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शनिवार, 8 जून 2019

नये समाज की खोज-(प्रवचन-16)

सफलता नहीं --प्रवचन सोहलवां

सुफलता
एक मित्र पूछ रहे हैं: मेरे एक वक्तव्य में मैंने कहा है कि शादी जैसी आज है, विवाह जैसा आज है, वह विवाह इतना विकृत है कि उस विवाह से गुजर कर मनुष्य के चित्त में विकृति ही आती है, सुकृति नहीं।

यह बात सच है कि विवाह एक अति सामान्य, अति जरूरी स्थिति है। और साधारणतः अगर विवाह वैज्ञानिक हो तो व्यक्ति विवाह के बाद ज्यादा सरल, ज्यादा शांत और सुव्यवस्थित होगा। लेकिन विवाह अगर गलत हो--जैसा कि गलत है--तो विवाह के पहले से भी ज्यादा परेशानियां, अशांतियां और चित्त की रुग्णताएं बढ़ेंगी।
जैसे मेरा कहना है, जो विवाह प्रेम से फलीभूत नहीं हुआ है, ज्योतिषी से पूछ कर हुआ है, जो विवाह मां-बाप ने तय किया है, स्वयं विवाह करने वालों के प्रेम से नहीं निकला है--वह विवाह विकृत करेगा, सुकृत नहीं करेगा। वह विवाह नई परेशानियों में ले जाएगा बजाय पुरानी परेशानियां हल करने के।
और इसलिए सारी दुनिया में विवाह की पूरी की पूरी व्यवस्था रुग्ण हो गई है, बीमार हो गई है, सड़ गई है। और जब तक हम विवाह की व्यवस्था नहीं बदलते...और भी बहुत बातें हैं, समाज को जो सड़ा रही हैं और पागलपन पैदा कर रही हैं। लेकिन उनमें से बहुत बुनियादी बातों में से एक विवाह है। जब तक हम उसे नहीं बदलते, तब तक परिवार का वह रूप प्रकट नहीं हो सकेगा जो व्यक्ति को शांति देता हो, प्रेम देता हो, आनंद देता हो, गति देता हो, बल देता हो--और सबसे बड़ी बात--जो व्यक्ति के जीवन में अध्यात्म देता हो।

अभी तो जो परिवार है वह रोग देता है, बीमारी देता है, लड़ाई देता है, कलह देता है, अशांति देता है, तनाव देता है। और यह सब भी आदमी झेलने को राजी हो सकता है अगर दो व्यक्तियों के बीच कोई बहुत गहरे प्रेम का संबंध हो। इस सबको झेला जा सकता है। लेकिन अगर बीच में प्रेम का संबंध भी न हो और यह सब झेलना पड़े, तो विवाह व्यक्ति को तोड़ता है, बनाता नहीं। और इसीलिए परिवार को छोड़ कर भागने वाले लोगों की संख्या निरंतर बढ़ती चली गई। चाहे वे संन्यास के नाम से भागते हों, वह परिवार से छुटकारा पाने का उपाय है। चाहे वे अपराध के नाम से भागते हों और जेल में सड़ जाते हों, वह भी परिवार से भागने का उपाय है। चाहे वे समाज-सेवा के नाम से चौबीस घंटे घर के बाहर घूमते हों, वह भी परिवार से भागने का उपाय है।
हजार तरकीब से आदमी परिवार से भागने का उपाय कर रहा है। होना तो यह चाहिए कि परिवार इतना सुखद हो कि सब तरफ से भाग कर आदमी परिवार की शरण में आए। लेकिन हालतें ऐसी हैं कि परिवार से बचने के लिए न मालूम कितने उपाय आदमी करता है। जितने लोग शराब पीते हैं, उसमें अधिक लोग परिवार से, परिवार को भूलने, छुटकारा पाने के लिए। लोग सिनेमाघरों में बैठे हुए हैं, परिवार से छूटने के लिए। लोग पागल तक हो जाते हैं, वह भी एक बचाव है परिवार से छूट जाने के लिए।
अगर परिवार की हम पूरी व्यवस्था देखें, तो परिवार अभी वैज्ञानिक नहीं है, किसी भी दृष्टि से वैज्ञानिक नहीं है। और इसलिए मैंने कहा कि हमें परिवार पूरा का पूरा बदलना पड़े, आमूल क्रांति परिवार में जरूरी है, तो ही मनुष्य को स्वस्थ, शांत और सरल बनाया जा सकता है। नहीं तो परिवार उसको विकृत किए दे रहा है। और पता भी नहीं चल रहा है, क्योंकि परिवार हमें इस तरह स्वीकृत हो गया है कि हम सोचते हैं परिवार कोई प्राकृतिक व्यवस्था है। जो कि सरासर झूठ है। परिवार बिलकुल मनुष्य की ईजाद है। और जो भी चीजें मनुष्य की ईजाद हों उनमें सुधार हो सकते हैं, होने चाहिए। कोई भी...परिवार कोई ऐसी चीज नहीं है जो कि नैसर्गिक है, इसलिए परिवार बहुत प्रकार के हो सकते हैं।
जैसे उदाहरण के लिए आपको कहूं, अब तक तो हम यही समझते रहे हैं कि बच्चों को मां-बाप के साथ पाला जाना चाहिए। हम यह भी सोचते रहे हैं कि बच्चे अगर मां-बाप के पास नहीं पलेंगे तो उन्हें प्रेम नहीं मिलेगा। हम यह भी सोचते रहे हैं कि बच्चे अगर मां-बाप से दूर पाले जाएंगे तो उनके बीच कभी प्रेम का संबंध विकसित नहीं होगा। यह सरासर ही गलत और व्यर्थ बात है।
इजरायल में उन्होंने नया प्रयोग किया है--बच्चों को परिवार से अलग पालने का। और परिणाम बिलकुल उलटे हुए हैं। हमारे बच्चे मां-बाप के साथ पलने के बाद मां-बाप के प्रति प्रेम नहीं सीखते, बहुत बुनियाद में घृणा सीखते हैं, बगावत सीखते हैं, मां-बाप के प्रति क्रोध सीखते हैं। और यही सारा का सारा क्रोध जब मां-बाप बूढ़े होते हैं और बच्चे ताकतवर होते हैं, जब परिवार का पांसा पलट जाता है, क्योंकि बचपन में बच्चे कमजोर होते हैं, मां-बाप ताकतवर होते हैं; बुढ़ापे में बच्चे ताकतवर हो जाते हैं, मां-बाप कमजोर हो जाते हैं; तो बचपन में जो-जो पीड़ा उन्होंने मां-बाप से सही है, उसका बदला लेना बुढ़ापे में वे शुरू करते हैं। फिर मां-बाप चिल्लाते हैं और कहते हैं कि बच्चे हमें सता रहे हैं। हम कमजोर हो गए, बूढ़े हो गए, हमारी न सेवा की जा रही है, न फिकर की जा रही है। लेकिन कोई भी नहीं सोचता कि बच्चे क्यों सता रहे हैं मां-बाप को! कहीं ऐसा तो नहीं है कि मां-बाप ने बचपन में सताया हो? कहीं यह उसका बदला तो नहीं है, यह उसका प्रतिकार तो नहीं है?
और मनोवैज्ञानिक कहेंगे कि उसका प्रतिकार है, बिलेटेड रिवेंज है, जो कि उनके भीतर इकट्ठा होता चला गया। अगर मां-बाप के साथ बच्चों को पालना है तो यह होगा, क्योंकि मां-बाप उनको शिक्षा भी देंगे, कुछ काम करने से भी रोकेंगे, जरूरी भी होगा रोकना, डांटेंगे, डपटेंगे, मारेंगे-पीटेंगे, समझाएंगे-बुझाएंगे। तो इन सारी प्रक्रिया के बीच गुजर कर बच्चे का प्रेम तो बातचीत रह जाती है और मां-बाप के प्रति क्रोध असलियत हो जाती है।
अभी इजरायल में उन्होंने नया प्रयोग किया कि बच्चे को, जैसे ही वह थोड़ा सा हुआ बड़ा, छह महीने का, तो उसको नर्सरी में ले जाएंगे; मां उसे दूध पिलाने जाएगी दिन में चार-छह बार, लेकिन सप्ताह में एक दिन से ज्यादा वह बच्चे को घर नहीं ला सकेगी। फिर जैसे ही बच्चा और बड़ा होने लगेगा, वैसे ही पूरे दिन भी घर नहीं रह सकेगा। कभी सप्ताह में दो सप्ताह में आएगा घंटे, दो घंटे घर खेलने, मिलने-जुलने। मां मिलने जाएगी, पिता मिलने जाएगा।
तो पहले यह सोचा था कि इसमें तो मां-बाप और बच्चे के बीच प्रेम कम हो जाएगा। लेकिन अनुभव यह हुआ कि चूंकि बच्चा सिर्फ मां के सुखद रूप को ही देखता है, कभी दुखद रूप को देखता ही नहीं। क्योंकि घंटे भर के लिए बच्चा घर आएगा तो मां मारेगी उसको, डांटेगी--यह तो असंभव है। वह उसे प्रेम ही करेगी। तो बच्चा चूंकि प्रेमपूर्ण रूप को ही देखता है। अठारह-बीस साल का होकर जब वह यूनिवर्सिटी से बाहर आएगा, तो मां उसे सिवाय प्रेम की प्रतिमा के और कुछ भी नहीं है। यह बच्चा मां को बुढ़ापे में कभी भी नहीं सता सकता, यह असंभावना हो गई।
लेकिन ये नये प्रयोग हैं। मेरा कहना यह है कि जरूरी नहीं है कि हम ऐसा करें। मेरा कहना यह है, लेकिन परिवार जैसा है वह विचारणीय हो गया है और बहुत से नये प्रयोग करने जरूरी हो गए हैं। और इतने नये प्रयोग अगर नहीं किए जाते तो परिवार, जिसको हम समझते हैं हमारे समाज का आधार है, वही हमारे समाज को सड़ाने का बुनियादी रूप हो गया है।
और हमें यह भी...हमें खयाल ही नहीं है कि परिवार की कितनी कुरूपता है, कि वह किस तरह के आदमी पैदा करता है। ये जो हम चारों तरफ देख रहे हैं कि लोग पैदा हुए हैं, ये परिवार से पैदा हुए हैं। न तो ये ठीक से शिक्षित होते हैं। क्योंकि इनकी शिक्षा अनिवार्य रूप से मां-बाप जो जानते हैं, जो समझते हैं, उनके दिमाग में डाल देते हैं। अब वे कहते हैं इस वक्त कि मां-बाप से बच्चों को बचाया जाना सबसे जरूरी बात है।
अब जैसे उदाहरण के लिए मैं कुछ बात कहूं। हिंदुस्तान के बच्चे अगर नर्सरीज में पाले जा सकें, तो उन बच्चों का भविष्य बहुत और होगा। मां-बाप के पास पलता हुआ बच्चा, अगर मुसलमान मां-बाप हैं तो बच्चे को मुसलमान बना देते हैं। और जो रोग मुसलमान के साथ जुड़ा था वह जुड़ा रहेगा। मां-बाप हिंदू हैं तो बच्चे को हिंदू बना देते हैं। अगर बच्चों को हम सामूहिक तल पर पाल सकें, तो बीस साल में हिंदुस्तान में न कोई हिंदू होगा, न कोई मुसलमान, न कोई ईसाई, न कोई जैन; सीधा मनुष्य होगा। और वे बच्चे जो कि साथ पलेंगे और जिनके दिमाग में हिंदू-मुसलमान बिठाने वाली कोई तरकीब जारी नहीं की जाएगी, वे बच्चे एक ऐसी दुनिया बनाएंगे जिसमें झगड़े कम होंगे, पाकिस्तान-हिंदुस्तान के होने की जरूरत नहीं होगी। मंदिर और मस्जिद के झगड़े की जरूरत नहीं होगी।
लेकिन जब तक मां-बाप के पास बच्चे पल रहे हैं तब तक आप नहीं बचा सकते। मां-बाप मुसलमान हैं तो मुसलमान बना जाएंगे, हिंदू हैं तो हिंदू बना देंगे। और इतने बचपन से बनाएंगे कि बच्चे को पता ही नहीं चलेगा कि वह कब मुसलमान बन गया और कब हिंदू बन गया। और पुराने सब झगड़े उसके दिमाग में फिर डाल दिए जाएंगे।
यह तो सारा का सारा परिवार जैसा है वह इस योग्य नहीं है कि बचाया जाए। लेकिन दूसरा विकल्प जब तक न हो तब तक हम प्रयोग भी नहीं कर सकते। तो अभी तो मैं चाहता हूं कि जीवन की प्रत्येक स्थिति पर पुनर्विचार हो, हम सोचें। मैं यह नहीं कहता कि जो मैं कहता हूं वही मान लें। वह गलत भी हो सकता है। लेकिन हम सोचना शुरू कर दें।
अब जैसे परिवार जैसी चीज पर सोचना ही बंद है। हमने मान ही लिया है कि जैसा परिवार है बस यही ठीक है, यही हो सकता है। हमने परिवार को कोई प्राकृतिक चीज बना ली है। वह प्राकृतिक चीज नहीं है, वह सिर्फ हजारों साल से चलने वाली चीज है। और दुनिया में सब जगह एक सा परिवार भी नहीं है, अलग-अलग ढंग के परिवार हैं, सब ढंग के परिवार चल रहे हैं।
अब हमें सोच कर फिर से व्यवस्था देनी चाहिए कि परिवार कैसा हो। इसलिए मैंने वह बात कही है। परिवार रोग ला रहा है, क्योंकि परिवार सड़ गया है, वह स्वस्थ नहीं कर रहा है।

दूसरे मित्र पूछते हैं: सफल जीवन यानी क्या?

पहली तो बात यह है कि जीवन हो तो सफल ही होता है। जीवन न हो तो असफल होता है। और जीवन नहीं है। जिंदा हैं हम, जीवन तो है ही नहीं। जिंदा भर रहना एक बात है--श्वास चलती है, खाना खाते हैं, सोते हैं, उठते हैं--तो जिंदा हैं, मरे हुए नहीं हैं। लेकिन जिंदा होना काफी नहीं है जीवन के लिए। जीवन का मतलब है: जीवन, जिंदा होने की सारी शक्तियां, किसी ऐसी दिशा में समर्पित हो जाएं, जहां से संगीत आता है, जहां से प्रेम आता है, जहां से आनंद आता है, जहां से शांति आती है।
यह भी हो सकता है कि जीवन की सारी शक्तियां ऐसी दिशा में समर्पित हो जाएं, जहां से क्रोध आता है, घृणा आती है, जहां से दुख आता है, उदासी आती है। जीवन एक अवसर है; हम किस दिशा में उसको संलग्न करते हैं, उस पर निर्भर करेगा। उस पर निर्भर करेगा कि जीवन जीवन बना कि सिर्फ जीना ही रह गया। अधिक लोगों का जीना ही रह जाता है।
बुद्ध के पास एक भिक्षु गया, उसकी उम्र कोई सत्तर वर्ष रही होगी। बुद्ध ने उससे पूछा कि भिक्षु, तेरी उम्र क्या है? उस भिक्षु ने कहा, केवल चार वर्ष। बुद्ध ने कहा, तू पागल हो गया? चार वर्ष तेरी उम्र! तू कम से कम सत्तर वर्ष का मालूम होता है। उस भिक्षु ने कहा कि भगवन, चार वर्ष से ही मुझे जीवन की सुगंध मिली है। उसके पहले मैं जिंदा था, उसको मैं उम्र में गिनती नहीं करता हूं। सिर्फ गुजारा समय, पसार किया। इधर चार वर्ष से मैंने जीवन का रस पाया। तो मैं अपनी चार वर्ष की ही गिनती करता हूं। बाकी सब सपने में बीता, जैसे नींद में बीता हो। तो बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से कहा कि भिक्षुओ, तुम भी अपनी उम्र अब इसी तरह से गिनना। यह आदमी उम्र का ठीक हिसाब रखता है।
कहां से जीवन की सुगंध मिलती है, उस दिन से उम्र शुरू होती है। लेकिन कई बार तो ऐसा होता है, मौत आ जाती है और उम्र शुरू नहीं होती, क्योंकि जीवन की सुगंध ही नहीं मिलती। बहुत लोग मर जाते हैं तभी उन्हें पता चलता है कि वे जिंदा थे। उसके पहले पता ही नहीं चलता कि जिंदगी क्या थी।
हां, एक ऊपर का क्रम है, वह हम सबको पता चलता है। लेकिन वही नहीं है, वही नहीं है। भीतर जीवन का जो मूल स्रोत है, उससे संबंधित हुए बिना कभी पता नहीं चलता। और उससे जैसे ही कोई संबंधित होगा वैसे ही शांति बढ़ेगी।
जैसे कोई बगीचे की तरफ जाए। बगीचा दूर हो सही। या समुद्र की तरफ आए। समुद्र दूर हो, न दिखाई पड़ता हो सही। लेकिन जैसे-जैसे समुद्र के पास आने लगा--हवा ठंडी होने लगेगी, मन ताजा होने लगेगा। बगीचे के पास आकर सुगंध आने लगेगी। अभी बगीचा नहीं आ गया, लेकिन सुगंध हवाओं में आने लगेगी और लगने लगेगा कि हम बगीचे के करीब होते चले जा रहे हैं।
जिंदगी में जितना रस मालूम हो, जितना आनंद मालूम हो, जितना संगीत मालूम हो, जितनी सुगंध मालूम हो, ऐसा लगे कि जीना एक अदभुत घटना है, एक-एक श्वास लेना सुख मालूम पड़ने लगे, तो समझना कि जीवन के बगीचे के करीब आने लगे। ये लक्षण हैं कि हम करीब आने लगे जीवन के। और जीवन एक बोझ लगे, भारी, ऐसा लगे जैसे ढो रहे हैं, एक उदासी, एक बोरडम मालूम हो, एक ऊब मालूम हो। और ऐसा लगे कि कब मर जाएं, भगवान कब उठा ले! और ऐसा लगे कि मोक्ष कब मिल जाए, जीवन से छुटकारा कब हो जाए! और ऐसा लगे कि आवागमन से कैसे छूटें, कैसे छूटें! कहां भेज दिया इस दुनिया में, कब इससे छुटकारा हो! तो समझना चाहिए कि हम जीवन के केंद्र से दूर जा रहे हैं। तब ये लक्षण प्रकट होने शुरू हो जाते हैं।
तो पहले तो यह सोच लेना चाहिए कि हमारी जिंदगी कहां खड़ी है? कैसी है? हम कह सकते हैं कि जिंदगी एक आनंद है? अगर कह सकते हैं तो हम ठीक दिशा में हैं। अगर हमें लगता है कि नहीं, हम यह नहीं कह सकते ईमानदारी से, कहना पड़ेगा कि जिंदगी एक दुख है, तो समझना चाहिए हम गलत दिशा में चल रहे हैं।
और सफलता का क्या मतलब है? सफलता का मतलब है कि जिंदगी आनंद बनती चली जाए। असफलता का मतलब है जिंदगी दुख बनती चली जाए। तब यह भी हो सकता है कि जिसको लोग सफल कहते हैं, वह सफल न हो; और यह भी हो सकता है कि जिसको लोग असफल कहते हैं, वह सफल हो।
एक आदमी राष्ट्रपति हो जाए, और लोग कहेंगे कि सफल हो गई इसकी जिंदगी। और हो सकता है जिंदगी दुख हो गई हो, आनंद से क्षीण हो गई हो। तो लोग कहेंगे सफल हो गई; मैं नहीं कहूंगा सफल हो गई। इसलिए कई बार मुझे लगता है कि सफलता की जगह हमें एक नया शब्द गढ़ लेना चाहिए: सुफलता। सफल होना काफी नहीं है। यानी जिंदगी में फल लग गए, यह काफी नहीं है, क्योंकि फल कड़वे भी लग सकते हैं। फल लग जाना ही...सफलता का मतलब होता है: जिंदगी में फल लग गए। सुफलता का मतलब है: जिंदगी में वे फल लग गए जो आनंद देते हैं, जो मीठे हैं, जो अमृत के हैं। इसलिए सफलता शब्द का मूल्य कम कर देना चाहिए, सुफलता शब्द का मूल्य बढ़ाना चाहिए। आदमी को सुफल होना चाहिए। भला एक फल लगे, न लगें हजार फल। भला ऐसा फल लगे कि किसी को दिखाई न पड़े, खुद को ही दिखाई पड़े।
लेकिन अभी क्या हुआ है, दुनिया सफलता को बहुत मूल्य देती है। बस एक आदमी--सफलता का मतलब--बड़ा मकान बना ले, बड़े पद पर पहुंच जाए, आगे खड़ा हो जाए। और चाहे वहां कुछ भी न मिले।
मैंने एक कहानी सुनी है। एक अस्पताल है। और उस अस्पताल में कोई पचास ऐसे मरीज हैं जिनके बचने की कोई उम्मीद नहीं, वह वार्ड ऐसे मरीजों का है जहां कोई बचता नहीं। जब कोई मरने के करीब आ जाता है तो उस वार्ड में ले आते हैं। दरवाजे के पास नंबर एक का बिस्तर है। और बाकी सब बिस्तर दरवाजे से दूर हैं, किसी को बाहर नहीं दिखाई पड़ता कि क्या है।
तो दरवाजे पर नंबर एक बिस्तर का जो मरीज है, वह कभी-कभी बैठ कर टिक कर बैठ जाता है अपने तकियों से और कहता है कि सुबह निकल आई है, सूरज की किरणें निकल रही हैं, फूल खिल गए हैं, पक्षी गीत गा रहे हैं। सारे पूरे के पूरे पचास जो मरीज हैं वे कुढ़ जाते हैं कि हमारा नंबर एक का बिस्तर क्यों नहीं है! हम यहां कहां पड़े हुए हैं! यह आदमी कब मरेगा! वे सब यह सोचते हैं कि यह मर जाए तो हम इसकी जगह पहुंच जाएं।
फिर उसको जोर का हार्ट अटैक आता है, तो सारे के सारे मरीज यही सोचते हैं कि अब यह मरेगा और हम कोशिश करें तो नंबर एक का बिस्तर हमको मिल सकता है। वे सब डाक्टर की खुशामद और नर्सों की खुशामदें करने लगते हैं और पूछने लगते हैं कि वह मरीज कब मर जाएगा।
लेकिन वह मरीज भी एक ही है। हार्ट अटैक आया और चला गया, वह फिर बच गया। और जैसे ही उसने आंख खोली, उसने कहा, अहा! कैसा चांद निकला हुआ है! रातरानी के फूल खिल गए हैं, सुगंध आती है। सुनते हो! और फिर आग लग गई सबके दिल में कि नंबर एक का मरीज जान लिए ले रहा है।
फिर उसको दूसरा अटैक आता है, तीसरा अटैक आता है। और सारे मरीज सोचते हैं कि कब मरे, कब मरे, कि हम पहुंचें उसकी जगह। वे सब अपंग हैं, कोई उठ नहीं सकता, दरवाजे पर कोई जा नहीं सकता। और वह अकेला, दरवाजे पर है उसकी खाट। और वह दरवाजे के बाहर देख सकता है। सूरज भी देखता है; फूल खिलते हैं, वह भी देखता है; पक्षी गीत गाते हैं, वह भी उसको ही सुनाई पड़ते हैं।
फिर तीसरा अटैक आया और वह आदमी मर गया। फिर बड़ी दौड़ मच गई, सबने खुशामद की, फिर एक आदमी को उसका बिस्तर मिल गया। वह आदमी जाकर वहां बैठा--वहां न फूल थे, न कोई बगिया थी, न वहां चांद दिखाई पड़ता था, न वहां सूरज दिखाई पड़ता था; वहां तो कुछ भी नहीं था। लेकिन उस आदमी ने सोचा कि अगर मैं यह कहूं कि यहां कुछ भी नहीं, तो लोग कहेंगे कि मूरख बन गया मैं, इतनी खुशामद की और नंबर एक किस मुश्किल से आ पाया। वह आदमी भी कहने लगा: अहा, कैसे फूल खिले हैं! कैसा सुंदर बगीचा है! धन्य हो गए मेरे भाग्य!
वह सारा अस्पताल फिर सोचने लगा कि कब मरे यह, तो हम इसकी जगह पहुंच जाएं। और ऐसा ही चलता है उस अस्पताल में! एक मरीज के बाद दूसरा मरीज मरता है, और खुशामद करके आदमी नंबर एक पर पहुंचता है, वहां देखता है कि कुछ भी नहीं! लेकिन जो पहुंच जाता है, बाकी मरीज कहते हैं, सफल हो गया। वह सफल हो गया, हम असफल हो गए।
एक आदमी राष्ट्रपति बन जाता है। वह कहता है, अहा! कैसा आनंद आ रहा है। धेला भर आनंद नहीं किसी राष्ट्रपति को कभी आया है; और आ भी नहीं सकता। लेकिन नंबर एक का मरीज है वह, वह खाट पर बैठा है, वह बड़ी मुश्किल से धक्के दे-दे कर वहां पहुंचा है। अब वह बेवकूफ नहीं बनना चाहता, अब वह यह नहीं कहना चाहता कि यहां कुछ भी नहीं है। नहीं तो जिंदगी भर की दौड़ व्यर्थ हो गई। और वह रस जगा रहा है दूसरों में कि तुम भी इसी तरह कोशिश करो। और ये लोग भी पहुंचेंगे। और ये भी उस जगह जाकर यही कहेंगे, अहा! बहुत आनंद आ रहा है। लेकिन न रात नींद है, न दिन चैन है, न कोई शांति है, न कोई आनंद है। तब बस वह पहले होने का--कि हम आ गए वहां जहां दूसरे नहीं आ पाए। वहां क्या है, यह कोई भी नहीं पूछता, कि वहां मिल क्या गया है जो दूसरों को नहीं मिल पाया?
सफलता का मूल्य नहीं है बड़ा, सफलता बहुत बाहरी चीज है, एकदम व्यर्थ। सुफल होने की फिकर करनी चाहिए। और सुफलता बहुत भीतरी बात है और सफलता बहुत बाहरी बात है। जीवन सुफल हो जाता है जो निरंतर आनंद और शांति की तरफ...एक ही सूत्र समझ लें कि जीवन में जितना आनंद बढ़ता जाए, उतने हम सुफल हो रहे हैं; और जीवन में जितना दुख बढ़ता जाए, उतने हम असुफल हो रहे हैं। जिनको हम सफल लोग कहते हैं, वे इस अर्थ में असफल सिद्ध होंगे; और कई बार जिनको हम असफल कहते हैं, वे सफल सिद्ध होंगे।
सिकंदर हिंदुस्तान आया। तो रास्ते में एक फकीर से वह मिलने गया था। वह फकीर एक बहुत अदभुत आदमी था, डायोजनीज। सिकंदर को उसके मित्रों ने खबर दी कि डायोजनीज का निवास पास में ही है। सिकंदर ने कहा, फिर उसे देखना पड़ेगा, मैंने उसकी बड़ी खबरें सुनी हैं। मैंने सुना है कि बड़ा अदभुत आदमी है। और कई बार तो मैंने ऐसा भी सोचा कि भगवान दुबारा अगर मुझे पैदा करे, तो अब की बार डायोजनीज बना देना। उसकी ऐसी खबरें थीं, ऐसा आदमी था। एक पात्र भी हाथ में नहीं रखता था। आखिरी में एक पात्र बचा था, एक दिन उसने एक जानवर को नदी में से पानी पीते देखा, उसने पात्र भी फेंक दिया। और उसने कहा कि क्या मैं जानवर से भी कमजोर हूं कि पात्र ढोता फिरूं! वह पात्र भी फेंक दिया, कि अब मैं पूरा स्वतंत्र हो गया।
उसकी बड़ी कथाएं थीं। तो सिकंदर उससे मिलने गया। जब मिलने गया तो सुबह का वक्त था, ठंड के दिन थे, वह धूप ले रहा था बाहर नंगा लेटा हुआ। झोपड़ा-वोपड़ा नहीं था, सिर्फ एक गोल पोंगरा था, कचरा जिसमें रखा जाता है। कचरा फेंकने का पोंगरा था, वह उठा लाया था। उस पोंगरे को धक्के देकर एक गांव से दूसरे गांव में उसके मित्र पहुंचा देते थे। वह उसी में सो जाता था। उसी में गांव के कुत्ते भी सोते थे, उसमें जिसको सोना हो वह सो सकता था। उसी में वह बैठ कर खाना खा लेता था। उसके हाथ में, खाने में से कुत्ते भी खाना खा लेते थे, ऐसा वह आदमी था।
वह नंगा लेटा हुआ था बाहर। सिकंदर उसके पास गया और कहा कि मैं बहुत खुश हूं डायोजनीज, तुम्हारी बड़ी कथाएं मैंने सुनी हैं। मुझे पता नहीं, मैं तो सोचता हूं, जब तक दुनिया न जीत लूंगा तब तक बादशाह नहीं हो सकता। लेकिन मैंने सुना है, तुम्हारे पास कुछ भी नहीं और तुम बादशाह हो! मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं? उसने कहा, थोड़ा हट कर खड़े हो जाओ। धूप आती थी, वह तुम छीन रहे हो मुझसे। इतना ही तुम कर दो, काफी है। इतना तुम कर दो तो तुम्हारी बड़ी कृपा है, जरा हट कर खड़े हो जाओ। वह लेटा ही रहा, उठा भी नहीं।
सिकंदर ने कहा, तुम उठोगे नहीं? उसने कहा, किसके लिए उठूं? कोई आए तो उसके लिए उठूं!
सिकंदर ने कहा, अरे पागल! मैं आया हूं, महान सिकंदर। उसने कहा, तुम्हारी मैं गिनती नहीं करता, क्योंकि तुम उस दौड़ में हो जिसके आगे कुछ भी नहीं। तुम्हारी मैं गिनती भी नहीं करता आदमियों में। तुम उस दौड़ में लगे हो जहां पहुंच कर कुछ भी नहीं मिलता। तुम पागल हो! किसलिए दौड़ रहे हो? सिकंदर ने कहा, इसलिए दौड़ रहा हूं कि सारी दुनिया जीत लूं। उसने कहा, फिर क्या करोगे? सिकंदर ने कहा कि फिर आराम करूंगा।
वह खूब खिलखिला कर हंसने लगा। उसने कहा, पागल हो! सारी दुनिया जीत कर आखिर आराम ही करना है न! आ जाओ, हमारे पास जमीन काफी है--यहीं तुम भी लेट जाओ और आराम करो, हम आराम कर रहे हैं।
उसने कहा कि मैं आराम कर ही रहा हूं! इतनी दौड़-धूप के बाद अगर आराम ही करना है, तो तुम बिलकुल पागल हो। यानी इस दौड़ने से आराम का कोई अनिवार्य संबंध नहीं है, क्योंकि मैं कर रहा हूं बिना दौड़े। और जगह काफी है, तुम देखते हो कि मेरे इस पोंगरे में भी जगह काफी है। तुम भी समा जाओगे। आ जाओ!
सिकंदर ने कहा, तुम्हारा निमंत्रण तो स्वीकार करने जैसा है, लेकिन मेरी इतनी हिम्मत नहीं। अब तो मैं निकल पड़ा हूं यात्रा पर, एकदम कैसे बीच से लौट सकता हूं! तो उस डायोजनीज ने कहा, याद रखना! एक दिन बीच से ही लौटना पड़ता है, कभी कोई यात्रा पूरी नहीं होती!
और यही हुआ। सिकंदर आया, हिंदुस्तान से लौटते में मर गया रास्ते में। वापस नहीं लौट पाया अलेक्जेंडेरिया तक। वापस नहीं लौटा, बीच में मर गया। और यह उसने कहा था डायोजनीज ने कि सब यात्राएं बीच में टूट जाती हैं, कहीं कोई यात्रा पूरी नहीं होती।
और तब एक बहुत महीन कहानी चल पड़ी यूनान में। क्योंकि संयोग की बात, उसी दिन डायोजनीज भी मरा, जिस दिन सिकंदर मरा। तो एक कहानी चल पड़ी कि दोनों वैतरणी पार करते वक्त मिल गए। मर चुके हैं, स्वर्ग जाते हैं, वैतरणी पर मिल गए। सिकंदर आगे है, वह घंटे भर पहले मरा था। और उसके पीछे डायोजनीज है वैतरणी पर। और खिलखिला कर हंस रहा है डायोजनीज। और सिकंदर बहुत शर्माने लगा, क्योंकि अब सब कपड़े छिन गए थे। जब गया था उसके पास तो रोब-दाब में था, अब तो नंगा था। और वह अब भी रोब-दाब में था, क्योंकि वह पहले ही नंगा था, उसको कोई कपड़े-वपड़े का सवाल नहीं था। बहुत डरा पीछे कि वह क्या कहेगा! फिर उसने हिम्मत जुटा कर सिकंदर ने कुछ बात करनी चाही, जिसमें कि डरूं न एकदम। तो उसने कहा, अच्छा-अच्छा, डायोजनीज मालूम होते हो।
तो डायोजनीज ने कहा, हां, क्योंकि हमारी कोई ऐसी पहचान नहीं जो कोई छीन सके। तुम तो अब कुछ भी नहीं मालूम होते, क्योंकि तुम्हारी सब पहचानें छिन गईं। कहां गए वे कपड़े? कहां गए वे जिरह-बख्तर? कहां गए वे मुकुट? कहां हैं वे सब चीजें जिन पर तुम इतराते थे? और हमारी तो कोई पहचान ही न थी, सो हम पहचाने ही जाएंगे। हमसे छीनने को मौत के लिए कुछ भी न था। हम वह सब पहले फेंक दिए थे जो मौत छीन सकती थी। हम पहले से खालिस वही थे जो भगवान के सामने खड़े होंगे। अब तुम बड़े बेढंग मालूम पड़ रहे हो और तुमको खुद भी बड़ा नंगा-नंगापन लग रहा होगा। वे सब चीजें कहां हैं?
सिकंदर ने फिर भी हिम्मत जुटाने की बात की और कहा कि ठीक है, बहुत मजा आया मिल कर। और उस बार भी बहुत मजा आया था। दुनिया में यह बात याद रहेगी कि सिकंदर जैसा महान बादशाह डायोजनीज जैसे महान भिखमंगे से मिला था।
वह डायोजनीज हंसने लगा और उसने कहा कि वह तो याद रहेगी। और आज भी देवता देखते होंगे तो सोचते होंगे कि एक सम्राट एक भिखमंगे से मिल रहा है। लेकिन थोड़ी तुम भूल कर रहे हो इस बात को समझने में कि कौन सम्राट है और कौन भिखमंगा है। सम्राट पीछे है, भिखमंगा आगे है--डायोजनीज ने कहा--क्योंकि मेरे पास कुछ भी नहीं था जो कोई छीन सके और मैंने वह आनंद पा लिया जो जीवन है। और तुम वह सब गवां कर लौट रहे हो। क्योंकि तुमने आनंद की दिशा में एक कदम भी नहीं उठाया। और तुमने जिन दिशाओं में कदम उठाए, वे सब छूट गईं, वे सब व्यर्थ हो गईं।
सफलता का मतलब तौलने का ध्यान रहे, तो वह आंतरिक आनंद और सुगंध से तौलना--जिस दिन जीवन में बढ़ता चला जाए, समझना कि वह सफल हो रहा है।
यह जो तुम पूछते हो कि एक सामाजिक कार्यकर्ता कैसे आध्यात्मिक जीवन में जाए?
यह कोई सवाल सामाजिक कार्यकर्ता और न सामाजिक कार्यकर्ता का नहीं है आध्यात्मिक जीवन में जाने का। आध्यात्मिक जीवन में जाने का सवाल सबके लिए समान है, चाहे कोई सामाजिक कार्यकर्ता हो या न हो। हम कहीं जाकर किसी डाक्टर से पूछते हैं कि मैं एक सामाजिक कार्यकर्ता हूं तो मेरी टी.बी. का इलाज क्या है। वह कहेगा, टी.बी. का इलाज होता है, सामाजिक कार्यकर्ता से क्या लेना-देना है! और तुम सामाजिक कार्यकर्ता हो या नहीं हो, इससे इलाज में कोई फर्क नहीं पड़ता।
तो पहली तो बात यह समझ लेना चाहिए कि आध्यात्मिक जीवन का इससे कोई संबंध नहीं है कि आप क्या करते हैं। आप क्या करते हैं--शिक्षक हैं, कि दुकानदार हैं, कि कौन हैं या कौन नहीं हैं--इससे कोई भी संबंध नहीं है कि आप क्या करते हैं। आध्यात्मिक जीवन का संबंध इस बात से है कि आप क्या हैं। क्या करते हैं से नहीं, आपकी डूइंग से नहीं; आपकी बीइंग से। आप क्या करते हैं, यह गौण बात है। असली बात यह है कि आप क्या हैं? वह जो करने के बीच आप हैं, वह क्या है? वही सवाल है।
तो मैंने जैसा कहा कि अगर आप सामाजिक कार्यकर्ता हैं तो ठीक है। लेकिन सामाजिक कार्यकर्ता होने के बीच आप क्या हैं? आनंदित हैं? प्रफुल्लित हैं? शांत हैं? तब तो ठीक। तो आपके आनंदित चित्त से सामाजिक काम भी निकलेगा, वह भी सुखद होगा, वह भी दूसरों के लिए मंगलदायी होगा। और अगर आप दुखी हैं और सामाजिक काम सिर्फ इसलिए चुन लिया है कि उसमें दुख भूला रहता है, तो आपसे जो भी काम निकलेगा वह दूसरों के लिए अहितकर होगा, अमंगलदायी होगा। क्योंकि मेरी समझ यह है कि जो खुद आनंद में नहीं है, वह कुछ भी ऐसा नहीं कर सकता जिससे किसी को आनंद मिल सके। यह असंभव है। क्योंकि हमारे पास जो है वही हम दूसरों को दे सकते हैं।
इस भूल में कभी कोई न पड़े कि मैं दुखी हूं और मैं किसी को आनंदित कर सकूंगा। यह भूल वैसे ही है जैसे बुझा हुआ दीया सोचे कि मैं किसी दूसरे बुझे हुए दीये को जला दूंगा। हम कोशिश कर सकते हैं। बुझा हुआ दीया कोशिश कर सकता है दूसरे दीये को जलाने की। लेकिन डर इस बात का है कि दूसरा जला हुआ दीया भी बुझा दे; उससे जलने का तो सवाल ही नहीं उठता। और सारी दुनिया में कुछ ऐसा हुआ है कि सामाजिक काम करने वाले लोग खुद इतने अशांत और परेशान हैं कि उनके काम का अंतिम जो फल निकलता है, वह फल ऐसा नहीं निकलता कि समाज का हित होता हो, वह फल ऐसा निकलता है कि समाज का और अहित हो जाता है।
कई बार तो ऐसा लगता है कि अगर मनुष्य को उसके सुधार करने वाले, उसको ऊंचा उठाने वाले, उसको अच्छा बनाने वाले, सब उसकी फिकर छोड़ दें तो शायद मनुष्य ज्यादा अच्छा हो जाए। क्योंकि ये सब मिल-जुल कर आदमी की जो हालत कर देते हैं वह बहुत अदभुत हो जाती है। और यह तो भूल ही जाते हैं, यह बात सोचना ही भूल जाते हैं कि जो हमारे पास नहीं था वह हम किसी को देने कैसे निकल पड़े थे? यह असंभव है।
तो मैं कहता हूं कि समाज की सेवा असंभव है, जब तक किसी व्यक्ति ने अपनी सेवा न कर ली हो। यह असंभव है। अपनी सेवा से तो कोई कभी किसी दिन समाज की सेवा तक पहुंच सकता है, लेकिन समाज की सेवा से कोई कभी अपनी सेवा तक नहीं पहुंच सकता। प्राथमिक रूप से व्यक्ति को अपने को गढ़ना चाहिए, निर्मित करना चाहिए, प्राथमिक रूप से अपने को विकसित करना चाहिए। यह बिलकुल गौण बात है, दूसरी जो बात है। और मजे की बात यह है कि अगर कोई व्यक्ति अपने भीतर सचमुच निर्मित हो जाए, तो वह कुछ करे या न करे, उससे समाज-सेवा होती है। उसे पता भी नहीं चलता फिर। फिर समाज-सेवा उसका प्रोफेशन नहीं होता, धंधा नहीं होता। एक पहचान है। समाज-सेवा कभी भी धंधा नहीं बन सकता। लेकिन वह धंधा बन गया है। समाज-सेवा भी एक धंधा है।
उसके लिए समाज-सेवा उसका सहज जीवन होता है। उठता है, चलता है, फिरता है, तो जो भी वह करता है, श्वास भी लेता है, तो उससे किसी न किसी की सेवा अनिवार्यरूपेण होती रहती है। लेकिन अगर खुद ऐसा व्यक्तित्व न हो, तो हम जो भी समाज-सेवा करेंगे, उसके पीछे कारण कुछ और होंगे और हम बताएंगे कुछ, जानेंगे कुछ और।
एक समाज-सेवक कहेगा कि मैं तो बिलकुल विनम्र हूं। लेकिन अगर वह अपनी खोज-बीन करेगा तो पता चलेगा कि समाज-सेवा भी अहंकार के पोषण का उपाय हो गया है। वह उसके माध्यम से भी मैं को मजबूत कर रहा है--कि मैं कुछ हूं! मैं समाज-सेवक हूं! उसके पूरे व्यक्तित्व में झलक उसी अहंकार की पकड़ती चली जाएगी। और समाज-सेवा के मार्ग से चलते-चलते कब वह समाज का मालिक हो जाएगा, कहना बहुत मुश्किल है। और दुनिया में सब समाज-सेवक बहुत जल्दी प्रतीक्षा में होते हैं कि कब समाज के मालिक बन जाएं। समाज-सेवक की अंतिम आकांक्षा ऐसी लगती है कि समाज कब उसकी सेवा करे। वह घूम-फिर कर वहां पहुंच जाता है।
और हम देख चुके हैं, अपने मुल्क में तो हम देख ही चुके हैं। बीस साल पहले मुल्क आजाद हुआ, तो जिनको भी हमने हुकूमत में भेजा था वे सभी समाज-सेवक थे। फिर वे सभी समाज-शोषक सिद्ध हो गए। यह कैसे हो गया चमत्कार? यह क्या हुआ? जो सेवा करते थे, वे एकदम सत्ता में पहुंच कर मालिक कैसे हो गए? कहीं उनके भीतर बीज छिपा रहा होगा इस मालकियत को पाने का, मौका मिला और वह बीज पल्लवित हो गया।
आज दूसरे लोग समाज-सेवा कर रहे हैं। कल उनको भी आप सत्ता में पहुंचाइएगा, और आप पाएंगे कि वे मालिक हो गए। तो समाज-सेवा समाज के ऊपर मालिक बनने की सीढ़ी मालूम पड़ती है। ऐसी समाज-सेवा से कोई भी हित नहीं हो सकता सिवाय अहित के।
लेकिन हां, ऐसे लोग हो सकते हैं जो इतने जीवन में रस-विमुग्ध हो गए हैं, जो अपने जीवन में ऐसी जगह पहुंच गए हैं जहां से उनका दीया जल गया, तो उनके प्रकाश की किरणें बहुत लोगों पर पड़ेंगी, जाने-अनजाने। यह सवाल नहीं है कि वे जान कर सेवा करने जाएंगे। जान कर सेवा करना तो कई बार बहुत खतरनाक हो सकता है।
एक घटना मुझे कहने का शौक रहा है।
एक चर्च में एक पादरी बच्चों को समझाता है कि कुछ सेवा का कार्य करना चाहिए। कुछ न कुछ भगवान की दिशा में सेवा का काम करना ही चाहिए। हर दिन कम से कम एक सेवा का छोटा-मोटा कृत्य करना चाहिए। इसको तुम जीवन का नियम बना लो! और मैं तुमसे सात दिन बाद आकर पूछूंगा कि तुमने कितनी समाज-सेवा की। बच्चे पूछते हैं, क्या? समाज-सेवा से क्या मतलब? तो वह कहता है, किसी के घर में आग लगी हो तो बचाना चाहिए, कोई नदी में डूबता हो तो बचाना चाहिए, कोई गिर पड़े तो उठाना चाहिए, कोई बूढ़े-बूढ़ी को रास्ता पार करना हो तो रास्ता पार करा देना चाहिए। जो भी तुम्हें दिखाई पड़े कि कहीं सहायता पहुंचानी जरूरी है, तो निःस्वार्थ भाव से सहायता पहुंचानी चाहिए। इसके सिवाय कोई भी आदमी कभी भगवान का प्यारा नहीं हो सकता है। सेवा ही धर्म है।
सात दिन बाद वह लौटता है और बच्चों से पूछता है, तुमने कोई सेवा का कार्य किया? तो तीन बच्चे हाथ हिलाते हैं कि उन्होंने किया। वह बहुत खुश होता है कि तीस में से तीन ने किया, फिर भी किया। आज तीन करते हैं, कल तीस करेंगे। वह एक बच्चे से पूछता है, तुमने क्या सेवा का कार्य किया? उसने कहा, मैंने एक बूढ़ी औरत को रास्ता पार करवाया। वह कहता है, बहुत अच्छा किया। बूढ़ों पर दया करनी चाहिए, वे निर्बल हो गए हैं; उन्होंने बहुत काम किया, अब हमें उनकी सेवा करनी चाहिए।
दूसरे बच्चे से पूछता है। वह कहता है, मैंने भी एक बूढ़ी औरत को रास्ता पार करवाया।
उस पादरी को थोड़ा खयाल होता है कि इसने भी वही किया? फिर भी बहुत बुढ़ियां हैं, मिल गई होंगी। उसने तीसरे से पूछा। उसने कहा, मैंने भी एक बूढ़ी को रास्ता पार करवाया। तो उसने कहा, हद हो गई! तुम तीनों को तीन बुढ़ियां मिल गईं! उन्होंने कहा, तीन कहां थीं, एक ही बूढ़ी थी, हम तीनों ने उसको रास्ता पार करवाया। तो उसने कहा, क्या बूढ़ी इतनी दुर्बल थी कि तुम तीन की जरूरत पड़ी? उन्होंने कहा, दुर्बल नहीं, बामुश्किल हम उसको पार करवा पाए। वह पार करना ही नहीं चाहती थी। वह बूढ़ी इतनी ताकतवर थी कि हम तीन भी बामुश्किल पार करवा पाए उसको। लेकिन आपने कहा था कि कोई सेवा का कार्य करना चाहिए, तो हमने किया।
अब अच्छा ही हुआ कि उन्होंने किसी के मकान में आग लगा कर बचाने की कोशिश नहीं की। अच्छा हुआ कि किसी को नदी में धक्का देकर न बचाने की कोशिश की। लेकिन जिनको सेवा प्रोफेशन है, वे इसी तलाश में सुबह से निकलते हैं कि कहीं सेवा का कोई कार्य मिल जाए।
सेवा का ऐसा भाव हितकर नहीं है। सेवा धर्म नहीं है; धर्म जरूर सेवा है। इन दोनों बातों के फर्क को थोड़ा समझ लेना चाहिए। सेवा धर्म नहीं है; सेवा करने से कोई धर्म नहीं होता, अधर्म भी हो सकता है। लेकिन धार्मिक व्यक्ति जो भी करता है वह सेवा है। इसलिए धार्मिक होना प्राथमिक चीज है, सेवक होना गौण और द्वितीय चीज है।
लेकिन जैसे विनोबा कहते हैं, विनोबा कहते हैं कि सेवा ही धर्म है! उसको मैं नहीं मानता। मैं कहता हूं, वे गलत कहते हैं। मैं कहता हूं, धर्म ही सेवा है। जब भी कोई व्यक्ति धार्मिक हो जाएगा तो उसके जीवन से सेवा होगी। लेकिन इससे उलटा सच नहीं है कि कोई भी सेवा करेगा तो धर्म होगा।
ईसाई सेवा कर रहे हैं, लेकिन वह धर्म नहीं है। सारी दुनिया में सेवा करते हैं, लेकिन वह धर्म नहीं है। उसके पीछे भी स्वार्थ है। उनकी देखा-देखी आर्यसमाजी भी सेवा करते हैं, हिंदू पंथ भी सेवा करता है, मुसलमान भी कोशिश करते हैं।
वह कोई सेवा-वेवा नहीं है। वह सब पालिटिक्स है, वह सब राजनीति है।
धार्मिक होना महत्वपूर्ण बात है, सब बाकी गौण है। और यह मेरा मानना है कि धार्मिक व्यक्ति निष्क्रिय नहीं बैठ सकता है। जीएगा, और जीवन से सेवा होगी। लेकिन जो धार्मिक व्यक्ति निष्क्रिय बैठ जाते हैं, वे धार्मिक भी नहीं हैं। क्योंकि धार्मिक होने का अर्थ क्या है? धार्मिक होने का अर्थ यह है कि अब मेरे लिए अपने लिए जीने का कोई प्रयोजन नहीं रहा। मेरे लिए जीना तो हो गई पूर्ति, जीना मिल गया मुझे, मैंने तो जीवन पा लिया। अब इस जीवन का दूसरों के लिए क्या हो सकता है? अब यह फूल जो खिल गया तो पौधे का काम तो पूरा हो गया कि उसका फूल खिल गया, वह तो आनंदित हो गया फूल के खिलने से। लेकिन अब इस फूल की सुगंध हवाओं में उड़ेगी, राह से चलते हुए लोगों को मिलेगी।
लेकिन फूल कुछ इसके लिए नहीं खिला है कि राह चलते लोगों को सुगंध मिले। फूल खिला है अपने आनंद के लिए, सुगंध मिलती है सहज। कोई राह से नहीं निकलेगा तो फूल रोएगा नहीं, चिल्लाएगा नहीं कि आज राह से कोई भी नहीं निकला, बेकार हो गए हम। आज कोई फोटोग्राफर नहीं आया, आज कोई अखबार वाला नहीं आया, व्यर्थ हो गई जिंदगी। अब हम क्या करें? कब तक सेवा करते रहें? कोई सुनता नहीं, कोई खबर नहीं लेता।
नहीं, फूल खुश रहेगा। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, उसे पता ही नहीं कि कोई निकला राह से कि नहीं निकला। खाली राह पर भी उसकी किरणें, उसकी सुगंध, उसके रंग बिखरते रहेंगे--खाली राह पर भी--उसी शांति से, उसी आनंद से। कोई निकल जाएगा तो प्रसन्न हो जाएगा, सुगंध मिल जाएगी। नहीं निकलेगा, बात समाप्त हो गई। फूल अपने लिए खिला है, किसी और के लिए नहीं। फूल के खिलने में किसी की प्रतीक्षा नहीं, अपना आनंद है।
तो धार्मिक व्यक्ति उसे मैं कहता हूं, जो किसी के लिए कुछ नहीं कर रहा है, जो अपने आनंद में जी रहा है। उसके आनंद में जीने से सहज किसी के लिए कुछ हो जाता है, वह बात बिलकुल दूसरी है। न वह उसका गौरव लेता, न वह प्रतीक्षा करता कि कोई धन्यवाद दे, न वह किसी से कहने जाता कि मैं सेवक हूं। ये सारी बातों का उसे पता ही नहीं चलता।
एक संत के बाबत मैंने सुनी है एक कहानी। यूरोप में एक फकीर हुआ, उसके बाबत बहुत सी कहानियां हैं, अगस्तीन के बाबत। उसके संबंध में एक कहानी है कि उसने इतनी प्रार्थना की, इतना प्रेम किया, इतनी साधना की कि कथा कहती है कि देवताओं ने उससे पूछा कि तुम कोई वरदान मांग लो! तो उसने कहा, पागलो, वरदान के लिए तो मैंने कुछ भी किया नहीं। पर वे नहीं माने, उन्होंने कहा, कुछ मांग ही लो, क्योंकि भगवान चाहता है कि तुम्हें कुछ मिले।
जब वह किसी तरह राजी नहीं हुआ, तो उन्होंने कहा, कुछ ऐसा मांग लो जिससे दूसरों को फायदा हो। उसने कहा, वह भी नहीं मांगूंगा, क्योंकि मेरे द्वारा दूसरों का फायदा हो रहा है, यह खयाल भी अहंकार ला सकता है। वह मैं नहीं मांगता। लेकिन देवता पीछे पड़ गए तो उसने कहा, फिर कुछ ऐसा करो कि मेरे द्वारा फायदा भी हो तो भी मुझे पता न चले कि मेरे द्वारा हुआ है। तो उन्होंने कहा, क्या करें? तो उसने कहा, ऐसा कर दो कि मैं जहां से निकलूं, मेरी छाया जो पीछे पड़ती है, उससे किसी का कुछ लाभ हो सके तो हो जाए। अगर मेरी छाया किसी बीमार पर पड़े तो वह स्वस्थ हो जाए; अगर किसी कुम्हलाए हुए पौधे पर पड़े तो वह हरा हो जाए; लेकिन मुझे पता न चले कि मेरे द्वारा हुआ। क्योंकि मेरे द्वारा मैं कुछ भी नहीं चाहता, मैं सब परमात्मा के द्वारा चाहता हूं।
तो कहानी है कि अगस्तीन की छाया को वरदान मिल गया। अगस्तीन की छाया जिस जगह पड़ जाती, वहां फूल खिल जाते। अगस्तीन की छाया बीमार पर पड़ जाती, वह स्वस्थ हो जाता। अगस्तीन की छाया अंधे पर पड़ जाती, उसकी आंख आ जाती। लेकिन अगस्तीन को कभी पता नहीं चला। क्योंकि वह तो आगे बढ़ता जाता, छाया पीछे से पड़ती। और किसी को खयाल में भी न आता कि इसकी छाया से यह हुआ होगा।
यह तो कहानी है, लेकिन अगस्तीन ने बात ठीक मांगी कि कुछ ऐसा करो कि मुझे यह भी पता न चले कि मेरे द्वारा हो रहा है। और धार्मिक व्यक्ति से जो भी होता है, उसे पता नहीं चलता कि उसके द्वारा हो रहा है। धार्मिक व्यक्ति तो वह व्यक्ति है जो मिट गया। अब जो भी हो रहा है, परमात्मा के द्वारा हो रहा है। न वह सेवक है, न वह साधु है, वह कोई भी नहीं है, अब वह है ही नहीं। वह सिर्फ एक द्वार है, जिस द्वार से जीवन की रश्मियां बाहर आती हैं और लोगों तक फैल जाती हैं।
तो वैसा द्वार बनो, समाज-वमाज सेवा की फिकर छोड़ो। ऐसा धार्मिक द्वार बनना चाहिए। उससे सेवा अपने आप होती है।

और एक मित्र ने पूछा है कि साधना पथ में मैंने केंद्र और परिधि की बात की है।

तो अगर गौर से समझेंगे तो ये जो बातें मैंने कहीं, खयाल में आ जाएंगी।
केंद्र आप हैं सारे जगत का। आपके लिए आप ही केंद्र हैं, मेरे लिए मैं ही केंद्र हूं। तो अगर मैं स्वयं को छोड़ कर और कुछ भी करता रहूं, तो वह परिधि पर काम हो रहा है। उससे कभी भी जीवन के केंद्र पर मैं नहीं पहुंचता हूं, क्योंकि केंद्र मैं हूं। यह बड़े मजे की बात है--हम प्रत्येक केंद्र हैं जीवन का। मुझे छोड़ कर मेरे लिए सब परिधि है।
तो सबसे पहला काम साधक का यह है कि यह मैं क्या हूं, इस पर वह श्रम करे, इसे जाने, यही केंद्र है। और जिस दिन इसे जान लेगा कि मैं कौन हूं? मैं क्या हूं? यह मेरे भीतर छिपा हुआ क्या है? जिस दिन इसे जान लेगा, उस दिन उसे जीवन का केंद्र मिल जाएगा। और जिस दिन यह केंद्र मिल जाता है, उस दिन सब परिधि मिट जाती है, सब केंद्र मिट जाते हैं, मैं ही मैं रह जाता है। फिर सबके भीतर यही केंद्र दिखाई पड़ने लगता है।
केंद्र से मतलब है: "मैं', वह जो "आई', वह केंद्र है हमारे समस्त व्यक्तित्व का, समस्त संसार का। प्रत्येक व्यक्ति के लिए अपना मैं। तो अपने मैं की खोल को तोड़ कर भीतर जाना जरूरी है कि वहां क्या है! और वहीं मैंने कहा कि वहीं जीवन है, वहीं परमात्मा है--हम जो भी नाम दें--वहीं मोक्ष है। वह मैं की खोल तोड़ कर हमें भीतर घुसना जरूरी है।
लेकिन मैं की खोल ही बाधा बनती है। वह भीतर नहीं जाने देती। जैसे बीज है, ऊपर एक खोल चढ़ी हुई है। वह खोल बीज नहीं है, बीज भीतर है। खोल उसके चारों तरफ से उसको घेरे हुए है। हम बीज को जमीन में डालते हैं। अगर खोल टूटने से इनकार कर दे, तो बीज मर जाएगा। खोल टूट जाती है, मिट्टी हो जाती है, बीज बाहर निकल आता है। हमारा मैं जो है, वही केंद्र है खोल, जिसके भीतर वास्तविक केंद्र छिपा हुआ है, बीज छिपा हुआ है जीवन का। यह मैं की खोल मजबूत रहे, तो वह कभी नहीं टूटता।
और हम जीवन भर मैं की खोल ही मजबूत करते हैं। मैं यह हूं, मैं वह हूं, मैं यह हूं--उसी की सारे जीवन चेष्टा करते हैं। और जो आदमी सफल हो जाता है इस मैं की खोल को मजबूत करने में, उसको हम कहते हैं--यह सफल हो गया।
वह मर गया! उसके भीतर से अब वह अंकुर कभी नहीं फूटेगा जो जीवन का अंकुर है। उसकी खोल बहुत मजबूत हो गई, लोहे की हो गई, अब नहीं टूटेगी।
धार्मिक आदमी की चेष्टा होनी चाहिए कि निरंतर इस मैं की खोल को गलाए, तोड़े, मिटाए, जाने दे। और एक ऐसा वक्त आने दे जब मैं गिर जाए। और फिर भीतर से क्या है वह निकले। उसका नाम...वह है वास्तविक केंद्र। और उस केंद्र के अनुभव के बाद फिर जगत में कोई परिधि नहीं रह जाती। फिर कुछ बाहर नहीं है, कुछ भीतर नहीं है। फिर या तो हम ही हम हैं या तुम ही तुम है। फिर कोई यह शब्दों का झगड़ा नहीं है कि मैं या तुम, यह या वह, वह सब खत्म हो गया; फिर एक ही रह जाता है। उस एक का नाम ही, कहें परमात्मा, सत्य, जो भी देना चाहें।
तो इस मैं की खोल का सजग निरीक्षण चाहिए निरंतर--कि मैं मजबूत तो नहीं कर रहा हूं इसको? क्योंकि अगर हम मजबूत कर रहे हैं तो यह कभी नहीं टूटेगी। और हम इसको पूरे वक्त मजबूत कर रहे हैं। अगर रास्ते पर एक आदमी धक्का भी लगा दे, तो हम अकड़ कर उससे कहते हैं--जानते नहीं मैं कौन हूं? हम उसे मजबूत कर रहे हैं पूरे वक्त। बड़ा मकान बना रहे हैं, सिर्फ इसलिए कि छोटे मकान वालों से हम कह सकें कि मैं! बड़े पद की खोज कर रहे हैं, सिर्फ इसलिए कि नीचे वाले लोगों की तरफ हम गौर से देख सकें और कह सकें मैं! जानते हो मैं कौन हूं?
एक संन्यासी के बाबत कथा है कि वह तीस वर्ष तक हिमालय पर जाकर रहा। और तीस वर्ष उसने क्रोध पर, काम पर, लोभ पर विजय पाने की कोशिश की।
अब हिमालय पर जाकर क्रोध पर, काम पर, लोभ पर विजय पाना कठिन नहीं है। क्योंकि क्रोध करवाने के लिए भी कोई और भी चाहिए। क्योंकि अकेला मैं किससे लड़े? कोई दूसरा मैं मौजूद हो तो टक्कर हो सकती है। अकेला ही था, तो टक्कर नहीं हुई तीस साल तक। टक्कर नहीं हुई तो उसने समझा कि मैं खत्म हो गया। अब मेरे पास अहंकार भी नहीं है, क्रोध भी नहीं आता मुझे; घृणा भी नहीं होती; शत्रुता भी नहीं होती, जीत लिया मैंने। और हिमालय की शांति और सन्नाटा, तो शांति और सन्नाटे में उसको लगने लगा कि मैं शांत हो गया।
फिर धीरे-धीरे नीचे खबर पहुंची, पहाड़ पर लोग चढ़ कर उसकी पूजा को और उसकी अर्चना को आने लगे। फिर मेला भरा था नीचे। तो मित्रों ने कहा नीचे से कि आप चलें! हम सब तो पहाड़ पर नहीं आ सकते, सब दर्शन करना चाहते हैं, बूढ़े भी, स्त्रियां भी, बच्चे भी, आप मेले में चलें।
उसने कहा, ठीक है, अब क्या डर है। वह मेले में आया। जब वह मेले में गया तो तीस साल बाद पहली दफा भीड़ में उतरा। जैसे ही मेले के भीतर गया--वहां अनेक लोग उसको पहचानते भी नहीं थे, भारी भीड़-भाड़ थी--एक आदमी का जूता उसके पैर पर पड़ गया। उसने उसकी गर्दन पकड़ ली और कहा, जानता नहीं कि मैं कौन हूं?
तब उसे खयाल आया कि अरे, वे तीस साल बेकार हो गए! वह तीस साल पहले उसको ऐसे खयाल उठते थे। वह हैरान हो गया कि अब वे फिर एकदम से उठ आए जैसे ही जूता पड़ा पैर पर उसके! और उसने कहा, जानता नहीं मैं कौन हूं? तब उसे खयाल आया कि बेकार हो गए वे तीस वर्ष। उसने अपनी डायरी में लिखा है कि तीस साल हिमालय के पास रहने से जो नहीं दिखाई पड़ा, वह एक आदमी के संपर्क में आने से दिखाई पड़ गया। वह ह्यूमन कांटैक्ट--कि पता चल गया कि वह छिपा था भीतर।
तो हमें चौबीस घंटे स्मरण रखने की जरूरत है, मानवीय संपर्क में, उठते-बैठते, कि वह हमारा मैं तो मजबूत नहीं हो रहा! अगर इतना ही कोई कर ले, इतना ही होश रख ले कि मैं मजबूत तो नहीं हो रहा! तो मैं क्षीण होता चला जाएगा। क्योंकि हम मजबूत करते हैं तब होता है, अन्यथा होने का उपाय नहीं है उसका कोई।
और जितने हम जागने लगेंगे...क्योंकि मैं इतना सूक्ष्म है कि पता ही नहीं चलता, पता ही नहीं चलता कि वह कहां-कहां से हमको पकड़ लेता है। हमारे आंख के इशारे में हो सकता है, पैर के चलने में हो सकता है। हमारे बैठने में, उठने में हो सकता है। उसका बहुत सजग और सूक्ष्म विश्लेषण और बोध चाहिए मैं का। अगर इसका बोध बना रहे, तो हम केंद्र पर काम कर रहे हैं। और जैसे-जैसे बोध बढ़ेगा, मैं गिरेगा। यानी यह एक साथ होगा। जैसे-जैसे दीया बढ़ेगा, अंधकार कम होगा। ऐसे-ऐसे जैसे-जैसे बोध बढ़ेगा, होश बढ़ेगा, वैसे-वैसे मैं कम होगा। और जिस दिन बोध की ज्योति पूरी हो जाती है, मैं विलीन हो जाता है। हम केंद्र पर पहुंच गए, खोल मिट गई और वह आ गया जो खोल के भीतर था।
मैं और ईगो जो है, वह खोल है जीवन की। और वह टूट जाए तो ही जीवन उपलब्ध होता है। और उसको कहेंगे सफलता और वहां से सुगंध आनी शुरू होती है।

बस। फिर सांझ को बैठ कर बात करेंगे।


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