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सोमवार, 31 अगस्त 2020

तंत्रा-विज्ञान-(Tantra Vision-भाग-01)-प्रवचन-05


तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(सरहा के गीत) भाग-पहला

पांचवां-प्रवचन-(मनुष्य एक कल्पना है)
(दिनांक 25 अप्रैल 1977 ओशो आश्रम पूना।) 
सूत्र:

सड़े मांस की गंध पर रीझने वाली मक्खी को
चंदन की सुगंध भी, जान पडती है दुर्गंध
प्राणी जो तज देते है निर्वाण
लोलुप हो जाते हैं क्षुद्र संसारिक विषयों के

जल से भरे ताल में बैल के पदचिंह
जल्दी ही हो जाते हैं शुष्क, वैसे ही वह दृढ़ मन
जो भरपूर है उन गुणों से जो है अपूर्ण
शुष्क हो जाएंगी ये अपूर्णताएं समय पर

समुद्र का नमकीन जल जैसे हो जाता है मधुर,
जब पी लेते है मेघ उसे
वैसे ही वह स्थिर मन, काम जो करता है
औरों के हेतु बना देता है अमृत
उन एंन्द्रिक-विषयों के विष को

यदि वर्णनातित घटे, कभी नहीं रहता कोई असंतुष्ट
यदि अकल्पनिय, होगा यह स्वयं आनंद ही
यद्यपि भय होता है मेघ से तड़ित का
फसलें पकती है जब यह बरसता है जल


मनुष्य मात्र एक कल्पना है, और सबसे ज्यादा खतरनाक कल्पना--क्योंकि यदि तुमने विश्वास कर लिया कि मनुष्य है, फिर तुम मनुष्य को विकसित करने का जरा भी प्रयत्न नहीं करते, तुम्हें उसकी कोई आवश्यता ही नहीं होती। यदि तुमने मान ही लिया कि तुम मनुष्य हो तो तमाम विकास के रास्ते रूक जाते हैं।
तुम अभी मनुष्य नहीं हो, तुम मनुष्य होने की संभावना मात्र हो। तुम मनुष्य हो भी सकते हो। और तुम नहीं हो भी सकते। तुम चूक सकते हो। इस सच्चाई को याद रखो, तुम इसे चूक भी सकते हो।
मनुष्य पैदा नहीं होता, यह कोई दिव्य तथ्य नहीं है। तुम इसे मान ले नहीं सकते। यह तो मात्र एक संभावना है। मनुष्य एक बीज की भांति है, वृक्ष की भांति नहीं--कम से कम अभी तक तो नहीं। मनुष्य अभी वास्वविक नहीं है, और संभावना और वास्तविकता के बीच बड़ा अंतर है।
जैसा कि मनुष्य अभी है, वह तो मात्र एक यंत्र है। हां, वह काम जरूर करता है, वह संसार में सफल होता है, हां, वह एक तथा कथित जीवन जीता है और मरता भी है। परंतु समरण रखो की वह है नहीं। उसका काम एक यंत्र का काम है, वह एक रोबर्ट मानव है।
मनुष्य एक यंत्र है। हां, इस यंत्र में ऐसा कुछ विकसित हो सकता है जो यांत्रिकता के पार चला जाए। यह यंत्र कोई साधारण यंत्र नहीं है। इसमें स्वयं के पार जाने की अपार संभावना है, यह अपने स्वयं के ढांचे के पार की विषय वस्तु को भी प्राप्त कर सकता है। परंतु तुम कभी यह मत मान लेना की तुम अभी एक मनुष्य हो। हां, कभी-कभी इसने किसी बुद्ध, किसी महावीर, किसी ईसा, किसी गुरजिएफ को उत्पन्न जरूर किया है। परंतु तुम तो कदाचित नही हो। यदि तुमने ऐसा मान लिया तो यह तुम्हारे लिए आत्मघात जैसा ही होगा--क्योंकि एक बार हम मान लेते है, कि हम हैं। तब आने वाली सभी संभावनाओं को ताला बंद कर देते है। तब हम इसे निर्मित करना बंद कर देते है, तब हम इसका अन्वेषण करना बंद कर देते हैं, तब हम इसका विकास करना बंद कर देते हैं।
जरा सोचो: एक बीमार व्यक्ति, एक बहुत बीमार व्यक्ति अगर सोचता हो की वह स्वस्थ है। तब बताओ भला वह डॉक्टर के पास क्यों जाएगा? वह कोई औषधि क्यों लेगा? वह कोई इलाज क्यों करवाएगा? वह अस्पताल जाने के लिए राजी ही नहीं होगा? उसे तो विश्वास है कि वह स्वस्थ है, वह पूर्ण स्वास्थ्य की दशा में है...और वह मर रहा है। उसका विश्वास ही उसे मार डालेगा।
इसलिए मैं कहता हूं कि यह कल्पना बड़ी खतरनाक है, पंडित-पुरोहितो और राजनेताओं द्वारा कभी भी विकसित की गई सबसे खतरनाक कल्पना: कि पृथ्वी पर मनुष्य तो पहले से ही है। पृथ्वी पर रह रहे ये लाखों करोड़ो लोग मात्र संभावनाएं है। और दुर्भाग्य से इनमें से बहुत से यंत्र की भांति ही मर जाएंगें।
मेरा क्या अर्थ है, जब मैं कहता हूं कि मनुष्य एक यंत्र है? कि मनुष्य अतित में जीता है। मनुष्य एक मृत ढांचे से जीता है। मनुष्य एक आदत से जीता है। मनुष्य एक क्रम-बद्ध जीवन जीता है। आदमी बार-बार उसी घेरे में, उसी ढर्रे में घूमता ही रहता है। क्या तुम अपने जीवन में इस दुष्चक्र को नहीं देखते? तुम प्रति दिन वही काम करते आ रहे हो, आशा करना, क्रोधित होना, इच्छा करना, महत्वकांक्षी होना, एंद्रिक, कामुक होना, निराश होना, फिर आशा करना, फिर से सारा चक्कर शुरू हो जाता है। हर आशा निराशा में ले जाती है, इससे विपरीत कभी नहीं होता, और हर निराशा के बाद एक नई आशा--और चक्र फिर से घूमना शुरू हो जाता है।
पूरब में हम इसे संसार चक्र कहते है। यह एक चक्र है! इसकी तील्लियां वही के वही हैं। और तुम बार-बार इसके द्वारा धोखा खाते हो। तुम फिर से आशा करना प्रारंभ कर देते हो। और तुम जानते हों--तुमने पहले भी आशा की है, तुमने लाखों बार आशा की है, और उस आशा से कुछ भी नहीं होता। बस चक्र घूमे चला जाता है--और तुम्हें मारे चला जाता है। तुम्हारे जीवन को नष्ट किए चला जाता है।
समय तुम्हारे हाथों से निकला चला जा रहा है। हर क्षण जो खो जाता है सदा के लिए खो जाता है, और तुम लगातार पुराने को ही दोहराएं चले जाते हो।
यही है मेरा तात्पर्य जब मैं कहता हूं कि मनुष्य एक यंत्र है। मैं जॉर्ज गुरजिएफ की इस बात से पूरी तरह से सहमत हूं। गुरजिएफ कहते थे की अभी तुम्हारे पास कोई आत्मा नहीं है। यह बात कि तुम्हारे पास कोई आत्मा नहीं है, इतने प्रबल रूप से इस बात को कहने वाला वह पहला व्यक्ति था। हां, आत्मा तुम्हारे भीतर पैदा हो सकती है, उसे जन्म दिया जा सकता है। तुम्हें इसे जन्म देना होगा। तुम्हें इसे जन्म दे सकने के योग्य बनना होगा।
सदियों-सदियों से पंडित-पुरोहित तुम्हें बताते चले आ रहे है कि आत्मा तुम्हारे पास है। यानी मनुष्य तो तुम पहले से ही हो। लेकिन ऐसा नहीं है। तुम्हारे भीतर केवल इसकी संभावना है। तुम सच वास्तव में एक मनुष्य हो सकते हो, परंतु पहले इस कल्पना को नष्ट करना होगा। इसके तथ्य को भीतर से देखो, इसे जानों, कि तुम चेतन-अस्तित्व नहीं हो, और यदि तुम चेतन अस्तित्व नहीं हो, तब मनुष्य कैसे कहलाएं जा सकते हो?
एक चट्टान में और तुम में क्या अंतर है? एक पशु में और तुममें क्या अंतर है? एक वृक्ष में और तुम में क्या अंतर है? अंतर है चेतना का परंतु चेतना तुम है ही कितनी? जरा सी एक टिमटिमाहट इधर, जरा सी उधर। बस कभी-कभी, किन्ही दुर्लभ क्षणों में, तुम चेतन होते हो, और वह भी बस कुछ क्षणों के लिए और फिर से तुम मूर्च्छा में गिर जाते हो। हां, कभी-कभी ऐसा घटता है, क्योंकि यह तुम्हारी संभावना है। क्योंकि कभी-कभी तुम्हारे बावजूद यह घटना घट जाती है।
किसी दिन सूर्य उदय हो रहा होता है और तुम अस्तित्व के साथ एकलयहो जाते हो--तब अचानक ये घटना घटती है। इस का सौंदर्य, इसका आशीर्वाद, इसकी सुगंध, इसका प्रकाश तुम पर बरस जाता है। अचानक यह (चेतना) वहां तुम्हें घेर लेती है। तुम्हारे मुख में एक स्वाद भर जाता है, तुम्हारे नासापुट एक अदभुत सुगंध से भर जाते है। परंतु जैसे ही तुम सजग हुए, तुमने सोचना शुरू किया कि तुम चूकेबस पल भर के लिए होता है वहा कुछ फिर तुम वही लोट आते हो अपने संसार में अपने विचारो में। केवल एक मधुर स्मृति पीछे रह जाती है। यह आती है, किन्हीं दुर्लभ क्षणों में, कभी प्रेम में, कभी किसी बच्चे को खेलते देखते हुए उसकी किलारियां मारते समय, कभी-कभी संगीत सुनते हुए, कभी किसी एकांत में मधुर झरने के कलरव गान में, परंतु ऐसे क्षण विरल ही होते हैं।
यदि एक साधारण व्यक्ति, एक तथाकथित साधारण व्यक्ति अपने समस्त जीवन में जागरूकता के सात क्षण भी मुश्किल से प्राप्त कर पता है। यह काफी अधिक है। यह भी मुश्किल से बहुत ही मुश्किल से, बस कभी एक किरण प्रवेश करती है, फिर कुछ ही क्षण में वह जा चुकि होती है। और फिर तुम अपनी वहीं पुरानी जिंदगी में वापस लौट आते हो, पहले कि ही तरह सुस्त और मुर्दा। और ऐसा केवल साधारण लोगों के साथ ही नहीं होता, तुम्हारे तथाकथित असाधारण लोगों के साथ भी ऐसा ही होता है।

अभी उस दिन मैं कार्ल जुंग, इस युग के महानतम मनस्विदों में से एक के विषयमें पढ़ रहा था। और बड़ी हैरानी भी होती है कि ऐसे लोग मनस्विद कहे भी जाएं या नहीं। वह एक बड़ा ही बैचेन व्यक्ति था, बहुत ही अशांत। वह एक क्षण के लिए भी टिक कर नहीं बैठ सकता था। वह कुछ न कुछ हमेशा करता ही रहता था, और यदि करने को कुछ भी नहीं है तो वह अपना पाइप पीने लग जाता था। और वह निरंतर धूम्रपान करने वाला व्यक्ति था। फिर एक दिन उसे दिल का दौरा पड़ा और चिकित्सकों ने उससे धुम्रपान बंद कर देने के लिए कहा। अब यह तो उसके लिए बड़ा ही कठीन था। उसे अपनी बैचेनी और भी अधिक महसूस होने लगी। वह तो लगभग पागल जैसा हो गया। वह बस कमरे में इधर से उधर टहलता रहता या बाहर बगिचे में बिना किसी कारण के घूमता रहता। वह कभी इस कुर्सी पर बैठता, कभी उस कुर्सी पर बैठता। अपनी बैचेनी से बचने का एक तथ्य उसे समझ आया ये पाइप उसकी बहुत सहायता कर सकता है। ये मात्र एक विसर्जन था, अपनी बैचनी को पाइप की सहायता से मुक्त करना। इसलिए उसने चिकित्सको से पूछा, ‘क्या मैं खाली पाइप अपने मुंह में रख सकता हूं? क्या इसकी इजाजत मुझे मिलेगी? खाली पाइप! इससे मुझे सहायता मिलेगी।
इस बात की उसे अनुमती दे दी गई, और फिर वर्षो तक वह खाली पाइप अपने मुंह में दबाए रखता था, बस यह दिखावा करता हुआ कि वह धूम्रपान कर रहा है। कभी वह उस पाइप की और देखता और उसे हाथ में लेता, उस के साथ खेलता। और यह इस युग के एक महान मनस्विद की बात है! कितनी मूर्च्छा! यह देखने से ही कितना बचकाना जान पड़ता है। और फिर उसे हम युक्ति संगत ठहराने के उपाय ढूंढते रहते है। फिर हम स्वयं से आडंबर करते रहते हैं, हम स्वयं को बचाते है और उसकी सुरक्षा करते भी करते हैं, कि हम ऐसा क्यों कर रहे है।
पैंतालीस वर्ष की आयु में कार्ल जुंग एक जवान स्त्री के प्रेम में पड गया। वह एक विवाहित व्यक्ति था, उसकी एक बड़ी प्यारी पत्नी थी। इसमें कुछ गलत न था परंतु यह भी एक प्रकार की बैचेनी ही रही होगी। यह लगभग हमेशा होता है कि पैंतालीस की आयु के आस-पास जाकर आदमी यह महसूस करने लग जाता है कि सारा जीवन तो चला गया। मौत करीब आ रही है। और मौत करीब आने के कारण या तो तुम आध्यत्मिक हो जाते हो या फिर अधिक कामुक हो जाते हो।
ये दो ही सुरक्षाएं है: या तो तुम सत्य की, शाश्वत की खोज की तरफ मुड जाते हो, जहां कि कोई मृत्यु नहीं है, या तुम अधिक कामुक कल्पनाओं में अपने आप को डुबो देते हो। और विशेष रूप से बौद्धिक व्यक्ति, जिंहोंने अपना सारा जीवन सिर में ही जिया है। पैंतालीस की आयु में जाकर अधिक शिकार बनते है। फिर कामुकता उनसे बदला लेती है, इसे इंकार किया गया है, अब मृत्यु समीप आ रह है। और फिर कौन जानता है कि तुम यहां होओगे या नहीं, फिर से ये जीवन होगा या नहीं। यहां मृत्यु समीप आ रही है, और अभी तक तो तुम अपने सिर से ही जिएं हो। कामुकता प्रतिशोध की भावना के साथ फूट पड़ती है।
कार्ल गुस्ताव जुंग एक नवयुवती के प्रेम में पड़ गया। अब यह बात तो उसकी प्रतिष्ठा के बिलकुल विपरीत थी। पत्नी भी परेशान थी, क्योंकि पत्नी ने उसे बहुत प्रेम किया था। उस पर बहुत भरोसा किया था। देखो उसने इसे भी किस सुंदर ढंग से युक्तिसंगत ठहरा दिया। उसकी तरकीब तो देखो--इसी तरह तो मूच्छित व्यक्ति जिए चला जाता है। वह अचेतन ढंग से कोई काम करेगा, फिर उसे युक्तिसंगत ठहराएगा, और यह साबित करने की कोशिश भी करेगा कि यह अचेतन नहीं है: मैं इसे बड़े होश से कर रहा हूं--सच तो यह है कि इसे सभी को किया ही जाना चाहिए।
उसने क्या किया? उसने एक सिद्धांत विकसित किया कि संसार में दो तरह की स्त्रियां होती है: एक मां के वर्ग की, देखभाल करने वाली श्रेणी की, दुसरी पत्नी के किसम की, प्रेमिका जैसी, एक रखेल जैसी, जो तुम्हारी प्रेरणा बन जाती है। और आदमी को दोनों की जरूरत होती है--और कार्ल गुस्ताव जुंग जैसे व्यक्ति को तो निश्चित दोनों की ही जरूरत होती है। उसे तो प्रेरणा की आवश्यकता भी है,और उसके देख भाल करने वाली स्त्री की भी जरुरत है। इस कार्य को उसकी पत्नी पूरा कर रही है--वह प्रेम करने वाली है, वह मां की श्रेणी की है। मगर इससे उसकी आवश्यकता तो पूरी होती नहीं--उसे तो प्रेरणा भी तो चाहिए, उसे एक रोमांटिक स्त्री भी चाहिए, एक प्रेमिका जो उसे गहरे सपनों में ले जा सके, उसके लिए यह आवश्यक अति आवश्यक है। जुंग ने इस सिद्धांत का विकास किया। यह मांग एक युक्तिसंगत है।
अब देखों मन की चालबाजी, उसने इस सिद्धांत का दूसरा भाग विकसित नहीं किया, पुरुष भी तो दो प्रकार के होते है, यही तो तुम जान सकते हो कि यह भी एक युक्तिसंगत बात है। अगर यह एक सच्ची अंतर्दृष्टि होती, पिता किस्म के और प्रेम किस्म के...फिर तो जुंग की पत्नी को भी दो की आवश्यकता हो सकती है। और होनी भी चाहिए! यदि जुंग भी सोचता है कि वह प्रेमी किस्म का है, तब उसे पिता किसम के पुरुष की आवश्यकता होगी। और यदि वह यह समझता है कि पिता किस्म का है तो उसे प्रेम किस्म के व्यक्ति की जरूरत होगी। परंतु वह दूसरा सिद्धांत तो उसने कभी विकसित किया ही नही। इसी से तुम देख सकते हो कि यह अंतदृष्टि नहीं है। यह बस एक चालबाज मन है, एक युक्ति संगतता है।
हम युक्तिसंगतता किए चले जाते है। हम चीजों को बेहोशी में करते चले जाते हैं। हम उन्हें करते है बिना यह जाने कि हम ऐसा क्यों करते आ रहे है। परंतु हम इस तथ्य को स्वीकार नहीं करते की ये सब एक यंत्रवत हम कर रहे है: मैं भला कोई ऐसा काम कर सकता हूं, जिसके प्रति मे सजग नहीं हूं, मैं इसे बिना जाने ही कर रहा हूं।मन की इन चालबाजीयों से इन युक्ति संगतताओं से सावधान रहो। और फिर इस तरह के लोग दूसरों की किस तरह से सहायता कर सकते हैं। यह एक जाना माना तथ्य है, कि काल जुंग के बहुत से रोगियों ने आत्महत्या कर ली थी। क्यों? वे तो सहायता प्राप्त करने के लिए आये थे--उन्होंने आत्महत्या क्यों कि? कोई बात जरूर आधारभूत रूप से गलत होगी। उसका विश्लेषण सब बकवास था। वह एक बड़ा घमंडी व्यक्ति था, एक अहंकारी, सदा लड़ने को तत्पर रहता था। शायद उसका सारा मनोविश्लेषण ही सिग्मंड फ्रॉयड के विरोध में उसके अहंकार से विकसित हुआ। शायद पुनः यह एक युक्तिसंगतता मात्र है, क्योंकि वह स्वयं उन्हीं समस्याओं से पीड़ित जान पड़ता है, जिनके विषय में वह दूसरों की सहायता करने की सोच रहा है।
जुंग सदा भूत-प्रेतों से भयभीत रहता था, अपने बुढ़ापे में भी वह भूत-प्रेतों से डरता था। अपने जीवन काल में उसने अपनी सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक को प्रकाशित न किया, क्योंकि वह डरता था कि लोगों को तथ्यों का पता चल जाएगा। इसलिए उसके संस्मरण प्रकाशित तो हुए। परंतु उसके लिए उसने यह सुनिश्चित कर लिया था कि उसे उसकी मृत्यु के बाद प्रकाश्ति करें। अब, यह किस ढंग का सत्य और प्रामाणिकता है? वह गलत पाए जाने, या भूल में होने से इतना डरता था कि उसने अपने जीवन काल मे अपने जीवन से संबंधित कोई तथ्य प्रकशित न होने दिया।
मैं एक घटना पढ़ रहा था:
एक व्यक्ति मनोचिकित्सक के पास आया और उसने चिकित्सक के सामने अपनी सारी जिंदगी की कथा खोल कर रख दी, अपने बचपन के अनुभाव, अपनी भावनात्मक जिंदगी, अपनी भोजन की आदतें, अपनी कामकाजी समस्याएं, और जो कुछ भी वह सोच सकता था। हूंचिकित्सक ने कहा: मुझे तो ऐसा नहीं लगता कि तुम्हारे साथ कुछ गड़बड़ है। तुम तो उतने ही स्थिर बुद्धि जान पड़ते हो जितना कि मैं हूं।
लेकिन, डॉक्टररोगी ने प्रतिरोध किया, आतंक का एक स्वर उसकी आवाज में झलक आया था, ‘ये जो तितलियां हैं, इन्हें मैं बिलकुल बर्दाश्त नहीं कर सकता। जो मेरे पूरे शरीर पा चढ़ी हुई है।
भगवान के लिए’, डॉक्टर पीछे हटते हुए चिल्लाया, ‘कृपाय उन्हें मेरे उपर तो मत झाड़ो।
तुम्हारे रोगी हो चिकित्सक, सब एक ही नाव में सवार हैं। मनोविश्लेषक और विश्लेषी एक-दूसरे से बहुत दूर नहीं है। यह एक खेल है। शायद मनोविश्लेषक अधिक चतुर है, पर ऐसा नहीं है कि वह सचाई को जानता है--क्योंकि सचाई को जानने के लिए तुम्हें अत्यंत होशपूर्ण होना होगा। इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। यह बौद्धिक चिंतन का प्रश्न नहीं है। तुम्हारी दार्शनिकता से इसका कुछ लेना-देना नहीं है। सत्य को जानने के लिए व्यक्ति को सजगता में विकसित होना ही होता है।
गुर्जिएफ एक भविष्य के मनोविज्ञान की बात करता था। वह कहता था कि मनोविज्ञान अभी है नहीं, क्योंकि यह हो कैसे सकता है। अभी तो मनुष्य ही नहीं है। जब मनुष्य ही नहीं है तो उसके विषय में मनोविज्ञान कैसे हो सकता है। पहले तो मनुष्य को अस्तित्व में आना होगा, फिर मनुष्य के विषय में कोई विज्ञान अस्तिव में आ सकता है। अभी तो, जो कुछ भी है उसे मनोविज्ञान तो नहीं कह सकते, शायद उस यंत्र के विषय में है, जो आज मनुष्य है।
मनोविज्ञान केवल एक बुद्ध के आस-पास ही खड़ा हो सकता है। क्योंकि बुद्ध पुरूष जीता है होशपूर्वक। क्या उसका मनस है, क्या उसकी आत्मा है, यह तुम खोज ले सकते हो। साधारण आदमी जीता है बिना किसी आत्मा के। हां, तुम उसकी यंत्र-रचना में कोई गड़बड़ी पा सकते हो, और वह गड़बड़ी ठीक भी की जा सकती है। आज जिसे हम मनोविज्ञान की तरह से जानते है, वह और कुछ भी नहीं बस यह यही यंत्र सरचना है। और इस अर्थ में पावलॉक और स्किनर, फ्रॉयड और जुंग से कहीं अधिक सच है--क्योंकि वे सोचते है कि मनुष्य एक यंत्र है। और ये ठीक भी है, जैसा आज मनुष्य है, वे उस विषय में सच ही सोचते है। क्योंकि वे सोचते है कि यही अंत है: मनुष्य और कुछ भी नहीं हो सकता। यही उनकी सीमा है, वे सोचते है कि मनुष्य केवल यंत्र ही हो सकता है। जहां तक वर्तमान समय के मनुष्य का प्रश्न है, वे सही हैं, मनुष्य एक यंत्र है--परंतु वे यह भी सोचते है कि मनुष्य और कुछ हो भी नहीं सकता। यहां बात अधुरी है, यहां वे गलती पर हैं। लेकिन फ्रॉयड, जुंग और एडलर तो और भी गलत है, क्योकि वह तो सोचते हैं कि मनुष्य अभी इस प्रथ्वी पर है ही। अवश्यकता तो बस इस बात की है कि तुम उसका अध्यन करो और फिर तुम उसे जान जाओगे। पर मनुष्य वहां है ही नहीं। वहां तो एक बड़ी अचेतन घटना है।
मनुष्य एक कल्पना है--इसे एक सर्वाधिक आधार भूत अंतर्दृष्टि बनने दो। यह तुम्हारी सहायता करेगी, तुम्हें झूठ से बाहर निकलने में, धोखे से बाहर निकलने में।
तंत्र तुम्हें और भी अधिक होशपूर्ण बनाने का एक प्रयास है। तंत्र शब्द का अर्थ ही है, ‘चेतना का विस्तार।यह एक संस्कृत शब्द मूल तनसे आता है: तन का अर्थ है विस्तार। तंत्र का अर्थ हो गया चेतना का विस्तार--और मौलिक तथ्य, सर्वाधिक आधारभूत तथ्य जो समझना है वह यह है कि तुम गहन निंद्रा में हो, तुम्हें जगाया जाना है।
तंत्र भरोसा करता है, समूह-विधियों में--यह बात भी समझ ली जानी चाहिए। उस अर्थ में गुर्जिएफ इस युग के सर्वाधिक महान तांत्रिकों में से एक है। उदाहरण के लिए: यदि कोई सौया हुआ है तो बहुत कम संभावना है कि वह अकेला जाग सकेगा। इसे इस तरह से समझो: नववर्ष पर तुम सोचते हो, जैसा कि तुमने सदा सोचा है, और कितने ही नव दिवस बीत गए, सदा तुमने कसम खाई कि दुबारा अब कभी धूम्रपान नहीं करोगे--और फिर से नया वर्ष आ गया है और तुम सोचने लग जाते हो कि इस बार तो यह होगा ही। तुम कसम खाते हो कि तुम अब कभी धूम्रपान नहीं करोगे, परंतु यह बात जाकर तुम दूसरे लोगों से नहीं बताते, तम्हें एक डर लगता है। दूसरों को यह बताना खतरनाक है, क्योंकि स्वयं को तो तुम जानते ही हो: बहुत बार तुमने अपनी कसम तोड़ी है--यह बड़ी प्रतिष्ठा-नाशक बात है। इसलिए तुम इसे अपने तक ही सिमित रखते हो: अब सौ मे से बस एक कि ही संभावना है कि कसम बनी रहेगी; निन्यान्वे संभावनाएं यहीं है कि देर-सवेर यह टूटेगी।
तुम एक अचेतन प्राणी हो, तुम्हारी कसम का कोई खास मतलब नहीं है। मगर यदि तुम जाओ और शहर में हर किसी को बता दो--मित्रों को, सह-कर्मियों को, बच्चों को, पत्नी को, तुम हर किसी से जाकर कह दो कि, ‘मैंने कसम खाई है कि अब मैं धूम्रपान नहीं करूंगा,’ तब संभावनाएं अधिक हैं, कम से कम दस प्रतिशत, कि तुम धूम्रपान न करोगे। पहले केवल एक संभावना थी, अब दस हो गई। नब्बे प्रतिशत संभावना अभी भी यही है कि तुम धूम्रपान करोगे, परंतु धूम्रपान न करने के पक्ष में अब पहले से अधिक भूमि है। एक ज्यादा ठोस आधार है। एक प्रतिशत से बढ़कर यह दस प्रतिशत हो गया। परंतु यदि तुम किसी धूम्रपान न करने वाले समूह मे शामिल हो जाओ, उस तरह कि किसी संस्था के सदस्य हो जाओ, तब संभावना और भी अधिक बढ़ जाती है। निन्यान्वे प्रतिशत संभावना है कि तुम धूम्रपान न करोगे। क्या हो गया?
जब तुम अकेले होते हो, तुम्हें बहार से कोई सहयोग नहीं मिलता--तुम अकेले हो, तुम आसानी से नींद में गिर सकते हो। और किसी को पता भी नहीं होता, इसलिए तुम्हें चिंता भी नहीं होती। जब सब को पता होता है, उनकी जानकारी ही तुम्हें अधिक सज रखने का काम करती है। अब तुम्हारा अहंकार दांव पर है, तुम्हारी प्रतिष्ठा और सम्मान दांव पर है। परंतु अगर तुम अधूम्रपानियों की किसी संस्था में शामिल हो जाओ, तब तो संभावना और अधिक है--क्योंकि तुम आदतों से जीते हो! कोई सिगरेट का पैकेट अपने खीसे से निकालता है और अचानक तुम भी अपने खीसे को टटोलने लग जाते हो। तुम बस यांत्रिक हो, कोई धूम्रपान कर रहा है और तुम सोचने लगते हो कि धूम्रपान में कितना मजा था। कोई भी धूम्रपान नही करता और तुम गैर-धूम्रपानियों के साथ हो, तब कोई तम्हें याद भी नही दिलाएगा, और आदत धीरे-धीरे अदृश्य हो जाएगी। यदि किसी आदत का उपयोग न किया जाए, वह धीरे-धीरे अदृश्य हो जाती है, यह तुम्हारे ऊपर से अपनी पकड़ खो देती है।
तंत्र कहता है कि मनुष्य केवल समूह विधियों द्वारा, स्कूलों द्वारा, जाग सकता है। यही कारण है कि मैं संन्यास पर इतना जोर देता हूं। अकेले, तुम्हें कोई मौका नहीं है। साथ-साथ संभावना काफी अधिक है। यह ऐसा ही है जैसे कि दस आदमी एक रेगिस्तान मे खो जाएं, और रात में बहुत खतरा हो, दुश्मन उन्हें मार दे सकता है, जंगली जानवर उन्हें मार दे सकते है, डाकू आ सकते है, हत्यारे आ सकते हैं, बड़ी विपत्ति है। अब वे एक समूह-विधि का निर्माण करते है, वह कहते है, ‘हम में से प्रत्येक एक-एक घंटे जागेगा।यह सोचना कि उनमें से हर व्यक्ति रात में आठ घंटे जाग सकेगा, एक मूर्च्छित व्यक्ति से यह आशा करना बहुत अधिक है, परंतु हर व्यक्ति एक घंटे तो जागा ही रह सकता है। और इससे पहले कि वह सोने लगे, वह किसी अन्य को जगा देगा, तब इस बात की अधिक संभावना है कि उस समूह में कम से कम एक व्यक्ति तो सारी रात जागता रहेगा।
अथवा, जैसे कि गुर्जिएफ कहा करता था: तुम एक कारागृह में हो और तुम कारागृह से बाहर आना चाहते हो। अकेले बाहर आने के अवसर बहुत ही कम है, लेकिन यदि सभी कैदी समूह बना लें, तब काफी संभावना हो जाती है। वे गॉर्ड को उठा कर फैंक सकते है, वे गॉड को मार सकते है। वे दीवार तोड़ ले सकते है। यदि सभी कैदी एक साथ हो जाएं तो संभावना अधिक हो जाती है कारागृह से बाहर आने की।
मगर संभावनाएं और भी अधिक बढ़ जाएगी यदि ऐसे लोगों से संपर्क हो जो कि कारागृह के बाहर है। जो कि पहले से ही स्वतंत्र हो चूके है। गुरू खोज लेने का कुल इतना ही अर्थ है, किसी ऐसे व्यक्ति को खोज लेना जो कारागृह के बाहर है। वह अत्यंत सहायक हो सकता है--कई कारणों से। वह उन आवश्यक चीजों की पूर्ति कर सकता है जिनकी कारागृह से बाहर आने
के लिए तुम्हें आवश्यकता पड़ सकती है। वह तुम्हें यंत्र भेज सकता है, आरियां, ताकि तुम सींकचे काट कर बाहर आ सको। वह बाहर से देख सकता है कि कब गॉड बदलतें हैं, तब तुम्हें सूचित कर सकता है--उस अंतराल में तुम बाहर निकलने संभावना बन जाती है। वह तुम्हें सूचना दे सकता है कि जब गॉड रात में सो जाते है। वह ऐसी भी व्यवस्था कर सकता है कि गॉड किसी रात्रि विशेष में शराब पीकर बेहोश हो जाएं। वह जेलर को अपने घर किसी पार्टी में आमंत्रित कर ले सकता है। वह हजार तरह कि संभावानएं पैदा कर सकता है, जिसे तुम कारागृह के भीरत से नहीं कर सकते। वह तुम्हारी बाहर से सहायता कर, ऐसा वातावरण निर्मित कर सकता है ताकि जब तुम कारागृह से बाहर आओ, लोग तुम्हें स्वीकार कर लें, तुम कारागृह के बाहर आ भी सकते हो परंतु समाज तुम्हें पुनः कारागृह के अधिकारियों को सौंप देगा।
किसी ऐसे व्यक्ति के संपर्क में आना, जो पहले से ही जागा हुआ हो, ये अत्यंत आवश्यक है। और ऐसे लोगो का साथ होना भी अति आवश्यक है, जो जागने के लिए तैयार हो, या सोच रहे हो। संघ का या समूकि विधि का यही अर्थ है। तंत्र एक समूह विधि है। यह कहता है: साथ रहो। सारी संभावनाएं जान लो, बहुत से लोग साथ हो सकते है, कोई अधिक बुद्धिमान है, और कोई प्रेमपूर्ण है। दोनों ही अधुरे है, पर अगर साथ हो जाएं तो उनमें एक सम्पूर्णता आ जाती है।
पुरुष आधा है स्त्री भी आधी है। तंत्र के अतिरिक्त सभी साधको ने दूसरो के बिना चलने का प्रयत्न किया हे। पुरुष ने अकेले प्रयत्न किया है, स्त्री ने भी अकेले प्रयत्न किया है। तंत्र कहता है: क्यों न हम सब मिल कर साथ हो लें, मिलकर साथ चले एक दूसरे के सहयोग के साथ? स्त्री आधी है, पुरुष भी आधा है--मिलकर वे एक बड़ी ऊर्जा हैं, पूर्ण वर्तुल, एक अधिक स्वस्थ ऊर्जा। दोनों साथ हो जाओ। यिन और यांग को साथ-साथ काम करने दो। इससे बाहर निकल जाने की तब ज्यादा संभावना होगी।
दूसरी विधियां लड़ाई और संघर्ष का प्रयोग करती है। पुरुष अपने भीतर की स्त्री से लड़ना शुरू कर देता है, और स्त्रियों से बचकर भागना शुरू कर देता है। एक दूसरे की सहयता की संभावना थी जहां, उस का उपयोग न कर के वह एक दूसरे के शत्रु जैसे हो जाते है। तंत्र कहता है कि यह महज मूढ़ता है, तुम स्त्री से लड़ने में व्यर्थ अपनी ऊर्जा नष्ट कर रहे हो--क्योंकि लड़ने के लिए और बड़ी बाधाए है। लड़ने की बजाए स्त्री के साथ रहना कहीं अधिक बेहतर है। एक इकाई की भांति साथ-साथ रहो और अचेतन प्रकृति का सामना करने की तुम्हारी अधिक संभावना होगी।
सभी संभावनाओं का उपयोग कर लो, तभी कुछ संभावना है कि तुम एक चेतन प्राणी के रुप में विकसित हो सकोगे, तुम एक बुद्ध बन सकोगे।

अब सूत्र प्रवेश करते है--बड़े ही महत्वपूर्ण सूत्र हैं।

पहला सूत्र:

सड़े मांस की गंध पर रीझने वाली मक्खी को
चंदन की सुगंध भी, जान पडती है दुर्गंध
प्राणी जो तज देते है निर्वाण को
लोलुप हो जाते हैं क्षुद्र संसारिक विषयों के ...

पहली बात: जैसा कि मैंने अभी कहा--मनुष्य एक यंत्र है। मनुष्य जीता है आदतों से, अतीत से, स्मृतियों से। मनुष्य जीता है उस जानकारी से जा उसने जान रखी है। जो पहले से ही प्राप्त है, इसलिए वह नए से हमेशा चूक जाता है,...और सत्य है सदा नया। वह उस मक्खी की तरह से है जिसे सड़े मांस की गंध तो भाती है, वह गंदी बदबूदार दुर्गंध, परंतु वह मक्खी को चंदन की सुगंध नहीं महसूस होती उसे वह बदबू लगती है। उसकी मजबूरी है क्योंकि उसके पास स्मृतियों को एक विशिष्ठ ढ़ांचा है। जो उसके पूर्वजों ने अतित से उसे महसूस किया है। उसने सदा सोचा कि सड़े मांस की गंध ही सुगंध है। वही उसका ज्ञान है, वही उसकी आदत है, वही उसकी चर्या है--वही उसका मृत अतित है। वही उसका ज्ञान है, वही उसकी आदत बन गया। चंदन की सुगंध उस मक्खी को बहुत बदबूदार और खराब दुर्गंध जान पड़ेगी।
हैरान मत होना...तुम्हारे साथ भी यही हो रहा है। यदि तुम देह में बहुत अधिक जिए हो, तब ऐसे व्यक्ति जो आत्मा में जी रहा है, उसके समीम भी आना तुम्हें ऐसा लगेगा तुम अब मिटे तुम अंदर तक सिहर जाओगे। एक बुद्ध के पास आकर तुम सुगंध का अनुभव नहीं करोगे, हो सकता हैं तुम्हें दुर्गंध आनी शुरू हो जाए। तुम्हारी अपनी व्याख्या--वर्ना तो लोग क्यों ईसा मसीह की हत्या करते? जीसस एक चंदन थे! और लोगों ने उसे मार डाला। लोगों ने सुकरात को जहर दे दिया। सुकरात भी एक चंदन ही था। लेकिन मक्खियों--वे अपने अतित को समझती है, वे अपने अतित के अनुसार ही व्याख्या करती है।
एक दिन में पढ़ रहा था: एक वैश्या, एथेंस की सबसे मशहूर वैश्या, एक दिन सुकारात के पास आई। वहां केवल कुछ ही लोग सुकरात के पास बैठे थे। सुकारात उनसे बातें कर रहे थे। उस वैश्या ने चारों और देखा और सुकरात से कहा, ‘क्यों? आप जैसा महान व्यक्ति और इतने थोड़े से व्यक्ति ही उसे सुनने के लिए बैठे है। मैं तो सोचती थी सारा एथेंस ही यहां पर पहूंच गया होगा। और यहां के सर्वाधिक सम्मानित, आदरणीय, राजनेताओं, पंडित-पुरोहितों को यहां देख नहीं रही हूं। क्या कारण है इसका? सुकरात, कभी तुम मेरे घर पर आओ--तुम इन सब को एक पंक्ति में खड़ा वहां पाओगे।
सुकरात ने कहा: तुम सही कहती हो--क्योंकि तुम एक सार्वभौमिक आवश्यकता की पूर्ति करती हो--मैं नहीं करता। मैं तो थोड़े से लोगों को आकर्षित करता हूं, कुछ थोड़े से चुने हुए लोग। दूसरे मेरी सुगंध महसूस नहीं कर सकते। वे बचते है। यदि वह मेरे रास्ते में पड़ भी जाते है कभी तो देख कर तुरंत भाग जाते है। वे बहुत भयभीत हो जाते है। क्योंकि मेरी सुगंध भिन्न है।
वह वेश्या अत्यंत बुद्धिमती रही होगी। उसने सुकरात की आंखों में देखा, और उसके चरणों म ेंझूकी और कहां: सुकरात, मुझे अपना मित्र स्वीकार कर लो,’ और कहते है कि फिर वहां से वह कभी नहीं गई, उस छोटे से समुदाय का एक अंग बन कर रह गई।
सच ही वह एक अत्यंत जागरूक स्त्री रही होगी--इतना अचानक परिवर्तन। वह पल में यह बात समझ गई, परंतु देखों एथेंस ने उसी सुकारत को जहर देकर मार डाला। उन्हें वह आदमी पसंद नहीं आ रहा था। वह आदमी बड़ा ही खतरनाक जान पड़ता था। उसके खिलाफ बहुत से झूठे आरोप लगाये गये। उसमें से यह एक था कि वह लोगों के विश्वास को नष्ट कर रहा है। वह नवयुवको के मन को भ्रष्ट कर रहा है। वह एक अराजकवादी है। यदि उसे और जिंदा रहने दिया गया तो, वह सारे समाज कि जड़ें उखाड़ जाएगी।
वह एक अलग ही काम कर रहा था, वह अ-मन की एक स्थिति निर्मित करने की कोशिश कर रहा था। लेकिन लोगों ने सोचा, ‘कि वह लोगों के मन को नष्ट कर रहा है, वे भी अपनी जगह सही है, मक्खियां। हां, नवयुवक सुकरात की और बहुत आकर्षित हो रहे थे--क्योंकि केवल नौजवान ही इस सूगंध से प्रभावित हो सकते है, केवल यौवन में ही सहास है, ये केवल शरीर की बात नहीं अंतस के यौवन की बात है। आप जवान हो कर भी युवक नहीं हो और एक साठ साल का व्यक्ति आपको युवा लगेगा। जिविंत्ता की बात है ऊर्जा की बात है। कुछ वृद्ध लोग मेरे पास आते है, सुकरात के पास भी आते होंगे, जो जवान ही होते है। इसी कारण तो वे आते है, वर्ना तो वे आ ही नहीं सकते। शायद उनका शरीर वृद्ध जरूर हो गया है, अगर कोई वृद्ध व्यक्ति या स्त्री मेरे पास आती है, इसलिए कि उनकी आत्मा अभी भी जवान है। उनके अंदर का यौवन आज भी ताजा है, वे नए को समझना उसमें डूबना चाहते है, युवक में ही सहास हो सकता है। कहावत है कि एक बुढे कुत्ते को कोई नए करतब नही सिखा सकता। यह अत्यंत ही कठीन कार्य है। वह जिन्ह पूराने करतबों को जानता है उन्हें ही दोहराता रहता है। इसी तरह से एक बूढ़ा मन कोई नई चीज सिख पाने में कठीनाई महसूस करेगा।
और ये सब बातें आमूल रूप से इतनी भिन्न हैं, तुम्हें जो कुछ भी सिखाया गया है, उस सबसे इतनी नितांत विपरीत है कि कोई व्यक्ति सच में युवा न हो, वह इन्हें सून और समझ ही नहीं सकता।
इसलिए बुद्ध की और नौजवान हमेशा से आकर्षित होते आए हैं। यह एक संकेत है कि शाश्वत जैसी कोई चीज है वहां, आस्तित्व की कुंवारी अनछूई किरण सुकरात में कहीं तो बह रही थी।
जब जीसस जीवित थे, तुम नवयुवाओं को उसके पीछे चलते हुए पाओगे। तुम युवा लोगों को पोप के पास जाता न पाओगे--वहां केवल बूढ़े लोग, मुर्दा लोग, जो काफी सालों पहले मर चुके है उन्हें ही पाओगे। जब मौलिक शंकराचार्य जीवित थे, तुम उनके आस-पास चारों तरफ युवा लोगों को पाते हो। लेकिन पुरी के शंकराचार्य को केवल मुर्दा लोग, जो मात्र अब एक लाश है उसे बैठे हुए पाओगे। जीवंत लोग--जो अभी ऊर्जा से लवरेज है, उसे नही पाओगे।
तुम जाकर किसी भी मंदिर में देख सकते हो, और तुम केवल बूढ़े आदमियों और बूढ़ी स्त्रियों को ही वहां पाओगे--युवा वहा नहीं होते। सच तो यह है कि जब कभी भी कोई धर्म सच में ही है, वह युवा को आकर्षित करता है, सत्य जब होता है, वह ऊर्जा से लवरेज होता है, उतुंग ऊर्जा। और जब सत्य पुराना हो जाता है, लगभग मृत, तब वह मृत लोगों को ही आकर्षित करता है।
बूढ़े लोग धर्म के प्रति अगर आकर्षित होते है तो केवल मृत्यु के भय के कारण। बुढ़ापे में ता नास्तिक भी आस्तिक हो जाते है...मृत्यु भय के कारण। जब कोई युवा व्यक्ति सत्य की और आकर्षित होता है, वह खिंचाव मृत्यु भय के कारण नहीं होता, क्योंकि मृत्यु बोध तो अभी उसने जाना ही नही, वह तो अभी भी कौसो दूर है। परंतु उसका खिंचाव जो होता है, जीवन के प्रति अत्यधिक प्रेम के कारण होता है। सच्चे और झूठे धर्म के बीच बस यही तो भेद है। झूठा धर्म मृत्युन्मुखी हो जाता है, और सच्चा धर्म जीवनोन्मुखी होता है।
तुमने यह शब्द जरूर सुना होगा, लगभग संसार की सभी भाषाओं में यह कुरूप शब्द है: ईश्वर-भीरु। यह शब्द मृत, कुरूप, मंदबुद्धि, बूढ़े लोगों द्वारा निर्मित किया गया होगा। ईश्वर-भीरु? ईश्वर से भी कोई कैसे डर सकता है और क्यों? अगर तुम ईश्वर से भी डर रहे हो तो उससे प्रेम कैसे कर सकते हो? भय से भी कभी प्रेम उपजा है, उससे तो मात्र घृणा ही उत्पन्न हो सकती है। भय से तो तुम ईश्वर के विरुद्ध हो सकते हो, क्योंकि वह तुम्हारा शत्रु होगा, तुम उसे प्रेम कैसे कर सकते हो? क्या तुम अपनी मां से कभी डरे हो, यदि तुम उससे प्रेम करते हो? तुम अपनी स्त्री से कभी डरे हो, यदि तुम उससे प्रेम करते हो? यदि तुम प्रेम करो, तब वहां पर कोई भय नहीं होता। प्रेम तो सब भय को दूर कर देता हैं। ईश्वर प्रेम..ईश्वर के साथ रोमांटिक तरीके से प्रेम में, ईश्वर के साथ परमानंदित रूप से प्रेम में।
पर यह एक युवा मन के लिए ही संभव है। वह युवा मन अभी युवा शरीर में है या बुढ़े शरीर में है, ये बात गौंण है, असंगत है, परंतु यह तो संभव केवल युवा मन के लिए ही हैं। अब सुकरात को मृत्यु दंड दिया जाता है, क्योंकि वह युवा लोगों को अपनी और आकर्षित कर रहा था। परंतु इस बात को सदा स्मरण रखो: जब कभी भी कोई धर्म पैदा होता है, संसार के सब कोनों से युवा लोग उस तरफ खिंचते चले जाते है, उस तरफ दौड़ते हुए चले आते है।
ये मात्र एक संकेत है, इस बात का कि कुछ जरूर वहां घट रहा है। जब बूढ़े लोग किसी तरफ दौड़े, तुम सुनिश्चित कर सकते हो कि वहां कुछ भी नहीं हो रहा है। वहां पर कुछ भी क्रियात्मक नहीं घट रहा, और जहां नवयुवक जा रहे है, उस स्थान पर जरूर कुछ न कुछ नवनुतन घट रहा है। कुछ सकारात्मक हो रहा है।

सड़े मांस की गंध पर रीझने वाली मक्खी को
चंदन की सुगंध भी, जान पडती है दुर्गंध
प्राणी जो तज देते है निर्वाण को

लोलुप हो जाते हैं क्षुद्र संसारिक विषयों के सत्य अनजान है, रहस्यपूर्ण है। अपनी पुरानी आदतों के साथ तुम इस तक नहीं पहुंच सकते। तुम इस तक तभी पहुंच सकते हो, जब तुम सभी आदतों से निर्वस्त्र हो जाओ।
ईसाई पादरी के चोगे को दि हैबिट’ (आदत) कहते हैं--यह हैबिट शब्द का सुंदर उपयोग है। हां, मैं कहता हूं, जब तुम सभी आदतों से निर्वस्त्र हो जाते हो, सभी आदतों को उतार फैंकते हो, नग्न हो जाते हो। सब संसार के थोपे हुए वस्त्र उतर जाते है, तब तुम स्मृति से नहीं जागरूकता से काम करते हो, यह देखने के दो भिन्न ही ढंग है। जब तुम स्मृति से कार्य करते हो, तुम वह नहीं देखते जो है। तुम वही देखते चले जाते हो जो तुमने पहले देखा था। तुम अतित के संदर्भ में ही वर्तमान की व्याख्या किये चले जाते हो। तुम कुछ ऐसी व्याख्या आरोपित किये चले जाते हो जो है ही नहीं। तुम उन चीजों को देखते चले जाते हो, जो है ही नहीं। और उस सत्य को नहीं देख पाते जो घट रहा है। तुम्हें अपनी स्मृतियों उठा कर अलग रखनी होगी। माना स्मृति एक अच्छी चीज है, उसका उपयोग करो, पर सत्य को कभी भी स्मृति से नहीं जाना जा सकता। सत्य को तो तुम कैसे स्मृति से जान सकते हो? तुमने अपने अतित में तो पहले सत्य को कभी जाना नहीं है।
सत्य को जाना नहीं जा सकता, उसे केवल अनुभुत किया जा सकता है। उसे पिया जा सकता है उसमें जीया जा सकता है। पहले तुम्हें अपनी सभी स्मृतियों को अलग रखना होगा। तुम्हें अपने मन से कहना होगा, ‘शांत रहो, मुझे केवल देखने दो, मैं स्पष्टिता से देखना चाहता हूं, आंखों पर पड़े विचार के, विश्वास के, धर्मग्रंथो के, संस्कारों के, तुम्हारी व्याख्यों के, धर्म के पर्दो से परे केवल कवांरा हो कर देखना है, जहां केवल सत्य हो और वहां कुछ भी नहीं और तो और मैं भी नहीं, बस होना ही रह जाए।केवल तभी तुम अस्तित्व के रहस्य के साथ लयबद्ध हो सकते हो।
और याद रखना: सत्य कभी स्मृति नहीं बनता। तुमने अगर इसे जान भी लिया तब भी यह स्मृति में समाविष्ट नहीं हो सकता। और जब कभी यह फिर होगा, और तुम इसे जानोगे, यह फिर नया और कवांरा ही होगा। यह कभी भी पुराना नहीं दोहराया जाता। यह सदा नया है और नया ही रहता है। यह अनछूया है, ताजा है यही इसका सबसे बड़ा गुण है। सह सनातन है यह कभी पुराना नहीं होता। यह सदा युवा होता है।
इसलिए यदि हे राजन, तुम सत्य को जानना चाहते हो, मुझे जो घटा है, तब आप अपने मन को अलग हटा दिजिए। मैं यह अच्छी तरह से जातना हूं कि हम सबने एक मक्खी की भांति ही इस जीवन को जीया है। देह से और मन से उससे अधिक हम नही जानते। उसके पार भी कोई अदृश्य आलोकिल लोक है आप नही जानते। मैं आपके सामने यहां खड़ा हूं, मैं अब उन दोनों के पार हूं। और हमारे मन के अनुसार इसकी व्याख्या नहीं की जा सकती, इसका कोई भी उपाय नहीं है। यह व्याख्यतित है, यदि तुम सच में ही इसकी अनुभूति करना चाहते हो, तब तुम इसका अनुभव तो कर सकते हो। परंतु इसकी व्याख्या नहीं की जा सकती।
ईश्वर की परिभाषा नहीं की जा सकती। उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती। कृपया इस बात का समरण रखें, इस कि व्याख्या कभी मत करना, क्योंकि यदि तुमने इसकी व्याख्या की, तुम इसे रूपांतरित कर दोगे। जो शब्दों में आयेगा वह कुछ और ही होगा। ईश्वर किसी विचार द्वारा समाहित नहीं किया जा सकता, लेकिन ईश्वर को जिया जा सकता है, वह तुम में घट सकता है, तुम में बरस सकता है, तुम्हें आपनी अनुभूति से अल्हादित कर सकता है, आनंदित कर सकता है। तुम ईश्वर हो सकते हो। यह संभव है। परंतु हमारे मन में ईश्वर समाविष्ट नहीं हो सकता। मन तो एक बहुत ही छोटा सा पात्र है, यह तो तुम्हारी एक चाय के चमच के जैसा है, इसमें प्रशांत महासागर की विशालता को नहीं समेटा जा सकता। इसमें उसकी विशलता के संकेत न मिलेगे, उस में कोई तुफान न उठेगा, कोई उतंग लहरों की तरंग नहीं आयेगी। हां, परंतु एक बात सत्य है उसका स्वाद जरूर सागर के जैसा ही होगा।
सरहा कहता है: हे राजन, आदि आप मुझे देखना ही चाहते हो कि मुझे क्या घटा है, तब आपको अपने मन को दूर रखना होगा--आपके पास एक मक्खी जैसा मन है। सोचने की, महसूस करने की, आपकी विशिष्ट आदतें है। आपने देह का और मन का एक जीवन जिया है, और अधिक से अधिक जो भी जाना है, बस उसके द्वारा सुना हुआ है--आपने बस धर्मगंथ पढ़ लिए है।
क्योंकि पहले सरहा स्वयं राजा को धर्मग्रंथ पढ़कर सुनाता रहा है। वह यह बात भी अच्छी तरह से जानता है कि राजा क्या जानता है, कितना जानता है। सरहा कहता है: मुझे यह जो कुछ भी हुआ है, इसे देख पाने के लिए आपको देखने की एक भिन्न गुणवता प्राप्त करनी होगी।
मन सत्य से कभी नहीं मिल पाता, उसका सत्य से कभी सामना नहीं होता। मन के ढंग और सत्य के ढंग एक दम भिन्न है। यह एक अलग ही आयाम है। इसलिए संसार के सभी रहस्यदर्शियों का जौर अ-मन की अवस्था को प्राप्त करने पर है। ध्यान बस यही तो है, अ-मन की एक अवस्था, अ-विचार की एक अवस्था--परंतु पूर्ण तरह से जागरूक, समपूर्ण रोेए-रेसा जगरूकता से प्रदीप्त हो जाए भर जाए। तब वहा कोई विचार नही होता। तुम्हारा आकाश तब मेधों से मुक्त होता है। फिर सूर्य द्युतिमान होकर चमकता है।
साधारणतः हम इतने विचारों, इच्छाओं, महत्वाकांक्षाओं, स्वप्नों से भरे होते है, मेधाच्छादित होते है कि सूर्य पूर्णता से चमक ही नहीं पाता। यह उन काले मेधो के पीछे छिप जाता है। इच्छा एक मेध है, विचार एक मेध है, कल्पना एक मेध है--और उस सत्य को जानने के लिए व्यक्ति को मधो से मुक्त तो होना ही होगा।

सरहा कहता है:
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संसार का अर्थ है जीना देह की भांति, मन की भांति, अहंकार की भांति। संसार का अर्थ है बाहर की और जीना। संसार का अर्थ है वस्तुओं के साथ जीना। संसार का अर्थ है, इस विचार के साथ जीना कि सब कुछ बस पदार्थ है, और कुछ भी नहीं। संसार का अर्थ है तीन विष: शक्ति, प्रतिष्ठा, प्रभाव--संसार में जीना इस विचार के साथ कि अधिक शक्ति हो, अधिक धन हो, अधिक प्रभाव हो...यह भी हो, वह भी हो, बस वस्तुओं में जीना और वस्तुओं के लिए जीना। संसार शब्द का यही अर्थ है।
जरा अपना निरीक्षण करो: क्या तुम कभी व्यक्तियों के साथ जिए हो अथवा या तुम मात्र वस्तुओं के ही संग जिए हो। तुम्हारी पत्नी एक व्यक्ति है या कि एक वस्तु? तुम्हारा पति एक व्यक्ति है या वस्तु? क्या तुम अपने पति के साथ जो व्यवहार करते हो एक व्यक्ति की भांति, एक श्रेष्ठ आंतरिक रूप से, किसी मुल्यवान व्यक्तित्व की भांति, अथवा मात्र एक उपयोगिता की भांति--कि वह घर की रोटी-दाल जुटता है। या कि तुम्हारी पत्नी वह घर की साज-संभाल करती है, बच्चों की देखभाल करती है? क्या तुम्हारी पत्नी स्वयं में ही एक साध्य है, या कि केवल उपयोगिता मात्र, उपयोग में लाई जाने वाली एक वस्तु की तरह। कभी तुम उसका उपयोग कामपूर्ति के लिए या फिर अन्य तरीको की तरह उसका उपयोग करते हो--परंतु व्यक्ति का उपयोग करने का अर्थ है कि तुम्हारे लिए वह व्यक्ति वस्तु नहीं है, वह एक व्यक्ति है जो अपने में खुद एक पूर्ण अस्तित्व रखता है।
व्यक्ति का उपयोग नहीं किया जा सकता, केवल वस्तुओं का उपयोग किया जा सकता है। व्यक्ति को खरीदा नहीं जा सकता, केवल वस्तुओं को खरीदा जा सकता है। व्यक्ति का इतना अधिक मूल्य है, इतनी दिव्यता, ऐसी महिमा--व्यक्ति का उपयोग तुम कैसे कर सकते हो? हां, वह अपने प्रेम के कारण आपको समरपर्ण कर सकती है या कर सकता है। पर उपयोग तुम नहीं कर सकते। और तुम्हें आभारी होना चाहिए। क्या तुम कभी अपनी पत्नी के आभारी हुए हो? क्या तुम अपने पिता के, अपनी मां के आभारी हुए हो? क्या तुम कभी अपने मित्रो के आभारी हुए हो? कभी-कभी तुम एक अजनबी के तो आभारी हो सकते हो परंतु अपने लोगों के आभारी कभी नहीं होते--क्योंकि उन्हें तो तुम केवल मान ही देते हो।
वस्तुओं के साथ जीना संसार में जीना है, व्यक्तियों के साथ जीना निर्वाण में जीना है। और एक बार तुम व्यक्तियों के साथ जीना प्रारंभ कर दो, वस्तुएं अदृश्य होने लग जाती है। साधारणतः तो व्यक्तियों को ही वस्तुओं में परिवर्तित किया जाता है। और जब कोई व्यक्ति ध्यानी होना आरंभ करता है, तब उसके लिए वस्तुएं भी व्यक्ति होना आरंभ कर देती है, एक वृक्ष भी व्यक्ति हो जाता है। एक चट्टान भी व्यक्ति बन जाती है। उसकी संवेदना के कारण उसकी जागरूकता के कारण हर चीज एक व्यक्तित्व का रूप लेना आरंभ कर देती है। क्योंकि ईश्वर तो जल-थल नब, चर-अचर में अपने पूर्ण अस्तित्व के साथ फैला है।
सरहा कहता है: हे राजन, आप संसार में जिए हैं और आप निर्वाण के ढंग को नहीं समझ सकते। यदि आप सच में ही इसे समझना चाहते हैं, तो आपको इसे जीना होगा--इसके अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं है। इसके स्वाद को जानने के लिए इसका कुछ स्वाद आपको लेना होगा। और अभी तो मैं यहां हूं, आपके सामने खड़ा हूं--और जो कुछ व्याख्याएं आप पूछ रहे है? निर्वाण आपके सामने खड़ा है, और आप अब भी सिद्धांतों की बात पूछ रहे हो? इतना ही नहीं--आपको एक दम अंधा होना चाहिए--आप मुझे अपने संसार में वापस ले जाने के लिए समझाने आये है! एक मक्खी मुझे मांस की सड़ी दुर्गंध के लिए चंदन के जंगल और उसकी सुगंध को छोड़ देने के लिए समझाने आए है। क्या आप पागल हो गए है?
सराह ने राज से कहा। मुझे अपने संसार में ले जाने के लिए समझाने की अपेक्षा, तुम मुझे मेरे संसार में आने के लिए समझाने दो। मैंने तुम्हारे संसार को जाना है, और मैंने इस नए आयाम में भी प्रवेश किया है, आपके संसार के अलावा मैंने एक शाश्वत सत्य को भी जाना है। तुम तो केवल आपना श्रुद्र संसार ही जानते हो...तुम मुझे और मेरी सच्चाई को नहीं देख या जान पा रहे हो, फिर तुम तुलना भी कैसे कर सकते हो।
जब कोई बुद्धपुरुष कहता हो कि यह संसार माया है, इसके ऊपर ध्यान दो--क्योंकि उसने तो इस संसार को भी जाना है। जब कोई नास्तिक, भौतिकवादी, कोई साम्यवादी कहता हो कि निर्वाण का जगत तो माया है, उस विषय में चिंता लेने की कोई आवशयकता नहीं है--क्योंकि उसने तो अभी उसे जाना ही नही है। वह तो केवल इस संसार को ही जानता है। उस दूसरे संसार के विषय में उसके कथन पर तुम भरोसा नहीं कर सकते। उसने तो कभी ध्यान किया ही नहीं है, तब इस आयाम के बारे में उसे वो बात उठाने का हक ही नहीं है। उसने कभी उस में प्रवेश ही नही किया है।
इसे जरा गोर से देखो: जिन्होंने भी ध्यान किया है उनमें से एक भी व्यक्ति इस आंतरिक सचाई को इंकार नहीं कर सका। कभी किसी एक ने भी इसे नहीं नकारा! निरपवाद रूप से सभी ध्यानी रहस्यदर्थी रहे हैं। जिन्होंने ध्यान नहीं किया है वे केवल मक्खी के संसार को और उसे सड़े मांस की खराब और बदबूदार दुर्गंध के सांसार को ही जानते हैं। वे वस्तुओं के दुर्गंघ युक्त संसार में ही जीते है, परंतु वे केवल उसी को जानते हैं, और निश्चय ही उनके किसी भी वक्तव्यों पर भरोसा नहीं किया जाना चाहिए। एक बुद्ध के वचनों पर भरोसा किया जा सकता है। उन्होंने दोनों को जाना है। उन्होंने निम्न को भी जाना है और उच्च को भी, और उच्च को जानकर जब वे निम्न के विषय में कुछ कहते हो, उसके ऊपर ध्यान दिया ही जाना चाहिए। उसे एकदम अस्वीकार मत कर देना।
उदाहरण के लिए, मार्क्स, एनजेल्स, लेनिन, स्टालिन, माओ इन लोगों ने कभी ध्यान नहीं किया है--और वे कहते है कि ईश्वर है ही नहीं। अब यह तो ऐसा ही है, जैसे कोई व्यक्ति वैज्ञानिक की प्रयोगशाला में कभी गया ही न हो, और विज्ञान के विषय में कुछ कहने लगे। वह कहने लगे कि सापेक्षवाद का सिद्धांत सब बकवास है--क्या आप इस आदमी पर भरोसा कर सकते है। तुम्हें प
हले प्रयोगशाला में जाना होगा, तुम्हें उच्च गणित में जाना होगा, उसे पहले जानना होगा--तब तुम्हें इसे साबित करना होगा! क्योंकि तुम इसे समझ ही नहीं सकते, तुम्हें इसे नकारने की अनुमति ही नहीं दी जा सकती।
बहुत कम लोग ऐसे हैं जो सापेक्षवाद के सिद्धांत को समझते हों। ऐसी कहा जाता है कि जब आईंसटीन जीवित थे, उसे जब उन्होंने इस सिद्धांत को दुनिया के सामने रखा तो मात्र बारह ही आदमी इसे समझ पा रहे थे--मात्र बारह। और कुछ ऐसे लोग भी है जो मानते है कि ये एक अतिश्योक्ति है, संख्या सही नहीं है, बारह व्यक्ति भी ऐसे नहीं थे जो इस सिद्धांत को समझ सकते थे। परंतु इस वजह से तुम यह नहीं कह सकते की यह सिद्धांत सही नहीं है। तुम इसके विषय में वोट नहीं दे सकते, तुम इसे एक चुनाव में हरा नहीं सकते। तुम्हें भी पहले उसी प्रक्रिया से गुजरना होगा।
अब, मार्क्स का यह कहना कि ईश्वर नहीं है, बस एक मूढ़ता पूर्ण वक्तव्य है, न तो उसने कभी ध्यान के बारे में जाना और न ही किया, न उसने इस विषय पर चिंतन-मनन किया, न कभी प्रार्थना की। उसका ये कहना एक दम से असंगत है, एक मुर्ख का वक्तव्य। जिन्होंने कभी ध्यान किया है, जो अपने अंतस में डूबे है, जिन्होंने अपनी सत्ता की खुदाई कि है, या वे लोग जो इस सत्य तक पहुंचे गए, उन की बात मे कुछ दम है, उनकी बात को महत्व देना चाहिए।

प्राणी जो तज देते है निर्वाण
लोलुप हो जाते हैं क्षुद्र संसारिकविषयों के

सरहा कह रहा है: तुम निर्वाण को तो छोड़ देते हो और छलावों के पीछे दौड़ते-फिरते हो। हे राजन, आप मुझे समझाने आए है, तब मेरी और देखो, मेरे आनंद में झांको, उसे महसूस करो। उसकी तरंगों को छूने दो अपने अंतस को खोल दो जरा उसके द्वार। देखो मेरी और, क्या मैं अब वहीं आदमी हूं? जो आपके दरबार को छोड़ कर आया था, नहीं मैं एकदम से भिन्न ही आदमी हूं।
वह जानता है कि राज प्रज्ञावान है, तभी वह यह बात कह रहा है। वह राजा की जागरूकता को वर्तमान ़क्षण में लाने का प्रयास कर रहा है। वह राजा की आंखों को देख रहा है, कि वह सफल होता जा रहा है। सच में ही राजा बड़ी विद्यमानता का व्यक्ति रहा होगा। उसने राजा को मक्खियों के संसार से, उस सड़े मांस के संसार से क्षण में बाहर खींच लिया। वह देख रहा है राजा के नासापुट चंदन की सुगंध को पी रहे है, वह चंदन के संसार की और खींच रहा है।

जल से भरे ताल में बैल के पदचिन्ह
जल्दी ही हो जाते हैं शुष्क, वैसे ही वह दृढ़ मन
जो भरपूर है उन गुणों से जो है अपूर्ण
शुष्क हो जाएंगी ये अपूर्णताएं समय पर

वह कहता है: हे राजन देखो! एक बैल चला है और भूमि पर उसके पदचिन्ह बन गए है। वह पदचिंह पानी से, वर्षा के पानी से भर गया है, वह पानी कितनी देर वहां रहेगा? देर-सवेर यह वाष्प हो जायेगा ही। और पानी से भरा बैल का पदचिन्ह कहां बचेगा। परंतु सागर को देखो वह तो सदा से है और रहेगा। यद्यपि बैल के पदचिन्ह में भरा जल भी सागर का ही है, फिर भी कुछ अंतर है।
सागर सदा वहां का वहां ही रहता है, न बढ़ता है न घटता है। बड़े मेध उससे उठते हैं, फिर भी यह घटता नहीं। विशाल नदियां अपना जल इसमे उलट देती है, यह कभी बढ़ता नहीं है। यह सदा उतना ही रहता है। पर बैल के पैर का यह छोटा सा चिन्ह अभी तो पानी से भरा है, कुछ ही घंटों या दिनों में यह चला जाएगा, यह सूख जाएगा। ऐसे ही आदमी की खोपड़ी है। यह बस एक बैल का पदचिंह है, बस इतना सा छोटा। बस जरा सा पानी वहां है--इस पर बहुत भरोसा मत करना, यह सूख ही रहा है। यह अदृश्य हो जाएगा। खोपड़ी एक बहुत छोटी सी है बहुत छोटी सी। यह कभी मत सोचना कि तुम अपनी खोपड़ी में पूरे ब्रह्माड को समा सकते हो।
और यह केवल क्षणिक हो सकती है, यह कभी भी शाश्वत नहीं हो सकता।

जल से भरे ताल में बैल के पदचिंह
जल्दी ही हो जाते हैं शुष्क, वैसे ही वह दृढ़ मन
जो भरपूर है उन गुणों से जो है अपूर्ण
शुष्क हो जाएंगी ये अपूर्णताएं समय पर

और तुम अपनी इस छोटी सी खोपड़ी में क्या भर रहे हो? इसमें क्या-क्या चीजें हैं? इच्छाएं, सपने, महत्वाकांक्षाएं, विचार, कल्पनाएं, संकल्प, भावनाएं--यही तो वहे चीजें हैं जो तुम भीतर भर रहे हो। ये तो सब सूख जायेगी। सभी चीजें शुष्क हो जाएगी। इसलिए जोर चीजों से बदलकर पात्र पर ले आओ। यही तो तंत्र का कुल रहस्य है। पात्र को देखो, पात्र के अंदर की भरी चीजों को मत देखों। आकाश मेधों से भरा है, मेधों को मत देखो, आकाश को देखो। मत देखो कि तुम्हारे सिर में क्या है? तुम्हारे मन में क्या है? बस अपनी चेतना को देखा।
वह व्यक्ति जो विषय-वस्तुओं से जीता है, वह एक यंत्र का जीवन जीता है। और वो व्यक्ति जो अपना जोर विषय-वस्तु से पात्र की और बदलना प्रारंभ कर देता है वह जागरूकता का, बुद्धत्व का जीवन जीना आरंभ कर देता है।
और सराह कहता है: हे राजन, अपने मन में जो भी धारणाएं आपने बना रखी या भर रखी है, वे जल्दी ही सूख जाएंगी--बैल के पदचिंह को देखिएं। आपका सिर इससे बड़ा नहीं है, ये खोपड़ी इतनी बड़ी नहीं है। परंतु आपकी चेतना अनंत है।
अब यह बात समझ लेनी चाहिए: भावनाएं आपके सिर में है, परंतु चेतना आपके सिर में नही है। परंतु सच इसके बिलकुल ही उलटा है, तुम्हारा सर तुम्हारी चेतना में है। चेतना अति विशाल है, अनंत है। भावनाएं, इच्छाएं, महत्वकांक्षाएं, तुम्हारे सिर में है, वे तो शुष्क हो जाएंगी। लकिन जब तुम्हारा सिर पूरी तरह से गिर जाएगा और मिट्टी मे विलीन हो जाएगा। तब उसमे चेतना कहां रहेगी? वह भी पल में विलीन हो जाएगी। चेतना तो तुम्हें अपने सिर के भीतर रखती है, यह तुमसे बहुत ही बड़ी है।
लोग है जो कभी-कभी आते है और मुझसे पूछते हैं...मनुष्य के शरीर में आत्मा कहां रहती है? हृदय में? नाभी में? सर में? आत्मा कहां है?’ वे सोचते है कि वह बड़ा ही महत्वपूर्ण प्रश्न पूछ रहे है। सच तो यह है कि यह हमारे शरीर में कहीं भी नहीं रहती। आत्मा तुम्हारे शरीर से बहुत ही बड़ी घटना है। आत्मा ने तुम्हें घेर रखा है, वह तुम्हें चारों और से घेरे हुए है।
और इसे ध्यान से सूनो, तुम्हारी आत्मा और मेरी आत्मा कोई भिन्न नहीं है। हम अस्तित्व में रहते है। हम एक आत्मा के सागर के बने बुलबुले है, धरातल के नीचे तो पूर्ण सागर है। वह पूर्णत्य हम में चारों और समाविष्ट है, भीतर से भी और बाहर से भी। यह सब एक ही ऊर्जा है। मेरी आत्मा भिन्न और अपकी आत्मा भिन्न, नहीं ऐसा कदाचित नहीं है, हमारे शरीर आकार-प्रकार भिन्न जरूर है, परंतु हम सब एक ही अस्तित्व की लहर है। इसे कुछ इस तरह से समझो कि बिजली तो एक है, वह रेडियों में दौड़ती है, वही बल्ब में भी दौड़ती है, टी. वी. में भी वहीं बिजली दोड़ रही है, पंखे को घुमा रही है...और हजार काम कर रही है। परंतु ढांचा गत परिस्थियों के कारण उसके रूप, आकार, प्रकार बदल जाते है। परंतु आपने देखा जो बिजली उन में दौड़ रही थी वह एक ही थी।
हम सब एक ही ऊर्जा हैं। हमारी अभिव्यक्तियां भिन्न हैं पर हमारी सचाई एक ही है। यदि तुम विषय-वस्तु को देखो, यदि मैं विषय-वस्तु को देखूं तो मेरे सपने तुम्हारे सपनों से भिन्न है। निश्चय ही यह सच दिखता है। हम अपने सपनों को बांट नहीं सकते। मेरी अपनी महत्चकांक्षाएं हैं, तुम्हारी अपनी महत्वकांक्षाएं हैं। और ऐसा नहीं है कि हम केवल अपने सपने बांट ही नहीं सकते: हमारे सपनों में आपस में संधर्ष भी है। मेरी महत्वकांक्षा तुम्हारी महत्वकांक्षा के विरूद्ध भी है, तुम्हारी महत्वकांशा मेरी महत्वकांशा के बिलकुल ही विपरीत है। परंतु यदि हम विषय-वस्तु को भूल जाएं और बस चेतना और विशुद्ध चेतना की और, मेध-विहिन आकाश की और देखें तब कहां तूंऔर कहां मैंबचता है? हम एक हैं?
उस क्षण में एकता है। और उस क्षण में सार्वभौतिक चेतना है। समस्त चेतना सार्वभौमिक है। अचेतना (मूर्च्छा) निजी है। चेतना सर्वव्यापी है। जिसे-जिसे सच में ही तुम एक मनुष्य होते हो, तुम एक सर्वव्यापी मनुष्य बन जाते हो। यही तो अर्थ है बुद्ध का, सर्वव्यापी मनुष्य जो पूर्ण और समस्त जागरूकता को उपलब्ध हो गया है।
मनुष्य एक यंत्र की तरह से भी है, और भिन्न भी है। यह बात समझ ली जानी चाहिए। यदि तुम्हारी किडनी में कोई खराबी है, मेरी में नहीं है। यदि मेरे सिर में दर्द है...और तुम्हारे में नहीं, तब अगर तुम मुझ से प्रेम भी करते हो तो, मेरा सर दर्द तुम बांट नहीं सकते। अगर मैं तुमसे कितना ही प्रेम करता हूं, परंतु तुम्हारा दर्द मैं ले नहीं सकता। परंतु अगर हम साथ-साथ बैठे हो ध्यान भी कर रहे हों, तब एक क्षण ऐसा भी आता है, जब न तो मेरे मन में विषयवस्तु है, और न ही तुम्हारे मन में कोई विषयवस्तु हो, उस क्षण हम दो नहीं रह जाते एक इकाई मात्र बन गए। ध्यान हम शुरू तो अलग-अलग करते है, परंतु अंतस गहरे जैसे ही जाते है तो एक हो जाते है।
यदि तुम सब ध्यान मैं बैठे मुझे सुन रहे हो, तब तुम अनेक नहीं हो, तब सब एक हो गए। तब तुम एक ही नहीं हो, वक्ता और श्रोता अलग नहीं रहे। तब हम सब जुड़ गए। एक कमरे में ध्यान करते हुए बीस ध्यानी, जब वह गहरे ध्यान की स्थिती में होते है, तब वह बीस नहीं होते, कमरे में उसे समय एक ध्यान पूर्ण गुणवत्ता होती है।
एक कथा: कुछ लोग बुद्ध से मिलने आए। आनंद कक्ष के बाहर बैठा पहरेदारी कर रहा है। पर उन लोगों ने इतना अधिक समय लिया कि आनंद चिंतित हो गया। कई बार उसने भीतर झांका पर वे लोग बैठे ही रहे, बैठे ही रहे...फिर वह यह देखने के लिए कि अखिर हो क्या रहा है? वह कक्ष में भीतर गया, परंतु उसे तो बड़ा अचरज हुआ की वहां तो कोई भी नहीं था। बस अकेले बुद्ध बैठे हुए थे। इस लिए उसने उत्सुकता वस पूछा, ‘वे सब लोग कहां गए? और बाहर जाने का कोई दूसरा द्वार तो है नहीं। इस एक मात्र द्वार पर तो मैं बैठा हुआ हूं, तो आखिर वे सब लोग गए कहां?’
तब बुद्ध ने कहा: वे सब लोग ध्यान कर रहे है।
यह एक सुंदर कथा है। वे सब ध्यान में उतर गए और आनंद उन्हें न देख सका क्योंकि वह अभी भी एक ध्यानी न था। वह इस नई घटना को, ऊर्जा के इस समग्र स्थानांतरण को न देख सका। वे वहां न थे क्योंकि वे अपने शरीर की भांति वहां न थे, वे अपने मन की भांति वहां न थे। वह एक पूर्णता में डूब गये थे, उनका अहंकार विलीन हो गया, उनका मय भाव मिट गया था। आनंद वहीं सब देख सकता था जो वह है, अपनी गहराई के अतिरिक्त हम नहीं देख सकते, एक नई सचाई जो घटी है, वह आनंद पकड़ से बाहर थी।
एक बार प्रसनजित भगवान बुद्ध से मिलने के लिए आया। क्योंकि उसके प्रधान मंत्री ने उसे समझाया और मना लिया कि राज्य की जनता के लिए यह भी जरूर है कि आप संतों के पास जाओं उनका सम्मान करो, जनता के मन में आपके प्रति प्रेम बढ़ेगा। जैसे कि सभी नेता शंकालु होते है इसी तरह राजा भी बड़ा ही शंकालु था। उसे हर बात पर संदेह करना ही पड़ता है। पहली बात तो वह वहां जाना ही नहीं चाहता था। उसकी कोई रूची ही नहीं थी, परंतु लोग बात करने लगे थे कि राज बुद्ध के विरोध में है, सब लोग बुद्ध को प्रेम करते थे, फिर भला ऐसे राजा को कौन पसंद करेगा जो बुद्ध के विरूध हो। तो अपनी छबि बचाने के लिए एक कूटनीति चाल के कारण वह बुद्ध से मिलने को गया।
अपने प्रधानमंत्री के साथ जब वह उस कुंज के पास पहुंचा जहा पर भगवान बुद्ध अपने दस हजार शिष्यों के साथ ठहरे हुए थे। अचानक वह बहुत ही भयभीत हो गया। उसे कुछ षडयंत्र की गंध महसूस हुई। और उसने तत्काल अपनी तलवार म्यान से बाहर निकल ली। और अपने प्रधान मंत्री से कहां: यह क्या मामला है? क्योंकि तुमने तो कहा था कि वहां पर दस हजार व्यक्ति ठहरे हुए है। पंरतु यहां तो कितना सन्नाटा है, कितनी निष्तब्धता छाई है। इतने करीब आने पर भी जरा सा शोर सुनाई नहीं दे रहा है! क्या ये कोई षडयंत्र है।
प्रधानमंत्री हंसा और उसने कहा, ‘आप घबड़ाओ नहीं, आप बुद्ध के लोगों को नही जानते। आप अपनी तलवार तो वापस म्यान में रख लें, इस कि यहां जरा भी जरूरत नहीं है। कहीं कोई षडयंत्र वगैरा नहीं है, आप भयभीत न हो। वहां कुछ भी ऐसा नहीं है जैसा आप सोच रहे है। फिर भी राजा संदेह से भरा अपनी तलवार हाथ में लिए आगे बढ़ा, जैसे ही राजा ने कुंज में प्रवेश किया। वह तो हैरान रह गया। उसे अपनी आंखों पर भरोसा नहीं आ रहा था, दस हजार लोग वृक्षों के नीचे बैठे, एकदम मौन ध्यान में लीन थे।
अपनी जिज्ञासा को ने छिपाते हुए उसने भगवान से पूछा: यह तो चमत्कार है। दस हजार लोग! दस आदमी भी एक जगह रह कर इतना शौर मचा देते हैं, परंतु यहां तो दस हजार व्यक्ति एक साथ, परंतु इतनी निस्तब्धता, इतना मौन अपनी आंखों पर यकीन नहीं आता। ये लोग कर क्या रहे है? इन्हें कुछ गड़बड़ हो गई है क्या? क्या ये लोग अभी जीवित है। ये तो सब प्रतिमाओं की तरह से जान पड़ रहे है। यहां खाली बैठे ये लोग कर क्या रहे है? इन्हें कुछ तो करना चाहिए।
तब बुद्ध ने कहा: वे लोग कुछ कर रहे है, परंतु इसका पता बाहर से नहीं लगाया जा सकता। इसका बाहर से कुछ लेना-देना भी नही है। वे अपने अंतस की गहराई में डूब गए है, वे अब शरीर नहीं है, जो आपको बैठे दिखाई दे रहे है, वह तो एक अस्तित्व में अपने केंद्र में है। और जो आपको अपनी आंखों से दस हजार शरीर दिखाई दे रहे है, यहां तो मात्र एक चेतना रह गई, संपूर्ण एक लयबद्धता।

तीसरा सूत्र:

समुद्र का नमकीन जल जैसे हो जाता है मधुर,
जब पी लेते है मेघ उसे
वैसे ही वह स्थिर मन, काम जो करता है
औरों के हेतु बना देता है अमृत
उन एंन्द्रिक-विषयों के विष को

तंत्र की आधारभूत दृष्टि है: एंद्रियगत को सर्वोच्य में परिवर्तित किया जा सकता है। पदार्थ को मन में बदला जा सकता है, अचेतन को चेतन में रूपांतरित किया जा सकता है।
आधुनिक भौतिक शास्त्र कहता है कि पदार्थ को ऊर्जा में रुपांतरित किया जा सकता है। ऊर्जा को पदार्थ में रुपांतरित किया जा सकता है। सच तो यह है कि वे दो नही है, एक ही ऊर्जा दो भिन्न रूपों में काम कर रही है। तंत्र कहता है, तुम काम (संभोग) को भी समाधि में रूपांतरित कर सकते हो। वही दृष्टिकोण, अत्यंत मौलिक और आधार भूत है। निम्न को उच्च में रूपांतरित किया जा सकता है, क्योंकि निम्न और उच्च अलग नहीं है एक दूसरे से जूड़े हुए है। वे दोनों एक ही ईकाई है। वे कभी भी अलग थे ही नहीं, उनके बीच में कोई अंतराल नहीं है। वे एक सीढ़ी की तरह है, तुम निम्न से उच्च की और जा सकते हो, और उच्च से निम्न की और आ सकते हो। यह आपका निर्णय है, आपका चुनाव है, आप किसे चुनते है।
और वह सीढ़ी तुम ही तो हो, तुम स्वतंत्र हो, ऊपर जाने या नीचे जाने का निर्णय आपका है: आप चाहे एक पशु हो सकते हो, या एक बुद्ध की तरह। दोनों संभावनाएं है, निम्नतम भी और उच्चतम भी। मनुष्य गहन मूर्च्छा में गिरकर, एक चट्टान हो सकता है, और वह पूर्ण चेतना का उत्थान कर, ईश्वर भी बन सकता है। लेकिन दोनों अलग नहीं है--यहीं तो तंत्र का सौंदर्य है।
तंत्र अविभाजय है। तंत्र एकमात्र धर्म है दुनियां में जो विभक्त-मानसिकता का नहीं है। तंत्र एकमात्र धर्म है जो सच में ही स्थिर-बुद्धि है। सर्वाधिक स्थिर-बुद्धि धन--क्योंकि यह विभाजित नहीं करता। यदि तुम विभाजित करते हो, तो तुम एक विभक्ति निर्मित करते हो। यदि तुम लोगों से कहते हो कि देह तो बुरी है, देह तो शत्रु है, तब तुम मनुष्य में एक विभाजन निर्मित कर रहे हो, तब मनुष्य देह से भयभीत हो जाता है। और फिर धीरे-धीरे, एक न भरी जा सकने वाली खाई निर्मित हो जाती है। और मनुष्य तब दो टुकड़ों में बंट जाता है, विभाजित हो जाता है। हमारी देह-देह को खींचती है, मन-मन को खींचता है--वहां हो जाते है संघर्ष आरंभ।
तंत्र कहता है कि तुम एक हो, कोई भ्रम रखने की आवश्यकता नहीं है। तब एक सच्चाई निर्मित हो जाती है, एक रूपता। तब भ्रांतचित होने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। जो कुछ तुम्हें उपलब्ध है उसे प्रेम करो, और तब सच में तुम उसे विकसित कर सकते हो। देह तुम्हारी आत्मा की शत्रु नहीं है, तो बस तुम्हारी तलवार की एक म्यान के जैसी है। देह तो एक मंदिर है, तुम्हारा घर है। इसे तुम शत्रु न समझो, यह तो तुम्हारा मित्र है।
तंत्र हर तरह की हिंसा को छोड़ देता है--हिंसा केवल दूसरों के साथ ही नहीं, बल्कि स्वयं के साथ भी हिंसा-हिंसा कहलाती है। तंत्र कहता है: सचाई को उसकी समस्तता से प्रेम करो। हां, बहुत कुछ विकसित हो सकता है। लेकिन सभी विकास प्रेम से होता है। और तुम्हें लड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है।

समुंद्र का नमकीन जल जैसे हो जाता है मधुर,
जब पी लेते है मेघ उसे...

तुम समुद्र का नमकीन जल नहीं पी सकते, यह इतना नमकीन होता है, बस नमक ही नमक। तुम इसे पीकर मर भी सकते हो अगर समुंद्र का पानी तुमने पी लिया तो। यह तुम्हें बहुत ही कटु अनुभव देगा। परंतु जब एक बादल आता है और समुद्र जल को सोख लेता है, तब यह जल मिठा हो जाता है। तब तुम पर यह वर्षा बन कर बरस जाता है और तुम इसे पी सकते हो।
सराह कहता है: समाधि एक मेध की भांति है, ध्यानपूर्ण ऊर्जा एक मेध के समान है, जो कि तुम्हारी कामुकता को उच्च मंडलों में परिवर्तित कर देती है। जो कि तुम्हारे भौतिक अस्तित्व को अभौतिक-अस्तित्व में रूपांतरित कर देता है। जो भी संसार के नमकीन-कडवे अनुभवों को निर्वाण के मीठे, अमृत-सदृश्य अनुभवों में परिवर्तित कर देता है। संसार स्वयं ही निर्वाण हो जाता है। यदि तुम उस मेध को, जो इसे रूपांतरित कर देता है निर्मित कर सको। वह मेध, बुद्ध ने तो सच में इसे धर्म-मेध समाधि कहा है। एक आधारभूत नियम, मेध की समाधि-धर्ममेध समाधि।
तुम उस मेध को निर्मित कर सकते हो। वह मेध ध्यान द्वारा निर्मित होता है। तुम तीव्रता से ध्यान करते जाओ, विचारों को छोड़ते जाओ, इच्छाओं को छोड़ते जाओ, महत्वाकांक्षाओं को छोड़ते जाओ: धीरे-धीरे तुम्हारी चेतना एक जलती आग बन जाती है--मेध वहां होता है, अब उस आग द्वारा तुम कुछ भी रूपांतरित कर सकते हो। वह आग कायापलट कर देती है, वह आग अलकमियां हैं। ध्यान से निम्न उच्च बन जाता है। अपधातु स्वर्ग में बदल जाती है।

समुद्र का नमकीन जल जैसे हो जाता है मधुर,
जब पी लेते है मेघ उसे
वैसे ही वह स्थिर मन, काम जो करता है
औरों के हेतु बना देता है अमृत
उन एंन्द्रिक-विषयों के विष को

दो बातें: पहली, व्यक्ति को अपने प्राणों में ध्यान का एक मेध निर्मित करना होता है। और दूसरी बात है करुणा जो दूसरों के लिए काम करता है। बुद्ध का जोर दो चीजों पर अधिक था। ध्यान और करुणा--प्रज्ञान और करुणा। वह कहते हैं कि कभी-कभी ऐसा होता है कि एक ध्यानी बहुत स्वार्थी हो सकता है। तब भी बात बिगड़ जाती है। ध्यान करो, आनंदित होओ, पर उस आनंद को बांट दो, उसे बांटते जाओ, इसे इकट्ठा मत करो। क्योंकि एक बार यदि तुम इसे इकट्ठ करना शुरु कर देते हो, अहंकार उठना प्रारंभ हो जाता है। कभी किसी चीज का संग्रह न करो। जिस क्षण तुम इसे पाओ, इसे लूटा ड़ालों, तब शायद तुम्हारा आनंद पहले से अधिक बढ़ जाता है। जितना अधिक देते हो उतना अधिक पाते हो। फिर हर चीज अमृत बन जाता है। हर कुछ अमृत--हमें बस यह जानना है कि इसे रूपांतरित कैसे किया जाए, इस बात की मात्र हमें अलकेमी को जानना है।
अंतिम सूत्र:

यदि वर्णनातित घटे, कभी नहीं रहता कोई असंतुष्ट
यदि अकल्पनिय, होगा यह स्वयं आनंद ही
यद्यपि भय होता है मेघ से तड़ित का
फसलें पकती है जब यह बरसता है जल

वर्णनातित...सराह कहता है: मुझसे मत पूछो कि यह क्या है--यह अवर्णनिय है, इसे कहा नहीं जा सकता। इसे अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। कोई भी ऐसी भाषा नहीं है जो इसे अभिव्यक्त कर सके। पर इसका अनुभव किया जा सकता है। मेरी तृप्ति की और देखो! देखो, मैं कितना संतुष्ट हो गया हूं, तुमने मुझे पहले भी देखा है--मुझ मैं कितनी बदलाहट हो गई हैं! तुमने मुझे पहले भी देखा है--मैं कितना बेचैन था, हर चीज से कितना बैचेन था, असंतुष्ट था। और अब देखों मुझे सब कुछ उपलब्ध हो गया है। मेरी तृप्ति पूर्ण है। मैं कभी तुम्हारा कितना प्रिय था, मुझे आपने सब कुछ उपलब्ध कराया था--फिर भी मैं संतुष्ट न था: अब, देखो! मैं एक श्मशान में खड़ा हूं, मेरे सिर के ऊपर एक छत तक नहीं है। मैं राजमहलों में नहीं रहता, न ही मेरे पास राजा रानियों का सा वैभव है। मैं एक तीर बनाने वाली साधारण सी स्त्री के साथ रह रहा हूं। पर मेरी आंखों में झांको...मैं कितना आनंदित हूं, तृप्त हूं। क्या तुम देख नहीं सकते हो कि मुझे कुछ वर्णनातीत घटा है। क्या तुम मेरी तरंगों को अनुभव कर रहे हो? क्या तुम इतने सुस्त और मुर्दा हो कि तुम्हें यहां पर भी व्याख्याओं की आवश्यता है?

यदि वर्णातीत घटे, कभी नही रहता कोई असंतुष्ट...

यही कसौटी है कि कोई व्यक्ति सत्य को उपलब्ध हुआ है, अथवा नहीं। वह कभी भी असंतुष्ट नहीं होगा। उसकी तृप्ति समपूर्ण है। तुम उसे उसकी तृप्ति से बाहर नहीं खींच सकते। तुम उसे असंतुष्ट नहीं कर सकते। चाहे जो भी हो, वह वैसा का वैसा ही रहता है, पूर्ण तृप्त। सफलता हो या असफलता, जीवन हो या मृत्यु, मित्र हो या न हो, प्रेमी हो या न हों--इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता। उसकी प्रशांतता, उसकी निस्तब्धता एकदम पूर्ण होती है। वह स्वयं सदा क्रेंद्रित रहता है।

यदि वर्णनातित घटे, कभी नहीं रहता कोई असंतुष्ट

यदि वह जो कहा नहीं जा सकता घटा हो, तब इसे जानने का केवल एक उपाय है और वह उपाय है उसकी संतुष्टि को देख लेना।   यदि अकल्पनिय, होगा यह स्वयं आनंद ही...


और मैं जानता हूं, वह कहता है, तुम कल्पना भी नहीं कर सकते हो कि मुझे क्या घटा है। तुम कल्पना कर भी कैसे सकते हो? क्योंकि तुमने इसे पहले कभी जाना ही नहीं है। कल्पना तो सदा हम उसी की कर सकते है, जिसे पहले हमने देखा या जाना हो। कल्पना तो मात्र दोहराया जाना ही है।
तुम प्रसन्नता की कल्पना कर सकते हो, तुमने इसे टुकड़ों-टुकड़ों में जाना है। तुम अप्रसन्नता की कल्पना कर सकते हो, तुमने इसे जाना है, काफी अधिक मात्रा में। यदि तुमने प्रसन्नता को न भी जाना हो तो तुम इसकी भी कल्पना कर सकते हो, तुम अप्रसन्नता के विपरीत के रूप में। लेकिन तुम आनंद कि कल्पना कैसे कर सकते हो? तुमने इसे जाना ही नहीं है। और इसके विपरित कुछ है ही नहीं, यह द्वैत नहीं है।
इसलिए सराह कहता है। हे राजन, मैं समझता हूं--तुम इसकी कल्पना नहीं कर सकते--पर मैं इसकी कल्पना करने को नहीं कह रहा हूं। देखो! यह यहां अभी मौजूद है। और यदि तुम इसकी कल्पना नहीं कर सकते, यह भी सत्य कि एक कसौटी है, पर इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। तुम इसकी एक झलक तो पा सकते हो, परंतु तुम इसके विषय में स्वप्न नहीं देख सकते। और स्वप्न और झलक में यही अंतर है।
स्वप्न तुम्हारा अपना है, झलक तुम्हारी अपनी नहीं है।
क्राइस्ट ने ईश्वर को देखा, और धर्म ग्रंथ कहते हैं कि उन्होंने उसकी एक झलक देखी। अब मनोविश्लेषक कहेगा कि यह मात्र एक स्वप्न था, उस बेचारे को स्वप्न और झलक का कुछ पता ही नहीं है। स्वप्न तुम्हारा है, तुम कल्पना कर रहे थे, तुमने इसे निर्मित किया, यह तुम्हारा अपना निर्मित किया है, तुम इसकी कल्पना कर सकते हो। तुमने इसे निर्मित किया है यह तुम्हारा माया जाल है। झलक तो कुछ ऐसे आन पड़ती है कि तुमने इसके विषय में कुछ सोचा भी न होता है। इसका कोई अंश भी कभी तुम्हारे द्वारा सोचा नहीं गया होता है। झलक ईश्वर से आती है, स्वप्न तुम्हारे मन से आता है।

यदि अकल्पनिय, होगा यह स्वयं आनंद ही...

मेरी और देखो--तुम कल्पना तो नहीं कर सकते कि क्या घटा है। क्या तुम इसे देख भी नहीं सकते...तुम्हारे पास देखने के लिए आंखें तो हैं। देखो, अवलोकन करो, मेरा हाथ पकड़ो! मेरे समीप आओ। मेरे प्रति मेध हो जाओ ताकि मेरी तरंग तुम्हारे प्राणों को भी तरंगायित कर सके--कुछ और अलल्पनिय, अवर्णनिय को अनुभव किया जा सकता है।

यद्यपि भय होता है मेघ से तड़ित का...

और सराह कहता है: मैं जानता हूं,...उसने राजा को कुछ भयभीत होते हुए देखा होगा। मैं हर रोज यह बात देखता हूं: लोग मेरे पास आते है और मैं उन्हें कांपते हुए भयभीत होते हुए देखता हूं। डरते अंदर से थर-थर पत्ते की तरह कांपते...और वे कहते है, ‘ओशो, हमें डर लग रहा है।मैं जानता हूं सराह ने देखा होगा कि भीतर गहरे में राजा कांप रहा है। परंतु शायद ऊपर से वह ऐसा नहीं दिखा रहा है। वह एक बहुत समझदार और महान राजा था, वह एक बहुत अनुशासित व्यक्ति रहा होगा, वह एक वीर की तरह से खड़ा होगा सराह के सामने। अडीग परंतु सराह धीरे-धीरे उसे उसके अंतस में उतर रहा है, उसकी आंखों में झांक रहा होगा।
यह घटना हमेशा घटती है कि जब कभी भी तुम किसी सराह या बुद्ध जैसे व्यक्ति के पास होते हो, तुम भयभीत हो जाते हो। अभी उस दिन एक नवयुवक मेरे पास आया और कहने लगा, ‘मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि आपसे भयभीत क्यों हूं? आपने मेरा कुछ बिगाड़ा नही है--फिर मैं आपसे क्यों भयभीत हो रहा हूं?’
यह स्वाभाविक है। जब तुम एक खाई के समीप आते हो, तो तुम क्या महसूस करते हो? तुम भयभीत होओगे ही। इस बात की हमेशा संभावना है कि तुम इसमें गिर सकते हो और फिर स्वयं को पूर्वस्थिति में न ला सकोगे। यह अप्रत्यावर्तनीय है, अप्रत्योदय है, तुम इसमें पूर्णतः, एकदम चले जाओ उतर जाओगे। फिर तुम वहीं के वही कभी वापस नहीं आ सकोगे, जैसे कि तुम पहले थे। एक दूसरे ही रूप में नये व्यक्तित्व के रूप में जरुर तुम अपने को पाओगे। इसलिए भय स्वाभाविक है। क्योंकि तुम मिट सकते हो,मिटने का एक भय।
सराह कहता है:
यद्यपि भय होता है मेघ से तड़ित का...

वह कहता है कि देखो मैं तो एक मेध की भांति हूं और तुम मुझसे भयभीत हो रहे हो, तड़ित के कारण, विद्युत-प्रकाश के कारण। परंतु याद रखो:

फसलें पकती हैं जब यह बरसता है जल...

परंतु यदि तुम मुझे अपने ऊपर बरसने दोगे, बीज अंकुरा जाएंगे, हे राजन, और एक मनुष्य जो तुम्हारे पीछे छिपा हे, जो अभी भी पैदा नहीं हुआ है, वह पैदा हो जाएगा, तुम पक सकते हो, परिपकव हो सकते हो। तुम खिल सकते हो। मैं तुम्हें आमंत्रित करता हूं।
सराह कहता है: एक महान फसल के लिए...चेतना की फसल, एक जागरूकता की फसल। तुम्हें मेरे को मेध बनने देना होगा, अपने आप को खोलना होगा, डरो मत, तुम मिटोगे नही, तुममें जो घटेगा उससे तुम पूर्ण हो जाओगे।

आज इतना ही


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