तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)
प्रवचन-छठवां-(मैं
अकेला हूं)
दिनांक 06 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।
पहला प्रश्न :
प्यारे ओशो! जब आप
मुझसे बोलते हैं तो मेरी आवाज़ को न जाने क्या हो जाता है?
यह खेल आखिर क्या है?
जब तुम वास्तव में मेरे साथ संवाद में होते हो तो तुम बोल नहीं सकते। जब तुम वास्तव में मुझे सुन रहे हो, तो तुम अपनी आवाज़ खो दोगे, क्योंकि उस क्षण में मैं तुम्हारी आवाज़ होता हूं। जो अंतर्तम संवाद मेरे और तुम्हारे मध्य होता है, वह दो व्यक्तियों के मध्य नहीं होता है। वह कोई तर्क-वितर्क नहीं हे, वह एक संवाद भी नहीं है। अंर्तसंवाद केवल तभी घटता है, जब तुम खो जाते हो, जब तुम वहां नहीं होते हो। सर्वोच्च शिखर पर यह ‘मैं-तू’ का भी संबंध नहीं होता। यह किसी भी प्रकार से कोई संबंध होता ही नहीं मैं नहीं हूं, और तुम्हारे लिए भी एक क्षण ऐसा आता है, जब तुम नहीं होते हो। उस क्षण में दो शून्यता एक दूसरे में लुप्त हो जाती हैं।
यही कारण हैं,
जब कभी तुम मेरे पास आते हो, तुम अपनी आवाज़
खो देते हो। और यह केवल तुम्हारे साथ ही नहीं होता है, या हो
रहा है, यह उन सभी लोगों के साथ हो रहा है जो वास्तव में
मेरे निकट आ रहे हैं। तुम मेरे निकट आकर कैसे अपनी आवाज को बचा सकते हो? तुम मेरे निकट आकार फिर भी कैसे स्वयं में बने रह सकते हो? तुम्हारा स्वर तुम्हारी ही आवाज़ है। जब ‘तुम’
विलुप्त होना प्रारम्भ होता है, तो स्वाभाविक
रूप से स्वर भी विलुप्त होने लगता है।
दूसरी बात यह कि
वहां कहने को कुछ भी नहीं है। जब तुम मेरे प्रेम में हो तो तुम जानते हो कि यदि
वहां कुछ चीज कहने के लिए है, तो मैं उसे जान लूंगा।
और यदि मैं उसे नहीं जानता हूं, तो वह बात कहने योग्य नहीं
है, तब वह आवश्यकता नहीं हैं, तब उसे
कुछ असंगत होना ही चाहिए और वे विचार आवारा होने चाहिए। उनका उच्चारण करना भी
जरूरी नहीं है और वह ऊर्जा का व्यर्थ अपव्यय होगा।
मन सभी स्रोतों से,
हर कहीं से अनेक विचार पकड़े चला जाता है। तुम्हारे विचार भी
तुम्हारे नहीं है, विचार एक खोपड़ी से दूसरी खोपड़ी में कूदे
चले जाते है। बिना बात किये और बिना संप्रेषित किये भी विचार निरंतर एक सिर से
दूसरे सिर में छलांग लगाये जाते हैं। तुम उनको पकड़ कर रखते हो, तो एक क्षण के लिए तुम एक विचार से आवेशित हो जाते हो और तुम सोचते हो कि
यह जरूर कोई सारभूत चीज़ है। जब तुम मेरे पास आते हो तो अचानक वे विचार जिन्हें
तुमने दूसरों से पकड़ा था, विलुप्त हो जाते हैं।
ऐसा बहुत से
संन्यासियों के साथ होता है। वे बहुत से प्रश्नों के साथ तैयार होकर आते हैं,
और तब ठीक मेरे सामने बैठ कर वे किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाते है। और
वे प्रश्न विलुप्त हो जाते है। यह महत्वपूर्ण है, यह बहुत
अर्थ पूर्ण है। यह प्रदर्शित करता है कि वे प्रश्न तुम्हारे नहीं थे, सचमुच वे तुम्हारे नहीं थे। जब तुम मेरे सामने होते हो—वास्तव में मेरे सामने जब तुम मेरी और देख रहे होते हो, तो केवल जो सारभूत है; वही बचा रहेगा और अनावश्यक
चला जायेगा। न केवल तुम अपनी आवाज़ खो देते हो कभी-कभी तुम्हारे सभी विचार भी
विलुप्त हो सकते हैं और तुम अपना मन भी खो देते हो। और एक सद्गुरू के चारों और बने
रहने का केवल यह ही एक मार्ग है। अपने मन को खोते चले जाओ। शिथिल होकर बिना किसी
तनाव के झूलते रहो। वहां कहने को कुछ भी नहीं है। वहां सुनने के लिए बहुत कुछ है
लेकिन वहां कहने को कुछ भी नहीं हैं।
और तब तीसरी बात यह,
कि तुम्हारे साथ प्रत्येक चीज बहुत अच्छी तरह से चलती चली जा रही
है। हम केवल उन्हीं चीजों के बारे में कहते हैं जो भली भांति नहीं चल रही होती
हैं। मैंने सुना है......
एक मां ने अपने
पाँच वर्ष के बच्चे के बारे में कई डाक्टरों से यह शिकायत की कि वह बोलता ही नहीं
है। परीक्षाओं में इस तथ्य को स्वीकारा कि वह एक योग्य और स्वस्थ बच्चा था और उसकी
मां से कहा गया कि वह फिक्र न करें लेकिन वह चिंतित रहती थी। एक दिन जल्द बाजी में
उसके लिए खाने की कोई डिश पकाते हुए वह थोड़ा सा जल गई;
लेकिन उसने किसी तरह से उसे परोस ही दिया बच्चे ने उसे चखा और उसे
थूकते हुए कहा—‘माई गाड, यह तो बहुत
वाहियात चीज है। अपने निश्चित रूप से जला दिया।’
प्रसन्न होकर मां
ने कहा—‘तू तो बात कर रहा है। इससे पहले तूने कभी भी क्यों कुछ नहीं कहा?’
उसने उसकी और कुछ
धृष्टता से देखते हुए कहा—‘अभी तक प्रत्येक चीज़
बिलकुल ठीक ठाक होती थी, इसलिए....’
और तुम्हारे लिए
अभी तक प्रत्येक चीज़ ठीक-ठाक हो रही है। तुम्हारे पास कहने के लिए कुछ भी नहीं।
दूसरा प्रश्न:
प्यारे ओशो! अभी
हाल ही में फ्रेंकफुर्ट के कला संग्रहालय में मैंने जैसे ही उसके एक कक्ष में
प्रवेश किया, वहां बुद्ध की तराशी हुई
मूर्तियों के अतिरिक्त और भी नहीं था। पत्थर की मूर्तियों में पूर्ण रूप से मैं
कोई भी आस्था नहीं रखता, लेकिन मैं आश्चर्यचकित रह गया जब
मैंने उस कक्ष में एक शक्तिशाली ऊर्जा के प्रवाह का अनुभव किया। वह उसी के समान था
जो मैं यहां आपको सुनते हुए अनुभव करता हूं। क्या मैं किसी चीज़ की कुछ कल्पना कर
रहा था? तो जो मैं यहां आपके साथ अनुभव करता हूं तो मैं उस
पर कैसे विश्वास कर सकता हूं?
पहली चीज़ तो यह
समझ लेने की है कि तुम्हारे यह जानकर आश्चर्य होगा कि बुद्ध की मूर्तियों का गौतम
बुद्ध के साथ कुछ भी लेना देना नहीं है। वे सभी नकली हैं। वे बुद्ध की आकृति के
सदृश्य ज़रा भी नहीं है, लेकिन उनके पास कुछ ऐसी
चीज़ है, जिसका गौतम बुद्ध नाम के व्यक्ति के साथ नहीं पर
बुद्धत्व के साथ कुछ करने का है।
तुम जैन मंदिरों के
अंदर जा सकते हो, और तुम वहां जैन धर्म के
चौबीसों संस्थापक तीर्थ कर की मूर्तियां देखोगे और उनके मध्य कोई भी अंतर पाने में
असमर्थ हो जाओगे। वे सभी समान हैं। अंतर उत्पन्न करने के लिए और उन्हें जानने के
लिए कि कौन सी मूर्ति किसकी है, क्योंकि वे सभी एक जैसी है,
जैनों ने उनके नीचे छोटे से चिन्हों बनाया है। इसलिए यदि तीर्थ कर
का प्रतीक चिन्ह सिंह की आकृति तो ठीक उनकी मूर्ति के नीचे पैर पर छोटी से सिंह की
आकृति है। तब वे जान जाते है कि यह किसकी मूर्ति है। किसी का प्रतीक चिन्ह सूर्य
है, तब वे जान जाते हैं कि यह किसकी प्रतिमा है। यदि वे
प्रतीक चिन्ह छिपा दिये जायें तो एक जैन भी उनमें कोई विभाजन नहीं कर सकेगा। कि यह
किसकी मूर्ति है? महावीर की है? पार्श्व
नाथ की है? आदिनाथ की है? और तुम्हें
यह जानकर आश्चर्य होगा कि वे सभी ठीक बुद्ध की मूर्ति के समान है—उनमें कोई भी अंतर नहीं है।
जब पश्चिम पहली बार
महावीर से परिचित हुआ तो उन्होंने सोचा कि यह और कुछ भी न होकर बुद्ध जैसी ही समान
कहानी है क्योंकि मूर्ति ठीक वैसी ही थी। जीवन-दर्शन भी समान था,
समझ भी एक जैसी थी और सिखावन भी समान ही था। इसलिए उसे भी ठीक वैसी
ही चीज़ होनी चाहिए और वह बुद्ध कुछ भी भिन्न नहीं थे। उन्होंने सोचा कि बुद्ध के
लिए ही उनका दूसरा नाम महावीर है। और वास्तव में दोनों ही बुद्ध कहे जाते हैं।
क्योंकि बुद्ध का अर्थ है—जागा हुआ व्यक्ति। इसलिए बुद्ध को
तो बुद्ध कहा ही जाता था और महावीर को भी बुद्ध कहा जाता था। और दोनों कही जिन कहे
जाते थे—जिन का अर्थ है विजेता : एक व्यक्ति जिसने स्वयं पर
विजय प्राप्त कर ली है। बुद्ध को भी ‘जिन’ कहा जाता था और महावीर भी ‘जिन’ कहे जाते थे, इसलिए उन्होंने सोचा कि वे समान
व्यक्ति थे। और सबसे बड़ा प्रणाम मूर्तियां थी : वे पूर्ण रूप से एक जैसी दिखाई
देती थी। वे फोटो ग्राफिक नहीं है, वे एक व्यक्ति का वर्णन
नहीं करती, वे एक विशिष्ट चित की दशा का प्रतिनिधित्व करती
हैं। तुम्हें यह बात समझनी होगी, तभी चीजें स्पष्ट हो सकेगी।
भारत में तीन शब्द
बहुत महत्वपूर्ण है : पहला है तंत्र, जिसके बारे
में हम बातचीत कर रहे हैं; दुसरा है मंत्र और तीसरा है
यंत्र। तंत्र का अर्थ है—तुम्हारी चेतना के विस्तार के लिए
विधियां। मंत्र का अर्थ है—तुम्हें अपनी आंतरिक घ्वनि का,
अपनी आंतरिक लय का और आंतरिक तरंग की खोज करना। एक बार तुमने अपना
मंत्र खोज लिया, उससे अत्यधिक सहायता मिलती है : मंत्र के
केवल एक बार के उच्चारण से ही, तुम पूर्ण रूप से एक भिन्न
संसार में होते हो। वहीं कुंजी या द्वार बन जाता है, क्योंकि
मंत्र के एक बार के उच्चारण से ही तुम अपनी स्वाभाविक तरंग में जा गिरते हो। और
तीसरा है—यंत्र। ये मूर्तियां यंत्र हैं। यंत्र का अर्थ है—एक विशिष्ट आकृति जो तुम्हारे अंदर एक विशिष्ट भाव दश सृजित करती है। एक
विशिष्ट आकृति की और यदि तुम देखते रहते हो, तो तुम्हारे
अंदर एक विशिष्ट भाव-दशा उत्पन्न होना सुनिश्चित है।
क्या तुमने इसे
नहीं देखा है? पिकासो के चित्र की और देखते हुए तुम
थोड़ी सी बैचेनी का अनुभव करना शुरू कर दोगे। पिकासो के चित्र की और आधा घंटे तक
एकाग्रता से देखो और तुम बहुत व्यर्थ के पागलपन का अनुभव करने लगोगे। जैसे कुछ सनक
जैसी चीज़ उत्पन्न होती जा रही है। तुम पिकासो के चित्र की और आधा घंटा भी नहीं
देख सकते। यदि तुम पिकासो के चित्र को अपने शयन कक्ष में टांग दो, तो तुम्हें बुरे स्वप्न आने लगेंगे। तुम बहुत भयानक सपने देखने लगोगे,
तुम भूतों को घुमते देखोगे, तुम एडोल्फ हिटलर
द्वारा यातना देने जैसी चीजें देखोगे। अपने को युद्ध बंदी शिविर का शिकार बनने
जैसी चीज़ें देखोगे।
जब तुम किसी चीज़
की और देखते हो, तो वह आकृति केवल बाहर ही नहीं रहती,
जब तुम किसी चीज़ की और देखते हो तो वह आकृति तुम्हारे अंदर एक
विशिष्ट भाव स्थिति या दशा सृजित करती है। गुरूजियेफ इसे वस्तुनिष्ठ कला कहता करता
था। और तुम इसे जानते हो, आधुनिक पॉप संगीत सुनकर तुम्हारे
अंदर कुछ चीज़ घटती है, तुम अधिक कामुक होकर उत्तेजित हो
उठते हो। बाहर की घ्वनि के अतिरिक्त वहां और कुछ भी नहीं है, लेकिन वह ध्वनि अंदर आघात करती है। वह तुम्हारे अंदर कुछ चीज़ सृजित करती
है। शास्त्रीय संगीत को सुनते हुए तुम बहुत कम कामातुर और उत्तेजित होते हो।
वास्तव में महान शास्त्रीय संगीत के साथ तुम सेक्स को लगभग भूल जाते हो, तुम एक अद्भुत शांति और खामोशी में होते हो और तुम अपनी आत्मा के पूर्ण
रूप से एक भिन्न आयाम में होते हो। तुम एक अन्य तल पर होते हो।
एक बुद्ध की मूर्ति
की और देखना एक यंत्र पर होना है। मूर्ति की आकृति उस मूर्ति का रेखा गणित
तुम्हारे अंदर एक आकृति सृजित करती है। और अंदर की वह आकृति एक विशिष्ट तरंग सृजित
करती है। फ्रेंकफुर्ट के संग्रहालय में तुम्हारे साथ जो कुछ घटना घटी,
वह केवल एक कल्पना नहीं थी।
एक विशिष्ट योग
मुद्रा में शांत बैठे हुए एक बुद्ध की मूर्ति की और देखो : यदि तुम मूर्ति की और
देखते चले जाओ तो तुम अपने अंदर भी इसी तरह की कुछ चीज़ के घटने का अनुभव करोगे।
यदि तुम दस लोगों के समूह के साथ हो, जो उदास
हैं और तुम उनमें ग्यारहवें व्यक्ति हो तो तुम कितनी देर तक प्रसन्न रह सकते हो?
वे दस व्यक्ति एक यंत्र के समान कार्य करेंगे, वे उदासी का एक यंत्र बन जायेंगे और देर-सवेर तुम भी उदासी : के गर्त में
गिर ही जाओगे। यदि तुम उदास और दुखी हो, और तुम ऐसे लोगों के
साथ हो जो आपस में हास-परिहास कर रहे हैं तो तुम कैसे और कितनी देर तक उदास बने रह
सकते हो? वे हंसते हुए लोग तुम्हारे अंदर भी हास्य उत्पन्न
कर देंगे। वे तुम्हारा केंद्र बिंदु बदल देंगे, वे तुम्हारा ‘गेयर’ बदल देंगे और तुम एक भिन्न दिशा की और गतिशील
होने लगोगे। ऐसा जाने-अनजाने प्रति दिन होता है।
जब तुम पूर्ण
चन्द्र देखते हो, तो तुमको क्या होता है?
अथवा जब तुम हरे-भरे वृक्षों की और देखते हो और पक्षियों के गीत
सुनते हो, तो तुम्हें क्या होता है? जब
तुम एक जंगल में जाकर वहां हरियाली की और देखते हो, तो
तुम्हें क्या होता है? अंदर भी हरियाली जैसी कोई चीज़ घटने
लग जाती है। हरा रंग प्रकृति का रंग है, हरा रंग स्वच्छन्दता
का रंग है, हरा जीवन का रंग है और उसे तुम्हारे अंदर ताजगी
घटनी शुरू हो जाती है। बाहर का रंग अंदर भी कुछ चीज़ प्रतिबिम्बित करता है। अंदर
किसी चीज़ के साथ कम्पन उत्पन्न करता है। हरे वृक्ष को देखकर तुम कहीं अधिक जीवंत
हो जाते हो तुम कहीं अधिक युवा बन जाते हो।
जब तुम हिमालय में
जाते हो और पर्वतों को देखते हो जब हिम मंडित प्रहरी शिखर देखते हो,
कभी भी न पिघलते वाली शाश्वत बर्फ देखते हो, जब
तुम उस विशुद्ध हिम को देखते हो, जहां कभी किसी व्यक्ति के
कदम नहीं पड़े जो मनुष्य समाज और मनुष्य के स्पर्श से अनछुआ है, और जब तुम हिमालय के अप्रदूषित शिखर देखते हो तो क्वांरी बर्फ तुम्हारे
अंदर कुंवारपन जैसा कुछ चीज़ सृजित करती है। तुम्हारे अंदर एक सूक्ष्म शांति सी
घटती लगती है।
बाहरी केवल बाहरी
नहीं है और आंतरिक केवल आंतरिक नहीं है, वे दोनों
एक साथ जुड़े हुए है। इसलिए जो कुछ तुम देखते हो, उसके प्रति
सावधान रहो, जो कुछ तुम सुनते हो उसके प्रति सचेत रहो,
जो कुछ तुम पढ़ते हो, उसके प्रति सचेत रहो और
जहां तुम जाते हो उसके प्रति भी सचेत रहो क्योंकि वह सभी कुछ तुम्हें सृजित करता
है।
यही थी वह चीज जो
फ्रेंकफुर्ट में घटी थी। बुद्ध की मूर्ति और तुम्हारे चारों और अनेक मूर्तियों ने
एक सूक्ष्म रेखा गणित सृजित कर दिया था। तुम आश्चर्य करोगे—यही इसका मूल कारण था जिससे कि मूर्तियाँ बनाई गई और जैसा कि तुम सोचते हो
वे मात्र मूर्तियां नहीं हैं। ईसाई मुस्लिम और यहूदी विचार न संसार को बहुत गलत
धारणा दी है। ढाली गई अथवा तराशी गई प्रतिमाएं मात्र मूर्तियां ही नहीं हैं वे
बहुत वैज्ञानिक हैं। वे केवल पूजा करने की वस्तु नहीं हैं वे मन द्वारा अवशोषित
करने वाला रेखा गणित है। वे पूर्ण रूप से एक भिन्न रूप से एक भिन्न चीज़ है।
चीन में एक बौद्ध
मंदिर है,
जिसमें दस हजार बुद्ध की मूर्तियाँ हैं, तुम
जहां कहीं भी वहां देखों, तुम सभी जगह बुद्ध की समान
आकृतियां देखोगे। छत पर भी वे ही समान आकृतियां हैं, सभी और
वैसी ही आकृतियां हैं, दीवारों पर भी वैसी ही मूर्तियां है।
जरा सोचो, बुद्ध की दस हजार मूर्तियां तुम्हारे चारों और पद्मासन
की मुद्रा में बैठे हुए दस हजार बुद्ध, जो एक रेख गणित सृजित
करते हैं। हर कहीं से बुद्ध तुम्हारी चेतना पर सूक्ष्म आघात करते हैं, प्रत्येक कोने और कोण से वह तुम्हें घेरना शुरू कर देते हैं। तुम मिट जाते
हो, फिर तुम्हारा सामान्य रेखा गणित वहां और नहीं रह जाता,
और तुम्हारा सामान्य जीवन भी फिर वहां और नहीं रह जाता। कुछ क्षणों
के लिए तुम उच्च धरातल पर और उच्चता की और गतिशील हो जाते हो।
यहां (पूना आश्रम)
में भी वहीं सभी कुछ हो रहा हैं। मुझे सुनते हुए मेरी उपस्थिति के द्वारा,
मेरे शब्दों के द्वारा तुम्हारे चारों और नारंगी वस्त्र पहने इतने
अधिक लोगों के द्वारा और तुम्हारे व्यवहार के द्वारा कुछ चीज़ सृजित हो रही है। यह
एक मंदिर है और वैसी ही स्थिति सृजित हो गई है। एक मंदिर एक स्थिति अथवा भाव दशा होती
हैं, यह केवल इतना भर नहीं है कि तुम व्याख्यान के एक हाल
में बैठे हो। इतने अधिक लोग इतने अधिक प्रेम और अहोभाव के साथ, इतनी अधिक शांति के साथ इतनी अधिक सहानुभूति के साथ और इतना अधिक सम्बंध
जोड़ते हुए सुन रहे हैं कि यह स्थान पावन बन गया है। यह स्थान एक तीर्थ बन गया है।
अलौकिक बन गया है। जब तुम इस स्थान के अंदर आते हो तो तुम जैसे एक लहर पर आरूढ़ हो
जाते हो और तुम्हें अधिक प्रयास करने की आवश्यकता नहीं होती। तुम सामान्य रूप से
उस होने की अनुमति दे सकते हो। तुम दूर उस दूसरे किनारे पर अलग ले जाये जा रहे हो।
तुम एक नाव में चढ़ चुके हो। इस स्थान मात्र में होने भर से।
एक वैवाहिक दलाल ने
यह सोचकर एक परिवार के साथ अपने पुत्र के लिए उपयुक्त और अच्छी लड़की लाकर दिखलाने
की व्यवस्था की। रात्रि भोज के बाद जब लड़की चली गई तो उस परिवार ने वैवाहिक दलाल
पर आक्रमण करना शुरू कर दिया और कहा—‘तुम किसी
तरह की लड़की दिखाने को ले आये? वह भयंकर आकार की राक्षसी
जैसी थी। एक आँख उसके माथे के मध्य में थी, बायां कान ऊपर की
और उठा हुआ था और दायां कान नीचे की और लटका हुआ था और ठोड़ी पीछे की और जा रही
थी।’
विवाह के दलाल ने
टोकते हुए कहा—‘देखिये! आप पिकासो को पसंद करते है अथवा
नहीं करते।’
आधुनिक चित्रकला
अस्तित्व में कुरूपता का प्रतिनिधित्व करती है। एक विशिष्ट कारण से कुरूपता ही
अधिक विशिष्ट बन गई है, पचास वर्षों के अंदर दो
विश्व युद्ध हुए, इसलिए यह सदी कुरूपत्म आदमियों में से एक
है, क्योंकि युद्ध में लाखों लोग मेरे, अथवा बर्बाद हो गये, इतनी अधिक आक्रामकता, इतनी अधिक निर्दयता इतनी अधिक हिंसा और इतना अधिक पागलपन। यह सदी एक दुख
स्वप्नों से भरी सदी है। मनुष्य ने मनुष्यता का रास्ता ही छोड़ दिया हे। मनुष्य,
मनुष्य के साथ क्या करता रहा है? स्वाभाविक है
कि इस पागलपन का प्रत्येक जगह विस्फोट हुआ है—इस कुरूप
मनुष्य के मन में चित्रकला, संगीत, स्थापित्व
एवं भवन निर्माण आदि प्रत्येक स्थान में इसी कुरूपता को सृजित किया है।
कुरूपता ही सौंदर्य
का निरूपण करती है। अब एक फोटोग्राफर जाता है और किसी कुरूप चीज़ को देखता है। ऐसा
नहीं है कि सौंदर्य का अस्तित्व में होना
रूक गया है, वह जितनी पहले अस्तित्व में थी, वह अब भी उतनी ही अस्तित्व में है, लेकिन अब वह
उपेक्षित है। गुलाब का स्थान कैक्टस ने ले
लिया हे। ऐसा नहीं है कि कैक्टस कुछ नई चीज़ है, वह हमेशा से
ही रहा है। लेकिन इस सदी ने यह जान लिया है कि एक गुलाब के फूल की अपेक्षा कांटे
कही अधिक वास्तविक प्रतीत होते हैं। एक गुलाब का फूल एक स्वप्न होना प्रतीत होता
है वह हमारे अनुकूल नहीं है, इसीलिए गुलाब के फूल का
बहिष्कार कर दिया गया है। तुम्हारे ड्राइंग रूम में अब कैक्टस प्रविष्ट हो गया है।
ठीक सौ वर्ष पूर्व किसी भी व्यक्ति ने कैक्टस को घर लाने के बारे में कभी सोचा तक
नहीं था। अब यदि तुम आधुनिक हो तो तुम्हारा उद्यान कई तरह के कैक्टस से भरा होगा।
अब गुलाब थोड़ा सा बुर्जुआ जैसा प्रतीत होता है, वह थोड़ा सा
समय के बाहर लगता है। गुलाब परम्परागत, कट्टर राज्य मुक्त
जैसा प्रतीत होता है। कैक्टस क्रांतिकारी होना लगता है। हां, कैक्टस-एडोल्फ हिटलर, जोसेफस्टालिन, माओ और फीडलकास्त्रो जैसा क्रांतिकारी है। हां, कैक्टस
इस सदी के निकटतम और उसका अंतरंग प्रतीत होता है।
फोटोग्राफर किसी
कुरूप चीज की और ही देखता है, वह जायेगा और एक
भिखारी का फोटो खींचेगा। ऐसा नहीं है कि पहले भिखारी नहीं होते थे, पहले भी रहा है, वह वास्तविक है, निश्चित रूप से वह एक वास्तविकता है, लेकिन कोई भी
व्यक्ति उसे कला का विषय नहीं बनाया था। हम भिखारी के सामने विनम्र होने का अनुभव
करते है, हम भिखारी के सामने क्षमा प्रार्थी होने का अनुभव
करते है, हम किसी ऐसी चीज़ का अनुभव करते हैं जो अभी भी वहां
है और जिसे होना चाहिए, और हम चाहते हैं कि भिखारी वहां न
रहे। लेकिन यह सदी कुरूपता की खोज किये चले जाती है।
अभी भी किसी
विशिष्ट सुबह सूर्य की किरणें चीड़ के बन में प्रविष्ट होती हैं। चीड़ के झुरमुट
में किरणें प्रविष्ट होकर सौंदर्य का एक अद्भुत ताना-बाना बुनती है। यह सौंदर्य
अभी भी अस्तित्व में है लेकिन किसी भी फोटोग्राफर की उसमें कोई दिलचस्पी नहीं है,
वह उसे अब और आकर्षित ही नहीं करता। उसे कुरूपता आकर्षित करती है,
क्योंकि हम कुरूप हो गए हैं। जो चीज़ हमें आकर्षित करती है, वह हमारे बारे में कुछ चीज प्रदर्शित करती हैं।
बुद्ध एक सर्वोच्च
संभावना है। और स्मरण रहे कि वह एक बुद्ध की ठीक वैसी ही आकृति नहीं है। कोई भी
नहीं जानता कि बुद्ध कैसे दिखते होगे। लेकिन यह मुद्दा ही नहीं है। उन दिनों कम से
कम पूरब में हम लोग वास्तविक आकृति में जरा भी अभिरुचि नहीं रखते थे। हमारे
दिलचस्पी अंतिम सत्य में हुआ करती थी। वास्तविक तथ्य में हमारी दिलचस्पी नहीं होती
थी। हम स्वयं सत्य में अभिरुचि रखते थे।
हो सकता है बुद्ध
की नाक थोड़ी अधिक लम्बी थी, लेकिन यदि कलाकार न यह
सोचा कि ध्यान मुद्रा की लयबद्धता में थोड़ी सी छोटी नाक ही अधिक उचित होगी,
तो उसने बुद्ध की लम्बी नाक को छोड़ दिया और उसे थोड़ा सा छोटा बना
दिया। हो सकता है कि बुद्ध के पास एक बड़ा पेट हो; कौन जानता
है? जापान बुद्ध मूर्तियों में उनके बड़े और उभरे हुए पेट
हैं, लेकिन भारतीय बुद्ध की मूर्तियों के एक भिन्न दृष्टिकोण
के कारण बड़े पेट नहीं है।
जापान में वे सोचते
हैं कि एक ध्यानी को नाभि से श्वास लेना चाहिए। और जब तुम नाभि से श्वास लेते हो
तो वास्तव में उदर थोड़ा बड़ा हो जाता है। तब पेट की भांति सीना उतना अधिक उभरा
हुआ नहीं होता क्योंकि सीना शिथिल होता है। इसलिए जापान बुद्ध की मूर्तियों के उदर
बड़े और उभरे हुए हैं। यह भी तुम्हें इंगित करने के लिए विशिष्ट कारण से है कि पेट
से श्वास लेना ही ठीक तरह से श्वास लेना है। इस चीज़ का बुद्ध से कोई भी लेना देना
नहीं है। क्योंकि कोई भी नहीं जानता कि उनका पेट बड़ा और उभरा हुआ था अथवा नहीं।
भारतीय बुद्ध की
मूर्तियों के उदर बड़े और उभरे हुए नहीं हैं, क्योंकि
भारतीय योग नाभि से श्वास लेने पर ज़ोर नहीं देता। और श्वास लेते हुए उदर को अंदर
की और गतिशील होना चाहिए। इसका भी एक विशिष्ट और भिन्न कारण है। यदि तुम काम ऊर्जा
को ऊर्ध्वगामी बनाना चाहते हो तब नाभि से श्वास न लेना ही अच्छा है। जब उदर को
अंदर की और खींचा जाता है तो ऊर्जा बहुत सरलता से ऊपर की और खींच ली जाती है और
इसकी भिन्न विधियां है।
किसी विशिष्ट
ध्यानी के लिए नाभि से भी श्वास लेना अच्छा है, यह बहुत
विश्रामपूर्ण कर देता है। लेकिन तब ऊर्जा उस तरह से गतिशील नहीं हो सकती, जैसी कि वह उदर को अंदर खींचने से होती है। भारतीय बुद्धों की मूर्तियों
के उदर छोटे होते हैं। लगभग होते ही नहीं हैं, यह बात कोई भी
नहीं जानता कि बुद्ध ठीक-ठीक कैसे दिखाई देते थे? नहीं जिन
लोगों ने जीसस को चित्रित किया, वे चित्र या मूर्तियां कहीं
अधिक वास्तविक हैं। जिन लोगों ने बुद्ध को चित्रित किया उनकी मूर्तियां बहुत गोलाई
लिए हुए स्त्रैण हैं, वे पुरूषोचित प्रतीत नहीं होती।
क्या तुमने मूँछों
और दाढ़ी के साथ उनकी कोई मूर्ति देखी है? नहीं। जिन
लोगों ने जीसस को चित्रित किया, वे चित्र या मूर्तियां कहीं
अधिक वास्तविक हैं। जिन लोगों ने बुद्ध को चित्रित किया उनकी अभिरुचि आकृति की
वास्तविक में नहीं थी। उनकी दिलचस्पी अंतिम सत्य के साथ थी, उनकी
अभिरुचि इसमें नहीं थी कि बुद्ध कैसे दिखाई देते हैं। उनकी दिलचस्पी इस बात में थी
कि बुद्धों को कैसा दिखाई देना चाहिए। उनका जोर बुद्ध पर नहीं था बल्कि उन लोगों
पर था उनकी मूर्तियां कैसी दिखाई देती है—और कैसे वह मूर्ति
लोगों की सहायता करने जा रही है।
इसलिए बुद्ध की
वृद्ध की वृद्धावस्था को चित्रित नहीं किया गया है। वह बयासी वर्ष के हो गए थे।
उन्हें अनिवार्य रूप से वृद्ध होना ही था—वह निश्चित
रूप से बहुत बीमार और वृद्ध थे। एक वैद्य निरंतर उनके पीछे-पीछे चलता था। लेकिन
कोई भी मूर्ति उनकी रूग्ण वृद्धावस्था की चित्रित नहीं की गई। क्योंकि यह उनका
उद्देश्य ही नहीं था। हम लोग की दिलचस्पी बुद्ध के भौतिक शरीर में न थी। हमारी अभिरुचि
तो उनके आंतरिक रेखा कृति में थी, और बुद्ध के अस्तित्व
लक्षण सदा युवा थे और वे कभी भी न तो वृद्ध हुए और न रूग्ण ही हुए, वह सदा स्वस्थ और नीरोग स्थिति में थे। शरीर ही शरीर ही युवा होता है। और
शरीर ही वृद्ध होता है, शरीर ही अपंग होता है और शरीर ही
मरता है। बुद्ध ने कभी जन्म लेते है और न कभी वह मरते हैं। बुद्ध शाश्वत रूप से
युवा बने रहते हैं। युवा मूर्ति को देखकर तुम्हारे अंदर भी यौवन जैसी कोई चीज
घटेगी और तुम एक ताज़गी का अनुभव करोगे।
अब भारतीय जीसस को क्रास
पर चढ़े हुए कभी भी चित्रित करने अथवा उनकी मूर्ति बनने को वरीयता नहीं देते।
उदासी को चित्रित करना एक कुरूपता है। यदि यह ऐतिहासिक भी है तो भी यह स्मरण रखने
योग्य नहीं है, क्योंकि जो कुछ भी हुआ उसके सोचने से
तुम्हारी प्रवृति उसके पुन: घटने में सहायता देने की होगी। इस बारे में तथ्यों पर
कोई भी दायित्व नहीं है, हम अतीत की किसी भी वस्तु के प्रति
ऋणी नहीं होते। अतीत जैसा था, उसे वैसा ही स्मरण रखने की
हमें कोई भी आवश्यकता नहीं है। अतीत का चुनाव करना हमारे हाथों में है—अतीत का चुनाव इस भांति करना है जिससे एक श्रेष्ठ भविष्य सृजित हो सके।
हां,
जीसस को क्रास पर चढ़ाया गया, लेकिन यदि
उन्हें भारत में क्रास पर लटकाया जाता तो हमने उसे चित्रित न किया होता। क्रास पर
भी हमने पूर्ण रूप से एक भिन्न चीज चित्रित की होती। पश्चिम में जीसस को चित्रित
यातनामय और उदास किया है। जो स्वाभाविक है, क्योंकि उन्हें
मार डाला गया। जब तुम उन्हें देखते हो, जब तुम उन पर चित्त
एकाग्र करते हो या जीसस की मूर्ति पर ध्यान करते हो तो तुम उदासी का अनुभव करोगे।
यह कोई संयोग नहीं
है कि ईसाई कहते हैं कि जीसस कभी नहीं हंसे। और यह भी कोई संयोग नहीं है कि
तुम्हें एक गिरजाघर में प्रसन्न और प्रमुदित होकर हंसने और नृत्य करने की अनुमति नहीं
है। चर्च एक गम्भीर कार्य व्यापार है, तुम्हें
वहां लम्बे चेहरे लटका कर बहुत गम्भीर बने रहना होगा। वास्तव में जब जीसस क्रास पर
चढ़ाने जा रहे हों, तो वहां वेदी पर तुम कैसे हंस सकते हो?
भारत में तुम पूजा घर में आनंद मनाते हुए हंसते हुए गीत गा सकते हो,
धर्म एक उत्सव और समारोह हैं।
पूरा अभिप्राय यह
है कि पश्चिमी मन ऐतिहासिक है, और पूर्वी मन
अस्तित्वगत है। पश्चिम सांसारिक तथ्यों पर बहुत अधिक ध्यान देता है और पूरब इतिहास
के तथ्यों पर कभी कोई ध्यान देता ही नहीं। तुम्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि जब तक
पश्चिम के लोग भारत नहीं आये थे भारत इतिहास जैसी किसी चीज़ को जानता ही नहीं था।
हमने कभी भी इतिहास नहीं लिखा और न इस बारे में कभी फिक्र ही की। यहीं कारण है कि
हम यह भी नहीं जानते कि ठीक किस दिन बुद्ध का जन्म हुआ और किस दिन उनकी मृत्यु
हुई! इससे क्या फर्क पड़ता है? इससे कैसे अंतर पड़ता है?
वास्तव में इससे जरा भी अंतर नहीं पड़ता; कोई
भी दिन और किसी भी वर्ष से काम चल जायेगा। इसका कोई अभिप्राय ही नहीं है। अभिप्राय
यह है किसका जन्म हुआ था? अपने सबसे अधिक अंतरस्थ केन्द्र
में यह व्यक्ति कौन था?
इतिहास बाह्य परिधि
के बारे में सोचती है और पौराणिक कथा सबसे अधिक अंतरस्थ केन्द्र के बारे में सोचती
है। भारत के पास इतिहास नहीं बल्कि लिखी हुई पौराणिक कथाएं हैं। वे काव्यात्मक
हैं। उनमें रहस्यमय दृष्टि या आभास हैं कि चीजों को कैसा होना चाहिए,
न कि यह कि वह कैसी हैं। वे सर्वोच्च सत्य के आभास हैं और बुद्ध
सर्वोच्च समाधि की दृष्टि देते हैं।
तुमने फ्रैंक फुट
कला-संग्रहालय में जो बुद्ध की मूर्तियां देखी हैं वे अंतरस्थ मौन की दशाएं हैं।
जब एक व्यक्ति परिपूर्ण मौन में होता है तो वह उस दशा में होगा। जब प्रत्येक चीज
शांत और थिर होती है। और अंदर एक भी विचार नहीं होता,
जब प्रत्येक चीज रूक जाती है और हवा का एक छोटा सा झोंका भी नहीं
होता और अंदर पूर्ण शांति होती है तो समय भी रूक जाता है—तब
तुम भी एक बुद्ध के समान बैठे होने का अनुभव करोगे। कुछ उसी तरह के रेखा गणित जैसी
चीज़ तुम्हें भी घटेगी। यह वस्तुनिष्ठ कला है—जिसका बुद्ध की
वास्तविकता के साथ कोई भी सम्बन्ध नहीं है। इसका अधिक सम्बंध उन लोगों के साथ है
जो आयेंगे और बुद्धत्व की खोज करेंगे। संकेत करेंगे और उन मूर्तियों के सामने
घुटने झुकाकर बैठेंगे और उन मूर्तियों पर ध्यान करेंगे।
भारत में खजूराहो
जैसे मंदिर हैं, जहां सभी तरह की कामुक मुद्राएं पत्थरों
पर तराशी गई हैं। कई मुद्राएं तो इतनी अधिक असंगत हैं कि एक डी. साडे अथवा
वोनसेचरमोश जैसा कलाकार भी उनकी कल्पना तक करने में समर्थ नहीं हो सकता। सबसे अधिक
विकृत चित्र के लोग भी उसकी कल्पना तक नहीं कर सकते थे। उदाहरण के लिए एक स्त्री
और एक पुरूष सिरों के बल खड़े हुए संभोग कर रहे हैं—ऐसा
प्रतीत नहीं होता कि कोई भी व्यक्ति इसका प्रयास करने जा रहा है अथवा उसकी कल्पना
करने जा रहा है। उन्होंने ऐसी मूर्तियां आखिर क्यों चित्रित की? ये वस्तुनिष्ठ कला का एक उदाहरण हैं।
खजूराहो के ये
मंदिर कोई सामान्य मंदिर नहीं थे। वे एक तरह का मानसिक उपचार करते थे। उनका
अस्तित्व एक चिकित्सा करने की भांति था। जब कभी भी कोई व्यक्ति किसी सेक्स-विकृति
से पीड़ित होता था, वह खजूराहो भेजा जाता था।
उसे इन सभी असाधारण और अद्भुत मूर्तियों की और देखते हुए ध्यान करना पड़ता था।
उसके पास उसके मन के अंदर अचेतन में कुछ सेक्स विकृति होती थी। मन विश्लेषण क्या
करता है? वह अचेतन से चीजों को चेतन पर लाता है, वह सभी कुछ इतना ही करता है। और मन विश्लेषक कहते हैं कि एक बार कुछ चीज
अचेतन से चेतन में आ जाती है तो वह मुक्त हो जाती है, और तुम
उससे मुक्त हो जाते हो।
अब खजूराहो की यह
मूर्तियां द्वारा एक बहुत बड़ा मनोविश्लेषण होता था। एक असाधारण रूप से सेक्स
विकृति वाला व्यक्ति वहां लाया जाता है। उसने अपनी विकृतियों का दमन किया होता है—कभी-कभी उनका विस्फोट हो जाता है, लेकिन वह उनका दमन
किये चला जाता है। वह जानता है कि वहां कुछ चीज एक घाव की तरह है लेकिन वह उसे कभी
भी आमने-सामने देखने में समर्थ नहीं हुआ है। वह खजूराहो लाया गया है। वह वहां
प्रत्येक मूर्ति और प्रत्येक पागलपन से भरी उन मुद्राओं पर ध्यान करने को आहिस्ता
से आगे बढ़ता है। और अचानक एक दिन एक मुद्रा उसकी आंतरिक विकृति के अनुरूप मिल
जाती है। उसने अचेतन से वह विकृति अचानक ही उसके चेतन मन की परिधि पर आ जाती है और
वह बिना किसी फ्रॉयड अथवा जुंग अथवा एडलर के ही उससे मुक्त हो जाता है। केवल खजूराहो
का मंदिर ही यह कार्य पूरा कर देगा उसे मंदिर में छोड़ दिया जाता हे। कुछ सप्ताहों
तक वह वहां रह सकता है। उन दिनों प्रत्येक ध्यानी व्यक्ति के लिए जो वास्तव में
गहरे ध्यान में जाना चाहता था खजूराहो जैसे मंदिरों को देखना बहुत अच्छा माना जाता
था।
वे सभी मूर्तियां
मंदिर की बाहर की दीवारों पर उत्कीर्ण थी वे सभी बहुत असाधारण,
बहुत सनक और पागलपन से भरी और बहुत विकृत चित्र वाली थीं। मंदिर के
अंदर न वहां कामुक चित्र थे और न कोई भी मिथुन मूर्तियां थी। वहां किसी भी तरह की
कोई कामवासना थी ही नहीं। उसके अंदर या तो बुद्ध की मूर्ति, शिव
की मूर्ति अथवा कृष्ण की मूर्ति थी अथवा खालीपन।
इसका अर्थ क्या था?
अंदर कोई भी सेक्स न होकर केवल बाहर की दीवारों पर सेक्स क्यों था?
पहले तुम्हें मंदिर की बाह्य परिधि पर जाना होता है, जिससे तुम सेक्स से मुक्त हो सको। जब एक व्यक्ति यह अनुभव करता है अब वे
मिथुन मूर्तियां किसी भी प्रकार से उसे न आकर्षित करती है और न ही उत्तेजित ही
करती है। अब एक व्यक्ति उनके सामने बैठे चला जाता है और उसके अंदर कुछ भी नहीं
होता, वह शांत और मौन बना रहता है, उसके
अंदर कोई कामवासना जागृत नहीं होती और न वह उत्तेजित ही होता है। तभी वह व्यक्ति
मंदिर के अंदर प्रवेश करने के योग्य होता है।
यह प्रतीकात्मक है।
अब वह अपनी कामुकता के पास जा सकता है। वे मंदिर तंत्र के मंदिर थे,
वह कभी किये जाने वाले महानतम प्रयोगों में से एक थे। वे अश्लील
नहीं थे, वे कामोद्दीपक नहीं थे, वे
आध्यात्मिक थे—वह आध्यात्मिक का एक महान प्रयोग थ। वह मनुष्य
की ऊर्जा को उच्चतम तलों की और ले जाकर रूपान्तरित करने का एक महान प्रयोग था।
लेकिन पहले ऊर्जा
को निम्न तल से मुक्त करना होता है। और उसे मुक्त करने का वहां केवल एक ही उपाय था,
अचेतन मन की सभी कल्पनाओं को चेतना पर लाना और उनके प्रति पूर्णरूप
से सचेत होना। जब अचेतन पूरी तरह से भारहीन हो जाता है तो तुम मुक्त हो जाते हो।
तब तुम्हारे पास अवरोध नहीं होते हैं, और तब तुम अपने अंदर
गतिशील हो सकते हो। तब तुम मंदिर के अंदर जा सकते हो, तब तुम
बुद्ध, शिव अथवा कृष्ण पर ध्यान कर सकते हो।
यह कोई कल्पना नहीं
थी। यह वस्तुनिष्ठ कला थी, जिससे तुम अनजाने में ही
ठोकर खाकर गिर गए थे।
तीसरा प्रश्न—
प्यारे ओशो! आप के
पास ऐसा क्या हैं, जो मुझे नहीं मिला है। (और
मैं आश्रम और कार और संचित और अन्य पदार्थों की बात नहीं कर रहा हूं।)
तुम अनिवार्य रूप
से उन सभी पदार्थों के बारे में ही बात कर रहे हो, अन्यथा
तुम उन सभी चीजों का बिल्कुल उल्लेख नहीं करते? उनका
वास्तविक उल्लेख करना ही तुम्हारे मन को प्रदर्शित करता है। यह विचार तुम्हारे मन
से होकर गुजरना ही चाहिए, और तुम्हारा भयभीत हो जाना
सुनिश्चित। और जहां तक स्वयं मेरा संबंध है, न तो मेरे पास
कोई आश्रम है, न मेरे पास कोई कार है और वास्तव में न कोई मेरा
सचिव है। मेरे पास कोई भी चीज़ नहीं है। मेरे पास कुछ होना कोई वस्तु नहीं है,
बल्कि मेरा सारभूत अस्तित्व है। मैं केवल यहां हूं, कोई भी वस्तु पास न होकर मेरा होना ही मेरी पूंजी है। यदि यहां आश्रम है
तो वह मेरे लिए नहीं है। तुम्हारे लिए है। वह सब कुछ जो यहां है, वह तुम्हारे लिए है। मेरे साथ किसी भी चीज का कोई लेना देना नहीं है।
मैं अकेला ही
पर्याप्त हूं।
लेकिन तुम्हें अपने
मन की गहराई में कहीं न कहीं इन चीजों के प्रति अनिवार्य रूप से कहीं अधिक जुड़ाव
होना चाहिए। एक प्रश्न केवल प्रश्न ही नहीं होता वह बहुत संकेतात्मक भी होता है।
धूम्रपान कक्ष में
बहुत से लोग इस बात पर तर्क-वितर्क कर रहे थे कि सबसे अधिक महान आविष्कारक कौन था।
एक व्यक्ति ने हरी वेंसन के लिए तर्क दिया, जिसने
रेलगाड़ी का आविष्कार किया था, एक अन्य व्यक्ति ने एडीसन का,
तीसरे ने मारकोनी का और तब एक अन्य व्यक्ति ने राइट-बंधुओं का नाम
लिया। अंत में उनमें से एक व्यक्ति एक छोटे से व्यक्ति की और मुड़ा जो सभी की
बातें सुनता रहा था। और उसने कुछ भी नहीं कहा था। उसने उससे पूंछा—‘मि. मंडेल! आपका इस बारे में क्या ख्याल हैं?’
एक परिचित मुस्कान
के साथ उसने उत्तर दिया—‘वह व्यक्ति जिसने ‘लाभ’ का आविष्कार किया वह कोई मूर्ख व्यक्ति नहीं
था।’
और प्रत्येक
व्यक्ति के अंदर एक यहूदी छिपा हुआ है। जो अपने पास केवल वस्तुओं धन और लाभ होने
के बारे में सोचे ही चला जाता है।
पहली बात तो यह कि
अपने ध्यान के बिंदु को वस्तुओं को अपने पास रखने से बदल कर अपने होने पर केंद्रित
करो। तुम्हारे पास पूरा संसार हो सकता है और वहां फिर भी तुम्हारी सहायता करने
नहीं जा रहा हैं। और तुम एक भिखारी ही बने रहोगे। और ख्याल रहे कि मैं संसार का
परित्याग करने के लिए नहीं कह रहा हूं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि संसार को छोड़
दो,
विरोधी निष्कर्ष पर छलांग मत लगाओ। मैं कह रहा हूं कि तुम्हारे पास
पूरा संसार हो सकता है और तुम्हारे पास कोई भी चीज नहीं होगी। मैं सब कुछ इतना ही
कह रहा हूं। मैं उसका परित्याग करने के लिए नहीं कह रहा हूं, क्योंकि उन लोगों के मन, जो परित्याग भी करते हैं,
उनका भी ध्यान उसे पास रखने पर ही बना रहता है। तुम धन गिनते हो और
वे अपने त्यागो की गणना करते हैं। तुम कहते हो—‘मेरे पास कई
हजार डॉलर हैं,’ और वे कहते हैं—‘और वे
कहते है कि मैंने कई हजार डॉलर का त्याग कर दिया।’ परंतु ये
गणना जारी ही रहती है। तुम एक-एक अकाउंटेंट हो, और वे लोग भी
अकाउंटेंट है और यह हिसाब-किताब रखना ही संसार है।
यह जानना कि तुम
कौन हो,
एक सम्राट बनना हैं, स्वयं में होना ही एक
सम्राट बनना है। पास रखने की प्रवृति निर्धन होना है।
संसार में दो तरह
के निर्धन व्यक्ति होते है; एक वे जिनके पास कुछ होता
है और दूसरे वे जिनके पास वह नहीं होता। लेकिन दोनों ही निर्धन होते हैं, क्योंकि जिनके पास होता है, उनके पास कुछ भी नहीं
होता, और वे लोग जिनके पास नहीं होता, वास्तव
में उनके पास कोई भी वस्तु नहीं होती। दोनों ही निर्धन हैं। जिनके पास होता है,
वे परेशान और उलझन में होते हैं—‘अब इनके साथ
क्या किया जाये?’ वे लोग उसके साथ दुविधा में होते हैं,
उसे पाने के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन नष्ट किया हैं, और अब वह वहां है, पर वे नहीं जानते कि उसके साथ
क्या किया जाये। और न उससे कोई खिलावट ही हुई है। वे लोग अभी तक उत्सव आनंद मनाने
तक नहीं आ पाये हैं। उनके द्वारा कोई धार्मिकता नहीं घटी है। वह वस्तुओं के पास
होने के द्वारा कभी घटती भी नहीं है।
तुम पूछते हो—‘तुम्हारे पास क्या है, जो मेरे पास नहीं है?’
यदि तुम अपने पास होने की भाषा में बात करने का आग्रह करते हो,
तब जो मैंने प्राप्त किया है उसकी अपेक्षा तुम्हारे पास बहुत अधिक
है। तुमने बहुत अधिक पाया है; अनंत, लालच,
क्रोध, वासना, महत्वाकांक्षा
और अन्य बहुत सी चीजें।
और मेरे पास क्या
हैं?
केवल कुछ भी नहीं, ठीक-ठाक केवल कुछ भी नहीं।
यदि तुम पास होने के दृष्टिकोण से सोचते हो, तब मैं सबसे
अधिक निर्धन व्यक्ति हूं, क्योंकि मैंने केवल ‘कुछ नहीं’ ही पाया है। लेकिन यदि तुम सारभूत तत्व के
होने के दृष्टि से सोचते हो, तब मैं सबसे अधिक समृद्ध
व्यक्ति हूं—क्योंकि एक बार तुम अहंकार छोड़ देते हो,
तुम कोई भी चीज़ नहीं खोते, तुम केवल एक
बीमारी खोते हो। जब तुम लोभ छोड़ देते हो तब कोई भी चीज़ नहीं खोते हो, तुम केवल एक रूग्णता से मुक्त हो जाते हो। जब तुम क्रोध छोड़ते हो,
तुम इसी तरह की चीज़ें छोड़ते हो, जो तुम्हारे
पास हैं, और तुम अधिक समृद्ध हो जाते हो।
जब लोभ विलुप्त
होता है,
तो बांटना अस्तित्व में आता है। जब क्रोध विलुप्त होता है, तो करूणा अस्तित्व में आती है। जब घृणा, ईर्ष्या और
परिग्रह विलुप्त होता है तो प्रेम अस्तित्व में आता है।
मैंने केवल स्वयं
को पाया है। लेकिन वह आत्मा स्वयं अपने को दूसरों को सहभागी बनाने में प्रेम में,
करूणा में, और अनेक-अनेक आयामों में
अभिव्यक्ति करती है। इसलिए मैं कह सकता हूं कि तुम्हारे पास अधिक है और तो भी मैं
कहता हूं—तुम अभी भी हो ही नहीं। मैं हूं, और तुम नहीं हो।
चौथा प्रश्न—
प्यारे ओशो! जब आप
कहते हैं कि मनुष्य एक मशीन है तो आपके कहने का क्या अर्थ है?
मनुष्य एक मशीन है!
इसके तीन दृश्य हैं।
पहला दृश्य—
चार्ली ने अपने
कहानी का कुछ अंश सुनाने के लिए, हैलो, बरनी ओल्ड पॉल, कहते हुए उसका स्वागत किया और उसने
कहा—‘चलो हम किसी शराब खाने में जाकर सिगार पीने की आदत का
जश्न मनायें।’
बरनी ने पूंछा—‘तुम किसके बारे में बात कर रहे हो?’
चार्ली कहता चला
गया—‘सुनो, मेरी पत्नी चाहती थी कि मैं धूम्रपान करना बंद
कर दूं और उसकी व्यवस्था उसने यह की है कि जब मुझे सिगार पीने की तलब लगे वह उसके
स्थान पर मुझे ओ हेनेरी चाकलेट बार दे दे।’
बरनी ने पूंछ—‘तो क्या तुमने ऐसा किया?’
‘आह! और मैं
इसी कारण तो यह समारोह मना रहा हूं। उसके चाकलेट कैंडी बार के विचार ने कुछ भी
कार्य नहीं किया। मेरा विश्वास करो। मैंने उसका प्रयास भी किया। प्रत्येक समय जब
मैंने सिगार पीना चाहा मैंने ओ हेनेरी चाकलेट बार ही खरीदी। लेकिन तुम इस बारे में
कुछ चीज़ जानना चाहते हो तो मैं तुम्हें बताऊं की मैं उसे जलाये हुए नहीं रख सका।’
जब मैं कहता हूं कि
यह व्यक्ति एक मशीन है तो मेरे कहने का अर्थ है कि मनुष्य चेतना के द्वारा नहीं
अपनी आदतों के द्वारा ही कार्य करता है। जब मैं कहता हूं कि मनुष्य मशीन है तो
मेरा अर्थ है कि मनुष्य अपनी स्वच्छन्दता नहीं अपने अतीत के द्वारा कार्य करता है।
दूसरा दृश्य—
एक रात्रि कार्य
करने वाले कर्मचारी ने अपनी युवा और सुंदर पत्नी की बहुत अधिक अरुचि के बावजूद अपने
गलमुच्छा को तब तक बढ़ने दिया जब तक की उसकी प्रिय बेसबॉल की टीम ने विजय प्राप्त
कर ध्वज प्राप्त नहीं कर लिया।
जिस दिन उसकी प्रिय
टीम ने विजय प्राप्त की और पताका अपने हाथ में थामी, उसने
अपने काम से छुट्टी लेकर स्वयं ही शेव कर अपने गुलमुच्छों को साफ किया, और घर समय से पूर्व आकर अपने बिस्तरे पर लेट गया। अंधेरे में उसने अपनी
पत्नी के हाथ को लेकर उसे अपने शेव किया गये चिकने चेहरे पर रखा।
उसने अब उसके चिकने
चेहरे पर धीमे से हाथ फेरते हुए कहा—‘जल्दी करो
नवजवान, मेरा वह मुच्छड़ पति अब किसी भी मिनट घर लौट आयेगा।’
जब मैं कहता हूं कि
मनुष्य एक मशीन है, तो मेरा अर्थ है कि वह यह
नहीं देखता है कि कैसी स्थिति है, मनुष्य वर्तमान क्षण में
नहीं देखता है और मनुष्य वास्तविकता के प्रति उत्तरदायी नहीं है। मनुष्य पुराने
विचारों में पुरानी आदतों के द्वारा जीए चला जाता है।
तीसरा दृश्य—
एक दिन मुल्ला
नसरूद्दीन ने एक मैगजीन में एक कविता पढ़ी। वह उसे बहुत प्यारी लगी। वह कविता इस
प्रकार है:
श्रीमान! आप बसंत
ऋतु के सुंदर फूलों के
एक अथवा दो
गुलदस्ते क्यों नहीं खरीदते?
और उन्हें सजाकर
किसी उदासी भरे दिन
उनको अपने घर क्यों
नहीं लाते?
और बस उन्हें अपनी
पत्नी के हाथों में देकर
उससे यह क्यों नहीं
कहते?
‘आज शहर में
मैं तुम्हारे बारे में ही सोच रहा था।’
मूल्ला नसरूद्दीन
ने ठीक ऐसा ही किया। उसने कुछ फूल खरीदे लेकिन घर में सामान्य रूप से प्रवेश करने
के स्थान पर उसने दरवाजा खटखटाया। और जब उसकी पत्नी ने दरवाज़ा खोला तो उसने उसे
फूल उसके हाथों में थमा दिए। वह आश्चर्य चकित रह गया जब वह रोती चीखते हुए आंसू
बहाने लगी।
उसने पूंछा—‘आखिर मामला क्या है? तुम क्यों रो रही हो?’
उसने उत्तर दिया—‘ओह! मेरा आज का दिन बहुत भयानक था। आज मुझसे केतली टूट गई, बेबी रोती चीखती रही। रसोइया काम छोड़ कर चला गया और अब तुम शराब पीकर घर
आये हो।’
जब मैं कहता हूं कि
मनुष्य एक मशीन है, तो मेरे कहने का यही अर्थ
है। और तुम उसके प्रति सचेत नहीं होते, क्योंकि एक मशीन कैसे
सचेत हो सकती है। तुम्हें किसी ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता है जो निरंतर तुम्हारे सिर
पर हथौड़ी से इस आशा में चोट करता रहे कि किसी समय वास्तव में हथौड़ी तुम पर गहराई
से चोट करेंगी और उसके धक्के से तुम अपनी आदतों से बाहर आकर एक क्षण के लिए तुम जग
जाओगे।
एक सद्गुरू के होने
का पूरा अभिप्राय ही यहीं है कि वह तुम पर इस और से, उस
और से सभी और से चोटें किये चला जायें। वह पद्धतियां, स्थितियां
और विधियाँ बदलता चले जाये, जिससे किसी दिन वह तुम्हारे
अचेतन को पकड़ सके।
यदि एक क्षण के लिए
भी तुम सचेत हो जाओ तो तुम जानोगे कि तुम्हारा पूरा अतीत एक यंत्रवत बीता है। केवल
मेरे कहने से नहीं, तुम केवल जानोगे कि मनुष्य
एक मशीन है। तुम केवल तभी जानोगे, जब तुमने सचेतनता के एक
क्षण का स्वाद लिया हो, तब तुम्हारा पूरा जीवन सामान्य रूप
से एक यंत्रवत जीवन की भांति देखा जाना और पहचाना हुआ होगा। क्योंकि यह जानने के
लिए भी कि यह यंत्रवत रहा हैं। तुम्हें उसके साथ तुलना करने के लिए किसी चीज़ की
जरूरत होगी। तुम मशीनों के मध्य रहते हो और तुम्हारे पास उसके साथ तुलना करने के
लिए कोई भी चीज़ नहीं है। तुम्हारे पिता एक मशीन हैं, तुम्हारी
मां एक मशीन हैं, तुम्हारी पत्नी एक मशीन हैं, तुम्हारे मित्र, तुम्हारे बॉस सभी एक मशीन हैं—तुम मशीनों के मध्य रहते हो। तुम स्वयं एक मशीन हो। फिर सचेत कैसे हुआ
जाये?
एक बार मुल्ला
नसरूद्दीन की पत्नी ने मुझे बताया कि वह तब तक उसके प्रति सचेत नहीं हुई कि उसका
पति शराब पीता था, जब तक कि एक दिन वह बिना पीये
हुए घर नहीं आया। यदि एक व्यक्ति निरंतर शराब पी रहा है तो यह जानना बहुत कठिन है
कि वह शराब पी रहा है, क्योंकि उस दशा को देखते हुए तुम उसके
अभ्यस्त हो जाते हो। तुम एक मशीन हो। यह बात तुम्हें चोट पहुंचाती है—तुम मशीन कहकर पुकारने का यही अभिप्राय है। चोट पहुंचाने दो। यदि वह चोट नहीं
पहुंचाती, तब तुम लाइलाज हो। यदि वह बात चोट करती है,
तब वहां एक सम्भावना है। यदि वह चोट करती है तो इसका अर्थ है कि
अपने अचेतन की गहराई में तुम किसी तरह से यह अनुभव करते हो कि हां, यह ऐसा ही है।
क्या तुम वर्तमान
क्षण में जीते हो? क्या तुम चीजों को वैसे ही
पहचानते हो जैसी कि वह ठीक अभी हैं? अथवा तुम उन्हें पुरानी
दृष्टि पुराने मन और स्मृति के द्वारा केवल देखे चले जाते हो? क्या तुम्हारे पास बार-बार दोहराये जाने वाले शब्द नहीं हैं? तुम चीजों को तुरंत पहले से तैयार विशिष्ट बक्सों में रख देते हो। उदाहरण
के लिए तुम एक हिंदू हो, और तुम एक व्यक्ति से मिलते हो और
तुम उस व्यक्ति में बहुत अधिक दिलचस्पी लेने लगते हो—वह
व्यक्ति बहुत अच्छा और सुंदर प्रतीत होता है, और तुम उसकी
तरंगों को पसंद करते हो। तब तुम उससे स्वयं उसके बारे में पूछते हो और वह कहता है
कि मैं एक मुसलमान हूं और बात समाप्त हो जाती है। वे अच्छी तरंगें अब वहां और नहीं
रह गई है। तुम सिकुड़ कर वापस लौट गए हो। तुम्हारे पास अपनी सोच का एक व्यवस्थित
बक्सा है कि मुसलमान अच्छे व्यक्ति नहीं होते हैं। तुम एक हिंदू हो और मुसलमान
बुरे हैं। तुम तुरंत उसे वर्गीकृत करते हो, तुम उसे एक
पिंजरे में बद कर देते हो। तुम उस व्यक्ति की वास्तविकता में अब कोई अभिरुचि नहीं
रखते हो। सत्य कुछ अन्य बात कह रहा था, लेकिन वह तुम्हारे
पालतू वर्गीकरण और सिद्धांतों के विरूद्ध रहा था।
मैंने सुना
है......
एक युवा स्त्री कुछ
कार्य करने के बारे में सोचकर पास के बड़े शहर में गई। उसकी मां वृद्ध थी और वे
लोग बहुत निर्धन थे और वह युवा स्त्री जो धन अर्जित करने के कार्य से शहर गई थी,
उस वृद्ध की एक मात्र संतान थी। कुछ महीनों के बाद वह बहुत अधिक धन
अर्जित कर वापस लौटी। उसकी मां बहुत प्रसन्न हुई। उसने पूंछा—‘अब तुम मुझे बताओ कि तुम वहां क्या करती थी?’
वह लड़की वास्तव में
सत्यनिष्ठा थी और उसने उत्तर दिया—‘मैं एक
प्रोस्टीट्यूट अर्थात वेश्या बन गई हूं।’
‘क्या?’
यह कहते हुए चीखी और बेहोश होकर गिर पड़ी। आधा घंटे बाद जब वह होश
में आई तो मां ने उससे फिर पूंछा—‘मुझे फिर से बताओ कि तुम
क्या बन गई हो?’
और लड़की ने कहा—‘मां, मैंने तुम्हें बताया था कि मैं एक प्रोस्टीयूट
(वेश्या) बन गई हूं।’
मां ने कहां—‘परमात्मा का धन्यवाद है। मैंने सोचा कि तुमने यह कहा था कि तुम
प्रोटेस्टेंट बन गई हो।’
वास्तव में वे लोग
कैथोलिक ईसाई थे।
मन निरंतर वर्गीकरण
किये चले जाता है। जब तुम कोई भी कार्य कर रहे हो तो निरीक्षण करो: क्या तुम सत्य
के प्रति यहीं और अभी प्रयुक्त देते हो, अथवा तुम
समय के अनुकूल विशिष्ट सिद्धांतों का अनुसरण करते हो? जब तुम
कोई भी कार्य करते हो, क्या तुम उसे ध्यान पूर्वक होश से
करते हो अथवा क्या तुम उसे ठीक से केवल एक यंत्र की भांति करते चले जाते हो?
कुछ दिनों पूर्व
मैंने तीन प्रकार की चेताओ के बारे में बतलाया था: पहली सचेतनता,
दूसरी सचेतनता और तीसरी सचेतनता। तुम स्वयं अपना निरीक्षण करो,
अपने कार्यों का निरीक्षण करो, अपनी
प्रतिक्रियाओं का निरीक्षण करो और अपने अंदर से आते प्रत्युत्तरों का निरीक्षण करो—और यह है पहली सचेतनता। तुम किस तरह से आचरण कर रहे हो—एक मनुष्य की भांति अथवा एक मशीन की भांति आचरण कर रहे हो। लेकिन यदि तुम
थोड़ा सा सजग बनना शुरू करो, तब तुम एक यंत्र की अपेक्षा कुछ
चीज अधिक बन रहे हो और तुम्हारे अंदर कुछ अधिक चरित्रगत विशेषता उत्पन्न हो रही
है। वह सचेतनता एक मनुष्य बनने में तुम्हारी सहायता करेगी केवल जब तुम सचेत होते
हो, तभी तुम एक मनुष्य होते हो। पूर्ण सचेत होने से तुम
पूर्ण रूप से एक मनुष्य होते हो। पूर्ण रूप से अचेत होने पर तुम एक यंत्र होते हो।
पाँचवाँ प्रश्न:
प्यारे ओशो! जब से
मैं यहां हूं, मेरे लिए प्रत्येक वह चीज़
जिसकी कामना की मुझे घटी है। जो कुछ चाहना सम्भव था, अब मेरे
पास वह सभी कुछ है और मैं अनुभव करता हूं, जैसे मेरा हृदय
खण्ड-खण्ड हो रहा है। यह क्या हो रहा है?
तुमने गलत समझा है।
हृदय प्रसन्नता के कारण बिखर रहा है। वह केवल मात्र आनंद के कारण बिखर रहा हैं। एक
विशिष्ट क्षण में प्रसन्नता असहनीय हो जाती है। जब प्रसन्नता असहनीय हो जाती है,
तब तुम वास्तव में आनंदित होते हो। तब आनंद अपने शिखर पर होता है,
तब आनंद सो डिग्री पर होता है। यदि तुम इतना अधिक सहन कर सकते हो,
तो देर या सवेर तुम इस आनंद के द्वारा वाष्प भूत होना प्रारम्भ हो
जाओगे। तुम इस दिव्यता में विलुप्त होना शुरू हो जाओगे। डरो मत, तुम्हारे साथ कुछ भी गलत नहीं हो रहा है। तुम धन्यभागी हो।
लेकिन ऐसा होता है,
हमारे विचार....यदि तुम किसी व्यक्ति को रोते हुए देखते हो, तुम सोचते हो कि वह उदास है और उसे दुःखी होना चाहिए। तुम उसे सांत्वना
देना शुरू कर देते हो। क्या तुमने ‘खुशी के आंसू’ की अभिव्यक्ति के बारे में सना है? वहां प्रसन्नता
में भी आंसू गिरते हैं। इसलिए सांत्वना देने में शीघ्रता मत करो—हो सकता है कि वह केवल आनंदित होकर ही....। लेकिन हम केवल उन रोते लोगों
को जानते हैं, जब वे दुःखी होते हैं, हम
उन लोगों को नहीं जानते हैं, जब वे प्रसन्न होते हैं।
क्योंकि लोग ज़रा भी प्रसन्न नहीं है। इसलिए खुशी के आंसू आंखों में नहीं केवल वह
चिंताओं में ही पाये जाते हैं।
लेकिन उदासी के साथ
आंसुओं के पास करने को कुछ भी नहीं है। यह मनुष्य की एक कुरूप स्थिति है,
उसके कार्य-व्यापार को दुःखी करने की दशा है, जहां
मनुष्य केवल तभी रोए और चीखें, जब वे उदास और दुःखी हो।
दुखों के साथ जैसे वे हैं, आंसुओं के पास करने को कुछ भी नहीं
है, आंसू केवल तभी आते हैं, जब कोई भाव
अतिरेक से प्रवाहित होता है। वह उदासी हो सकती है वह प्रसन्नता हो सकती है,
वह प्रेम हो सकता है और वह क्रोध भी हो सकता है। तुम स्त्रियों में
देख सकते हो कि जब वे बहुत अधिक क्रोधित होती हैं, तो वे
रोना शुरू कर देती है। यह दुःख नहीं है, यह क्रोध है। एक
छोटे से बच्चे का निरीक्षण करो: यदि वह बहुत अधिक हंसता है, तो
वह रोना शुरू कर देता है। यह बहुत अधिक होता है, असहनीय होता
है, वह आंसुओं के रूप में अतिरेक से छलकना शुरू हो जाता है।
आंसू केवल इस बात का संकेत है कि प्याला पूरा भर कर छलकने लगा है—वे उमड़कर बहना शुरू हो जाते हैं।
तुम कहते हो—‘जब से मैं यहां हूं, मेरे लिए प्रत्येक वह चीज़
जिसकी भी मैंने कामना की, वह मुझे घटी है....’ यही कारण है कि तुम्हारे आनंद असहनीय बन गया है, तुम
अपने शाश्वत घर के निकट आ रहे हो। अब मरे पास वह सभी कुछ है, जो भी कुछ चाहना सम्भव था और मैं अनुभव करता हूं, जैसे
मेरा हृदय खण्ड-खण्ड हो रहा है। यह क्या हो रहा है? कुछ
अत्यधिक सुंदर घटना घटने जा रही हैं। इसका विश्लेषण करने का प्रयास मत करो,
अन्यथा मन पूरी चीज़ को नष्ट कर सकता है। यह मन ही है जो हृदय के साथ
हस्तक्षेप कर रहा है। यह प्रश्न भी मन से ही आ रहा है। हृदय में आनंद पूरा छलक रहा
है, इसीलिए वह खण्ड-खण्ड हो रहा है। आनंद इतना अधिक है कि वह
उसमें समा नहीं रहा है। उसे थोड़ा सा बिखरने दो। यही है वह जिसके लिए ही मैं यहां
हूं, और इसी कारण तुम यहां आये हो।
प्रश्न छठवां:
प्यारे ओशो! मैं
हमेशा दूसरे लोगों की राय से भयभीत क्यों हो जाता हूं?
क्योंकि तुम हो ही
नहीं,
क्योंकि तुम अभी तक नहीं हो। तुम कुछ भी नहीं हो, बल्कि तुम दूसरों के विचारों और मतों के टकराने की एक दुर्घटना हो। तुम
कौन हो? कोई व्यक्ति कहता है कि तुम सुंदर हो, इसलिए तुम सुंदर हो जाते हो, और फिर अन्य एक व्यक्ति
कहता है कि तुम कुरूप हो इसलिए तुम कुरूप हो, और कोई व्यक्ति
कहता है कि तुम आश्चर्यजनक हो इसलिए तुम आश्चर्यजनक हो जाते हो। और कोई व्यक्ति
कहता है—मैंने ऐसा गंदा व्यक्ति कभी भी नहीं देखा। इसीलिए
तुम एक गंदे व्यक्ति हो। लोग कहे चले जाते हैं और तुम उन सभी चीज़ों को इकट्ठा
किये चले जाते हो। और यही तुम्हारी छवि है। इसी कारण से तुम्हारी छवि बहुत
विरोधाभासी और संदेहास्पद है: एक व्यक्ति कहता है कि तुम सुंदर हो, दुसरा व्यक्ति कहता है तुम कुरूप हो। तुम इस व्यक्ति के विचार को कि तुम
कुरूप हो, भूलना चाहते हो, लेकिन तुम
उसे भुला नहीं सकते, वह वहां बना ही रहेगा। यदि तुम इस राय
को कि तुम सुंदर हो अपने पास रखते हो, तो तुम्हें उस राय को
कि तुम कुरूप हो अपने पास बनाये रखना होगा।
तुम्हारी छवि बहुत
संदेहास्पद है, तुम ठीक से नहीं जानते कि तुम कौन हो।
तुम एक ‘हौज पौज’ हो; जिसे हम भारत में बहुत सी चीजों का मिश्रण अथवा अनेक भोज्य पदार्थों को
मिलाकर पकाई गई गड्डगड्ड कह कर पुकारते है। तुम्हारे पास अभी तक एक आत्मा नहीं है।
तुम्हारे पास कोई व्यक्तित्व नहीं है, तुम्हारे पास कोई
एकीकृत केन्द्र नहीं है, तुम दूसरों की सम्मतियों का केवल एक
कूड़ेदान हो। इसी कारण तुम भयभीत हो क्योंकि यदि दूसरों की सम्मतियां बदलती हैं तो
तुम बदल जाते हो, तुम उन लोगों के हाथ की पकड़ में हो।
और यही समाज की वह
चालबाजी है जिसका प्रयोग वह तुम पर शासन करने के लिए करती रही है। समाज के पास एक
कला पटुता है। वह सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए तुम्हें बहुत महत्वाकांशी बनाती है।
इसके द्वारा वह तुम्हें नियंत्रित करती है। यदि तुम समाज के नियमों का अनुसरण करते
हो,
वह तुम्हें सम्मान देता हैं, यदि तुम समाज के
नियमों का अनुसरण नहीं करते हो तो वह तुम्हारा अत्यधिक अपमान करती है। वह बहुत
बुरी तरह से तुम्हें आहत करती है। और समाज के नियमों का अनुसरण करना, उसका एक गुलाम बनना है। हां, एक गुलाम बनने के लिए
समाज तुम्हें बहुत बड़ा सम्मान देता है, लेकिन यदि तुम क
स्वतंत्र व्यक्ति बनना चाहते हो, तो समाज नाराज़ होता है,
वह तुम्हारे साथ किसी भी चीज़ का लेन-देन नहीं रखना चाहता।
वास्तव में किसी भी
समाज में एक स्वतंत्र व्यक्ति बनकर रहना बहुत कठिन है। और यह मैं तुमसे स्वयं अपने
अनुभव से कह रहा हूं। इस तरह रहना लगभग असम्भव है, क्योंकि
समाज किसी भी स्वतंत्र व्यक्ति को नहीं चाहता। एक स्वतंत्र व्यक्ति समाज के
अस्तित्व के लिए एक खतरा है। समाज संकल्प विहीन, मूर्ख मशीन
जैसे रौबोट ही पसंद करता है—जो हमेशा कहीं भी एक पंक्तिबद्ध
होकर झुकने के तैयार हो। केवल उन्हें जोर से पुकार कर कहो—‘सावधान’,
और यंत्रवत पंक्तिवद्ध खड़े होना शुरू कर देंगे। वे यह नहीं पूछते—‘आखिर क्यों? क्योंकि वे अनुकरण करने वाले लोग हैं।’
और समाज भली भांति
उसका प्रतिदान देता है, वह उन्हें सम्मान देता है,
वह उन्हें पुरस्कार देता है, उपाधियां देता है—ऐसा करना ही होता है, यह उनकी तरकीब है। जो लोग
स्वतंत्र हैं, वह उन्हें कैसे सम्मानित कर सकता है? वे लोग तो शत्रु हैं। एक परतंत्र समाज में एक स्वतंत्र व्यक्ति एक शत्रु
होता है, एक अनैतिक समाज में एक सदाचारी एक शत्रु होता है;
एक अधार्मिक समाज में एक धार्मिक व्यक्ति शत्रु होता है। भौतिक
संसार में एक आध्यात्मिक व्यक्ति हमेशा कठिनाई में होता है, वह
कहीं भी उसके अनुकूल नहीं होता है।
दूसरों के साथ उनके
अनुरूप बनने पर तुम जैसा चाहते हो समाज तुम्हें उतना ही अधिक देता है: वह तुम्हें
एक अच्छी छवि देकर तुम्हारी चापलूसी भी प्रशंसा करता है। लेकिन यदि तुम उसकी बात
नहीं सुनते हो, तब वह अपनी राय बदलने लगाता है। वह कुछ
ही क्षणों के अंदर तुम्हें बरबाद कर सकता है, क्योंकि
तुम्हारी छवि समाज के हाथों में है। इसलिए यह पहली चीज़ ठीक से समझ लेनी है।
तुम पूछते हो: ‘मैं हमेशा दूसरे लोगों की राय से क्यों भयभीत रहता हूं? क्योंकि तुम अभी तक हो ही नहीं, तुम कुछ भी नहीं हो
तुम दूसरों की सम्मतियों पर आश्रित हो, इसीलिए भयभीत हो: वे
लोग तुम्हारे बारे में अपनी राय या सम्मति वापस ले सकते हैं। पुरोहित ने कहा है कि
तुम एक बहुत अच्छे व्यक्ति हो। अब यदि तुम उसके कहे अनुसार आचरण करते हो, तो तुम अच्छे व्यक्ति बने रहोगे। यदि तुम उसके कहे अनुसार आचरण नहीं करते
हो—और हो सकता है, वह स्वयं एक मानसिक
रोगी हो, लेकिन तुम्हें उसके कहे अनुसार आचरण करना ही होगा—यदि तुम वैसा आचरण नहीं करते हो, यदि तुम कुछ चीज़
स्वयं अपनी और से करते हो, तो पुरोहित तुम्हारी और देखेगा।
और तुमसे कहेगा—‘अब तुम नैतिकता के विरूद्ध जा रहे हो,
अब तुम धर्म के विरूद्ध जा रहे हो, तुम परम्परा
के विरूद्ध जा रहे हो। तुम पाप में गिर रहे हो और वह तुम्हारे बारे में अपनी राय
बदल लेगा और तुम अभी तक उसकी राय के कारण ही एक अच्छे व्यक्ति थे।’
स्वयं में ही बने
रहो। न कोई व्यक्ति तुम्हें अच्छा बना सकता है और न कोई व्यक्ति तुम्हें बुरा बना
सकता है। सिवाय तुम्हारे स्वयं के कोई भी व्यक्ति तुम्हें अच्छा नहीं बना सकता और
न कोई भी व्यक्ति तुम्हें बुरा बना सकता है। यह झूठी छवियां लेकर केवल सपनों में
जीने जैसा है।
एक व्यक्ति को उसके
डॉक्टर द्वारा यह बताया गया—‘आप चिकित्सा शास्त्र
में एक इतिहास पुरूष बनने जा रहे है। आप इतिहास में दर्ज होने वाले अकेले ऐसे
पुरूष होंगे जिसने गर्भ धारण किया है।’
उस व्यक्ति ने
उत्तर दिया—‘यह भयानक है। आखिर पड़ोसी क्या कहेंगे?
मैं अभी तक विवाहित भी नहीं हूं।’
अब चिकित्सा
शास्त्र में एक इतिहास रच देने में कोई भी अभिरुचि नहीं है,
वह इस बारे में चिंतित है कि आखिर पड़ोसी क्या कहेंगे क्योंकि वह
अभी विवाहित भी नहीं है।
हम निरंतर भयभीत
रहते हैं। यह भर निरंतर बना ही रहेगा यदि तुम लोगों से इकट्ठे किये गये मतों को
नहीं छोड़ते। सभी की राय में मतों को छोड़ दो। कोई व्यक्ति यह विश्वास करता है कि
तुम एक संत हो? इसे छोड़ दो क्योंकि यह खतरनाक है,
वह अपने इस विचार के द्वारा तुम्हें नियंत्रित करेगा। एक बार उसे
सुनकर तुम उस पर विश्वास करते हो तो वह तुम्हारा मालिक बन जाता है और तुम गुलाम बन
जाते हो।
कभी-कभी लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं—‘आप एक महान संत हैं।’ मैं कहता हूं—‘मुझे खेद है, मुझे क्षमा कीजिए मेरे लिए कभी भी ऐसे
एक भी शब्द का उच्चारण मत कीजिए, क्योंकि मैं किसी भी
व्यक्ति के द्वारा नियंत्रित होने नहीं जा रहा हूं। मैं केवल स्वयं में हूं अथवा
पापी हूं, इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता।’ वह व्यक्ति सोच रहा है कि वह मेरी प्रशंसा करने का प्रयास कर रहा है। यह
हो सकता है कि वह भी इसके प्रति सचेत न हो कि वह क्या कर रहा है। जब भी तुम एक
व्यक्ति की प्रशंसा करते हो, तुम शक्तिशाली बन जाते हो। जब
भी तुम एक व्यक्ति की प्रशंसा करते हो और वह तुम्हारी प्रशंसा स्वीकार कर लेता है
तो वह नीचे गिरकर शिकार बन जाता है। अब तुम उसे नियंत्रित करोगे। अब जब भी वह कोई
छोटा-मोटा निर्दोष सा कुछ कार्य करना चाहता है..... !
ज़रा विचार करो; तुम एक
विशिष्ट व्यक्ति को एक संत एक महात्मा या एक महान ऋषि कहकर पुकारते हो। अब एक दिन
वह धूम्रपान करना चाहता हैं—अब क्या किया जाये? वह धूम्रपान नहीं कर सकता, क्योंकि फिर उसके संतत्व
का क्या होगा? अब केवल धूम्रपान करने के लिए, ऐसा प्रतीत होता है कि उसे बहुत अधिक कीमत चुकानी होगी, वह धूम्रपान नहीं कर सकता, क्योंकि इतने अधिक लोग
उसे एक संत कहकर पुकारते हैं। अथवा वह एक पाखण्डी बन जायेगा। वह दरवाजे के पीछे
छिपकर धूम्रपान करना प्रारम्भ कर सता है और वह यह नहीं कहेगा कि वह धूम्रपान करता
है और जब वह सामान्य लोगों के मध्य में होगा वह किसी अन्य चीज के समान धूम्रपान की
निंदा करेगा। तब उसके पास दो चेहरे होंगे। एक सामान्य लोगों के मध्य और निजी जीवन
में, तब वह विभाजित हो जायेगा।
कभी भी अन्य लोगों
की अच्छी या बुरी सम्मतियों को स्वीकार मत करो। उनसे सिर्फ यह कहो—‘मुझे खेद है। कृपया अपनी सम्मति या राय तुम स्वयं अपने ही पास रखो। मैं
स्वयं जैसा हूं।’ अगर तुम सजग बने रह सकते हो, तो कोई भी व्यक्ति तुम्हें कभी भी नियंत्रित करने में समर्थ न हो सकेगा और
तुम स्वतंत्र बने रहोगे। और स्वतंत्रता एक आनंद है। स्मरण रहे, स्वतंत्रता कठिन है, क्योंकि समाज गुलामों से बना
होता है। स्वतंत्रता कठिन है, लेकिन इस बारे में स्वतंत्रता
ही केवल मात्र आनंद है। इस जगह केवल स्वतंत्रता ही एक नृत्य है और केवल स्वतंत्रता
ही धार्मिकता की और खुलने वाला द्वार है। एक गुलाम कभी भी धार्मिकता तक नहीं
पहुंचता, वह पहुंच ही नहीं सकता।
सातवां प्रश्न-
प्यारे ओशो! यह कहा
जाता है कि अंग्रेज और उनकी भाषा संसार में श्रेष्ठतम सेवक बनाते हैं। जब आपने
मुझे सन्यास का नाम दिया तो आपने उसका अनुवाद इस भांति किया—‘प्रेम की सेवा में’ मैं जानती हूं कि अब इसका अनुवाद
‘प्रेम की दासी’ की भांति किया जा सकता
है। इस बारे में मुझे आश्चर्य है। कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि जब मैं अधिकतम
स्वयं में ही होती हूं और मेरा सेवा करने का अभिप्राय नहीं होता है, मैं अधिकतम प्रेम की सेवा में ही होती हूं। अन्यथा ऐसा प्रतीत होता है कि
मैं किसी उद्देश्य को आगे बढ़ाने की सेवा जैसा कार्य में अधिक लगी हूं और मैं
अंग्रेजी संस्कृति की शिष्टाचार, चापलूसी और उपयोगिता की
बीमारी से ग्रस्त हूं। कृपया क्या आप इसकी व्याख्या करने का कष्ट करेंगे?
यह प्रश्न है ‘प्रेमदासी’ का। प्रेम दासी का वास्तव में अर्थ है—‘प्रेम की सेविका’। लेकिन उसे संन्यास देते हुए मैंने
जानबूझकर प्रेम की सेवा में की भांति उसका अनुवाद किया था। उसका ठीक अनुवाद है ‘प्रेमदासी’ ही है। मैंने एक विशिष्ट कारण से ‘प्रेम की सेवा में’ कहते हुए उसका अनुवाद किया।
मैं चाहता हूं कि
तुम अधिक से अधिक सेवा करती रहो, लेकिन मैं नहीं चाहता
कि तुम सेविका बनो। सेवक लोग सेवा नहीं करते, केवल स्वामी
लोग ही सेवा करते हैं, सेवक तो अपने कर्तव्य का पालन करते
हैं। ड्यूटी करते है, चार शब्दों का एक कुरूप शब्द है। उन्हें उस कार्य को करना होता है। और
उसके अंदर वहां कोई भी सौंदर्य नहीं है। उसके अंदर वहां कोई भी प्रसन्नता नहीं है।
इसलिए सेवा करती रहो लेकिन कभी भी सेवक और सेविका मत बनो। यह तो एक बात। और दूसरी
बात यह: कि जब तुम सेविका बना जाती हो तो तुम आदतें सीखती हो, लेकिन सेवा करना एक आचरण और प्रक्रिया है। एक सेवक बनकर एक चरित्र को,
एक मुर्दा चरित्र को प्राप्त करने जैसा है। लोग जानते हैं कि तुम एक
सार्वजनिक सेवक हो, लोग जानते है कि यह व्यक्ति एक सेवक है।
एक सेवा करने वाला व्यक्ति पूर्ण रूप से भिन्न होता है, उसके
बारे में कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता। वह प्रति क्षण प्रत्युत्तर देने के लिए
चुनाव करेगा। तुम उसके अतीत पर निर्भर नहीं हो सकते। यही कारण है कि मैंने उसका
अनुवाद ‘प्रेम की सेवा में’ में किया।
सेवा करना बहुत सुंदर है पर सेवक बनना ठीक नहीं है। सेवा करने में स्वेच्छया ओर
स्वच्छंदता होती है।
उदाहरण के लिए तुम
एक सड़क से होकर गुज़र रहे हो, और तुम एक घर को आग
में जलता हुआ देखते हो और तुम तेजी से उसमें प्रवेश कर एक बच्चे को बचा लेते हो,
जा मरने जा रहा था। लेकिन तुम्हें ऐसा करना नहीं पड़ा। तुम किसी
सार्वजनिक सेवा की खोज नहीं कर रहे थे। तुम केवल सुबह टहलने के लिए जा रहे थे और
उस घर में आग लगी हुई थी। तुम उस बारे में जरा भी नहीं सोच रहे थे—वह केवल एक स्थिति थी और प्रत्युत्तर में तुमने सेवा की। लेकिन एक सेवक
होना खतरनाक है। क्योंकि यदि वह सेवा करने के लिए किसी व्यक्ति को नहीं खोज सकता
है तो वह किसी व्यक्ति को सेवा करवाने को बाध्य करेगा।
मैंने एक ईसाई
मिश्नरी के बारे में सुना है जो रविवारीय स्कूल में छोटे लड़कों और लड़कियों को
शिक्षा दे रहा था। वह उन्हें सप्ताह में कम से कम एक दिन एक अच्छी चीज़,
अथवा एक भला कार्य करने के बाबत बता रहा था। अगले रविवार को उसने
जांच की कि क्या उन लोगों ने कोई अच्छा कार्य किया, क्या
उन्होंने किसी व्यक्ति की सहायता करते हुए कोई सार्वजनिक सेवा की? तीन लड़के उठ कर खड़े हो गए और वह बहुत प्रसन्न हुआ। तीस लोगों में से कम
से कम तीन तो हैं। बल्कि यह प्रतिशत भी बहुत बड़ी है, क्योंकि
ऐसी बातों पर कौन कान देता है?
इसलिए उन्होंने
पहले लड़के से पूंछा—‘तुमने क्या किया? पूरी कक्षा को बतलाओ।’
और लड़के ने कहा—‘श्रीमान! मैंने सड़क पार करने में एक बूढी स्त्री की सहायता की।’
मिश्नरी ने कहा—‘बहुत बढ़ियां, हमेशा वृद्ध स्त्रियों की देखभाल करो।’
और तब उन्होंने
दूसरे लड़के से पूंछा और उसने उत्तर दिया—‘मैंने भी
एक बूढ़ी महिला की सड़क पार करने में सहायता की।’
तब वह पादी थोड़ा
सा उलझन में पड़ा, लेकिन उसने देखा कि इस बारे
में परेशान होने जैसा कुछ भी नहीं है, क्योंकि इस स्थान में
बहुत सी वृद्ध स्त्रियां हैं, और हो सकता है कि दूसरे लड़के
को भी ऐसी स्त्री मिल गई हो।
इसलिए फिर उसने
तीसरे से पूंछा और उसने कहां—‘मैंने भी एक वृद्ध
स्त्री की सड़क पार करने में सहायता की।’
तब पादरी ने कहा—‘यह बात कुछ अधिक प्रतीत होती है—क्या तुम तीनों को
वृद्धा स्त्रियां मिल गई?’
उन लोगों ने कहा—‘नहीं, वह तीन स्त्रियां न होकर केवल एक ही वृद्धा
स्त्री थी। हम सभी तीनों ने उसे की सहायता की।’
इसलिए पादरी ने
पूंछा—‘लेकिन क्या उसे तीन लोगों की ज़रूरत थी। तुम लोग कह रहे हो कि हम तीनों ही
की उसे ज़रूरत थी।’
--‘उसे तो
छ: लोगों के साथ भी कठिनाई हुई होती, क्योंकि वह सड़क के उस
पार जाना ही नहीं चाहती थी। श्रीमान, वह बहुत कठिन कार्य था,
लेकिन क्योंकि हम लोगों को कुछ अच्छा कार्य करना ही था इसलिए हमने
वे कठिन कार्य करना ही पड़ा। बह बहुत नाराज हुई थी।’
कभी भी एक सेवक मत
बनो,
अन्यथा तुम खोजने में लगे रहोगे.....और यदि तुम सेवा करने के लिए
कोई स्थान नहीं खोज सकते तो तुम बहुत क्रोधित होगे। इस बारे में सार्वजनिक सेवक
पूरे विश्व भर में हैं और वे सबसे अधिक खुराफाती लोग हैं। वे लोग बहुत सी
खुराफातें उत्पन्न करते हैं, क्योंकि लोग चाहते ही नहीं कि
उनकी सेवा की जाये, वे तब भी बलपूर्वक अपनी सेवाएं दिये जा
रहे है। उन्हें बल प्रयोग करना होता हैं, क्योंकि वहां
उन्होंने अपनी पूंजी लगाई हुई है। वे एक सुंदर संसार को अस्तित्व में बने रहने के
लिए अनुमति नहीं दे सकते; क्योंकि फिर उन लोगों का क्या होगा?
ज़रा सोचो: कोई भी
कोढ़ी लोग न बचें कोई भी बीमार लोग न रहें तो अस्पतालों की जरूरत नहीं हैं। और यदि
सभी लोग बोध को उपलब्ध हो जायें—तो न स्कूलों की न
कालेजों की और न विश्वविद्यालयों की जरूरत होगी। फिर सार्वजनिक सेवकों का क्या
होगा? वे आत्मघात करना शुरू कर देंगे। सेवा कराने वाला कोई
भी व्यक्ति न रहे। पर उन्हें ज़रूरत हैं। वे लोग किसी तरह से ऐसी स्थिति सृजित
करने की व्यवस्था कर लेंगे, जहां वे सेवा कर सकें; उनकी पूरी प्रतिष्ठा उसी पर निर्भर है। यह एक अहंकार की यात्रा है।
इसी कारण भली भांति
यह जानते हुए ही.....मुझे ठीक से याद है, जब मैंने
प्रेम दासी को सन्यास दिया था: तो मैं उसका अनुवाद ठीक ‘प्रेम
की दासी’ की भांति करने जा रहा था, तब
मैंने सोचा कि यह गलत होगा। शब्द का अर्थ वहीं होता है, लेकिन
मैंने उसे बदल दिया और उससे कहा—इसका अर्थ है—‘प्रेम की सेवा में’।
सेवा में बने रहो,
लेकिन सेवा करने को अपनी विशेषता मत बनाओ। मैं उन लोगों से प्रेम
करता हूं, जो बिना विशेषता के जीते हैं। जो क्षण प्रति क्षण
में जीते हैं, जो किन्हीं भी परिस्थितियों को प्रत्युत्तर
देते हैं। अन्यथा तुम बन्धन में रहोगे।
और प्रेम दासी! तुम
ठीक कहती हो, ‘जब मैं अधिकतम स्वयं में होती हूं और
मेरा सेवा करने का कोई उद्देश्य नहीं होता है तो मैं अधिक से अधिक प्रेम की सेवा
में ही होती हूं।’ यह पूर्ण रूप से सत्य है। यह जैसा होना
चाहिए वैसा ही है। यह पूर्ण रूप से सत्य है। यह जैसा होना चाहिए वैसा ही है। जब
सेवा करना तुम्हारा उद्देश्य होता है, तो यह फिर और सुंदर
नहीं रह जाता, यह फिर और अधिक प्रेम नहीं रह जाता। जब तुम
स्वयं में होती हो, पूर्ण रूप से स्वयं अपने में होती हो—तो पूरी तरह उस स्वतंत्रता से और पूरी तरह से तुम्हारे अस्तित्व से प्रेम
उत्पन्न होता है और तुम लोगों की सेवा करती हो। और इस बारे में ऐसी कोई अनुभूति
नहीं होती है कि तुम एक सेविका हो और वे लोग तुम्हारे स्वामी हैं। तुम सामान्य रूप
से सेवा करती हो, क्योंकि तुम्हारे पास देने को इतना अधिक है
कि तुम्हें उसमें दूसरों को सहभागी बनाना होता है। अपने को बांटने और सहभागी बनाने
में अपने प्रेम और अपनी करूणा में तुम प्रवाहित होती हो।
अंतिम प्रश्न:
प्यारे ओशो! क्या
कभी-कभी प्रार्थना भी हानिकारक हो सकती है?
सिवाय एक प्रकरण के,
इस बारे में ऐसा कभी सुना नहीं गया। वह कहानी इस प्रकार हैं.....
दो लड़कियों का
विवाह एक ही दिन हुआ और वे दोनों अपने-अपने प्रतियों को हनीमून के लिए एक ही होटल
में ले गई। वे चारों लोग विश्राम कक्ष में बैठे हुए सोच रहे थे कि पहली ही दृष्टि
से यह अनुभूति कितनी अधिक अच्छी लगेगी यदि वे सभी अपने बिस्तरे पर शीघ्रता से एक
ही समय जायें। लेकिन कुछ देर बाद यह निर्णय लिया गया कि लड़कियों को महिलाओं वाले
लक्ष्य के अनुसार पहले जाना चाहिए और तब वे अनोपचारिक रूप से अपने-अपने कमरों में
चली जायें और पुरूष मदिरालय में जाकर आखिरी जाम लें। और लगभग दस या पन्द्रह मिनट
बाद पुरूष भी इसी तरह से अचानक दुल्हनों के साथ शामिल हो जायें।
इस बारे में जब वे
लड़कियों का अनुसरण करने जा रहे थे, ठीक तभी न
जाने कैसे उस जगह बिजली चली गई, जो एक अजनबी इमारत में
व्यग्र होने की बात थी। इसके बावजूद प्रत्येक पुरूष आश्वस्त था की वह अपना कमरा
खोज सकेगा और इसलिए वे लोग रवाना हुए।
हेरी,
अंधेरे में टटोलता हुआ सीढ़ियों से ऊपर चढ़ा और रास्ते के किनारे
अपनी पूरी सावधानी से दरवाज़े गिनता हुआ आगे बढ़ा और इस कार्य के लिए वह बहुत अधिक
सावधान था। और उसने अपना कमरा खोज ही लिया। केवल सुनिश्चित होने के लिए उसने दिया
सलाई की एक तिल्ली घिसी और चर्च पर अपने दोनों पर फेंके गए रंगीन काग़ज के
छोटे-छोटे टुकड़े भी फर्श पर देखे। तब खामोशी से उसने प्रवेश किया, उसने सावधानी से अपने कपड़े उतार कर पायजामा पहना, घुटनों
के बल झुककर उसने अपनी प्रार्थना दोहराई और बिस्तरे पर चढ़कर प्रेम करना प्रारम्भ
कर दिया।
ठीक उसी क्षण बिजली
आ गई और प्रकाश में उसने देख कि वह ठीक उसी नम्बर के कमरे में था,
जिसमें उसे होना चाहिए था लेकिन वह गलत मंजिल या तल पर था और यह
दूसरे व्यक्ति की दुल्हन थी। उसने झपट कर अपने कपड़े उठाये और शीघ्रता से केवल यह
जानने के लिए अपने कमरे की और भागा की क्या दूसरा व्यक्ति नास्तिक था।
आज बस इतना ही।
thank you guruji
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