तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(सरहा के गीत)-भाग-पहला
चौथा-प्रवचन-(प्रेम
एक मृत्यु है)
(दिनांक
24 अप्रैल 1977 ओशो आश्रम पूना।)
पहला
प्रश्न: ओशो,
आप में वह सब-कुछ हैं जो मैंने चाहा था,
या जो मैंने कभी चाही या मैं कभी चाह सकती थी। फिर मुझ में आपके प्रति
इतना प्रतिरोध क्यों है?
शायद
इसी कारण--यदि तुममें मेरे प्रति गहन प्रेम है तो गहन प्रतिरोध भी होगा। वे एक-दूसरे
को संतुलित करते हैं। जहां कहीं पर प्रेम है, वहां प्रतिरोध तो होगा ही। जहां कहीं
भी तुम बहुत अधिक आकर्षित होते हो, तुम उस स्थान से, उस जगह से भाग जाना भी चाहोगे--क्योंकि अत्यधिक आकर्षित होने का अर्थ है कि
तुम अतल गहराई में गिरोगे, जो तुम स्वयं हो वह फिर न रह सकोगे।
प्रेम
खतरनाक है। प्रेम एक मृत्यु है। यह स्वयं मृत्यु से भी बड़ा घातक है, क्योंकि मृत्यु
के बाद तो तुम बचते हो लेकिन प्रेम के बाद तुम नहीं बचते। हां, कोई होता है परंतु वह दूसरा ही होता है, आपमें कुछ नया
पैदा होता है। परंतु तुम तो चले गए इसलिए भय है।
जो
मेरे प्रेम में नही है,
वे बहुत समीप आ सकते हैं और फिर भी वहां भय न होगा। जो मेरे प्रेम में
है, वे हर कदम उठाने में भयभीत होंगे, झिझकते
हुए वे ये कदम उठाएंगे। उनके लिए यह बहुत कठिन होगा--क्योंकि जितने वे मेरे समीप आते
जाएंगे, उनका अहंकार उतना ही कम होता जाएगा। यही मेरा मृत्यु
से तात्पर्य है। जिस क्षण वे सच में मेरे समीप आ गए होते है, वे नहीं रहते, ठीक वैसे ही जैसे कि मैं नहीं रहा।
मेरे
समीप आना एक शून्य की अवस्था के समीप आना है। अतः साधारण प्रेम तक में प्रतिरोध होता
है--यह प्रेम तो आसाधारण है, यह प्रेम तो अद्वितीय है।
यह
प्रश्न आनंद अनुपम का है। मैं देखता रहा हूं। वह लगातर प्रतिरोध कर रही है। यह प्रश्न
बौद्धिक मात्र नहीं है,
यह अस्तित्वगत है। वह बड़ी लड़ाई लड़ रही है...सब बेकार है, वह तुम जीत तो सकती ही नहीं। तुम भाग्य शाली हो कि तुम नहीं जीत सकती। तुम्हारी
हार निश्चित है, इसे एकदम सुनिश्ति ही समझो। मेने उस प्रेम को
उसकी आंखों में देखा है, वह इतना शक्तिशाली है कि वह समस्त प्रतिरोध
को समाप्त कर देगा, वह अहंकार के बचे रहने में सारे प्रयत्नों
के ऊपर विजय पा लेगा।
जब
प्रेम शक्तिशाली होता है,
अहंकार चेष्टा कर सकता है। पर अहंकार के लिए यह एक पहले से ही हारता
हुआ युद्ध होता है। यही कारण है कि इतने सारे लोग बिना प्रेम के जीते हैं। वे प्रेम
की बातचीत तो करते है, परंतु प्रेम को जीते नहीं। वे प्रेम की
कल्पना तो बहुत सुंदर करते है, पर उसे यथार्थ कभी नहीं करते--क्योंकि
प्रेम को यथार्थ करने का अर्थ है कि तुम्हें अपने को पूरी तरह से नष्ट करना होगा।
जब
तुम गुरु के पास आते हो,
तब या तो पूर्ण विनाश होता है, या कुछ भी नहीं
होता। या तो तुम्हें मुझ में विलीन होना होगा और मुझे तुममें विलीन होने देना होगा
या तुम यहां हो सकते हो और कुछ भी न होगा। यदि अहंकार बना रहता है तो यह मेरे और तुम्हारे
बीच में एक चीन की दीवार बन जाती है। और चीन की दीवाल को तो आसानी से तोड़ा भी नहीं
जा सकता, परंतु अहंकार तो एक और भी अधिक सूक्ष्म ऊर्जा है।
लेकिन
एक बार प्रेम जन्म जाए,
तब अहंकार नपुसंक हो जाता है। और मैंने यह प्रेम अनुपम की आंखों में
देखा है। ये ‘वहां’ है! एक बड़ा सघर्ष होने
जा रहा है, पर अच्छा है! क्योंकि जो बहुत सरलता से आ जाते हैं,
वे आते ही नहीं। जो बड़ा समय लेते है, जो इंच-इंच
लड़ते है, सतत संघर्ष करते है केवल वे ही आते है।
मगर
चिंता की कोई बात नहीं है। यह यात्रा बहुत बहुत लम्बी होने जा रही है। अनुपम को आने
में समय लगेगा,
शायद कई वर्ष, परंतु चिंता की कोई बात नहीं है।
वह सही रास्ते पर है। परंतु उस बिंदु को जहां से वापस हुआ जा सकता है, उसे वह पार कर चूकि है। उस विराम बिंदु के पार जा चूकि है। अतः यह केवल समय
का प्रश्न है। वह मुझे मंजूर है। क्योंकि मैं कभी किसी के साथ जबरदस्ती नहीं करता--क्योंकि
उसकी कोई जरुरत ही नहीं होती। और उन्हें पर्याप्त समय और ढील देना अच्छा भी है। ताकि
वे अपने से ही आ सकें। जब समर्पण स्वतंत्रता से आता है, इसमें
एक सौंदर्य होता है।
पर
तुम भरोसा कर सकती हो कि यह आ रहा है, यह मार्ग में ही है। तुम्हारे अस्तित्व
के गहनतम केंद्र में तो यह घट ही चुका है, अब बस समय का ही प्रशन
है, ताकि गहनतम केंद्र तुम्हारे ऊपरी मन को सूचित कर सके। अपने
हृदय से तो तुम मेरे पास आ ही गई हो। केवल मन का संघर्ष तुम्हें धेरे हुआ है। केंद्र
पर तो तुम मेरे समीप आ ही गई, केवल परिधि पर लड़ाई चल रही है।
किले का समर्पण तो हो ही गया है।
तुमने
उस जापानी सैनिक के विषय में सुना होगा जो बाद तक भी लड़ता रहा, द्वितीय विश्व
युद्ध समाप्त हो चुका था। कितने साल बीत गए थे, द्वितीय विश्व
युद्ध के बीस वर्ष बाद भी वह अभी लड़े ही जा रहा था--उसे पता ही न था कि जापान ने समर्पण
कर दिया था। वह इंडोनेशिया के घने जंगलों में कहीं था और सोच रहा था कि वह जापान के
सम्राट का सैनिक है, और युद्ध अभी चल रहा है। वह पागल रहा होगा!
वह छिप कर रहता था, और लोगों को मार कर भाग जाता था--अकेला ही।
अभी
जब कुछ वर्ष पहले वह जापान वापस गया, एक हीरो की भांति उसका स्वागत किया
गया। एक तरह से वह हीरो है भी। उसे पता न था--पर वह बड़ा संकल्पवान व्यक्ति रहा होगा।
उसने औरों से सुना था--ऐसा नही कि उसने सुना ही न था। बीस साल तक तुम बिना सुने कैसे
रह सकते हो? कि जापान ने समर्पण कर दिया था, युद्ध समाप्त हो गया था। मगर उसका कहना था, ‘जब तक मेरे
कमांड़र की आज्ञा मुझे नहीं मिलती, मैं समर्पण नही करूंगा।’
अब, कमांडर तो मर चुका था उसकी आज्ञा मिलने का
कोई उपाय भी न था। और वह अपने सारे जीवन लड़ता ही रहने वाला था। उसे पकड़ पाना बहुत कठिन
था, वह बड़ा खतरनाक था पर अंततः वह पकड़ा ही गया।
ठीक
यही बात अनुपम के साथ भी है: प्रमुख कार्यालय ने समर्पण कर दिया है, कमांडर मर
चुका है! बस परिधि पर, इंडोशिया के जंगलों में तुम लड़ रही हो,
अनुपम। पर देर या सवेर, तुम चाहे कितनी ही पागल
क्यों न होओ, समाचार तुम्हें मिल ही जाएगा...।
दूसरा
प्रश्न: ओशो,
मैं सत्य हो जाना चाहूंगा, पर यह क्या है और कैसे
हुआ जाता है। मैं महसूस करता हूं कि मैं एक दुष्चक्र में, एक
कारागृह में हूं। मैं बाहर आना चाहूंगा पर कैसे?
पहली
बात: तुम कारागृह में नहीं हो--कोई भी वहां नहीं है, सच कभी वहां कोई नहीं रहा है।
कारागृह एक मान्यता है। निश्चय ही तुम मूच्छित हो पर तुम कारागृह में नहीं हो। कारागृह
तो एक स्वप्न है, एक दुखस्वप्न है जो तुमने अपनी नींद में देख
लिया है। इसलिए आधारभूत प्रश्न यह नहीं है कि कारागृह से बाहर कैसे आया जाए,
आधारभूत प्रश्न यह है कि नींद से बाहर कैसे आया जाए। और किस तरह से तुम
प्रश्न निर्मित करते हो, इससे बड़ा अंतर पड़ता है। यदि तुम सोचना
शुरू कर दो, ‘कारागृह से बाहर कैसे निकला जाए?’ तब तुम उस कारागृह से जो है ही नहीं--तुम लड़ना प्रारंभ कर दोगे, तब तुम गलत दिशा में चलना प्रारंभ कर दोगे।
यही
तो लोग सदियों से करते आए है। वे सोचते है कि वे कारागृह में हैं, इसलिए वे लगातार
कारागृह से लड़ते ही रहते है। वे इस तंत्र से लड़ते उस तंत्र से लड़ते है, वे दीवारों से लड़ते है! वे खिड़कियों की सलाखों से लड़ते हैं, वे बस किसी तरह से निकल भागना चाहते है। वे उस कारागृह का ताला खोलने की लाख
चेष्टा करते है, परंतु यह संभव ही नहीं है, न तो वहां ताले का अस्तित्व है और न वहां कि कारागृह का। जेलर, रक्षक, दीवारे, सलाखें और ताले
ये सभी कल्पना मात्र हैं।
सच
पूछो तो तुम एक गहरी नींद में हो, एक दुखस्वप्न देख रहे हो। मूल आधारभूत प्रश्न यह
है कि नींद से बाहर कैसे आया जाए।
मैंने
सुना है,
.......
यही
तुम्हारी स्थिति है। तुम ताले में बंद नहीं हो, तुम कारागृह में नहीं हो--तुम बस नशे
में हो। तुम सोचते हो कि तुम कारागृह में हो। यह मात्र एक कल्पना है, एक विचार है। जो रह-रह कर तुम्हारे मन से उठता है, क्योंकि
तुम स्वयं को सब और से बहुत सीमित अनुभव करते हो। उस सीमा के कारण ही तुम्हें कारागृह
का विचार उठता है। जहां कहीं भी तुम जाओ, वही सीमा आ जाती है,
तुम बस उतनी दूर ही जा सकते हो उससे आगे नहीं। सच में तो वहां कोई दीवाल
है ही नहीं, जो तुम्हें रोक रही है। परंतु तुम अनुमान लगा लेते
हो कि चारों और एक दीवार है। शायद अदृश्य, शायद बहुत पारदर्शी
कांच की बनी हुई दीवाल। तुम उसके पार तो देख सकते हो पर जब भी तुम किसी भी दिशा में
आगे बढ़ते हो तो टकरा जाते हो। और एक निश्चित बिंदु से आगे तुम जा ही नहीं पाते हो।
इसी
सब से तुम्हारे मन में कारागृह का विचार उठता है कि तुम एक कारागृह में हो। परंतु यह
सीमा भी नींद के ही कारण है। नींद में तुम्हारा तादात्म्य देह के साथ हो जाता है, अतः देह की
सीमाएं तुम्हारी सीमाएं हो जाती है। और मन की भी अपनी सीमा है, उन सीमाओं को तुम पार ही नहीं कर पाते हो।
परंतु
हो तुम असीम। तुम सीमा-रहित हो। जहां तक तुम्हारे शुद्ध अस्तितव की बात है, कोई सीमाएं
नही हैं--तुम परमात्मा हो। परंतु इस भगवत्ता को जानने के लिए, कारागृह से लड़ई लड़ना बंद कर दो, वरना तुम इसे कभी न जान
पाओगे। अगर तुम जितने अधिक पराजित होगे, उतनी ही अधिक हताशा तुम
होते चले जाओगे। उतना ही ज्यादा तुम्हारा आत्म विश्वास खोता चला जाएगा, उतना ही ज्यादा तुम यह अनुभव करने लगोगे कि इससे बाहर निकल पाना तो असंभव है।
ज्यादा
जागरूक बनने से प्रारंभ करो। थोड़े अधिक सजग, अधिक ध्यानपूर्ण होने से प्रारंभ करो।
बस यही एकमात्र उपाय है, जो तुम्हें और अधिक सजग बनायेगा।
जैसे-जैसे
तुम्हारी जागरूकता बढ़ेगी तुम महसूस करने लगोगे कि वे दीवारें जो बहुत समीप थी, अब उतनी समीप
नहीं रही है, वे लगातार दूर होती जा रही है। तुम्हारा कारागृह
बड़ा, और बड़ा होता जा रहा है। जितनी अधिक तुम्हारी चेतना विस्तृत
होगी, उतना ही तुम देखोगे कि तुम्हारा कारागृह अब छोटा नहीं रहा।
चलने के लिए, जीने के लिए, जानने के लिए,
प्रेम के लिए, अब तुम्हारे पास अधिक विस्तृत चेतना
के लिए स्थान उपलब्ध है। और फिर तुम आधार भूत बात को समझ जाओगे: जितना कम चैतन्य,
दीवारें उतने ही समीप आ जाती है। अचेतन और दीवारे तुम्हें चारों और से
तुम्हें छूने लग जाती हैं। तुम एक छोटी सी कोठरी में होते हो, जरा सा हिलना डुलना भी संभव नहीं होता।
इस
वाक्य को स्मरण रखो: चेतना का विस्तार। उस विस्तार के साथ तुम फैलते हो। एक दिन जब
तुम्हारी चेतना पूर्ण होती है, और भीतर अंधकार की एक छाया भी पीछे नहीं छूटती,
जब तुम्हारे भीतर कुछ भी अचेतन नहीं बचता, सब चेतन
हो गया होता है। जब प्रकाश चमकीला होकर जल रहा होता है। और भीतर तुम जागरूकता से प्रदीप्त
होते हो--तब अचानक देखते हो कि आकाश भी तुम्हारी सीमा बनता, असल
बात तो यह है कि तुम्हारी कोई सीमा है ही नहीं। यही सभी युगों के रहस्यवादियों का कुल
अनुभव है। जब जीसस कहते हैं: ‘मैं और स्वर्ग में मेरे पिता दोनों
एक ही है।’ उस समय उनका कहने का यही अर्थ है। वह कह रहे है,
मेरी कोई सीमाएं नही है। यह उसी बात को कहने का एक ढंग है, एक लाक्षणिक ढंग, एक सांकेतिक ढंग। ‘मैं और स्वर्ग में मेरे पिता दो नहीं बल्कि एक ही है।’ मैं, इस छोटे से शरीर में रहने वाला और सारे अस्तिव में
फैला वह, हम दो नहीं एक ही हैं। मेरा स्त्रोत और मैं एक हैं मैं
उतना ही विशाल हूं जितना कि यह अस्तित्व।
यही
अर्थ तो है जब एक उपनिषद का ऋषि घोषणा करता है: ‘अहं ब्रह्मास्मि’--मैं पूर्ण हूं, मैं ही परमात्मा हूं। यह वचन जागृति की
एक ऐसी अवस्था में उच्चारित होता है जहां कोई मूर्च्छा नहीं होती।
यही
तो अर्थ है जब सूफी,
‘मंसूर’ घोषणा करता है, ‘अनल हक--मैं ही सत्य हूं।’
ये
महान वचन बड़े महत्वपूर्ण हैं। ये बस इतना ही कहते हैं कि तुम उतने ही बड़े हो जितनी
तुम्हारी चेतना--न जरा से अधिक, न जरा से कम: यही कारण है कि नशीली दवाओं में इतना
आकर्षण है, क्योंकि वे रासायनिक ढंग से तुम्हारी चेतना को उससे
कुछ अधिक विशाल बना देती है, जितनी की यह होती है। एल. एस. डी.
या मारिजुआना या मेस्कालिन, ये चेतना का आकस्मिक विस्तार तुम्हें
प्रदान करती है। निश्चय ही यह जबरदस्ती और हिंसा है। इसे नहीं किया जाना चाहिए। और
यह रासायनिक है--तुम्हारी आध्यात्मिकता से इसका कुछ लेना-देना नही है। तुम इसके द्वारा
विकसित नहीं होते, विकास तो स्वैच्छिक प्रयास से ही आता है। विकास
सस्ता नहीं है, कि एल.एस.डी. की छोटी सी मात्रा, एक बहुत छोटी सी मात्रा तुम्हें आध्यात्मिक विकास प्रदान कर सके।
एलडुअस
हक्सले बिलकुल ही गलत था जब उसने यह सोचना शुरू कर दिया कि एल. एस. डी. से उसने वही
अनुभव प्राप्त कर लिया है जो कबीर, या एकहार्ट, या
बाशो को मिला--नहीं यह वह अनुभव नहीं है। हां, कुछ समानता है
इनमें, वह समानता केवल चेतना के विस्तर में हैं। परंतु बड़ी असमानता
भी है, यह एक जबरदस्ती की बात है; यह तुम्हारी
जैविकता व तुम्हारी रसायनिकता के साथ हिंसा है। और तुम वही बने रहते हो। तुम इससे विकसित
नहीं होते। एक बार नशे का असर उतर जाए, तुम वही आदमी हो जाते
हो, वहीं छोटा सुकड़ा आदमी।
कबीर
फिर से वह कभी नही होंगे क्योंकि चेतना का वह विस्तार कोई थोपी हुई चीज न था--वह उसमे
विकसित हुआ है। अब कोई वापसी नहीं है, यह उनकी पूर्णता में समा गया है। यह
उनका होना हो गया है। उन्होने इसे अपने में समा लिया है। पर इसमें एक आकर्षण है,
ये आकर्षण सदा से रहा है। आधुनिक पीढ़ी से इसका कुछ लेना देना नहीं है।
यह सदा रहा है, वेदों के समय से ही: मनुष्य ने सदा ही नशे की
और अदम्य आकर्षण का अनुभव किया है। यह एक झूठा सिक्का है, यह
तुम्हें एक बड़े अस्वाभाविक ढंग से सच्चाई की एक झलक देता है, परंतु मनुष्य तो सदा से विस्तार खोजता रहा है। मनुष्य विशाल बनना चाहता है।
कभी
वह धन के द्वारा विशाल बनना चाहता है--हां, धन तुम्हें विस्तार की एक अनुभूति प्रदान
करता है, यह भी एक नशा है। जब तुम्हारे पास काफी धन होता है,
तुम अनुभव करते हो कि तुम्हारी सीमाएं तुम्हारे बहुत समीप नहीं हैं--वो
तुमसे काफी दूर हैं। तुम जितनी चाहो उतनी कारें रख सकते हो, तुम
सीमित नहीं हो। यदि अचानक तुम एक रॉल्स रॉयस रखना चाहो, तुम रख
सकते हो--तुम स्वतंत्र अनुभव करते हो। जब धन पास न हो, एक रॉलस
रॉयस पास से गुजरती हो, इच्छा उठती है...परंतु सीमा।
तुम्हारा
खीसा खाली है। तुम्हारे पास कोई बैंक-बैलेंस भी नहीं। तुम असाहाए महसूस करते हो--दीवाल
सामने है; तुम इसके पार नहीं जा सकते। कार वहां है, तुम कार देखते
हो, तुम इसे अभी लेना चाहोगे--परंतु तुम्हारे और कार के बीच में
एक दीवार है: गरीबी की दीवाल।
धन
तुम्हें विस्तार की,
स्वतंत्रता की एक अनुभूति प्रदान करता है। परंतु वह भी एक झूठी स्वतंत्रता
है। तुम बहुत सी चीजें उसके पास रख सकते हो, पर इससे तुम्हें
विकसित होने में कोई सहायता नहीं मिलेगी। तुम अधिक नही हो जाते--हां तुम्हारे पास अधिक
होता है। परंतु तुम्हारा होना तो उतना ही रहता है। यही बात सत्ता के साथ भी है: यदि
तुम किसी देश के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति हो, तुम शक्तिशाली
अनुभव करते हो--फौज, पुलिस, कानुन--राज्य
का सारा ताम-झाम तुम्हारे हाथ में होता है। देश की सीमाएं तुम्हारी होती है। उस समय
तुम अपने आप को बड़ा शक्तिशाली अनुभव करते हो। परंतु वह भी एक नशा है।
मैं
तुमसे यह बात कह रहा हूं: राजनीति और धन दोनों उतने ही बड़े नशे हैं जितने कि एल. एस.
डी. या मारिजुआना--और कहीं ज्यादा खतरनाक। यदि एल. एस. डी. और धन के बीच चुनाव करना
ही पड़े, तो एल. एसी. डी. कहीं बेहतर है और अधिक धामिक है। क्यों में ऐसा कहता हूं?
क्योंकि एल. एस. डी. से तो तुम केवल स्वयं को नष्ट करते हो, परंतु धन से तो तुम दूसरो का भी विनास कर देते हो। एल. एस. डी. से तो तुम मात्र
स्वयं के रसायन को, स्वयं की जैविकी को नष्ट करोगे, लेकिन राजनीति द्वारा तुम लाखों लोगों का विनाश कर दोगे।
जरा
सोचो, एडोल्फ हिटलर एक नशेड़ी हुआ होता, तो लाखों लोगो को इस
तरह बेहरीमी से कत्ल न करवाता। संसार कहीं अधिक बेहतर और सुंदर बना होता। यदि वह एल.एस.डी.
लेता होता, या उसके हाथ में सदा सिरिंज रहती, हम स्वयं को धन्य समझते, हमने परमात्मा को धन्यवाद दिया
होता: यह तो बहुत अच्छा हुआ होता कि वह अपने घर में रहता, नशे
के इंजेक्शन लेता रहता, पत्थर खाता रहता। उसके बिना संसार कितनी
सरलता और सहजता से चल रहा होता।
धन
या राजनीति कहीं अधिक खतरनाक नशे है। अब यह बड़ी विडंबना है: राजनेता सदा नशे के विरोध
में है, धनवान सदा नशे के विरोध में है--और उन्हें यह पता ही नहीं कि वे स्वयं नशेबाज
है। और उनके नशे की तरंग कहीं ज्यादा खतरनाक है, क्योंकि उनकी
तरंग में दूसरों का जीवन भी समाहित है। एक आदमी जो चाहे वह करने के लिए स्वतंत्र है।
एल.एस.डी. अधिक से अधिक आत्महत्या हो सकती है। यह हत्या तो कभी नही है। यह आत्महत्या
है। और आत्म हत्या करने के लिए तो आदमी सदा स्वतंत्रता होनी चाहिए--क्योंकि यह तुम्हारा
जीवन है, यदि तुम इसे नही जीना चाहते तो ठीक है। परंतु धन तो
हत्या है, ऐसे ही सत्ता-राजनीति भी हत्या है--यह दूसरों को मार
डालती है।
मैं
तुम्हें यह नहीं कह रहा हूं कि तुम नशा चुन लो। मैं केवल इतना ही कह रहा हूं कि सभी
प्रकार के नशे गलत है खराब है। चाहे वो धन, राजनीति, एल.
एस. डी.,या वो मारिजुआना का हो। तुम इन चीजों को चुनते हो क्योंकि
तुम्हें यह गलत ख्याल है कि ये तुम्हारी चेतना को विस्तरित कर देंगी। चेतना को बड़ी
सरलता से बड़ी आसानी से विस्तार किया जा सकता है, क्योंकि सच तो
यह है कि यह पहले से ही विस्तृत है। तुम एक गलत धरणा में जी रहे हो। तुम्हारी ये गलत
धारणा ही तुम्हारी सीमा है, तुम्हारा कारागृह है।
तुम
कहते हो: ‘मैं सत्य हो जाना चाहूंगा...’
तुम
यह चाह या अचाह नही सकते। यह तुम्हारे चुनाव का प्रश्न नहीं है। सत्य तो केवल है। तुम
इसे चाहो या न चाहो,
यह असंगत बात है। तुम झूठ चून सकते हो पर तुम सत्य नही चुन सकते--सत्य
तो वहां है ही। यही कारण है कि कृष्णमूर्ति चुनाव रहित जागरूकता पर इतना जोर देते है।
तुम सत्य का चुनाव नहीं कर सकते, इसका तुम्हारे चुनाव से तुम्हारी
पसंद-नापसंद से कुछ लेना देना नही है।
जिस
क्षण तुम अपना चुनाव छोड़ देते हो, सत्य वहां होता है। तुम्हारे चुनाव के कारण ही तो
तुम उसे नहीं देख पाते। तुम्हारा चुनाव तुम्हारी आंख पर एक पर्दे का काम करता है। तुम्हारी
पसंद-नापसंद ही तो समस्या है। तुम कुछ और चाहते हो इसीलिए तो तुम जो है उसे नहीं देख
पाते, और लगातार चूकते चले जाते हो। चाह-अचाह के द्वारा तुम अपनी
आंखों को रंगीन चश्मे से ढ़क लेते हो। और तुम अस्तित्व का सच्चा रंग जैसा कि वह है तुम
उसे देख ही नही पाते।
तुम
कहते हो, ‘मैं सत्य हो जाना चाहूंगा...।’
इसी
कारण तो तुम असत्य रहते हो। सत्य तुम हो! चाह-अचाह को छोड़ दो! असत्य तुम कैसे हो सकते
हो? होना सत्य है। अस्तित्व सत्य है। तुम यहां हो, जीवित,
श्वास लेते हुए। तुम असत्य कैसे हो सकते हो? तुम्हारा
चुनाव: चुनाव ही से तो तुम ईसाई, हिंदू या मुसलमान हो गए हो।
सत्य से तुम हिंदू, मुस्लिम या ईसाई नहीं हो। चुनाव से ही तो
तुम्हारा तादात्म्य भारत से, चीन से, जर्मनी
से हो गया है। परंतु सत्य से तो समस्त तुम्हारा है और तुम समस्त के हो--तुम सर्विलौकिक
हो। समस्त तुममें एक समष्ठि की भांति जीता है। चुनाव, पसंद-नापसंद
किया नहीं की तुम गुमराह हो गए।
अब
तुम कहते हो,
‘मैं सत्य हो जाना चाहूंगा...’ तब सत्य के नाम
पर भी तुम असत्य हो जाओगे। इसी तरह तो एक व्यक्ति ईसाई हो जाता है, क्योंकि वह सोचता है कि ईसाइयत सत्य है और ‘मैं सत्य
होना चाहूंगा।’ इसलिए वह ईसाई हो जाता है। कृपाय ईसाई मत बनो,
हिंदू मत बनो। तुम एक ईसा हो, फिर ईसाई क्यों बनना?
‘ईसा होना’ तुम्हारा स्वभाव है। क्राइस्ट होने
का जीसस से कोई मतलब नहीं है, यह तुम्हारी भी उतनी ही है,
जितनी की जीसस की। क्राइस्ट होना तो एक चुनाव रहित जागरूता की दशा है।
इसलिए
कृपया इच्छा के रूप में सोचना मत प्रारंभ करो: ‘मैं सत्य हो जाना चाहूंगा।’
अब यह तो असत्य होने का ढंग है। इस इच्छा को छोड़ दो--बस होओ,
हो जाने की चेष्ठा मत करो। हो जाना असत्य हो जाना है: होना सत्य है।
और इस अंतर को समझो।
हो
जाना भविष्य में है,
इसका एक लक्ष्य है। होना अभी-यहां है; यह एक लक्ष्य
नहीं है, यह तो पहले से है ही। इसलिए जो कुछ भी तुम हो,
बस वही हो जाओ, कुछ और हो जाने की चेष्टा न करो।
तुम्हें आदर्श लक्ष्य सिखाए गए हैं--कुछ बनो। सदा तुम्हें कुछ और बन जाने के लिए विवश
किय गया है।
मेरी
शिक्षा कुल इतनी है: जो कुछ भी, कोई भी, कुछ भी तुम हो वहीं
सुंदर है। यह पर्याप्त से भी अधिक है। तुम बस वही हो रहो। हो जाना छोड़ो...हो जाओ।
और
फिर स्वाभाविकतः,
जब तुम पूछते हो, ‘मैं सत्य हो जाना चाहूंगा,
पर यह क्या है और कैसे हुआ जाता है?’ एक बार तुम
हो जाने के ढंग में सोचना प्रारंभ कर दो, तब निश्चय ही तुम जानना
चाहोगे कि लक्ष्य क्या है: यह क्या है? यह सत्य क्या है जो मैं
हो जाना चाहता हूं? और तब यह स्वाभाविक है कि ‘लक्ष्य’ आता है, और ‘कैसे’ भी आता है: इसे कैसे प्राप्त किया जाए?
फिर सारी तकनीक, विधि...।
मैं
कह रहा हूं कि तुम वह हो। उपनिषद का ऋषि कहता है: तत्वमसि-तुम वह हो। तुम पहले से ही
वह हो। हो जाने का प्रश्न ही नहीं है। परमात्मा कहीं भविष्य में नहीं है। परमात्मा
तो अभी यहीं इसी क्षण,
तुम्हारे भीतर-बाहर सब जगह, देखते हो चारों और
केवल परमात्मा ही है, किसी और चीज का कोई अस्तित्व ही नहीं है।
जो भी है वही दिव्य है।
इसलिए
तुम केवल होओ। हो जाने का प्रयत्न मत करो। फिर एक बात से दूसरी बात निकलती है। यदि
तुम हो जाना चाहते हो,
तब स्वाभाविक रूप से विचार उठता है: क्या तुम आदर्श हो? मुझे क्या हो जाना है? तब तुम्हें एक आदर्श की कल्पना
करनी होगी। की मुझे इन के जैसा बनना है, ईसा कि तरह, बुद्ध की तरह या फिर कृष्ण की तरह। तब तुम्हें एक प्रतिमा को चुनाना होगा,
और तब तुम एक कार्बन कॉपी बन कर रह जाओगे।
कृष्ण
कभी दोहराएं नहीं गए। क्या तुम एक सरल तथ्य नहीं देख सकते? कृष्ण दुबारा
कभी नहीं हुए। क्या तुम एक इतना सरल तथ्य नहीं देख सकते कि बुद्ध को कभी दोहराया नहीं
जा सकता। हर व्यक्ति अद्वितीय है, बिल्कुल अद्वितीय--और वही तुम
भी हो। यदि तुम कोई और होना चाहोगे, तुम एक झूठ हो, मात्र कृत्रिम अस्तित्व। तुम एक कार्बन कॉपी हो गये हो। मूल बनो! अतः,
तुम केवल स्वयं हो सकते हो। कहीं जाने को नहीं है, कुछ हो जाने को नहीं है।
लेकिन
अहंकार कोई लक्ष्य चाहता है। अहंकार का अस्तित्व ही वर्तमान क्षण और लक्ष्य के बीच
में होता है। जरा अहंकार की कार्य-विधि को तो देखो। जितना बड़ा तुम्हारा लक्ष्य होगा, उतना ही बड़ा
अहंकार होगा। यदि तुम एक क्राइस्ट बनना चाहो, उतना ही बड़ा अहंकार
होता है और शायद पवित्र भी। परंतु इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता। पवित्र अहंकार भी उतना
ही अहंकार है जितना कि कोई और अहंकार, शायद साधारण अहंकारों से
कहीं अधिक खतरनाक।
यदि
तुम एक ईसाई हो,
तुम एक अहंकार-यात्रा पर हो। अहंकार का अर्थ इतना ही है कि तुम्हारे
और लक्ष्य के बीच की दूरी। लोग मेरे पास आते है और पूछते है, ‘अहंकार को कैसे छोड़े?’ तुम अहंकार नहीं छोड़ सकते जब तक
कि तुम
हो
जाने के भाव को नहीं छोड़ते। तुम अहंकार तब तक नहीं छोड़ सकते जब तक तुम विचार, आदर्श,
आशा, भविष्य को न छोड़ दो।
अहंकार
रहता है वर्तमान क्षण और भविष्य के आदर्श के बीच में। आदर्श जितना बड़ा होगा, आदर्श जितना
दूर होगा, अहंकार को रहने के लिए उतना ही बड़ा स्थान मिलेगा उतनी
ही अधिक संभावनाएं मिलेंगी। यही कारण है कि एक धार्मिक व्यक्ति एक भौतिकवादी से अधिक
बड़ा अहंकारी होता है। भौतिकवादी के पास उतना बड़ा स्थान नही हो सकता, जितना की धार्मिक व्यक्ति के पास संभव है। धार्मिक व्यक्ति तो परमात्मा होना
चाहता है। अब यह बड़ी से बड़ी संभावना हो गई। इससे बड़ा और क्या आदर्श हो सकता है?
धार्मिक आदमी मोक्ष पाना चाहता है, वह जन्नत,
स्वर्ग जाना चाहता है। अब आपका अहंकार इस पूर्णता के विचार की छाया में
जिएंगा।
मेरी
बात को ध्यानपूर्वक सूनो! मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम्हें भगवान बनना है--मैं घोषणा
करता हूं कि तुम भगवान हो। तब किसी अहंकार के उठ खड़े होने का प्रश्न ही नहीं उठता।
तुम तो वह हो ही। जरा ठीक से चारों और देखो...तुम वहीं तो हो। यहां और अभी होना है, स्वर्ग तो
वर्तमान में है। यह वर्तमान क्षण का एक घटक है।
अहंकार
फलता-फूलता तभी है,
जब तुम्हारे पास लक्ष्य और आदर्श होते है। और अहंकार के साथ भी हजार
समस्याएं हैं। एक और तो महान आदर्शो को रखना कितना भला जान पड़ता है। और दूसरी बात ये
सदा तुम्हें अपराध भाव अनुभव कराते रहे है, निरंतर अपराध भाव
क्योंकि तुम सदा उनसे कम रह जाते हो। वे आदर्श असंभव है, तुम
उन्हें कभी प्राप्त कर ही नहीं सकते। उन्हें प्राप्त कर पाने का कोई उपाय ही नहीं है,
इसलिए तुम सदा नीचे रह जाते हो। इसी तरह तो एक तरफ अहंकार फलता-फूलता
है, और दूसरी तरफ अपराध भाव...यह अपाध भाव, अहंकार की छाया बन साथ चलता रहता है।
क्या
तुमने कभी इस अदभुत बात की और ध्यान दिया है। अहंकारी व्यक्ति छोटी-छोटी बातों के प्रति
भी बड़ा अपराध भाव अनुभव करता है। तुम एक सिगरेट फूंकते हो; यदि तुम अहंवादी
हो, तुम अपराध भाव महसूस करोगे। अब धूम्रपान करना एक निर्दोष,
मूर्खतापूण बात है--बहुत निर्दोष और मुर्खतापूर्ण। इसमें अपराध-भाव महसूस
करने जैसा कुछ भी नही है, परंतु धार्मिक व्यक्ति अपराधी महसूस
करेगा क्योंकि उसके पास एक अहंकार है कि धूम्रपान करना एक गलत कार्य है। यह वास्तविकता
है कि वह धूम्रपान करता है, दो बातें निर्मित करता है: आदर्श
होना उसके मन में एक भली-अनुभूति पैदा करता है, कि ‘मैं एक धार्मिक व्यक्ति हूं, मैं जानता हूं कि मुझे धूम्रपान
नहीं करना चाहिए। मैं कोशिश भी करता हूं, मैं अपनी पूरी कोशिश
कर रहा हूं...,’ परंतु वह अनुभव करता है कि वह बार-बार नीचे गिर
जाता है। और जो व्यक्ति अपराध-भाव महसूस करता है वह हर किसी को अपराध भाव महसूस करवाना
प्रारंभ कर देता है। यह स्वाविक है: कैसे तुम अकेले अपराध-भाव अनुभव करोगे?
यह बहुत कठिन होगा, यह बहुत भारी होगा।
इसलिए
अपराध-भाव से ग्रसित व्यक्ति चारों और अपराध-भाव निर्मित करता है। वह छोटी-छोटी बातों
के लिए, महत्वहीन बातों के लिए हर किसी को अपराध-भाव अनुभव कराता है। यदि तुम्हारे
बाल लंबे है, वह तुम्हें अपराध भाव महसूस कराएंगा। अब इसमें कोई
बड़ी बात नहीं है, यह आदमी की अपनी जिन्दगी है--यदि कोई लंबे बाल
रखना चाहे तो ठीक है! यदि तुम चीजों को अपने ढंग से कर रहे हो तो वह तुम्हें अपराध-भाव
अनुभव कराएगी। तुम जो कुछ भी कर रहे होगे..., वह उसमें गल्तियां
निकालेगे? गलतिया उसे निकालनी ही पड़ेंगी--वह अपराध भाव से पीड़ित
है। कैसे वह अकेला पीड़ित होगा? जब हर कोई अपराध-भाव महसूस कर
रहा होगा, तभी वह निश्चिंत होगा। कम से कम एक सांत्वना रहेगी
एक दिलासा वह देता ही रहेगा कि, ‘मैं अकेला ही इस नाव पर नहीं
हूं, हर कोई इस नाव पर सवार है।’
दूसरों से अपराध-भाव अनुभव कराने की तरकीब है उन्हें
आदर्श दे देना। यह एक बड़ी सूक्ष्म तरकीब है: माता-पिता बच्चों को आर्दश दे देते है
कि ‘इस’ जैसा बनना है: वे स्वयं कभी इस जैसा नहीं रहे,
कभी कोई नहीं रहा। अब ये बच्चों को आदर्श दे देते हैं, बच्चों को अपराध-भाव महसूस करने की बड़ी सूक्ष्म और चालाकी भरी तरकीब है। अब
बच्चा बार-बार यह महसूस करेगा कि, ‘मैं आदर्श के पास तक पहुंच
नहीं पा रहा हूं, सच तो यह है कि मैं इससे दूर ही दूर होता जा
रहा हूं।’ अब इससे उसे एक पीड़ा होती है, जो हमेशा उसे नीचा दिखाती रखती है, हताशा बनाएं रखती
है।
यही
कारण है कि संसार में तुम इतना दुख पाते हो। यह वास्तविक नहीं है, नब्बे प्रतिशत
तो उन आदर्शो के कारण है जो तुम पर थोप दिए गये है। और वे तुम्हें हंसनें नहीं देते,
वे तुम्हें आनंदित नहीं होने देते। जिस व्यक्ति के पास कोई आदर्श नही
है, वह कभी भी किसी अन्य को अपराध-भाव अनुभव नहीं करायेगा।
अभी
उस श्याम एक नवयुवक मेरे पास आया और उसने कहा, ‘मैं अपनी समयौनता (समलैंगिकता) के
कारण बड़ा अपराधी अनुभव करता हूं। यह अप्राकृतिक है।’ अब अगर वह
महात्मा गांधी, वैटिकन पोप, या पुरी के
शंकराचार्य के पास गया होता तो क्या हुआ होता? उन्होंने उसे सच
में ही अपराध-बोध अनुभव कराया होता। और वह तैयार है किसी भी अत्याचारी के हाथों में
पड़ने को। वह एकदम तैयार है, वह स्वयं ही निमंत्रण दे रहा है।
वह महात्माओं को बुला ही रहा है। कि आओ और मुझे अपराध-भाव अनुभव कराओ। अकेला तो वह
इस कार्य को ठीक से कर नही पा रहा है, अतः वह वह तथाकथित विशेषज्ञों
को बुला रहा है कि आओ और आप मेरी मदद करो।
मगर
वह आ गया गलत आदमी के पास। मैंने कहा: ‘तो क्या हुआ। क्यों तुम इसे अप्राकृतिक
मानते हो।’
उसने
कहा, ‘क्या यह अप्राकृतिक नहीं है?’ वह बड़ा हैरान हुआ,
उसे बड़ा धक्का लगा। ‘यह प्राकृतिक नहीं है।’
मैंने
कहा: ‘यह अप्राकृतिक कैसे हो सकती है? प्रकृति की मेरी परिभाषा
है, जो भी घटता है प्राकृतिक है। अप्राकृतिक घट ही कैसे सकता
है?’
तुरंत, मेरे देखते-देखते
वह बड्ढ़े से बहार आ गया। उसके चेहरे पर एक मुस्कान फैल गई। उसने कहा, ‘यह अप्राकृतिक नहीं है? यह एक विकृति नहीं है?
यह एक तरह कि असमान्यता नही है?’
और
फिर मैंने उससे कहा: ‘नहीं, ऐसा कुछ भी नही है।’
उसने
कहा: ‘परंतु, पशु तो समयौनी (समलैंगिक) नहीं होते।’
मैंने
कहा: ‘उनमें इतनी बुद्धिमता नहीं होती। वे तो बस एक सुनिशिचत जीवन जीते है। उनकी
जैविकी उन्हें जैसी अनुमती देती है, वे उसी भांति जीते हैं। तुम
जाओ और घास चरती हुई एक भैंस को देखो--वह बस एक विशिष्ठ घास ही खाती है, और कुछ भी नहीं। तुम सर्वोतम भोजन उसके सामने रख दो, वह पर्वाह ही नहीं करेगी, वह अपनी घास ही खाती रहेगी।
उसके पास कोई विकल्प नहीं हैं। चैतन्य बहुत ही थोड़ा है, करीब-करीब
न के बराबर। मनुष्य बुद्धिमान है। वह संबंधित होने के, जीने के
नये ढंग खोजने का प्रयास करता है। मनुष्य एक मात्र ऐसा पशु है जो नये तरीके ढूंड़ता
है। ऐसे तो एक मकान में रहना अस्वाभाविक है क्योंकि कोई पशु मकान में नही रहता--अतः
क्या ये एक विकृति है? क्या कपड़े पहनना अप्राकृतिक है,
कोई पशु कपड़े नहीं पहनता? भोजन पकाना अस्वाविक
है, किसी पशु ने आज तक ऐसा नहीं किया। क्या पका हुआ भोजन खाना
गलत है? लोगों का कुछ खिलाने या पिलाने के लिए आमंत्रित करना
क्या अस्वाभाविक हैं--क्योंकि पशु तो जब भी खाना खाता है एकांत में चला जाता है। तुम
एक कुत्ते को कोई चीज खाने की दो वह तुरंत उसे लेकर एक कौने में चला जायेगा। कुत्ते
के लिए यह स्वभाविक है, परंतु तुम एक कुत्ते नहीं हो,
तुम उससे कहीं अधिक उंचे हो। तुम्हारे पास अधिक बुद्धिमानिता है। तुम्हारे
पास अनंत संभावनाएं है। आदमी हर काम को अपने ही ढंग से करता है--यही उसका स्वभाव है।
वह
विश्रांत हुआ। मैं देख सकता था कि एक बड़ा बोझ, एक पहाड़ जो उसके सर पर था, अचानक उतर गया। मैं नहीं जानता कि कितने दिन तक वह स्वतंत्र और भारहीन रह सकेगा।
कोई न कोई महात्मा उसे पकड़ ले सकता है, और फिर से यह विचार कि
‘यह अस्वाभाविक है,’ उसे दे सकता है। तुम्हारे
महात्मा या तो परपीड़क होते है--या स्वयंपीड़क। उनसे जरा बचो। जब भी तुम किसी महात्मा
को देखो, जितना तेज तुम भाग सकते हो, भागो।
उससे पहले कि वह कोई अपराध-बोध तुम्हारे मन में ड़ाल दे।
जो
कुछ भी तुम हो सकते हो,
तुम हो। कोई लक्ष्य नहीं है। और हम कहीं नहीं जा रहे है। हम तो बस यहीं
उत्सव मना रहे है। अस्तित्व कोई यात्रा नहीं है, यह तो एक उत्सव
है। इसे एक उत्सव, एक आनंद ही समझो। इसे कृपा कर पीड़ा में न बदलो।
इसे कर्तव्य में, कृत्य में न बदलो--इसे मात्र क्रीड़ा ही रहने
दो।
धार्मिक
होने से मेरा यही तात्पर्य है: न कोई अपराध, न भाव, न ही अहंकार,
न किसी और तरह की कोई यात्रा--बस यहां-अभी रहना...रहना वृक्षों के साथ
और पक्षियों के साथ, और नदियों के साथ, और पर्वतों के साथ, और तारों के साथ।
तुम
कारागृह में नहीं हो। तुम प्रभु के घर में हो, तुम ईश्वर के मंदिर में हो--कृपया इसे
कारागृह न कहो। यह कारागृह नही है। तुम गलत समझ रहे हो। तुमने इसकी गलत व्याख्या कर
ली है। मुझे सुनते-सुनते भी तुम बहुत सी बातों की गलत व्याख्या कर ले सकते हो। तुम
व्याख्याएं करते ही चले जाते हो।
दो
दृश्य...पहला:
बागवानी
विशेषज्ञ, जो गार्डन-कलब की बैठक से संबोधित था, उसने पुरानी घोड़े
की लीद के लाभ बताएं, बसंत-बागीचों की खाद हेतु, उसके गुण गिनाएं। प्रश्नोत्तर समय में, शहर की एक महिला
जो साथ-साथ नोट्स भी लेती जा रही थी, उसने हाथ उठाया। वक्ता
ने उसकी और देखकर सिर को आज्ञा देने की मुद्रा में हिलाया और आज्ञा दी की पूछो,
‘आपने बताया की पुरानी घोड़े की लीद सर्वोतम खाद है, क्या आप बताने की कृपा करेंगे कि घोड़े की आयु कितनी होनी चाहिए?’
दूसरा:......
हर
किसी के शब्दों की अपनी ही व्याख्याएं होती है। अतः जब मैं कोई बात कहता हूं, में नहीं जानता
कि तुम उसका क्या अर्थ निकालोगे। हर किसी के पास उसके अचेतन मे छिपा एक निजी शब्दकोश
है। उसका अपना शब्दकोश......
मैं
तुम्हें स्वतंत्र हो जाने के लिए कहता रहा हूं। तुमने मुझे गलत समझ लिया--तुमने सोचा
कि तुम एक कारागृह में हो। हां, मैं कहता हूं; ‘स्वतंत्र हो
जाओ!’ तुरंत तुम इसकी व्याख्या कर लेते हो कि तुम एक कारागृह
में हो। वह बात ही बदल गई। मेरा जोर ‘तुम’ पर था: स्वतंत्र हो जाओ। तुम्हारा जोर कारागृह पर चला गया। अब तुम कहते हो,
‘मैं कारागृह में हूं! जब तक मैं कारागृह से बाहर न आऊं, मैं स्वतंत्र कैसे हो सकता हूं?’ मेरा जोर था: स्वतंत्र
हाओ, और यदि तुम स्वतंत्र हो, तब कहीं कोई
कारागृह नहीं है। कारागृह बनता ही नही अस्वतंत्र रहने की तुम्हारी आदत के कारण।
देखो!
पर जोर दो और अर्थ सारा बदल गया--और लगता है कि बात वही है। जब मैं कहता हूं, ‘स्वतंत्र
हो जाओ,’ तो क्या अंतर है यदि कोई कहे, ‘हां, मैं कारागृह मं हूं?’--बहुत
अंतर है, महान अंतर है। सारी बात ही पलट गई। यह एक दूसरी ही बात
है, जब तुम कहते हो, ‘मैं कारागृह में हूं।’
तब तो कारागृह, वहां का रक्षक, वे उतरदीयी हो जाते है। तब तो जब तक वे अनुमति न दें, तुम कारागृह से बाहर आ कैसे सकते हो? तुमने जिम्मेदारी
किसी और के ऊपर थोप दी।
जब
मैं कह रहा था ‘स्वतंत्र हो जाओ।’ मैं यह कहा रहा था कि जिम्मेवार तुम
हो। स्वतंत्र होना या न होना यह तुम्हारा अपना मामला है। यदि तुमने स्वतंत्र न होना
ही चुना है, तब कारागृह भी होगा, रक्षक
भी होंगे, कैदी भी होगा। और यदि तुमने स्वतंत्र होना चुना,
रक्षक, कारागृह, और हर वो
चीज जो भ्रम बनाए हुए थी, वह सब गायब हो जाती है। अब तुम परतंत्र
रहने की आदत को छोड़ दो।
कैसे
तुम इसे छोड़ सकते हो?
स्वंतत्रता और सजगता साथ-साथ रहती है। जितना ज्यादा सजकता बढ़ेगा,
उतनी ही ज्यादा स्वतंत्रता, कम सजगता, कम स्वतंत्रता। पशु कम स्वतंत्र हैं क्योंकि वे कम सजग है। चट्टान और भी कम
स्वतंत्र है क्योंकि चट्टान के पास सजगता ही नहीं है। करीब-करीब न के बराबर। मनुष्य
सबसे ज्यादा विकसित प्राणी है, कम से कम इस पृथ्वी पर तो। मनुष्य
को थोड़ी सी स्वतंत्रता है--फिर एक बुद्धपुरुष को पूर्ण स्वतंत्रता है: उसकी सजगता।
इसलिए
यह बस सजगता की श्रेणियों का ही प्रश्न है। तुम्हारा कारागृह तुम्हारे ही अचेतन की
पर्तों से बनता है। और स्मरण रखो, मन बड़ा चालाक है। यह सदा तुम्हें मुर्ख बनाने के
उपाय ढूंढ़ता रहता है। इसने मुर्ख बनाने की बहुत सी तरकीबें सीख ली हैं। मन अब कोई दूसरा
शब्द प्रयोग कर लेगा, और तुम्हें अंतर का पता भी नहीं चलेगा--अंतर
इतना सूक्ष्म हो सकता है कि यह लगभग पर्यायवाची होगा। और मन ने एक तरकीब इस्तेमाल कर
ली।
इसलिए
जब भी मैं कुछ कहता हूं,
कृपया उसकी व्याख्या मत करो। बस उसे जितना ध्यान पूर्वक हो सके सुनो।
एक, एक शब्द भी न बदलो, एक अर्द्धविराम
तक नहीं। बस जो मैं कह रहा हूं, उसे सुनो। अपना मन बीच में मत
लाना, वर्ना तुम कुछ और ही सुनोगे। मन की चालबाजी के प्रति सदा
सजग रहो। और वह चालबाजी तुमने विकसित कर ली है। तुमने उसका विकास किया है अपने लिए
नहीं, तुमने दूसरों के लिए इसका विकास किया है। हम हर किसी को
मूर्ख बनाने का यत्न करते है, धीरे-धीरे मन मूर्ख बनाने में दक्ष
हो जाता है। आखिर में यह तुम्हें ही मूर्ख बनाना शुरू कर देता है।
मैंने
सुना है, एक पत्रकार की मृत्यु हुई। स्वाभाविक ही था क्योंकि वह एक पत्रकार था,
और राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री के निवास स्थान पर
भी उसका स्वागत किया जाता था, उसे तुरंत अंदर बुला लिया जाता
था, किसी अपाइंटमेंट की जरूत ही न पड़ती थी। वह एक महान पत्रकार
था। इसलिए वह स्वर्ग की और दौड़ा--भला वह नरक क्यों जाएगा? परंतु
सेंट पीटर ने उसे रास्ते में ही रोक लिया और कहा: ‘रुको,
यहां और पत्रकारों की अब आवश्यकता नहीं है। हमारा कोटा पहले ही भर चुका
है; हमें बस एक दर्जन पत्रकार ही चाहिए--सच तो यह है कि वे भी
यहां बेकार है, क्योंकि यहां स्वर्ग में कोई समाचार-पत्र ही नहीं
छपता।’
सच
तो यह है कि यहा समाचार जैसी कोई खबर ही नहीं होती। न खून, न हत्या कुछ
भी नहीं होता। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है। तब समाचार बनेगा कैसे? और संतों के बारे में क्या समाचार तुम सोच सकते हो: ये अपने-अपने बृक्षों,
बोधिवृक्षों के नीचे बैठे ध्यान कर रहे है। इसलिए समाचार-पत्र भी मात्र
औपचारिकता निभाने के लिए, कि समाचार-पत्र छापना है, इसलिए समाचार-पत्र छपता भी है तो उसकी केवल दिनांक बदल दी जाती है,
और लिख दिया जाता है ‘डिट्टो’ वह रोज पहले के जैसा।
‘हमें यहां पत्रकारों की कोई आवश्यकता ही नहीं है--तुम नरक में जाओ। और वहां
ज्यादा से ज्यादा पत्रकारों की आवश्यकता पड़ती ही रहती है। क्योंकि वहा समाचार ही समाचार
है, वहां समाचार पत्र भी अधिक छपते है...और अब तो मैंने सुना
हैं वहां पर और भी नये-नये समाचार-पत्रों की योजना बनाई जा रही है। वहां तुम चले जाओ,तुम्हें वहां काम भी मिलेगा, और वहां तुम्हारी मौज भी
रहेगा।
परंतु
वह पत्रकार स्वर्ग छोड़ कर जाना नहीं चाहता था,वह वहीं रहना चाह रहा था। इसलिए उसने
सेंट पीटर को कहा: ‘आप एक काम करें। मैं पत्रकारों को जानता हूं...यदि
मैं किसी पत्रकार को नरक में जाने के लिए राजी कर लूं, तो उसका
स्थान मुझे दे दिया जाएगा?’
सेंट
पीटर को उस पर तरस आ गया;
उन्होंने कहा: ‘ठीक है, तुम्हें
किसी एक पत्रकार को नरक में जाने को राजी करने लिए कितना समय चाहिए।’
उसने
कहा: ‘चौबीस घंटे, मात्र चौबीस घंटे।’
अतः
चौबीस घंटों के लिए उसे स्वर्ग में प्रवेश की इजाजत मिल गई। उसने तुरंत एक अफवाह फैलानी
शुरू कर दी कि ‘एक महानतम समाचार-पत्र की योजना बनाई जा रही है, और उसके
लिए प्रमुख संपादक, उपप्रमुख संपादकों, सह-संपादकों की आवश्यकता है--बड़ी अच्छी संभावनाएं है भविष्य में, परंतु इस के लिए तुम्हें नरक जाना होगा।
चौबीस
घंटे वह घूमता ही रहा। वह सभी पत्रकारों से मिला, और चौबीस घंटों के बाद जब वह
सेंट पीटर के पास यह देखने के लिए गया कि क्या कोई पत्रकार नरक गया या नहीं। उस को
देख कर सैंट पीटर ने तुरंत स्वर्ग के द्वार बंद कर दिए और कहा: ‘अब तुम बाहर मत जाओ, क्योंकि वे सबके सब ही स्वर्ग छोड़
कर चले गए है।
परंतु
उस पत्रकार ने कहा: ‘नहीं, अब तो मुझे जाना ही होगा--शायद उसमें कुछ बात सच
ही हो। अब आप मुझे न रोकें। मुझे जाना ही होगा।’ उसने स्वयं ही
तो वह अफवाह फैलाई है, परंतु जब बारह लोग उसमें विश्वास करने
लगें, तब वह व्यक्ति उसपर खुद भी विश्वास करने लग जाता है। क्या
पता बात सही हो ही।
इसी
तरह से ही तो हमारा मन चालाक हो गया है, तुम धोखा देते आए हो, देते आए हो, यह धोखा देने में इतना कुशल हो गया है कि
यह तुम्हें भी धोखा दे देता है।
दुर्घटना
में घायल एक व्यक्ति ने,
जो कि व्हीलचेयर पर बैठे कर अदालत में आने वाले उस वादी ने क्षतिपूर्ति
के रूप में एक बड़ी रकम हासिल कर ली थी। गुस्से में भरकर प्रतिवादी के वकील ने कुर्सी
के पास जाकर चिल्लाया..‘तुम धोखेबाज हो, मैं जानता हूं कि तुम धोखेबाजी कर रहे हो, ‘इसलिए हे
ईश्वर, मेरी मदद कर--मैं सारी जिंदगी तुम्हारा पीछा करूंगा जब
तक कि मुझे सबूत न मिल जाए।’
वकील
भली-भांति जानता था कि वह आदमी धोखेबाज था, विहिल-चेयर बेठना तो मात्र एक दिखावा
था। वह एक दम ठीक था, उसके शरीर में कहीं भी कोई गड़बड़ नहीं थी।
इसलिए
उसने कहा: ‘ईश्वर मेरी भी मदद करे। मैं सारी जिंदगी तुम्हारा पीछा करुंगा जब तक कि मुझे
सबूत न मिल जाए।’
‘आप मेरे अतिथि बन मेरे साथ ही रहिए,
‘व्हीलचेयर पर बैठे उस व्यक्ति ने मुस्कुराते हुए कहा। ‘मैं आपको अपनी योजनाएं बता दूं। पहले तो मैं लंदन जा रहा हूं कुछ कपड़ों खरीदने
के लिए, फिर जाऊंगा डिवेरिया धूप सेंकने, उसके बाद, फिर लोरडस चमत्कार के लिए।’
मन
हमारा इतना चालाक है;
यह सदा कोई न कोई उपाय ढूंढ ही लेता है। यह लोरडेस जा सकता है...परंतु
एक बाद तुम दूसरों के साथ चालबाजी करने लग जाओ, देर सवेर तुम
खूद भी एक दिन इसके भी शिकार हो जाते हो। अपने स्वयं के मन से सावधान रहो। इसका भरोसा
मत करो, इस पर संदेह करो।
यदि
तुम अपने मन पर संदेह करना प्रारंभ कर देते हो, यह एक महान क्षण है। जिस क्षण मन पर
संदेह उत्पन्न होता है, तुम स्वयं पर भरोसा करना बंद कर देते
हो। यदि तुम मन पर श्रद्धा करते हो, तुम स्वयं पर संदेह करते
हो, यदि तुम मन पर संदह करते हो, तो स्वयं
पर श्रद्धा करना प्रारंभ करने लग जाते हो।
एक
गुरु पर श्रद्धा करने का कुल यही तो अर्थ है। जब तुम मेरे पास आते हो, यह तो तुम्हारी
सहायता करने की एक मात्र विधि है, कि तुम अपने मन पर संदेह कर
सको। जब तुम मन पर भरोसा करना आरंभ करते हो; तुम कहते हो: ‘मैं आपकी सुनूंगा, अब मैं अपने मन की नहीं सुनूंगा,
बहुत सून ली है अपने मन की। यह कहीं नहीं ले जाता बस गोल-गोल ही घूमाता
रहता है, यह उसी मार्ग पर बार-बार ले जाता है, यह एक दोहराव है, यह बस एकस्वरीय है।’ फिर तुम कहते हो, ‘मैं आपकी ही सुनूंगा।’
गुरु
तो मात्र एक तरकीब है,
मन से छुटकारा पाने की। एक बार तुम्हें मन से छुटकारा मिल जाए फिर गुरु
पर भरोसा करने की जरुरत नहीं रहती। क्योंकि तुम अपने स्वयं के गुरु के पास आ गए होते
हो। गुरु तो एक मार्ग तुम्हें देता है, कि तुम तुम स्वयं के गुरु
के पास पहुंच जाओ। गुरु तो बस एक द्वार है इससे होकर गुजरना है, गुरु से होकर गुजरने में सरलता आ जाती है, उसे अंदर जाने
का एक मार्ग मिल जाता है। वर्ना तो मन उसे बार-बार इधर-उधर भटकाता ही रहता है,
कभी दीवालों से कभी खिड़कियों से टकराता ही रहता है। मन इतना चालाक है
कि कभी तुम्हें मार्ग या द्वार देखने ही नहीं देगा।
गुरु
को सुनते-सुनते,
उस पर भरोसा करते-करते, धीरे-धीरे मन अपेक्षित
हो जाता है। और बहुत सी बार तुम्हें मन की छोड़नी पड़ती है, क्योकि
गुरु कभी-कभी कोई ऐसी बात कह देता है, जो मन के विपरीत जाती है--गुरु
बात सदा ही मन के विपरीत जाती है। उपेक्षित जाती है, सही कहूं
तो गुरु की बातें सदा मन के विपरीत ही जाएगी। जब तुम बार-बार मन कि उपेक्षा करते चले
जाते हो, तो वह मरना शुरू हो जाता है। जब उस पर भरोसा नही किया
जाता, मन मरना शुरू हो जाता है। यह अपने सही आकार में आ जाता
है, अभी तो यह छल-कपट से भरा है। अभी तो यह ऐसा प्रदर्शन कर रहा
है जैसे कि यह तुम्हारा समस्त जीवन है। परंतु मन यह जानता है कि वह एक छोटा सा मात्र
एक यंत्र है, आप उसका प्रयोग करे तो अच्छा है। परंतु यंत्र अगर
मालिक हो जाए तो खतरना हो जाता है।
मन
कहता है, ‘चलो कुछ बन जाओ।’ परंतु गुरु कहता है, ‘ मात्र हो जाओ।’ मन कहता है, ‘तुम्हें
अभी बहुत दूर जाना है।’ गुरु कहता है, ‘नहीं! कहीं नहीं जाना, तुम तो पहुंच गए, तुम हो गए सराह--तुमने लक्ष्य को भेद ही रखा है।’
तीसरा
प्रश्न: ओशो,
सभ्यता के विषय में आप क्या सोचते हैं? क्या आप
इसके बिलकुल विरोध में है?
सभ्यता
जैसी कोई चीज कहीं है ही नहीं--इसलिए मैं उसके विरोध में कैसे हो सकता हूं? उसका अस्तित्व
है ही नहीं। यह तो एक दिखावा मात्र है। हां, मनुष्य ने अपनी आदिम,
मूलभूत निर्दोषिता को खो जरूर दिया है, परंतु मनुष्य
सभ्य नहीं हो पाया है। क्योंकि सभ्य होने का कोई तरीका नहीं है। सभ्य होने का एकमात्र
तरीका है, कि तुम स्वयं को उस निर्दोषिता पर आधारित करो,
उस आदिम निर्दोषपन पर स्वयं को आधारित करो और फिर वहां से तुम विकसित
हो सकते हो।
इसीलिए
तो जीसस कहते है: जब तक कि तुम पुनः पैदा नहीं होते, जब तक कि तुम पुनः एक बालक नहीं
हो जाते, तुम कभी नहीं जान पाओगे कि सत्य क्या है।
यह
तथाकथित सभ्यता तो झूठी है,
यह तो एक नकली सिक्का है। यदि मैं इसके विरोध में हूं तो, मैं सभ्यता के विरोध में नहीं हूं, क्योंकि यह सभ्यता
है ही नहीं। यह झूठी सभ्यता है।
मैंने
सुना है, किसी ने एक बार भूतपूर्व प्रिंस ऑफ वेल्स से पूछा: ‘सभ्यता
के विषय में आपका क्या विचार है?’
प्रिंस
ने उतर दिया: ‘यह एक अच्छा विचार है, किसी को इसे शुरू करना ही चाहिए।’
मुझे
यह उतर बहुत पसंद आया। हां,
किसी को तो इसे शुरू करना ही चाहिए--अभी तक तो इसकी शुरूआत ही नहीं हुई
है। आदमी अभी सभ्य नहीं है, वह बस मात्र सभ्य होने का दिखावा
भर कर रहा है। और तुम्हारे दिखावे के मैं विरुद्ध हूं। मैं पाखंडों के विरोधी मैं हूं।
आदमी ने सभ्य होने का एक झूठा परसोना पहन लिया है। एक पाखंडों की लकीरें, उसे तुम जरा सा खरोंचो, और तुम अंदर वही असभ्य आदमी ही
पाओग। जरा सा उसे खरोंचा नहीं कि वह अपने असली रूप में आपके सामने आ जाएगा। बस एक ऊपरी
लीपापोती, वह जो शुभ का दिखावा कर रहा है, वह मात्र एक उपरी लकीर है। भीतर गहरे में तो आज भी वहीं अशुभ भरा है,
उसे ही बैठा हुआ पाओगे। बस तुम्हारी खाल जितनी गहरी है तुम्हारी सभ्यता।
सब कुछ ठीक-ठाक लग रहा है, तुम मुस्कुरा रहे हो, सब कुछ कितना अच्छा हो रहा है, बस किसी ने एक शब्द तुम्हारी
और फेंका नहीं कि तुम उछल पड़ते हो, किसी ने तुम्हें एक गाली दी
और तुम पागल हो जाते हो, तुम एक दम से विक्षिप्त हो जाते हो,
उस आदमी को मार देना चाहते हो। बस एक पल पहले तक तो तुम मुस्कुरा रहे
थे, एक शब्द ने तुम्हारी सभ्यता को उतरा फैका। तुम्हारी हत्यारी
प्रवृतियां उपर आ गई, तुम सब कुछ को भूल गए। ये किस तरह की सभ्यता
है तुम्हारी।
एक
व्यक्ति केवल तभी सभ्य हो सकता है, जब वह सच में अंदर से जाग गया है,
होश से भर गया है। ध्यान से भर गया है। केवल वही व्यक्ति जगत में सच्ची
सभ्यता ला सकता है। केवल बुद्ध पुरुष ही सभ्य होते है।
और
यही विरोधाभास है: कि बुद्धपुरुष आदिम के विरोध में नहीं है--वह आदिम का उपयोग आधार
की भांति कर लेते है,
वे बालवत निर्दोषिता का उपयोग आधार की भांति कर लेते हैं। और फिर उस
आधार पर एक बड़ा मंदिर खड़ा हो जाता है। यह सभ्यता तो बालपन की निर्दोषिता को नष्ट कर
देती है और फिर यह तुम्हें झूटे सिक्के मात्र दे देती है। पहले तो यह तुम्हारी आदिम
निर्दोषिता को नष्ट करती है। यदि एक बाद आदिम निर्दोषिता नष्ट हो जाए, तुम चालाक, चतुर, हिसाबी-किताबी
बन जाते हो, और फिर तुम फंस गए इस सभ्यता के जाल में। तब समाज
अपना कार्य आसानी से करता रहता है और तुम्हे सभ्य बनाए ही चला जाता है।
पहले
तो यह तुम्हें तुम्हारी अपनी सता से अगल कर देता है। एक बार तुम अपनी सत्ता से बेदखल
हुए तब तुम्हें ये झूटे सिक्के दे देता है। तबतुम्हें इन के ऊपर हमेशा निर्भर रहना
पड़ता है। सच्ची सभ्यता तुम्हारे स्वभाव के विरोध में है, तुम्हारे बाल-पन,
तुम्हारे कंवारे-पन के विरोद्ध में है। सच्ची सभ्यता तुम्हारे कवांर-पन
के विरोद्ध में नही होगी, यह उसके खिलाफ खड़ी नही होगा। यह ऊंची
और ऊंची उठती चली जायेगी, ऊतंग आकाश में, परंतु इसकी जड़े तो आदिम निर्दोषिता में ही होंगी।
यह
सभ्यता तो तुम्हें मात्र पागल बनाने वाली है और कुछ भी नहीं। क्या तुम देख नहीं सकते
कि सारी पृथ्वी एक बड़ा पागलखाना बन गई है। लोगों ने अपनी आत्मा खो दी है, उन्होंने अपना
व्यकित्व खो दिया है, अपना सब कुछ खो दिया है। वे बस दिखावा बन
कर रहे गए है। उन्होंने अपने मुख पर परसोने चढ़ा लिए है, भुल गए
है लोग अपने मौलिक चहरो को। खो दिए है अपने असली चहरे।
मैं
कैसे सभ्याता के विरोध में हो सकता हूं, पूरी तरह से मैं उसके पक्ष में हूं।
परंतु जिसे तुम सभ्यता कहते हो, यह भी कोई सभ्यता है। इसलिए मैं
इसके विरोध में हूं। मैं चाहूंगा कि आदमी सच में ही सभ्य हो, सच में ही सुसंस्कृत हो, पर यह संस्कृति केवल विकसित
हो सकती है--इसे बाहर से लादा नही जा सकता। यह केवल भीतर से ही आ सकती है। यह परिधि
की ओर फैल सकती है, परंतु इसे उठाना तो केंद्र से ही होगा। यह
वहीं से उठ सकती है।
आपकी
यह सभ्यता तो उलटा ही काम कर रही है, यह चीजों को बाहर से लाद रही है। सारे
जगत में एक अहिंसक धर्मोपदेश--महावीर, बुद्ध, जीसस ये सब अहिंसा की शिक्षा देते है। वे अहिंसा की बात करते है, क्योंकि उन्होंने अहिंसा का आनंद लिया है। लेकिन उनके पीछे चलने वाले उनके
अनुयायी? उन्होंने तो कभी भी अहिंसा के किसी क्षण का आनंद नहीं
लिया है। वे तो मात्र एक हिंसा को ही जानते, उसी में वे जीए है,
परंतु वे अनुयायी है, इसलिए वे अहिंसक होने का
दिखावा करते है, वे एक अहिंसा अपने ऊपर लादते है, वे एक चरित्र का निर्माण करते है। जो चरित्र उनके चारों और दखिता है,
यह मात्र एक कवच है। जो ऊपर से पहन लिया है। भीतर गहरे में तो वे उबल
ही रहे होते है। विस्फोट होने के लिए अंदर तैयार है। ऊपर सतह पर वह एक झूठी मुस्कान
बिखरते रहते है। वह मुस्कान एक प्लास्टिक जैसी है जो उन्होंने चिपका रखी है।
यह
सभ्यता नहीं है। यह तो बड़ी कुरूप बात है। हां, मैं चाहूंगा कि अहिंसा भीतर से निकले,
उसकी सहायता की जाए, उसका बाहर से ही विकास न किया
जाए। यही तो शिक्षा शब्द का मूल अर्थ है। यह लगभग वैसे ही है जैसे कि कुएं से पानी
को बाहर निकालना: एजुकेशन का अर्थ होता है बाहर उलीचना, एजुकेशन
शब्द का यही अर्थ होता है। लेकिन शिक्षा क्या करती है? यह कभी
कोई चीज बाहर नही निकालती, बस भीतर बलपूर्वक डाले जाती है। यह
बच्चों के सर में चीजें जबरदस्ती उ़ंडेल ही जाती है, बच्चे की
तो कोई चिंता करता ही नहीं। बच्चो के तो विषय में यह शिक्षा कुछ सोचती ही नहीं। बस
जबरदस्ती उनका भला किये चली जाती है। उन्हें मात्र एक यंत्र बना दिया है, जिसमें अधिक से अधिक सूचनाएं भरी जा सके। यह तो कोई शिक्षा नहीं हुई।
बच्चे
की आत्म उसके संस्कार को बाहर लाना है, बच्चे में भीतर छिपा है उसे बाहर लाने
में सहयोग देना है। बच्चों को कोई ढांचा नहीं देना, उसकी सवतंत्रता
को अछूता रहने देना है, और उसकी अंतस कि चेतना का विकास करना
है। उसके विकास में सहभागीदार होना है। सूचनाओं की अधिकता कोई शिक्षा नहीं है। अधिक
जागरूकता शिक्षा है, अधिक प्रेम शिक्षा है। और शिक्षा ही सभ्यता
का निर्माण करती है।
यह
सभ्यता झूठी है,
इसकी शिक्षा झूठी है। यही कारण है कि मैं इसके विरोध में हूं। मैं इस
के विरोध में इसलिए हूं कि यह वास्तव में सभ्यता ही नहीं है।
चौथा
प्रश्न: ओशो,
मैं आपक चुटकुलों पर बहुत अधिक हंसता हूं। मैं एक प्रश्न पूछना चाहूंगा:
एक चुटकुले पर इतनी हंसी कैसे आती है?
पहली
बात, तुम्हें कभी हंसने ही नही दिया गया है, तुम्हारी हंसी
दमित है। यह एक दबे हुए स्प्रिंग की भांति है--कोई भी बहाना बस काफी है, उसे बाहर फैकने के लिए। तुम्हें दुखी रहना, लंबे चेहरे
रखना सिखाया गया है। और गंभीरता ने तुम्हें चारों और से घेर लिया है।
यदि
तुम गंभीर हो,
कोई नहीं सोचता कि तुम कोई गलत बात कर रहे हो; इसे स्वीकार कर लिया गया है। यहीं तो ढंग है, इसी तरह
से तो जीना चाहिए। परंतु अगर तुम हंस रहे हो, बहुत अधिक हंस रहे
हो, तब लोग तुम्हारे साथ रहना, कुछ अटपटा
सा महसुस करेंगे। वे सोचने लगते है कि कुछ तो गड़बड़ है। ‘यह आदमी
हंस क्यों रहा है?’ और यदि तुम बिना किसी कारण के हंस रहे हो,
तब तो तुम पागल करार कर दिए जाओगे। तुम्हें मनोचिकित्सक के पास ले जाया
जायेगा। तब तो वे तुम्हें जरूर अस्पताल में भर्ती करा ही देंगे। वे कहेंगे,
‘यह आदमी बिना कारण हंसता है! बिना कारण तो केवल पागल ही हंसते है।’
एक
बेहतर जगत में,
एक सभ्य जगत में, एक वास्तव में ही सभ्य संसार
में हंसी को स्वभाविक स्वीकार किया जाएगा। केवल जब कोई व्यक्ति दुखी होगा, तब हम उसे अस्पताल में भर्ती करेंगे।
दुख
रोग है, हंसी स्वास्थ्य है। अतः, क्योंकि तुम्हें हंसने नहीं
दिया गया, कोई भी छोटा सा बहाना...चुटकुले हंसने का बहाना बन
जाते है, तुम बिना पागल कहलाएं हंस सकते हो। तुम कह सकते हो,
‘चुटकुले के कारण...’ और चुटकुले में एक तरकीब
होती है यह तुम्हें खुलने में बहुत सहायता करता है। चुटकुले की कार्यविधि बड़ी जटिल
है, देखने में तो ये सीधा सा दिखता है, गहरे में बहुत ही जटिल होता है। चुटकुला कोई मजाक नहीं है। यह एक कठिन बात
है। थोड़े से शब्दों में, थोड़ी सी पंक्तियों में, यह सारे वातावरण में एक ऐसी बदलाहट ले आता है। होता क्या है?
जब
कोई चुटकुला तुम्हें सुनाया जाता है, एक तो तुम यह आशा करने लग जाते हो कि
हंसी आएगी ही। तुम इसके लिए तैयार हो जाते हो। शायद तुम ऊंध रहे हो, या सो रहे हो, परंतु चुटकुले के नाम पर सजग हो जाते हो।
तुम्हारी रीढ़ की हड्डी सीधी हो जाती है। तुम उसे बहुत ध्यान से सुनते हो, और अधिक जागरूक हो जाते हो। और फिर कहानी चलती भी ऐसे है कि तुममें और तनाव
अधिक तनाव उत्पन्न करती है। तुम निष्कर्ष जानना चाहते हो। चुटकुला एक तल पर चलता जाता
है, चुटकुले जैसी बात उसमें कुछ जान भी नही पड़ती, और फिर अचानक उसमें एक मोड़ आ जाता है। और यह अचानक आया मोड़ तुम्हारी स्प्रिंग
को छोड़ देता है। तुम तनाव से भरते जा रहे थे, प्रतीक्षा और प्रतीक्षा
किये जा रहे थे...और तुम्हें लग रहा था कि इसमें तो कुछ है ही नहीं। और अचानक तुम पाते
हो कि कुछ तो है! और यह इतने आकस्मिक ढंग से होता है, जैसे आकाश
फटा हो, कि तुम अपनी गंभीरता भूल जाते हो। उस आकस्मिकता में तुम
पुनः एक बच्चे हो जाते हो--और तुम हंस पड़ते हो। तुम्हारी दबी हुई हंसी ऊपर उभर आती
है।
चुटकुले
तो सिर्फ इतना बताते हैं कि यह समाज बिलकुल भूल ही गया है, कि हंसा कैसे
जाए। एक बेहतर संसार में जहां लोग अधिक हंसा करेंगे, हमें फिर
इन चुटकुलों की जरूरत नहीं रह जाएंगी। लोग आपको हंसते-खेलते ही चारों और मिलेंगे। लोग
आनंदित होंगे। क्यों? हर पल हंसी का पल होगा। और अगर तुम जीवन
को पुर्णता से देखते हो तो यह एक चुटकला ही तो है। परंतु तुम्हें देखने नही दिया जाता।
तुम्हारी आंखों पर पट्टीे बांध रखी है, बस तुम उतना ही देखे सकते
हो। जितना तुम्हें दिखाया गया है। तुम्हें इसकी हास्यास्पदता नहीं देखने दी जाती--यह
हास्यास्पद है।
बच्चे
इसको अधिक आसानी से देख पाते हैं। यही कारण है कि बच्चे अधिक सरलता से और अधिक आसानी
से देख पाते हैं,
यही कारण है कि बच्चे अधिक सरलता से और आसानी से हंस पाते है। और उनकी
ये हंसी उनका व्यवहार माता-पिता में एक व्याकुलता पैदा कर देता है। क्योंकि वे यह सब
बकवास हो रही है उसे देख पाते है। क्योंकि उनकी आंखों पर अभी पट्टी नहीं बंधी है। पिता
बच्चे से कहता है, तुम सदा सच बोलो, सचे
बनो। और फिर कुछ देर में कोई द्वार खटखटाता है, और फिर पुछता
है तुम्हारे पिता घर पर है। पिता कहता है कि, ‘जाओ और उसे कह
दो की पिता घर पर नहीं है।’ तब बच्चा पिता को देखता है,
और अंदर से हंसता है। उसे विश्वास नहीं होता कि यह क्या हो रहा है?
यह हास्यास्पद है! और बच्चा द्वार खटखटाने वाले महानुभाव को जाकर कहता
है, ‘पिताजी कह रहे है कि वह घर पर नहीं है।’ वह इसमें से पूरा रस खींच लेता है। वह इसका पूरा आनंद लेता है।
हम
आंखों पर बंधी पट्टी के साथ जीते है। हमारा विकास इस ढंग से किया गया है कि हम जीवन
की हास्यास्पदता को नहीं देख पाते है, वर्ना यह तो हास्यास्पद है। यही कारण
है कि कभी-कभी बिना चुटकुले के भी, किसी छोटी सी बात में...उदाहरण
के लिए: फोड फिसल कर जमीन पर गिर पड़ा। वे सब लोग जो आस पास खड़े थे बहुत जोर से हंसे।
उन्होंने शायद इसका प्रदर्शन न भी किया हो, पर हंसी उन्हें बहुत
जोर की आई।
जरा
सोचो: यदि कोई भिखारी केले के छिलके पर फिसल जाए, तो कोई भी इस बात की परवाह नही
करेगा। परंतु यदि किसी देश का राष्ट्रपति केले के छिलके पर फिसल जाए, सारी दुनिया हंसेगी। क्यों? क्योंकि केले के छिलके ने
सही काम किय। केले के उस छिलके ने दिखा दिया की आप भी उतने ही इंसान हो जितना कि एक
भिखारी। और केले का छिलका कोई अंतर भी नहीं करता, भिखारी और राष्ट्रपति
में। भिखारी आए, राष्ट्रपति आए, प्रधानमंत्री
आए केले के छिलके स्वभाव में कोई अंतर नहीं आता। केले का छिलका तो बस केले का छिलका
ही है, वह किसी की परवाह नहीं करता।
यदि
कोई साधारण व्यक्ति गिर जाये तो थोड़ी सी हंसी आयेगी ज्यादा नही, क्योंकि वह
एक साधरण व्यक्ति है। उसने कभी भी यह सिद्ध करने की कोशिश नहीं कि की वह एक विशेष आदमी
है। इस लिए ज्यादा हंसी की कोई बात नहीं है। लेकिन यदि कोई राष्ट्रपति केले के छिलके
पर फिसल जाए, अचानक इसकी हास्यास्पदता, इसकी सचाई कि ये सज्जन सोच रहे थे कि यह दूनिया की छत पर हैं--किसे आप मूर्ख
बनाने की चेष्टा कर रहे हो? एक केले का छिलका तो मूर्ख बनाया
नहीं जा सकता। और अचानक तुम हंस पड़ते हो।
गौर
से देखो--जब कभी भी तुम हंसते हो, जीवन की हास्यास्पदता तुम्हारी आंखों पर बंधे बंधन
में से प्रवेश कर जाती है। तुम पुनः एक बालक बन जाते हो। चुटकुले तुम्हारा बचपन तुम्हारी
निर्दोषिता वापस लोटा लाते है। कुछ क्षण के लिए तुम्हारी आंख पर बंधी हुई धारणा की
पट्टी खिसक जाती है, इस में चुटकुले सहयोग देते है।
अब
कुछ चुटकुले:
एक
स्थानिय व्यक्ति असामान्य परिस्थियों में मृत पाया गया था। मृत्योन्वेषक अधिकारी ने
मृत्यु की जांच के लिए एक समिति बनाई और उस औरत को, जिसके बिस्तर पर उस व्यक्ति
ने दम तोड़ा था, गवाही देने के लिए बुलाया गया। फोरमैन न उसे आश्वासन
दिया कि वहां उपस्थित सभी व्यक्ति एक दूसरे को जानते थे और यह कि उसे अपने शब्दों में
बता देना चाहिए कि क्या हुआ था?
स्त्री
ने बताया कि वह और वह व्यक्ति, अब मृतक, एक स्थानिय शराबघर
में मिले थे, और जब शराबघर का समय समाप्त हुआ तो वे दोनों एक
और पैग पीने के लिए उस स्त्री के घर चले गये थे। बात से बात बढ़ी और दोनों बिस्तर पर
पहुंच गए थे। अचानक उसने उस व्यक्ति की आंखों में एक विचित्र सा भाव देखा जिसका कि
उसने मृत्योन्वेषक समिति को इन शब्दों में वर्णन किया: ‘आ रहा
है, मैंने सोचा, परंतु वह तो जा रहा था।’
दूसरा
चुटकुला:
एक
बूढ़े पादरी को,
जिसे एक होटल में रात बितानी पड़ रही थी। एक ऐसा कमरा दिया गया जिसमें
तीन एकल बिस्तर लगे हुए थे। जिसमें से दो पहले ही भरे हुए थे। बत्ती बुझने के साथ ही
उनमें से एक इतने जोर से खर्राटे लेने लगा कि पादरी सो ही न सका। और जैसे-जैसे रात
गहराने लगी, शोर भी बढ़ता गया और अधिक भयंकर होता चला गया। अर्द्धरात्रि
के लगभग दो-तीन घंटों के उपरांत खर्राटे लेने वाले ने बिस्तर पर करवट ली, एक डरावनी कराह उसके मुंख से निकली और फिर मौन हो गया।
पादरी
तो सोच रहा था कि तीसरे सज्जन सोये हुए हैं पर इसी समय उसने उन्हें खुशी से चिल्लाते
सुना, ‘वह मर गया, धन्यवाद, हे ईश्वर तेरा
वह मर गया।’
और
अंतिम:
बड़ा
कीमती है--इसके ऊपर ध्यान करो:
एक
दिन जब जीसस एक गांव से होकर गुजर रहे है, उन्हें एक क्रुद्ध भीड़ दिखाई दी। जिसने
एक स्त्री को एक दीवार के साथ खड़ा कर रखा था और अब पत्थर मारने की तैयारी कर रहे थे।
अपना
हाथ ऊपर उठा कर जीसस ने भीड़ को शांत किया और तब गुरुतापूर्वक बोले: ‘अब जो पाप रहित
है, पहला पत्थर उसे ही फेंकने दो।’
तुरंत
एक छोटे कद की बूढ़ी स्त्री ने एक बड़ा सा पत्थर उठाया और उस स्त्री की और फेंका। ‘मां’
दांत भींचते हुए जीसस ने कहा, तुम मुझे खिझाती
हो।’
और
अंतिम प्रश्न:
ओशो, यह स्पष्ट
है कि आपको गैरिक रंग से प्रेम है--लेकिन फिर आप स्वयं गैरिक क्यों नहीं पहनते?
मुझे
और गैरिक रंग से प्रेम?
ईश्वर न करे! मैं तो इससे सख्त नफरत करता हूं। यही कारण है कि मेंने
तुम्हें इसे पहनने को मजबूर कर रखा है। यह तो तुम्हारे लिए एक प्रकार का दंड है,
तभी तक, जब तक कि संबुद्ध न हो ही जाते।
आज
इतना ही
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