तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)
प्रवचन-पांचवां-(कुछ नहीं से शून्यता तक)
दिनांक 05 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।
सरहा के सूत्र-
विस्मृति एक परम्परागत सत्य है
और मन जो अ-मन बन गया है, वही अंतिम सत्य है।
यही कार्य का पूरा हो जाता है, यही सर्वोच्च शुभ और
मंगलमय है।
मित्र! इस शुभ और मंगल मय स्थिति के प्रति सचेत बनो।
विस्मृति में मन विलुप्त हो जाता है
ठीक तभी एक पूर्ण और विशुद्ध भावनात्मक या हृदय ऊर्जा उत्पन्न होती है,
जो अच्छे और बुरे के सांसारिक भेद से अप्रदूषित होती है।
जैसे एक कमल का फूल उस कीचड़ से जिसमें वह उगता है, अप्रभावित
होता है।
जब नींद और स्वप्नों की काली चादर से मुक्त होकर
तुम्हारा मन निश्चल
अ-मन हो जाता है।
तब तुममें आत्म
सचेतनता होगी,
जो विचारों के पार
अ-मन होगी
और तुम अपने मूल
स्त्रोत पर होगे।
यह संसार जैसा
दिखाई देता है, प्रारम्भ ही से
वह वैसे रंग रूप
में दीप्तिवान कभी नहीं रहा।
वह बिना किसी आकृति
का है,
उसने रूप का
परित्याग कर दिया है।
वह अ-मन है, वह विचारों के धब्बों से रहित निर्विचार का ध्यान है—और अमन है।
एक प्राचीन दृश्य—सुबह इसी तरह की होनी चाहिए—
सुबह की गुनगुनी धूप में वृक्ष नृत्य कर रहे
थे,
पक्षी गीत गा रहे थे, और उन दिनों के एक महान
रहस्यदर्शी उदालक का निवास स्थान अपने पुत्र श्वेतकेतु का जो कि अपने सदगुरू के घर,
जहां वह विद्याध्यन के लिये भेजा गया था, वह
वापस लौटकर कर घर आ रहा था उसी का समारोह मनाया जा रहा था।
श्वेतकेतु आता है। पिता द्वारा पर उसका
स्वागत करते हैं। लेकिन अनुभव करते है कि कहीं कुछ चीज़ अनुपस्थित है;
श्वेतकेतु में कुछ चीज़ नहीं मिल पा रही है और कुछ ऐसी चीज़ मौजूद
है जिसे मौजूद नहीं होना चाहिए। एक सूक्ष्म अभिमान एक सूक्ष्म अहंकार। वह आखिरी
चीज़ थी जिसे लिए पिता प्रतीक्षा कर रहा था।
उन प्राचीन दिनों में शिक्षा मौलिक रूप से
निरअहंकारिता की शिक्षा होती थी। विद्यार्थी को जंगल के गुरुकुल में सदगुरू के साथ
रहने के लिए भेजा जाता था। जिससे वह स्वयं अपने मैं आपने अहं का होने का विसर्जन
कर सके। और अस्तित्व का स्वाद ले सके। यह अफवाहें मिली थी कि श्वेतकेतु एक बहुत
बड़ा विद्वान बन गया है। इस बारे में अफवाहें थी कि उसने सबसे बड़ा पुरस्कार जीता
है। और अब वह आ गया था, लेकिन उद्दालक प्रसन्न नहीं
था।
हां, वह सबसे
बड़ा पुरस्कार लेकर लौटा था जो गुरुकुल किसी को दे सकता था। वह सभी परीक्षाओं में उतीर्ण
हुआ था और उसने सबसे उच्च उपाधि प्राप्त की थी और वह बहुत अधिक ज्ञान का भार लेकर
आया था। लेकिन वह किसी चीज़ से चूक रहा था और पिता उद्दालक की आंखें ये सब देख अश्रुओं
से भर गई थी। श्वेतकेतु समझ न सका। उसने पूछा—‘क्या कुछ चीज
गलत है? आप अप्रसन्न क्यों हैं?’
और पिता ने पूछा—‘एक प्रश्न है, क्या तुने ‘उस
एक’ को प्राप्त किया है, जिसे सीखने से
प्रत्येक चीज़ जान ली जाती है। और जिसे भूल जाने से सारा ज्ञान व्यर्थ, अर्थहीन और केवल एक भार बन जाता है, वह सहायता नहीं
करता बल्कि हानिप्रद होता है।’
श्वेतकेतु ने कहा—‘मैंने वह सभी कुछ सीखा, जो वहां उपलब्ध था मैंने
इतिहास जाना, मैंने दर्शनशास्त्र सीखा, और मैंने गणित सीखा। मैंने वेदों का ज्ञान सीखा, मैंने
भाषा विज्ञान और कला सीखी और मैंने यह और वह सीखा.....’ और
उसने उन दिनों के सभी विज्ञानों की पूरी सूची गिना दी। लेकिन उसके पिता की
अप्रसन्नता ज्यों की त्यों बनी रही।
उन्होंने पूंछा—‘क्या तूने ‘उस एक’ को जाना
जिसे जानने से सभी कुछ जान लिया जाता है?’
पुत्र थोड़ा परेशान हुआ। और उसने कहा—‘जो कुछ सद्गुरू ने सिखाया वह सब सिख है, मैंने वह
सभी कुछ सीख लिया है जो कुछ भी पुस्तकों में लिख हुआ है। मैंने वह सभी ज्ञान
प्राप्त कर लिया है। आप किस ज्ञान और बारे में बातें कर रहे है मेरी समझ में जरा
भी नहीं आ रहा। क्योंकि स्वेतकेतु के अंदर एक अहंकार था उस जानने का जिसे वह ज्ञान
समझ रहा है।’ ‘वह एक’ ….रहस्य मत
बनाये। ठीक-ठीक बतलाइये। आपके कहने का अर्थ क्या है?
स्वाभाविक रूप से वहां अहंकार था। वह इस
विचार के साथ आया था कि अब उसने सभी कुछ जान लिया। हो सकता है कि वह यह सोच रहा था—जैसा कि प्रत्येक छात्र सोचता है—कि अब उसके पिता
कुछ नहीं जानते। वह अनिवार्य रूप से इस विचार के ही साथ आया है कि अब वह एक बहुत
बड़ा विद्यावान बहुत बड़ा पंडित बन गया है। और वहां उसका वृद्ध पिता था जो प्रसन्न
नहीं था, और वह किसी रहस्यमय वस्तु: ‘उस
एक’ के बारे में बातचीत कर रहा था।
और पिता ने कहां—‘क्या तू, अपने सामने वहां उस वृक्ष को देख रहा है।
जा और उस वृक्ष का एक बीज लेकर यहां पर आ। वह नयी ग्रोथ का वृक्ष था। पुत्र उस
वृक्ष का एक बीज लाया और पिता ने उससे पूंछा—‘यह वृक्ष कहां
से उत्पन्न हूं?
और पुत्र ने उत्तर दिया—‘निश्चित रूप से इस छोटे से बीज से।’
--‘इतना विशाल वृक्ष और इस छोटे से बीज से?
अब इस बीज को तोड़ और देख कि कहां से यह वृक्ष उस विशाल वृक्ष में
उत्पन्न हो रहा हैं?’
और पुत्र ने उत्तर दिया—‘मैं अनुमान कर सकता हूं लेकिन इसे देख नहीं सकता। आप शून्यता को कैसे देख
सकते है?’
और पिता ने कहा—‘यह वही एक है, मैं जिसके बारे में बात कर रहा था। यह
सभी कुछ इस शून्य से ही आता है। वह वही सृजनात्मक शून्यता है। जिससे सभी का जन्म
होता है। और एक दिन लोटकर सभी कुछ इसी के अंदर विसर्जित हो जाता है। वापस जा,
और इस शून्यता को सीख कर वापस आ, और इस
शून्यता का ही दूसरा नाम ज्ञान है। वापस जा इस शून्यता को जान क्योंकि यह सभी का
मूल है, सभी का स्त्रोत हे। और स्त्रोत लक्ष्य भी होता है;
प्रारम्भ और अंत भी होता है। जा, इसी मौलिक और
आधारभूत चीज का ज्ञान प्राप्त कर। अन्य सभी कुछ जो तूने सीखा है, वह कूड़ा कर्कट है। उसके बारे में भूल जा, वह सभी
कुछ स्मृति है, वह सभी कुछ मन है। अ-मन को जान, विस्मृत को जान। वह सभी कुछ जो तूने सिखा है, वह
जानकारी अथवा थोथा ज्ञान है। जानना सीख, सचेतनता सीख,
समझ को जान। जो कुछ तूने सीखा है वह वस्तुनिष्ठ या पदार्थ गत है,
लेकिन तूने अभी अपने अंतरस्थ केंद्र में प्रवेश नहीं किया है।’
इस संसार के बारे में सोचा जाता है कि वह एक
विशाल वृक्ष होने जैसा है।
तंत्र के चार कदम हैं----शून्यता पहला कदम
है—बीत के अंदर की शून्यता। बीज और कुछ भी नहीं है बल्कि उस सृजनात्मक
शून्यता का एक खोल है, जो उस सृजनात्मक शून्यता को धारण करता
है। जब बीज पृथ्वी के अंदर टूटता है, वही शून्यता एक वृक्ष
के रूप में अंकुरित होने लगती है।
इस ‘कुछ नहीं’
को भौतिक विज्ञानी ‘अपदार्थ’ कहते हैं—यह शून्यता, यह काई
भी चीज़ का न होना, ही स्त्रोत है। इसी शून्यता से ही वृक्ष
का जन्म होता है। तब फूल आते हैं, फल आते हैं और अनेक चीजें
आती हैं। लेकिन प्रत्येक चीज़ फिर एक बीज बनती है, और बीज
भूमि पर नीचे गिरता है और फिर से एक शून्यता बन जाता है।
यही अस्तित्व का चक्र है। कुछ नहीं से
शून्यता बन जाता है। ‘कहीं नहीं’ से ‘कही नहीं तक, दो कहीं नहीं’
के मध्य में स्वप्न हैं, समसारा है। दो
शून्यताओं के मध्य में सभी चीजें हैं। इसलिए ये सभी वस्तुएं स्वप्न सामग्री कही
जाती हैं, इसीलिए वे ‘माया’ कहीं जाती हैं। इसीलिए वे कुछ नहीं, बल्कि विचार और
कल्पनाएं कहीं जाती हैं। यह है तंत्र का वृक्ष।
सभी का प्रारम्भ अ-मन है और यही सभी का अंत
भी हैं। अ-मन से ही जिसका जन्म होता है उसे तंत्र ‘व्युत्पति’
कहता है। व्युत्पति से विस्मृति का जन्म होता है और विस्मृति से
स्मृति उत्पन्न होती है। यही है तंत्र का वृक्ष।
अ-मन शून्यता का अर्थ है कि सभी कुछ अप्रकट
है,
और अभी तक कुछ भी वास्तविक नहीं है। सभी कुछ सम्भव है, सम्भावित है, लेकिन कुछ भी हुआ नहीं है। अस्तित्व
बीज में गहरी निंद्रा में विश्राम कर रहा है। यह आराम की स्थिति है, यह अस्तित्व अभिव्यक्त न होने की स्थिति है। इसका स्मरण रखो। क्योंकि केवल
तभी तुम इस सूत्रों को समझने में समर्थ हो सकोगे। ये सूत्र बहुत अधिक महत्वपूर्ण
हैं, क्योंकि इनको समझने को ही तुम अपने मन के अंदर जा कर
अ-मन के लिए खोज कर सकते हो।
पहली स्थिति है अ-मन: प्रत्येक चीज़ अप्रकट
है,
कुछ भी वास्तविक नहीं हुई है लेकिन चीजें यथार्थ बनने के लिए तैयार
हो रही हैं। एक तरह से यह भी पहले की भांति समान स्थिति है, लेकिन
थोड़े से अंतर के साथ। पहली स्थिति में प्रत्येक चीज़ पूर्ण रूप से विश्राम में है,
विश्राम परिपूर्ण है, लाखों वर्षों तक कुछ भी
नहीं हो सकता हैं।
दूसरी स्थिति में अभी तक कुछ भी नहीं हुआ है
लेकिन चीजें किसी भी क्षण होने के लिए तैयार हैं। छिपी हुई संभावित शक्ति
वास्तविकता में विस्फोट के लिए तैयार है। यह स्थिति उस धावक की स्थिति की भांति है
जो सीटी बजते ही किसी भी क्षण दौड़ने के लिए तैयार है। वह बस सीमा रेखा पर पूर्ण
रूप से तैयार खड़ा हुआ है; और एक बार संकेत मिलते ही
वह दौड़ पड़ेगा।
अनुत्पन्न का अर्थ होता है कि अभी तक किसी
भी चीज़ की कोई भी उत्पति नहीं हुई है, लेकिन वह
जन्मने के लिए तैयार है। अनुत्पन्न का अर्थ होता है—गर्भावस्था
की स्थिति। बच्चा अभी गर्भ के अंदर ही है, बच्चा किसी भी
क्षण आ सकता है। हां, वह अभी तक बाहर नहीं आया है, इसलिए इस तरह से स्थिति पहली स्थिति के ही समान है। लेकिन वह बहुत-बहुत
तैयार होने की स्थिति है और इस तरह से वह पहली स्थिति के समान नहीं है।
तीसरी स्थिति को विस्मृति कहते हैं। बच्चा
उत्पन्न हो चुका है, अनुभव यथार्थ बन गया हैं।
अब अंदर संसार आ गया है पर अभी भी वहां कोई भी बोध नहीं है; अभी
विस्मृति ही है।
ज़रा उस पहले दिन के बारे में सोचो जब एक
बच्चे का जनम होता है। वह अपनी आंखें खोलता है, वह इन हरे
वृक्षों को देखेगा लेकिन वह यह पहचानने में समर्थ न हो सकेगा कि वे हरे हैं। वह हरे
रंग की भांति वह उन्हें कैसे पहचान सकता है? उसने पहले कभी
भी हरे रंग को नहीं जाना। वह यह भी पहचानने में समर्थ नहीं होगा कि वे वृक्ष हैं।
वह वृक्षों को देखेगा, लेकिन वह उन्हें पहचानने में समर्थ न
होगा, क्योंकि उसने पहले उन्हें कभी भी नहीं जाना है। उसका बोध
विशुद्ध, और किसी स्मृति से अप्रदूषित होगा। इसीलिए इस
स्थिति को विस्मृति कहा जाता है।
यह वह स्थिति है जिसके बारे में ईसाई बताते
हैं,
जब आदम ईडेन के उद्यान में रहता था; वहाँ
अज्ञानी था। उसने अभी तक ज्ञान के फल को नहीं चखा था। यह वह स्थिति है जिसमें
प्रत्येक बच्चा अपने जीवन के प्रारम्भ में रहता हे। कुछ महीनों तक बच्चा देखता है,
सुनता है, स्पर्श करता है, और स्वाद लेता है लेकिन काई पहचान उत्पन्न नहीं होती है और न कोई स्मृति
बनती है। इसी कारण तुम्हें अपने जीवन के प्रारम्भिक दिनों को याद करना बहुत अधिक
कठिन होता है। यदि तुम याद करने का प्रयास करो तो तुम सरलता से पांच वर्ष की आयु
तक पीछे लौट सकता हो। थोड़ा सा और प्रयास करो तो चौथे वर्ष की आयु तक पीछे लौट
सकते हो। तब अचानक वहां एक शून्यता या कोरापन होता है और तब तुम और याद नहीं कर
सकते। आखिर क्यों नहीं कर सकते? तुम जीवित थे, वास्तव में तुम इस तरह जीते थे जितने अधिक जीवन्त तुम फिर कभी और नहीं
रहोगे। वे पहले तीन चार वर्ष तुम्हारे जीवन के सबसे अधिक जीवंत समय था। फिर वहां
उन दिनों की याद क्यों नहीं होती है? तुम उनमें प्रवेश क्यों
नहीं कर सकते? क्योंकि वहां पहचान नहीं थी। वहां निशानियां
या चिन्ह तो थे, लेकिन वहां कोई भी पहचान नहीं थे।
यही कारण है कि तंत्र इस स्थिति को विस्मृति
कहता है। तुम देखते हो, यह देखने से ज्ञान या बोध
उत्पन्न नहीं होता है। तुम कोई भी चीज़ इकट्ठा नहीं करते हो। तुम क्षण प्रति क्षण
में जीते हो। तुम एक क्षण से दूसरे में पहले क्षण को दूसरे में बिना साथ ले जाते
हुए फिसल जाते हो। तुम्हारे पास कोई अतीत नहीं होता, और
प्रत्येक क्षण का जन्म पूर्ण रूप से नवीन और ताज़ा होता है। यही कारण है कि बच्चे
इतनी अधिक जीवन्त औ ताजगी से भरे हुए होते हैं और उनका जीवन प्रसन्नता आनंद और
आश्चर्य से इतना अधिक भरा हुआ होता है। छोटी सी चीजें ही उन्हें इतना प्रसन्न बना
देती हैं। और छोटी-छोटी घटनाएं उन्हें इतनी अधिक तीव्रता से उत्तेजित और आनंदित
बना देती हैं। वे निरंतर विस्मय से भरे होते है; केवल एक
कुत्ता गुज़र जाता है और वे विस्मय से भर जाते हैं। कमरे में एक बिल्ली आती है और
वे आश्चर्यचकित हो जाते हैं। तुम एक फूल लाते हो और उसमें बहुत से रंग हैं। बच्चे
तितली के रंगीन पंखों जैसे संसार में जीते हैं। उनके लिए प्रत्येक चीज में एक
प्रकाश, दीप्ति और चमक होती है। उनकी आंखें बहुत निर्मल होती
हैं। अभी तक उन पर जरा भी धूल इकट्ठी नहीं हुई है और उनका दर्पण कुशलता से
प्रत्येक चीज को प्रतिबिम्बित करता है। यह तीसरी विस्मृति की स्थिति है।
और तब स्मृति की चौथी स्थिति आती हे,
यह मन की स्थिति है। आदम ने ज्ञान का फल खा लिया है, वह नीचे गिरकर इस संसार में आ गया है। अ-मन से मन में आना ही इस संसार में
आने का मार्ग है। अमन ही निर्वाण है और मन है समसार। यदि तुम पुन: उस मौलिक
शुद्धता में उस प्राथमिक भोलेपन में, उस आदिम चेतना की
विशुद्धता में वापस लौटना चाहते हो, तब तुम्हें पीछे की और
वापस लौटना होगा। और वैसे ही धीमे-धीमे चलते हुए तुम्हें वे कदम फिर उठाने होंगे।
पहले तो स्मृति को विस्मृति में लुप्त करना
होगा। इसलिए सभी ध्यान प्रयोग का यह आग्रह होता है कि विचारों को विलुप्त होना है,
और मन को विसर्जित करना है। विचारों से निर्विचार की और उसके बाद
निर्विचार से व्युत्पत्ति की और गतिशील हो जाओ और बूंद सागर में समाहित हो जाये।
तुम फिर वहीं सागर हो, तुम फिर वहीं अनंत हो और तुम पुन:
शाश्वत हो।
मन समय है और अ-मन है शाश्वतता।
कुछ दिनों पूर्व मैंने चार मुद्राओं के बारे
में बात की थी: ‘कर्म मुद्रा’, जहां कार्य करने की चेष्टा हो। ‘ज्ञान मुद्रा’,
जहां ज्ञान बटोरने की चेष्टा हो। ‘समय मुद्रा’,
जहां शुद्ध समय का संकेत हो, और ‘महा मुद्रा’ जो सबसे बड़ा संकेत है, जो शून्य का चिन्ह है। वे ही इन चारों स्थितियों के साथ जुड़ी हुई हैं।
पहली, कर्म
मुद्रा, स्मृति की स्थिति है। तंत्र कहता है कि तुम जो कुछ
भी कार्य की भांति सोचते हो वह और कुछ भी नहीं बल्कि स्मृति है। वास्तव में कार्य
कभी हुआ ही नहीं। यह एक सपना है जिसके द्वारा तुमने देखा हे। वह तुम्हारी कल्पना
है। कार्य नहीं होता है, चीज़ों के प्रामाणिक स्वभाव में
कार्य हो ही नहीं सकता। कार्य, केवल मन का एक स्वप्न है,
जिसकी कल्पना कर तुम योजना बनाते हो।
इसलिए पहली कर्म मुद्रा है,
जो ठीक स्मृति के समानांतर है। जिस दिन तुम स्मृति छोड़ देते हो,
तुम कार्य के पार चले जाते हो। तब भी चीज़ें तुम्हारे द्वारा होती
है, लेकिन तुम फिर और अभिनेता नहीं रहते हो, तुम फिर और अवधि तक उनके कर्त्ता नहीं रहते हो, अहंकार
विसर्जित हो जाता है। चीज़ें तुम्हारे माध्यम से प्रवाहित होती है। लेकिन तुम उनके
कर्त्ता नहीं होते हो। वृक्ष विकसित होने का प्रयास नहीं करते, वे अपने से बढ़ते है, लेकिन वे विकसित होने का
प्रयास नहीं कर रहे है। फूल खिलते हैं, लेकिन इस बारे में
कोई प्रयास संयुक्त नहीं है। नदियां बहती हैं, लेकिन वे बहते
हुए थकती नहीं है। सितारे घूमते है, लेकिन वह कोई भी फिक्र
नहीं करते। चीज़ें स्वतः हो रही है। लेकिन वहां कोई भी उनका करने वाला नहीं है।
दूसरी स्थिति है ज्ञान मुद्रा,
जानने की चेष्टा करना। तुम सामान्य रूप से निरीक्षण करते हो,
तुम सामान्य रूप से जानते हो, तुम कोई भी
कार्य नहीं करते हो। चीजें स्वत: होती है, तुम केवल एक
निरीक्षण कर्ता हो, तुम कर्ता की भांति एक रूप नहीं होते।
तब तीसरी मुद्रा है समय मुद्रा। तब
धीमे-धीमे जानने वाला भी जरूरत नहीं होता। वहां जानने को कुछ भी नहीं है। पहले
कार्य विलुप्त होता है, तब ज्ञान मिटता है। तब वहां
ठीक अभी का होना होता है, समय अपनी निर्मलता में प्रवाहित
होता है। तभी कुछ है, न तो कुछ भी करना है और न कुछ भी जानना
है। तुम एक सामान्य प्राणी हो। इसके ही साथ समय प्रवाहित होता जा रहा है। तुम ज़रा
भी व्याकुल और परेशान नहीं हो। सभी करने अथवा जानने की कामना विलुप्त हो गई है।
इस बारे में केवल दो तरह की कामनाएं होती
है। निम्न तरह की कामना कुछ चीज करने की होती है और उच्च किस्म की कामना कुछ चीज़
जानने की होती है। निम्न तरह की कामना को पूरा करने के लिए शरीर की ज़रूरत होती
है। और उच्च किस्म की कामना को जानने के लिए मन की जरूरत होती है। लेकिन दोनों ही
कामनाएं हैं। दोनों ही विदा हो गई हैं, अब तुम
अकेले बैठे हो। चीजें गतिशील होती हैं, समय गुजरता हैं,
और प्रत्येक चीज़ होती चली जाती है, लेकिन तुम
न तो कर्त्ता होते हो और न ज्ञाता।
और चौथी मुद्रा: महामुद्रा की है,
यह बहुत बड़ा संकेत है। तुम भी और नहीं रह जाते हो। कार्य मिट जाता
है, ज्ञान लुप्त हो जाता है, समय भी
लुप्त हो जाता है। और तब तुम भी मिट जाते हो। तब वहाँ मौन होता है। यह ‘वह’ है जो वास्तव में मौन होता है। तुम जिसे मौन
कहते हो, वह मौन नहीं है। तुम्हारा मौन केवल बहुत दूर के मौन
का प्रतिबिम्ब है, एक बहुत निर्धन-मौन है। कभी-कभी तुम थोड़ा
सा विश्राममय होने का अनुभव करते हो और मन उतनी अधिक तेजी से अनेक विचारों के ताँगों
को एक साथ नहीं कातता जितना कि सामान्य रूप से करता है। मन थोड़ा सा विश्राम में
होता है। और तुम मौन का अनुभव करते हो। वह कुछ भी नहीं है।
शांति और मौन तब होता है,
जब कार्य हो चुका होता है, ज्ञान चला जाता है।
समय लुप्त हो जाता है और तुम भी नहीं बचते। अंतिम रूप से तुम भी चले जाते हो।
अचानक एक दिन तुम पाते हो कि तुम नहीं हो; एक दिन अकस्मात
तुम पाते हो कि प्रत्येक चीज़ विलुप्त हो गई है और कुछ भी नहीं बचा है। इस शून्यता
की महान मुद्रा में तुम अनंत होते हो।
पहली कर्म मुद्रा के साथ वहां विचार होते
हैं,
और विचारों के साथ भूतकाल और भविष्य होना स्वाभाविक है, क्योंकि विचार या तो भूतकाल अथवा वे भविष्य के बारे में ही होते हैं।
विचारों के साथ व्यग्रता तनाव और दुःख आते हैं।
दूसरी ज्ञान मुद्रा के साथ स्मृति विस्मृति
में लुप्त हो जाती है। न अतीत रहा है और न भविष्य केवल अभी होता है। मन अभी मरा
नहीं है वह सुप्त होता है और फिर से जाग सकता है। ज्ञान मुद्रा अनेक बार घटित होती
है और खो जाती है। ध्यान को प्राप्त हो जाने और खो जाने का यही अर्थ है। इस दूसरी
स्थिति में मन नष्ट नहीं होता है, वह सामान्य रूप से सो
जाता है। उसकी नींद थोड़ी देर की ही हाथी है। वह बस एक विश्राम की अवस्था या सोने
के लिए चला जाता है। तब फिर वह वापस आता है। कभी-कभी क्रोध और प्रति हिंसा की
तीव्र ऊर्जा के साथ वापस लौटता है—निश्चित रूप से वह आराम कर
चुका होता है। इसलिए प्रत्येक गहरे ध्यान के बाद तुम पाओगे कि अब मन विश्राम करने
के बाद और अधिक सक्रिय हो गया है, अब उसके पास और अधिक ऊर्जा
है और वह और अधिक ताकतवर हो गया है। दूसरी ज्ञान मुद्रा में मन सोने तो चला जाता
है पर अभी विसर्जित नहीं होता है और तुम्हें एक क्षण के लिए अ-मन का थोड़ा सा
स्वाद मिल सकता है। क्षण के एक खण्ड में एक किरण प्रविष्ट होती है और तुम रोमांचित
हो जाते हो। इस स्वाद से आस्था उत्पन्न होती है यह वही स्थान है जहां आस्था जन्म
लेती है।
आस्था, विश्वास
नहीं होती, वह एक स्वाद होता है। जब तुमने एक क्षण के लिए भी
इस प्रकाश को देख लिया हैं। तब तुम वही व्यक्ति कभी भी नहीं हो सकते हो। तुम उसे
खो सकते हो, लेकिन वह तुम्हारे साथ में बनी ही रहेगी। हो
सकता है कि तुम उसे पुन: प्राप्त करने में समर्थ न हो सको लेकिन तुम उसे भूलने में
भी समर्थ न हो सकोगे, वह वहां हमेशा बनी रहेगी। और जब कभी
तुम्हारे पास समय और ऊर्जा होगी, वह तुम्हारे द्वार को
खटखटाना प्रारम्भ कर देगी।
यह वह स्थिति है जो बहुत सरलता से एक सदगुरू
की उपस्थिति में घट सकती है, ऐसा उच्च सम्पर्क के
कारण होता है। ज्ञान मुद्रा की यह दूसरी स्थिति एक ऐसे व्यक्ति की उपस्थिति में घट
सकती है, जो अ-मन की चौथी स्थिति तक पहुंच गया हो।
इसलिए बीते युगों से खोजी लोग एक सदगुरू के
लिए खोज करते रहे हैं। यह स्वाद कहां से पाया जाये? तुम
इसे पुस्तकों के द्वारा प्राप्त नहीं कर सकते, पुस्तकें केवल
विश्वास की आपूर्ति करेंगी। जीवंत अनुभव कहां से प्राप्त किया जाए?और तुम्हारे पास वह जीवंत अनुभव नहीं हो सकता, क्योंकि
तुम नहीं जानते कि वह ठीक-ठीक है क्या, उसके लिए किसी दिशा
में जाना है और क्या करना है। और संदेह वहां हमेशा बना रहता है कि.....क्या वह
पूरी तरह से अस्तित्व में है?हो सकता है कि वह कुछ पागल
लोगों का केवल एक स्वप्न मात्र हो?और उन लोगों की संख्या
बहुत छोटी सी है—एक बुद्ध, एक क्राइस्ट
अथवा एक सरहा—और वे लोग मनुष्यता के एक बहुत छोटे से भाग
हैं। बहुत संख्यक लोग बिना इस तरह के अनुभव के रहते हैं। कौन जाने, ये लोग पागल हो सके हैं। कौन जानता है, इन लोगों में
एक विशिष्ट विकृति हो सकती है। कौन जानता है कि ये लोग धोखे बाज़ और कपटी हो सकते
हैं, वे दूसरों को धोखा दे सकते हैं। अथवा हो सकता है कि वे
धोखेबाज़ न होकर ईमानदार लोग हों, लेकिन वे स्वयं अपने को ही
धोखा दे रहे हों। हो सकता है वे आत्म सम्मोहित हो गये हों, और
हो सकता है उन्होंने एक इन्द्रजाल सृजित कर लिया हो। अथवा हो सकता है उन्होंने
उसका सपना देखा हो और हो सकता है कि वे लोग एक अच्छे स्वप्नदर्शी हों।
इस जगह अच्छे स्वप्न देखने वाले हैं और बुरे
स्वप्न देखने वाले भी। बुरे स्वप्न देखने वाले वे लोग हैं जिनके स्वप्न हमेशा
श्वेत-श्याम होते हैं, वे सपाट द्विआयामी होते
हैं। अच्छे स्वप्न देखने वाले वे लोग होते हैं जिनके सपने त्रिआयामी और हमेशा रंग
बिरंगे होते हैं। ये त्रिआयामी रंगीन स्वप्न देखने वाले कवि बन जाते हैं। क्या
तुम्हें स्मरण हैं कि तुमने कभी रंगीन स्वप्न देखा हो। एक व्यक्ति का रंगीन स्वप्न
देखना दुर्लभ होता हैं। अन्यथा स्वप्न श्वेत श्याम ही होते हैं। यदि तुम रंगीन
स्वप्न देखते हो तो तुम्हारे एक कवि एक चित्रकार होने की संभावना बढ़ जाती है।
अन्यथा नहीं है। कौन जानता है, ये रहस्यदर्शी महान
स्वप्नदर्शी हो सकते हैं, जो तीन आयामी स्वप्न देखते हों,
जिससे उन्हें स्वप्न पूर्ण रूप से वास्तविक लगते हों। और स्वाभाविक
रूप से जब वे अपने सपनों में इतना अधिक समय अर्पित करते हों, तो यह सम्भव है कि वे सपनों के साथ आवेशित हो जाते हो और खोजी दुविधा में
पड़ जाता है कि ‘वास्तव में इस जैसा वास्तविक और कुछ भी नहीं
है।’
यह संदेह बना ही रहता है,
यह संदेह प्रत्येक खोजी का अनुसरण करता है। यह स्वाभाविक है,
इस बारे में कुछ भी फिक्र करने की ज़रूरत नहीं है। यह संदेह कैसे
मिटे?धर्मशास्त्र सामान्य रूप से यही कहते हैं—‘इसे छोड़ो और विश्वास करो।’ लेकिन इसे कैसे छोड़ा
जाये?तुम विश्वास कर सकते हो लेकिन तुम्हारे अंदर गहरे में
संदेह बना ही रहेगा।
संत ऑगस्टाइन के पास एक प्रार्थना थी और वे
प्रतिदिन परमात्मा से प्रार्थना करते हुए कहते थे—‘हे
परमात्मा! मैं विश्वास करता हूं, मैं पूर्ण रूप से विश्वास
करता हूं। लेकिन मुझ पर दया कर मेरी देखभाल करते रहना। जिससे संदेह फिर से उत्पन्न
न हो जाए।’ लेकिन क्यों?यदि विश्वास
परिपूर्ण है तब यह भय कहां उत्पन्न होता है?यह प्रार्थना
कहां से आती है? संत ऑगस्टाइन कहते हैं—‘मैं विश्वास करता हूं, और तुम मेरे विश्वास की
सावधानी से देखभाल करना।’ लेकिन अविश्वास वहां है। हो सकता
है परमात्मा के लिए लोभ और लालसा वश तुमने उसका दमन किया हो, हो सकता है कि दूसरे संसार के लिए कामना और लालसा वश तुमने उसका दमन किया
हो, लेकिन वह वहां है और वह तुम्हारे हृदय को कुतरती चली जा
रही हो। तुम उसे तब तक नहीं छोड़ सकते जब तक तुम्हें कुछ अनुभव न हो जाए।
लेकिन अनुभव कैसे हो सकता है?धर्मशास्त्र कहते हैं तुम विश्वास नहीं करते, अनुभव
नहीं होगा। अब यह बहुत जटिल चीज़ है। वे कहते हैं कि जब तक तुम विश्वास नहीं करते
अनुभव नहीं होगा। लेकिन अनुभव कैसे हो सकता है क्योंकि जब तक अनुभव नहीं होता तुम
विश्वास नहीं कर सकते। केवल अनुभव ही विश्वास उत्पन्न कर सकता है। एक ऐसा विश्वास
जो बिना किसी संदेह के हो जो एक संदेहहीन आस्था है।
यह संदेहहीन आस्था केवल तभी सम्भव है यदि
तुम किसी ऐसे व्यक्ति की उपस्थिति में हो, जिसे यह
घट चुका हों। उस उपस्थिति में कोई व्यक्ति न जानते हुए, न
कामना करते हुए और न कोई प्रयास किए हुए जब शांत बैठा रहता है, वह तभी घटता है। वह प्रकाश की दीप्ति की भांति घटता है और तुम्हारा पूरा
जीवन रूपांतरित हो जाता है। यही है वह चीज़ जिसका अर्थ वार्ता या संभाषण से है।
तुम बदल जाते हो, तुम्हारा रूपांतरण हो जाता है। तुम एक नूतन
धरातल पर चले जाते हो।
किसी ऐसे व्यक्ति की उपस्थिति जो तुम्हारी
अपेक्षा उच्चतम तल पर रहता है, वह तुम्हें उच्च तल पर
उठा देती है। तुम स्वयं के प्रति सचेतन होने के बावजूद किसी शक्ति के द्वारा खींच
लिए जाते हो। एक बार तुमने स्वाद ले लिया, तभी वहां आस्था का
जन्म होता है। और जब वहां आस्था अर्थात श्रद्धा होती है, तभी
तुम तीसरी और चौथी मुद्रा में गतिशील हो सकते हो। एक सदगुरू की उपस्थिति तुम्हें
केवल दूसरी ज्ञान मुद्रा तक ले जा सकती है। हां, वह तुम्हें
थोड़ा सा जानना दे सकती है, उसके अस्तित्व का थोड़ा सा स्वाद
दे सकती है।
जब जीसस बिदा ले रहे थे तो डबलरोटी तोड़ते
हुए उन्होंने अपने शिष्यों से कहा—‘इस खाओ,
यह मैं ही हूं।’ गिलासों में शराब उड़ेली और
कहा—‘इसे पीओ, यह मेरा रक्त है। यह मैं
ही हूं।’ यह बहुत प्रतीकात्मक है: यह बहुत आलंकारिक कथन हे।
यह ज्ञान मुद्रा है। जीसस कह रहे हैं: ‘तुम्हारे पास मेरा
थोड़ा सा स्वाद हो सकता है, तुम मुझे पी सकते हो, तुम मुझे खा सकते हो।’प्रत्येक शिष्य नरभक्षी होता
है। वह अपने सद्गुरू को ही खाता है, वह सद्गुरू को अपने अंदर
अवशोषित करता है। उसे खाने का यही अर्थ है। जब तुम कोई चीज़ खोते हो तो तुम क्या
करते हो?तुम उसे पचाते हो, उसे अवशोषित
करते हो—वह तुम्हारा रक्त बन जाता है वह तुम्हारी हड्डियों
बन जाता है, वह तुम्हारी मज्जा बन जाता है और वह तुम्हारी
चेतना बन जाता है। भोजन करना यही होता है।
तुम एक सद्गुरू के साथ क्या करते हों?तुम उसकी उपस्थिति को खोते हो, तुम उसकी कम्पन या
तरंगों को खाते हो। और धीमे-धीमे वह तुम्हारी चेतना बन जाता है। जिस दिन वह
तुम्हारी चेतना बनता है तभी तुम एक संन्यासी बनते हो, उससे
पहले नहीं बनते। उससे पहले संन्यास औपचारिक होता है। उससे पूर्व संन्यास इस घटना
की और बढ़ने की शुरूआत होता है। बिना एक संन्यासी बने इसके लिए वह होना कठिन होगा,
क्योंकि संन्यास लेने के साथ तुम खुल जाते हो, तुम इस योग्य बन जाते हो। जब तुम इस योग्य होकर अपने हृदय के द्वार खोल
देते हो, तो किसी दिन, किसी भी क्षण,
चीजें एकसाथ तुम पर बरसती हैं। कुछ क्षणों में तुम्हारी ऊर्जा एक
ऐसी स्थिति में होती है कि सद्गुरू की ऊर्जा उसे खींच सकती है। कुछ क्षणों में तुम
उसके बहुत निकट आते हो। कुछ प्रेम के क्षणों में कुछ प्रसन्नता, उत्सव और आनंद के क्षणों में तुम सद्गुरू के निकट आते हो और तुम उसके
प्रेम जाल में फंस जाते हो। उसकी केवल एक झलक, केवल अमृत की
एक बूंद तुम्हारे कंठ के नीचे जाती है और तुम रूपांतरित हो जाते हो।
अब तुम जानते हो। अब तुम स्वयं अपने को
जानते हो,
अब वहां विश्वास करने की कोई आवश्यकता नहीं होती है। अब यदि सारा
संसार कहता है कि परमात्मा अस्तित्व में नहीं है, उससे कुछ
भी फर्क नहीं पड़ता: तुम पूरे संसार के विरूद्ध लड़ने में समर्थ होगे क्योंकि तुम
जानते हो। तुम अपने बोध को कैसे अस्वीकार कर सकते हो?तुम अपने
अनुभव से कैसे इनकार कर सकते हो?
वह छोटी सी बूंद पूरे संसार की अपेक्षा कहीं
अधिक शक्तिशाली होती है। वह छोटी सी बूंद तुम्हारे पूरे अतीत की तुलना में कहीं
अधिक शक्ति सम्पन्न होती है। उस छोटी सी बूंद के साथ उसके मुकाबले में लाखों जन्म
भी कुछ नहीं होते हैं।
लेकिन यह केवल तभी संभव हो सकता है जब तुम
उसके बहुत घनिष्ठ होते हो। लोग मेरे पास आते हैं और वे पूछते हैं—‘यह संन्यास क्यों?क्या हम यहां बिना संन्यास लिए हुए
नहीं बने रह सकते?हां तुम यहां जितनी अवधि तक रहना चाहों रह
सकते हो, लेकिन तुम मेरे घनिष्ठ न हो सकोगे। तुम बस मेरी बगल
में बैठ सकते हो, मैं तुम्हारा हाथ थाम सकता हूं, लेकिन उससे कुछ भी न होगा। तुम्हारे भागों में वह मुद्दत, वह सामर्थ्य, वह खुलापन.... ’
केवल कुछ दिनों पूर्व ही एक युवक मुझसे पूछ
रहा था—‘नारंगी वस्त्रों और माला के लिए तर्क कर रहा था?कि इनका
मुल आधार क्या है?’
मैंने उससे कहा—‘कोई भी आधार नहीं है। ये केवल मूर्खता पूर्ण है।’
वह उलझन में पड़ गया। उसने कहा—‘लेकिन यदि यह मूर्खतापूर्ण और असंगत हैं, तब आपने
उसे स्थापित क्यों किया है?’
और मैंने उससे कहा—‘यह ठीक क्यों है?’
यदि मैं ऐसी किसी चीज़ के लिए कहता हूं जो
तर्कयुक्त है और तुम उसे करते हो, तो यह तुम्हारा मेरे
प्रति समर्पण न होगा। यह तुम्हारी चेष्टा न होगी। यदि कोई चीज़ तर्क युक्त है और
तुम उसकी तार्किकता
से कायल होकर उसका अनुसरण करते हो तो तुम मेरा नहीं, अपनी
तर्क निष्ठा बुद्धि का ही अनुसरण कर रहे हो। यदि कोई चीज़ तर्क संगत है और तर्क और
वैज्ञानिकता से सिद्ध की जा सकती है और तुम उसका अनुसरण करते हो तो तुम मेरे
द्वारा किये गये आघात को सहन करने योग्य नहीं हो, तो तुम
मेरे लिए उपलब्ध नहीं हो। तो उसका कोई भी उपयोग नहीं होगा, तुम
तब भी अपने तर्क निष्ठा बुद्धि का ही अनुसरण करोगे इसलिए बीते युगों से प्रत्येक
सद्गुरू न थोड़ी सी असंगत और व्यर्थ की चीज़ों को विकसित किया है। वे पूरी तरह से
प्रतीकात्मक हैं। वे सामान्य रूप से तुम्हारी उस हां को प्रदर्शित करती हैं,
कि तुम उसका कारण नहीं पूंछ रहे हो और तुम उसे स्वीकार करने को
तैयार हो। तुम इस व्यक्ति के साथ जाने को तैयार हो, भले ही
उसके पास कुछ विचित्र सनक से भरे विचार भी हो, तुम उसे भी
स्वीकार करते हो। यह तुम्हारी बुद्धि या खोपड़ी का तनाव शिथिल कर देते हैं,
और यह तुम्हें केवल थोड़ा सा और अधिक खुला या ग्रहणशील बना देते
हैं।
बुद्धत्व किसी भी रंग में घट सकता है,
इसके लिए भगवा या नारंगी रंग ही अनिवार्य नहीं है। वह तो किसी भी
रंग में घटित हो सकता है। वह बिना किसी माला के और बिना किसी लॉकेट के घट सकता है।
लेकिन आखिर तब क्यों? यह ‘क्यों’
ही उसकी व्यर्थता है: तर्क का कारण नहीं, अर्थहीन
हैं, तुम उसके अर्थ और तर्क के पार जाने के लिए तैयार हो,
यही इसका अर्थ है।
यह एक बहुत छोटी सी शुरूआत है,
लेकिन छोटी सी शुरूआत का ही बड़ी चीजों में अंत हो सकता है। जब गंगा
हिमालय से निकलती है, वह केवल एक पतली सी धारा होती है,
बूंद जैसी इतनी अधिक छोटी से एक दृश्य सत्ता होती है कि तुम उसे
अपने चुल्लुओं में भर सकते हो। लेकिन जिस समय वह सागर तक पहुंचती है तो वह इतनी
अधिक बड़ी विशाल और विराट हो जाती है कि तुम उसका दूसरा छोर देख भी नहीं सकते,
उसे पकड़ नहीं सकते, वह अब इतना विशाल हो चूका
है कि वह तुम्हें डूबो भी सकता है।
नारंगी कपड़े और लॉकेट वाली माला पहनना,
यह तो एक छोटा सा संकेत है, एक बहुत व्यर्थ
चीज़ है, लेकिन यह किसी चीज़ की शुरूआत है। तुम एक व्यक्ति
से इतना अधिक प्रेम करते हो कि तुम उसके लिए असंगत चीज भी करने के लिए तैयार हो।
बस यहीं सभी कुछ है। यह तुम्हें मेरे द्वारा दी गई चोट को सरलता से सहन करने योग्य
बनाता है और तब तुम अधिक सरलता से मेरी छूत की बीमारी को ग्रहण कर सकते हो।
सत्य छूत की बीमारी की तरह ही संक्रामक है
और तुम्हें उसके लिए उपलब्ध बने रहना है। संदेह एक तरह से चेचक का टीका लगवाने
जैसा है,
वह तुम्हारी सुरक्षा करता है। तर्क और बुद्धि सुरक्षा करते हैं।
सुरक्षित होकर तुम कभी भी कहीं गतिशील नहीं हो सकते। सुरक्षित बने हुए तुम केवल मर
जाओगे। तुम अपनी कब्र में सुरक्षित हो। असुरक्षा में तुम अस्तित्व के लिए उपलब्ध
होते हो।
एक सद्गुरू के पास उसकी समीपता में रहते हुए
एक दिन घटना घट सकती है—तुम उच्च तल तक उठ सकते हो—अकस्मात तुम्हारे पास पंख हो सकते है और तुम्हें आकाश में स्वतंत्रता से
उड़ने का थोड़ा सा स्वाद मिल सकता है। और तब उसके बाद चीज़ें तुम्हारे अपने द्वारा
की जा सकती है।
तब तीसरी समय मुद्रा सम्भव हो जाती है। तब
तुम उस दिशा में देखना प्रारम्भ कर सकते हो जो तुम्हारे ही अंदर खुल गई है। और तुम
उस और गतिशील होने की शुरूआत कर सकते हो। अब तुम जानते हो कि किधर गति शील होते
हुए जाना है, अब तुम्हारे पास उसे समझने का अंतर्ज्ञान
है, अब तुम एक विशिष्ट दक्षता जानते हो। धर्म एक विज्ञान
नहीं है, वह एक कला भी नहीं है, वह एक
दक्षता है। लेकिन यह दक्षता स्वाद के द्वारा और अनुभव के द्वारा आती है।
समय मुद्रा है सृष्टि का उद्भव न होना,
यह अनुत्पन्न के समानान्तर है। तब मन केवल गहरी नींद में नहीं सोया
हैं। वह विसर्जित हो गया हैं। लेकिन दूसरी के साथ मन वापस लौट आयेगा, वह केवल गहरी नींद में सोया हुआ है। तीसरी के साथ मन सरलता से वापस नहीं
लौटेगा, लेकिन उसका वापस लौट आना तब भी सम्भव है। दूसरी के
साथ ऐसा होगा ही, कि वह वापस लौटेगा। इस ज्ञान मुद्रा के साथ
वह स्वयं ही वापस लौटेगा। तीसरी समय मुद्रा के साथ यदि तुम चाहते हो कि वह वापस
लौटे तो तुम उसे वापस लौटने दे सकते हो अन्यथा वह अपने से वापस नहीं आयेगा।
चौथी महामुद्रा के साथ यदि तुम उसे वापस
लौटना चाहो तो यह असम्भव है। तुम सभी का अतिक्रमण कर उस पार चले गए हो। यह चौथी
स्थिति ही तंत्र का लक्ष्य है। जो अस्तित्व का प्रारम्भ है।
तीन बातें और तभी हम इन सूत्रों में प्रवेश
कर सकते हैं। स्मृति से विस्मृति में जाने के लिए तुम्हें एक सावधानी की आवश्यकता
होगी?
तुम्हें विचारों और सपनों के बारे में और अधिक सावधान रहना होगा
क्योंकि स्मृतियां तुम्हारे चारों और घूमती हुई तुम्हें धकेलेंगी। तुम्हें विचारों
पर और अधिक ध्यान केंद्रित करना होगा। विचार ही विषय और वस्तुएं हैं, और तुम्हें उनके प्रति सचेत होना होगा। यह पहली सावधानी है—‘प्रथम सावधानी।’
कृष्णमूर्ति इस बारे में बात करते हुए इसे ‘चुनाव रहित सचेतनता’ कहते है। चुनाव मत करो। चाहे जो
भी विचार गुज़रे केवल उसका निरीक्षण करो, कोई निर्णय मत लो,
केवल देखो कि वह गुजर रहा है। यदि तुम निरीक्षण किये चले जाते हो तो
एक दिन विचार इतनी तीव्रता से गतिशील नहीं होंगे; उनकी गति
धीमी होती जाती है। तब किसी दिन अंतराल आना शुरू होते हैं; एक
विचार जाता है ओर एक लम्बी अवधि तक दूसरा विचार नहीं आता है। तब कुछ समय बाद विचार
सामान्य रूप से कुछ घंटों के लिए विलुप्त हो जाते हैं, और मन
की सड़क बस यातायात से खाली हो जाती है।
सामान्य रूप से तुम हमेशा ही भीड़-भाड़ भरे
समय में रहते हो। विचारो की भीड़ लगी रहती है, एक विचार
के ऊपर दूसरा विचार और एक दौड़ने के मार्ग के पीछे दूसरा मार्ग। वह केवल एक ही
मार्ग नहीं है। वहां अधर-उधर जाते हुए अनेक मार्ग हैं। और वह व्यक्ति जिसे तुम
चिंतक कहते हो उसके पास सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा दौड़ने वाले अनेक मार्ग होते
हैं। यदि तुम शतरंज खेलने के बारे में कुछ जानते हो, तब तुम
जानते हो कि शतरंज के खिलाड़ी की पांच मार्गों पर चलने वाले मस्तिष्क की ज़रूरत
होती है। उसे कम से कम आगे की पांच चालें सोचकर चलना होता है: यदि वह यह करने जा
रहा है, तो दूसरा क्या करेगा? और तब वह
क्या करेगा, तब फिर दूसरा क्या करेगा....? उसे कम से कम आगे की पांच चालें सोचकर उसी रास्ते पर बढ़ना होता है। जब तक
वह अपने मन में इन पांच चालों को पकड़ कर नहीं रख सकता है वह शतरंज का एक महान
खिलाड़ी नहीं बन सकता।
जिन लोगों को तुम विचारक कहते हो,
उनके पास अनेक मार्गों पर चलने वाला एक बहुत जटिल मन होता है और सभी
मार्ग भीड़ भाड़ से भरे हुए होते हैं। प्रत्येक दिशा से वहां हमेशा भीड़ का रेला
आता है। और हमेशा यहां तक कि रात में भी हमेशा भीड़ का ही समय होता है। जब तुम
सोते हो, तब भी मन कार्य किये चला जाता है। गतिशील हुए चले
जाते हैं। वह चौबीस घंटे कार्य करने वाला कर्मचारी है और वह कोई भी अवकाश नहीं
मांगता। परमात्मा भी सृष्टि करता हुआ छ: दिनों के कार्य के बाद थक गया था और
रविवार को उसे विश्राम करना पड़ा था। लेकिन मन को किसी रविवार की आवश्यकता नहीं
होती। वह सत्तर अस्सी वर्षों तक वह कार्य और कार्य केवल कार्य ही किये चले जाता
है। कोई विश्राम न लेना यह पागल बना देने वाला कार्य है।
तुम्हें अगस्टे रोडिन की मूर्ति का चित्र
निश्चित रूप से देखना चाहिए एक विचारक की मूर्ति के बारे में पूरब में हम हंसते हैं।
जिसके सिर पर इतनी अधिक चिंता और व्यग्रता सवार हो ऐसे चिंतक अगस्टे रोडिन की
संगमरमर की मूर्ति भी तुम उसकी चिंता को महसूस कर सकते हो। यही अगस्टे रोडिन की कला है।
उसे देखकर तुम सोच सकते हो कि अरस्तु अथवा बर्टेन्ड रसेल अथवा फ्रीड्रिक नीत्शे
कैसे थे—ओर इस बारे में कोई आश्चर्य नहीं है कि नीत्शे पागल हो गया। जिस तरह की यह
अगस्टे रोडिन की प्रतिमा है वह निश्चित रूप से एक दिन पागल होने जा रही है। सोचना
और बस सोचना ही उसका जीवन बन गया है....सोचता ही चले जाता है।
पूरब में हमने विचारकों के बारे में अधिक
फिक्र नहीं की; हमने उन लोगों से प्रेम किया है जो
विचारक नहीं थे। बुद्ध एक विचारक नहीं हैं। ऐसे ही महावीर भी एक विचारक नहीं हैं।
सरहा भी ऐसे ही हैं। ये लोग विचारक नहीं हैं। यदि ये लोग विचारते हैं तो केवल
निर्विचार की और जाने के बारे में ही सोचते हैं। यह निर्विचार के लिए ही सोचने का
एक जम्पिंग बोर्ड की भांति प्रयोग करते है।
स्मृति से विस्मृति तक का सेतु ‘प्रथम सावधानी’ है। यह विषय और वस्तु के प्रति
सचेतनता है। विस्मृति से अनुत्पन्न तक तुम्हें एक दूसरी सावधानी की आवश्यकता होगी।
यही है वे जिसे गुरूजिएफ ‘आत्म स्मरण’ कहता
है। कृष्णमूर्ति का कार्य पूर्ण रूप से प्रथम सावधानी पर आधारित है; और गुरूजिएफ का कार्य पूर्ण रूप से ‘दूसरी सावधानी’
पर आधारित है। प्रथम सावधानी के साथ तुम वस्तु विषय और विचार की और
देखते हो। तुम विषय और वस्तु के प्रति होशपूर्ण बने रहते हो। ‘दूसरी सावधानी’ के साथ तुम इतने होशपूर्ण बनते हो—विषय वस्तु और व्यक्तित्व के प्रति भी। तुम्हारी चेतना का तीर दोनों और नोक
वाला होता है। एक और से तुम्हें विचार के प्रति सचेत बनना होता है और दूसरी और से
तुम्हें सोचने वाले के प्रति भी सचेत बनना होता है। विचार और वैयक्तिकता दोनों को
ही सचेतनता के प्रकाश में बने रहने होगा। गुरूजिएफ का कार्य कृष्णमूर्ति की
अपेक्षा कहीं अधिक गहराई तक जाता है। वह इसे ‘आत्मस्मरण’कहता है।
तुम्हारे मन में एक विचार चल रहा है—उदाहरण के लिए एक क्रोध की बदली चल रही है, तुम
निरीक्षण कर्ता का निरीक्षण किये बिना क्रोध की बदली का निरीक्षण कर सकते हो—तब यह है ‘पहली सावधानी’।यदि
इसी समय तुम्हें क्रोध की बदली का निरीक्षण करते समय निरंतर यह भी स्मरण रख सकते
हो कि निरीक्षण कौन कर रहा हैं—‘मैं निरीक्षण कर रहा हूं’—तब यह ‘दूसरी सावधानी’ अथवा
सचेतनता है, जिसे गुरूजियेफ ‘आत्मस्मरण’
कहता है।
स्मृति से विस्मृति तक ले जाने में पहली
सावधानी या सचेतनता सहायक होगी। लेकिन विस्मृति से तुम फिर सरलता से स्मृति में
वापस लौट आओगे, क्योंकि मन केवल सोने के लिए जाता है।
पहली सावधानी के साथ तुम सामान्य रूप से मन को नींद में ले जाने की दवा देते हो और
मन नींद में चला जाता है। यह विश्राम महत्वपूर्ण है और एक अच्छी शुरूआत है,
लेकिन यह अंतिम लक्ष्य नहीं हे। यह जरूरी नहीं है बल्कि पर्याप्त भी
नहीं है।
दूसरी सचेतनता के साथ मन अनुत्पन्न में गिर
जाता है। अब उसे वापस लाना बहुत कठिन है। तुम इसे वापस ला सकते हो,
लेकिन यह स्वयं से न आयेगा। उसे वापस लाना असम्भव भी नहीं है,
लेकिन यह आसान भी नहीं है।
गुरूजियेफ के साथ किया कार्य फिर और गहराई
तक जाता है। लेकिन तंत्र कहता है कि वहां एक तीसरा सचेतनता भी है,
सावधानी नम्बर तीन। यह तीसरी सावधानी क्या है? जब तुम वस्तु और विषय के बारे में भूल जाते हो, जब
तुम अपनी वैयक्तिकता के बारे में भूल जाते हो तो वहां केवल एक विशुद्ध चेतना होती
है। तुम किसी चीज़ पर केंद्रित और एकाग्र नहीं होते, केवल एक
शुद्ध चेतना परिभ्रमण करती रहती है। उसका किसी भी चीज़ पर ध्यान नहीं होता, वह किसी चीज पर केंद्रित नहीं
होती—तुम केवल सावधान होते हो। पहली के साथ तुम विषय या
वस्तु पर एकाग्र होते हो। दूसरी के साथ तुम विषय-वस्तु और व्यक्ति पर चेतना एकाग्र
रखते हो। तीसरी के साथ तुम सारी एकाग्रता छोड़ देते हो; और
तुम पूरी तरह से सजग होते हो। यह तीसरी ही तुम्हें अ-मन तक ले जाती है।
अब सूत्रों में प्रवेश करेंगे—
विस्मृति परम्परागत सत्य है,
और मन जो अ-मन हो गया है वहीं अंतिम सत्य है।
तंत्र सत्य को दो भागों में विभाजित करता है;पहले को वह कल्पित सत्य अथवा व्यावहारिक कहता है, और
दूसरे को वह अंतिम सत्य अथवा पारमार्थिक सत्य कहता हैं। क्योंकि वह सत्य के समान
दिखाई देता है। यह इतना अधिक व्यवहार में होता है कि उसके पास सत्य की विशिष्ट झलक
होती है।
यह लगभग इस तरह का होता है: यदि तुम्हें कोई
व्यक्ति मेरा चित्र दिखलाता है और तुम कहते हो—‘हां,
यह वास्तविक चित्र है’—वास्तविक चित्र से
तुम्हारा अर्थ क्या है? एक चित्र कैसे सत्य हो सकता है?
यह व्यक्ति का चित्र वास्तविक है, इसका सामान्य
अर्थ यही है कि यह मूल रूप से मेल खाता है। चित्र अपने आप में असत्य है—सभी चित्र झूठे होते हैं, केवल वह एक कागज़ है। और
भला मैं कागज़ कैसे हो सकता हूं, मैं कागज कैसे हो सकता हूं,
और मैं उन रेखाओं में कैसे हो सकता हूं? यहां
तक कि एक सच्चा फोटोग्राफ भी केवल एक फोटो होता है। लेकिन यह कहना—‘यह एक वास्तविक फोटो हैं—हम कहते हैं कि हां,यह मूल से मिलता है।’
मैंने एक घटना के बारे में सुना है।
एक बहुत सुंदर और बातूनी स्त्री एक बार
पिकासो से भेट करने आई, और वह बहुत अधिक बातचीत कर
रही थी। उसकी बातचीत से पिकासो ऊब चुका था लेकिन चूंकि वह बहुत अधिक धनी महिला थी,
इसलिए वह उसे बाहर भी नहीं फेंक सकता था। वह उसके चित्रों की एक
बहुत बड़ी ग्राहक थी। इसलिए उसे उसकी बातें सुननी पड़ी। और वह बस बोलती चली जा रही
थी।
तब अंत में उसने कहां—‘केवल कुछ ही दिनों पूर्व मैंने अपने मित्र के घर में आपका चित्र देखा। वह
इतना अधिक जीवंत था कि मैंने उससे इतना अधिक प्रेम किया कि मैंने उसे चूम लिया।’
पिकासो ने पूंछा—‘जरा रुकिये। क्या उसने लौटकर आपका चुम्बन लिया?’
उस स्त्री ने कहां—‘आप क्या कह रहे हैं?कहीं आप पागल तो नहीं हो गए हैं?एक चित्र कैसे लौटकर चुम्बन ले सकता है?’
पिकासो ने कहा--‘तब वह मेरा चित्र नहीं था, निश्चित रूप से वह मेरा
बनाया चित्र नहीं था।’
एक चित्र वास्तविक होता है क्योंकि वह उसके
समान दिखता है। लेकिन वह झूठा है क्योंकि वह एक चित्र है। यह है वह जिसे तंत्र
व्यवहारिक सत्य कहता हे।
विस्मृति परम्परा से चला आ रहा सत्य है—यह केवल काम चलाऊ हैं। इसे केवल परम्परागत सत्य कहा जाता है। स्मृति को
तुम जानते हो, परंतु विस्मृति कभी-कभी एक सद्गुरू की
उपस्थिति में घटती है, अथवा कभी-कभी वह ध्यान अथवा प्रार्थना
में घटती है। लेकिन विस्मरण या विस्मृति भी एक काल्पनिक सत्य है। यह एक फोटोग्राफ
है। हां, यह एक सच्चे अ-मन के सादृश्य है। लेकिन केवल उसके
सादृश्य है। यह अभी तक सच्चा अ-मन नहीं है।
इसके बारे में तुम्हें सचेत बनाने को और
तुम्हें इसे अपने मन में रखने को तंत्र बार-बार आग्रह करता है कि लक्ष्य की भांति
नहीं लेना है। और यह केवल शुरूआत है। बहुत से लोग जब विस्मृति को उपलब्ध होते हैं,
तो वे वहीं अटक जाते हैं। जब उन्हें अ-मन की थोड़ी सी झलकें मिल
जाती हैं, वे सोचते हैं कि वे बस वहां पहुंच गए। स्मृति की
तुलना में यह अनुभव अत्यधिक मनोहर और बहुत जीवंत और परमानंद पूर्ण होता है। लेकिन
यह वास्तविक अ-मन की स्थिति की तुलना में कुछ भी नहीं होता है, क्योंकि स्मृति अभी भी वहां गहरी नींद में खर्राटे भर रही है; वह किसी भी क्षण जाग सकती है। मन अभी भी वहां उसके वापस लौटने के अवसर की
प्रतीक्षा कर रहा है। हां, एक क्षण के लिए विचारों का
यातायात रूक गया है। लेकिन वह यातायात फिर से शुरू हो जायेगा।
इन झलको का पा लेना अच्छा है,
क्योंकि वे तुम्हें और आगे ले जायेंगी। लेकिन निश्चल हो जाना ठीक
नहीं है। यह वही स्थिति है जो एल.एस.डी. या मारजुआना और मैस्कलीन आदि नशीले
रसायनों के द्वारा होती है। इससे भी वैसी ही विस्मृति की दूसरी स्थिति घटती है।
नशीली दवा के प्रभाव से एक क्षण के लिए स्मृति लुप्त हो जाती है। रासायनिक दवाएं
उस स्थिति को बलपूर्वक ले आती हैं और रासायनिक आघात से स्मृति लुप्त हो जाती है।
यह वहीं स्थिति है जो विद्युत के आघात
द्वारा भी घटती है। हम उन पागल लोगों को विद्युत के आघात देते हैं। जिनकी स्मृति
उनके लिए एक ऐसा भार बन गई है कि वे स्वयं उसके बाहर नहीं निकल सकते। हम उन्हें
विद्युत के झटके अथवा इन्सुलिन से झटके देते हैं। क्यों?लेकिन इन झटकों के द्वारा विद्युत उनके मस्तिष्क की तरंगों से होकर गुजरती
है। और उन्हें एक ऐसा धक्का देती है कि क्षण भर के लिए वे अपनी जड़ों से जैसे हिला
जाते है। वे अपना मार्ग खो देते हैं, वे जो कुछ सोच रहे थे,
कि वहां क्या था, उसे वे भूल जाते हैं। क्षण भर
के लिए आघात से वे हक्के-बक्के रह जाते हैं। और जब वे वापस लौटते हैं, तो वे उसे पुन: पकड़ सकते है। इसी कारण विद्युत के झटके सहायता करते हैं।
लेकिन विद्युत के आघात अथवा रासायनिक नशीले दवाओं का आघात तुम्हें असली या
प्रामाणिक चीज़ नहीं देता, वे तुम्हें केवल एक फोटोग्राफ
देते हैं।
विस्मृति एक परम्परागत सत्य है और मन जो
अ-मन बन गया है, वह अंतिम सत्य है।
इसलिए तब तक संतुष्ट मत हो जाना,
जब तक तुम अ-मन की चौथी स्थिति को उपलब्ध न हो जाओ।
सरहा कहता है:
यही कार्य का पूरा हो जाता है,
यही सर्वोच्च शुभ और मंगलमय है।
मित्र! इस शुभ और मंगल मय स्थिति के प्रति
सचेत बनो।
यह अमन साधना का पूरा हो जाना है,
क्योंकि तुम जीवन और अस्तित्व के प्रामाणिक स्त्रोत पर पहुंच गए हो।
और जब तक यह नहीं होता है वहां कोई संतोष नहीं होता, तुम्हारा
कार्य पूरा नहीं होता। यही असली खिलावट है, यही सहस्रार है
और यही एक हजार पंखड़ियों वाले कमल का खिल जाना है। तुम्हारे जीवन से एक सुवास और
उत्सव आनंद बरसता रहता है।
यही है वह धार्मिकता। यही सर्वोच्च शुभ और
मंगल दायक आत्मिक शिखर है। इसकी उपेक्षा उच्च और कुछ भी नहीं है। यही है निर्वाण।
सरहा कहता है—‘मित्रों!
इस सर्वोच्च शुभ और मंगलमय स्थिति के प्रति सचेत बनो। स्मरण रहे, वहां तीन तरह की सचेतनता होती है: पहली सचेतनता वस्तु विषय और विचार के
प्रति, दूसरी सचेतनता, वस्तु विचार और वैयक्तिकता
के प्रति और तीसरी सचेतनता शुद्ध सचेतनता होती है। चेतना की इन तीनों स्थितियों
में जाओ जिससे आत्मिक शिखर उपलब्ध हो सके।’
तब सरहा राज व अन्य लोगों से कहता है जो
अनिवार्य रूप से उसके प्रवचन को सुनने को एकत्रित हुए है: ‘मित्रों’…..वह उन्हें मित्र कहकर पुकारता है,
इसे ठीक से समझ लेना है। सदगुरू की और से शिष्य मित्र होता है,
लेकिन शिष्य की और से नहीं। कभी-कभी थोड़े से संन्यासी मुझे पत्र
लिखते हैं, ठीक कुछ समय पूर्व ही एक प्रश्न था.....एक
संन्यासी ने लिखा था ‘ओशो’ मैं आपको
अपने सद्गुरू की भांति नहीं सोच सकता, बल्कि मैं आपको अपने
मित्र की भांति सोचता हूं। क्या इसमें कुछ चीज़ गलत है?मेरी
और से कुछ भी गलत नहीं है, यह पूर्ण रूप से ठीक है। लेकिन
तुम अपनी ही और से किसी चीज से चूक रहे हो, और तुम घाटे में
बने रहोगे। ऐसा क्यों हैं?
एक सद्गुरू की और से तुम मित्र हो,
क्योंकि वह देख सकता है कि यह प्रश्न केवल समय का है, अन्यथा तुम पहले ही से वहां पहुंच गए हो। यह प्रश्न केवल समय का है और एक
दिन तुम जाग जाओगे। तुम सभी बुद्ध हो। सद्गुरू की और से पूरा आस्तित्व पहले ही से
ही बुद्धत्व को उपलब्ध है। सद्गुरू और से चट्टानें, वृक्ष
सभी चाँद-सितारे, सभी पशु-पक्षी और स्त्री-पुरूष सभी कुछ
बुद्धत्व को उपलब्ध है। यह केवल समय का प्रश्न है और समय असंगत है। तुम सभी वहां
हो ही। यह सत्य है कि तुम इसे नहीं जानते, लेकिन सद्गुरू
जानता है।
जिस दिन मैंने स्वयं की आत्मा को जाना,
मैंने अस्तित्व की प्रामाणिक आत्मा को भी जान लिया। तभी से मैंने
किसी भी व्यक्ति को इस दृष्टि से नहीं देखा कि वह बोध को उपलब्ध न है, मैं देख भी नहीं सकता था। यह असम्भव है। हां, तुम इस
तथ्य को नहीं पहचानते लेकिन मैं इसे अस्वीकार नहीं कर सकता। मेरी और से तुम सभी
मेरे मित्र हो। लेकिन तुम्हारी और से यदि तुम सोचते हो कि तुम मुझे अपने सद्गुरू
की भांति स्वीकार नहीं कर सकते और तुम केवल मेरे बारे में एक मित्र की भांति ही
सोच सकते हो, तब यह तुम्हारे ऊपर है। लेकिन जानना कि तुम चूक
जाओगे, विफल हो जाओगे।
अंतर क्या हैं?जब तुम एक व्यक्ति को एक मित्र की भांति स्वीकार करते हो तो तुम्हारा अर्थ
है कि तुम उसे अपने समान ही स्वीकार करते हो—एक मित्र
तुम्हारे बराबर है। हां, तुम मेरे मित्र हो, क्योंकि मैं देखता हूं कि तुम ठीक मेरे ही समान हो, वहां
कोई भी अंतर नहीं है। लेकिन यदि तुम मुझे अपने ही समान देखते हो, तब तुम्हारा विकास रूक जायेगा।
जब मैं तुम्हें अपने बराबर जैसा देखता हूं;
तो मैं तुम्हें अपनी आत्मा अथवा सारभूत तत्व तक ऊपर उठा रहा हूं। जब
तुम मुझे अपने समान जैसा देखते हो, तो उस समय तुम मुझे अपने
तल पर नीचे खींच रहे हो। बस, इस अंतर को देखो। जब मैं कहता
हूं कि तुम मेरे ही समान हो तो मैं तुम्हें अपनी और खींचने का प्रयास करता हूं। जब
तुम कहते हो—‘ओशो! आप हमारे समान हैं, तो
तुम मुझे अपने तल पर खींच रहे हो।’ स्वाभाविक है कि तुम कहीं
अन्य मुझे खींच भी नहीं सकते, क्योंकि तुम कोई दूसरा तल
जानते ही नहीं। और किसी व्यक्ति को अपने एक सद्गुरू की भांति स्वीकार करना क्यों
इतना कठिन है?अहंकार, प्रायः तुम्हें
अहंकार ही मुझे एक मित्र की भांति स्वीकार करना चाहता है।
यह तुम्हारे ही ऊपर निर्भर है,
यह तुम्हारा ही चुनाव है। यदि तुम इसी तरह से बने रहना चाहते हो,
तो इसी तरह से बने रहो, लेकिन यदि तुम्हें कुछ
भी नहीं घटता है, तो मैं इसके लिए जिम्मेदार नहीं हूं,
तब यह तुम्हारी ही जिम्मेदारी है, यदि तुम्हें
कुछ भी नहीं घटता है तो यह पूर्ण रूप से तुम्हारी ही जिम्मेदारी है, क्योंकि तुम अवरोध उत्पन्न कर रहे हो। मैं तुम्हारी और केवल तभी प्रवाहित
हो सकता हूं जब तुम मेरी और ऊपर की तरफ देखो, क्योंकि ऊर्जा
का प्रवाह केवल नीचे की और ही सम्भव है।
यदि तुम मुझे अपने एक मित्र की भांति सोचते
हो,
तो मैं कुछ भी नहीं खो रहा हूं। यदि तुम मुझे अपने शत्रु की भांति
सोचते हो—तो भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता और मैं कोई भी चीज़
नहीं खो रहा हूं। वह व्यक्ति जो यह सोचता है कि मैं उसका शत्रु हूं, और वह व्यक्ति जो यह सोचता है कि मैं उसका मित्र हूं, वे दोनों मेरे में एक ही तरह से सोच रहे है। वह व्यक्ति जो सोचता है कि
मैं उसका शत्रु हूं, वह मुझे अपने समान बना रहा है, और वह व्यक्ति जो सोचता है कि मैं उसका मित्र हूं वह भी ऐसा ही कर रहा हे।
वे भिन्न लोग नहीं है। बस एक इस किनारे खड़ा है दूसरा उस किनारे मात्र। जब तुम ऊपर
की और देखते हो तो तुम ऊर्ध्वगामी ऊर्जा के कांटे में फंस सकते हो और ऊपर की और
खींचे जा सकते हो।
सरहा कहता है: मित्र! इस शुभ और मंगलमय
स्थिति के प्रति सचेत बनो। सद्गुरू की और से प्रत्येक व्यक्ति एक मित्र हे। जो लोग
सोचते हैं कि वे शत्रु हैं, वे भी मित्र हैं।
विस्मृति एक परम्परागत सत्य है
और मन जो अ-मन बन गया है, वही अंतिम सत्य है।
यही कार्य का पूरा हो जाता है, यही सर्वोच्च शुभ और
मंगलमय है।
मित्र! इस शुभ और मंगल मय स्थिति के प्रति सचेत बनो।
विस्मृति में मन अवशोषित या विलुप्त हो जाता
है.......निरीक्षण करती हुई स्मृति, विस्मृति
में विलुप्त हो जाती है। विस्मृति में मन विलुप्त होना शुरू हो जाता है। और जब मन
विलुप्त होना शुरू होता है तो वहां एक नई किस्म और एक नए गुण की ऊर्जा तुम्हारे
अंदर उत्पन्न होती है, जो हृदय ऊर्जा होती है...यह ठीक पूर्ण
और विशुद्ध भावनात्मक हृदय ऊर्जा होती हैं। तब हृदय कार्य करना प्रारम्भ करता है।
जब मन विलुप्त हो जाता है, तो वह ऊर्जा जो मन में उलझी हुई
थी, प्रेम बन जाती है। ऊर्जा नष्ट नहीं हो सकती, उसे कुछ न कुछ तो बनना पड़ता है। कोई भी ऊर्जा कभी नष्ट नहीं होती,
वह अपना रूप बदलकर केवल रूपांतरित हो जाती है।
मन लगभग तुम्हारी अस्सी प्रतिशत ऊर्जा ले
लेता है,
और वापस तुम्हें कोई भी चीज़ नहीं लौटाता; वह
तुम्हारी लगभग अस्सी प्रतिशत ऊर्जा अवशोषित किये चले जाता है। वह एक मरूस्थल के
समान है। नदी बहती चली जाती है और मरूस्थल उसे सोखता चला जाता है, और कुछ भी चीज़ें वापस नहीं लौटाता। मरूस्थल हरा-भरा भी नहीं होता,
वह घास तक उत्पन्न नहीं करता है, उसमें वृक्ष
भी न के बराबर उगते है, और न वहां कोई पानी का तालाब ही बनता
है। कुछ भी नहीं होता है। वह शुष्क और मृत बना रहता है, और
वह जीवन ऊर्जा सोखता चला जाता है। मन एक बहुत बड़ा शोषक है। मन के मरूस्थल में,
मन की बंजर भूमि में, जहां वह है—तुम खो जाते हों।
सरहा कहता है कि जब स्मृति विलुप्त हो जाती
है और तुम विस्मृति को उपलब्ध होते हां, तो अकस्मात
तुम्हारे पूरे गुण धर्म बदल जाते हैं। तुम अधिक प्रेमपूर्ण बन जाते हो। तुम्हारे
अंदर करूणा जन्मती है। वही ऊर्जा जो मरूस्थल में जा रही थी, अब
उपजाऊ भूमि हो जाती है। हृदय ही वह उपजाऊ भूमि है।
ठीक तभी एक पूर्ण और विशुद्ध भावनात्मक या
हृदय ऊर्जा उत्पन्न होती है,
जो अच्छे और बुरे के सांसारिक भेद से
अप्रदूषित होती है।
जैसे एक कमल का फूल उस कीचड़ से जिसमें वह
उगता है, अप्रभावित होता है।
और हृदय में वहां अच्छे और बुरे के मध्य कोई
भी भेद नहीं होता है। हृदय कोई भेदभाव नहीं जानता, सभी
भेदभाव मन से ही संबंधित होते हैं। हृदय बिना किसी भेद के पूरी तरह से प्रेम करता
है। हृदय पूर्ण रूप से बिना किसी श्रेणी भेद और बिना कोई निर्णय लिए बस प्रवाहित
होता है। हृदय बहुत निर्दोष होता है:
वह अच्छे और बुरे से अप्रदूषित होता है...
जैसे एक कमल का फूल उस कीचड़ से जिसमें वह
उगता है,
अप्रभावित होता है।
वह पुष्प मन की उसी समान ऊर्जा से,
वह विचारों, सोच से कामना और वासना की उसी
कीचड़ से उगता है—लेकिन वह कमल है। वह कीचड़ से उगता जरूर है,
पोषित होता है परंतु, परंतु कीचड़ से
अप्रदूषित बना रहता है।
...ठीक तभी एक पूर्ण और
विशुद्ध भावनात्मक या हृदय ऊर्जा उत्पन्न होती है,
जो अच्छे और बुरे के सांसारिक भेद से
अप्रदूषित होती है।
जैसे एक कमल का फूल उस कीचड़ से जिसमें वह
उगता है, अप्रभावित होता है।
जब नींद और स्वप्नों की काली चादर से मुक्त
होकर
तुम्हारा मन निश्चल अ-मन हो जाता है।
तब तुममें आत्म सचेतनता होगी,
जो विचारों के पार अ-मन होगी
और तुम अपने मूल स्त्रोत पर होगे।
इसलिए सरहा राजा से कहता है। वह उसे एक महान
पद्धति या विधि दे रहा है। वह कहता है‘इसे
सुनो, इस पर
ध्यान करो और इसका प्रयास करो।’
‘आप भली भांति जानते हो कि आपने लाखों
सपनों के सपने देखे हैं... लेकिन सपनों में आप बार-बार भूल जाते हो कि यह एक सपना
है, और फिर एक वास्तविकता बन जाता है। आज रात भी आप फिर सपना
देखने जा रहे है। यह किस तरह की मूर्च्छा है? प्रत्येक रात
आप सपना देखते हैं, और सुबह पाते है कि वह झूठा था। वह वहां
नहीं था, केवल छायाएं थी वहां, केवल
वहां कल्पना थी। आप फिर उसके शिकार हो जाते हो। आप पुन: स्वप्न देखते हो और पुन:
यह सोचते हो कि यह वास्तविकता है। आप क्यों नहीं देख सकते कि यह सपने में
अवास्तविक है? यह देखने से आपको क्या चीज रोक रही है?
इतने अधिक सपनों का इतना अधिक अनुभव और इतने अधिक निष्कर्ष और बिना
किसी अपवाद के सभी एक ही चीज़ सिद्ध कर रहे हैं, कि सपने
सत्य नहीं हैं। आज रात आप फिर उसको देखेंगे और उसके शिकार बन जायेंगें। वहां सपना
होगा और आप सोचोगे कि यह सत्य हैं। आप उन्हें यों जीओगे जैसे मानो की वे सब सत्य
थे।’
तंत्र ने एक विधि विकसित की है। वह विधि यह
है: जब तुम जागे हुए हो, सोचो कि यह संसार सपने जैसा
है। उदाहरण के लिए ठीक अभी तुम मुझे सुन रहे हो, इसे एक सपने
की भांति सोचो। ठीक अभी यह सोचना, जब तुम सपने में होते हो
उसकी उपेक्षा कहीं अधिक सरल है। कई बार तुम मुझे अपने सपनों में सुनोगे, लेकिन तब यह बहुत अधिक कठिन होगा, तुम गहरी नींद में
होगे। ठीक अभी यह सरलता से किया जा सकता है। ठीक अभी तुम सोच सकते हो कि तुम एक
सपना देख रहे हो। ओशो तुम्हारे सपने में हैं, वह सपने में ही
तुमसे बातें कर रहे है। ये वृक्ष स्वप्न वृक्ष हैं, ये गुलमोहर
के फूल सपनों में खिले फूल हैं, ये पक्षी तुम्हारे सपने में
गीत गा रहे चहक रहे है। सभी कुछ केवल सपनों का सम्मोहन हे। जब तुम जागे हुए हो,
इसे सोचो। इसे कम से कम दो तीन महीनों तक सोचना जारी रखो और तुम
आश्चर्य चकित हो जाओगे, और क्योंकि तुमने इसका अभ्यास किया
है, अचानक एक दिन तुम एक सपने के दौरान इसे सपने की ही भांति
पहचानोगे। और जब अभ्यास के द्वारा वास्तविक वृक्ष भी एक सपने जैसे दिखाई देते हैं
तो झूठे वृक्षों के बारे में क्या कहा जाये? वे अवास्तविक
दिखाई देंगे।
और तंत्र कहता है कि ये वृक्ष भी मूल रूप से
केवल सपने हैं, उनमें असली सामग्री नहीं है। वास्तविकता
से तंत्र का क्या अर्थ है? तंत्र का अर्थ है कि जो चीज़ हमेशा
बनी रहती है। जो चीज़ आती है और जाती है वह मिथ्या है। जो भी जन्मता है और मर जाता
है, वह मिथ्या है। तंत्र में अवास्तविक अथवा मिथ्या होने की
यही परिभाषा है: जो क्षणिक है, वहीं अवास्तविक है, और जो शाश्वत है, वहीं वास्तविक है।
कुछ दिनों पूर्व ये वृक्ष यहां नहीं थे,
और कुछ वर्षों बाद वे यहां नहीं रहेंगे। कुछ वर्षों पूर्व हम यहां
नहीं थे और कुछ वर्षों बाद हम यहां नहीं रहेंगे। इसलिए यह एक लम्बा सपना है। रात
में स्वप्न केवल एक, या दो अथवा छ: घंटों तक जारी रहता है,
और यह सपना हठ पूर्वक साठ या सत्तर वर्ष तक बना रहता है। लेकिन केवल
समय की अवधि से ही कुछ अधिक अंतर नहीं पड़ता। चाहे काई सपना एक घंटे का हो अथवा एक
सौ वर्ष का, उससे कुछ अधिक अंतर नहीं पड़ता। अंतर केवल अवधि
का है। लेकिन अंतिम रूप से दोनो ही विलुप्त होते हैं।
क्या तुम जानते हो कि इस पृथ्वी पर कितने
अधिक लोग रहे है? वे अब कहां हैं? यदि वे अस्तित्व में नहीं रहे होते, तो उससे क्या
अंतर पड़ता? वे अस्तित्व में रहे अथवा नहीं, इससे कोई अधिक अंतर नहीं पड़ता, वे सभी के सभी
विलुप्त हो गए। जो प्रकट होता है वह विलुप्त भी जरूर होगा। वह एक सपना है।
सराहा कहता है:
तब भी निश्चितता के साथ देखी जाने वाली सभी
चीज़ों का ऐसा होना अनिवार्य है,
जैसे मानो उन्हें एक जादू या सम्मोहन में
दखा था।
यह एक विधि दे रहे है सरहा। प्रत्येक चीज़
को यों देखो, जैसे मानो वह एक जादू का खेल या सम्मोहन
था, जैसे मानो एक जादूगर ने तुम्हें सम्मोहित कर दिया है।
सभी कुछ मिथ्या है और तुम सम्मोहन के द्वारा देख रहे हो।
यदि बिना किसी भेदभाव के तुम समसारा अथवा
निर्वाण को
स्वीकार अथवा अस्वीकार कर सकते हो,
जब तुम्हारा मन स्थिर हो जाता है.......
तब चाहे तुम उसे स्वीकार करो अथवा अस्वीकार
करो,
उससे अधिक अंतर नहीं पड़ता है। तब तुम संसार का परित्याग कर सकते हो
अथवा तुम संसार में रह सकते हो। यदि तुम इतना अधिक जानते हो—कि
यह सभी एक स्वप्न है, यदि तुम इस वातावरण में बने रहते हो कि
सभी कुछ एक स्वप्न है...
इसे सरहा राज से क्यों कह रहा है?
सरहा कह रहा है—‘श्रीमन्! आप महल में रहते हो,
मैं श्मशान में रहता हूं, आप सुंदर लोगों के
साथ रहते हैं, मैं सामान्य और कुरूप लोगों के साथ रहता हूं,
आप सुख समृद्धि में रहते है, मैं निर्धनता में
रहता हूं, आप राजधानी में रहते हैं और मैं रहते है और मैं
यहां श्मशान भूमि पर रहता हूं—लेकिन यह सभी समान है। वह महल
एक स्वप्न है और यह श्मशान भूमि भी एक स्वप्न है। आपकी सुंदर रानी एक सपना है और
मेरी तीरंदाज स्त्री भी एक सपना है। इसलिए अंतर कुछ नहीं है?’
यदि सपने में आप धनी बन जाते हैं अथक निर्धन
हो जाते हैं, क्या सुबह होने पर वहां कोई अंतर रहता
है? क्या सुबह आप बहुत प्रसन्नता का अनुभव करते हैं क्योंकि
सपने में आप बहुत धनी थे? जब आप जाग जाते हैं, तो इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता।
सरहा कहता है—‘श्रीमान!
मैं जागा हुआ हूं। मेरी तीसरी संचेतना घट चुकी है; मेरे लिए
सभी कुछ सपना है—पूर्ण रूप से एक सपना ही है। मेरे लिए सभी
कुछ स्वप्न है: स्वप्न के अंदर स्वप्न है। अब मैं कोई भी भेदभाव नहीं करता,
मैं भेदभाव के पार चला गया हूं। अ-मन उत्पन्न हो गया है। इसलिए चाहे
लोग मेरा सम्मान करें अथवा अपमान करें, चाहे वे सोचें कि
सरहा एक श्रेष्ठ ब्राह्मण, एक महान रहस्यदर्शी और एक महान
ज्ञानी है अथवा वे सोचो कि वह स-मार्ग से भटका हुआ है। सनकी है, पागल है या विक्षिप्त है—यह सभी कुछ पूरी तरह ठीक
है।’
यही सच्ची समझ है। तब किसी भी व्यक्ति की
राय तुम्हें विचलित नहीं कर सकती। न कुछ भी तुम्हारा ध्यान भंग कर सकता है...न
सफलता और न ही विफलता, न ही सम्मान और न ही
तिरस्कार, न जीवन और न मृत्यु। यह वही विचलित न करने वाली
स्थिति है। कोई अब अपने घर वापस आ गया है।
तब एक बार मन स्थिर हो जाता है: अंधकार की
काले पर्दे से स्वतंत्र हो जाता है,
तुम अपने को निश्चल और आत्मलीन हो जाओगे,
….
सरहा कहता है—‘मैं
अपने घर वापस आ गया हूं। मेरी आत्म सचेतनता उत्पन्न हो गई है, मैं अब अपने केंद्र पर हूं। केवल एक चीज़ के अतिरिक्त मैंने प्रत्येक चीज
खो दी है और वाह है मेरा आत्म स्वभाव और मेरी आत्म चेतना। अब मैं अपने मूल स्त्रोत
को जानता हूं, और मैं अपने सत्य को जानता हूं....जो विचारों
के पार और स्वयं अपने स्त्रोत पर है।’
अब मैं विचारों के पार चला गया हूं। यह
चीजें अब मुझे विचलित नहीं करती। अब श्रीमान! प्रत्येक चीज़ जैसी वह है,
ठीक है। एक सच्चे सन्यासी का यही दृष्टिकोण होता है कि जैसा वह है,
सभी कुछ पूर्ण से ठीक हे।
अब हम अंतिम सूत्र लेंगे:
यह संसार जैसा दिखाई देता है,
प्रारम्भ से ही वह वैसा रंग रूप में दीप्तिवान कभी नहीं रहा,
वह बिना किसी आकृति का है,
उसने रूप का परित्याग कर दिया है।
वह जैसा भी है,
वह सतत है, और एक अनूठा ध्यान है।
वह अ-मन है,
वह विचारों के धब्बों से रहित निर्विचार का ध्यान है,
और अ-मन है।
यह संसार जैसा दिखाई देता है प्रारम्भ से ही
वैसा ही रंगरूप में दीप्तिवान कभी नहीं रहा.....सरहा कहता है—‘यह संसार जिसे तुम देख रहे हो, वहां कभी नहीं रहा,
वह ऐसा केवल प्रतीत होता हैं, ठीक जैसे कि एक
स्वप्न कहीं नहीं से जनमता है और कहीं नहीं में विलुप्त हो जाता है।’
यह ऐसा दिखाई देने वाला संसार,
प्रारम्भ से ही कभी भी दीप्तिवान नहीं रहा—बिलकुल
प्रारम्भ ही में कुछ भी नहीं था—केवल शांत झील की एक लहर जैसा
था वह, और तब लहर विलुप्त हो गई। और तुम उस तरंग को पकड़
नहीं सकते, वह ठीक एक विचार तरंग की भांति है, केवल एक कम्पन के समान।
.... वह बिना किसी आकृति का
है, उसने रूप का परित्याग कर दिया है।
उसमें वहां कोई स्वरूप नहीं है। वह ठोस नहीं
है...फिर उसके पास कोई स्वरूप भी कैसे हो सकता है? वह
वास्तव में तरल है। वह प्रामाणिक रूप से एक द्रव्य है और उसके पास काई स्वरूप नहीं
है। काई भी नहीं जानता है कि क्या अच्छा है और क्या बुरा है। कोई भी नहीं जानता है
कि कौन संत है और कौन पापी है। कोई भी नहीं जानता है कि क्या सदाचार है और क्या
अपराध है। वह बिना किसी स्वरूप का है।
तंत्र की समझ सत्य के प्रामाणिक केंद्र तक पहुँचने
की है: वह अरूप है। वह एक सृजनात्मक शून्यता है। अंतिम रूप से,
न तो कुछ भी चीज तिरस्कृत है और न कुछ भी चीज प्रशंसा करने की है।
.... वह अरूप है, उसके पास कोई भी आकृतियां अथवा रूप नहीं हैं।
वह जैसा है, वह
सतत है और एक अनूठा ध्यान है।
.... वह अ-मन है।
उसमें अपने मन को मत लगाओ। केवल उसको सुनो,
उसे देखो और उसका स्पर्श करो। उसके अंदर अपने मन को मत लाओ.....वह
अ-मन है, वह न विचार ध्यान है। उस पर ध्यान करो। लेकिन विचारों
के द्वारा नहीं—केवल स्वच्छता और निर्मलता के द्वारा।
निरीक्षण करते और देखते हुए बने रहो—विश्लेषण के द्वारा नहीं,
खामोशी से नहीं, प्रेम के द्वारा संबंध जोड़ो।
संबंध जोड़ो—कोयल की इस कुहुक से, संबंध
जोड़ो, वृक्षों से, सूरज से, सरिता से, लेकिन उनके बारे में सोचो मत। एक विचारक
मत बनो....और अ-मन को प्राप्त करो।
इसलिए, पहले
संसार को एक स्वप्न की भांति सोचो, और तब सपने देखने वाले को
भी एक सपने की ही भांति सोचो। पहले सपना एक विषय है तब सपना एक व्यक्ति है। जब
व्यक्ति और विषय दोनों छोड़ दिए जाते हैं, जब स्वप्न और स्वप्न
देखने वाला विलुप्त हो जाता है, तब वहां अ-मन होता है।
यह अ-मन ही सभी का वास्तविक स्त्रोत है।
यही है वह बात,जो उद्दालक अपने पुत्र से कह रहे थे। वह कह रहे थे—‘क्या
तूने उस एक को जाना है, जिसे जानने से सभी कुछ जान लिया जाता
है, और जिसे भूल जाने से सभी कुछ विस्मरण हो जाता है?
क्या तूने उस एक को देखा है? क्या तू उसे एक
तक पहुंचा है?’
और पुत्र परेशान हो गया और उसने कहा—‘मैंने सभी कुछ जाना है; लेकिन आप किसी चीज़ के बारे
में बात कर रहे हैं?मेरे सद्गुरू ने इस एक के बारे में कभी
कोई भी बातचीत नहीं की।’
इसलिए उद्दालक ने कहा—‘तुम वापस लौट जाओ, क्योंकि वह सभी कुछ जो तुम अपने
साथ लाए हो वह व्यर्थ का कूड़ा-कर्कट है। वापस लौट जाओ। मेरे परिवार में हम हमेशा
सच्चे ब्राह्मण बनकर रहे हैं।’
सच्चे ब्राह्मण होने से उनका अर्थ था: हमने
ब्रह्म को जाना है, हमने सत्य को जाना है,
हम केवल जन्म से ही ब्राह्मण नहीं हैं।
‘वापस लौट जाओ। तुरंत वापस जाओ।’
उसके स्वागत का कार्यक्रम रोक दिया गया,
संगीत बंद हो गया उद्दालक ने आंसू बहाते हुए पुत्र को वापस लौटा
दिया। वह सद्गुरू के गृह से अनेक वर्षों बाद वापस आया था और एक दिन भी विश्राम
किये बिना उसे लौटाया जा रहा है।
बहुत अधिक अव्यवस्थित और परेशान होकर वह
युवा सद्गुरू के पास वापस आया, और उसने अपने गुरु से
कहा—‘आपने मुझे उस एक को क्यों नहीं सिखाया, जिसके बारे में पिता मुझसे पूंछ रहे थे। आखिर क्यों?ये
सभी वर्ष व्यर्थ नष्ट हो गए और मेरे पिता सोचते हैं कि सभी कुछ ज्ञान व्यर्थ है
क्योंकि मैं स्वयं को नहीं जानता हूं। मेरे पिता कहते हैं—‘यदि
तुम स्वयं को ही नहीं जानते तो इस सारे ज्ञान का मूल्य क्या है?तुम्हारे वेदों के ज्ञान को लेकर हम क्या करें? तुम
वेदों का पाठ करते हुए उनकी व्याख्या कर सकते हो, लेकिन उसको
साथ लेकर हम क्या करें? और मेरे पिता कहते है—‘मेरे परिवार में सदा से सच्चे ब्राह्मण बनकर रहे हैं, इसलिए वापस जाओ और इससे पहले कि मेरी मृत्यु हो, एक
सच्चे ब्राह्मण बनो। और जब तक तुम एक सच्चे ब्राह्मण न बन जाओ वापस मत लौटना।’
इसलिए आदरणीय श्रीमान! कृपया मुझे उस एक का ज्ञान दीजिए।
सद्गुरू हंसे। उन्होंने कहा—‘उस एक को सिखाया नहीं जा सकता है। हां उसे जाना या समझा जा सकता है। लेकिन
उसकी शिक्षा नहीं दी जा सकती है। इसी कारण मैंने उसे नहीं सिखाया था। लेकिन यदि
तुम आग्रह कर रहे हो, तब एक स्थिति सृजित की जा सकती हैं।’
सभी सद्गुरू ऐसा ही करते हैं;
वे केवल एक स्थिति सृजित करते है।
यह कम्यून भी सृजित किया गया एक स्थान है।
मैं तुम्हें सब नहीं सिखला सकता; लेकिन मैं एक ऐसी दशा
अथवा स्थिति सृजित कर सकता हूं, जिसमें तुम उसकी झलकें पाना
प्रारम्भ कर सकते हो।
मेरा यहां होना ही एक स्थिति है,
मेरा निरंतर तुमसे बातचीत करना ही एक दशा है। ऐसा नहीं कि मैं
बातचीत के द्वारा सत्य सिखा सकता हूं, लेकिन यह केवल एक
स्थिति है जिसमें कभी-कभी एक कम्पन तुम्हारे अंदर चली जाती है। जिसकी तरंग को तुम
कभी-कभी पकड़ कर सुरक्षित रख लेते हो, और वह तुम्हें
रोमांचित करती है और तुम्हें बहुत दूर की अंतर यात्रा पर ले जाती है।
इसलिए सद्गुरू ने कहा—‘मैं एक स्थिति सृजित कर सकता हूं। और वह स्थिति यह है कि तुम आश्रम की सभी
गायों को इकट्ठा करो और उन्हें गहनतम जंगल में ले जाओ। वहां चार सौ गायें थी।
उन्हें जितनी अधिक दूर तक जंगल में ले जाना संभव हो सके, जिससे
अन्य मनुष्य जाति से दूर तुम पूर्ण रूप से दुर्गम स्थान पर रहो। केवल तभी वहां से
वापस लौटना जब गायों और सांडों का झुंड बढ़कर एक हजार हो जाये। इसमें कई वर्ष
लगेंगे लेकिन तुम जाओ। और स्मरण रखना किसी भी मनुष्य नाम के प्राणी को देखना भी
नहीं। गायें ही तुम्हारी मित्र और वे ही तुम्हारा परिवार होंगी। यदि तुम चाहो तो
उनके साथ बातचीत कर सकते हो। उनकी आंखों में झांक सकते हो। उन्हें प्रेम कर सकते
हो।’
और श्वेतकेतु सबसे अधिक गहनतम बन में चला
गया,
जहां किसी भी मनुष्य ने कभी प्रवेश तक नहीं किया था और अपनी गायों
के साथ वह कई वर्षों तक वहीं पर रहा।
पूरी कहानी अत्यधिक सुंदर है। स्वाभाविक है,
कि तुम गायों के साथ किसके बारे में बातचीत कर सकते हो?प्रारम्भ में अनिवार्य रूप से उसने ऐसा करने का प्रयास किया और धीमे-धीमे
सोचा कि वह अर्थ हीन था। गायें सामान्य रूप से तुम्हारी और देखती हैं और उनकी
आंखों में एक खालीपन या शून्यता बनी रहती है। वहां कोई भी संवाद नहीं है। हां,
शुरू-शुरू में केवल आदत और अभ्यास वश वह वेदों के मंत्रों का पाठ
करता और गायें अपनी घास का चरना जारी रखती। वे वेदों के पाठ में जरा भी दिलचस्पी
नहीं लेती और उसके महान ज्ञानी होने की प्रशंसा भी नहीं करती। वह निश्चित रूप से
उनसे ज्योतिष और सितारों के बारे में बात करता, लेकिन गायें
उनमें जरा भी रूचि नहीं लेती। गायों जैसा श्रोताओं के साथ तुम और कर ही क्या सकते
हो?धीमे-धीमे उसने उनसे बातें करना बंद कर दिया। धीमे-धीमे
उसने भूल जाना शुरू कर दिया धीमे-धीमे सीखे का अनसीखा होने का बहुत बड़ा कार्य
होना प्रारम्भ हुआ।
वर्षों गुज़र गए। और कहानी कहती है कि एक
क्षण वह आया जब गायों की संख्या एक हजार हो गई। उस समय तक श्वेतकेतु वापस लौटने के
बारे में पूरी तरह से भूल ही गया था। वह वास्तव में यह भी भूल गया था कि उनकी
गिनती कैसे की जाये—अनेक वर्षों से वह उनकी
संख्या की गिनती ही नहीं कर रहा था।
लौटने का समय आ गया था,
गायें बहुत परेशान हो गई। तब एक गाए ने साहस करके उससे कहा—‘सुनो! अब हम एक हजार हो गई हैं। यहीं लौटने का समय है। सद्गुरू प्रतीक्षा
कर रहे होंगे। यही समय है जब हमें आश्रम वास चलना चाहिए।’
इसलिए जब गायों ने कहा कि समय पूरा हो गया
है तो श्वेतकेतु उनका अनुसरण करता हुआ चल पड़ा।
जब वह उन एक हज़ार गायों के साथ सद्गुरू के
घर पर आया तो सद्गुरू उसका स्वागत करने बाहर आया और अन्य दूसरे शिष्यों से कहा—‘इन एक हज़ार गऊओं को देखो।’
लेकिन शिष्यों ने कहा—‘इस जगह केवल एक हजार गायें हैं, और एक श्वेतकेतु है।’
सद्गुरू ने कहा—‘नहीं ये सच नहीं है, तुम उसे जरा ध्यान से देखों। वह
मिट चूका है। अब वहां कोई श्वेतकेतु नहीं है। वह एक गाय के समान निर्दोष हो गया
है। जरा उसकी आंखों में झांक कर तो देखो। यहां एक हजार नहीं एक हजार एक गायें खडी
है।’
यहीं है अ-मन की स्थिति,
तब मन नहीं रहता तो मनुष्य मिट जाता है। और पूरब में यही लक्ष्य हुआ
करता था—एक ऐसी स्थिति जब तुम नहीं होते हो और वास्तव में
तुम पहली बार ही होते हो।
यह मृत्यु की स्थित और यह जीवन की स्थिति,
यह अहंकार के विलुप्त होने की स्थिति, मिथ्या
के विलुप्त होने और प्रामाणिक सत्य के प्रकट होने की स्थिति ही वह स्थिति है जिसे
हम ‘उपलब्धि’ कहते हैं। परमात्मा को उपलब्ध
होना, आत्मोपलब्धि। इस स्थिति को सरहा स्वयं अपने स्वभाव को
उपलब्ध होना कहता है, जो विचारों और मन के पार की स्थिति है।
तंत्र का अर्थ है—विस्तार! यह स्थिति है जब तुम सबसे अधिक विस्तृत होते फैलते हो। तुम्हारी
सीमाएं और अस्तित्व की सीमाएं फिर और पृथक नहीं होती, वे
समान होती हैं। इसके कम होने पर वे संतुष्ट नहीं होंगी।
जब तुम सर्वव्यापी या सार्वभौमिक बन जाते हो,
तुम अपने घर आ जाते हो।
जब तुम समस्त बन जाते हो,
जब तुम सम्पूर्ण के साथ एक हो जाते हो, जब तुम
इस विश्व जैसे ही विराट हो जाते हो, जब तुम समस्त को धारण
करते हो, जब सितारे तुम्हारे ही अंदर परिभ्रमण करने लगते हैं,
और तुम्हारे अंदर ही संसार जन्म लेते हैं और विलुप्त हो जाते हैं।
जब तुम्हारे पास यह ब्रह्मांडीय विस्तार है, तभी कार्य पूरा
होता है।
तुम अपने शाश्वत घर में आ गए हो। यही है
तंत्र का लक्ष्य, और यहीं है उसकी पूर्णता।
जिस पूर्णता की बात सरहा कर रहे है राजा से।
आज बस इतना ही पर्याप्त है।
thank you guruji
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