तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)
प्रवचन-सातवां-(बुद्धिमत्ता ही ध्यान है )
दिनांक 07 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।
सरहा के सूत्र-
मन,
बुद्धि और मन के ढांचें की सभी अंर्तवस्तुएं,
इसी तरह यह संसार भी,
और वह सभी कुछ जैसा प्रतीत होता है,
वे सभी वस्तुएं जिनका मन के द्वारा
अनुभव किया जा सकता है,
और वह जानने वाला भी,
जड़ता, द्वेष, घृणा,
कामना और बुद्धत्व भी,
जो ‘वह’ है, उससे भिन्न है।
अध्यात्म के अनजाने अंधकार में जा एक
दीपक के समान प्रकाशित है,
वह मन के सारे अंधकार और धूमिलता को
दूर करता है।
बुद्धि का एक बम्ब की भांति विस्फोट
होने से जितनी टुकड़े,
इधर-उधर बिखर जाते हैं,
उनसे क्या प्राप्त होता है?
स्वयं कामना विहीन के होने की कौन
कल्पना कर सकता है?
वहां कुछ भी न तो तिरस्कार करने जैसा
है
और न कुछ भी स्वीकार करने अथवा पकड़ने
जैसा है
और उसके लिए कभी सोचा भी नहीं जा सकता
बेड़ियां या श्रृंखलाएं मन का ही भ्रम
हैं,
और बुद्धि का विस्फोट होने से मन
खण्ड-खण्ड हो जाता है।
और वह अविभाजित विशुद्ध स्वच्छन्द बना रहता है।
यदि तुम किसी बात को सत्य की भांति
स्वीकार करने के साथ
अनेक और एक के तथा अंतिम सत्य के बारे
में प्रश्न करते हो
तो उस ऐक्य को नहीं सौंपा जा सकता,
और बटोरे गये ज्ञान का अतिक्रमण करने
से,
संवेदनशील प्राणी मुक्त होते हैं।
जो ध्यान करने में दिखाई देती है,
और अटल विशुद्ध चित ही
हमारी सच्ची और सहज प्रवृति है।
तंत्र की अंतर्दृष्टि परमात्मा की और,
सत्य की और अथवा जो कुछ भी है उसे प्रत्यक्ष रूप से पहुंचने की है।
उसके पास न मध्यस्थ हैं, न मध्य में कोई अन्य व्यक्ति है,
और न उसके पास कोई पंडित या पुरोहित हैं। तंत्र कहता है कि जिस क्षण
पुरोहित प्रवेश करता है, धर्म भ्रष्ट हो जाता है। वह शैतान
नहीं है जो धर्म को भ्रष्ट कर देता है, वह पुजारी और पुरोहित
ही हैं, जो उसे भ्रष्ट कर देते हैं। पुजारी पुरोहित शैतान की
सेवा करते हैं।
परमात्मा अथवा सत्य तक केवल सीधे ही पहुंचा
जा सकता हैं। वहां कोई भी माध्यम नहीं है। तुम किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा नहीं
जा सकते,
क्योंकि परमात्मा तुरंत अभी और यहीं है, वह
पहले से ही तुम्हें चारों और से घेरे हुए है। तुम्हारे अंदर और बाहर केवल परमात्मा
ही है।
परमात्मा को खोजने के लिए इस जगह किसी
व्यक्ति की सहायता लेने की कोई भी जरूरत नहीं है। तुम पहले ही से उसमें हो,
तुम कभी भी उससे दूर नहीं हुए हो। यदि तुम चाहो भी, तो भी तुम उससे दूर नहीं जा सकते। यदि तुम सभी प्रयास करो, तो भी उससे दूर जाना असम्भव है। इस जगह जाने को अन्य कोई स्थान है ही नहीं
और न इस जगह अन्य कुछ भी होने को है।
सामान्य अर्थ में तंत्र एक धर्म नहीं है,
क्योंकि न तो उसके पास कोई धार्मिक क्रिया कांड है---और न कोई पंडित
या पुरोहित ही, और न उसके पास धर्म शास्त्र ही है। सत्य की
और यह एक वैयक्तिक मार्ग है। यह अत्यधिक विद्रोही है। इसकी आस्था न किसी संस्था
में है, इसकी आस्था न किसी समुदाय में है और इसकी आस्था न
किसी व्यक्ति में है। तंत्र तुममें विश्वास करता है।
मैंने सुना है.....
बिलीग्राह्म की पुनजीवन देने वाली सभा में
ऐसा हुआ कि एक व्यक्ति दान में मिला धन एकत्रित कर रहा था। और तब उसने धन प्राप्त
करने के साथ उसे फाड़ना और फेंकना शुरू कर दिया। दो पुलिस वालों ने उसे ऐसा करते
हुए तुरंत पकड़ लिया और उसे बिलीग्राह्म के पास ले गये। स्वाभाविक रूप से
बिलीग्राह्म बहुत नाराज़ हुआ और उस व्यक्ति से कहा—‘यह
धन परमात्मा का है और तुम क्या करने का प्रयास कर रह थे? क्या
तुम परमात्मा को धोखा देने का प्रयास कर रहे हो?’
उस व्यक्ति ने उत्तर दिया—‘श्रीमान’ मैंने परमात्मा के निकट बने रहने के प्रयास
से धन एकत्रित किया है—’निश्चित रूप से मध्यस्थता करने वाले
व्यक्ति को अलग कर देने के लिए।’
मध्यस्थता करने वाले व्यक्ति की बिलकुल भी
जरूरत नहीं है। एक सच्चा सद्गुरू कभी भी मध्यस्थ बनने का प्रयास ही नहीं करता है।
वह होता ही नहीं है, वह परमात्मा तक पहुंचने में
तुम्हारे कोई भी सहायता नहीं करता है, वह तुम्हें केवल उसे
प्रति सचेत बनाने में तुम्हारी सहायता करता है, जो पहले से
ही वहां है। वह तुम्हारे और परमात्मा के मध्य एक सेतु नहीं है, वह केवल तुम्हारी अचेतनता और सचेतनता के मध्य एक पुल है। जिस क्षण तुम
सचेत होते हो, तुम किसी व्यक्ति के अपने और उसके मध्य खड़े
होने के बिना ही तुरंत ही सीधे उससे जुड़ जाते हो।
यह तंत्र की अंतर्दृष्टि,
महानतम अंतर्दृष्टि में से एक है। जिसका एक मनुष्य के द्वारा किसी
भी समय स्वप्न देख गया: एक ऐसा धर्म जो बिना किसी पंडित पुरोहित के है, जो बिना किन्हीं पूजागृहों के है, एक ऐसा धर्म जो
किसी संगठन अथवा संस्थाओं के है। एक ऐसा धर्म जो वैयक्तिकता को नष्ट नहीं करता,
बल्कि वैयक्तिकता का अत्यधिक सम्मान करता है और एक ऐसा धर्म जो
सामान्य पुरूष और स्त्री में आस्था रखता है। और यह आस्था बहुत गहराई तक जाती है।
तंत्र तुम्हारे शरीर में आस्था करता है। जब कि अन्य कोई भी धर्म तुम्हारे शरीर में
आस्था नहीं रखता है। और जब धर्म तुम्हारे शरीर में आस्था नहीं रखते हैं, और जब धर्मों की आस्था तुम्हारे शरीर में नहीं होती है, तो वे तुममें और तुम्हारे शरीर के मध्य में एक विभाजन उत्पन्न करते हैं।
वे तुम्हें शरीर का शत्रु बना देते हैं और वे तुम्हारे शरीर की प्रज्ञा को नष्ट
करना शुरू कर देते हैं।
तंत्र तुम्हारे शरीर में विश्वास करता है।
तंत्र तुम्हारी इन्द्रियों में विश्वास रखता है। तंत्र तुम्हारी ऊर्जा में विश्वास
करता हैं। तंत्र तुम्हारे ऊपर पूर्ण विश्वास करता है। तंत्र किसी भी चीज़ से इनकार
नहीं करता, वह प्रत्येक चीज़ को रूपांतरित कर देता
है।
इस तंत्र की अंतर्दृष्टि को कैसे प्राप्त
किया जाये?यह तुम्हें मोड़ने का मानचित्र है और यह
तुम्हें अपने अंदर मुड़ने का और उस पार का सम्पूर्ण मानचित्र है।
पहली चीज़ है शरीर। शरीर ही तुम्हारा आधार
और तुम्हारी भूमि है, यह वह स्थान है जहां तुम
भूमि में जड़ें जमाये हो। तुम्हारे शरीर के प्रति विरोधी बनाना तुम्हें नष्ट करना
है, तुम्हें मानसिक रूप से रूग्ण बनाना है, और तुम्हें दुःखी बनाकर नर्क का सृजन करना है। तुम शरीर हो निश्चित रूप से
तुम शरीर से कहीं अधिक हो, लेकिन यह ‘कहीं
अधिक’ बाद में अनुसरण करेगा। पहले तुम शरीर हो, शरीर ही तुम्हारा मौलिक सत्य है, इसलिए कभी भी शरीर
के विरोध में मत रहो। जब कभी भी तुम शरीर के विरूद्ध होते हो, तुम परमात्मा के विरूद्ध जा रहे हो। जब कभी भी तुम अपने शरीर के प्रति
अनादर पूर्ण होते हो, तुम सत्य के साथ संबंध खो रहे हो,
क्योंकि तुम्हारा शरीर ही सम्पर्क करने का साधन है, और तुम्हारा शरीर ही एक सेतु है। तुम्हारा शरीर ही तुम्हारा मंदिर है।
तंत्र शरीर के लिए श्रद्धा करना सिखाता है,
वह शरीर के लिए प्रेम और सम्मान करना और वह शरीर के लिए कृतज्ञ होना
सिखाता है। यह शरीर अद्भुत है, यह एक महानतम रहस्य है।
लेकिन तुम्हें शरीर का विरोधी होना सिखाया
गया है। इसलिए कभी-कभी तुम वृक्ष के द्वारा, वृक्ष के
हरे होने के द्वारा रहस्य में डूब सकते हो, कभी-कभी तुम चाँद
और सूरज के द्वारा रहस्य से भर सकते हो। कभी-कभी तुम एक फूल के द्वारा आश्चर्यचकित
रह जाते हो—लेकिन कभी भी अपने शरीर के द्वारा तुम
आश्चर्यचकित नहीं होते हो। और इस अस्तित्व में शरीर ही सबसे अधिक जटिल घटना है। किसी
भी फूल और किसी भी वृक्ष के पास इतना सुंदर शरीर नहीं है, जैसा
कि तुम्हारे पास है। न ही किसी चाँद व किसी सूरज और न किसी सितारे के पास ऐसा
विकसित यांत्रिकत्व है, जैसा कि तुम्हारे पास है।
तुम्हें फूल की प्रशंसा करना सिखाया गया है,
जो एक साधारण चीज़ है। तुम्हें एक वृक्ष की प्रशंसा करना सिखाया गया
है, जो एक सामान्य बात है। तुम्हें पत्थरों, चट्टानों, पर्वतों और नदियों की प्रशंसा करना सिखाया
गया है। लेकिन तुम्हें कभी भी स्वयं अपने शरीर का सम्मान करना और उसके द्वारा कभी
भी विस्मय-विमूढ़ होना नहीं सिखाया गया है। हां, यह बहुत
अधिक निकट है, इसलिए इस बारे में भूल जाना बहुत आसान है। यह
बहुत अधिक स्पष्ट है, इसलिए इसकी उपेक्षा करना बहुत सरल है,
लेकिन यह सबसे अधिक सुंदर घटना है।
यदि तुम एक फूल की और देखते हो,
लोग करेंगे—‘कितना अधिक सौंदर्य बोध है?’
और यदि तुम एक स्त्री के सुंदर चेहरे की और अथवा एक पुरूष के सुंदर
चेहरे की और देखते हो, तो लोग करेंगे—‘यह
वासना है।’ यदि तुम एक वृक्ष के निकट जाते हो और वहां खड़े
हो जाते हो अथवा तुम एक फूल की और विस्मय विमुग्ध होकर देखते हो—तुम्हारी आंखें खुली की खुली रह जाती हैं और तुम्हारी इन्द्रियां फूल के
सौंदर्य को अपने अंदर प्रवेश देने की अनुमति देते हुए खुल कर विस्तीर्ण हो जाती
हैं—तो लोग सोचेंगे कि तुम एक कवि अथवा एक चित्रकार हो। अथवा
एक रहस्यदर्शी तो जरूर ही होगे। लेकिन यदि तुम एक स्त्री अथवा एक पुरूष के पास
जाकर खड़े हो जाते हों और एक स्त्री को महान सम्मान और श्रद्धा की दृष्टि से देखते
हो और तुम्हारी आंखें और इन्द्रियां उस स्त्री के सौंदर्य को पीते हुए फैल कर खुली
की खुली रह जाती है, तो पुलिस तुम्हें पकड़ लेगी। कोई भी
व्यक्ति यह नहीं कहेगा कि तुम एक कवि या रहस्यदर्शी हो, और
जो कुछ भी तुम कर रहे हो, उसकी कोई भी प्रशंसा नहीं करेगा।
कहीं कुछ चीज गलत हो गई है। यदि तुम सड़क पर
जा रहे किसी अजनबी व्यक्ति से यह कहो—‘तुम्हारी
आंखें कितनी अधिक सुंदर हैं?’ तो तुम लज्जित होने का अनुभव
करोगे और वह भी शर्मिन्दगी का अनुभव करेगा। वह तुम्हें धन्यवाद देने में समर्थ न
होगा। वास्तव में वह क्रोधित होने का अनुभव करेगा। वह क्रोधित होने का इसलिए अनुभव
करेगा क्योंकि तुम उसके निजी जीवन में हस्तक्षेप करने वाले होते कौन हो? तुम ऐसा साहस करने वाले कौन होते हो? यदि तुम जाकर
वृक्ष का स्पर्श करते हो, तो वृक्ष प्रसन्नता का अनुभव करेगा।
लेकिन यदि तुम एक व्यक्ति को छूते हो तो वह क्रोधित होगा। क्या चीज़ गलत हो गई है?बहुत गहराई तक कुछ चीज अत्यधिक हानिकारक बन गई है।
तंत्र तुम्हें शरीर के प्रति सम्मान का पुन:
दावा करना और शरीर के प्रति प्रेम करना सिखाता है। तंत्र तुम्हें सिखाता है कि तुम
शरीर को परमात्मा की महानतम सृष्टि की भांति देखो। तंत्र शरीर का धर्म है। निश्चित
रूप से वह और अधिक उच्चता तक जाता है, लेकिन वह
कभी भी शरीर को नहीं छोड़ता वह वहां उसकी जड़ों में बना रहता है। वह ही केवल एक
ऐसा धर्म है जिसकी जड़ें वास्तव में भूमि में जमी रहती है। दूसरे धर्म जड़ों से
उखड़े वृक्षों की भांति मुर्दा, मंद और मरे हुए जैसे हैं,
जिनमें कोई भी रस प्रवाहित नहीं होता है। तंत्र वास्तव में रसपूर्ण
और बहुत जीवंत है।
जो पहली चीज़ सीखना है वह है कि शरीर के
बारे में जो सभी मूर्खतापूर्ण और व्यर्थ की बातें सिखाई गई हैं,
उन्हें अनसीखा करना और शरीर के प्रति सम्मान करना सीखना। अन्यथा तुम
कभी किसी व्यक्ति के प्रति कामोतेजना का अनुभव नहीं करोगे तुम कभी अपने अंदर की और
नहीं मुडोगे और तुम कभी भी अतिक्रमण की और प्रवृति नहीं होगे।
शुरू से ही प्रारम्भ करो। शरीर ही तुम्हारा
प्रारम्भ है। शरीर को अनेक दमित भावों से शुद्ध करना है। शरीर के लिए बहुत अधिक
रेचन करने की आवश्यकता है। यी शरीर विषैला बन गया है क्योंकि तुम उसके विरूद्ध बने
रहे हो और तुमने कई तरह से दमन किया है। तुम्हारा शरीर न्यूनतम पर जीवित है और इसी
कारण तुम दुःखी हो।
तंत्र कहता है कि परमानंद केवल तभी संभव है,
जब तुम सर्वोतम पर जियो, कभी भी उससे कम पर
नहीं। परमानंद केवल तभी संभव है, जब तुम सघनता से जियो। यदि
तुम शरीर के विरूद्ध हो तो तुम सघनता से कैसे जी सकते हो?तुम्हारी
अग्नि ठंडी हो चुकी है, तुम हमेशा कुनकुने रहते हो1 बीती हुई सदियों से वह आग नष्ट हो चुकी है। अग्नि को फिर से जलाना है।
तंत्र कहता है कि पहले शरीर को शुद्ध करो,
सभी तरह के दमन से शुद्ध करो। शरीर के अवरोधो को हटाओ और शरीर की
ऊर्जा को प्रवाहित होने की अनुमति दो। ऐसे व्यक्ति से होकर गुजरना बहुत कठिन है,
जिसके पास अवरोध न हों, एक ऐसा वे व्यक्ति से
होकर गुज़रना बहुत कठिन है जिसका शरीर तनाव से न जकड़ा हो। इस तनाव को शिथिल करना
है, यह तनाव तुम्हारी ऊर्जा को अवरूद्ध कर रहा है और इस तनाव
के साथ ऊर्जा का प्रवाहित होना संभव नहीं हो सकता। प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी
चीज़ के बारे में इतना अधिक नाराज़ क्यों है। तुम शिथिल और विश्राममय क्यों नहीं
हो सकते? क्या तुमने किसी बिल्ली को सोते हुए देखा है क्या
उसे कभी दोपहर के बाद झपकी लेते हुए देखा है। कितने सामान्य रूप से और कितनी अधिक
सुंदरता से बिल्ली विश्राम करती है। क्या तुम इसी तरह से विश्राम नहीं कर सकते?
तुम अपने बिस्तरे पर करवटें बदलते रहते हो, तुम
विश्राममय नहीं हो सकते। और बिल्ली के विश्राम करने में सौंदर्य यह है कि जब वह
पूर्ण रूप से विश्राम करती है तो भी पूर्ण रूप से सजग बनी रहती है। कमरे में थोड़ी
सी भी हलचल हो वह अपनी आंखें खोल लेगी और कूद कर भागने को तैयार रहेगी। ऐसा नहीं
है कि वह केवल नींद में गाफिल हे जो। बिल्ली की नींद से कुछ चीज सीखने जैसी है,
जैसे मनुष्य भूल गया है।
तंत्र कहता है कि बिल्लियों से सीखो कि वे
किस तरह से सोती और विश्राम करती हैं और वे कैसे तनाव मुक्त तरीके से जीती हैं। और
पूरा पशु संसार तनाव मुक्त तरीके से जीता है। मनुष्य को यह इसलिए सीखना है क्योंकि
वह गलत आदतों के ढांचे में ढल गया है। उसने गलत कार्य सूची निर्धारित कर ली है।
बचपन के प्रारम्भ ही से तुमने बहुत तनाव
कार्य-सूची निर्धारक कर ली है। भय के कारण तुम सांस भी ले पाते हो। कामवासना जागृत
होने के भय से लोग पूरी श्वास नहीं लेते है, क्योंकि
जब तुम गहरी श्वास लेते हो तो तुम्हारी श्वास ठीक काम केंद्र पर जाकर चोट करती है।
अंदर से वह उसे सहलाती और उत्तेजित करती है। क्योंकि तुम्हें यह सिखाया गया है कि
सेक्स एक खतरनाक चीज़ है, इसलिए प्रत्येक बच्चा उथली श्वास
लेना शुरू कर देता है, जो केवल छाती तक जाकर लोट जाती है। वह
उसके पार कभी भी नहीं जाता, क्योंकि यदि वह उसके पार जाता है,
तो अचानक वहां उत्तेजना हाथी है, काम
इन्द्रिया जाग जाती है और भय उत्पन्न होता है। जिस क्षण तुम गहरी श्वास लेते हो
सेक्स ऊर्जा मुक्त हो जाती है। सेक्स ऊर्जा को मुक्त होना ही है। उसे तुम्हारे
पूरे अस्तित्व में प्रवाहित होना है। तब तुम्हारा शरीर उत्तेजना पूर्ण बनेगा।
लेकिन गहरी श्वास लेने सक भयभीत होना, इतना अधिक भयभीत होना कि
लगभग तुम्हारे आधे फेफड़े कार्बनडाइआक्साईड से भरे होते है।
वहां फेफड़ो में कई हजार छिद्र होते हैं और
सामान्यता उनमें पचास प्रतिशत कभी साफ ही नहीं हुए होते है। और वे हमेशा
कार्बनडाईआक्साईड से भरे होते है। इसी कारण तुम सुस्त रहते हो,
इसी कारण तुम सजग नहीं दिखाई देते और इसी कारण होशपूर्ण होना कठिन
होता है। यह कोई संयोग नहीं है कि, योग और तंत्र दोनों ही
तुम्हारे फेफड़ों की कार्बडाईआक्साईड तुम्हारे लिए ठीक नहीं है, और उसे निरंतर बाहर फेंकना होता हैं। तुम्हें ताजी और खुली हवा में श्वास
लेना हैं और तुम्हारे श्वास में ऑक्सिजन अधिक मात्रा में लेना है। ऑक्सिजन ही तुम्हारी
अंतराग्नि को उत्पन्न और प्रदीप्त करेगी। लेकिन ऑक्सिजन तुम्हारी कामवासना को भी
प्रदीप्त करेगी। इसलिए केवल तंत्र ही तुम्हें असली गहरी श्वास की अनुमति दे सकता
है। योग तुम्हें वास्तविक गहरी श्वास की अनुमति नहीं दे सकता। योग तुम्हें नीचे
नाभि तक जाने की अनुमति देता है, वह तुम्हें हारा-चक्र और
स्वाधिष्ठान चक्र से होकर गुजरने और उसके पार जाने की अनुमति नहीं देता, क्योंकि एक बार तुम स्वाधिष्ठान चक्र से गुजर जाते हो तो मूसलाधार चक्र पर
छलांग लगा जाते हो।
केवल तंत्र ही तुम्हें पूर्ण रूप से होने और
समग्रता से प्रवाहित होने की अनुमति देता है। तंत्र तुम्हें बेशर्त स्वतंत्रता
देता है। तुम जो कुछ भी हो, और तुम जो कुछ भी हो सकते
हो, तंत्र तुम्हें किन्हीं सीमाओं में नहीं बाँधता है। वह
तुम्हें सीमाबद्ध नहीं करता है, वह सामान्य रूप से तुम्हें
पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करता है। उसकी समझ यही है कि जब तुम पूर्ण रूप से
स्वतंत्र होते हो, तब बहुत कुछ होना संभव है।
यह मेरा निरीक्षण रहा है कि जो लोग कामवासना
का दमन करते हैं, वे कुशाग्र बुद्धि न होकर
मंद बन जाते हैं। केवल अत्यधिक कामवासना से जीवंत व्यक्ति ही बुद्धिमान होते हैं।
अब यह विचार कि सेक्स एक पाप है, इससे बुद्धिमत्ता नष्ट होनी
ही चाहिए, उसका बुरी तरह से नष्ट होना अनिवार्य है। जब तुम
वास्तव में प्रवाहित हो रहे होते हो और तुम्हारी कामवासना तुम्हारे साथ न लड़ते
हुए कोई भी संघर्ष नहीं कर रही होती है, जब तुम उसके साथ
सहयोग करते हो, तो तुम्हारा मस्तिष्क अपने उच्चतम तल पर
कार्य करेगा। तुम बुद्धिमान सजग जीवंत होगे।
तंत्र कहता है कि शरीर को अपना मित्र बनाना
है।
क्या कभी-कभी तुम अपने शरीर का स्पर्श करते
हो?क्या तुमने कभी भी स्वयं अपने शरीर का अनुभव किया है?अथवा तुम इस भांति बने रहे हो जैसे मानो तुम मृत चीज की भांति एक बक्से
में बंद हो?यही है वह जो हो रहा है, लोग
जैसे बर्फ की भांति जम गए है। वे एक ताबूत के समान अपने शरीर को ढ़ो रहे हैं। वह
एक बोझ है, वह बाधा बन रहा है। वह सत्य के साथ सम्पर्क करने
में तुम्हारी सहायता नहीं करता है। यदि तुम शरीर की विद्युत को पैरों से लेकिन सिर
तक प्रवाहित होने की अनुमति देते हो, यदि तुम अपनी
जैविक-उर्जा को पूर्ण स्वतंत्रता देने की आज्ञा देते हो, तो
तुम नदी की भांति प्रवाहित होने लगोगे और तुम अपने शरीर का किसी भी प्रकार कोई
अनुभव नहीं करोगे।
तुम लगभग देहविहीन होने का अनुभव करोगे।
शरीर के साथ न लड़ते हुए तुम अशरीरी बन जाओगे। शरीर के साथ लड़ते हुए शरीर एक भार
बन जाता है। और तुम अपने ही शरीर को एक बोझ की भांति ढोते हुए कभी भी धर्मपरायणता
तक नहीं पहुंच सकते।
शरीर को भारहीन बनाना है,
जिससे तुम लगभग पृथ्वी के कुछ ऊपर चलना शुरू कर सको। यही तंत्र के
चलने का ढंग है। तुम इतने अधिक भारहीन हो जाते हो कि वहां कोई भी गुरुत्वाकर्षण
नहीं होता है। तुम सामान्य रूप से उड़ सकते हो1 लेकिन यह गहन
स्वीकार भाव से आता है। अपने शरीर को ही स्वीकार करना कठिन होता जा रहा है। तुम
उसका तिरस्कार करते हो, तुम हमेशा उसमें दोष ढूँढ़ते हो। तुम
कभी भी उसकी प्रशंसा नहीं करते हो, तुम कभी भी उससे प्रेम
नहीं करते; और तब तुम एक चमत्कार चाहते हो—कि कोई व्यक्ति आयेगा और तुम्हारे शरीर से प्रेम करेगा। यदि तुम स्वयं ही
अपने शरीर से प्रेम नहीं कर सकते, तब तुम उससे प्रेम करने के
लिए किसी दूसरे व्यक्ति को खोजने कैसे जा सकते हो? यदि तुम
स्वयं ही अपने शरीर से प्रेम नहीं कर सकते, तो कोई भी
व्यक्ति उसे प्रेम करने नहीं जा रहा है, क्योंकि तुम्हारी
तरंग ही लोगों को तुमसे दूर रखेगी।
तुम उसी व्यक्ति के साथ प्रेम में पड़ते हो
जो स्वयं अपने से प्रेम करता है। अन्यथा कभी नहीं पड़ते पहला प्रेम स्वयं के प्रति
होना है,
केवल तभी उसी केंद्र से अन्य प्रकार के प्रेम उत्पन्न होते हैं। तुम
अपने शरीर से प्रेम नहीं करते हो, तुम उसे अनेक तरीकों से
छिपाते हो, तुम अपने शरीर की गंध छिपाते हो, तुम अपने शरीर को कपड़ों में छिपाते हो, तुम अपने
शरीर को सजाने सँवारते और आभुषणों में छिपाते हो। तुम कुछ न कुछ इस तरह का सौंदर्य
सृजित करने का प्रयास करते हो जिससे तुम निरंतर अपने को खोने का अनुभव कर सको और
उसी वास्तविक प्रयास में तुम कृत्रिम बन जाते हो।
अब जरा एक ऐसी स्त्री के बारे में विचार करो
जिसके होंठों पर लिपिस्टिक लगी हुई है—यह केवल
मात्र कुरूपता हैं। होंठों को जीवंतता के कारण रक्तिम होना चाहिए उन पर रंग नहीं
पोतना चाहिए। उन्हें प्रेम के कारण जीवंत होना चाहिए, उन्हें
इसलिए जीवंत होना चाहिए क्योंकि तुम जीवंत हो। अब केवल होंठों को रंग लेने से तुम
सोचती हो कि तुम स्वयं को सुंदर बना रही हो। जो लोग अपनी कुरूपता के प्रति बहुत
अधिक सचेत होते हैं वे लोग ही व्यूटी-पार्लर जाते हैं, अन्यथा
वहां जाने की कोई भी जरूरत नहीं है।
क्या तुम कभी भी एक ऐसे पक्षी के मध्य से
होकर गुज़रते हो, जो कुरूप हो? क्या तुम कभी भी एक ऐसे हिरण से मध्य से होकर गुज़रते हो जो कुरूप हो?
ऐसा कभी भी नहीं होता हैं? वे किसी
व्यूटी-पार्लर में नहीं जाते, वे किसी विशेषज्ञ से कोई भी
परामर्श नहीं लेते; वे पूरी तरह से स्वयं अपने को स्वीकार
करते हैं और अपनी स्वीकृति में ही वे सुंदर होते है। उसी प्रामाणिक स्वीकृति में
वे स्वयं अपने ही ऊपर सौंदर्य बरसाते हैं।
जिस क्षण तुम स्वयं अपने को स्वीकार करते हो,
तुम सुंदर हो जाते हो। जब तुम स्वयं अपने शरीर के साथ आनंदित होते
हो, तो तुम दूसरों को भी आनंदित करोगे। अपने लोग तुमसे प्रेम
करेंगे, क्योंकि तुम स्वयं अपने से प्रेम करते हो। जैसे तुम
अभी हो, तुम स्वयं से नाराज़ हो, तुम
जानते हो कि तुम कुरूप हो, तुम जानते हो कि तुम निषेध करने
वाले हो, तुम कुंठित हो, ग्रस्त हो। यह
विचार लोगों को पीछे हटायेगा, यह विचार उनमें तुम्हारे साथ
प्रेम में गिरने में सहायता नहीं करेगा, वह उन्हें दूर बनाये
रखेगा। यदि वे तुम्हारे निकट आ भी रहे थे तो जिस क्षण वे तुम्हारी इस तरंग का
अनुभव करेंगे, वे दूर चले जायेगें इस बारे में किसी का पीछा
करने की कोई जरूरत नहीं है, पीछा करना केवल तभी उत्पन्न होता
है, जब हम स्वयं के साथ प्रेम में नहीं रहे हैं। अन्यथा लोग
आते हैं, यदि तुम स्वयं अपने से ही प्रेम करते हो तो उनके
लिए तुम्हारे साथ प्रेम में न पड़ना लगभग असम्भव हो जाता है।
इतने अधिक लोग बुद्ध के पास क्यों आते हैं,
और इतने अधिक लोग सेहरा के पास क्यों आते हैं और क्यों इतने लोग
जीसस के पास आते हैं? ये लोग स्वयं के साथ प्रेम में थे। वे
इतने अधिक प्रेम में थे वे अपने अस्तित्व के साथ इतने अधिक आनंदित थे कि यह
स्वाभाविक था कि जो कोई भी व्यक्ति उनके निकट से गुजरता था तो वह चुम्बक की भांति
उनके द्वारा अपने पास खींच लिया जाता था। वे अपने अस्तित्व के साथ इतने अधिक
मंत्रमुग्ध थे कि तुम कैसे उस वशीकरण से दूर रह सकते थे? केवल
वहां बने रहना ही इतना अधिक परमानंद था।
जो पहली चीज़ तंत्र सिखाता है वह है—कि तुम अपने ही शरीर के प्रति प्रेमपूर्ण बने रहो, अपने
शरीर के मित्र बनकर रहो, अपने शरीर पर श्रद्धा रखो उसका
सम्मान करो और अपने शरीर की सावधानी से देखभाल करो। यह अस्तित्व का एक उपहार है,
इसके साथ अच्छा व्यवहार करो और तुम पर महान रहस्य प्रकट होंगे। सभी
विकास इसी पर निर्भर है कि तुम अपने शरीर के साथ कैसा संबंध रखते हो।
तब तंत्र दूसरी चीज़ इन्द्रियों के बारे में
कहता है। पुन: सभी धर्म इन्द्रियों के विरूद्ध हैं, वे
इन्द्रियों को और उनकी संवेदनशीलता को मंद करने का प्रयास करते हैं। और इन्द्रियां
ही तुम्हारे बोध के द्वार हैं, इन्द्रियां ही सत्य में खुलने
वाली खिड़कियां हैं। तुम्हारे नेत्र क्या है? तुम्हारे कान
क्या हैं?तुम्हारी नाक क्या है? ये
सत्य में, परमात्मा में खुलने वाली खिड़कियां हैं। यदि तुम
ठीक तरह से देखते हो तो तुम प्रत्येक जगह धार्मिकता देखोगे। इसलिए आंखों को बंद नहीं
करना चाहिए, आंखों को ठीक से खुला रखना है, आंखों को नष्ट नहीं करना चाहिए। कानों को भी पूर्ण रूप से खुला रखना चाहिए,
क्योंकि सभी ध्वनियां दिव्य हैं।
ये पक्षी मंत्रों का उच्चारण कर रहे हैं। ये
वृक्ष मौन का उपदेश दे रहे हैं। सभी ध्वनियां ही परमात्मा हैं और सभी रूप परमात्मा
के ही हैं। इसलिए यदि तुम्हारे अंदर संवेदनशीलता नहीं है,
तो तुम परमात्मा को कैसे जानोगे? और तुम्हें
उसे खोजने एक गिरजाघर में और एक मंदिर में जाना होगा और तुम्हें सभी स्थानों पर
जाना होगा। तुम परमात्मा को खोजने मनुष्य द्वारा बनाये गए मंदिरों और मनुष्य के ही
द्वारा बनाये गये गिराजघरों में जाते हो? मनुष्य इतना अधिक
मूर्ख बनता हुआ प्रतीत होता है। परमात्मा हर कहीं है, वह
जीवंत है और वह प्रत्येक स्थान पर तुम्हें ठोकर मार कर धकेल रहा है। लेकिन इसके
लिए विशुद्ध और अत्यंत संवेदनशील इन्द्रियों की आवश्यकता है।
इसलिए तंत्र तुम्हें सिखाता हे कि
इन्द्रियां ज्ञान के द्वार हैं। वे जड़ बना दिए गए हैं,
तुम्हें इस जड़ता को हटाना है और इन्द्रियों को साफ कर निर्मल बनाना
है। तुम्हारी इन्द्रियां एक दर्पण की भांति हैं, वे जड़ हो
गई है। क्योंकि उनके ऊपर बहुत अधिक धूल जग गई है, उसी धूल को
साफ करना है।
प्रत्येक चीज के बारे में तंत्र के मार्ग की
और दृष्टिपात करो। दूसरे लोग कहते है—‘अपनी
इंद्रियों को जड़वत बना दो, अपने स्वाद को मार दो।’ तंत्र कहता है कि प्रत्येक स्वाद में परमात्मा का ही स्वाद लो। दूसरे लोग
कहते हैं अपने स्पर्श करने की क्षमता को मार दो। और तंत्र कहता है कि अपने स्पर्श में पूर्ण रूप से प्रवाहित हो जाओ।
क्योंकि तुम जो कुछ भी छूते हो, वह दिव्य है। यह तथाकथित
धर्मों का पूर्ण रूप से उल्टा है, उसके विपरीत है, यह प्रामाणिक जड़ों से ही एक मौलिक क्रांति है।
जितनी अधिक समग्रता से संभव हो सके,
स्पर्श करो, सूंघो, स्वाद
लो, देखो और सुनो। तुम्हें यह भाषा पुन: सीखनी होगी क्योंकि
समाज ने तुम्हें मूर्ख बनाया है। उसने तुम्हें उसे भुला दिया है। प्रत्येक बच्चा
सुंदर और सक्षम इन्द्रियों के साथ जन्मता है। एक बच्चे का निरीक्षण करो—जब वह किसी चीज़ की और देखता है तो वह पूरी तरह उसमें डूब जाता है,
जब वह अपने खिलौनों के साथ खेल रहा है, वह
पूरी तरह उनमें ही रम जाता है। जब वह देखता है, तो वह बस
आंखें ही बन जाता है। बच्चे की आंखों में जरा झांक कर देखो। जब वह सुनता है तो वह
केवल कान ही बन जाता है। जब वह किसी चीज़ को खाता है तो वह वहां बस जिव्हा ही पर
होता है। वह केवल स्वाद ही बन जाता है। एक बच्चे को एक सेब खाते हुए देखो वह कितनी
उमंग और जोश के साथ कितनी बड़ी ऊर्जा के साथ और कितनी अधिक प्रसन्नता के साथ उसे
खाता है। एक बच्चे को एक बगीचे में एक तितली के पीछे भोगते हुए देखों—वह उसमें इतना अधिक खो जाता है कि यदि परमात्मा भी प्राप्त होते तो वह उस
तरह से उनके पीछे नहीं दौड़ता इतनी अधिक तीव्र और ध्यान पूर्ण दशा—और बिना किसी प्रयास के एक बच्चे
को सागर तट पर सीप और धोंधे एकत्रित करते हुए देखा, जैसे
मानो वह हीरों को इकट्ठा कर रहा है। जब इन्द्रियां जीवंत होती हैं तो प्रत्येक
चीज़ मूल्यवान होती है। जब इन्द्रियां जीवंत होती है तो प्रत्येक चीज़ स्पष्ट और
निर्मल होती है।
जीवन में बाद में वहीं बच्चा वास्तविकता की
और यों देखेगा, जैसे मानो वह एक काले धुंधले शीशे के
पीछे छिपा हो। शीशे पर बहुत अधिक धूल और धुंवा इकट्ठा हो गया हो और तुम उसके पीछे
छिपे देख रहे हो। इसी कारण प्रत्येक चीज धुंधली और मृत दिखाई देती है। तुम एक
वृक्ष की और देखते हो और वृक्ष उदास दिखाई देता है। क्योंकि तुम्हारी आंखें उदास
हैं। तुम एक गीत सुनते हो, लेकिन वहां उसमें कोई भी आकर्षण
नहीं होता, क्योंकि तुम्हारे कान मंद हैं। तुम सरहा के वचन
सुन सकते हो और तुम उनकी प्रशंसा करने में समर्थ नहीं होगे क्योंकि तुम्हारी
बुद्धि मंद है।
अपनी भूली हुई भाषा की योग्यता फिर से
प्राप्त करो। जब कभी भी तुम्हारे पास समय हो, अपनी
इंद्रियों में अधिक से अधिक बने रहो। भोजन करते समय, केवल
भोजन ही मत करो, उसकी संरचना का अनुभव करो, खुली हुई आंखों से और फिर आंखें बंद कर उसका अनुभव करो। भोजन करते उसे यों
चबाओ जैसे तुम परमात्मा को चबा रहे हो। स्मरण हरे, उसे भली
भांति न चबाना और भलीभांति उसका स्वाद न लेना उसका अनादर होगा। उसे प्रार्थना
पूर्ण बनने दो ओर तुम अपने अंदर एक नई चेतना का उत्पन्न होना शुरू कर दोगे। तुम
तंत्र के रसायन की विधि सीखोगे।
लोगों को अधिक स्पर्श करो। स्पर्श करने के
बारे में हम लोग बहुत अधिक संवेदनशील बन गए हैं। यदि कोई व्यक्ति बातचीत करते हुए
तुम्हारे बहुत निकट आता है, तुम पीछे की और खिसकना शुरू
कर देते हो। हम अपनी सीमा की जैसे सुरक्षा करते हैं। हम उसका स्पर्श नहीं करते और
न अन्य व्यक्ति का ही हम स्पर्श करते है। हम उसका हाथ नहीं पकड़ते, हम उसे आलिंगन में नहीं बांधते। हम एक दूसरे के अस्तित्व का आनंद नहीं
लेते।
वृक्ष के पास जाओ। वृक्ष का स्पर्श करो। एक
चट्टान को छुओ। नदी के पास जाओ और नदी को अपने हाथों के द्वारा प्रवाहित होने दो।
उसका अनुभव करो। उसमें तैरो और जल का फिर वैसा ही अनुभव करो जैसा मछली उसका अनुभव
करती है। अपनी इन्द्रियों को फिर से जीवंत होने के किसी भी अवसर से मत चूको। और
पूरे दिन भर वहां ऐसे अनेकानेक अवसर मिलते हैं। इस बारे में इसके लिए किसी पृथक
समय की कोई भी आवश्यकता नहीं है। पूरा दिन ही संवेदनशील होने के लिए एक प्रशिक्षण
है। सभी अवसरों का उपयोग करो। अपने शॉवर के नीचे बैठते हुए इस अवसर का उपयोग करो।
अपने ऊपर गिरते हुए जल के स्पर्श का अनुभव करो।
नीचे भूमि पर नग्न लेटजाओ,
भूमि का अनुभव करो। नदी या सागर तट पर लेट जाओ ओर रेत का अनुभव करो।
रेत पर लेटकर रेत की और सागर की ध्वनियों को सुनों। प्रत्येक अवसर का उपयोग करो,
केवल तभी तुम इन्द्रियों की भाषा को फिर से सीखने में समर्थ हो
सकोगे। और तंत्र केवल तभी समझा जा सकता है, जब तुम्हारा शरीर
जीवंत हो और तुम्हारी इन्द्रियां अनुभव करती हो।
आदतों से अपनी इन्द्रियों को मुक्त करो।
आदतें ही उदासी और मंद होने के मूल कारणों में से एक हैं। चीजों को संपादित करने
के नये तरीकों की खोज करो। प्रेम करने के नये तरीकों का अविष्कार करो। लोग बहुत
अधिक भयभीत हैं।
मैंने सुना है......
डॉक्टर ने कार्य करने वाले कर्मचारी से कहा
कि बिना उसकी पेशाब का नमूना लिए हुए परीक्षण पूरा न हो सकेगा। एक छोटा लड़का जो
उसे लेने भेजा गया था, उसने पेशाब के नमूने का
अधिकतर भाग के कारण नीचे गिरा दिया है। डरकर इसे अच्छी तरह से छिपाने के लिए उसने
मैदान में घूम रही गाय का पेशाब उसमें ऊपर तक भर दिया।
डॉक्टर ने उतावला होकर उस व्यक्ति को बुलाने
के लिए किसी को भेजा, जो अपनी पत्नी पर क्रोधित
होता हुआ घर की और लौटा और उससे कहा—‘यह तुम हो और तुम्हारी
सनक भरी स्थिति है। तुम शीर्ष पर बनी रहेगी, यही तो तुम
चाहती हो? और मैं अब एक बच्चे को जन्म देने जा रहा हूं।’
लोगों के पास जड़ और स्थिर आदतें होती हैं।
आपस में प्रेम करते हुए भी वे हमेशा उसी स्थिति में प्रेम करते हैं,
जब स्त्री नीचे और पुरूष उसके ऊपर होते है। अनुभव करने की नई खोज
करो। प्रत्येक अनुभव को बहुत अधिक संवेदनशीलता से सृजित करना है। जब तुम एक स्त्री
अथवा एक पुरूष से प्रेम करते हो, तो उसे एक महान उत्सव बनाओ
और प्रत्येक बार उसके अंदर कुछ नुतन सृजनत्माकता लाओ। प्रेम करने से पूर्व कभी-कभी
नृत्य करो, प्रेम करने से पूर्ण कभी-कभी प्रार्थना पूर्ण
होने का अनुभव करो, कभी-कभी भागकर जंगल के अंदर चले जाओ। और
तब प्रेम करो। जब कभी तैरने के लिए जाओ और तब प्रेम करो। तब प्रत्येक प्रकार के
प्रेम का अनुभव तुम्हारे अंदर अधिक से अधिक संवेदनशीलता उत्पन्न करेगा, और प्रेम कभी भी मंद उदास और बौरिंग नहीं होगा।
दूसरे को खोजने के नये-नये तरीके ईजाद करो
और दिनचर्या को जड़ और स्थिर मत होने दो। सभी दिनचर्या जीवन विरोधी हैं,
स्थिर दिन चर्या मृत्यु की सेवा में हैं, और
तुम हमेशा नई ईजाद कर सकते हो इस जगह नई ईजाद की कोई सीमा नहीं है। कभी-कभी एक
छोटा सा परिवर्तन भी अत्यधिक लाभदायक होगा। तुम हमेशा मेज़ पर भोजन करते हो—जब कभी लॉंन पर चले जाओ और वहां बैठकर भोजन करो, और
तुम अत्यधिक आश्चर्य से भर जाओगे; यह पूर्ण रूप से एक भिन्न
ही अनुभव होगा। ताजी काटी गई घास की सुगंध, चारों और फुदकती
चिड़ियों का गीत गाना, ताजी कटी घास की सुगंध, चारों और फुदकती चिड़ियों का गीत गाना, ताजी हवा और
सूर्य की किरणें और नीचे भीगी हुई घास की अनुभूति वह वैसा ही समान अनुभव नहीं हो
सकता, जैसा जब तुम एक कुर्सी पर बैठ कर मेज़ पर भोजन करते
हो। यह पूर्ण रूप से भिन्न अनुभव है, इसकी सभी अंश भिन्न है।
जब कभी बस नग्न होकर भोजन करने का प्रयास
करो,
और तुम आश्चर्य चकित हो जाओगे। बहुत अधिक नहीं, केवल थोड़ा सा परिवर्तन ही—कि तुम नग्न बैठे हुए हो—लेकिन तुम्हारे पास पूर्णरूप से यह एक भिन्न अनुभव होगा। क्योंकि इसमें
कुछ चीजें नई जोड़ दी गई है। यदि तुम चम्मच और कांटों के साथ भोजन करते हो जब कभी
केवल हाथों के साथ ही भोजन करो और तुम्हारे पास एक नया अनुभव होगा तुम्हारे हाथों
का स्पर्श भोजन में कुछ नई उष्णता ला देगा। एक चम्मच एक मुर्दा चीज़ है, जब तुम चम्मच और कांटों के साथ भोजन करते हो, तुम
बहुत दूर होते हो। किसी भी चीज को स्पर्श करने का यह वही भय है—यहां तक कि भोजन का भी स्पर्श नहीं किया जा सकता। तुम भोजन की संरचना,
उसके स्पर्श और उसकी अनुभूति से चूक जाओगे। भोजन के पास उतनी ही अधिक
अनुभूति है जितना अधिक उसके पास उसका स्वाद है।
पश्चिम में इस तथ्य पर बहुत से प्रयोग किये
गए हैं कि जब हम किसी चीज़ को आनंद लेते हैं तो वहां ऐसी बहुत सी चीज़ें होती हैं
जिनके बारे में हम सचेत नहीं होते, लेकिन वे
हमारे अनुभव को योगदान देती है। उदाहरण के लिए केवल अपनी आंखें बंद कर लो और अपनी
नासिका छिद्रों को भी बंद कद लो और तब प्याज खाओ। किसी व्यक्ति से कहो कि वह उसे
तब खिलाये जब तुम नहीं जानते कि वह तुम्हें प्याज खिला रहा है अथवा सेब। और
तुम्हारे लिए उसमें भेद कर पाना कठिन होगा, यदि नाक पूरी तरह
बंद है और आंखें भी पट्टी बांधकर पूरी तरह बंद है। तुम्हारे लिए यह निर्णय लेना
असंभव होगा कि वह प्याज है अथवा सेब है, क्योंकि स्वाद केवल
स्वाद ही नहीं होता, उसका पचास प्रतिशत नाक से आता है और
अधिक आंखों से आता है। वह केवल स्वाद ही नहीं होता सभी इन्द्रियां उसमें योगदान देती
हैं। जब तुम हाथों से भोजन करते हो, तो तुम्हारे स्पर्श भी
योगदान देते है। वह स्वादिष्ट बन जायेगा, वह कहीं अधिक
मानवीय और कहीं अधिक स्वाभाविक होगा।
प्रत्येक चीज़ में नये तरीकों की खोज करो।
इसे तुम अपनी ‘साधना’ बना लो।
तंत्र कहता है कि यदि तुम प्रत्येक दिन नये तरीकों को खोजे चले जा सकते हो,
तो तुम्हारा जीवन साहसिक और उमंगों से भरा हो सकता है। तुम कभी भी
ऊबोगे नहीं। एक ऊबा हुआ व्यक्ति अधार्मिक होता है। तुम हमेशा जानने को उत्सुक बने
रहोगे, तुम हमेशा अज्ञात और अपरिचित को खोजने की कगार पर
होगे। तुम्हारी आंखें पारदर्शी बनी रहेंगी तुम्हारी इन्द्रियां निर्मल बनी रहेंगी,
क्योंकि जब हमेशा तुम खोजने, अनुसंधान करने और
ढूंढने की कगार पर होते हो तुम कभी भी मंद और उदास नहीं हो कसते, तुम कभी भी मूर्ख नहीं बन सकते। कोई भी बच्चा मूर्ख नहीं होता, केवल बाद में लोग उसे मूर्ख बना देते है।
मनोवैज्ञानिक कहते है कि सात वर्ष की आयु से
मूर्खता प्रारम्भ होती है। वैसे यह लगभग चार वर्ष की आयु से प्रारम्भ होती है।
सातवें वर्ष में यह बहुत स्पष्टता से प्रकट हो जाती है। बच्चे सात वर्ष की आयु से
मूर्ख या मंद बुद्धि शुरू होते हैं। यदि वह सत्तर वर्ष तक जीते हैं तो शेष त्रेसठ
वर्षों में वे केवल पचास प्रतिशत सीखेंगें—पचास
प्रतिशत वे पहले ही सीख चुके होते है। होता क्या है? वे मंद
बुद्धि हो जाते हैं, उनका सीखना रूक जाता है। यदि तुम
बुद्धिमत्ता की सीमा में सोचते हो, तो सात वर्ष की आयु में
एक बच्चे की बुद्धि बढ़ाने लगती है। जिस क्षण बच्चा ये सोचता है—‘मैं जानता हूं,’ वह बड़ा होना शुरू हो जाता है।
शारीरिक दृष्टि से वह बूढ़ा बाद में होगा—पैंतीस वर्ष की आयु
से उसका ढलना शुरू हो जायेगा लेकिन मानसिक रूप से पहले ही से उसका क्षय होना शुरू
हो चुका है।
तुम्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि तुम्हारी
मानसिक आयु, औसत रूप से मानसिक उम्र केवल बारह वर्ष
है। लोग इस आयु के बाद विकसित नहीं होते, और वे वहीं रूक
जाते है। इसी कारण तुम संसार में इतना अधिक बचपना देखते हो। एक साठ वर्ष की आयु के
व्यक्ति की बात जरा सा अपमान कर दो, कुछ ही क्षणों में वह
बारह वर्ष के एक बच्चे जैसा बन जाता है। और वह इस तरह से व्यवहार करता है—कि तुम यह विश्वास करने में समर्थ न हो सकोगे कि इतना अधिक विकसित और
प्रौढ़ व्यक्ति भी एक बच्चे की तरह व्यवहार कर सकता है। लोग पीछे लौटकर गिरने के
लिए हमेशा तैयार रहते हैं। उनकी आयु केवल उनकी त्वचा के पीछे तक ही है। थोड़ा सा
खुरच दो, उनकी मानसिक आयु प्रकट हो जाती है। उनकी शारीरिक
आयु अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। लोग बच्चे बन हुए ही मर जाते हैं, वे कभी भी विकसित नहीं होते हैं।
तंत्र कहता है कि कार्यों के करने के
नये-नये तरीकों को सीखना है, और तुम्हें स्वयं को
जितना अधिक संभव हो सके अपनी आदतों से मुक्त करना है। और तंत्र कहता है कि अनुकरण
मत करो, अन्यथा तुम्हारी इन्द्रियां जड़ बन जायेंगी। अनुकरण
मत करो, कार्यों करने अपने रास्ते स्वयं खोजो, और जो कुछ भी तुम करते हाँ, प्रत्येक चीज़ पर
तुम्हारे अपने हस्ताक्षर हों।
ठीक कुछ दिन पूर्व एक रात एक संन्यासिन लोट
कर घर वापस जा रही थी। मुझसे कह रही थी कि उसके और उसके पति के मध्य प्रेम विलुप्त
हो गया है। अब वे एक दूसरे के साथ केवल बच्चों के कारण ही रह रहे है। मैंने उससे
ध्यान करते हुए अपने पति के साथ मित्रवत बने रहने के लिए कहा। मैंने कहा—‘यदि प्रेम विलुप्त हो चुका है, तो भी प्रत्येक चीज
विलुप्त नहीं हुई है, मित्रता अभी तक संभव है—मित्रों की भांति रहो।’ और उसने कहा—‘यह बहुत कठिन है, जब एक प्याला टूट गया तो वह टूट ही
गया।’
मैंने उससे कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि
उसने यह नहीं सुना कि जापान में ज़ेन के लोग सुपरमार्केट से एक प्याला खरीदेंगे,
उसे घर लाएगें और सबसे पहले उसे तोडेंगे, फिर
उसे वैयक्तिक और विशेष बनाने के लिए गोंद से उसे जोड़ेंगे- अन्यथा वह केवल एक
बाजारू चीज़ होगी। यदि एक मित्र तुम्हारे घर आता है और तुम उसे एक सामान्य केतली
से सामान्य प्याले में चाय देते हो, तो यह अच्छा नहीं माना
जाता, यह कुरूप और असम्मान जनक समझा जाता हैं। इसलिए वे एक
नया प्याला खरीद कर लायेंगे, उसे तोडेंगे और फिर उसे जोड़ेंगे।
निश्चित रूप से, तब ठीक वैसा ही संसार भर में कोई दूसरा
प्याला नहीं होगा, हो भी नहीं सकता। टुकड़ों को एक साथ
जोड़कर अब उस प्याले के पास कुछ अपनी वैयक्तिकता होगी, उस पर
तुम्हारे हस्ताक्षर होंगे। और जब ज़ेन के लोग एक दूसरे के घर अथवा एक दूसरे के मठो
में जाते हैं, तो वे केवल चाय को सीधे ही सिप नहीं करेंगे।
पहले वे प्याले की और देखेंगे, फिर वे उसकी प्रशंसा करेंगे
कि जिस तरह से उसे एक साथ जोड़ा गया है। जिस तरह से उसके टुकड़े किये गये फिर उन
सभी को एक साथ रख कर जोड़ा गया, वह कला का एक नायाब नमूना
है।
वह स्त्री समझ गई और वह हंसने लगी। उसने कहा—‘तब यह संभव है।’
चीजों के अंदर वैयक्तिकता लाओ और केवल एक
अनुकरणकर्ता मत बनो। अनुकरण करना जीवन से चूक जाना है।
मैंने सुना है......
मुल्ला नसरूदीन के पास एक तोता था,
जो कामवासना के ज्वर से उतप्त था। वह तोता निरंतर गंदी गालियां बक
रहा था। विशेष रूप से तब जब कभी वहां कोई मेहमान आता था। मुल्ला बहुत अधिक परेशान
था, और स्थिति भयानक होती जा रही थी। अंतिम रूप से किसी
व्यक्ति ने उसे सुझाव दिया कि वह उसे किसी पक्षियों के चिकित्सक के पास ले जाये।
इसलिए वह उसे पक्षी चिकित्सक के पास ले जाता
है। वह चिकित्सक उस तोते को अच्छी तरह से पूरा परीक्षण के बाद कहता है—‘नसरूद्दीन! तुम्हारा तोता कामवासना से पीड़ित है। मेरे पास एक प्यारी सी
युवा मादा तोती है। पन्द्रह रूपये चुकाने के बाद तुम्हारा तोता मेरी तोती के
पिंजरे में जा सकता है।’
मुल्ला का तोता पिंजरे में बैठा सुन रहा था
और मुल्ला कह रहा हैं—‘ऐ मेरे अल्लाह! मैं कुछ
नहीं जानता—पर पन्द्रह रूपये?’
तोता कहता है—‘आगे
बढ़ो –आगे बढ़ो नसरूद्दीन, लोभ के किस
नर्क में पड़े हो?’
अंत में मुल्ला कहता है—‘फिर ठीक है’, और पक्षी विशेषज्ञ को पन्द्रह रूपये देता
है। वह विशेषज्ञ तोते के पिंजरे को मादा पक्षी के पिंजरे के पास रखता है और पर्दा
नीचे गिरा देता है। दो व्यक्ति जाते हैं और वहां नीचे बैठ जाते हैं। वहां एक क्षण
तक खामोशी रहती है और तब अचानक ‘कांए..कांए..कांए’ ध्वनियों के साथ पर्दे के ऊपर पंख उड़-उड़ कर आने लगते हैं।
पक्षी विशेषज्ञ क्रोध से बड़-बड़ाता है,
वहां दौड़कर जाता है और पर्दा ऊपर उठाकर देखता है। नर तोते ने मादा
तोते को अपने एक पंजे से पिंजरे की तली में नीचे पटक दिया था और दूसरे पंजे से वह
उसके पंख नोचता हुआ प्रसन्नता से चखता हुए कहता है—‘पन्द्रह
रूपये के लिए मैं तुम्हें नग्न कर देना चाहता हूं।’ तब पक्षी
विशेषज्ञ और अपने मालिक मुल्ला नसरूद्दीन को देखकर वह फिर प्रसन्नता में चिल्लाता
हुए कहता है—‘क्यों नसरूद्दीन! क्या यह वहीं तरीका नहीं है
जिसे तुम स्त्री के साथ करना पसंद करते हो?’
एक तोता भी मनुष्य के तरीकों को सीख सकता है,
वह भी अनुकरण कर्त्ता बन सकता है, वह एक
मानसिक रोगी बन सकता है। अनुकरण करता बनना ही मानसिक रोगी बनना है। संसार में
समझदार बनने का केवल एकही तरीका है, वह है वैयक्तिक बनना,
प्रामाणिक रूप से एक वैयक्तिक बनना। तुम अपनी आत्मा में बने रहो।
जो तीसरी बात तंत्र कहता है वह है.....पहली
बात,
शरीर को दमित मनोवेग से विशुद्ध बनाना है। दूसरी बात, इन्द्रियों को फिर से जीवंत बनाना है। तीसरी बात मन से मानसिक रूग्णता के
विचार और सम्मोहित करके ठूंसे हुए विचारों को छोड़ देना है और मौन में जाने की
विधियां सीखना है। जब कभी भी सम्भव हो सके विश्राम करो। जब कभी भी सम्भव हो,
मन को उठाकर एक और रख दो।
अब तुम कहोगे—‘यह
बात कहना तो बहुत सरल है, लेकिन मन को अलग एक और कैसे रखा
जाये? यह तो गतिशील होता ही चला जाता है।’ इस बारे में एक मार्ग है। तंत्र कहता है कि इन तीन सचेतनताओ का निरीक्षण
करो। पहली सचेतन—मन का निरीक्षण करो; मन
को गतिशील होने दो, मन को विचारों के साथ भर जाने दो,
तुम सामान्य रूप से तटस्थ बनकर निरीक्षण करो। इस बारे में परेशान
होने की ज़रा भी जरूरत नहीं है। केवल निरीक्षण करो। बस निरीक्षणकर्त्ता बने रहो और
धीमे-धीमे तुम देखोगे कि मौन के अंतराल आना प्रारम्भ हो गए हैं। तब दूसरी सचेतनता—जब तुम सचेत बन गए हो कि मौन के अंतराल आना प्रारम्भ हो गए हैं तब
निरीक्षण कर्त्ता के प्रति भी सचेत बनो। अब निरीक्षणकर्त्ता का निरीक्षण करो और तब
नई तरह के अंतराल आना शुरू हो जायेगें—ठीक विचारों की ही
भांति निरीक्षणकर्त्ता भी विलुप्त होना शुरू हो जायेगा। एक दिन सोचने वाला भी
विलुप्त होना शुरू हो जाता है; तभी वास्तविक मौन उत्पन्न
होता है। तीसरी चेतना के साथ विषयवस्तु और वैयक्तिकता दोनों ही चली जाती हैं,
तुम उस पार में प्रविष्ट हो जाते हो।
जब ये तीन चीजें उपलब्ध हो जाती हैं—शरीर दमित मनोवेग से विशुद्ध हो जाता है। इन्द्रियां उदासी और जड़ता से
मुक्त हो जाती हैं। और मन सम्मोहित कर ठूंसे विचारों से मुक्त हो जाता है।
तुम्हारे अंदर एक अंर्तदृष्टि का जन्म होता है, जो सभी
प्रकार के भ्रमों और माया जाल से मुक्त होती है। तंत्र की यही अंर्तदृष्टि है।
अब यह सूत्र-
मन, बुद्धि
और मन के ढांचें की सभी अंर्तवस्तुएं,
और इसी तरह संसार भी,
और वह सभी कुछ जैसा प्रतीत होता है,
वे सभी वस्तुएं जिनका मन के द्वारा अनुभव
किया जा सकता है,
और वह जानने वाला भी,
जड़ता, द्वेष, घृणा,
कामना और बुद्धत्व भी,
जो ‘वह’
है, उससे भिन्न है।
जब तुम मौन की स्थिति तक आ जाते हो,
जहां दृष्टा और दृश्य दोनों विलुप्त हो जाते हैं, तभी तुम जानोगे कि इस सूत्र का क्या अर्थ है।
मन, बुद्धि और
मन के ढांचें की सभी अंर्तवस्तुएं,
और इसी तरह संसार भी,
और वह सभी कुछ जैसा प्रतीत होता है,
वहां अस्तित्व में दो चीजें अर्थात द्वैत
नहीं है—वह एक ही है, वह एक सागर है। वहां सभी विभाजित हैं,
क्योंकि हम अंदर से विभाजित हैं, हमारे अंदर
के विभाजन ही बाहर जाकर प्रक्षेपित होते हैं, और चीज़ें
विभाजित दिखाई देती हैं। जब शरीर विशुद्ध होता है, अंदर से
सारे विभाजन विलुप्त हो जाते हैं, वहां अंदर विशुद्ध शून्यता
होती है। जब अंदर वहां विशुद्ध होती है। तुम यह जानने में समर्थ बनते हो कि बाहर
भी वैसी ही विशुद्ध शून्यता है। शून्याकाश अंदर है वैसा ही बाहर का भी आकाश है।
वास्तव में वहां न तो कोई ‘बाहर’ और न ‘अंदर’ है, वह सभी कुछ एक है।
मन, बुद्धि और
उस मन के ढांचें की सभी अंर्तवस्तुए, वह सभी एक हैं—अब तुम पहचान लोगे कि विचार भी शत्रु नहीं थे और कामनायें भी शत्रु नहीं
थी। वे भी उसी दिव्य अस्तित्व के विभिन्न रूप थे अब तुम पहचान लोगे कि निर्वाण और
समसार भी दो नहीं है। अब यह पहचानते हुए कि वहां बंधन और बुद्धत्व के मध्य कोई भी
अंतर नहीं है। कि जानना और अज्ञानी बने रहना भिन्न नहीं हैं, कि एक बुद्ध और एक व्यक्ति जो अभी तक बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हुआ है,
उनके मध्य भी वहां कोई भी अंतर नहीं है, क्योंकि
अब विभाजन सम्भव ही नहीं है, अब तुम्हारे पास एक बहुत गहरा
रहस्य होगा, तुम अंदर ही अंदर अट्ठहास करोगे।
लेकिन यह केवल एक बुद्ध के द्वारा ही जाना
जाता हे। जो लोग बुद्धत्व को उपलब्ध नहीं हुए हैं, उनके
लिए वहां बहुत बड़ा अंतर है। एक बुद्ध सोच ही नहीं सकता क्योंकि सोचने के द्वारा
वहां हमेशा विभाजन हो जाता है। निर्विकार के द्वारा ही विभाजन विलुप्त होता है।
...और इसी तरह संसार भी,
और वह सभी कुछ जैसा प्रतीत होता है,
वे सभी वस्तुएं जिनकी इन्द्रियों के द्वारा
अनुभव किया जा सकता है,
और जानने वाला भी,
जड़ता द्वेष, घृणा, कामना
और बुद्धत्व भी,
जो ‘वह’
हे, उससे भिन्न है।
सभी कुछ ‘वह’
ही है। यही है ‘वह’। यह
पूर्ण रूप से जो भी कुछ है, तंत्र उसी को ‘वह’ कहता है।
अब सरहा राजा से कह रहा है—‘चिंता मत करो। चाहे महल में रहो चाहे श्मशान-भूमि पर, चाहे मैं एक विद्वान ब्राह्मण की भांति जाना जाता हूं अथवा एक पागल कुत्ते
के रूप में जाना जाता हूं, इससे कुछ भी अंतर नहीं पड़ता! यह ‘वहीं’ है। मैं उस अविभाजित अनुभव तक पहुंच गया हूं
जहां ज्ञाता और ज्ञान एक हैं, जहां दृष्टा और दृश्य एक है।
मैं वहां तक पहुंच गया हूं, अब मैं देख सकता हूं कि अच्छे और
बुरे के, पापी और संत के सारे विभाजन अर्थहीन थे। वहां,
पाप और संतत्व के मध्य भी कोई अंतर नहीं है।’
यही कारण है कि मैं तंत्र को मनुष्य की चेतना
के पूरे इतिहास में महानता विद्रोही दृष्टिकोण कहकर पुकारता हूं।
सरहा कह रहा ह—‘श्रीमान! आपके लिए विभाजन मौजूद हैं। यह है श्मशान-भूमि और जहां आप रहते
हैं वह है महल। मेरे लिए वहां कोई भी विभाजन नहीं है। इसी श्मशान भूमि में अतीत
में बहुत से महल रहे हैं जो अब विलुप्त हो चुके हैं, और आपका
महल भी देर या सवेर एक श्मशान भूमि बन जायेगा। परेशान मत हो, यह केवल समय का प्रश्न है। यदि आप देख सकते हो, तब
वहां कोई भी अंतर नहीं है। यह समान सत्य है, कहीं किसी का एक
संत बनना और कहीं किसी का एक पापी होना यह ‘वही’ है और वैसा ही समान है।’
अध्यात्म के अनजाने अंधकार में जा एक दीपक
के समान प्रकाशित है,
वह मन के सारे अंधकार और धूमिलता को दूर
करता है।
बुद्धि का एक बम्ब की भांति विस्फोट होने से
जितनी टुकड़े,
इधर-उधर बिखर जाते हैं,
उनसे क्या प्राप्त होता है?
स्वयं कामना विहीन के होने की कौन कल्पना कर
सकता है?
एक दीपक के समान....सरहा कहता है—‘अब मेरे अंदर तीसरी सचेतनता का जन्म हुआ है। वह एक दीपन के समान है जो
अध्यात्म के अनजाने अंधकार में प्रकाशित हो रहा है। अब मैं पहली बार देख सकता हूं
कि पदार्थ और मन एक ही हैं, कि बाहर और अंदर एक ही हैं,
कि शरीर और आत्मा भी एक ही हैं। यह संसार दूसरा संसार भी एक है कि ‘यह’ में ‘वह’ भी समाया है। सरहा कहता हैं—जब से यह प्रकाश मुझे
घटा है, अब वहां कोई भी समस्या नहीं रह गई है। जो कुछ भी है
वह अच्छा ही है।’
अध्यात्म के अनजाने अंधकार में जा एक दीपक
के समान प्रकाशित है,
वह मन के सारे अंधकार और धूमिलता को दूर
करता है।
बुद्धि का एक बम्ब की भांति विस्फोट होने से
जितनी टुकड़े,
इधर-उधर बिखर जाते हैं,
उनसे क्या प्राप्त होता है?
स्वयं कामना विहीन के होने की कौन कल्पना कर
सकता है?
अब मैं सत्य को प्रत्यक्ष रूप से देख सकता
हूं। अब और वहां कोई भी दमित मनोवेग नहीं है, मेरी
ऊर्जाएं एक प्रवाह में हैं। मैं अपने शरीर के विरूद्ध नहीं हूं, मैं अपने शरीर का शत्रु नहीं हूं, और मैं अपने शरीर
के साथ एक हूं। अब विभाजन गिर गया है। मेरी इन्द्रियां खुली हुई ग्राह्णशील हैं और
उत्तम ढंग से कार्य कर रही हैं। मेरा मन शांत है, वहां कोई
भी आवेशमय विचार नहीं है। जब मुझे आवश्यकता होती है, मैं
सोचता हूं, जब मुझे आवश्यकता नहीं होती, मैं नहीं सोचता। मैं अपने घर का मालिक हूं। मेरे अंदर एक प्रकाश का जन्म
हुआ है और उस प्रकाश के साथ सारा अंधकार और धूमिलता विलुप्त हो गई है। अब कोई भी
चीज़ मुझे बाधा नहीं पहुंचाती, मेरी अंतदृष्टि सम्पूर्ण है।
मेरे चारों और जो दीवार थी, वह अब विलुप्त हो गई है।
वह दीवार तीन चीज़ों से बनी हुई थी: शरीर
में दमित मनोग्रंथियां, इन्द्रियों पर जमी धूल और
मन में विचारों का शोर। ये तीन तरह की ईंटें है, जिनसे
तुम्हारे चारों और चीन की दीवार बनी हुई है। इन ईंटों को हटा दो और दीवार विलुप्त
हो जाती है। और जब दीवार हट जाती है, तुम उस एक को जान पाते
हो।
बुद्धि का एक बम्ब की भांति विस्फोट होने से
जितनी टुकड़े,
इधर-उधर बिखर जाते हैं,
उनसे क्या प्राप्त होता है?
स्वयं कामना विहीन के होने की कौन कल्पना कर
सकता है?
और श्रीमान! आप मुझसे यह पूछने आये हैं कि
मेरा अनुभव क्या है? इसकी कल्पना तक कर पाना
आपके लिए कठिन है। मेरे लिए भी इसको बताना कठिन है और आपके लिए भी इसे समझना कठिन
है, लेकिन मैं आपको वह मार्ग दिखा सकता हूं, जिससे आप भी उसका अनुभव कर सकें—केवल इसका ‘वह’ ही मार्ग है। जब आप उसका स्वाद लेंगे केवल तभी
आप जानेगें।
वहां कुछ भी न तो तिरस्कार करने जैसा है
और न कुछ भी स्वीकार करने अथवा पकड़ने जैसा
है
और उसके लिए कभी सोचा भी नहीं जा सकता
बेड़ियां या श्रृंखलाएं मन का ही भ्रम हैं,
और बुद्धि का विस्फोट होने से मन खण्ड-खण्ड
हो जाता है।
और वह अविभाजित विशुद्ध स्वच्छन्द बना रहता
है।
सरहा कहता है—‘मैं
नहीं कह सकता कि ‘वह’ नहीं है, मैं यह भी नहीं कह सता कि ‘वह’ है। मैं उसका तिरस्कार नहीं कर सकता हूं, मैं उसे
स्वीकार भी नहीं कर सकता। मैं ‘न’ का
प्रयोग नहीं कर सता, मैं ‘हां’ का भी प्रयोग नहीं कर सकता, क्योंकि दोनों में कमी
बनी रहती है।’ वह दोनों की अपेक्षा कहीं अधिक बड़ा है,
उसमें दोनों ही शामिल हैं, और फिर भी वह उससे
अधिक है, वह दोनों के पार है। वे लोग जो कहते हैं—परमात्मा है व नीचे घसीट कर परमात्मा की प्रतिष्ठा कम कर देते है। वे लोग
जो कहते हैं—परमात्मा नहीं है, वे
निश्चित रूप से उसे बिलकुल भी नहीं समझते है। वे दोनों समान हैं; एक तिरस्कार करता है और एक स्वीकार करता है।
विद्यायक और नकारात्मक उसी मन के उसी सोचने
वाले मन के ही अंश हैं। ‘हां’, और
‘न’ दोनों ही भाषा और विचारों के भाग
है। सरहा कहता है—‘मैं यह नहीं कह सकता कि परमात्मा है और
मैं यह भी नहीं कह सकता की परमात्मा नहीं है। मैं तुम्हें केवल मार्ग दिखा सकता
हूं, जहां ‘वह’ है,
ये ‘वह’ क्या है?
और वह कैसा है? तुम इसे स्वयं ही अनुभव कर
सकते हो। तुम स्वयं अपनी आंखें खोज सकते हो और उसे देख सकते हो।’
एक बार ऐसा हुआ कि एक अंधा व्यक्ति बुद्ध के
पास लाया गया। और वह अंधा व्यक्ति कोई सामान्य अंधा व्यक्ति नहीं था,
वह बहुत बड़ा विद्वान और सिद्धान्तवादी होने के साथ तर्क वितर्क
करने में बहुत कुशल था। उसने बुद्ध के साथ तर्क वितर्क करना प्रारम्भ करते हुए कहा—‘लोग कहते है कि प्रश्न का अस्तित्व है और मैं कहता हूं—नहीं है। वे लोग कहते है कि मैं अंधा हूं और मैं कहता हूं कि वे लोग सभी
भ्रमित हैं। यदि प्रकाश कहीं अस्तित्व में होता तो श्रीमान मुझे भी उपलब्ध कराइये।
जिससे मैं उसका स्पर्श कर सकूं। यदि मैं उसका स्पर्श कर सकता हूं अथवा कम से कम
यदि मैं उसका स्वाद ले सकता हूं, अथवा उसे सूंघ सकता हूं
अथवा यदि आप प्रकाश को एक गीत की तरह से पढ़े, जिससे मैं उसे
सुन तो कम से कम सकता हूं, यह मेरी चार इन्द्रियां हैं और
पांचवी इन्द्रिया जिसके बारे में लोग बात करते हैं वह केवल एक कल्पना है। लोग
भ्रमित हैं, किसी भी व्यक्ति के पास आंखें नहीं हैं।’
इस व्यक्ति को कायल करना बहुत कठिन था कि
प्रकाश का अस्तित्व है, लेकिन प्रकाश का स्पर्श
नहीं किया जा सकता, उसके स्वाद को नहीं लिया जा सकता,
उसे सूंघा नहीं जा सकता, और न ही उसे सुना जा
सकता है। और यह व्यक्ति कह रहा है कि दूसरे लोग भ्रमित थे, और
उसके पास आंखें नहीं हैं। वह एक अंधा व्यक्ति था लेकिन बहुत बड़ा तर्क शास्त्री
था। उसने कहा—‘सिद्ध करो कि उनके पास आंखें हैं, तुम्हारे पास इसका प्रमाण क्या है?’
बुद्ध ने कहा—‘मैं
कुछ भी नहीं कहूंगा, लेकिन मैं एक वैद्य को जानता हूं और मैं
तुम्हें उस वैद्य के पास भेजूंगा। मैं जानता हूं वह तुम्हारी आंखों का उपचार करने
में समर्थ हो सकेगा।’
लेकिन उस व्यक्ति ने आग्रह किया—‘मैं तो इस बारे में तर्क करने के लिए आया हूं।’
और बुद्ध ने कहा—‘यही मेरा तर्क है कि वैद्य के पास जाओ।’
उस व्यक्ति को वैद्यराज के पास भेजा गया
उसकी आंखों का उपचार किया गया और छ: माह बाद वह देखने में समर्थ हो गया। वह
विश्वास ही नहीं कर सकता, वह अति आनंदित था, वह नाचता हुआ बुद्ध के पास आया। वह खुशी से पागल हो रहा था। वह बुद्ध के
चरणों में गिर पड़ा और कहा—‘आपके तर्क ने ही कार्य किया।’
बुद्ध ने कहा—‘सुना,
वह कोई तर्क नहीं था। यदि मैंने तर्क किया होता तो मैं असफल होता,
क्योंकि वहां कुछ चीजें ऐसी होती हैं, जिनके
बारे में तर्क नहीं किया जा सकता। लेकिन उनका अनुभव किया जा सकता है।’
परमात्मा एक तर्क नहीं है,
वह तर्क के पार का एक निरूपित निष्कर्ष है। निर्वाण एक तर्क नहीं है,
वह एक निष्कर्ष भी नहीं है। वह एक अनुभव है। जब तक तुम उसका अनुभव न
कर लो, उसे समझने का वहां अन्य कोई भी उपाय नहीं है कि वह
क्या है। यदि तुम उसका अनुभव नहीं करते हो, तो वह केवल
व्यर्थ और अर्थहीन है।
वहां कुछ भी न तो तिरस्कार करने जैसा है
और न कुछ भी स्वीकार करने अथवा पकड़ने जैसा
है
और उसके लिए कभी सोचा भी नहीं जा सकता
बेड़ियां या श्रृंखलाएं मन का ही भ्रम हैं,…..
वास्तव में वहां पकड़ने जैसा कुछ भी नहीं है
और न कोई व्यक्ति उसे पकड़ने वाला है, न कुछ भी
सोचने जैसा है, और न कोई व्यक्ति वहां विचार करने वाला है।
विषय वस्तु और वैयक्तिकता उसमें दोनों लुप्त हो जाते हैं। ज्ञान और ज्ञान दोनों
उसमें विलुप्त हो जाते हैं। तब उस पूर्ण का इस एक का ‘वह’
का अनुभव होता है।
बेड़ियां या श्रृंखलाएं मन का ही भ्रम हैं,
और बुद्धि का विस्फोट होने से मन खण्ड-खण्ड
हो जाता है।
और वह अविभाजित विशुद्ध स्वच्छन्द बना रहता
है।
सरहा राजा से कह रहा है—‘श्रीमान! लोग सत्य के बारे में पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं। सत्य के बारे
में उनके पास अपने विचार है और सत्य कोई विचार नहीं है। वह एक सिद्धांत भी नहीं है,
वह एक कलपना भी नहीं है। वह सत्य का स्वाद है, वह समग्रता के साथ एक उत्तेजना पूर्ण अनुभव है।’
लोग अपने मन के कारण ही बेड़ियों में जकड़े
हैं। उनके पास विशिष्ट विचार, दृष्टिकोण, और जड़ तत्वज्ञान है।, वे उस तत्वज्ञान के द्वारा
देखते हैं। यहीं कारण है कि वे कहते हैं कि सरहा पागल हो गया है। उनके पास एक
विशिष्ट विचार है कि स्थिर बुद्धि कैसे होनी चाहिए कि स्थिर बुद्ध क्या होनी
चाहिए। इसी कारण वे सोचते हैं कि सरहा पागल हो गया है: वे एक विशिष्ट पक्षपात
पूर्ण धारणा के द्वारा देख रहे हैं।
...और ‘वह’
अविभाजित और विशुद्ध, स्वच्छन्द बना रहता है।
लेकिन स्वच्छन्दता अविभाजित और विशुद्ध है,
वह मौलिक निर्दोषता है। सरहा कहता है—‘मेरी और
देखो। मेरी स्वच्छन्दता की और देखो। इस बारे में मत सोचो कि लोग क्या कहते हैं,
किन्हीं विशिष्ट अच्छी और बुरी, सदाचार और पाप
ठीक और गलत की विशिष्ट पक्षपात पूर्ण धारणा के द्वारा विचार मत करो। केवल मेरी और
देखो। मैं यहां हूं। ‘वह’ यहां है।
अपनी गहन अनुभव की उपस्थिति के साथ मैं यहां उपलब्ध हूं।’
यदि तुम स्वच्छन्दता,
निर्दोषता, विशुद्धता का अनुभव कर सकते हो तो
केवल वहीं तुम्हें तंत्र की यात्रा पर अपने अंदर जाने में सहायता करेगा।
यदि तुम किसी बात को सत्य की भांति स्वीकार
करने के साथ
अनेक और एक के तथा अंतिम सत्य के बारे में
प्रश्न करते हो
तो उस ऐक्य को नहीं सौंपा जा सकता,
और बटोरे गये ज्ञान का
अतिक्रमण करने से,
संवेदनशील प्राणी मुक्त होते हैं।
जो ध्यान करने में दिखाई देती है और अटल विशुद्ध
चित ही
हमारी सच्ची और सहज प्रवृति है।
यदि तुम किसी बात को सत्य की भांति स्वीकार
करने के साथ
अनेक और एक के तथा अंतिम सत्य के बारे में
प्रश्न करते हो....
यदि तुम प्रश्न करते हो,
तो तुम चूक जाते हो। वास्तविक को एक प्रश्न में नहीं बदला जा सकता
है। एक प्रश्न वह होता है, जिसका उत्तर दिया जा सकता है। एक
खोज व प्यास वह होती है, जिसका केवल अनुभव किया जा सकता है।
केवल जब तुम पहुंचते हो, क्या तुम सचमुच पहुंचते हो, इस बारे में कोई दूसरा उपाय नहीं है। वहां कोई भी उधार लिया हुआ मार्ग
नहीं है। सभी बटोरा गया ज्ञान, उधार ज्ञान है।
इसीलिए सरहा कहता है—‘कि बटोरे गये उधार ज्ञान को अतिक्रमण करने से ही संवेदनशील प्राणी मुक्त
होते हैं। प्रत्येक को उधार ज्ञान से मुक्त होना है।’
ज्ञान तुम्हें मुक्त नहीं करता है,
यह सबसे अधिक गहनतम और सूक्ष्म बंधन हे। इस ज्ञान के द्वारा तुम
सत्य को उपलब्ध नहीं होते हो। सारे ज्ञान को छोड़ दो। सारे बटोरे गये ज्ञान को
छोड़ देने से जानना शुद्ध हो जाता है। तब तुम फिर और बादलों से घिरे हुए नहीं रहते
हो। किसी भी उधार ज्ञान को न जानने से तुम्हारी विशुद्धता अखण्ड बनी रहती है;
तब तुम्हारे दर्पण पर कोई भी धूल नहीं होती। तब तुम प्रतिबिम्बित
होने लगते हो। तब सत्य जैसा वह है, प्रतिबिम्बित होते हो।
उधार ज्ञान के साथ कभी आगे मत बढ़ो, अन्यथा तुम गतिशील होते
ही नहीं हो। कभी भी उधार अनुभवों पर विश्वास मत करो।
बुद्ध को कुछ घटा,
लेकिन वह तुम्हारा अनुभव नहीं हे। कुछ चीज़ क्राइस्ट को घटी,
लेकिन वह तुम्हारा अनुभव नहीं हे। जो कुछ मैं कहता हूं, यदि तुम उसका संग्रह करते हो तो वह उधार ज्ञान बन जायेगा। जो कुछ मैं कहता
हूं यदि वह तुम खोज पर ले जाता है, तो वह जानना बन जायेगा। अपनी
स्मृति में उसका संग्रह मत करो। स्मृति में एकत्रित किया गया ज्ञान केवल तुम्हें
बोझिल बनाता है, और वह मुक्ति नहीं है।
.... उधार ज्ञान का अतिक्रमण
करने के द्वारा संवेदनशील प्राणी मुक्त होते हैं।
प्रज्ञा में प्रेम और आनंद की दीप्तिवान
दृष्टि ही वह छिपी हुई शक्ति हैं.....
और तुम्हारे पास वह शक्ति है,
जिसकी खिलावट निर्वाण में हो सकती है, जो
बुद्धत्व बन सकती है। प्रत्येक बुद्धिमत्ता और समझ और कुछ भी नहीं है, बल्कि वह उसके पीछे छिपी हुई प्रज्ञा है। यदि तुम अपनी बुद्धि पर बहुत
अधिक विश्वास करते हो तो तुम अपनी प्रज्ञा से चूक जाओगे। अब इन दो शब्दों को ठीक
से समझना है। वे समान मूल से आते हैं, लेकिन उसके अर्थ एक दम
भिन्न है। यदि कोई जरूरी नहीं है कि एक विद्वान व्यक्ति को प्रज्ञावान होना ही है।
यह भी जरूरी नहीं है कि एक प्रज्ञावान व्यक्ति को विद्वान होना ही है। तुम ऐसे
अशिक्षित और अज्ञानी व्यक्ति खोज सकते हों जो अत्यधिक प्रज्ञावान और बुद्धिमान
हैं।
क्राइस्ट एक विद्वान व्यक्ति नहीं हैं। कबीर
भी ज्ञानी नहीं हैं। मीरा ज्ञानी नहीं है, लेकिन ये
अत्यधिक प्रज्ञावान लोग है। बुद्धिमत्ता या प्रज्ञा के लिए ज्ञान एक झूठा प्रतिरूप
है। ज्ञान उधार ली हुई चीज़ है, और प्रज्ञा या बुद्धिमानी
तुम्हारी अपनी चीज़ है। बुद्धिमत्ता या प्रज्ञा तुम्हारी विशुद्ध देखने की क्षमता
है। प्रज्ञा तुम्हारी समझ की निर्दोष क्षमता है। विद्वता, बटोरा
गया उधार ज्ञान है। ज्ञान एक जाली और नकली सिक्का है।
तुम प्रत्येक स्थान से सूचनाएं एकत्रित करते
हो,
तुम बहुत अधिक ज्ञान बटोरते हो और तुम ज्ञानी बन जाते हो। लेकिन
तुम्हारी बुद्धि विकसित नहीं होती, तुम्हारी बुद्धि का
वास्तव में विस्फोट नहीं होता। वास्तव में इस बौद्धिक-प्रयास के कारण तुम्हारी
बुद्धि एक बोझ बन जाएगी। ज्ञान एक धूल की भांति दर्पण पर इकट्ठा हो जायेगा। ज्ञान
ही वह धूल है, बुद्धिमत्ता अर्थात प्रज्ञा दर्पण को
प्रतिबिम्बित करने वाली विशुद्ध गुणात्मकता है।
सरहा कहता है—‘प्रज्ञा
में प्रेम और आनंद की दीप्तिवान दृष्टि ही वह छिपी हुई शक्ति.... प्रत्येक बुद्धि
में वहां संभावित छिपी हुई प्रज्ञा होती है, और उधार ज्ञान
के साथ उसे बोझिल मत बनाओ...और ऐसा ध्यान करने में दिखाई देता है....’ यदि तुम उसे ज्ञान के साथ एक बोझ नहीं बनाते हो तो तुम्हारी बुद्धिमत्ता
या प्रज्ञा तुम्हारा ध्यान बन जाती है। ध्यान की एक महत्वपूर्ण परिभाषा है:
प्रज्ञा ही ध्यान है। बुद्धिमत्तापूर्ण जीना, ध्यान पूर्ण
होकर जीना है। यह परिभाषा अत्यधिक अर्थपूर्ण है। यह वास्तव में एक महान अर्थ के
साथ परिपूर्ण है। और ध्यान क्या है, बुद्धिमत्ता पूर्ण ढंग
से जीना ही ध्यान है। उस तरह से ध्यान नहीं किया जा सकता। तुम्हें अपने जीवन में
बुद्धिमत्ता लाना ही है।
तुम कल क्रोधित थे,
तुम परसों भी क्रोधित थे। अब फिर वैसी स्थिति आ गई है और तुम
क्रोधित होने जा रहे हो—आखिर तुम क्या करने जा रहे हो?
क्या तुम एक मूर्खतापूर्ण ढंग से यंत्रवत दोहराने जा रहे हो,
अथवा तुम उसमें बुद्धि को लगाओगे? तुम
अनेकानेक बार क्रोधित हुए हो, क्या तुम इससे कुछ चीज सीख
सकते हो? क्या अब तुम बुद्धिमानी से व्यवहार नहीं कर सकते हो?
क्या तुम इसकी व्यर्थता नहीं देखते? क्या तुम
यह नहीं देखते कि प्रत्येक बार तुम इससे अवसाद ग्रस्त हुए हो? प्रत्येक बार क्रोध ने तुम्हारे ऊर्जा को बर्बाद किया है, तुम्हारी ऊर्जा को विचलित कर तुम्हारे लिए कई समस्याएं उत्पन्न की हैं और
कोई भी चीज़ हल नहीं हुई है।
यदि तुम इसे देख सकते हो तो प्रामाणिक रूप
से देखना ही बुद्धिमानी है। तब कोई व्यक्ति तुम्हारा अपमान करता है और वहां कोई भी
क्रोध नहीं आता। वास्तव में वस्तुतः: क्रोध की अपेक्षा उस व्यक्ति के लिए करूणा
होती है। वह क्रोध में है, वह आहत है वह कष्ट भुगत रहा
है। इससे करूणा का जन्म होगा। अब यह बुद्धिमत्ता ही ध्यान है: किसी व्यक्ति के
जीवन में देखना, अनुभव से सीखना आस्तित्वगत अनुभव से सीखना,
किसी से कुछ भी उधार न लेकर सीखते ही चले जाना ही ध्यान है।
बुद्ध कहते हैं क्रोध करना बुरा है। अब इस
अंतर को देखो: यदि तुम एक बौद्ध हो तो तुम इस पर विश्वास करोगे। बुद्ध कहते हैं
क्रोध करना बुरा है इसलिए क्रोध को बुरा होना ही चाहिए;
बुद्ध गलत कैसे हो सकते है? अब जब कभी भी
क्रोध उत्पन्न होता है तो उसका दमन करोगे, क्योंकि बुद्ध
कहते हैं कि क्रोध करना गलत है। यह कार्य ज्ञान के द्वारा हो रहा है, यह अनुसरण करने वाली बुद्धि के द्वारा हो रहा है। लेकिन यह कैसी मूर्खता
है? तुम इतनी अधिक बार क्रोधित हुए हो, तो क्या कभी बुद्ध से पूछने की जरूरत हुई कि क्या क्रोध करना गलत है?
क्या तुम स्वयं अपने अनुभवों से नहीं समझ सकते हो?
यदि तुम अपने अनुभवों में झांक कर देखते हो,
तभी तुम जानते हाँ कि क्रोध क्या होता है, और
उसे अपने अंदर देखकर तुम क्रोध से मुक्त हो जाते हो। यह बुद्धिमत्ता है। अपनी
बुद्धिमत्ता अथवा प्रज्ञा के कारण तुम बुद्ध के एक साक्षी बनोगें और तुम कहोगे—‘हां, बुद्ध ठीक हैं। मेरे अनुभव से भी यह सिद्ध होता
है।’ अन्यथा नहीं। नहीं, बुद्ध ठीक हैं,
इसलिए मुझे उसका अनुभव करना है—‘यह मूर्खता
है। लेकिन वस्तुतः: यदि मैं अपने अनुभव के कारण बुद्ध का साक्षी बनता हूं, तब मैं कह सकता हूं—‘हां, यह
ठीक हैं, क्योंकि यह मेरा भी अनुभव है। लेकिन वह दूसरे क्रम
का है; मेरा अनुभव ही प्रथम होता है, वह
प्राथमिक है। मैं उनका अनुसरणकर्ता नहीं, एक साक्षी हूं।’
यहां, तुम जो भी
मेरे संन्यासी हो, कृपया मेरा अनुसरण कर्त्ता न बनकर मेरा
साक्षी बनना। मैं जो कुछ कहा रहा हूं उसे तुम अपने अनुभव के द्वारा सिद्ध होने दो।
तभी तुम मेरे साथ रहे हो और तभी तुम मेरे साथ रहे हो और तभी तुमने मुझसे प्रेम
किया है। तब तुम मेरे साथ जाये हो। जो कुछ मैं कह रहा हूं यदि तुम उसे संग्रहीत
करते हो, और तुम उस बारे में बहुत बड़े सिद्धांत शास्त्री बन
जाते हो। तुम उस बारे में दार्शनिकता सीखते हो, तब तुम मुझसे
चूक जाते हो। तब तुम विद्वान बनोगे एक बुद्धिवादी बनोगे। और जहां तक बुद्धिमत्ता
का संबंध है, विद्वान बनना आत्मघात करना है।
बुद्धिमान अथवा प्रज्ञावान बनना ध्यानपूर्ण
बनना है,
हां, यह ध्यान की महानतम परिभाषाओं में से एक
है। मैं इससे होकर गुज़रा हूं, और मैं इसका साक्षी भी रहा
हूं। यह वह मार्ग है जिससे कोई भी आध्यात्मिकता रूप से विकसित होती है।
शुद्ध बुद्धि में प्रेम और आनंद की दीप्तिवान
दृष्टि ही वह छिपी हुई शक्ति होती है,
जो ध्यान करने में दिखाई देती है और अटल
विशुद्ध चित ही हमारी सच्ची और सहज प्रवृति है.... और तुम जितने अधिक प्रज्ञावान
बनते हो तुम उतना ही अधिक यह पाओगे कि तुम्हारा चित अब और वही पुराना मन नहीं रहा।
तंत्र मन के साथ दो अर्थों का प्रयोग करता
है;
छोटे एम के साथ लिखा जाने वाला माईंड वहीं तुम्हारा मन है। और बड़े
अक्षर में एम के साथ लिखे जाने वाले माइन्ड सारभूत यह विशुद्ध मन अथवा बुद्ध का मन
है।
अंग्रेजी के छोटे अक्षर एम से लिखे जाने मन,
ज्ञान की सीमाओं और पूर्वाग्रहों से घिरा होता है। इसी मन को हम
हिन्दू मन, मुस्लिम मन, यहूदी मन या
ईसाई मन कहकर पुकारते हैं। यह छोटा और बौना मन कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में
विकसित होता है, यह छोटे मन का कार्यक्रम प्रारम्भ से ही
समाज के द्वारा निर्धारित कर दिया जाता है—ऐसे मन को तंत्र
छोटा मन कहकर पुकारता है।
जब ये सीमाएं तोड़ दी जाती है,
जब धुंधलापन और अस्पष्टता दूर हो जाती है, तब
तुम ‘बड़ा मन’(विशुद्ध चित) प्राप्त
करते हो अंग्रेजी के बड़े अक्षर एम से लिखा जाने वाला मन ‘बुद्ध
का विशुद्ध चित है’, होता है। यह स्वयं ब्रह्माण्ड जैसा ही
विराट होता है। यह विश्वजनीन होता है।
अटल और विशुद्ध चित्त ही हमारी सच्ची और सहज
प्रवृति है। और यही वह मन है जो हमारा सच्चा और सारभूत चित है। इसे ‘परमात्मा’ कहां, इसे ‘निर्वाण’ कहो, अथवा जो भी तुम
कहना चाहो, कहो, लेकिन यह ही हमारा
सारभूत तत्व है। परिपूर्ण विश्राम की स्थिति तक आना, अटन और
अडोल होकर शाश्वत तक की स्थिति तक आना जहां समय विलुप्त हो जाता है, जहां सारे विभाजन मिट जोते हैं, जहां विषय वस्तु और
वैयक्तिकता भी अधिक नहीं रहती, जहां ज्ञाता और ज्ञेय भी नहीं
रहते, जहां केवल चेतना—तीसरी चेतना
होती है।
ये सूत्र केवल कण्ठस्थ नहीं करना है अन्यथा
तुम सरहा को और साथ में मुझे भी धोखा दोगे। इन सूत्रों के ऊपर बस ध्यान करना है
भूल जाना है। तब इन सूत्रों पर ध्यान करने से जो कुछ भी शुद्ध प्रति क्षण इस
बुद्धिमत्ता को बहुत अधिक अनुभवों के विरूद्ध बार-बार तीक्षण और धारदार बनाये जाओ।
और वह शुद्ध बुद्धि या बुद्धिमत्ता ही
भगवत्ता का द्वार बन जायेगी। बुद्धिमत्ता ही द्वार है।
आज बस इतना ही।
thank you guruji
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