तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(सरहा के राजगीत) (भाग-एक)
तीसरा
प्रवचन—(मधु तुम्हारा है)
(दिनांक
23 अप्रैल 1977 ओशो आश्रम पूना।)
एक
मेध की तरह,
जो उठता है समुंद्र से
अपने
भीतर समाएं वर्षा को,
करती
हो आलिंगन घरती जिसका,
वैसे
ही, आकाश की भांति
समुंद्र
भी उतना ही रहता है,
न
बढ़ता,
न घटता है।
अतः, उस स्वच्छंदता
से जो कि है अद्वितीय
बुद्ध
की पूर्णमाओं से भरपूर
जन्मती
हैं चेतनाएं सभी
और
आती है विश्राम हेतु वहीं
पर
यह साकार है न निराकार है
वे
करते हैं विचरण अन्य मार्गों पर
और
गंवा बैठते हैं सच्चे आनंद को
उद्धीपक
जो निर्मित करते है,
खोज में उन सुखों की
मधु
है उसके मुख में,
इतना समीप...
पर
हो जाएंगा अदृश्य,
यदि तुरंत ही न करले वे उसका पान
पशु
नहीं समझ पाते कि संसार है दुख,
पर
समझते हैं वे विद्वान तो
जो
पीते हैं इस स्वर्मिक अमृत को
जबकि
पशु भटकते फिरते हैं
एंद्रिंक
सुखों के लिए
हर चीज बदलती है...और हेराक्लेतु सही कहता है: ‘तुम एक नदी में दोबारा कदम नहीं रख सकते।’
नदी बदल रही है, और तुम भी बदल रहे हो। सब कुछ,
गतिशील है। सब कुछ प्रवाह है। हर चीज अस्थाई है, क्षणिक है। एक क्षण के लिए यह होती है और फिर गई...और फिर उसे तुम कभी नहीं
पकड़ पाओगे। उसे फिर से पाने का कोई उपाय नहीं है। एक बार वह गई तो सदा के लिए गयी।
और
कुछ भी नहीं बदलता--यह भी सत्य है। कुछ भी कभी भी नहीं बदलता। सब कुछ सदा वही रहता
है। पारमेन्डीस भी अपनी जगह सही है, वह कहता है: ‘सूरज के नीचे कुछ भी नया नहीं है।’ हो कैसे सकता है?
सूरज प्राचीन है, इसी भांति हर चीज प्राचीन है।
यदि तुम पारमेन्डीस से पूछो, यह कहेगा कि तुम चाहे जिस नदी में
कदम रखो--लेकिन तुम सदा एक ही नदी में कदम रख रहे होगे। यह गंगा है या थेम्स,
इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। पानी वही है। यह बस एच. टू. ओ. है। और नदी
में कदम तुम आज रखते हो, या कल रखते हो या फिर लाखों वर्ष के
बाद, वह नदी तो वही होगी। और तुम कैसे भिन्न हो सकते हो?
तुम बच्चे थे, तुम्हें यह स्मरण है। फिर तुम युवा
हुए, यह भी तुम्हें स्मरण है। फिर तुम वृद्ध हो गए, यह भी तुम्हें याद है। यह कौन है जो स्मरण किएं चला जाता है? तुम्हारे भीतर कोई न बदलने वाला तत्व होना चाहिए--अपरिर्वतनशील, स्थाई, पूर्णतः स्थाई। बचपन आता है और जाता है,
ऐसे ही जवानी आती है और जाती है, ऐसे ही बुढ़ापा।
परंतु कोई चीज शाश्वत रूप से बहती रहती है।
अब, मैं तुमसे
कह दूं: हेराक्लेतु और पारमेन्डीस दोनों ही सही हैं--सच तो यह है कि वे दोनों साथ-साथ
सही हैं। यदि हेराक्लेतु सही है, यह आधा ही सत्य है, यदि पारमेन्डीस सही है, यह भी आधा ही सत्य है। पहिया
तो घूमता है पर कीली नहीं घूमती। पारमेन्डीस कीली के विषय में बात कह रहा है। हेराक्लेतु
पहिएं के विषय में बात कहता है--लेकिन बिना कीली के तो पहियां हो ही नहीं सकता और बिना
पहिएं के कीली किस काम की है? इसलिए ये विरोधाभासी दिखायी देते
अर्द्धसत्य विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं। हेराक्लेतु और पारमेन्डीस
शत्रु नहीं मित्र हैं। दूसरा केवल तभी खड़ा रह सकता है, यदि पूरक
सत्य भी वहां हो--वर्ना नहीं।
तुफान
के मौन केंद्र पर ध्यान दो...
परंतु
जिस क्षण भी तुम कुछ कहते हो, यह अधिक से अधिक एक अर्द्धसत्य ही हो सकता है। कोई
भी वक्तव्य सम्पूर्ण सत्य नही हो सकता। यदि कोई वक्तव्य सम्पूर्ण सत्य को समाहित करना
चाहे, तब तो आवश्यक है कि वह वक्तव्य स्वयं-विरोधी हो,
तब तो इसे आवश्यकतः अतकर्य ही होना पड़ेगा। तब तो वह वक्तव्य पागल दिखेगा।
महावीर ने यही किया--वह सर्वाधिक झक्की व्यक्ति हैं, क्योंकि उन्होने
सम्पूर्ण सत्य को, और
कुछ नहीं बल्कि केवल सम्पूर्ण सत्य, कहने कि चेष्टा की।
वह तुम्हें पागल बना देते हैं, क्योंकि हर वक्तव्य के ठीक पीछे
उसका विरोधी वक्तव्य होता है। उन्होंने वक्तव्यों की सपतपदी का विकास किया। एक वक्तव्य
के पीछे उसका विरोधी वक्तव्य आता है, उसके पीछे उसका विरोधी वक्तव्य...और
ऐसा ही चलता रहता है? वह विरोध करते जाते हैं, सात बार, सात भिन्न बातें एक दूसरे का विरोध करते हुएं,
तब वह कहते है कि अब सत्य को पूर्णतः कह दिया गया--पर तब तुम नहीं जानते
कि उन्होंने कहा क्या।
यदि
तुम उनसे पूछो: ‘ईश्वर है?’ वे कहेंगे, ‘हां’
और वह कहेंगे, ‘नहीं’ और
फिर वे कहेंगे, ‘दोनों’ उसके बाद कहेंगे,
‘दोनों नहीं’ और इसी भांति वह कहते जाएंगे...अततः
तुम किसी निर्णय पर नहीं पहुंचते, तुम कोई निर्णय नहीं ले सकते।
वह तुम्हे निर्णय लेने का कोई अवसर ही प्रदान नही करते। वह तुम्हें हवा में लटकता छोड़
देते हैं।
यह
एक संभावना है यदि तुम सत्य ही कहने पर जोर दो।
दूसरी
संभावना बुद्ध की है--वह मौन रहते हैं यह जानकर कि जो भी तुम कहोगे वह केवल आधा ही
होगा। और आधा खतरनाक है। वह आत्यंतिक सत्यों के विषय में कुछ नहीं कहते। न तो वह कहेंगे
कि संसार एक प्रवाह है और न वह कहेंगे कि संसार स्थाई है। न तो वह कहेंगे कि तुम हो
और न वह कहेंगे कि तुम नहीं हो। जिस क्षण तुम उनसे पूर्ण सत्य के विषय में कुछ पूछते
हो, वह मना कर देते हैं। वह कहते हैं: ‘कृपया पूछो मत क्योंकि
अपने प्रश्न से तुम मेरे लिए समस्या खड़ी कर रहे दोगे। या तो मुझे विरोधाभासी होना पड़ेगा,
जो कि पागलपन जैसा है; या मुझे अर्द्धसत्य कहना
पड़ेगा जो कि सत्य नहीं है, वह खतरनाक है, या फिर मुझे मौन रहना पड़ेगा।’ ये तीन संभावनाएं हैं:
बुद्ध ने मौन रहना चूना।
आज
के सूत्रों में यह पहली बात बात समझ लेने की है, फिर इस संदर्भ में सरहा जो कह
रहा है उसे समझना सरल होगा।
एक
मेध की तरह,
जो उठता है समुंद्र से
अपने
भीतर समाएं वर्षा को,
करती
हो आलिंगन घरती जिसका,
वैसे
ही, आकाश की भांति
समुंद्र
भी उतना ही रहता है,
न
बढ़ता,
न घटता है।
वह
राजा से कह रहा है: आकाश की और देखो। ये दो बातें हैं--आकाश और बादल। बादल आता है और
जाता है। आकाश न कभी आता है न कभी जाता है। बादल कभी होते हैं, कभी नहीं होते
हैं--यह एक सामयिक घटना है,यह क्षणिक है। आकाश सदा से है--यह
कालहीन घटना है, यह शाश्वतता है। बादल इसको दूषित नही कर सकते,
काले बादल भी इसे दूषित नहीं कर सकते। इसे दूषित करने की कोई संभावना
ही नहीं है। इसकी शुद्धता पूर्ण है, इसकी शुद्धता अस्पर्शीय है।
इसकी शुद्धता सदा कवांरी है--उसका तुम उल्लंघन नहीं कर सकते। बादल आ-जा सकते हैं,
और वे आते-जाते रहे हैं। परंतु आकाश उतना ही शुद्ध है जितना कि यह सदा
था, कोई चिंह भी पीछे नहीं छूटता।
अतः
अस्तित्व में दो चीजें हैं: कुछ तो आकाश जैसा है, और कुछ बादल जैसा है। तुम्हारे
कृत्य बादल जैसे हैं--वे आते हैं और जाते हैं। तुम?--तुम आकाश
जैसे हो, तुम न कभी आते हो और न कभी जाते हो। तुम्हारा जीवन,
तुम्हारी मृत्यु बादल जैसे हैं--वे घटते हैं। तुम?--तुम कभी नहीं घटते; तुम तो सदा हो।
चीजें तुममें घटती हैं, तुम कभी नहीं
घटते।
चीजें
वैसे ही घटती है,
जैसे बादल आकाश में घटता हैं। तुम बादलों के इस समस्त खेल के एक मौन
साक्षी हो। कभी वे श्वेत और सुंदर होते हैं, कभी वे काले,
शोकाकुल और कुरूप होते है; कभी वे जल से भरे होते
हैं और कभी वे मात्र रिक्त होते हैं। कभी वे पृथ्वी को बड़ा लाभ पहुंचाते हैं,
कभी बड़ी हानि। कभी वे बाढ़ लाते हैं, कभी विनाश
लाते है। कभी वे जीवन लाते हैं, अधिक हरियाली, अधिक फसले लाते हैं। लेकिन आकाश सदा वह रहता है--अच्छा या बुरा, दिव्य या शैतान, बादल उसे दूषित नही करते।
कृत्य
बादल हैं, कर्म बादल है: होना आकाश की भांति है।
सरहा
कहा रहा है: ‘मेरे आकाश की और देखो! मेरे कृत्यों को मत देखो। जागरुकता के स्थानांतरण की
आवश्यकता है--और कुछ नहीं, बस जागरुकता का एक स्थानांतरण। परिपेक्ष्य
का परिवर्तन चाहिए। तुम बादल को देख रहे हो, तुम बादल पर केंद्रित
हो, तुम आकाश को भूल गए
हो। फिर अचानक तुम्हें आकाश याद आ जाता है। तुम बादल से अपनी दृष्टी हटाते हो,
तुम आकाश पर दृष्टि केंद्रित करते हो--तब बादल असंगत हो जाता है। उस
समय तुम एक बिलकुल ही भिन्न आयाम में होते हो। बस दृष्टिकेंद्र का बदलना...और संसार
भिन्न हो जाता है।
जब
तुम किसी व्यक्ति के व्यवहार को देखते हो, तुम बादल पर दृष्टि जमा रहे हो। जब
तुम उसके अस्तित्च की अंतरतम शुद्धता को देखते हो, तुम उसके आकाश
को देख रहे होते हो। यदि तुम अंतरतम शुद्धता को देखो, तब तुम
किसी को बुरा न देखोगे, तब समस्त अस्तित्व पवित्र है। यदि तुम
कृत्यों को देखते हो, तब तुम किसी को पवित्र न देख सकोगे। पवित्रतम
व्यक्ति भी, जहां तक कृत्यों का संबंध है, बहुत सी भूले कर सकता है। यदि तुम कृत्यों को ही देखो, तब तुम जीसस में, बुद्ध में, महावीर
में, कृष्ण में, राम में भी गलत कृत्य देख
सकते हो--तब महानतम संत भी पापी जैसा ही दिखाई देगा।
जीसस
के बारे में बहुत सी किताबें लिखी गई हैं। वह हजारों अध्ययनों की विषयवस्तु हैं, बहुत से उनके
पक्ष में लिखे गये हैं जो कि साबित करते हैं कि वह ईश्वर के इकलौते प्यारे पूत्र हैं।
और वे यह साबित भी कर सकते हैं। फिर बहुत से ये साबित करने के लिए, लिखते पाए गए है कि मात्र वह एक सनकी है। और कुछ नहीं! और वे भी इसे साबित
कर सकते हैं। और वे एक ही व्यक्ति के बारे में बात कर रहे हैं। यह क्या हो रहा है।
कैसे वे इसकी व्यवस्था करते हैं? वे मजे में ऐसा कर लेते हैं।
एक पक्ष सफेद बादलों को चुनता चला जाता है। दूसरा पक्ष काले बादलों को चुनता रहता है।
दोनों वहीं हैं, क्योंकि कोई भी कृत्य न तो केवल सफेद हो सकता
है और न काला। होने के लिए, इसे दोनों ही होना होगा।
तुम जो भी करोगे वह संसार में कुछ अच्छाई लाएगा और
कुछ बुराई भी लाएगा--चाहे तुम कुछ भी करो। यह चुनाव ही कि तुमने कुछ किया--बहुत सी
बातें अच्छी होंगी और पीछे-पीछे बहुत सी बातें खराब भी होंगी। तुम कोई भी कृत्य सोच
लो: तुम जाते हो और एक भिखारी को कुछ धन दे देते हो--तुम तो अच्छा कर रहे हो; लेकिन वह भिखारी
जाकर उस धन से जहर खरीद लेता है। और आत्म हत्या कर लेता है--अब! तुम्हारी अभिलाषा तो
अच्छी थी लेकिन कुल परिणाम बुरा निकला। तुम एक व्यक्ति की मदद करते हो--वह बीमार है,
तुम उसकी सेवा करते हो, तुम उसे अस्पताल ले जाते
हो। और फिर वह स्वस्थ हो जाता है, अच्छा हो जाता है, उसके बाद वह किसी की हत्या कर देता है। अब, यदि तुम मदद
न किए होते, संसार में एक हत्या कम हुई होती। तुम्हारी अभिलाषा
तो शुभ थी पर कुल परिणाम बुरा ही हुआ।
अतः
निर्णय अभिलाषा के आधार पर लिया जाए या परिणाम के आधार पर? और तुम्हारी
अभिलाषा जातना कौन है? अभिलाषा तो आंतरिक है...शायद भीतर गहरे
में तुम यही आशा कर रहे थे, कि जब वह स्वस्थ हो जाए तो एक हत्या
कर दे। और कभी-कभी ऐसा भी होता है कि: तुम्हारी अभिलाषा तो बुरी होती है, परंतु उसका परिणाम अच्छा हो जाता है। तुम एक व्यक्ति के ऊपर पत्थर फेंकते हो,
और वह सिरर्दद, माइग्रेन, से वर्षो से पीड़ित था, और पत्थर उसके सिर पर लगा और तब
से उसका माइग्रेन चला गया--अब क्या किया जाए। तुम्हारे कृत्य को क्या कहा जाए?
नैतिक या अनैतिक? तुम तो उस व्यक्ति को मारना चाहते
थे, परंतु तुमने तो उसके माइग्रेन को ही मार डाला। इसी तरह तो
एक्यूपंक्चर का जन्म हुआ। इतना महान विज्ञान! इतनी लाभकारी! मनुष्यता को मिले महानतम
वरदानों में से एक...परंतु उसका जन्म इसी भांति हुआ था।
एक
व्यक्ति वर्षों से सिरर्दद से पीड़ित था, और किसी ने, उसके
शत्रु ने उसे मार देना चाहा। एक वृक्ष के पीछे छिपकर शत्रु ने तीर चलाया। तीर उस व्यक्ति
की टांग में लगा, वह नीचे गिर पड़ा--पर उसका सिरर्दद गायब हो गया।
वे लोग जो उसकी देखभाल कर रहे थे, नगर का चिकित्सक, सब बड़े हैरान हुए कि यह बात कैसे हो गई। उन्होंने इसका अध्यन करना आरंभ किया।
संयोग-वशात, दैवयोग से उस शत्रु ने टांग पर किसी ऐसे बिंदू को
छू दिया था, तीर ने किसी बिंदू छेद दिया था, जिससे उस व्यक्ति की शरीर-ऊर्जा का आंतरिक विद्धुत प्रवाह बदल गया था। और चूंकि
विद्धुत का आंतरिक प्रवाह परिवर्तित हो जाने के कारण, उस व्यक्ति
का सिर र्दद गायब हो गया।
यही
कारण है कि यदि तुम किसी एक्यूपंचर चिकित्सक के पास जाओ और उससे कहो, ‘मेरे सिर
में दर्द है’, वह तुम्हारे सिर को शायद छुए भी नही। वह तुम्हारा
पैर या हाथ दबाना शुरु कर सकता है, या वह तुम्हारे हाथ में या
तुम्हारी पीठ में सुई चुभो सकता है। और तुम हैरान होओगे, ‘तुम
क्या कर रहे हो? दर्द तो मेरे सिर में है, पीठ में नहीं।’ परंतु वह बेहतर जानता है। हमारा समस्त
शरीर एक अंतर्संबंधित विद्धुत परिक्रम है। उसमें सात सौ बिंदू हैं, और वह जानता है कि प्रवाह को परिवर्तित करने के लिए ऊर्जा को कहां धक्का दिया
जाए। सब कुछ आपस में जुड़ा है...पर इस तरह से एक्युपंक्चर का जन्म हुआ था।
अब
वह आदमी, जिसने अपने शत्रु पर तीर चलाया था, क्या वह एक महान संत
था? या कि वह एक पापी था? कहना कठिन है,
यह कह पाना बहुत ही कठिन होगा। यदि तुम कृत्यों को देखो, तब यह तुम पर निर्भर है। तुम अच्छे कृत्य चुन सकते हो, तुम बुरे कृत्य चून सके हो। और सम्पूर्ण वास्विकता में प्रत्येक कृत्य कुछ
भलाई लाता है, और कुछ बुराई भी लाता है। सच तो यह है कि--यही
मेरी समझ है, इस पर ध्यान करो। तुम जो कुछ भी करो, इसकी अच्छाई और बुराई समान अनुपात में होते हैं। मैं इसे फिर से दोहरा दूं:
यह सदा समान अनुपात में है! क्योंकि शुभ और अशुभ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तुम
शुभ कर सकते हो परंतु अशुभ होना ही है, क्योंकि दूसरा पहलु कहां
जाएगा? सिक्के को अस्तित्व अपने दोनों ही पहलुओं के साथ है,
और कोई एक पहलू अकेला नहीं हो सकता।
अतः
पापी भी कभी लाभदायक होते है, और संत भी कभी बड़े हानिकारक हो सकते हैं। संत और
पापी एक ही नाव में सवार हैं। एक बार यह बात तुम्हारी समझ में आ जाए, तब परिवर्तन संभव है, तब तुम कृत्यों की और नहीं देखते।
यदि तुम अच्छा करो या बुरा और अनुपात यदि समान ही हो तब किसी व्यक्ति का मूल्यांकन
उसके कृत्यों से करने का क्या अर्थ है? फिर तो सारी बात ही बदल
डालो। फिर दूसरे परिपेक्ष्य में प्रवेश कर जाओ--आकाश में।
यही
तो सरहा राजा से कह रहा है। वह कह रहा है। हे राजन, तुम सही हो! लोगों ने तुमसे
जो कहा और वे गलत भी नहीं कह रहे हैं। मैं एक पागल कुत्ते की भांति दौड़ता फिरता हूं,
नांचता फिरता हूं। हां, यदि तुम केवल कृत्यों को
देखो, तुम भटक जाओगे, तुम मुझे समझ न सकोगे।
मेरे भीतरी आकाश को देखो। मेरी भीतरी पूर्वगामिता को देखो, मेरे
आंतरिक केंद्र को देखो--सत्य को देखने की मात्र यही विधि है। हां, मैं एक स्त्री के साथ रहता हूं--और साधारणतः किसी स्त्री के साथ रहने का यही
अर्थ होता है, जो होता है। अब, सरहा कहता
है: ‘देखो! यह साधारण रहना नहीं है! यह स्त्री पुरुष के संबंध
जैसा कुछ भी नहीं है। इसका कामुकता से कोई लेना-देना नहीं है। हम दो आकाशों की भांति
रहते हैं। हम दो स्वतंत्रताओं की भांति जीते हैं। हम दो खाली नौकाओं की तरह साथ-साथ
रहते है। परंतु फिर तुम्हें आकाश में देखना होगा, बादलों में
नहीं।
एक
मेध की तरह,
जो उठता है समुंद्र से
अपने
भीतर समाएं वर्षा को,
करती
हो आलिंगन घरती जिसका,
वैसे
ही, आकाश की भांति
समुंद्र
भी उतना ही रहता है,
न
बढ़ता,
न घटता है।
और
एक और बात का वह उसे स्मरण दिलाता है: समुद्र को देखो। लाखों बादल समुंद्र से उठते
हैं, इतना जल वाष्पीभूत होता है, परंतु इस कारण समुंद्र तो
कम नहीं होता। और फिर बादल, धरती पर बरसेंगे, नाले बढ़कर बड़ी नदियां बन जाऐगे, बहुत सी नदियों में बाढ़
आएगी, और जल वापस सागर की और, समुंद्र की
और दौड़ पड़ेगा...संसार की सभी नदियां अपना जल समुंद्र में उड़ेल देंगी, परंतु उससे समुंद्र बढ़ता तो नहीं, समुंद्र उतना का उतना
ही रहता है, इसमें से कोई चीज निकाल ली जाए, या उसमें कोई चीज जोड़ दी जाए, उससे कोई अंतर नहीं पड़ता-इसकी
पूर्णता ऐसी है कि न तो तुम उसमें से कुछ घटा सकते हो, और न उसमें
कुछ जोड़ ही सकते हो।
वह
कहा रहा है: देखो! आंतरिक अस्तित्व इतना पूर्ण है कि तुम्हारे कृत्य एक पापी के ही
क्यों न हो, उसमें से कुछ कम नहीं होता। और चाहे तुम्हारे कृत्य किसी संत के हो,
उसमें कुछ जुड़ता नहीं। तुम वही के वही रहते हो।....
यह
एक बड़ा ही क्रांतिकारी कथन है। यह एक महान वक्तव्य है। वह कहता है: मनुष्य में कुछ
जोड़ा नहीं जा सकता कुछ घटाया नहीं जा सकता--उसकी आंतरिक पूर्णता ऐसी है। मनुष्य को
तुम अधिक सुंदर नहीं बना सकते, और न ही उसे कुरूप बना सकते हो, नहीं तुम उसे निर्धन बना सकते हो। वह समुंद्र की भांति है।
बौद्ध
सूत्रों में से एक,
वहुमुल्य सूत्र, जिसमें एक व्यक्तव्य है कि सागर
में दो बहुत मूल्यवान रत्न हैं--एक उसे कम होने से रोकता है जब सागर में निकाला जाता
है, और दूसरा उसे अधिक बढ़ने से रोकता है, जब जल उसमें डाला जाता है।
दो
बड़े रत्न सागर में हैं और वे दो बड़े रत्न सागर को बढ़ने या घटने से रोकते हैं, यह न कभी घटता
है और न कभी बढ़ता है--यह बस उतना का उतना ही बना रहता है। यह इतना विशाल है,
कि इससे कोई अंतर ही नहीं पड़ता कि कितने बादल इसमें से उठते है,
और कितना जल वाष्पीभूत हो जाता है। यह इतना विशाल है कि इसमें कोई अंतर
ही नहीं पड़ता कि कितनी नदियां इसमें आकार मिलती है, और कितना
सारा जल इसमें उड़ेल देती है, परंतु सागर तो उतना का उतना ही सदा
बना रहता है, ऐसा ही मनुष्य का अंतर केंद्र है, ऐसा ही असित्व का अंतर केंद्र है, बढ़ना और घटना परिधि
पर है, कोई भी जानकारी तुम्हें उससे अधिक जान कर नहीं बना सकती
जितना कि तु पहले से ही हो। तुममें कुछ जोड़ा नहीं जा सकता। तुम्हारी शुद्धता अनंत है,
उसमें और सुधार लाने का कोई उपाय नहीं है।
यही
तंत्र की दृष्टि है। तंत्र के दृष्टिकोण का यही अंतर्केंद्र है, कि मनुष्य
जैसा है वैसा ही है। सुधार की कोई लालसा नहीं है, ऐसा नहीं कि
मनुष्य को शुभ होना है, ऐसा नहीं कि मनुष्य को यह बदलना है,
वह बदलना है। मनुष्य को सब कुछ स्वीकार करना है--और अपने आकाश को स्मरण
रखना है, अपने समुद्र को स्मरण रखना है। तब, धीरे-धीरे एक समझ उठती है, जब तुम जान लेते हो कि बादल
क्या है, और आकाश क्या है और समुंद्र क्या है।
एक
बार तुम अपने समुंद्र के साथ लयवद्ध हो जाते हो सब चिंता मिट जाती है, सब अपराध विलीन
हो जाता है। तुम एक बच्चे की भांति निर्दोष हो जाते हो।
राजा
सरहा को जानता था: वह बड़ा ज्ञानी और प्रज्ञावान था। परंतु इस समय वह एक अज्ञानी
व्यक्ति की भांति व्यवाहार कर रहा है। उसने वेदों का पाठ करना बंद कर दिया है। वह अब
अपने धर्म द्वारा बताएं गए कर्मकांड नहीं करता, अब वह ध्यान तक नहीं करता। वह कुछ भी
ऐसा करना जिसे सामान्यतः धर्म माना जाता है। यहां श्मशान भूमि में रहकर वह क्या कर
रहा है? एक पागल की भांति नृत्य करता है, एक पागल की भांति गीत गाता है। और बहुत सी अपारंपरिक बातें करता? उसका ज्ञान कहां चला गया है?
और
सरहा कहता है: तुम मेरा सारा ज्ञान ले सकते हो। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि इसके
जाने से में कुछ कम नहीं होता। अथवा संसार के सभी धर्मग्रंथ ला सकते हो और उन्हें मेरे
भीतर उड़ेल सकते हो--उससे भी कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि उसके कारण में कुछ अधिक नही
हो जाता।
राजा
एक सम्मानि व्यक्ति था। सारा राज्य उसका सम्मान करता था। अब अचानक वह सर्वाधिक असम्मानित
व्यक्तियों में से एक हो गया है। और सरहा कह रहा है: तुम मुझे सब संभव सम्मान दे सकते
हो, तब भी मुझमें कुछ नहीं जुड़ता। और तुम सारे सम्मान छीन ले सकते हो, और तुम मेरा अपमान कर सकते हो, मेरा सम्मान नष्ट करने
के लिए तुम जो चाहो कर सकते हो--कुछ नही होता। बल्कि मैं वही का वही रहता हूं। मैं
वह हूं जो न कभी बढ़ता है और न घटता है। अब मैं जानता हूं ,कि
मैं बादल नहीं हूं, मैं एक आकाश हूं।
इसलिए
मुझे इसकी चिंता नहीं है कि लोग बादल को काला सोचते है या सफेद, क्योंकि मैं
बादल नहीं हूं। और कोई छोटी सी नदी नहीं हूं, छोटी सी कोई नदिया
या जल का कोई छोट सा तालाब--मैं चाय का कप नहीं हूं। चाय के कप में बड़ी सरतला से तुफान
आ सकता है, या एक चमच भर उसमें से निकाल लो तो उसमें से कम हो
जाता है। या एक चम्मच भर उसमें डाल दो और उसमें बहुत कुछ बढ़ जाता है। और उसमें बाढ़
आ जाती है।
वह
कहता है: मैं विशाल समुंद्र हूं। अब इसमें से जो चाहो निकाल लो, या जो ड़ालना
चाहो, इसमें ड़ाल दो--किसी भी तरह से कोई अंतर नहीं पड़ता।
जरा
इसके सौंदर्य को देखो। किसी क्षण भी किसी बात से अब कोई अंतर न पड़े, तो तुम घर
आ गए। यदि किसी बात से अभी भी अंतर पड़ता हो, तुम घर से बहुत दूर
हो। यदि तुम अभी भी देख रहे हो, और कृत्य के विषय में चतुर और
चालाक बन रहे हो--तुम्हें यह करना है, और तुम्हें यह नहीं करना
है। और अभी भी यह करना चाहिए और वह नहीं करना चाहिए जैसे बातें हों, तब अभी घर तुमसे से बहुत दूर है। तुम अभी भी स्वयं को क्षणिक के पदों में सोचते
हो, शाश्वत की भांति नहीं। तुमने अभी ईश्वर का स्वाद नहीं चखा
है।
आकाश
की भांति और समुंद्र की भांति...तुम हो।
दूसरा
सूत्र:
अतः, उस स्वच्छंदता
से जो कि है अद्वितीय
बुद्ध
की पूर्णमाओं से भरपूर
जन्मती
हैं चेतनाएं सभी
और
आती है विश्राम हेतु वहीं
पर
यह साकार है न निराकार है
अतः
उस स्वच्छंदता से जो कि है अद्वितीय...
पहली
बात, तंत्र में, स्वच्छंदता महानतम मूल्य है--बस स्वभाविक
होना, स्वभाव को घटने देना। इसमे विध्न न ड़ालना, इसमें बाधा न पहुंचाना, इसे विचलित न करना, इसे किसी ऐसी दिशा में न ले जाना जहां यह स्वयं न जा रहो हो। स्वभाव को समर्पण
कर देना, उसके साथ बहना। नदी से लड़ना नहीं, बल्कि उसके साथ जाना--सारे रास्ते भर, जहां कहीं भी यह
ले जाए। यह भरोसा ही तंत्र है। स्वच्छंदता ही इसका मंत्र हैं, इसका महानतम आधार है।
स्वच्छंदता
का अर्थ है: तुम हस्तक्षेप नही करते, तुम तथाता में होते हो। जो कुछ भी घटे,
तुम उसे देखते हो, तुम उसके साक्षी होते हो,
तुम जानते हो कि यह घट रहा है। पर तुम इसमें कूदते नहीं, और तुम इसकी दिशा बदलने की चेष्टा नहीं करते। स्वच्छंदता का तात्पर्य है,
तुम्हारी कोई दशा नहीं है। स्वच्छंदता का तात्पर्य है, पाने के लिए तुम्हारे पास कोई लक्ष्य नहीं हैं, यदि पाने
के लिए तुम्हारे पास कोई लक्ष्य हो, तुम स्वच्छंद नहीं हो सकते।
कैसे तुम स्वच्छंद हो सकते हो अचानक तुम्हारा स्वभाव एक दिशा विशेष में जा रहा हो और
तुम्हारा लक्ष्य वहां न हो। कैसे तुम स्वच्छंद हो सकते हो? तुम
स्वयं को लक्ष्य की और घसीटोगे।
यही
तो लाखों लोग कर रहे हैं--स्वयं को किसी काल्पनिक लक्ष्य की और घसीट रहे हो। और चूंकि
वे स्वंय को किसी काल्पनिक लक्ष्य की और घसीट रहे होते हैं, स्वभाविक नियति
को चूकते चले जाते है--जो कि एकमात्र लक्ष्य है! और यही कारण है कि इतनी निराशा है,
इतना दुख है और इतना नरक है--क्योंकि जो कुछ भी तुम करोगे वह कभी तुम्हारे
स्वभाव को संतुष्ट नहीं कर सकेगा।
यही
कारण है कि लोग जड़ है,
वे जीते हैं, फिर भी वे नहीं जीते। वे कैदियों
की भांति चलते है, बंधे-हुए। उनकी चाल स्वतंत्रता की नहीं है,
उनकी चाल नृत्य की नहीं है--वह हो नहीं सकती क्योंकि वे लड़ रहे है। वे
लगातार अपने ही साथ लड़ाई कर रहे हैं। हर क्षण एक संघर्ष है, तुम
कोई चीज खाना चाहते हो, और तुम्हारा धर्म उसकी अनुमति नहीं देता,
तुम किसी स्त्री के साथ चलना चाहते हो पर वह सम्मान पूर्ण न होगा। तुम
इस तरह से जीना चाहते हो, परंतु समाज इसके लिए मना करता है। तुम
एक ढंग से होना चाहते हो, तुम महसूस करते हो कि यही ढंग है कि
जिससे कि तुम खिल सकते हो, पर हर कोई उसके खिलाफ है।
इसलिए
क्या तुम अपने अस्तित्व की सुनते हो? या कि तुम हर किसी की सलाह को सुनते
हो? यदि तुम हर किसी की सलाह को सूनोगे, तुम्हारा जीवन एक निराशा के अतिरिक्त कुछ और न होगा। तुम जीवित रहे बिना ही
समाप्त हो जाओगे, तुम यह जाने बिना ही मर जाओगे कि जीवन क्या
है!
मगर
समाज ने तुममें ऐसे संस्कार निर्मित कर दिया है, जो तुम्हारे बाहर ही नहीं--बल्कि
तुम्हारे भीतर ही बैठ गए है। यही तो अंतःकरण है। तुम जो भी करना चाहो, तुम्हारा अंतःकरण कहता है, ‘ऐसा मत करो!’ अंतकरण तुम्हारी पैतृक आवाज है, पुरोहति और राजनीतिज्ञ
इसी के द्वारा बोलते हैं। यह एक बहुत बड़ी तरकीब है। उन्होंने तुम्हारे भीतर एक अंतःकरण
बना दिया है--बचपन से ही, जब तुम्हें यह पता ही न था कि तुम्हारे
साथ क्या किया जा रहा था, उन्होंने एक अंतःकरण तुम्हारे भीतर
रख दिया है।
यदि
तुम अपनी स्वभाविकता को सुनते हो, तुम अपराध भाव अनुभव करते हो, फिर दुख आता है। तुम अनुभव करने लगते हो कि तुमने कुछ गलत किया है। तुम छिपाना
शुरू कर देते हो, तुम स्वयं का बचाव करने लग जाते हो,
तुम निरंतर यह दिखावा करने लग जाते हो कि तुमने यह नहीं किया है,
और तुम भयभीत रहते हो-देर-सवेर कोई न कोई तुमें पकड़ ही लेगा। तुम पकड़
लिए जाओगे...और फिर चिंता, अपराधभाव, और
भय। और तुम जीवन के साथ सारे प्रेम को खो बेठते हो।
जब
कभी भी तुम दूसरों के कहे के विपरीत कोई काम करते हो, तुम अपने को
अपराधी अनुभव करते हो। और जब कभी भी तुम कोई ऐसी चीज करो जो दूसरे कहते हों,
तुम इसे करके कभी प्रसन्न नहीं होते--क्योंकि करने के लिए यह कोई तुम्हारी
अपनी चीज तो थी नहीं। इन दोनों के बीच में आदमी पकड़ा जाता है।
मैं
अभी एक कहानी पढ़ता रहा था:
‘यह दूहरी संशय क्या है जिसके विरुद्ध कि संविधान द्वारा व्यक्ति को सुरक्षा
प्रदान करने की आशा की जाती है?’ रोनाल्ड ने अपने वकील मित्र
से पूछा।
उसने
उतर दिय, ‘यह ऐसे हैं, रौनी, यदि तुम अपनी
कार चला रहे हो और तुम्हारी पत्नी और उसकी मां पीछे की सीटों पर बैठी तुम्हें बता रही
हों कि कार कैसे चलाई जाए, बस यही दुहरा संशय है। और तुम्हें
यह संवैधानिक अधिकार है कि तुम पीछे मुड़ो और कहो, ‘अब,
यह कार कौन चला रहा है, प्रिय, तुम या तुम्हारी मां?’
तुम
स्टीयरिंग व्हील के पीछे बैठे हो सकते हो, पर कार तुम नहीं चला रहे हो। पीछे की
सीटों पर बहुत से लोग बैठे हुए हैं--तुम्हारे माता-पिता के माता-पिता, तुम्हारा पुरोहित, तुम्हारा राजनीतिज्ञ, नेता, महात्मा, संत वे सब पीछे
की सीट पर बैठे हुए है। और वे सब तुम्हें सलाह देने की चेष्टा कर रहे हैं: ‘यह करो, वह न करो, इस और जाओ,
उस तरफ मत जाओ।’ वे सब तुम्हें पगल बनाए दे रहे
हैं, और तुम्हें उनकी बात मानना सिखाया गया है। अगर तुम उनकी
बात न मानों, उससे भी तुम्हारे भीतर ऐसा भय उत्पन्न होता है कि
कुछ बात गलत जरुर है--कैसे तुम सही हो सकते हो जब इतने लोग सलाह दे रहे हों?
और वे सदा तुम्हारे अपने भले के लिए ही तुम्हें सलाह देते है। कैसे तुम
सही हो सकते हो जब सारा संसार कह रहा है, ‘यह करो।’ निश्चय ही, उनका बहुमत है और वे सही होने ही चहिए।
परंतु
याद रखो: यह सही या गलत होने का प्रश्न ही नहीं है--आधारभूत रूप से प्रश्न है स्वच्छंद
होने या न होने का। स्वच्छंदता सही है। वर्ना तो तुम एक नकलची बन जाओगे और नकलची कभी
भी तृप्त अस्तित्व वाले नहीं हो सकते।
तुम
एक चित्रकार बनना चाहते थे,
परंतु तुम्हारे माता-पिता ने कहा, ‘नहीं!’
क्योंकि चित्रकारी तुम्हें पर्याप्त धन तो दे नहीं सकती। और चित्रकला
तुम्हें संसार में कोई सम्मान देने भी नहीं जा रही है। तुम आवारा हो जाओगे,
और तुम एक भिखमंगे बन जाओगे। इसलिए चित्रकला की चिंता न लो। ‘एक मजिस्ट्रेट बनो।’ इस लिए तुम मजिस्ट्रेट बन गए। अब
तुम अपने काम में कोई प्रसनंता अनुभव नहीं करते हो। यह एक प्लास्टिक चीज है,
एक मजिस्ट्रेट होना। और भीतर गहरे में तुम अभी भी चित्र बनाना चाहते
हो।
न्यायालए
में बैठे हुए भी तुम भीतर गहरे में चित्र ही बना रहे होते हो। शायद तुम अपराधी की बात
सुन रहो हो, पर सोच तुम चहरे के विषय में रहे होते हो, उसका चेहरा
कितना सुंदर है, उसका कितना सुंदर चित्र बन सकता था। तुम उनकी
आंखों की निलीमा में झांक रहे होते हो। और बार-बार तुम हर रंग के विषय में सोच रहे
हो, कि कैसे कुदरत ने उन रंगो को इस चेहरे पर उरेरा है। परंतु
अब तो तुम हो एक मजिस्ट्रेट! इसलिए तुम निरंतर बैचेनी में रहते हो, एक अदृश्य तनाव तुम्हारा पीछा करता ही रहता है। फिर धीरे-धीरे तुम भी यह अनुभव
करने लग जाओगे कि तुम एक सम्मानित व्यक्ति हो, तुम यह हो,
तुम वह हो। तुम बस एक नकल हो जाते हो, तुम कृत्रिम
हो जाते हो।
मैंने
सूना है:
एक
स्त्री ने सिगरेट पीना छोड़ दिया जब उसने पाया कि उसके पालतू तोते को लगातार खांसी रहने
लगी है। स्वभाविक था कि वह चिंतित होती, उसने सोचा कि चूंकि वह लगातार धूम्रपान
करती रहती थी, यह धुआं ही होगा जो कि उसके तोते को अनुकूल न आया
होगा। अत: वह अपने तोते को एक पशु-चिकित्सक के पास ले गयी। चिकित्सक ने तोते की अच्छी
तरह से जांच कि और पाया कि उसे दमा है। परंतु अंदर से तो कोई बीमारी नहीं दिखती,
फिर ये खांस क्यों रहा है। आखिर बहुत जांच करने पर पता चला कि वह तोता
अपनी मालाकिन नकल कर रहा है, जो लगातार धूम्रपान करती और खांसती
रहती थी।
यहां
कोई धुआं नही था,
केवल नकल थी। वह स्त्री खांसती और तोता बेचारा खांसी की नकल करने लगा
था।
देखो...तुम्हारा
जीवन भी मात्र एक तोते की भांति हो सकता है। यदि यह एक तोते जैसा है, तुम किसी बहुत
ही मूल्यवान चीज को चूक रहे हो--तुम अपना जीवन चूक रहे हो। जो कुछ भी तुम पाओगे वह
किसी बड़ी कीमत का न होगा, क्योंकि तुम्हारे जीवन से अधिक मूल्यवान
और कुछ भी नहीं है।
इसलिए
तंत्र स्वच्छंदता को पहला गुण मानता है, सबसे आधारभूत गुण।
अतः
उस स्वच्छंदता से जो कि है अद्वितीय
अब, तंत्र एक बात
और कहता है, और इसे बहुत बारीकी से समझ लेना चाहिेए। स्वच्छंदता
दो प्रकार की हो सकती है: यह मात्र प्रवर्तन की हो सकती है, तब
यह बहुत अद्वितिय नहीं होती, यदि यह जागरूकता की है, तब इसमें अद्वितीय होने की गुणात्मकता, भिन्न बुद्ध गुणात्मकता
होती है।
कई
बार मुझे सुनते हुए तुम सोचते हो कितुम स्वच्छंद हो रहे हो जबकि तुम मात्र अंतःप्रवर्तिवान
(अंतर्आवेगवान) हो रहे होते हो। अंतः प्रर्वतक होने और स्वच्छंद होने में क्या अंतर
है?
तुम्हारे
पास दो चीजें है: शरीर और मन। मन समाज द्वारा नियंत्रित किया जाता है और शरीर जीवशास्त्र
द्वारा। मन का नियंत्रण समाज द्वारा किया जाता है, क्योंकि समाज विचारों को तुम्हारे
मन में रख सकता है; और तुम्हारा शरीर लाखों वर्षों के जीवशास्त्रीय
विकास द्वारा नियंत्रित किया जाता रहा है।
शरीर
अचेतन है, ऐसे ही मन भी अचेतन है। तुम दोनों के परे बस एक देखने वाले हो। इसलिए यदि तुम
मन की और समाज कि सुनना बंद कर दो, इस बात की पूरी संभावना है
कि तुम जीवशास्त्र की सुनने लगोगे। इसलिए कभी-कभी तुम्हें किसी की हत्या कर देने जैसा
लेगे और तुम कहोगे, ‘मैं स्वच्छंद होने जा रहा हूं--ओशो ने कहा
है, ‘स्वच्छंद हो जाओ!’ अतः मुझे ये करना
ही होगा। मुझे स्वच्छंद जो होना है। तब तुम गलत समझे। मेरी बात तुम्हारे पकड़ में नहीं
आई। यह तुम्हारे जीवन को सुंदर और आनंदपूर्ण बनाने नहीं जा रहा है। तुम फिर से निरंतर
संघर्षरत हो जाओगे--अब बाहर के व्यक्तियों के साथ।
स्वच्छंदता
से तंत्र का अभिप्राय है,
एक ऐसी स्वच्छंदता जो जागरूकता से भरपूर है। इसलिए स्वच्छंद होने के
लिए पहली जरूरी चीज है पूरी तरह से जागरूक हो जाना। जिस क्षण तुम जागरूक हो जाते हो,
तुम न तो मन कि पकड़ में होते हो और न शरीर की पकड़ में। तब असली स्वच्छंदता
तुम्हारी आत्मा से बेहती है--आकाश से, समुंद्र से, तुम्हारी स्वच्छंदता बहती है। नहीं अपने स्वामी बदल ले सकते हो; शरीर से तुम मन को बदल सकते हो, मन से तुम शरीर को बदल
सकते हो।
शरीर
गहरी नींद में है। शरीर का अनुगमन करना एक अंधे व्यक्ति का अनुगमन करना होगा। और स्वच्छंदता
तुम्हें सीधे एक गड्ढ़े में ले जाएगी। इससे
तुम्हें कोई मदद न मिलेगी। अंतःआवेग प्रवृति स्वच्छंदता नहीं है। हां, अर्ंतआवेग
में कुछ स्वच्छंदता होती है, मन की अपेक्षा अधिक स्वच्छंदता,
इसमें वह गुणात्मकता नही होती है, जो तंत्र चाहेगा
कि तुम धारण करो।
यहीं
कारण है कि सरहा कहता है:
वह
अद्वितीय शब्द जोड़ता है। अद्वितीय अर्थ है, अर्ंतआवेग का नहीं, बल्कि जागरूकता का, चेतना का।
हम
बेहोश जीते हैं। हम चाहे मन में जिए या शरीर में, इससे कुछ खास अंतर नहीं पड़ता--हम
बेहोश ही जीते हैं।
‘उस नई किताब का पीछे वाला भाग तुमने क्यों फाड़ा?’ हैरान
परेशान पत्नी ने अपने अनुपस्थित-दिमाग डाक्टर पति से पूछा।
‘माफ करना प्रिय’, मशहूर सर्जन ने उतर दिया, ‘जिस भाग की तुम बात कर रही हो उस पर अपेन्डिक्स लिखा हुआ था और मैंने बिना
सोचे-समझे उसे निकाल लिया।’
उसका
सारा जीवन, हर किसी के शरीर से अपेन्डिक्स निकाल देना एक मूच्छित कृत्य बन गया होगा। ‘अपेन्डिक्स देखकर उसने स्वचलित ढंग से उसे बाहर निकाल लिया।
इसी
ढंग से तो हम जीते और काम करते है। यह एक मूर्च्छित जीवन है। एक मूर्च्छित स्वच्ःछंता
कोई खास स्वच्छंदता नहीं है।
एक
शराबी शराब खाने से लड़खड़ता हुआ बाहर निकला और एक पैर सड़क पर और दूसरा पैर सड़क के किनारे
बने पैदल-पथ पर रख कर चलने लगा। अभी वह थोड़ी दूर ही गया था कि एक पुलिस वाले ने उसे
देखा। ‘ए’ पुलिस वाले ने कहा, ‘तुमने शराब
पी हुई है।’
शराबी
ने चैन की सांस ली! ‘अच्छा’ उसने कहा: ‘यह गड़बड़ है,
मैं सोचता रहा था कि मैं लंगड़ा हो गया हूं।’
जब
तुम शरीर के प्रभाव में हो,
तब तुम रसायन के प्रभाव में होते हो। फिर से...एक फंदे से तुम बाहर आते
हो पर फिर से दूसरे फंदे में फंस जाते हो। एक गड्ढे में तुम गिर जाते हो।
जब
तुम सच में ही सब गड्ढों से बाहर और स्वतंत्रता में होना चाहते हो, तुम्हें शरीर
और मन दोनों का ही साक्षी बनना पड़ेगा। जब तुम साक्षी होते हो, और अपने साक्षीपन के कारण स्वच्छंद होते हो, तब वहां
अद्वितीय स्वच्छंदता होती है।
अतः
उस स्वच्छंदता से जो कि है अद्वितीय
बुद्ध
से पूर्णतओं से भरपूर
और
सरहा कहता है: सच्ची स्वच्छंदता बुद्ध की पूर्णतओं से परिपूर्ण होती है। बुद्ध की पूर्णताएं
क्या है? दो: प्रज्ञान और करुणा--विजडम एंड कम्पैशन। यदि ये दो वहां हो, तुम्हारी स्वच्छंदता में प्रतिबिम्बित होती, तब वह अद्वितीय
है।
प्रज्ञान
का अर्थ जानकारी नहीं है। प्रज्ञान का अर्थ है--जागरूकता, ध्यान पूर्णता,
मौन, सजगता, अवधानता। और
उस अवधानता में से ही, उस मौन में से ही, समस्त प्राणिमात्र के प्रति करुणा बहती है।
सारा
जगत पीड़ा झेल रहा है। जैसे ही आनंद तुम में घटने लगेगा, तुम दूसरों
के लिए भी महसूस करना प्रारंभ कर दोगे। वे भी आनंद उठा सकते है, वे बस मन्दिर के द्वार पर खड़े हैं, और भीतर प्रवेश नहीं
कर रहे बल्कि बाहर की और दौड़ रहे हैं। खजाना उसके पास भी है, वही खजाना जो तुम्हें प्राप्त हो गया है, वे भी उसे लिए
घूम रहे हैं, परंतु वे उसका प्रयोग नहीं कर रहे क्योंकि उन्हें
उसका पता ही नहीं है।
जब
कोई भी व्यक्ति संबुद्ध होता है, उसका समस्त अस्तित्व करुण से भर जाता है--सभी प्राणियों
के प्रति। करुणा की नदियां उससे बहना प्रारंभ करती हैं और हर किसी तक पहुंचना प्रारंभ
कर देती है। पुरूषों तक, स्त्रियों तक, पशुओं तक, पक्षियों
तक, वृक्षों तक, नदियों तक, पर्वतों तक, सितारों तक। सारा अस्तित्व उसकी करुणा में
भागीदार होना प्रारंभ कर देता है। भ
बुद्धो
के ये दो गुण हैं: कि वह समझता हैं, और वह महसूस करता है, वह परवाह करता है।
जब
तुम्हारी स्वच्छंदता सच में ही जागरूकता की होती है, तुम करुणा के विपरीत कोई कृत्य
नहीं कर सकते: तुम किसी की हत्या नहीं कर सकते। लोग मेरे पास आते हैं और पूछते हैं,
‘आप स्वच्छंद होने के लिए कहते हैं परंतु कभी-कभी मेरी इच्छा होती है
कि अपनी पत्नी का खून कर दूं--तब क्या किया जाए?’ तुम हत्या नहीं
कर सकते। कैसे तुम हत्या कर सकते हो? हां, अपनी पत्नी की भी नहीं--तुम हत्या कर ही नहीं सकते।
जब
तुम्हारी स्वच्छंदता सजग हो, जब यह प्रकाशमान हो, तुम हत्या
की सोच भी कैसे सकते हो? तुम जानोगे कि इसकी संभावना तक नहीं
है, किसी की हत्या कभी नहीं की गयी। अस्तित्व तो आकाश है: तुम
केवल बादल को छितरा भर सकते हो, परंतु तुम हत्या नहीं कर सकते।
इसलिए क्या फायदा? और कैसे तुम हत्या कर सकते हो यदि तुम इतने
सजग और इतने स्वच्छंद हो। करुणा साथ-साथ बहेगी, उसी अनुपात में।
जैसे-जैसे तुम जागरूक बनते हो, उसी अनुपात में करुणा भी वहां
बढ़ती जाती हैं।
बुद्ध
ने कहा है: यदि जागरूकता के बिना करुणा हो, यह खतरनाक है। यहीं बात तो उन लोगों
में है जिन्हें हम भला कृत्य करने वाले लोग कहते है। उनमें करुणा तो है पर जागरूकता
नहीं। वे भला किये चले जाते है और भला अभी उनके अपने अस्तित्व में घटा नहीं है। वे
दूसरों की मदद किये चले जाते हैं। यह संभव नहीं है। चिकित्सक, पहले स्वयं को निरोग करो!
बुद्ध
कहते हैं: यदि तुम्हारे भीतर जागरूकता-विहीन करुणा है, तुम्हारी करुणा
हानिप्रद होगी। ये तथाक्थित भला करने वाले लोग संसार में सबसे अधिक उपद्रवी लोग होते
हैं। वे खुद ही नहीं जानते की वे क्या कर रहे है, लेकिन वे दूसरों
की सहायता हेतु सदा कुछ न कुछ करते ही रहते हैं।
एक
बार एक सज्जन मेरे पास आए...उन्होंने अपना सारा जीवन, करीब चालीस-पचास
वर्ष समर्पित कर दिए हैं--वह उस समय सत्तर वर्ष के थे। जब वह बीस वर्ष के रहे होंगे,
वह महात्मा गांधी के प्रभाव में आए और दुनियां की भलाई के काम मे लग
गए। गांधी ने भारत में भला-कर्ताओं की सबसे बड़ी जमात निर्मित की, भारत अभी तक इन भला-कर्ताओ से पीड़ित है। उनसे छूटकारा पा जाना भी कठिन कार्य
लगता है। ये सज्जन, महात्म गांधी के प्रभाव में, बस्तर में आदिवासियों के पास चले गए और आदिवासियों को शिक्षा देना प्रारंभ
कर दिया। चालीस-पचास सालों तक अथक प्रयास से इस कार्य में लगे रहे। उन्होंने बहुत से
स्कुल, हाईस्कूल खोले और अब वह एक कॉलेज खोलने जा रहे थे।
वह
मेरे पास आए। कॉलेज खोलने के लिए मेरा सहयोग चाहते थे। मैंने कहा, ‘बस मुझे एक
बात बताइये, पचास वर्षों से आप उनके लोगो के साथ हैं--क्या आप
निश्चय ही यह कह सकते हैं कि शिक्षा ने उनका भला किया है? कि
वे जब अशिक्षित थे उसकी अपेक्षा, अब वे बेहतर स्थिती में हैं?
क्या आपको सुनिश्चित हैं कि आपके पचास वर्षों के कार्य ने उन्हें अधिक
सुंदर इंसान बना दिया है?
वह
थोड़े से चकित हुए। उन्हें पसीना आने लगा, उन्होंने कहा, ‘मैंने तो इस तरह कभी सोचा ही नहीं, परंतु शयाद आप सही
कह रहे हैं। नहीं, वे बेहतर नही हुए। सच पूछो तो शिक्षा ने उन्हें
चालाकी सिखा दी हैं। वे चालाक हो गए है, उनकी सरलता विलिन हो
रही है। ठीक वैसे ही हो गए है जैसे और लोग है। जब पचीस वर्ष पहले मैं वहां पहूंचा था,
वे अत्यंत सुंदर लोग थे। हां, अशिक्षित जरूर थे,
परंतु उनमें एक गरिमा थी। पचास वर्ष पहले वहां एक भी हत्या नहीं होती
थी। और अगर कभी कोई हत्या हो भी जाती थी, तब वह हत्यारा खुद ही
अदालत चला जाता था। और कह देता था कि उससे हत्या हो गई। वहां उस समय कोई चोरी नही होती
थी, अगर कोई चौरी कर भी लेता था तो खुद ही कबीले के मुखिया के
पास जाता और अपना दोष स्वीकार लेता कि मैंने चौरी की है, क्योंकि
मैं भूखा था--परंतु आप मुझे दंड दीजिए। पचास वर्ष पहले उन गांव में कोई ताला नहीं लगता
था। वे सदा ही बड़े-मौन, शांतिपूर्ण ढंग से रहते थे।
तब
मैंने उनसे पूछा,
‘यदि आपकी शिक्षा न उनकी मदद नहीं की है...तब इस विषय पर फिर से सोच
लिजिए। आपने दूसरों का भला करना प्रारंभ कर दिया बिना यह जाने कि आप कर क्या रहे हैं।
आपने बस यह सोचा कि शिक्षा तो अच्छी चीज है ही।
‘डी. एच. लारेंस ने कहा है कि यदि आदमी को बचाना है तो सौ वर्षों के लिए समस्त
विश्वविद्यालय बंद कर दिए जाने चाहिए पूरी तरह से बंद। सौ वर्ष तक किसी को भी किसी
भी तरह की शिक्षा नहीं दी जानी चाहिए। एक सौ वर्षों तक सभी स्कुल, कॉलेज, विश्वविद्यालय बंद हो जाने चाहिए। एक सौ वर्ष
का अंतराल। और आदमी को बचा लेने का यही एकमात्र उपाय है। क्योंकि शिक्षा ने लोगों को
बहुत चालाक बना दिया है। अधिक शोषण कर सकने के लिए चालाक, दूसरों
का साधन की भांति उपयोग कर सकने के लिए चालाक, अनैतिक हो जाने
के लिए चालाक।
यदि
तुम नहीं जानते कि तुम क्या कर रहे हो, तु सोच सकते हो कि तुम शुभ कर रहे हो,
पर शुभ घट नहीं सकता।
बुद्ध
कहते है: ‘करुणा तभी शुभ है जब यह जागरूकता का अनुगमन करती हो, नहीं तो यह शुभ नहीं है। होश के बिना करुणा खतरनाक है, और करुणा के बिना होश स्वार्थ है। इसलिए बुद्ध कहते है: ‘एक पूर्ण बुद्ध में दोनों ही चीजें होंगी--होश भी और करुणा भी। यदि तुम होश
पूर्ण हो जाओ और कहो, ‘मैं क्यों चिंता लूं? अब मे आनंदित हूं,’ तुम अपनी आंखे बंद कर लो,
तुम दूसरों की मदद न करो, तुम जागरूक बनने में
दूसरो की सहायता न करो--तब तुम स्वार्थी हो, तब एक गहन अहंकार
अभी भी है।
जागरुकता
आधे अहंकार को मार डालती है और बाकी का आधा करुणा द्वारा मार दिय जाता है। इन दो के
बीच अहंकार पूरी तरह नष्ट हो जाता है। और जब जाकर कोई व्यक्ति निर-अहंकारी हो जाता
है, वह बुद्ध हो जाता है।
सरहा
कह रहे है:
अतः, उस स्वच्छंदता
से जो कि है अद्वितीय
बुद्ध
की पूर्णमाओं से भरपूर
जन्मती
हैं चेतनाएं सभी
और
आती है विश्राम हेतु वहीं
पर
यह साकार है न निराकार है
वह
कहते हैं: ऐसी अद्वितीय स्वच्छंदता से हम पैदा होते हैं। ऐसी भगवत्ता से हमारा जन्म
होता है। और पुनः हम विश्राम हेतु उसी भगवत्ता में वापस चले जाते है।
इस
बीच में, इन दोनों के मध्य में, हम बादलों से बहुत अधिक आसक्त
हो जाते हैं। इसलिए जरुरत बस इस बात की है कि बादलों से आसक्त न हुआ जाए। इस एक शब्द
में पूरा तंत्र समाया है--बादलों से आसक्त न होना, क्योंकि बादल
क्षण
भर के लिए हैं। हम उस स्त्रोत से, उस निर्दोष स्त्रोत से आते है और विश्राम के लिए
हम उसी स्त्रोत में चले जाते हैं। इन दोनों के बीच में बहुत से बादल होंगे--उनसे आसक्त
मत होना। बस देखना। स्मरण रखना कि तुम बादल नहीं हो।
..जन्मती हैं चेतानाएं सभी
और
आती हैं विश्राम हेतु वहीं
हम
परमात्मा से हैं। हम परमात्मा हैं। और फिर हम परमात्मा में चले जाते हैं। बीच में हम
हजार सपने देखने लग जाते हैं कि हम यह हैं कि हम वह हैं।
परमात्मा
सबसे ज्यादा साधारण सचाई है। परमात्मा तुम्हारा स्त्रोत है। परमात्मा तुम्हारा लक्ष्य
है। ईश्वर ठीक अभी यहां है। तुम्हारी उपस्थिति मात्र में ही परमात्मा की उपस्थिति है।
जब तुम मेरी और देखते हो,
यह परमात्मा ही है जो मेरी और देख रहा होता है। यह कोई और नहीं है। दृष्टी
का जरा सा परिवर्तन, जरा सी बदलाहट, बादल
से आकाश की और मोड़देना और फिर तुम अचानक मौन हो जाओगे, और अचानक
तुम आनंद से परिपूरित महसूस करोगे, तब अपने को एक आशीर्वाद से
घिरा हुआ अनुभाव करोगे।
पर
यह साकार है न निराकार है
यह
भगवत्ता--न तो मन है और न ही शरीर। मन अमूर्त है। शरीर मूर्त है, शरीर स्थूल
है, मन सूक्ष्म है। शरीर पदार्थ है, मन
विचार है। आंतरिक भगवता इन दोनों में से कुछ भी नहीं है। यह आंतरिक भगवता एक भावतितता
है। और तंत्र अतिक्रणीयता है।
इसलिए
यदि तुम सोचते हो कि तुम एक शरीर हो, तु बादलों से आच्छादित होते हो,
तब तुम्हारी एक बादल से तादात्मय होती है। यदि तुम सोचते हो कि तुम एक
मन हो, फिर तुम बादल से आच्छादित हो जाते हो। यदि तुम किसी भी
प्रकार से ऐसा सोचो जो तुम्हें शरीर या मन के साथ तादात्मयता बनाता हो, तब तुम लक्ष्य से चूक रहे होते हो।
यदि
तुम जाग जाओ और अचानक तुम स्वयं को एक साक्षी की भांति देखो जो कि शरीर को देखता हो, मन को देखता
हो, तुम एक सरहा हो गए--तीर छूट गया। चेतना के उस परिवर्तन में--यह
बस गियर का जरा सा बदल जाना है--तीर छूट जाता है, तुम आ पंहुचे।
सच तो यह है कि तुम कहीं गए ही नहीं थे।
वे
करते हैं विचरण अन्य मार्गों पर
और
गंवा बैठते हैं सच्चे आनंद को
उद्धीपक
जो निर्मित करते है,
खोज में उन सुखों की
मधु
है उसके मुख में,
इतना समीप...
पर
हो जाएंगा अदृश्य,
यदि तुरंत ही न करले वे उसका पान
यदि
तुम आकाश के साथ एक नहीं हो रहे हो जिसके साथ तुम सच में ही एक हो, तब तुम दूसरे
मार्गों पर चल रहे हो। दूसरे मार्ग लाखों हैं--सच्चा मार्ग एक ही है। आकाश कभी कहीं
नहीं जाता--बादल जाते हैं...कभी पश्चिम में तो कभी पूरब में, और कभी दक्षिण में, और कभी उतर में, कभी इधर कभी उधर, वे बड़े महान यात्री होते हैं। वे हमेशा
चलते हैं, वे मार्ग ढूंढते ही रहते है, वे नक्शे नहीं लिए रहते--पर आकाश तो बस वहां है। इसका कोई पथ नहीं है,
यह कहीं नही जाता। इसको कहीं जाने को है ही नहीं, क्योंकि ये परिपूर्ण समस्त में है।
इसलिए
वे लोग जो अपने आकाश-अस्तित्व का स्मरण रखते है, वे घर में है, विश्रांत में है। उन थोड़े से व्यक्तियों को या कहलो बुद्धों को छोड़कर,
बाकी लोग बहुत से मार्गों पर चलते हैं, और इसलिए
गंवा बैठते हैं सच्चे आनंद को।
इसे
समझने का प्रयत्न करो। यह बड़ा गहन वक्तव्य है। जिस क्षण तुम किसी भी पथ पर चल रहे होते
हो, तुम अपने सच्चे आनंद से दूर हो रहे हो--क्योंकि तुम्हारा सच्चा आनंद तो तुम्हारा
स्वभाव है। इसे पैदा नहीं करना है, इसे प्राप्त नहीं करना है,
इसे पाना नहीं है।
पथों
के अनुगमन तो हम कहीं पहुंचने के लिए करते है--यह कोई लक्ष्य नहीं है। यह तो वहां है
ही। यह तो पहले से ही है। अतः जिस क्षण तुम चलना प्रारंभ करते हो, तुम दूर ही
होते जाते हो। न--चलना पहुंच जाना है। न--चलना ही सच्चा पथ है। ढूंढो और तुम चूक जाओगे:
मत ढूंढो और तुम पा लोगे।
वे
करते हैं विचरण अन्य मार्गों पर
और
गंवा बैठते हैं सच्चे आनंद को
उद्धीपक
जो निर्मित करते है,
खोज में उन सुखों की ...
दो
तरह के आनंद हैं। पहला है सशर्त--यह केवल कुछ परिस्थितियों में ही घटता है। तुम अपनी
स्त्री को देखते हो,
और आनंदित हो जाते हो। या फिर तुम धन के प्रेमी हो और तुम्हें सौ-सौ
के नोटों से भरा हुआ एक थेला सड़क के किनारे पड़ा हुआ मिल जाता है। और तुम्हें बड़ा आनंद
मिलता है। या कि तुम एक अहंवादी आदमी हो और तुम्हें नोवल पुरस्कार दिया गया--तुम तो
नाच उठते हो, तब तुम्हें बड़ा आनंद आता है। ये सब सशर्त आनंद है।
तुम्हें इसकी व्यवस्था करनी होती है। परंतु ये तो सब क्षणिक मात्र हैं।
एक
सशर्त आनंद के साथ तुम कब तक आनंदित रह सकते हो? यह आनंद कब तक टिकेगा?
यह तो बस एक झलक की भांति आता है, मात्र कुछ क्षणों
के लिए, और फिर चला जाता है। हां, जब तुम
सौ-सौ से भरा हुआ एक झोला पाते हो, तुम आनंदित तो होते हो परंतु
कितनी देर के लिए। ज्यादा देर तक नहीं। सच तो यह है कि क्षण भर के लिए ऊर्जा की एक
लहर उठेगी और तुम आनंद अनुभव करोगे और अगले ही क्षण तुम डर जाओग--क्या तुम पकड़े तो
नहीं जाओगे? यह किस का धन है? किसी ने देखा
तो नहीं? और अंतःकरण कहेगा, ‘यह ठीक नहीं
है। यह तो एक तरह की चोरी ही है। तुम्हें अदालत में जाना चाहिए! तुम्हें पुलिस के पास
जाना चाहिए--तुम्हें यह धन पुलिस में जमा कर देना चाहिए! तुम कर क्या रहे हो?
तुम तो एक नैतिक व्यक्ति हो...’ और तुम चिंता और
अपराध भाव से भर जाओगे। पर तुम इसे घर ले आए, अब तुम इसे छिपा
रहे हो। अब तुम भयभीत हो: शायद पत्नी को पता चल जाए; शायद किसी
ने देख ही लिया हो; कोई देख भी सकता था कौन जाने? किसी ने कहीं पुलिस में शिकायत न कर दी हो। अब चिंता, एक भय, तुम्हें घेर लेता है।
और
यदि किसी ने शिकायत न भी की हो, किसी ने देखा न भी हो, इस
धन का तुम करोगे क्या? जो कुछ भी तुम इसके साथ करोगे,
वह तुम्हें बस क्षण-क्षण ही प्रसंनता देगा। तुम एक कार खरीद लेते हो,
और कार तुम्हारे अहाते में खड़ी है, उसे देख कर
तुम क्षण भर के लिए गद्दगद्द हो जाते हो आनंद से भर जाते हो। फिर...? फिर वह कार कुछ ही दिनों में पुरानी हो जाती है। अगले दिन भी यह वही कार है
परंतु कुछ दिनों के बाद तुम इस की और देखते भी नहीं।
ये
क्षणिक प्रसनंता जो वह आती है और चली जाती है। यह एक बादल की भांति है। और यह नदी की
भांति है, एक छोटी सी नदी जो जरा सी बारिश और इसमें बाढ़ आ जाती है। बारिश रूकी और बाढ़
का पानी समुंद्र में चला गया, फिर से छोटी सी नदी छोटी रह गई।
एक क्षण इसमें बाढ़ आती है और अगले ही क्षण
यह खाली हो जाती है। यह समुंद्र की भांति नहीं है जो न कभी बढ़ता है और न कभी घटता है।
एक
और तरह का आनंद भी है,
जिसे सरहा सच्चा आनंद कहता है। यह बिना शर्त है। तुम्हें कुछ विशिष्ठ
स्थितियों की व्यवस्था नहीं करना होती है। यह वहां है? अपनी पूर्णता
में। तुम्हें बस अपने में देखना है और तुम उसे वहां पाते हो। तब तुम्हें किसी स्त्री
की आवश्यकता नहीं होती, तुम्हें किसी पुरुष की आवश्यकता नहीं
होती, तुम्हें बड़ा घर नहीं चाहिए होता, तुम्हें बड़ी कार की जरुरत नहीं होती। तुम्हें किसी प्रतिष्ठा, किसी सता और पद की जरुरत नहीं होती--कुछ भी नहीं। यदि तुम बस अपनी आंखें बंद
करो और भीतर जाओ, यह वहां होता है।
केवल
बस यही एक आनंद है जो सदा-सदा के लिए हो सकता है। केवल यही आनंद शाश्वत रूप से तुम्हारा
हो सकता है।
ढूंढने
से तुम क्षणिक चीजें ही पाओगे। बिना ढूंढे, तुम इस शाश्वत आनंद को पा जाओगे।
वे
करते हैं विचरण अन्य मार्गों पर
और
गंवा बैठते हैं सच्चे आनंद को
उद्धीपक
जो निर्मित करते है,
खोज में उन सुखों की
मधु
है उसके मुख में,
इतना समीप...
पर
हो जाएंगा अदृश्य,
यदि तुरंत ही न करले वे उसका पान
मधु
तुम्हारे मुंह में है--और तुम इसे ढूंढने हिमालय में, किसी पर्वत
पर जा रहे हो? तुमने कहानियां सुनी हैं: हिमालय में बहुत मधु
उपलब्ध है--और तुम उसे खोजने जा रहे हो। और मधु है जो तुम्हारे मुंह के भीरत ही है।
भारत
में रहस्यवादियों ने सदा कस्तुरी मृग के विषय में बात की है। एक विशेष किस्म का मृग
होता है, जिसकी नाभि में कस्तुरी होती है। जब वह कस्तुरी बढ़ना प्रारंभ करती है--यह केवल
तभी होता है जब मृग सच में ही कामातुर होता है...कस्तुरी प्रकृति की एक तरकीब है,
एक जैविक तरकीब: जब कस्तुरी में से सुगंध निकलनी प्रारंभ होती है,
मादा मृग नर मृगों की और आकर्षित होने लगती है, वे कस्तुरी के कारण, उसकी सुगंध के कारण एक दूसरे के
निकट आते है।
गंध
सबसे अधिक कामुक इंद्रियों मे से एक है--यही कारण है कि आदमी न अपनी नाक को तो मार
ही डाला है। यह खतरनाक इंद्रिय है। तुम सच में सूंघते ही नहीं। सच तो यह है कि यह शब्द
तक बहुत निंदित हो गया है। यदि किसी के पास अच्छी, सुंदर आंखे हों, तुम कहते हो कि वह अच्छा दिखता है; यदि किसी के पास संगीत
के लिए पूर्ण कान हो, तुम कहते हो कि वह अच्छा सुनता है--पर तुम
यह नहीं कहते कि वह अच्छा सूंघता है। क्यों? सच तो यह है कि वह
अच्छा सूंघता है। इसका अर्थ उल्टा ही होता है--इसका अर्थ है कि वह बदबू मारता है,
न कि यह उसमें गंध लेने की क्षमता है। क्षमता तो खो जाती है।
आदमी
गंध नहीं मारता। और हम अपनी कामुक गंधों को छिपाने की चेष्ठा करते है, सुगंध से ,
सफाई से, इससे, कभी उससे--हम
छिपाते हैं। हम गंध से डरते हैं, क्योंकि गंध काम के समीपतम इंद्रिय
है। पशु गंध से ही तो प्रेम में पड़ते हैं। पशु एक दूसरे को सूंघते है और जब वे महसूस
करते हैं कि उनकी गंध मेल खाती हैं, केवल तभी वे संभोग करते हैं;
तब उनके होने में लयवदिता एक संगीत होती है।
यह
कस्तुरी मृग में तभी पैदा होती है, जब वह कामुकता में मस्त होता है,
और उसे मादा कि अवश्यकता होती है। और मादा भी उसे ढूंढती आती है। लेकिन
वह मुसीबत में फंस जाता है, क्योंकि वह भी कस्तुरी की सुंगध लेने
लग जाता है। और वह यह नहीं समझ पाता है कि यह गंध उसी की नाभि से, उसी के शरीर से आ रही है। इसलिए वह पागलों कि तरह दौड़ता है यह जानने के लिए
कि यह गंध कहां से आ रही है, यह बिल्कुल स्वभाविक है। वह कैसे
सोच सकता है? आदमी तक सोच नहीं पाता कि आनंद कहां से आता है,
सौंदर्य कहां से आता है, प्रसनंता कहां से आती
है। मृग को तो क्षमा भी किया जा सकता है--वह तो बेचारा मृग है। वह कस्तुरी की तलाश
में इधर-उधर दौड़ता रह सकता है। और जितना वह अधिक दौड़ता है, उतनी
ही वह गंध जंगल में चारों तरफ भर जाती है। जहां कहीं भी वह जाता है, वहीं उसे उसकी ही गंध पीछा करती है, फैली मिलती है। कहा
जाता है कि कभी-कभी तो वह बिलकुल पागल हो जाता है, बिना यह जाने
कि कस्तुरी तो उसी के भीतर है।
और
यही बात मनुष्य के साथ भी है: मनुष्य भी खोजते-खोजते ढूंढते-ढूंढते पागल हो जाता है--कभी
धन में, कभी प्रतिष्ठा में, कभी इस में, कभी उस में, परंतु कस्तुरी तो उसके भीतर ही है। मधु तो
तुम्हारे खुद के मुख में ही है। और देखो कि सरहा क्या कह रहा है:
मधु
है उनके मुख में,
इतना समीप
पर
हो जाएगा अदृश्य,
यदि तुरंत ही न करलें वे उसका पान
और
फिर वह कहता है,
तुम इसे तुरंत पी जाओ। एक क्षण की भी देर मत लगाओ। वरना यह गायब हो जाएगी।
अभी या फिर कभी नहीं! तुरंत करो, जरा भी समय मत गंवाना। यह तुरंत
किया जा सकता है, क्योंकि किसी तैयारी की कोई आवश्यकता नहीं है।
यह तुम्हारा अंतरतम केंद्र है, यह मधु तुम्हारा है-देखो वह कस्तुरी
तुम्हारी नाभी में छिपी है। तुम इसे अपने जन्म के साथ ही ले कर आये थे, और तुम हो कि इसे संसार में खोज रहे हो, ढूंढ रहे हो।
चोथा
सूत्र:
पशु
नहीं समझ पाते कि संसार
है
दुख, पर समझते हैं वे विद्वान तो
जो
पीते हैं इस स्वर्मिक अमृत को
जबकि
पशु भटकते फिरते हैं
एंद्रिंक
सुखों के लिए
बीस्ट
शब्द हिंदी या संस्कृत शब्द पशु का अनुवाद है। इस शब्द का अपना एक अलग महत्व है। शाब्दिक
रूप से, पशु का अर्थ है जानवर, बीस्ट पर ये एक रूपक है। पशु शब्द
पाश से आता है--इसका मतलब होता है बंधन, बंधा हुआ। पशु का अर्थ
है जो पास में बंधा हुआ है, प्रकृति ने जिसे बांध रखा है।
पशु
वह है जो बंधन में है--बंधन शरीर का, अंतर्प्रतियों का, मुर्च्छा का, समाज का, मन का या
फिर विचार का। पशु वह है जो बंधन में बंधा है।
पशु
नहीं समझ पाते कि संसार...
कैसे
वे समझ सकते हैं?
उनकी आंखें देखने को स्वतंत्र ही नहीं है, उनके
मन देखने को स्वतंत्र ही नहीं है, उनके शरीर महसूस करने को स्वतंत्र
नहीं हैं। न तो वह पूर्णता सुन सकते है, न ही वे देख सकते है,
न वे गंध लेते है, न वे छूते हैं, वे बंधन में है। सारी इंद्रियां पुंगु हो गई हैं, बंधन
में बंध गई हैं।
वे
संसार को कैसे समझ सकते हैं? संसार समझा जा सकता है केवल स्वतंत्रता में। जब
कोई धर्मग्रंथ तुम पर बंधन नहीं बनता, और कोई दर्शन तुम्हारे
हाथों में जंजीर नहीं बंधता, और जब कोई ब्रह्मविद्या तुम्हारे
लिए केद नहीं बनती, जब तक तुम सभी बंधनों से बाहर नहीं होते हो,
तब तक तुम इसे समझ नहीं सकते। समझ केवल स्वतंत्रता में घटती है। समझ
केवल एक अबंधित मन में घटती है।
पशु
नहीं समझ पाते कि संसार
है
दुख...
और
वह यह भी नहीं समझ सकते कि संसार एक दुखपूर्ण स्थान है। मन और शरीर द्वारा निर्मित
तथा-कथित संसार एक मृगतृष्णा है। यह ऐसा प्रतीत होता है, यह बहुत सुंदर
प्रतीत होता है, परंतु केवल प्रतीत ही होता है--परंतु वास्तव
में ये ऐसा है नहीं। यह एक इंद्रधनुष है--कितना सुंदर, कितना
रंगीन, तुम निकट आओ और यह अदृश्य हो जाता है। यदि तुम इंद्रधनुष
को पकड़ना चाहो तो, तुम्हारे हाथ कुछ भी नहीं लगेगा, वह खाली ही रहेगें। वहां कुछ न होगा। यह एक भ्रम है। परंतु हमारी मुर्छा के
कारण हम यह बात नहीं देख पाते है।
जागरूकता
के साथ ही दृष्टी पैदा होती है, तब हम देख सकते हैं कि मृगतृष्णा कहां है,
सत्य कहां है। कोई भी प्रसनंता जो किसी बाहरी संयोग से घटित होती है,
एक मृगतृष्णा है और तुम उससे पीड़ित होओगे ही। यह धोखा है, मतिभ्रम है।
तुम
अनुभव करते हो कि तुम एक स्त्री या एक पुरुष के साथ बहुत आनंदित हो, परंतु तुम
दुख उठाने जा ही रहे हो। देर-सवेर तुम पाओगे कि सारा आनंद गायब हो गया है। देर-सवेर
तुम पाओगे कि तुम इसकी मात्र कल्पना ही कर रहे थे। यह वहां था ही नहीं। शायद यह एक
सपना था। तुम कल्पना में खोए हुए थे। जब स्त्री या पुरुष की वास्तविकता प्रकट होती
है, तुम दो कुरुप पशुओं को आमने-सामने पाते हो, जो मात्र एक दूसरे पर आधिपत्य जमाने की चेष्टा कर रहे होते है।
मैंने
सुना है:
दूल्हे
का साथी उसे हिम्मत दिलाने की पूरी कोशिश में लगा था। ‘तुम्हारी सारी
हिम्मत कहां गई, यार?’ उसने पूछा। ‘तुम तो एक पत्ते की भांति कांप रहे हो।’
‘मैं जानता हूं कि मैं कांप रहा हूं’, दूल्हे ने उतर दिया,
‘पर यह मेरे लिए बड़ा नस तोड़ देने वाला अनुभव है। सच में भयभीत होने के
लिए मेरे पास कारण भी तो है, है न? क्योंकि
मेरी पहले कभी शादी थोड़े ही हुई है।’
‘निश्चित ही,’ दोस्त ने कहा: ‘यदि
हुई होती तो तुम जितने भयभीत अब हो, उससे कहीं ज्यादा ही भयभीत
हुए होते।’
जैसे-जैसे
तुम जीवन को देखते हो,
जैसे-जैसे तुम इसका निरीक्षण करते हो, जैसे-जैसे
तुम इसके विषय में अधिक सीखेते हो, जानते हो, शनै-शनै तुम इससे ........ । वहां कुछ भी नहीं है..बस तुम्हें पुकारती हुई
मृगतृष्णाएं दिखेंगी। बहुत बार तुम मूर्ख बनाये जा चुके हो। कई बार तुम दौड़े,
तुमने लम्बी यात्रा की, परंतु पाया कुछ भी नहीं।
यदि
तुम सजग रहे,
तुम्हारा अनुभव तुम्हें संसार से मुक्त कर देगा: और संसार से मेरा अर्थ
वृक्षों से, सितारों से, और नदियों से और
पर्वतों के इस संसार से नहीं है। और न ही सरहा का कहने का ये अर्थ है--संसार माया है,
वह संसार इंद्रजाल है, वह इच्छा के द्वारा बनता
है, वह विचारों के द्वारा निर्मित होता हैं। जब विचार और इच्छा
अदृश्य हो जाते है, और बस जागरूकता, सजगता
बचती है, तब केवल चेतना ही होती है। बिना किसी विशयवस्तु के,
जहां विचारों के कोई मेध नही होते, बस मात्र चेतना
होती है। और होता है आकाश, तब तुम वास्तविक संसार को देख पाते
हो। यही वास्तविक संसार है, जिसे धर्म की भाषा में ईश्वर कहते
है या बुद्ध उसे निर्वाण कहते है।
पशु
नहीं समझ पाते कि संसार
है
दुख, पर समझते हैं वे विद्वान तो
जो
पीते हैं इस स्वर्मिक अमृत को
जबकि
पशु भटकते फिरते हैं
एंद्रिंक
सुखों के लिए
लेकिन
जब तुम अपनी आशा में हार जाते हो, जब तुम अपने सपने में हार जाते हो, और तुम सोचते हो कि शायद ‘यह’ सपना
गलत था, तब तुम दूसरा सपना देखना प्रारंभ कर देते हो। जब तुम
अपनी इच्छा में परितृप्त नहीं होते, तुम सोचते हो कि तुमने उतना
प्रयास नहीं किया होगा, जितना कि आवश्यक था। फिर से तुम धोखा
खा जाते हो।
एक
बस में बैठी हुई स्त्री ने देखा कि उसके बगल में बैठा पुरुष अपना सिर इधर से उधर एक
पेंडुलम की भांति हिलाए जा रहा है। स्त्री की उत्सुकता जगी और उसने उस व्यक्ति से पूछा
कि वह ऐसा क्यों कर रहा है।
उस
व्यक्ति ने तुरंत उतर दिया: ‘ताकि मैं समय बता सकूं।’
अच्छा
तो बताइए कि अब क्या समय है? स्त्री ने पूछा।
‘साढ़े चार’, उसने सिर को उसी तरह हिलाते हुए उतर दिया।
‘आप गलती में है--इस समय पौने पांच बजे हैं।’
‘ओह, लगता है में धीमा पड़ गया!’ उस व्यक्ति ने अपनी गति बढाते हुए उतर दिया।
बस
ऐसे ही चलता रहता है: यदि तुम किसी चीज को प्राप्त नहीं कर पाते, तुम सोचते
हो कि शायद तुम उतना प्रयास नहीं कर पा रहे हो, जितना कि करना
चाहिए था। या कि तुम्हारी गति मंद थी, तुम्हारा प्रतियोगात्मक
भाव दूसरों से प्रतियोगिता करने के लिए पर्याप्त न था। तुम पर्याप्त आक्रमक न थे। तुम
पर्याप्त हिंसक न थे, कि तुम मंदगति और आलसी थे, कि अगली बार तुम्हें अपने आप को खींचना होगा। अगली बार तुम्हें अपना सार जोर
लगा देना है--अगली बार तुम्हें अपनी तेजस्विता सिद्ध करके दिखानी ही देनी होगी।
तुम्हारी
तेजस्विता से इसका कोई लेना देना नही है। तुम असफल हुए क्योंकि सफलता संभव ही नहीं
है। तुम अपने प्रयास,
गति, आक्रामकता के कारण से असफल नहीं हुए हो--नहीं।
तुम इसलिए असफल नहीं हुए हो कि तुम्हारी कोई भूल थी। तुम इसलिए असफल हुए क्योंकि असफलता
ही जगत में एक मात्र संभावना है। यहां कोई कभी सफल नहीं होता। सफल हो ही नहीं सकता।
सफलता संभव है ही नहीं। इच्छाएं पूरी हो नहीं सकती। और प्रक्षेपण तुम्हें कभी भी सचाई
को देखने नहीं देते, और तुम सदा बंधन में ही रहते हो।
तुम
भी उसी असफलता का बार-बार अनुभव करते हो जैसा कि मैंने किया है। तुम भी उसी असफलता
को बार-बार अनुभव करते हो जैसे कि बुद्ध ने या सरहा ने किया है। तब अंतर क्या है? तुम असफलता
का अनुभव तो करते हो पर तुम उससे कुछ सीखते नहीं। यही एकमात्र अंतर है। जिस क्षण तुम
उससे सीखना प्रारंभ कर दोगे तुम एक बुद्ध हो जाओगे।
एक
अनुभव, एक और अनुभव, एक और अनुभव, परंतु
तुम इन अनुभवों को कभी इकट्ठा नहीं रखते--तुम निष्कर्ष नही निकालते! तुम कहते हो,
‘यह स्त्री भयंकर सिद्ध हुई, माना--पर लाखों स्त्रियां
और है। मैं दूसरी ढूंढ लूंगा।’ यह स्त्री ही असफल सिद्ध हुई है,
तुम फिर एक नई आशा करना, एक नया सपना देखना प्रारंभ कर देते हो, कि तुम कोई दूसरी स्त्री ढूंढने लग जाते हो। यदि एक स्त्री असफल हो जाती है,
तो इसका मतलब ये नहीं की सभी स्त्रियां असफल हो गई। यदि एक पुरुष असफल
हो गया तो, क्या दुनियां के सभी पुरुष असफल हो जायेगे। तुम्हारी
उम्मीद सदा कायम रहती है। तुम आशा किए चले ही जाते हो। आशा तुम्हारे अनुभव के ऊपर जीतती
चली जाती है। तुम न कभी थकते हो न रूकते हो और न सिखते हो।
एक
संबंध एक बंधन हो जाता है,
तुम महसूस करते हो कि कुछ गड़बड़ हो गई है--अगली बार तुम पूरी कोशिश करोगे
कि यह बंधन न हो जाएं। लेकिन तुम सफल न हो सकोगे--क्योंकि यहां वस्तुओं के स्वभाव में
ही सफलता नहीं है। असफलता की ही एक मात्र संभावना है: सफलता असंभव है।
जिस
दिन तुम यह पहचानते हो कि असफलता ही एकमात्र संभावना है, कि सब संबंध
झूठे है, कि वे सब आनंद जो दूर से चमकते हैं, झिलमिलाते हैं और चुंबक की भांति तुम्हें आकर्षित करते हैं। वे सब मात्र रिक्त
स्थान हैं, इच्छाएं हैं, तुम स्वय को धोखा
दे रहे हो--जिस दिन तुम इस तथ्य को पहहचानते हो, एक परिवर्तन,
एक बदलाहट शुरु हो जाती है। तब एक नए आदमी का जन्म होता है।
दरवाजे
को भड़भड़ाते हुए और स्कर्ट को फटकारते हुए हष्टपुष्ट महीला ने रजिस्ट्रार के दफतर में
प्रवेश किया।
‘क्या आपने जॉन हेनरी से शादी करने के लिए यह लाइसेंस मुझे जारी किया था या
नहीं?’ एक कागज को मेज पर पटकते हुए वह कड़क कर बोली।
रजिस्ट्रार
ने अपने चश्मे के पास लाकर उस कागज को गौर से देखा। ‘ हां,
श्रीमती जी’, उसने सावधानी पूर्वक कहा,
‘मेरे खयाल में मैंने ही इसे जारी किया था। क्यों?’
‘ठीक, तो फिर आप इस विषय में क्या करने जा रहे हैं?’
वह चीखी। ‘वह भाग गया है।’
सभी
संबंध बस सतह पर सुंदर हैं,
गहरे में वे एक तरह का बंधन ही हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि लोगों
से संबध न बनाओ। मैं कह रहा हूं कि संबंध तो बनाओ पर यह कभी मत सोचो कि किसी भी संबंध
से तुम्हें आनंद प्राप्त हो सकेगा। निश्चय ही संबंध तो बनाओ, संबंध तो तुम्हें बनाने ही होंगे--तुम संसार में जो हो। लोगों से संबंध तो
तुम्हे बनाने ही होंगे--परंतु कोई संबंध तुम्हें आनंद नहीं दे सकेगा। क्योंकि यह कभी
बाहर से नहीं आता है। यह तो सदा भीतर ही होता है। यह सदा अंदर ही बहता है।
और
सरहा कहता है: जो व्यक्ति यह विश्वास करता है कि यह बाहर से आता है, वह एक जानवर
है, पशु है--वह बंधन में है। और वह व्यक्ति जो इस तथ्य को पहचान
लेता है कि यह कभी बाहर से नहीं आता, यह जब भी आता है सदा भीतर
से ही आता है, बस वह व्यक्ति स्वतंत्र हो जाता है। वही मात्र
आदमी होता है, वही सच में मनुष्य कहलाया जा सकता है। अब वह पशु
नहीं रहा। वह बंधन मुक्त हो गया। उस स्वतंत्रता के साथ ही मनुष्य का जन्म होता है।
पशु
नहीं समझ पाते कि संसार
है
दुख, पर समझते हैं वे विद्वान तो
जो
पीते हैं इस स्वर्मिक अमृत को...
यह
स्वार्गिक अमृत क्या है?
यह उस मधु के ही सादृश्य है जो पहले ही से तुम्हारे मुख में है--और तुमने
इसका स्वाद तक नही लिया है। तुम्हें स्वाद लेने का समय ही नहीं है। संसार इतना अधिक
है और तुम एक स्थान से दूसरे स्थान तक दौड़ते रहते हो। तुम्हें उस मधु का स्वाद लेने
की, जो पहले से ही ही मौजूद है, फुर्सत
नही है।
यही
वह स्वार्गिक अमृत है--यदि तुम इसे चख लो, तुम स्वर्ग में होते हो। यदि तुम इसका
स्वाद ले लो, तब कोई मृत्यु नहीं है--यही कारण है कि यह स्वार्गिक
अमृत कहलाता है: तुम अमृर्त्य हो जाते हो। तुम अमृर्त्य हो। तुमने यह देखा नहीं है
पर तुम अमृर्त्य हो। कोई मृत्यु नहीं है: तुम मृत्यु-हीन हो। आकाश मृत्यु-हीन है। केवल
बादल जन्मते और मरते है। नदियां जन्मती और मरती हैं, समुंद्र
मृत्यु हीन है। ऐसे ही तुम भी हो।
सरहा
ये सूत्र सम्राट से कह रहा है। सरहा उसे तार्किक ढंग से सुनिश्चित नहीं करा रहा है।
सच में तो वह अपने अस्तित्व में सम्राट के लिए उपलब्ध करा रहा है। और वह उसे नया परिप्रेक्ष्य
दे रहा है--सरहा की और देखने का। तंत्र जीवन की और देखने का एक नया परिप्रेक्ष्य है।
और मुझे अभी तक कोई ऐसी चीज नहीं मिली जो तंत्र से गहन हो।
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