्य का विवाह होगा। अंतर्जातीय छोटी पड़ गई है बात, अंतर्राष्ट्रीय! और कोई नहीं जानता, क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं कि कम से कम पचास हजार ऐसे ग्रह-उपग्रह हैं जिन पर जीवन होगा, तो कोई नहीं कहता इंटरप्लेनेटरी, अंतर्ग्रहीय विवाह। और जिस दिन कभी किसी चांदत्तारे से आई हुई लड़की से आपके लड़के का विवाह हो सकेगा, उस दिन जो बच्चा पैदा होगा वह मनुष्यता के जीवन में नया चरण होगा। क्योंकि उन दोनों की अनंत यात्रा की भेद उस एक बच्चे में समाहित और सम्मिलित हो जाएंगी। जब एक हिंदू और मुसलमान का विवाह होता है, तो दो संस्कृतियों की समस्त देन उस बच्चे को मिल जाती है।
मेरे एक मित्र ने अमेरिका में शादी की है। छह महीने हिंदुस्तान रहते हैं, छह महीने अमेरिका रहते हैं। उनकी जो बच्ची है वह हिंदी भी मातृ-भाषा की तरह बोलती है, मातृ-भाषा है उसकी। अंग्रेजी भी मातृ-भाषा की तरह बोलती है, वह मातृ-भाषा है उसकी। वह लड़की बाइलिंगुअल है। उस लड़की की दोनों क्षमताएं समान हैं। उस लड़की की क्षमता दुगनी है; बाप की भी क्षमता उसके पास है, मां की भी क्षमता उसके पास है।
अगर इस लड़की का विवाह एक चीनी से हो, तो उसके बच्चे तीन भाषा बोल सकेंगे मातृ-भाषा की तरह। अगर उनके बच्चों का विवाह रूसी से हो, तो उनके बच्चे चार भाषा बोल सकेंगे मातृ-भाषा की तरह। और अगर सारी दुनिया में इस तरह के अंतर्संबंध स्थापित हो जाएं तो बहुत देर नहीं है जब अंतर्राष्ट्रीय भाषा एक हो जाए। क्योंकि जब कोई आदमी चार भाषाएं एक साथ मातृ-भाषा की तरह बोलता है तो सीमाएं टूट जाती हैं और भाषाएं एक-दूसरे में प्रवेश कर जाती हैं।
दुनिया में एस्पेरेंटो, कोई अंतर्राष्ट्रीय भाषा ऊपर से नहीं थोपी जा सकती। जब जीवन में नीचे से आनी शुरू होगी तो बहुत दूर नहीं है वह दिन अगर हमारे अंतर्जातीय, अंतर्राष्ट्रीय विवाह हो सकें, तो दो सौ वर्ष के भीतर दुनिया में एक भाषा रह जाए। जिस दिन एक भाषा होगी उस दिन एक परिवार के बनने में बड़ी सहायता मिल जाएगी।
अभी तो जर्मन और रूस और चीनी से दोस्ती बढ़ानी बहुत मुश्किल है। गुजराती मराठी से नहीं बढ़ा पाता। हिंदी बोलने वाला तमिल बोलने वाले से दुश्मनी बना लेता है। असल में जो हमारी भाषा नहीं बोलता उसे हम कभी नहीं समझ पाते। एक मिसअंडरस्टैंडिंग हमेशा बीच में खड़ी रहती है। जो हमारी भाषा नहीं समझता वह अजनबी मालूम पड़ता है, जो हमारी भाषा नहीं समझता उससे हम बहुत निकट के संबंध नहीं बना पाते।
मेरे एक मित्र, जो सारी दुनिया में घूमे हैं, उन्होंने मुझसे कहा कि सारी दुनिया में घूम लो, सब तरह की भाषाएं बोल लो, लेकिन अगर किसी से प्रेम करना हो तो ऐसा लगता है कि अपनी ही भाषा में बोलो, या किसी से झगड़ा करना हो तो भी ऐसा लगता है कि अपनी भाषा में बोलो।
असल में झगड़े में आदमी फौरन अपनी भाषा बोलने लगता है। अगर आपको किसी को गाली देना है तो दूसरे की भाषा में मजा नहीं आएगा। दूसरे की भाषा बिलकुल होकस-पोकस, इंपोटेंट मालूम पड़ेगी कि यह भी कोई गाली हुई! अगर आपको किसी से प्रेम करना है तो भी दूसरे की भाषा थोड़ी मुश्किल में डालती हुई मालूम पड़ेगी। क्योंकि जब भी कोई तीव्र क्षण भीतर पैदा होता है, तो वह जो हमारे लिए सहज है वही निकल जाता है।
हमें अपने बच्चों को चार-छह भाषाएं सहज बनानी चाहिए। वे तभी बन सकेंगी जब यह हमारे परिवार का पुराना ढांचा बिखर जाए और इसकी जगह एक अंतर्राष्ट्रीय परिवार की रूप-रेखा पैदा होनी शुरू हो जाए।
राष्ट्र विदा होने चाहिए, धर्म विदा होने चाहिए, जातियां विदा होनी चाहिए, और इन सबका आधार हमारे परिवार में है। इसलिए मैं कहता हूं, पुराने परिवार को विदा दो, ताकि नया परिवार जन्म ले सके।

इस संबंध में कुछ और प्रश्न हैं, वह संध्या आपसे मैं बात करूंगा।

मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।


1 टिप्पणी:

  1. मेरा नाम लिलियन एन है। यह मेरे जीवन का एक बहुत ही खुशी का दिन है क्योंकि डॉ सगुरु ने मेरे पूर्व पति को अपने जादू और प्रेम मंत्र से वापस लाने में मेरी मदद की है। मेरी शादी को 6 साल हो गए थे और यह बहुत भयानक था क्योंकि मेरे पति वास्तव में मुझे धोखा दे रहे थे और तलाक की मांग कर रहे थे, लेकिन जब मुझे इंटरनेट पर डॉ. सगुरु का ईमेल मिला कि कैसे उन्होंने अपने पूर्व को वापस पाने में इतने लोगों की मदद की है और रिश्ते को ठीक करने में मदद करें। और लोगों को अपने रिश्ते में खुश रखें। मैंने उसे अपनी स्थिति के बारे में बताया और फिर उसकी मदद मांगी लेकिन मेरे आश्चर्य से उसने मुझसे कहा कि वह मेरे मामले में मेरी मदद करेगा और यहां मैं अब जश्न मना रही हूं क्योंकि मेरे पति अच्छे के लिए पूरी तरह बदल गए हैं। वह हमेशा मेरे पास रहना चाहता है और मेरे वर्तमान के बिना कुछ नहीं कर सकता। मैं वास्तव में अपनी शादी का आनंद ले रहा हूं, क्या शानदार उत्सव है। मैं इंटरनेट पर गवाही देता रहूंगा क्योंकि डॉ. सगुरु वास्तव में एक असली जादू-टोना करने वाला है। क्या आपको मदद की ज़रूरत है तो डॉक्टर सगुरू से संपर्क करें अब ईमेल के माध्यम से: drsagurusolutions@gmail.com वह आपकी समस्या का एकमात्र उत्तर है और आपको अपने रिश्ते में खुश महसूस कराता है। और उसका भी संपूर्ण
    1 प्रेम मंत्र
    2 पूर्व वापस जीतें
    3 गर्भ का फल
    4 वर्तनी संवर्धन
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    7 गुड जॉब स्पेल
    8 लॉटरी स्पेल और कोर्ट केस स्पेल

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