तंत्रा-विज्ञान-Tantra Vision-(भाग-दूसरा)
प्रवचन-आठवां-(प्रेम कोई छाया निर्मित
नहीं करता है)
दिनांक 08 मई 1977 ओशो आश्रम पूना।
पहला प्रश्न:
प्यारे ओशो!
कल जब आप बुद्धिमत्ता को ध्यान बनाने
के संबंध में बोले, तब वहां मेरे अंदर
बहुत वेग से दौड़ भाग हो रही थी। ऐसा अनुभव हुआ जैसे मानो मेरे ह्रदय में विस्फोट
हो जायेगा। वह ऐसा था, जैसे मानो आपने कुछ ऐसी चीज़ कहीं
जिसे सुनने की मैं प्रतीक्षा कर रहा था। क्या आप इसे विस्तारपूर्वक स्पष्ट कर सकते
है?
बुद्धिमत्ता जीवन की सहज स्वाभाविक
प्रवृति है। बुद्धिमत्ता जीवन का एक स्वाभाविक गुण है। ठीक जैसे कि अग्नि उष्ण
होती है। वायु अदृश्य होती है और जल नीचे की और बहता है। ठीक इसी तरह जीवन में भी
बुद्धिमत्ता होती है।
बुद्धिमत्ता कोई उपलब्धि नहीं है, तुम बुद्धि के साथ ही जन्म लेते हो। अपनी तरह से वृक्ष भी बुद्धिमान हैं, उनके पास अपने जीवन के लिए प्रर्याप्त बुद्धिमत्ता होती है। पक्षी बुद्धिमान हैं और इसी तरह से पशु भी। वास्तव में, धर्मों का परमात्मा से जो अर्थ है वह केवल यह है कि पूरा ब्रह्माण्ड ही बुद्धिमान है। वहां हर कहीं बुद्धिमत्ता छिपी हुई है, और तुम्हारे पास देखने के लिए आंखें हैं, तो तुम उसे हर कहीं देख सकते हो।
जीवन बुद्धिमत्ता पूर्ण है। केवल
मनुष्य ही बुद्धिहीन बन गया है। मनुष्य ने जीवन के स्वाभाविक प्रवाह को बर्बाद कर
दिया है। सिवाय मनुष्य में, वहां कहीं भी बुद्धिहीनता
नहीं है। क्या कभी एक पक्षी को देखा है, तुम उसे मूर्ख कह
सकते हो? ऐसी चीज़ें केवल मनुष्य के साथ ही होती हैं। कुछ
चीज़ कहीं गलत हो गई है। मनुष्य की बुद्धिमत्ता नष्ट प्रदूषित और अपंग हो गई है।
और ध्यान कुछ भी नहीं है, वह इस बरबादी को अनकिये करना है।
यदि मनुष्य को अकेला छोड़ दिया जाये
तो ध्यान की कोई जरूरत ही नहीं होगी। यदि पंडित और पुरोहित मनुष्य की बुद्धिमत्ता
के साथ कोई भी हस्तक्षेप न करें, तब वहां ध्यान करने
की कोई भी ज़रूरत नहीं होगी। ध्यान एक औषधि की भांति है। पहले तुम्हें बीमारी
उत्पन्न करनी होगी, तब ध्यान की जरूरत होगी। यदि वहां रोग ही
नहीं है तो ध्यान की जरूरत नहीं है। और यह कोई संयोग नहीं कि दवा(मेडिसिन) और
ध्यान(मेडिटेसन) शब्द समान मूल से आते हैं। वह शब्द है मेडिसिन अर्थात उपचार करने
के गुण पास होना।
प्रत्येक बच्चा बुद्धिमान होकर ही जनम
लेता है। और जिस क्षण बच्चे का जन्म होता है, हम उस पर आक्रमण कर देते हैं, और उसकी बुद्धिमत्ता
को नष्ट कर देना प्रारम्भ कर देते हैं, क्योंकि राजनैतिक
ढांचे के लिए, सामाजिक ढांचे के लिए और धार्मिक ढांचे के लिए
बुद्धिमत्ता खतरनाक है। यह पोप के लिए खतरनाक है, यह पुरी के
शंकराचार्य के लिए खतरनाक है, यह सभी धर्मों के लिए मठाधीशों
के लिए खतरनाक है, यह नेता के लिए खतरनाक है, जो स्थिति अभी है उसके लिए और सामाजिक व्यवस्था के लिए खतरनाक है।
बुद्धिमत्ता स्वाभाविक रूप से
विद्रोही है। बुद्धिमत्ता को पराधीन बनने के लिए विवश नहीं किया जा सकता।
बुद्धिमत्ता बहुत हठी और वैयक्तिक होती है। बुद्धिमत्ता को एक यांत्रिक अनुकरण में
नहीं बदला जा सकता।
लोगों की मौलिकता को नष्ट करना है और
उन्हें उनकी कार्बन कापी में बदलना है, अन्यथा पृथ्वी पर जो सभी व्यर्थ की मूर्खता विद्यमान है, उसका होना असम्भव हो जायेगा। चूंकि पहले तुम्हें बुद्धिहीन बनाना है,
तो तुम एक नेता की आवश्यकता होगी, अन्यथा वहां
किसी नेता अथवा वहां किसी नेता अथवा पथ प्रदर्शक की ज़रूरत ही नहीं होती, तुम्हें किसी व्यक्ति का अनुसरण क्यों करना चाहिए? तुम
अपनी बुद्धिमत्ता का अनुसरण करोगे। यदि कोई व्यक्ति पथप्रदर्शक बनना चाहता है,
तो उसे एक चीज़ करनी होगी उसे किसी तरह तुम्हारी बुद्धिमत्ता को
नष्ट करना होगा। तुम्हें प्रामाणिक जड़ों से हिलाना होगा, तुम्हें
भयभीत बनाना होगा। तुम्हें स्वयं अपने ही प्रति अनाश्वस्त होना होगा, ऐसा होना अनिवार्य है। केवल तभी नेता अथवा पथप्रदर्शक आ सकता है।
यदि तुम बुद्धिमान हो, तो तुम अपनी समस्याएं स्वयं सुलझा लोगे। सभी समस्याओं को हल करने के लिए
बुद्धिमत्ता पर्याप्त है। वास्तव में जो भी समस्याएं जीवन में सृजित होती हैं,
तुम्हारे पास उन समस्याओं से कहीं अधिक बुद्धि होती है। यह एक प्रावधान
है, यह परमात्मा का एक उपहार है।
लेकिन वहां महत्वाकांक्षी लोग होते
हैं। जो शासन करना चाहते हैं, जो आधिपत्य जमाना
चाहते हैं: वहां महत्वाकांक्षी पागल लोग भी होते हैं—वे
तुम्हारे अंदर भय सृजित करते हैं। भय एक मोरचे के समान है: वह सारी बुद्धिमत्ता को
नष्ट कर देता है। यदि तुम किसी व्यक्ति की बुद्धिमत्ता को नष्ट करना चाहते हो,
तो पहली आवश्यक चीज़ है कि भय सृजित करो, नर्क
निर्मित कर दो जिससे लो डरने लगें। जब लोग भय के नर्क में होते हैं तो वे पुरोहित
के पास जायेगें उसके आगे सिर झुकायेंगे। वे पंडित पुरोहित की बात सुनेंगे। यदि वे
उसे नहीं सुनते है तो नर्क की ज्वाला है। स्वाभाविक रूप से वे भयभीत हैं। उन्हें
नर्क की ज्वाला से अपनी रक्षा करनी है; इसके लिए पुरोहित की
ज़रूरत है। पुरोहित अनिवार्य हो जाता है।
मैंने दो व्यक्तियों के बारे में सुना
है, जो एक व्यापार में साझीदार थे। उनका अनूठा व्यापार था
और वे नगर में चारों और यात्राएं किया करते थे। एक साझीदार शहर में आता और रात में
चारों और घूमते हुए वह लोगों की खिड़कियों पर कोलतार फेंक जाता। फिर उसका साझीदार
दोस्त सुबह गायब हो जाता अथवा दो या तीन दिनों के बाद दूसरा आता। वह कोलतार साफ
किया करता और लोगों की खिड़कियां की सफाई करता और निश्चित रूप से लोग धन भी देते।
उन्हें वह अदा करना ही होता था। वे लोग एक ही व्यापार में साझीदार थे। एक आकर
नुकसान करता और तब दूसरा आकर उसे अनकिये करता।
भय उत्पन्न करना होता है, लालच उत्पन्न करना होता है। बुद्धिमत्ता कभी लालची नहीं होती। तुम्हें यह
जानकर आश्चर्य होगा कि एक बुद्धिमान व्यक्ति कभी लालची नहीं होता। लालच
बुद्धिहीनता का एक भाग है। तुम कल के लिए संग्रह करते हो, क्योंकि
तुम आश्वस्त नहीं होते हो कि कल भी तुम जीवन को संभालने में समर्थ हो सकोगे,
अन्यथा संग्रह करना क्यों?तुम जोड़ते हो,
तुम कंजूस बन जाते हां, तुम लालची बन जाते हो,
क्योंकि तुम यह नहीं जानते कि क्या कल भी तुम्हारी बुद्धिमत्ता जीवन
के साथ सफलतापूर्वक निपटने में समर्थ होगी अथवा नहीं। कौन जानता है?तुम अपनी बुद्धिमत्ता के बारे में आश्वस्त नहीं हो, इसीलिए
तुम संग्रह करते हो और लालची बन गए हो। और भय दोनों एक साथ समय बिताते हैं। इसी
कारण स्वर्ग और नर्क दोनों एक साथ समय बिताते हैं। नर्क है भय और स्वर्ग है लालच।
लोगों में भय उत्पन्न करो, और लोगों में लालच उत्पन्न करो—उन्हें इतना अधिक
लालची बना दो जितना संभव हो सके। उन्हें इतना अधिक लालची बना दो कि जीवन उनको
संतुष्ट न कर सके। तब वे पुरोहित और नेता के पास जायेंगें। तब वे किसी भविष्य के
जीवन के बारे में कल्पनाएं करना शुरू करेंगे। जहां उनकी मूर्खतापूर्ण कामनाएं और
मूढ़तापूर्ण कल्पनाएं सफल हो सकेंगी। इसका निरीक्षण करो। असम्भव की मांग करना
बुद्धिहीन बनना है।
एक बुद्धिमान व्यक्ति जो सम्भव है, उसके साथ पूर्ण रूप से संतुष्ट होता है। वह सम्भावित के लिए कार्य करता
है। वह असम्भव और असम्मानित के लिए कभी कार्य नहीं करता, नहीं।
वह जीवन और उसकी सीमाओं की और देखता है। वह पूर्णता वादी नहीं होता है। एक पूर्णता
वादी मानसिक रूप से रूग्ण होता है। यदि तुम एक पूर्णता वादी हो तो एक मानसिक रोगी
बन जाओगे।
उदाहरण के लिए यदि तुम एक स्त्री से
प्रेम करते हो तो तुम उसे पूर्ण वफादारी और ईमानदारी मांग करोगे, तुम पागल हो जाओगे और वह भी पागल हो जायेगी। यह सम्भव नहीं है: परिपूर्ण
वफादारी का अर्थ है कि वह किसी अन्य व्यक्ति के बारे में सोचेगी भी नहीं, वह सपने तक में भी नहीं सोचेंगी। यह सम्भव नहीं है। तुम होते कौन हो?वह आखिर तुम्हारे प्रेम में क्यों पड़ी?—क्योंकि तुम
एक पुरूष हो। यदि वह तुम्हारे साथ प्रेम में पड़ सकती है, तो
दूसरों के बारे में क्यों नहीं सोच सकती?वह सम्भावना खुली ही
रहती है। यदि वह किसी सुंदर पुरूष को अपने निकट घूमते हुए पाती है और यदि उसके
अंदर एक कामना उठती है तो वह उसे कैसे व्यवस्थित करने जा रही है। यह कहना भी कि वह
व्यक्ति सुंदर है, एक कामना करना हैं—एक
कामना अंदर प्रविष्ट हो गई। तुम केवल यह कह सकते हो कि कोई चीज़ सुंदर है, और जब तुम अनुभव करते हो कि वह अधिकार में किये जाने और आनंद का उपयोग
करने के योग्य है, तो तुम उदासीन नहीं हो।
अब तुम परिपूर्ण सत्यनिष्ठा और
वफादारी के बारे में पूछते हो जैसा कि लोग पूछते हैं, तब वहां संघर्ष होना सुनिश्चित है और तुम संदेह शील बने रहोगे। तुम संदेह
शील बने रहोगे क्योंकि तुम अपने मन को भी जानते हो कि वह दूसरी स्त्रियों के बारे
में भी सोचता है, इसलिए तुम यह कैसे विश्वास कर सकते हो कि
तुम्हारी स्त्री दूसरे पुरुषों के बारे में नहीं सोच रही है?तुम
जानते हो कि तुम ऐसा सोच रहे हो; इसलिए तुम यह भी जानते हो
कि वह भी सोच रही है। अब अविश्वास संघर्ष, दुःख उत्पन्न होता
है। वह प्रेम जो सम्भव था वह एक असम्भव कामना के कारण असंभव बन गया है।
जो नहीं किया सकता, लोग उसे मांगते हैं। तुम भविष्य के लिए सुरक्षा चाहते हो, जो सम्भव नहीं है। तुम कल के लिए परिपूर्ण सुरक्षा चाहते हो। उसकी गारंटी
नहीं हो सकती है, वह जीवन के स्वभाव में ही नहीं है। एक
बुद्धिमान व्यक्ति जानता है कि वह जीवन के स्वभाव में ही नहीं है—भविष्य खुला बना रहता हैं। बैंक दिवालिया सिद्ध हो सकता है, पत्नी किसी अन्य व्यक्ति के साथ पलायन कर सकती है, पति
मर सकता है, बच्चे अयोग्य सिद्ध हो सकते हैं। तुम अपंग हो
सकते हो....कल के बारे में कौन जानता है?
कल के लिए सुरक्षा मांगने का अर्थ है
भय में बने रहना, इतने अधिक भय को नष्ट
किये जाना सम्भव नहीं है। वहां भय होगा ही तुम कांप रहे होगे और इसी मध्य वर्तमान
क्षण खोते जा रहे हो। भविष्य में सुरक्षा की कामना के साथ तुम वर्तमान को नष्ट कर
रहे हो। उस जीवन को नष्ट कर रहे हो जो केवल अभी उपलब्ध है। और तुम अधिक से अधिक
भयभीत कम्पित और लालची बनोगे।
एक बच्चा जन्म लेता है। एक बच्चा
बहुत-बहुत अद्भुत दृश्य सत्ता होता है, वह पूर्ण रूप से बुद्धिमान होता है। लेकिन हम उस पर कूद पड़ते हैं। और हम
उसकी बुद्धिमत्ता को नष्ट करना प्रारम्भ कर देते हैं। हम उसके अंदर भय उत्पन्न कर
देना प्रारम्भ कर देते हैं। तुम इसे शिक्षण कहते हो, तुम इसे
बच्चे को जीवन के सफलता पूर्वक निपटने की योग्यता कहते हो वह निर्भय है, तुम उसमें भय उत्पन्न करते हो। और तुम्हारे सभी स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय उसे अधिक से अधिक बुद्धिहीन बनाते हैं। वे
मूर्खतापूर्ण चीजों की अधिकार पूर्ण मांग करते हैं, वे लोग
मूर्खतापूर्ण चीजों को उसे कंठस्थ करा देने का दावा करते हैं, जिसमें बच्चा और उसकी स्वाभाविक बुद्धिमत्ता कोई भी चरित्रगत विशेषता नहीं
देख सकती—आखिर किसके लिए?वह बच्चा उसका
अभिप्राय नहीं देख सकता कि ये चीज़ें उसे क्यों कंठस्थ कराई जा रही हैं?लेकिन घर वाले, परिवार वाले सभी तुम्हारा भला चाहते
वाले है, सभी कॉलेज और विश्वविद्यालय कहते है—रटो, रट डालो, तुम अभी नहीं
जानते लेकिन बाद में तुम जानोगे कि यह क्यों जरूरी है।
रटने वाला इतिहास—यह सभी मूर्खतापूर्ण है जो मनुष्य दूसरे लोगों के साथ करता आया है—यह रटंत विद्या पूरा पागलपन है। और बच्चा इसका अभिप्राय नहीं समझ सकता:
इससे क्या फर्क पड़ता है?कि एक राजा ने एक विशिष्ट ने
इंग्लैंड पर शासन किया। किस तारीख से किस तारीख तक किया। उसे वे सभी मूर्खतापूर्ण
चीजें रटनी पड़ती हैं। स्वाभाविक रूप से उसकी बुद्धिमत्ता अधिक से अधिक बोझिल और
अपंग होती जाती है और उसकी बुद्धिमत्ता पर अधिक से अधिक धूल एकत्रित हो जाती है।
जिस समय एक व्यक्ति विश्वविद्यालय से वापस लौटता है, वह
बुद्धिहीन होता है। विश्वविद्यालय ने अपना कार्य पूरा कर दिया है।
ऐसा बहुत कम और दुर्लभ होता है कि एक
व्यक्ति विश्वविद्यालय से आ सके और फिर भी वह बुद्धिमान बना रहे। तो भी वह
बुद्धिमान बना रह सकता है। बहुत थोड़े लोग विश्वविद्यालय से दूर रह पाने में अथवा
उससे बचे रहने में विश्वविद्यालय के द्वार से गुजर जाने के बाद भी अपनी
बुद्धिमत्ता को बचाए रखने में समर्थ हो पाते हैं। तुम्हें नष्ट करने का यह पूरा
यांत्रिकत्व है। जिस क्षण तुम शिक्षित बनते हो तुम बुद्धिहीन बन जाते हो। क्या तुम
इसे नहीं देख सकते?शिक्षित व्यक्ति बहुत
अधिक बुद्धिहीनता से व्यवहार करते हैं। आदिवासी लोगों के पास जाओ जो कमी भी
शिक्षित नहीं हुए हैं तुम उनमें कार्य करती हुई विशुद्ध बुद्धिमत्ता पाओगे।
मैंने सुना है—
एक स्त्री एक बंद कनस्तर को खोलने का
प्रयास कर रही थी और वह उसे खोलने का कोई भी रास्ता नहीं खोज पा रही थी। इसलिए वह
भोजन पकाने की पुस्तिका में देखने लगी। जिस समय उसने पुस्तिका में वह विधि देखी, रसोइये ने उसे खोल दिया था। वह वापस लौट कर आश्चर्य-चकित रह गई। उसने
रसोइये से पूछा—‘तुमने यह कार्य कैसे किया?’
उसने कहा—‘श्रीमती जी! जब आप नहीं जानती कि कैसे पढ़ा जाये तो आपको अपनी बुद्धिमत्ता
का उपयोग करना होता है।’
हां, यह ठीक है। जब तुम नहीं जानते कि कैसे पढ़ा जाए, तब
तुम्हें अपनी बुद्धिमत्ता का उपयोग करना होगा, तुम और क्या
कर सकते हो?जिस क्षण तुम पढ़ना शुरू करते हो...वे तीन खतरनाक
बातें, जब तुम उनके योग्य बनते हो, तुम्हें
बुद्धिमान होने की जरूरत नहीं होती, फिर पुस्तकें ही तुम्हारी
देखभाल करेंगी।
क्या तुमने इसे देखा है?जब एक व्यक्ति टाईप करना शुरू करता है, उसकी हाथ की
लिखावट बर्बाद हो जाती है। तब उसके हाथ का लिखा फिर और सुंदर नहीं रह जाता। वहां
उसकी आवश्यकता ही नहीं है, फिर टाइपराइटर ही उसकी देखभाल
करता है। यदि तुम अपनी जेब में एक ‘कैलकुलेटर’ लेकिन चलते हो तो तुम सारी गणित भूल जाते हो। वहां उसकी कोई भी आवश्यकता
नहीं रह जाती। देर या सवेर वहां और भी छोटे कंप्यूटर होंगे और प्रत्येक व्यक्ति के
साथ लेकर चलेगा। उनके पास एन साइक्लोपीडिया (विश्व कोष) की सारी सूचनाएं होंगी और
तब वहां तुम्हारे लिए किसी भी प्रकार से बुद्धिमान बनने की कोई भी जरूरत नहीं रह
जायेगी। और कम्प्यूटर ही तुम्हारी देखरेख करेगा।
अशिक्षित गांव वालों और आदिवासियों के
पास जाओ और तुम उनमें एक सूक्ष्म बुद्धिमत्ता पाओगे। ‘हां’ यह सच है कि उनके पास अधिक सूचनाएं नहीं हैं,
वे लोग अधिक जानकार नहीं है लेकिन वे बहुत अत्यधिक बुद्धिमान हैं।
उनकी बुद्धि एक धूम्ररहित लो की भांति उनके चारों और रहती है।
मनुष्य के साथ कुछ विशिष्ट कारणों से
समाज से समाज ने कुछ चीज़ गलत कर दी है। वह तुम्हें गुलाम बनाना चाहता हे। वह
चाहता है कि तुम सदा भयभीत बने रहो, वह चाहता है कि तुम हमेशा लालची बने रहो, वह चाहता
है कि तुम हमेशा महत्वाकांक्षी बने रहो, और वह चाहता है कि
तुम हमेशा प्रतियोगिता में बने रहो। वह चाहता है कि तुम अप्रेम पूर्ण बने रहो,
वह चाहता है कि तुम क्रोध और घृणा से भरे रहो, वह चाहता है कि तुम दुर्बल और अनुकरण करते हुए एक कार्बन कापी बनकर रहो।
वह नहीं चाहता कि तुम मौलिक बुद्ध बनो, मौलिक रूप से कृष्ण
अथवा क्राईस्ट बनो—नहीं। इसी कारण तुम्हारी बुद्धिमत्ता नष्ट
कर दी गई है। समाज ने जो कुछ भी किया है, केवल उसे अनकिये
करने के लिए ही ध्यान ज़रूरी है। ध्यान निषेधात्मक है। वह सामान्य रूप हुए नुकसान
को अवहेलना करता है, वह मानसिक रूग्णता को नष्ट करता है,
और एक बार रूग्णता चली जाती है। तुम्हारे भांति अस्तित्व में बने
रहने की दृढ़ता स्वयं अपने से आती है।
और इस सदी में वह बहुत दूर तक चला गया
है। विश्वव्यापी शिक्षा अभियान एक संकट बन गया है। स्मरण रहे कि मैं शिक्षा देने
के विरूद्ध हूं। मैं इस तरह की शिक्षा देने के बिलकुल विरूद्ध हूं। इस बारे में एक
भिन्न प्रकार की शिक्षा देने की सम्भावना है, जो तुम्हारी बुद्धिमत्ता को धारदार बनाने में सहायक होगी, न कि उसे नष्ट करने में, जो अनावश्यक तथ्यों के साथ
उसे एक भार नहीं बनायेगी, जो व्यर्थ के कूड़े कर्कट के साथ
उसे बोझिल नहीं बनायेगी—एक ऐसा ज्ञान जो किसी भी प्रकार से
एक भार नहीं होगा, बल्कि वह तुम्हें और अधिक दीप्त वान ताज़ा
और युवा बनाने में सहायक होगा।
यह शिक्षा केवल तुम्हारी स्मृति को
समर्थ बनाती है और ‘वह’ शिक्षा तुम्हें कहीं अधिक स्पष्ट और पारदर्शी बनाने में समर्थ होगी1 यह शिक्षा तुम्हारे अनुसंधान किये जाने के गुण को नष्ट करती है और ‘वह’ शिक्षा तुम्हें कहीं अधिक अन्वेषी बनाने में सहायक
होगी।
उदाहरण के लिए वह शिक्षा जो मैं इस
संसार में चाहता हूं, उमसे एक बच्चे को
स्टीरियों की भांति रटे रटाये पुरानी तरह के उत्तर देने की जरूरत नहीं होगी। वह
उसे उस उत्तर को देने के लिए प्रोत्साहित नहीं करेगी जो पुस्तकों में लिखा हुआ है,
वह उसे तोते की तरह दोहराने के लिए प्रोत्साहित नहीं करेगी। वह उसे
खोज करने के लिए प्रोत्साहित करेगी, यदि खोजा गया उत्तर
पुस्तक से नकल किये गए उत्तर जितना ठीक नहीं भी है, फिर भी
वह उस बच्चे की प्रशंसा करेगा, जो पुरानी समस्या का एक नया
उत्तर लाया। निश्चित रूप से उसका उत्तर सुकरात के उत्तर जैसा नहीं हो सकता है।
परंतु यह स्वाभाविक है; वह एक छोटा सा बच्चा है...स्वाभाविक
है कि उसका उत्तर उतना ठीक नहीं हो सकता है जितना कि अल्बर्ट आइंस्टीन का। लेकिन
यह मांग करना मूर्खता है कि उसका उत्तर अल्बर्ट आइंसटीन के उत्तर जैसा ही ठीक हो।
यदि उस उत्तर में एक खोज है तो वह ठीक दिशा में है; और एक
दिन वह अल्बर्ट आइंसटीन बनेगा। यदि वह कुछ नई चीज सृजित करने का प्रयास कर रहा है।
तो यह स्वाभाविक है कि उसके पास अपने सीमाएं हैं। लेकिन केवल उसके कुछ नई चीज़
सृजित करने के प्रयास की ही प्रशंसा की जानी चाहिए।
शिक्षा में प्रति प्रतियोगिता नहीं
होनी चाहिए, एक दूसरे के विरूद्ध लोगों का
निर्णय नहीं किया जाना चाहिए। प्रतियोगिता पूर्ण होना बहुत हिंसक और विध्वंसक है।
कोई व्यक्ति गणित में अच्छा नहीं है और तुम उसे एक सामान्य व्यक्ति कहते हो। वह
बढ़ईगीरी में कुशल हो सकता है, लेकिन कोई भी व्यक्ति उस और
नहीं देखता। कोई व्यक्ति साहित्य में ठीक-ठाक है और तुम उसे मूर्ख कहते हो—और वह संगीत अथवा नृत्य में कुशल हो सकता है।
एक सच्ची शिक्षा लोगों को अपने जीवन
को खोजने में सहायता करेगी कि वे कहां पूर्ण जीवंत बनकर रह सकते हैं। यदि एक
व्यक्ति का जन्म ही बढ़ई बनने के लिए ही हुआ है, तो उसके लिए वही कार्य करना ही ठीक है। वहां कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं हो,
जो उसे अन्य कार्य करने के लिए विवश करें। यदि एक व्यक्ति को स्वयं
में बने रहने में सहायता की जाये, उसे स्वयं में ही बने रहने
के लिए प्रत्येक प्रकार से सहायता दी जाये और कोई भी व्यक्ति उसमें हस्तक्षेप करने
के लिए नहीं आता है, तो यह संसार एक ऐसा महान
बुद्धिमत्तापूर्ण संसार बन सकता है, जहां कोई भी व्यक्ति
किसी बच्चे को नियंत्रित नहीं करता है। यदि वह एक नर्तक बनना चाहता है तो वह ठीक
है, तो नर्तकों की भी आवश्यकता है। और संसार में नृत्य बहुत
अधिक जरूरी चीज है। यदि वह एक कवि बनना चाहता है, तो अच्छा
है, काव्य की भी अधिक आवश्यकता है, वहां
पर्याप्त काव्य है ही नहीं। यदि वह एक बढ़ई अथवा एक मछुवारा बनना चाहता है, तो यह पूरी तरह से ठीक है। यदि वह एक लक्कड़ हारा बनना चाहता है तो भी
पूर्ण रूप से ठीक है। इस बारे में उसके लिए एक प्रधानमंत्री अथवा एक राष्ट्रपति
बनने की कोई भी आवश्यकता नहीं है। वास्तव में यदि थोड़े से लोग इन लक्ष्यों में
अपनी रूचि रखते हैं, तो यह एक वरदान ही होगा।
ठीक अभी तो प्रत्येक चीज़ उलटी-पलटी
हो रही है। एक व्यक्ति जो बढ़ई बनना चाहता है, एक डॉक्टर बन गया है, एक व्यक्ति जो डॉक्टर बनना
चाहता था वह बढ़ई बन गया है, प्रत्येक व्यक्ति वह कार्य कर
रहा है, जो किसी अन्य व्यक्ति को कार्य करना चाहिए। एक बार
तुम इसे देखना प्रारम्भ करते हो तो तुम अनुभव करोगे कि लोग क्यों बुद्धिहीनता से
व्यवहार कर रहे है।
भारत में हम लोग गहराई से ध्यान करते
रहे हैं और हम लोगों ने एक शब्द स्वधर्म अर्थात आत्म-स्वभाव को खोजा है, जो भविष्य के संसार के लिए महानतम निहित अर्थ अपने साथ लिए हुए चल रहा है।
कृष्ण ने कहा है-‘तुम्हारा अपने निज-स्वभाव अर्थात अपने आत्म
स्वभाव का अनुसरण करते हुए मर जाना ही अच्छा है। पूरा-धर्म भयावह वह किसी अन्य
व्यक्ति का स्वभाव को चुनना बहुत खतरनाक है।’अनुकरणकर्ता मत
बनो। बस स्वयं में ही बने रहो।
मैंने सुना है.....
बिल हमेशा रेंडियर के शिकार के लिए
जाना चाहता था, इसीलिए उसने पर्याप्त धन एकत्रित
किया ओर उतरी जंगलों में गया। वहां उसने पर्याप्त उपकरण जो शिकार के अनुरूप थे
एकत्रित किये। उसके स्टोरकीपर ने उसे परामर्श दिया कि धन देकर पियरे की सेवाएं ली
जायें, जो इस भूमि पर अपनी आवाज़ द्वारा रेंडियर को बुलाने
वाला विशेषज्ञ है।
स्टोरकीपर ने कहा—‘यह बात सत्य है कि पियरे बहुत महंगा है लेकिन उसके पास रेंडियरों को
बुलाने के लिए सेक्सी ध्वनि निकालने का एक ऐसा गुण है,जिसे
सुनकर कोई भी रेंडियर अपने को रोक नहीं पाता।’
बिल ने पूंछा—‘वह कैसे कार्य करता है?’
उसने कहा—‘पियरे तीन सौ गज दूर से एक रेंडियर की उपस्थिति को उसके लक्षणों से पहचान
लेगा, तब अपने हाथों को प्याले का आकार देकर उसे मुंह पर
रखकर पहली पुकार देगा। जब रेंडियर उस आवाज़ को सुनता है तो वह आशा के अनुरूप कामना
से उत्तेजित होकर दो सौ गज आ जायेगा। पियरे तब अपनी आवाज़ और अधिक सेक्सी बनाकर
उसे पुकारेगा और तब रेंडियर उत्सुकता और प्रसन्नता से कूदता हुआ सौ गज की दूरी पर
आ जायेगा। इस बार पियरे वास्तव में अपनी आवाज़ को और अधिक सेक्सी बनाकर उसे कुछ
देर निरन्तर जारी रखेगा, जो रेंडियर की कामवासना को उस बिंदु
तक उद्दीप्त कर देगी की वह बढ़ता हुआ तुमसे पच्चीस गज दूर रह जायेगा। और मित्र वही
वह समय होता है कि तुम उसे लक्ष्य बनाकर गोली से मार दो।’
बिल ने आश्चर्य चकित हो कर पूंछा—‘मान लो, मरा निशान चूक गया तब....?’
उसने कहा—‘ओह! तब वह बहुत भयानक क्षण होगा।’
बिल ने पूंछा—‘लेकिन क्यों?’
उसने उत्तर दिया—‘क्योंकि तब बेचारे पियरे को ही उसकी मादा बनना होगा।’
अनुकरण और अनुसरण करते हुए मनुष्य के
साथ यही सभी कुछ हुआ है। मनुष्य अपने वास्तविकता की अंर्तदृष्टि पूरी तरह खो चुका
है। ज़ेन के लोग कहते हैं—‘अपने मौलिक चेहरे की
खोज करो।’
यही तंत्र भी कहता है कि तुम जो कुछ
भी प्रामाणिक रूप से हो, उसे खोजो, तुम कौन हो? यदि तुम यह नहीं जानते कि तुम कौन
हो...तो तुम हमेशा किसी दुर्घटना में बने रहोगे। तुम्हारी जीवन दुर्घटनाओं की
लम्बी सीरीज बन जाएगा और जो कुछ भी होता है वह कभी भी संतोषजनक नहीं होगा तुम्हारे
जीवन का स्वाद केवल असंतोष ही होगा।
इसका तुम अपने चारों और निरीक्षण कर
सकते हो। इतने अधिक लोग क्यों इतने अधिक सुस्त और ऊबे हुए दिखाई देते हैं और वे
अपने अत्यधिक मूल्यवान समय को केवल बस किसी तरह गुज़ारे जा रहे हैं जिसे वे कभी भी
फिर से प्राप्त करने में समर्थ नहीं होंगे—और
वे उसे ऐसी सुस्ती के साथ व्यतीत कर रहे हैं, जैसे मानो वे
केवल मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इतने अधिक लोगों को आखिर क्या हो गया है?उनके पास वैसी ही ताज़गी क्यों नहीं है जैसी कि वृक्षों में हैं?मनुष्य के पास वैसे ही गीत तराने क्यों नहीं है जैसे कि पक्षियों के पास
हैं?मनुष्य को ही क्या हो गया है?
मनुष्य के साथ एक चीज़ हुई है कि वह
अनुकरण कर रहा है। मनुष्य कोई दूसरा ही व्यक्ति बनने का प्रयास कर रहा है। कोई भी
व्यक्ति अपने घर में नहीं है और प्रत्येक व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति का द्वार
खट-खटा रहा है। इसलिए असंतोष, सुस्ती, ऊबा हट और वेदना है....
जब सरहा कहता है कि बुद्धिमत्ता ही
ध्यान पूर्ण होने का प्रामाणिक लक्षण है तो उसके कहने का अर्थ है कि एक बुद्धिमान
व्यक्ति केवल स्वयं में ही बने रहने का प्रयास करेगा, चाहे उसकी कुछ भी कीमत चुकानी पड़े। एक बुद्धिमान व्यक्ति नकल नहीं करेगा,
कभी किसी का अनुसरण नहीं करेगा और न कभी भी एक तोता बनेगा। एक
बुद्धिमान व्यक्ति केवल अपनी सहज स्वाभाविक पुकार को सुनेगा। वह अपने ही सारभूत
अस्तित्व को अनुभव करेगा और उसके अनुसार ही चलेगा, चाहे उसे
कितनी भी जोखिम क्यों न उठानी पड़े। वहां जोखिम है, और जब
तुम दूसरे की नकल करते हो तो उसमें कम जोखिम होती है। जब तुम कसी अन्य व्यक्ति की
नकल नहीं करते हो, तो तुम अकेले होते हो और वहां जोखिम होती
है।
लेकिन जीवन केवल उन्हीं लोगों को घटता
है जो लोग खतरनाक ढंग से जीते हैं। केवल उन्हीं लोगों के जीवन में कुछ होता है, जो साहसी होते है जो साहसिक जीवन जीते है, जो लगभग
दुस्साहसी होते है, केवल उन्हीं लोगों के जीवन में कुछ घटता
है। कुनकुने ढंग से रहने वाले लोगों के जीवन में कुछ भी नहीं होता है।
एक बुद्धिमान व्यक्ति स्वयं अपने पर
विश्वास करता है, स्वयं अपने बारे में
उसका विश्वास परिपूर्ण होता है। यदि तुम स्वयं अपने पर ही विश्वास नहीं कर सकते हो
तो तुम अन्य किसी व्यक्ति पर कैसे विश्वास कर सकते हो?
लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं—‘हम आप पर विश्वास करना चाहते हैं।’मैं उनसे पूछना
चाहता हूं—‘क्या तुम स्वयं अपने पर विश्वास करते हो?’यदि तुम स्वयं पर विश्वास करते हो तब तुम मुझ पर भी विश्वास कर सकते हो।
एक सम्भावना है। अन्यथा वहां कोई भी सम्भावना नहीं है। यदि तुम स्वयं अपने पर
विश्वास नहीं करते हो, फिर तुम मुझ पर विश्वास कैसे कर सकते
हो?तुम स्वयं अपने ही सबसे अधिक निकट हो। यदि तुम स्वयं अपने
पर विश्वास करते हो तो तुम मुझ पर भी विश्वास कर सकते हो। तब तुम मुझमें अपने
विश्वास पर विश्वास करोगे, वहां कोई भी नहीं सम्भावना नहीं
है।
तुम्हारा स्वयं के अस्तित्व पर
विश्वास करना बुद्धिमत्ता है। बुद्धिमत्ता एक साहसिक कार्य है, वह एक रोमांच और प्रसन्नता है। इस क्षण में जीना और भविष्य के लिए व्यग्र
न होना ही बुद्धिमत्ता है।
अतीत के बारे में न सोचना और भविष्य
के बारे में चिंता न करना ही बुद्धिमत्ता है। अतीत अब और है ही नहीं और भविष्य अभी
आया ही नहीं है। वर्तमान क्षण का जो अभी उपलब्ध है, उत्कृष्ट उपयोग करना ही बुद्धिमानी है। भविष्य उसके गर्भ से आयेगा यदि यह
क्षण प्रमुदित होकर प्रसन्नता से जी लिया है तो अगला क्षण उससे ही जन्म लेने जा
रहा है। स्वाभाविक रूप से वह और अधिक प्रसन्नता लाएगा, लेकिन
वहां इस बारे में फिक्र करने की कोई भी जरूरत नहीं है। यदि मेरा आज स्वर्णिम रहा
है, तो मेरा कल और भी अधिक स्वर्णिम होगा। वह कहां से आयेगा?वह आज ही के गर्भ से जन्म लेगा। यदि यह जीवन एक वरदान बनकर रहा है तो मेरा
अगला जन्म एक उच्चतम वरदान ही होगा। वह कहां से आ सकता है?वह
मेरे जिए हुए अनुभव से और मुझसे ही तो उत्पन्न होगा। इसलिए एक बुद्धिमान व्यक्ति
की स्वर्ग और नर्क के बारे में कोई भी दिलचस्पी नहीं होती है, उसकी दिलचस्पी जीवन के बारे में नहीं होती है, उसकी
दिलचस्पी परमात्मा के बारे में नहीं होती है और न उसकी दिलचस्पी आत्मा के बारे में
होती है। एक बुद्धिमान व्यक्ति पूरी तरह से बुद्धिमत्ता से जीता है। और स्वाभाविक
रूप से आत्मा परमात्मा और स्वर्ग और निर्वाण उसका अनुसरण करते हैं।
तुम विश्वास में जीते हो, विश्वास बुद्धिहीनता है। जानने के द्वारा जियो, जानना
ही बुद्धिमानी है। और सरहा पूर्ण रूप से ठीक कहता है कि बुद्धिमत्ता ही ध्यान है।
बुद्धिहीन लोग भी ध्यान करते है, लेकिन निश्चित रूप से वे
बुद्धिहीन तरीके से ध्यान करते हैं, वे सोचते हैं कि तुम्हें
प्रत्येक रविवार को एक घंटे के लिए चर्च जाना है, जो धर्म के
द्वारा निर्धारित है। यह धर्म से जुड़ने का एक बुद्धिहीन तरीका है। इनके साथ चर्च
को क्या करना है?तुम्हारा प्रामाणिक जीवन तो छ: दिनों में
हैं। रविवार तुम्हारा प्रामाणिक दिन नहीं है। तुम छ: दिनों तक तो अधार्मिक बनकर जीओगे
और तब केवल एक अथवा दो घंटों के लिए गिरजाघर जाते हो—तुम
किसको धोखा देन का प्रयास कर रहे हो?तुम परमात्मा को धोखा
देने का प्रयास कर रहे हो कि तुम चर्च जाने वालों में हो।
अथवा यदि तुम थोड़ा सा कठोर प्रयास
करते हो, तब प्रत्येक दिन तुम बीस मिनट सुबह और बीस मिनट श्याम
भावातीत-ध्यान करते हो। तुम आंखें बंद करके बैठ जाते हो और मंत्र ‘ओम्, ओम्, ओम् ’ को बहुत मूर्खता पूर्ण ढंग से दोहरते हो—जो मन को और
अधिक मंद बना देता है। एक मंत्र को यंत्रवत दोहराने से वह तुम्हारी बुद्धि को कहीं
दूर ले जाती है। और वह तुम्हें बुद्धिमत्ता नहीं देता। वह एक लोरी की तरह से होता
है।
बीती हुई सदियों से, मां इसे जानती हैं। जब कभी एक बच्चा बैचेन होता है और वह सोना नहीं चाहता
तो मां आती है और एक लोरी गाती है। बच्चा ऊब का अनुभव करता है, और बच्चा कहीं भाग भी नहीं सकता—वह कहां जाये?—मां उसे पकड़े हुए बिस्तरे पर बैठी है। पलायन कर जाने के केवल एक ही
रास्ता है—सो जाना, इसलिए वह पूरी तरह
से समर्पण कर नींद में चला जाता है। वह मन ही मन कहता है—‘अब
जागे रहना मूर्खता है क्योंकि वह ऐसी बोरियत से भरी हुई चीज़ कर रही है। वह केवल
एक पंक्ति को ही दोहराये चली जा रही है।’
इस बारे में कई कहानियां हैं कि जब
बच्चे सोने नहीं जाते और मां और दादी उन्हें सोने के लिए कहानियां सुनाती है। यदि
तुम इन कहानियों में देखो, तो तुम उनमें निरंतर
दोहराये चले जाने का एक विशिष्ट ढांचा पाओगे। मैं कुछ दिन पूर्व एक कहानी पढ़ रहा
था, जिसमें एक छोटा बच्चा जो सोना नहीं चाहता था क्योंकि वह
ठीक अभी सोने जैसा अनुभव नहीं कर रहा था, पर उसकी दादी उससे
सो जाने का आग्रह कर रही थी। उसकी बुद्धि कहती है कि वह पूरी तरह से जागा हुआ है,
लेकिन उसकी दादी उसे सो जाने को विवश कर रही थी, क्योंकि उसे अन्य दूसरे कार्य करने थे और उसके लिए बच्चा महत्वपूर्ण नहीं
था।
बच्चे बहुत परेशान हो जाते हैं—और चीजें बहुत मूर्खता पूर्ण दिखाई देती है। जब वे सुबह सोना चाहते हैं।
तो प्रत्येक व्यक्ति उन्हें जागाते रहने को विवश करता है। वे बहुत परेशान हो जाते
हैं। कि इन लोगों के साथ यह आखिर मामला क्या
है? जब नींद आती है, सो जाना
अच्छा है—वही बुद्धिमानी है। जब वह नहीं आ रही है, तो जागते रहना पूरी तरह से ठीक है।
इसलिए यह बूढ़ी दादी उसे एक कहानी
सुना रही है। पहले तो बच्चे की अभिरुचि उसमें बनी रहती है, लेकिन धीमे-धीमे....कोई बुद्धिमान बच्चा ऊबने का अनुभव करने लगेगा,
केवल मूर्ख बच्चे ही ऊबने का अनुभव नहीं करेंगे।
कहानी यह है कि एक व्यक्ति सो जाता
हैं और सपना देखता है कि है कि वह एक विशाल महल के सामने खड़ा हुआ है और उस महल
में एक हजार एक कमरे हैं, इसलिए वह एक कमरे से
दूसरे कमरे जाता है। एक हजार एक कमरे है और अंत में वह आखिरी कमरे में जाता है। और
वहां एक सुंदर बिस्तरा लै, इसलिए वह बिस्तरे पर लेट जाता है
और गहरी नींद में सो जाता है। और स्वप्न देखता है कि वह बहुत बड़े एक महल के एक
द्वार पर खड़ा है, जिसमें एक हजार एक कमरे हैं। इसलिए वह एक
हजार कमरों में जाता है, और तब वह एक हजार कमरों के बाद पहले
कमरे में पहुंचता है....फिर से वहां भी एक सुंदर बिस्तरा है इसलिए वह सोन चला जाता
है और सपना देखने लगता है कि वह एक महल के सामने खड़ा है......इसी तरह से यह कहानी
आगे बढ़ती जाती है। अब कितनी देर तक बच्चा सचेत बना रह सकता है? बस ऊबकर बच्चा सो जाता है। वह कह रहा है—अब समाप्त
करो कहना।
एक मंत्र भी समान कार्य करता है। तुम
दोहरते चले जाते हो .. राम-राम, ओम-ओम, अल्लाह-अल्लाह—अथवा अन्य कोई भी शब्द। तुम दोहराते
चले जाते हो, दोहराते ही चले जाते हो। अब तुम दो कार्य कर
रहे हो, दादी मां और बच्चे दोनों के ही कार्य एक साथ है।
तुम्हारी बुद्धि एक बच्चे के समान है, और तुम्हारे मंत्र का
सीख लेना दादी मां की भांति है। बच्चा तुम्हें रोकने का प्रयास करता है। वह दूसरी
चीजों में दिलचस्पी लेने लगता है, वह सुंदर चीजों—सुंदर स्त्रियों, सुंदर दृश्यों के बारे में सोचता
है—लेकिन तुम उसे रंगे हाथों पकड़ लेते हो और फिर से ओम-ओम
जपने लगते हो। धीमे-धीमे तुम्हारे अंदर का बच्चा अनुभव करते हैं कि संघर्ष करना
व्यर्थ है, और अंदर का बच्चा सोने चला जाता है।
हां, मंत्र तुम्हें एक विशिष्ट निद्रा दे सकता है, यह एक आत्म
सम्मोहन की निंद्रा है। यदि तुम्हारे लिए सोना कठिन है तो इस बारे में कुछ भी गलत
नहीं हैं—यदि तुम अनिद्रा से पीड़ित हो, तो यह अच्छा है। लेकिन इसका आध्यात्मिकता से कुछ भी लेना-देना नहीं है। यह
ध्यान करने का बहुत बुद्धिहीन तरीका है। तब ध्यान करने की बुद्धिमत्ता पूर्ण विधि
क्या है?
बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग यह है कि
प्रत्येक कार्य जो भी तुम करते हो उसमें बुद्धिमत्ता लाओ, टहलते हुए, बुद्धिमत्ता पूर्ण होकर चलो, पूरे होश के साथ, भोजन करते हुए बुद्धिमत्ता पूर्ण
ढंग से होशपूर्वक भोजन करो। क्या तुम स्मरण है कि तुमने कभी बुद्धिमानी से भोजन
किया हो, कभी यह सोचते हुए भोजन किया हो कि तुम किसी चीज़ का
स्वाद ले रहे हो? अथवा तुम बिना किसी पोषण करने वाली चीज़ से
केवल पेट भर रहे हो?
तुम जो भी करते हो, क्या कभी तुमने उसका निरीक्षण किया है? तुम धूम्रपान
किए चले जाते हो....तब बुद्धिमत्ता की ज़रूरत है; कि तुम
क्या कर रहे हो? केवल धुआं अंदर भना और उसे बाहर फेंक देना—और उसी के मध्य वह तुम्हारे फेफड़ो को नष्ट कर रहा है? और तुम वास्तव में क्या कर रहे हो? व्यर्थ घन नष्ट
कर रहे हो, अपना स्वास्थ्य नष्ट कर रहे हो। जब तुम धूम्रपान
कर रहे हो, या जब तुम भोजन कर रहे हो, तो
बुद्धिमत्ता को लाओ। जब तुम अपनी स्त्री अथवा अपने पुरूष से प्रेम कर रहे हो,
तो बुद्धिमत्ता को लाओ। तुम कर क्या हरे हो क्या वास्तव में
तुम्हारे पास कोई प्रेम है? जब कभी तुम प्रेम भी आदत वश करते
हो—तब यह कुरूप है, तब यह अनैतिक है।
प्रेम को बहुत सचेत होना है, केवल तभी वह प्रार्थना बनता है। जब तुम अपनी स्त्री से प्रेम कर रहे हो,
तुम ठीक-ठीक क्या कर रहे हो? स्त्री के शरीर
का उपयोग करते हुए केवल कुछ ऊर्जा को बाहर फेंक देना, यह
तुम्हारे द्वारा बहुत अधिक हो चुका है। अथवा तुम स्त्री से प्रेम करते हुए उसको
कुछ सम्मान दे रहे हो, क्या तुम्हारे पास स्त्री के लिए कुछ
श्रद्धा है? मैं उसे नहीं देखता हूं। पति अपनी पत्नियों का
सम्मान नहीं करते, वे उनका उपयोग करते है, पत्नियां अपने पतियों का उपयोग करती हैं। वे उनका सम्मान नहीं करती है।
यदि प्रेम से श्रद्धा का जन्म नहीं होता, तब कहीं न कहीं तुम
बुद्धिमत्ता से चूक रहे हो। अन्यथा तुम दूसरे के प्रति अत्यधिक कृतज्ञता का अनुभव
करोगे और तुम्हारा प्रेम करना एक महान ध्यान बन जाएगा।
तुम जो कुछ भी कर रहे हो, उसके अंदर बुद्धिमत्ता का गुण लाओ, उसे बुद्धिमानी
से करो, यही है वह जिसे ध्यान कहते हैं। और सरहा का वक्तव्य
अत्यधिक अर्थपूर्ण है कि बुद्धिमत्ता ही ध्यान है।
इस प्रज्ञा या बुद्धिमत्ता को तुम्हें
अपने जीवन में सभी और फैलाना हैं, यह केवल निवारिये
चीज़ नहीं है। और तुम इसे बीस मिनट भी नहीं कर सकते और तब इसके बारे में भूल जाते
हो—अपने होश को ठीक श्वास लेने के समान बना लेना है। तुम जो
कुछ भी कर रहे हो—छोटी से छोटी चीज़ या जो भी कार्य—फर्श साफ करना भी बुद्धिमत्ता या बुद्धिहीनता से किया जा सकता है। और तुम
जाने हो कि जब तुम उसे बुद्धिहीनता से करते हो तो वहां कोई भी प्रसन्नता या आनंद
नहीं होता, तुम एक कर्तव्य पालन कर रहे हो। किसी तरह से उकसा
बोझ ढो रहे हो।
मैंन एक दृष्टांत के बारे में सुना है
कि प्रेम को कैसे कर्तव्य के आधीन बनाकर नष्ट किया जा सकता है.....
ऐसा एक चर्च के द्वारा संचालित एक
स्कूल की लड़कियों की नवीं कक्षा में हुआ। कक्षा ईसाई प्रेम का अध्ययन कर रही थी
कि उनके और उनके जीवनों में उसका क्या अर्थ हो सकता है। उन्होंने अंतिम रूप से यह
निर्णय लिया कि ईसाई प्रेम से क्या अर्थ था—‘किसी भी व्यक्ति के लिए कुछ ऐसा कार्य करना जिसे करना तुम पसंद नहीं करते।
बच्चे बहुत बुद्धिमान हैं। उनका निष्कर्ष पूर्ण रूप से ठीक है। इसे फिर से सुनो
अंतिम रूप से उन्होंने यह निर्णय लिया कि ईसाई-प्रेम से अर्थ था—किसी भी व्यक्ति के लिए कुछ ऐसा कार्य करना जिसे तुम पसंद नहीं करते हो।’
शिक्षिका ने सुझाव दिया कि इस सप्ताह
के दौरान वे लोग हमारी धारणा के अनुसार प्रमाण दे सकते है। अगले सप्ताह जब वे सभी
वापस लोटी तो शिक्षिका ने रिपोर्ट मांगी। एक लड़की ने हाथ खड़ा किया और कहा—‘मैंन कुछ कार्य किया है।’
शिक्षिका ने पूंछा—‘बहुत उम्दा! तुमने किया क्या?’
लड़की ने उत्तर दिया—‘स्कूल में मेरी गणित कक्षा में वहां एक अपाहिज है.....’
शिक्षिका ने कहा—‘अपाहिज..... ?’
लड़की ने उत्तर दिया—‘आप उसे जानती हैं—वह लूली लंगड़ी है। उसे चार आंखें
मिली हैं और उसके पास सभी अंगूठे हैं, और उसकी बाई और तीन
पेर हैं और वह स्कूल के हाल में आती है तो प्रत्येक व्यक्ति कहता है—‘वह, लूली लंगडी बच्ची यहाँ आ गई।’ उसका कोई भी मित्र नहीं है और कोई भी व्यक्ति उसे पार्टी में नहीं पूछता,
और आप जानती हैं कि वह केवल अपाहिज है।’
शिक्षिका ने कहा—‘मैं सोचती हूं, तुम्हारा जो कहने का अर्थ है उसका
ज्ञान है। तुमने आखिर किया क्या?’
लड़की ने उत्तर दिया—‘यह लूली लंगडी लड़की मेरी गणित कक्षा में है और वह वहां कठिन समय बिता रही
है। मैं गणित में काफी तेज हूं इसलिए मैंने उससे होमवर्क करने में सहायता देने का
प्रस्ताव किया।’
शिक्षिका ने कहा—‘वाह. ये तो बड़ी ही अदभुत बात है। फिर क्या हुआ?’
लड़की ने कहा—‘मैंने उसकी सहायता की और वह एक खिलवाड़ था और वह उसका पर्याप्त रूप से
धन्यवाद भी नहीं दे सकी, लेकिन अब मैं उससे छुटकारा भी नहीं
पा सकती।’
यदि तुम कोई कार्य केवल कर्तव्य समझकर
कर रहे हो और तुम उसे प्रेम से नहीं कर रहे हो तो वह प्रेम पूर्ण कार्य नहीं है।
और तुम केवल उसे एक कर्तव्य की भांति कर रहे हो। देर-सवेर तुम उसमें पकड़े जाओगे
और तुम कठिनाई में पड़ोगे कि कैसे उससे छुटकारा मिले। अपने दिन के चौबीस घंटो में
तुम केवल मात्र निरीक्षण करो: तुम अनेक ऐसे कार्य कर रहे हो जिनसे तुम कोई सुख
नहीं पाते हो, जिससे तुम विकसित नहीं होते हो।
वास्तव में तुम उनसे छुटकारा पाना चाहते हो। यदि तुम अपने जीवन में अनेक ऐसे कार्य
कर रहे हो, जिनसे तुम वास्तव में छुटकारा पाना चाहते हो,
तो तुम बुद्धिहीनता से जी रहे हो।
एक बुद्धिमान व्यक्ति अपने जीवन को इस
ढंग से निर्माण करेगा कि उसमें सहजता और स्वाभाविकता से कार्य होगा। प्रेम ओर
प्रसन्नता होगी। यह तुम्हारा जीवन है और यदि तुम स्वयं के प्रति ही पर्याप्त
मित्रवत नहीं हो तो तुम्हारे प्रति फिर कौन पर्याप्त दयालु होने जा रहा है? यदि तुम उसे नष्ट कर रहे हो, तो यह किसी अन्य
व्यक्ति की जिम्मेदारी नहीं है। मैं तुम्हें स्वयं के प्रति जिम्मेदार बनना सिखाता
हूं। यह तुम्हारी पहली जिम्मेदारी है, और प्रत्येक अन्य चीज़
इसके बाद आती है। परमात्मा भी इसके बाद ही आता है, क्योंकि
वह केवल तभी आ सकता है, जब तुम होते हो। तुम्हें अपने संसार
के और अपने अस्तित्व के प्रामाणिक केंद्र हो।
इसलिए बुद्धिमान बनो, बुद्धिमत्ता के गुण को अपने अंदर लाओ। और तुम जितने अधिक बुद्धिमान बनोगे।
तुम अपने जीवन में और अधिक बुद्धिमानी के साथ बहुत अधिक प्रकाशवान हो सकते हो। तब
वहां किसी भी धर्म की कोई जरूरत नहीं है, तब वहां न मंदिर और
न चर्च जाने की जरूरत है, तब तुम्हें अलग से कोई अतिरिक्त
कार्य करने की और ध्यान तक करने की भी कोई जरूरत नहीं है। जीवन अपनी सहजता और स्वाभाविकता
में ही बुद्धिमानी से भरा हुआ है।
केवल उसे समग्रता लयबद्धता और सचेतनता
कसे जियो और सुंदरता से प्रत्येक चीज़ उसका अनुसरण करती है। एक उत्सव और आनंद से
भरो जीवन बुद्धिमत्ता की दीप्ति का अनुसरण करता है।
अगला प्रश्न.......भी इसी से संबंधित
ही है।
प्यारे ओशो!
क्या कर्तव्य भावना के बोध से लोगों
की सेवा करना ठीक नहीं है?
नहीं, बिलकुल भी नहीं, यह एक कुरूपता है। जब तुम कोई भी
कार्य बिना प्रेम के केवल कर्तव्य वश करते हो, तो तुम स्वयं
अपनी हानि करने के साथ दूसरों को भी नुकसान पहुंचा रहे हो, क्योंकि
यदि तुम उसे प्रेम वश नहीं कर रहे हो तो तुम अनुभव करोगे कि दूसरो को उसके प्रति
हमारा कृतज्ञ होना ही चाहिए। और तुम यह अनुभव करोगे कि तुमने दूसरे को कृतज्ञ किया
है। तुम प्रतिदिन के लिए प्रतीक्षा करोगे—वास्तव में तुम एक
मांग करोगे, वह चाहे स्थूल हो अथवा सूक्ष्म कि अब तुम मेरे
लिए कुछ करो, क्योंकि मैंने तुम्हारे लिए इतना अधिक किया
हैं।
जब तुम कोई भी कार्य प्रेम वश करते हो
तो तुम प्रतिदिन में बिना कुछ भी पाने के विचार से करते हो। वह कोई सौदा नहीं होता, तुम उसे इसलिए करते हो क्योंकि तुम उसे करते हुए प्रसन्न होते हो और दूसरा
कृतज्ञ नहीं होता है। ऐसा नहीं है कि प्रेम का प्रतिदान नहीं मिलता, प्रेम हजार गुना लौट कर मिलता है—लेकिन केवल प्रेम ही
लौटकर मिलता है, कर्तव्य वश कर रहे हो तो वह तुम्हें कभी भी
क्षमा करने में समर्थ न होगा। तुम इसे बच्चों में देख सकते हो, वे अपने माता-पिता को क्षमा करने में कभी भी समर्थ नहीं होते हैं। उनके
माता-पिता उनके लिए अनिवार्य रूप से एक बहुत बड़ा कर्तव्य निभाते रहे हैं। उन
लोगों को क्षमा करना कठिन होता है, जो अपना कर्तव्य कर्म
निभाते आए हैं।
सम्मान उन व्यक्तियों के प्रति
उत्पन्न होता है, जिन्होंने तुमसे
प्रेम किया है, वह भी किसी कर्तव्य बोध के कारण नहीं,
बल्कि केवल मात्र अपनी प्रसन्नता के लिए। इस अंतर को देखो मां तुमसे
केवल इसलिए प्रेम करती है, क्योंकि वह तुम्हारे लिए प्रेम का
अनुभव करती है, चाहे तुम उसे कुछ लौटाओ अथवा नहीं, वह बात ही असंगत है। इस बारे में कोई भी सौदा अथवा अनुबंध नहीं है,
वह कोई व्यापार नहीं है। यदि तुम उसे नहीं लौटाते हो तो वह उसका कभी
भी उल्लेख तक नहीं करेगी, वह उस बारे में कभी सोचेगी भी
नहीं। वास्तव में तुम्हें प्रेम करते हुए उसने इतनी अधिक प्रसन्नता प्राप्त की है,
कि वह उससे अधिक की और क्या अपेक्षा कर सकती है?
एक मां हमेशा यह अनुभव करती हे कि वह
उतना अधिक नहीं कर सकी, जितना अधिक वह करना
चाहती थी। लेकिन यदि मां उसे केवल कर्तव्य मान कर रही है, तब
वह अनुभव करती है कि उसने बहुत अधिक किया है, और तुमने उसे
धोखा दिया है और तुम उसके प्रेम के प्रतिदान को वापस नहीं लौटा रहे हो। और वह
निरंतर उस बात की तुम्हारे सिर पर चोट करती ही रहेगी कि उसने तुम्हारे लिए ये और
वह किया है, और वह तुम्हें अपने गर्भ में नौ महीनों तक ढोती
रही है और वह बार-बार उस पूरी कहानी का वर्णन करती रहेगी। यह प्रेम को सृजित करने
में सहायता नहीं करता है। वह सामान्य रूप से संबंध विच्छेद करने में सहायता करता
है। बच्चा अत्यधिक क्रोधित हो जाता है।
मैं एक किशोर लड़के के बारे में जानता
हूं।
मैं एक परिवार के साथ ठहरा हुआ था और
माता तथा पिता अपने लड़के को मेरे पास लाए। वे लोग चाहते थे कि मैं उस लड़के को
कुछ शिक्षा दूं, क्योंकि वह उनके प्रति बहुत
क्रोधित था। मैं उस परिवार को भली भांति
जानता था मैं उन माता-पिता को भी जानता था और इसलिए मैं यह भी जानता था कि वह
लड़का अकृतज्ञ क्यों था। उन्होंने उसके लिए वह सभी कुछ किया था, जो वे कर सकते थे, लेकिन उन्होंने वह केवल कर्तव्य
वश ही किया था।
मैंने उनसे कहा—‘आप लोग ही इसके लिए जिम्मेदार हैं। आप लोगों ने इस लड़के को कभी भी प्रेम नहीं किया और वह इसकी
चोट महसूस करता है। आपने कभी भी उसे किसी भी प्रेम का अनुभव करने की कभी भी अनुमति
नहीं दी। आप लोगों को प्रेम, प्रेम नहीं है। वह इस लड़के के
ह्रदय में केवल एक कठोर चट्टान की भांति है। अब वह विकसित हो रहा है और वह आप
लोगों के विरूद्ध विद्रोह करने में समर्थ हैं—यही कारण है कि
वह विद्रोह कर रहा है।’
उस लड़के ने मेरी और बहुत कृतज्ञता से
देखा और वह रोने लगा। उसने कहा—‘जब कभी भी कोई भी
व्यक्ति परिवार में आता है, कोई भी मेहमान अथवा कोई भी मित्र
मैं हमेशा कचहरी में लाया जाता हूं—और प्रत्येक व्यक्ति को
मुझे शिक्षा देनी होती है। आप ऐसे पहले व्यक्ति हैं....मेरा ठीक मामला यही है। ये
लोग मुझे यातनाएं देते रहे हैं और मेरी मां यह कहे चली जाती है—‘मैंने तेरा भार गर्भ नौ महीने तक उठाती रही।’ और मैं
उसे कहता हूं—‘लेकिन ऐसा करने के लिए मैंने तो नहीं कहा था।’
उसका मेरे साथ कुछ भी लेना देना नहीं है। वह आपका निर्णय और आपका
कार्य था। आपने तभी गर्भपात क्यों नहीं करवा दिया? मैं उसमें
कोई भी हस्तक्षेप नहीं करता। पहली बात तो यह कि आपने गर्भ धारण ही क्यों किया?
मैंने उसके लिए प्रार्थना तो नहीं की थी आपसे।’
और मैं जानता था कि वह बहुत अधिक
क्रोधित था, लेकिन वह ठीक था।
अब तुम पूंछ रहे हो—‘क्या कर्तव्य समझ कर अन्य लोगों की सेवा करना ठीक नहीं है? नहीं, वास्तव में, यदि तुम
कर्तव्य समझकर लोगों की सेवा करते हो तो तुम उनके लिए एक यातना बन जाओगे तुम उनके
ऊपर प्रभुत्व जमाने लगोगे। यह एक तरह से उन पर शासन करने जैसा है, यह राजनैतिक है।’
उनके पैरों की मालिश करने से शुरू आत
करो, और शीघ्र ही तुम्हारे हाथ उनकी गर्दनों पर होंगे,
और शीघ्र ही तुम उन्हें मार दोगे। और स्वाभाविक रूप से जब तुम उनके
पैरो की मालिश करना प्रारम्भ करते हो वे अपने पैर खींच लेते हैं और कहते हैं मैं
पूरी तरह से ठीक हूं। लेकिन वे नहीं जानते कि अब क्या होने जा रहा है।
सभी जनता के सेवक देर-सबेर राजनीतिज्ञ
बन जाते हैं। अपने राजनीतिक जीवन को प्रारम्भ करने का यही ठीक ढंग है, कि जनता के सेवक बन जाओ। कर्तव्य समझकर लोगों की सेवा करो और तब देर सबेर
तुम उनके सिरों पर कुदक सकते हो। तब तुम उनका शोषण कर सकते हो। तब तुम उनको कुचल
सकते हो और वे चीख तक नहीं निकाल सकते क्योंकि तुम एक जन-सेवक हो।
यहां मेरा पूरा ढंग ही तुम्हें इन
जालों के प्रति सजग बनाने का है। ये अहंकार की यात्राएं हैं। विनम्रता के नाम पर, मानवता और सेवा के नाम पर तुम अहंकार की यात्रा पर जा रहे हो। सेवा करो,
लेकिन केवल प्रेम वश, अन्यथा मत करो। कृपया करो
ही मत। अच्छा यही है यदि तुम कुछ भी नहीं करते।
तुम कुछ करने में समर्थ होगे, क्योंकि कोई भी व्यक्ति निरंतर बिना कुछ किए नहीं बना रह सकता। ऊर्जा सृजित
होती है, और तुम्हें उसे देना होता है—लेकिन
उसे प्रेम के कारण ही दो। जब तुम प्रेम से कुछ देते हो तुम दूसरे के प्रति कृतज्ञ
होते हो, क्योंकि उसने तुम्हारे प्रेम को स्वीकार किया है।
उसने तुम्हारी ऊर्जा को स्वीकार किया है, वह तुम्हारे साथ
सहभागी बना है और उसने तुम्हें भारमुक्त किया है।
केवल तभी कुछ करो, जब तुम उस व्यक्ति के प्रति कृतज्ञता का अनुभव कर सकते हो कि तुमने उसके
लिए कुछ किया है। अन्याय नहीं।
तीसरा प्रश्न:
प्यारे ओशो !
हमेशा ईर्ष्या एक छाया की भांति प्रेम
का अनुसरण क्यों करती है?
प्रेम के साथ ईर्ष्या का कुछ भी लेना
देना नहीं है। वास्तव में तुम्हारे तथाकथित प्रेम का भी प्रेम के साथ कुछ भी लेना
देना नहीं है। ये सुंदर शब्द हैं जिनका तुम बिना जाने हुए कि उनका अर्थ क्या है? बिना उसका अनुभव किए हुए कि उनका क्या अर्थ है? प्रयोग
किये चले जा रहे हो। तुम प्रेम का प्रयोग किए चले जाते हो: तुम उसका इतना अधिक
प्रयोग करते हो कि तुम इस तथ्य को भूल ही जाते हो कि तुमने अभी तक उसका अनुभव नहीं
किया है। परमात्मा, प्रेम, निर्वाण और
प्रार्थना जैसे सुंदर शब्दों का और ऐसे ही अन्य सुंदर शब्दों का प्रयोग करना अनेक
खतरों में एक है। तुम उनका प्रयोग किए चले जाते हो, तुम उनको
दोहराए चले जाते हो, और धीमे-धीमे वास्तविक रूप से दोहराना ही
तुम्हारे इस अनुभव को सृजित करता है, जिसे मानो तुम जानते
हो।
तुम प्रेम के बारे में क्या जानते हो? यदि तुम प्रेम के बारे में कुछ भी चीज़ जानते हो, तो
तुम यह प्रश्न पूंछ ही नहीं सकते, क्योंकि प्रेम में ईर्ष्या
की उपस्थिति होती ही नहीं है। और जब भी कहीं ईर्ष्या होती है, तो प्रेम की उपस्थिति नहीं होती। ईर्ष्या, प्रेम का
भाग नहीं है, ईर्ष्या मालकियत का, अधिकार
में बनाये रखने का भाग है। मालकियत का प्रेम के साथ कुछ भी लेना-देना नहीं ह। तुम
अधिकार और शक्ति के द्वारा उसे नियंत्रण में रखना चाहते हो, तुम
शक्ति शाली होने का अनुभव करते हो, तुम्हारा अधिकार क्षेत्र
और बड़ा हो जाता है, और यदि कोई अन्य व्यक्ति तुम्हारे
अधिकार क्षेत्र में अनधिकृत रूप से प्रवेश करने की चेष्टा करता है, तो तुम क्रोधित होते हो। अथवा यदि किसी अन्य व्यक्ति के पास तुम्हारे घर
की तुलना में एक और अधिक बड़ा घर है, तो तुम्हें ईर्ष्या
होती है। अथवा यदि कोई व्यक्ति तुम्हें तुम्हारी सम्पति से बेदखल होने की चेष्टा
करता है तो तुम ईर्ष्या करते हो और क्रोधित भी होते हो। यदि तुम प्रेम करते हो,
तो ईर्ष्या होना असंभव है, यह किसी भी तरह से
संभव है ही नहीं।
मैंने सुना है.....
जमी हुई बर्फ की चोटियों पर ऊपर चढ़ने
से पूर्व बर्फ में जानवरों को पकड़ने के लिए फंदे लगाने वाले दो व्यक्ति अंतिम समीपवर्ती
चौकी पर रूके, जिसने लम्बी अंधकारमय शीत ऋतु के
लिए सभी सामग्री को पूर्ण कर लिया था। अपने स्लेजों पर आटा, डिब्बा
बंद भोजन मिट्टी का तेल दियासलाई तथा गोला बारूद लादने के बाद, वे बर्फीले वीरानों में छ: महीनों की कुत्तों द्वारा खींचे जाने वाले
स्लेज पर यात्रा करने के लिए तैयार थे।
तभी स्टोरकीपर ने उन्हें आवाज़ देते
हुए कहा—‘लड़कों, एक मिनट के लिए रूको।
और उसने उन्हें एक बड़ा बोर्ड दिखाया जिसे एक ओवल ग्लोब, कांच
के एक दूसरे से जुड़े दो ग्लोब, जिसमें ऊपर वाले ग्लोब में
रखी रेत को एक छोटे छेद द्वारा नीचे ग्लोब पर पहुंचने में एक घंटे का समय लगता है।
के समान गोलाकार काटकर बनाया गया था।’
उनमें ऐ एक फंदे गलाने वाले ने पूंछा—‘यह क्या है?’
स्टोर कीपर न पलकें झपकाते हुए कहा—‘इसे प्रेम का बोर्ड कहा जाता है। जब तुम्हें बहुत अधिक अकेलापन लगे तो तुम
इसे अपनी बांहों में बाँध सकते हो।’
दोनों व्यक्तियों ने घोषणा की—‘हम लोग दो लेंगे।’
छ: महीनों बाद फंदे बाज़ों में से एक
जब दाढ़ी बढ़ाये हुए रूखी सूखी दुबली आकृति में वापस लौटा तो स्टोर कीपर ने पूंछा—‘तुम्हारा साथी कहां है?’
फंदे बाज बुदबुदाता हुआ बोला—‘मुझे उसे गोली से मार देना पड़ा। मैंने उसे अपने प्रेम के बोर्ड को साथ
चारों और घपला करते हुए पाया।’
ईर्ष्या का प्रेम के साथ कोई भी
लेना-देना नहीं है। यदि तुम अपनी स्त्री से प्रेम करते हो, तो तुम ईर्ष्यालु कैसे हो सकते हो? यदि तुम्हारी
स्त्री किसी अन्य व्यक्ति के साथ हंस रही है, तो तुम कैसे
ईर्ष्या कर सकते हो? तुम प्रसन्न होगे, वह तुम्हारी स्त्री है, जो प्रसन्न है। उसकी
प्रसन्नता तुम्हारी प्रसन्नता है—लेकिन तुम उसी प्रसन्नता के
विरूद्ध कैसे सोच सकते हो?
लेकिन देखो और निरीक्षण करो। तुम इस
कहानी पर हंसे थे, लेकिन यह प्रत्येक
स्थान पर और प्रत्येक परिवार में यही तो हो रहा है। पत्नी समाचार पत्र तक से
ईर्ष्या करने लगती है, यदि पति बहुत अधिक देर तक उसे पढ़े
चले जाता है। वह आती है और उसे छीन कर दूर फेंक देती है, वह
उससे ईर्ष्या करने लगती है। समाचार पत्र उसके लिए प्रति स्थापित होता जा रहा है।
जब तक वह उपस्थित है, तुम समाचार पत्र पढ़ने का कैसे साहास
कर सकते हो? वह उसका अपमान है। जब वह वहां है, तुम्हें पूर्ण रूप से उसके नियंत्रण में रहना होगा; यहां
तक कि अखबार भी नहीं...। अख़बार प्रतियोगी बन जाता है। इस लिए मनुष्य नाम के
प्राणी के बारे में क्या कहा जाये? यदि पत्नी उपस्थित है और
पति किसी अन्य स्त्री से बात चीज करता हुआ थोड़ा सा प्रसन्न दिखाई देता है,
जो स्वाभाविक है—क्योंकि लोग एक दूसरे से थक
जाते हैं, तो किसी नये व्यक्ति के साथ भी थोड़ा सा रोमांचित
हो जाता है, तो इसी बात पर अब पत्नी नाराज़ है। यदि एक
स्त्री और पुरूष दोनों साथ-साथ जा रहे हैं और पुरूष उदास है, तो तुम भली भांति जान सकते हो कि वह पुरूष उसका पति है। जिसका उस स्त्री
से विवाह हुआ है। यदि वह प्रसन्न दिखाई देता है, तो उसका उस
स्त्री से विवाह नहीं हुआ है, और वह उसकी पत्नी नहीं है।
एक बार मैं एक रेलगाड़ी में यात्रा कर
रहा था, और उसी डिब्बे में एक स्त्री भी थी। प्रत्येक स्टेशन
पर एक पुरूष आता कभी वह केले लाता, कभी वह चाय अथवा आइसक्रीम
लाता और कभी वह अथवा यह लाता।
मैंने उस स्त्री से पूंछा—‘यह पुरूष कौन है?’
उसने कहा—‘यह मेरे पति हैं।’
मैंने कहा—‘मैं इसका विश्वास ही नहीं कर सकता। आपका विवाह हुए कितना समय हो गया है?’
वह थोड़ी सी परेशान हो गई और उसने कहा—‘अब जब आप हठ ही कर रहे हैं तो यह सत्य है कि हम लोग विवाहित नहीं हैं।
लेकिन आपने इसे कैसे जान लिया?’
मैंने कहा—‘मैंने..., किसी भी पति को प्रत्येक स्टेशन पर कभी भी
आते हुए नहीं देखा। एक बार पति पत्नी से छुटकारा पा लेता है, वह आखिरी स्टेशन पर यह आशा करता हुआ आयेगा कि वह कहीं बीच ही में कहीं
किसी स्टेशन पर उतर तो नहीं गई है। प्रत्येक पर यह और वह बार-बार विभिन्न वस्तुओं
का अपने डिब्बे से उतरकर लाना.... ’
उसने कहा—‘आप ठीक हैं, वह मेरे पति नहीं हैं। वह मेरे पति के
मित्र हैं।’
मैंने कहा—‘यह ठीक है, तब इस बारे में कोई भी समस्या ही नहीं
हैं।’
तुम वास्तव में अपनी स्त्री के साथ
अथवा अपने पुरूष के साथ अथवा अपने मित्र के साथ प्रेम नहीं करें हो। यदि तुम प्रेम
करते हो तब उसकी प्रसन्नता ही तुम्हारी होती है। यदि तुम प्रेम करते हो तो तुम कोई
भी स्वामित्व या अधिकार में रखने की भावना उत्पन्न नहीं करोगे।
प्रेम पूर्ण स्वतंत्रता देने में
समर्थ है। केवल प्रेम ही पूर्ण स्वतंत्रता देने में समर्थ है। और यदि स्वतंत्रता
नहीं दी जाती है,तब वह प्रेम न होकर
कुछ अन्य चीज़ ही है। फिर वह एक विशिष्ट प्रकार की अहंकार यात्रा है। तुम्हारे पास
एक सुंदर स्त्री है, तुम नगर में चारों और प्रत्येक को यह
दिखलाना चाहते हो कि तुम्हारे पास अपने अधिकार में रखने जैसी एक सुंदर स्त्री है।
ठीक उसी तरह कि जब तुम्हारे पास एक कार होती है और तुम उस कार में बैठे होते हो।
तुम चाहते हो कि प्रत्येक व्यक्ति यह जाने कि किसी भी व्यक्ति के पास ऐसी सुंदर
कार नहीं है, और ठीक यही स्थिति तुम्हारी स्त्री के भी साथ
है। तुम उसके लिए हीरे लाते हो, लेकिन प्रेम के कारण नहीं।
वह तुम्हारे अहंकार के लिए सजावट की चीज़ है। तुम उसे एक कल्ब में ले जाते हो,
लेकिन उसे तुम्हारे साथ चिपके रहना होता है और यह दिखाये चले जाना
होता है कि वह तुम्हारी ही है। तुम्हारा अधिकार होता है कि वह उस सीमा का अतिक्रमण
न करें। ऐसा करने पर तुम क्रोधित होते हो। तुम इस स्त्री को मार भी सकते हो,
जिसे तुम सोचते हो कि तुम उससे प्रेम करते हो।
इस बारे में एक महान अहंकार प्रत्येक
जगह कार्य कर रहा हैं। हम चाहते हैं कि लोग भी वस्तुओं के समान बन जायें। हम
उन्हें वस्तुओं की भांति अपने अधिकार में रखते हैं, हम व्यक्तियों को अपने आधीन कर उन्हें वस्तुएं बना देते हैं। यही
दृष्टिकोण वस्तुओं के बारे में भी है।
मैंने सुना है....
एक रबाई और पादरी पड़ोसी थे और उनके
मध्य एक विशेष तरह की प्रतिद्वंदी थी। यदि कोहेन अपनी कार चलाकर थका लौटता तो फादर
ओ-फिलन को कार फिर से दौड़नी होती थी। और वह इसी तरह चलता रहता था। एक दिन फादर ने
ई जगुआर कार खरीदी, इसलिए रबाई ने भी नई
बेन्टले कार खरीदी। जब रबाई ने खिड़की से झांककर बाहर देखा तो उसने देखा कि पादी
अपनी कार के बोनेट के ऊपर पानी उड़ेल रहा था। पूरी खिड़की खोलकर वह चिल्लाते हुए
बोला—‘क्या आप जानते हैं कि रेडियेटर को पानी से भरने का यह
तरीका नहीं है।’
पादरी ने कहा—‘ऊहा! मैं पवित्र जल उड़ेल कर उसे ईसाई बना रहा हूं।’
कुछ देर बाद जब पादरी वापस लौटा तो
उसने देखा कि रबाई सड़क पर लेटा हुआ अपने हाथों से धातु को काटने वाली आरी से अपनी
कार के एक्जहोल पाई के आखिरी भाग को काट रहा है।
यही मन हैं—जो निरंतर प्रतियोगिता में लगा है। अब वह कार का यहूदी परम्परा के अनुसार
खतना कर रहा है। चूंकि उसे कुछ कार्य करना ही है। इसी ढंग से हम जी रहे हैं,
यह अहंकार का मार्ग है। अहंकार किसी भी प्रेम को नहीं जानता,
अहंकार किसी भी मित्रता को नहीं जानता, और
अहंकार न किसी करूणा को जानता है। अहंकार एक हिंसा और एक आक्रामकता हे।
और तुम पूंछ रहे हो—‘हमेशा ईर्ष्या एक छाया की भांति प्रेम का अनुसरण क्यों करती है?’ कभी भी नहीं! प्रेम किसी भी प्रकार की कोई भी छाया उत्पन्न नहीं करता।
प्रेम इतना अधिक पारदर्शी है कि वह कोई भी छाया उत्पन्न नहीं करता। प्रेम कोई ठोस
चीज़ नहीं है, वह एक पारदर्शिता है। प्रेम से कोई भी छाया
उत्पन्न नहीं होती। पृथ्वी पर प्रेम ही एक ऐसी अद्भुत सत्ता है जो अपनी कोई भी
छाया निर्मित नहीं करती।
चौथा प्रश्न:
प्यारे ओशो! दमन क्या है?
दमन एक ऐसा जीवन जीना है, जिसको जीने का तुम्हारा कोई भी अर्थ नहीं था। दमन वह चीजें कर रहा है
जिन्हें तुम कभी भी करना नहीं चाहते थे, दमन ही उस कार्य में
सहचर बना हुआ है, जो तुम नहीं हो। दमन तुम्हें स्वयं को नष्ट
करने का एक तरीका है, दमन आत्मघात है—निश्चित
रूप से यह बहुत धीमा ज़हर दिया जाने जैसा है, लेकिन बहुत
सुनिश्चित है।
तंत्र का यहीं संदेश है, दमित जीवन मत जियो, अन्यथा तुम किसी भी प्रकार से
जीते ही नहीं हो। अभिव्यक्ति के साथ प्रसन्नता भरा सृजनात्मक जीवन जियो। उस तरह से
जियो, जैसा परमात्मा चाहता था कि तुम सहज स्वाभाविक जीवन
जियो। और पंडितों पुरोहितों से मत डरो। अपनी सहज प्रवृतियों की बात सुनो अपनी शरीर
की सुनो, अपने ह्रदय को सुनो और अपनी बुद्धिमत्ता की सुनो।
तुम अपने पर निर्भर बनो, तुम्हारी सहज स्वाभाविक प्रवृति
तुम्हें जहां ले जाती है, नहीं जाओ, ओर
तुम कभी भी नुकसान में नहीं रहोगे। और अपने स्वाभाविक जीवन के साथ स्वेच्छया से
जाते हुए दिव्यता के द्वारों तक तुम्हारा पहुंचना सुनिश्चित है।
तुम्हारे अंदर बैठा परमात्मा ही
तुम्हारा स्वभाव है। उस तुम्हारे स्वभाव का अपनी और खींचना ही तुम्हारे अंदर के
परमात्मा का आकर्षण है। विष देने वालों की बातें बिलकुल भी मत सुनो, अपने स्वभाव के आकर्षण की बात सुनो। हां, स्वभाव ही
पर्याप्त नहीं है, उससे भी उच्चतम प्रकृति और भी है, लेकिन निम्नतम के द्वारा ही उच्चतम आता है। कमल की कीचड़ से ही खिलता है।
शरीर के द्वारा ही आत्मा विकसित होती है। सेक्स के द्वारा ही समाधि उत्पन्न होती
है।
स्मरण रहे, भोजन करने के द्वारा चेतना विकसित होती है। पूरब में हमने कहा है- अन्नम्
ब्रह्म, भोजन ही परमात्मा है। यह किसी तरह का वक्तव्य है कि
भोजन ही ब्रह्म है। परमात्मा भोजन करने के द्वारा विकसित होता है: सबसे निम्नतम तल
उच्चतम तल से जुड़ा हुआ है। सबसे अधिक उथला भाग सबसे अधिक गहराई के साथ जुड़ा हुआ
है।
अब पुरोहित तुम्हें निम्नतम का दमन
करने की शिक्षा देते आये हैं। और वे बहुत तर्क पूर्ण भी हैं। केवल वे लोग एक चीज़
भूल गए हैं कि यह अस्तित्व अतर्क पूर्ण है। वे लोग बहुत तर्क निष्ठ हैं, और यह बात तुम्हें आकर्षित करती है, इसी कारण तुम
लोग बीते हुए युगों से उनकी बात सुनकर उनका अनुसरण करते रहे हो। यह बात तर्क को
आकर्षित करती है। कि यदि तुम उच्चतम तल को प्राप्त करना चाहते हो तो निम्नतम तल की
बात मत सुनो। यह तर्क पूर्ण दिखाई देता है: यदि तुम उंचाई की और जाना चाहते हो तब
तुम निचाई की और नहीं जा सकते। तब नीचे मत जाओ, ऊँचाई पर जाओ—यह बात बहुत तर्कपूर्ण है। कठिनाई केवल एक है कि अस्तित्व तर्क पूर्ण नहीं
है।
ठीक कुछ ही दिनों पूर्व ध्रुव मुझसे
बात कर रहा था। उसके ‘सहज ग्रुप’ में कभी-कभी कुछ क्षण ऐसे आते हैं जब समूह के कुछ लोग बिना कुछ किए हुए
गहन मौन में डूब जाते हैं। और वे मौन के वे क्षण अत्यधिक सुंदर होते हैं। और वह कह
रहा था: ‘वे क्षण बहुत ही रहस्यमय होते हैं। हम उनके लिए कुछ
भी व्यवस्था नहीं करते हैं, और न हम उसके बारे में सोचते ही
हैं, वे कभी-कभी सामान्य रूप से आ जाते हैं। लेकिन जब वे
क्षण आते हैं, तो वह समूह तुरंत किसी दिव्यता जैसी चीज की
उपस्थिति का, किसी उच्चतम और किसी महानतम अनुभव जैसी चीज़ की
उपेक्षा करने लगता है। और प्रत्येक व्यक्ति तुरंत ही इसके प्रति सचेत हो जाता है।
कि कुछ रहस्यमय चीज वहां उपस्थित है, और प्रत्येक व्यक्ति
मौन के उन क्षणों में डूब जाता है।’
अब उसके तर्क पूर्ण मन ने सोचा—‘अच्छा यह होगा यदि मैं पूरे ग्रुप को मौन में ले जा सकूं, उसने अनिवार्य रूप से सोचना शुरू कर दिया—‘यदि वे
बहुत कम और बहुत दूर के मध्य के जो क्षण जो बहुत सुंदर हैं, तब
पूरे ग्रुप को ही मौन में जाने का प्रयोग क्यों नहीं कराया जाये।’ यदि तुम मौन भी बने रहते हो, तो भी वे क्षण फिर कभी
नहीं आयेंगे।’
वहां जीवन में एक ध्रुवता है। पूरे
दिन तुम कठोर श्रम करते हो, तुम लकड़ियां काटते
हो और रात में तुम गहरी नींद में चले जाते हो। अब तर्कपूर्ण चीज़ यह है कि अगली
सुबह तुम यह सोच सकते हो, जो बहुत गणितिय है—कि पूरे दिन मैंने इतना अधिक कार्य किया और मैं बहुत थक गया था, और तभी मुझे उतनी गहरी नींद आ सकी। यदि मैं पूरे दिन विश्राम करने का
अभ्यास करूं तो भी मैं गहरी नींद में नहीं जा सकता हूं। इसलिए अगले दिन तुम आराम
कुर्सी पर सामान्य रूप से लेटे रहते हो और तुम विश्राम करने का अभ्यास करते हो।
क्या तुम सोचते हो कि तुम एक अच्छी नींद लेने जा रहे हो? तुम
अपनी सामान्य नींद भी खो दोगे। इसी तरह से धनी लोग अनिद्रा का कष्ट सहते हैं।
अस्तित्व तर्क पूर्ण नहीं है।
अस्तित्व भिखारियों को निद्रा देता है जो पूरे दिन तेज चिलचिलाती धूप में एक जगह
से दूसरी जगह घूमते और भीख मांगने का कार्य करते रहे हैं। अस्तित्व पत्थर तोड़ने
वाले मज़दूरों और लकड़हारों को बहुत गहरी नींद आती है। पूरे दिन कार्य करते हुए वे
थक जाते हैं। और उस थकावट से ही वे गहरी नींद में सो जाते है।
यही ध्रुवता है। जिस ढंग से तुम जितनी
अधिक ऊर्जा बाहर निकाल देते हो, नींद के द्वारा
तुम्हें उतनी ही अधिक ऊर्जा एकत्रित करने की ज़रूरत होती है। क्योंकि तुम गहरी
नींद से ही उतनी ऊर्जा प्राप्त कर सकते हो। यदि थका कर तुम अपनी ऊर्जा बाहर निकाल
देते हो, तो एक ऐसी स्थिति सृजित करने हो, जिसमें तुम गहरी नींद में डूब सकोगे, अस्तित्व को
तुम्हें गहरी नींद देनी ही होती है। यदि तुम किसी भी प्रकार का कोई कार्य नहीं
करते हो, तब वहां उसकी कोई जरूरत नहीं होती। तुम्हें जो
ऊर्जा दी गई थी, तुमने उसका भी उपयोग नहीं किया है, इसलिए तुम्हें और अधिक ऊर्जा देने की ज़रा भी जरूरत नहीं है। ऊर्जा उन
लोगों को दी जाती है, जो उसका उपयोग करते हैं।
अब ध्रुव तर्क पूर्ण है। वह सोचता हैं—यदि हम पूरी समूह को मौन में ले जाते है...., लेकिन
वे लोग उन थोड़े से क्षणों से भी चूक जायेंगे और पूरे समूह के अंदर ही अंदर
वार्तालाप चलती ही रहेगी। वास्तव में बाहर से तो वे लोग मौन होंगे, लेकिन अंदर से उनके मन में पागलपन भरा होगा। ठीक अभी वे कठिन कार्य कर रहे
हैं, वे अपनी दमित मनोवेग को रेचन करते हुए उसे अभिव्यक्ति
कर रहे हैं, प्रत्येक चीज को ऊपर के तल पर लाकर उसे बाहर
फेंक रहे हैं, प्रत्येक चीज को ऊपर के तल पर लाकर उसे बाहर
फेंक कर वे पूरी तरह से थक जायेगें। तब वहां थोड़े से क्षण आते हैं जब वे इतनी अधिक
थक जाते हैं कि वहां बाहर फेंकने को कुछ भी नहीं बचता। उन्हीं क्षणों में अचानक
वहां एक सम्पर्क होता है। और मौन कहीं से अवतरित होता है।
पूरी तरह कार्य करने से विश्राम मिलता
है, मनोवेग की अभिव्यक्ति करने के बाद मौन आता है।
अस्तित्व इसी तरह से कार्य करता है। उसके तरीके बहुत अतर्क पूर्ण हैं। अब यदि तुम
वास्तव में सुरक्षित होना चाहते हो तो तुम्हें किसी भी क्षण मरने के लिए तैयार
रहना होगा। अस्तित्व की यही असंगति है। यदि तुम वास्तव में प्रामाणिक रूप से
सत्यनिष्ठ होना चाहते हो, तब तुम्हें जोखिम उठानी ही होगी।
दमन करना जोखिम से बचने का एक रास्ता है।
उदाहरण के लिए, तुम्हें सिखाया गया है कि कमी भी क्रोध मत करो और तुम सोचते हो कि वह
व्यक्ति जो कभी क्रोध नहीं करता, उसका बहुत प्रेम पूर्ण होना
सुनिश्चित है। तो तुम गलत हो। एक व्यक्ति कभी क्रोध नहीं करता है, वह प्रेम करने में भी समर्थ नहीं हो सकेगा। ये दोनों एक साथ चलते हैं,
यह समान गठरियों में निकलते हैं। एक व्यक्ति जो वास्तव में प्रेम
करता है कभी-कभी वास्तव में बहुत क्रोध करेगा। लेकिन उसका क्रोध सुंदर होता है।
क्योंकि वह प्रेम से उत्पन्न होता है। उसकी ऊर्जा में एक ऊष्मा होती है और तुम
उसके क्रोध से चोट लगने जैसा अनुभव नहीं करोगे। वास्तव में तुम उसके कृतज्ञ होगे
कि वह क्रोधित हुआ।
क्या तुमने इसे कभी देखा है? यदि तुम किसी व्यक्ति से प्रेम करते हो और तुम कुछ ऐसा करते हो कि वह
व्यक्ति वास्तव में सचमुच क्रोधित हो जाता है, तो तुम
कृतज्ञता का अनुभव करोगे क्योंकि वह तुमसे अधिक प्रेम करता है कि वह क्रोध करना
गवारा कर सकता है। अन्यथा क्यों.... ? जब तुम क्रोध की जोखिम
नहीं उठाना चाहते हो, तो तुम विनम्र बने रहते हो। जब तुम कोई
भी जोखिम नहीं उठाना चाहते हो तो तुम कुछ भी नहीं करना चाहते हो। तुम मुस्कराए चले
जाते हो; लेकिन इस से कोई भी अंतर नहीं पड़ता है। यदि
तुम्हारा बच्चा खाई में कूदने जा रहा है तो क्या तुम बिना क्रोध किये बने रहोगे?
क्या तुम नहीं चीखोगे, क्या तुम्हारी ऊर्जा
खौलने नहीं लगेगी? तब भी क्या तुम मुस्कराये चले जाओगे?
यह सम्भव ही नहीं है।
इस बारे में एक कहानी है....
एक बार ऐसा हुआ कि सोलोमन के दरबार
में दो स्त्रियों आई जो एक बच्चे के लिए झगड़ रही थी। दोनों ही यह दावा कर रही थी
कि वह बच्चा उसका है। यह बहुत कठिन था कि निर्णय कैसे किया जाये? बच्चा इतना अधिक छोटा था कि वह भी
कह नहीं सकता था।
सोलोमन ने देखा और उसने कहा—‘मैं एक कार्य करूंगा कि मैं इस बच्चे को काटकर दो भागों में विभाजित कर
दूंगा। केवल यही एक रास्ता सम्भव दिखाई देता है। मुझे निष्पक्ष बने रहना है। वहां
न तो कोई प्रमाण है और न यह जानने का कोई रास्ता है कि बच्चा इस स्त्री का है अथवा
उस स्त्री का। इसलिए मैं एक सम्राट की भांति यह निर्णय देता हूं कि इस बच्चे को
काट कर दो हिस्से कर दिये जायें। और इन दोनों स्त्रियों में आधा-आधा बांट दिया
जाये।’
जो स्त्री बच्चे को पकड़े हुए थी वह मुसकाये
जा रही थी और वह प्रसन्न थी। लेकिन दूसरी स्त्री जैसे लगभग पागल हो उठी, जैसे मानो वह राजा को मार देगी। उसने कहा—‘आप यह
क्या कह रहे हैं? कहीं आप पागल तो नहीं हो गए हैं? वह बहुत क्रोध में थी। वह अब एक सामान्य स्त्री नहीं रह गई थी—वह जैसे क्रोध का अवतार बन गई थी, वह क्रोध की
ज्वाला में जल रही थी। उस स्त्री ने कहा—‘यदि यही न्याय है,
तब मैं अपना दावा छोड़ रही हूं और बच्चे को उसी स्त्री के पास रहने
दिया जाये। बच्चा मेरा न होकर उसी स्त्री का ही है। वह क्रोधित तो थी फिर भी उसके
चेहरे पर आंसू बह रह रहे थे।’
और सम्राट ने कहा—‘यह बच्चा तुम्हारा ही है। तुम इसे ले जाओ दूसरी स्त्री केवल नकली मां है।’
दूसरी स्त्री कुछ भी नहीं बोल सकी थी, जब कि
बच्चा मारा जाने वाला था। वास्तव में वह तो मुसकाये जा रही थी, उसके लिए कुछ भी अंतर नहीं पड़ता था।
जब तुम प्रेम करते हो तो तुम क्रोधित
हो सकते हो। जब तुम प्रेम करते हो तो तुम बहुत होते हो। यदि तुम स्वयं से प्रेम
करते हो और यह जीवन में अनिवार्य है, अन्यथा तुम अपने जीवन से चूक जाओगे—तुम कभी भी दमित
नहीं बनोगे, और जीवन तुम्हें जो कुछ भी देता है तुम उसे
अभिव्यक्त कर सकोगे। तुम उसकी प्रसन्नताओं को, उसकी उदासी
को उसके चढ़ाव और उतारो को, उसके दिनों और रातों को तुरंत प्रकट कर रहे होगे।
लेकिन तुम्हारा पालन पोषण नकली बनने
के लिए हुआ है, तुम्हारा पालन पोषण इस तरह से
किया गया है कि तुम दम्भी और बहाने बाज़ बन गए हो। जब तुम क्रोध का अनुभव करते हो
तो तुम एक मुस्कान होंठों पर चिपका लेते हो। जब तुम क्रोध में होते हो तो तुम
क्रोध तो तुम क्रोध का दमन कर लेते हो। जब तुम कामवासना का अनुभव करते हो तो तुम
उसका दमन करते हो ओर अपने मंत्र का उच्चारण किये चले जाते हो। जो कुछ अंदर से हो,
तुम कभी भी प्रामाणिक नहीं होते हो।
एक बार ऐसा हुआ......
जो और उसकी छोटी लड़की मिज एक मनोरंजन
पार्क में सैर करने गए। रास्ते में रुककर उन्होंने डटकर भोजन किया। पार्क में वे
लोग गर्म सॉस लेंगे ब्रेडरोल के स्टाल पर आये और मिज ने चिल्लाकर कहा—‘डैडी! मैं चाहती हूं......’ जो ने उसे बात पूरी करने
से रोका और उसके लिए गर्म सॉस बाले सैंडविच की सजावट वाली पलेट खरीदकर उसे दे दी।
पॉपकार्न स्टैण्ड पर मिज ने चीखते हुए कहा— ‘डैडी मैं चाहती
हूं....’ जो ने उसकी बात काटकर पॉपकार्न से भी उसका पेट भर
दिया।
जब वे लोग आइसक्रीम वेंड़र के पास आये, छोटी सी मिज ने एक बार फिर चीखते हुए कहा—‘डेडी,
मैं चाहती हूं.....’ जो ने उसे फिर उसकी बात
काटते हुए रोका, लेकिन इस बार उसने कहा— ‘तुम चाहती हो, तुम चाहती हो, मैं
जानता हूं कि तुम क्या चाहती हो—क्या आइस्क्रीम।’
उसने कहा—‘नहीं डैडी! मैं उलटी करना चाहती हूं।’
यही वह बात थी जिसे वह प्रारम्भ से ही
कहना चाहती थी-पर सुनता कौन है? दमन तुम्हारी प्रवृति
की बात नहीं सुनता है। दमन तुम्हें बर्बाद करने की एक चाल है।
छोटे बालों वाले बारह निकम्मे और झगड़ालू
युवक अपनी नेवी जैकेट पहने और अपने सभी तामझाम के साथ एक शराब घर में आये और टहलते
हुए शराब विक्रेता के पास आकर बोले—‘कृपया, तेज बीयर के तेरह मग सर्व करो।’
उसने टोका—‘लेकिन इस जगह तो आप बारह ही लोग हैं।’
उन लोगों ने कहा—‘हम लोग तेज बीयर के तेरह मग ही चाहते है।’
इसलिए वह उन्हें बीयर देता है और सभी
लोग बैठ जाते हैं। वहां एक छोटे कद का बूढ़ा भी कोने में बैठा हुआ था ओर उन बालों
वाले युवकों का नेता चलकर उसके पास पहुंचता है और उससे कहता है—‘डैडी, आप यहां बैठे हैं, आपके
लिए भी बीयर हाज़िर है।’
वह छोटे कद का व्यक्ति कहता है—‘बहुत-बहुत धन्यवाद, बेटे जी तुम कितने अधिक उदार हो?’
युवक ने कहा—‘वह सब तो ठीक है, पर हम लोग अपंगों की सहायता करने
की फिक्र नहीं करते।’
उसने कहा—‘लेकिन मैं अपंग तो नहीं हूं।’
युवक बाला--‘आप अपंग हो जायेगें यदि आप अगले दौर के लिए बीयर नहीं खरीदते हैं।’
यही है वह दमन जो तुम्हें अपंग बनाने
की एक बाजीगरी है। वह तुम्हें बर्बाद करने की एक चाल है, वह तुम्हें कमज़ोर बनाने की एक तरकीब है। यह तुम्हें स्वयं तुम्हारे ही
विरूद्ध स्थापित करने की एक चाल है। यह तुम्हारे अंदर ही संघर्ष उत्पन्न करने का
एक तरीका है, और जब कभी भी एक व्यक्ति स्वयं अपने साथ ही
संघर्ष में होता है, निश्चित रूप से वह कमजोर होता है।
समाज ने एक बहुत बड़ा खेल खेला है; उसने प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं उसके ही विरूद्ध स्थापित कर दिया है—इसीलिए तुम निरंतर स्वयं के विरूद्ध ही अपने अंदर संघर्ष कर रहे हो और
तुम्हारे पास कोई भी अन्य काने के लिए ऊर्जा ही नहीं है। जो कुछ तुम्हारे अंदर घट
रहा है, क्या तुम उसका निरीक्षण नहीं कर सकते हो? तुम निरंतर लड़ते जा रहे हो.... समाज ने तुम्हें चीरफाड़ कर एक विभाजित
व्यक्ति बना दिया है। उसने तुम्हें एक मानसिक रोगी बना दिया है, और तुम्हें उलझन में डाल दिया है। उसने तुम्हें लहरों में बहती हुई एक
लकड़ी की तरह बना दिया है: तुम नहीं जानते कि तुम कौन हो और तुम यह भी नहीं जानते
कि तुम कहां जा रहे हो। तुम यह भी नहीं जानते कि तुम यहां कर क्या रहे हो? पहली बात तो यह कि तुम यह भी नहीं जानते कि तुम यहां क्यों हो? उसने तुम्हें उलझन में डाल दिया है। और इसी भ्रम और उलझन से महान नेताओं
का जन्म हुआ है, जैसे एडोल्फ हिटलर माओ जे डोग और जोसफ
स्टालिन। और इसी भ्रम और उलझन से वेटिकन के पोप का जन्म हुआ है और उलझन और भ्रम से
अनेक चीजें उत्पन्न हुई हैं। लेकिन तुम बरबाद हो गए हो।
तंत्र कहता है—अपने को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करो—लेकिन स्मरण
रहे, स्पष्ट रूप से प्रकट करने का अर्थ अनुतरादायित्व नहीं
है। तंत्र कहता हैं कि बुद्धिमत्ता से अपने को अभिव्यक्त करो और तुमसे किसी भी
व्यक्ति की हानि नहीं होगी। एक मनुष्य जो स्वयं अपना नुकसान नहीं कर सकता, किसी अन्य व्यक्ति को भी नुकसान नहीं पहुंचायेगा। और एक व्यक्ति अपने से
ही प्रेम नहीं करता, तो वह खतरनाक है, वह
किसी भी व्यक्ति को नुकसान पहुंचा सकता है। वास्तव में वह नुकसान पहुंचायेगा ही।
जब तुम उदास हो, जब तुम अवसाद ग्रस्त हो, तुम अपने चोरों और के लोगों
में भी उदासी और अवसाद ग्रस्तता उत्पन्न करोगे। जब तुम प्रसन्न हो तो तुम एक
प्रमुदित समाज ही सृजित करना चाहोगे, क्योंकि प्रसन्नता केवल
एक प्रमुदित संसार में ही अस्तित्व में रह सकती है। यदि तुम प्रसन्नता पूर्वक नहीं
जी रहे हो , तो तुम चाहते हो कि प्रत्येक व्यक्ति प्रसन्न
रहे। यह सच्चा और प्रामाणिक धर्म है: अपनी प्रसन्नता से तुम पूरे अस्तित्व को
मंगलमय बना देते हो।
लेकिन दमन तुम्हें नकली बनता हैं।
क्रोध, सेक्स और लालच दमन करने के द्वारा नष्ट नहीं होते है।
नहीं वे वहां बने रहते हैं। केवल लेबल ही बदल जाते है। वे अचेतन में चले जाते हैं,
और वह वहां से कार्य करना शुरू कर देते हैं, वे
भूमिगत हो जाते हैं। और वास्तव में जब वे भूमिगत होते हैं तो वे कहीं अधिक
शक्तिशाली होते हैं। मनोविश्लेषण की सारी गतिविधियां, जा कुछ
भूमिगत है, उसे सतह पर लाने का प्रयास ही तो है। एक बार वह
चेतन हो जाता है, तो तुम उससे मुक्त हो सकते हो।
एक फ्रांस में रहने वाला व्यक्ति
इंग्लैंड में अपने मित्र के साथ ठहरा हुआ था कि मित्र ने उससे पूंछा—सब कैसा चल रहा है?
उसने कहा—‘सिवाय एक चीज़ के सभी कुछ ठीक चल रहा है। जब मैं किसी दावत में जाता हूं
तो मेज़बान की परिचारिका यह नहीं बतलाती कि पेशाबघर कहां है?’
आह, जार्ज, तुम्हारे कहने का अर्थ यह है कि वह तुम्हें
यह नहीं बतलाती कि टॉयलेट कहां हैं? यह बस हमारा अंग्रेजी
शिष्टाचार है। वास्तव में वह कहेगी—‘क्या आप अपने हाथों को
धोना चाहते हैं? और इसका भी यही अर्थ होता है।’
फ्रेंच ने इस बात को मन में नोट कर
लिया और अगली बार जब वह एक दावत में गया तो चारों और खड़ हुए मेहमानों में मेजबान
की परिचारिका से यह रिमार्क सुना—‘गुड इवनिंग महाशय डू
पोंट। क्या आप अपने हाथों को धोना चाहते हैं?’
उसने कहा—‘नहीं मैडम, धन्यवाद मैंने अभी-अभी सामने वाले उद्यान
में एक पेड़ के नीचे खड़े होकर ठीक अभी ही अपने हाथ धोए हैं।’
यही है वह जो होता है, केवल नाम बदल जाते हैं। तुम भ्रमित हो जाते हो, तुम
नहीं जानते हो कि क्या चीज़ क्या है। वहां प्रत्येक चीज़ हैं...केवल लेबल बदल गए
हैं। और वह एक तरह की विक्षिप्त मनुष्यता को उत्पन्न करते हैं। तुम्हारे माता-पिता
और समाज ने तुम्हें बरबाद कर दिया है और अब तुम अपने बच्चों को बर्बाद कर रहे हो।
अब यह एक दुष्चक्र है। किसी ने किसी व्यक्ति को तो इस दुष्चक्र से बाहर आना ही
होगा।
अपने माता-पिता पर क्रोध मत करो—जो भी उन्होंने किया है, उसकी अपेक्षा वे उससे बेहतर
नहीं कर सकते थे। लेकिन अब अधिक सचेत बनो, और वैसी ही चीज़
अपने बच्चों के साथ मत करो। उन्हें और अधिक स्पष्टता से अपने को अभिव्यक्त करने का
अवसर दो और उन्हें भी कहीं अधिक स्पष्टता से अपने को अभिव्यक्त करना सिखाओ। उनकी
सहायता करो, जिससे वे कहीं अधिक प्रामाणिक बनें। और इस तरह
जो भी कुछ उनके अंदर है वे उसे बाहर ला सकें। और वे हमेशा के लिए अत्यधिक कृतज्ञ होंगे,
क्योंकि उनके अंदर फिर कोई संघर्ष नहीं होगा। वे फिर खण्डों में
नहीं बांटेंगे और अखण्ड होंगे।
जब तुम ठीक से यह जानते हो कि तुम
क्या चाहते हो तो तुम उसके लिए कार्य कर सकते हो। जब तुम यह नहीं जानते हो कि तुम
वास्तव में क्या चाहते हो, तो तुम उसके लिए कैसे
कार्य कर सकते हो? तब कोई भी व्यक्ति तुम्हें पकड़कर अपने
अधिकार में ले लेता है; और कोई भी व्यक्ति तुम्हें कोई भी
विचार देता है। और तुम उसका अनुसरण करना शुरू कर देते हो। कोई भी पथप्रदर्शक आता
है और कोई भी व्यक्ति तुम्हें तर्क से कायल कर सकता है। और तुम उसका अनुसरण करना
प्रारम्भ कर देते हो। तुमने अनेक लोगों का अनुसरण किया है और उन सभी ने तुम्हें
बर्बाद किया है।
अपनी प्रकृति का अथवा अपने स्वभाव का
अनुसरण करो। कोई भी व्यक्ति बहुत अधिक सजग और सचेत होता है, तो विनाश होना सुनिश्चित ही है।
अंतिम प्रश्न:
प्यारे ओशो! मैंने एक ऐसी स्त्री से
विवाह क्यों किया जो मुझे घृणा करती है। मैं भी उससे घृणा करता हूं।
मैं कैसे अनुमान लगाकर यह जान सकता
हूं कि तुमने एक ऐसी स्त्री से विवाह क्यों किया जिससे तुम घृणा करते हो और जो
तुमसे घृणा करती है? हो सकता है—यह केवल एक संभावना है—तुमने विवाह इसलिए किया
क्योंकि तुम एक दूसरे से घृणा करते हो।
इस जगह दो तरह के विवाह होते हैं, प्रेम विवाह और घृणा-विवाह। प्रेम विवाह बहुत दुर्लभ होता हैं, वास्तव में वे होते ही नहीं हैं। तथा कथित विवाह, घृणा-विवाह
ही होते हैं। कम से कम स्त्री के बारे में, यह बहुत सत्य है।
यदि वे तुम्हें यातना देना चाहती हैं तो वह तुमसे विवाह करेंगी, क्योंकि तुम्हें यातना देने का इस बारे में और कोई विश्वसनीय तरीका है ही
नहीं। यह सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।
मैंने सुना है:
मुल्ला नसरूद्दीन ने स्वयं को एक बहुत
भद्दी स्थिति में पाया। वह एक ही समय कम से कम तीन स्त्रियों को अपने साथ लिये जा
रहा था और प्रत्येक स्त्री से उसने वायदा किया था कि वह विवाह उससे ही करेगा। बाद
में वे उस पर दबाव डालने लगी। कि उसे अब अपनी प्रतिज्ञा को भली भांति निभाना
चाहिए। अपनी बुद्धि के काम न करने पर अंत में उसने अपने वकील से परामर्श
लिया।
वकील ने कहा—‘मेरा सुझाव है कि तुम सभी समाचार पत्रों में यह सूचना प्रकाशित कर दो कि
तुमने आत्म हत्या कर ली। बाद में हम एक नकली अंतिम संस्कार करेंगे और उससे ही
तुम्हारी मुसीबतों का हल हो जाना चाहिए।’
वे तुरंत हरकत में आ गए। जब तक वकील
ने समाचार पत्रों में फोन किया मुल्ला ने अपने व्यवसाय की देखभाल करने वाले की
सहायता से आवश्यक प्रबंध कर दिए। वह बहुत प्रभावी अंतिम संस्कार था। ठीक समय पर
प्रत्येक व्यक्ति ने ताबूत के चारों और इकट्ठे होकर मृत व्यक्ति को विधि पूर्वक
अंतिम बिदाई दी। और तभी उसकी उन तीनों महिला मित्रों ने वहां प्रवेश किया।
पहली लड़की ने मृत शरीर की और देखा और
एक गहरी सांस लेकर कहा—‘बेचारा नसरूद्दीन,
वह एक जुआ था, लेकिन मैं उसकी अनुपस्थिति
निश्चित रूप से महसूस करूंगी।’
दूसरी लड़की ने रोते हुए कहा—‘नसरूद्दीन अलविदा बहुत अधिक बुरी चीजें श्रेष्ठ तरह से कार्य नहीं करती।’
लेकिन तीसरी लड़की क्रोध से जली जा
रही थी। उसने कहा—‘ओ गंदे चूहे! मुझ पर
मरने के बाद तूने वायदा किया था कि हम लोग विवाह करेंगे। इसके लिए भले ही तू मर
गया है, मैं तुझे और अपनों को गोली से माने जा रही हूं। कम
से कम इससे मुझे संतोष तो मिलेगा।’ और तब उसने अपने पर्स से
एक रिवाल्वर खींच कर बाहर निकाला और नीचे झुककर मुल्ला के शव के समानान्तर लेट गई।
ताबूत से मुल्ला उठकर बैठ गया और जोर
से चिल्लाया—रूको, इतनी
अधिक उत्तेजित मत हो। मैं तुम्ही से विवाह करूंगा।
मैं नहीं जानता कि तुमने ऐसी स्त्री
से विवाह क्यों किया। जो घृणा करती है, और जिससे तुम भी घृणा करते हो। लेकिन निरीक्षण करो, तुम्हें
अनिवार्य रूप से बहुत गहरी झंझट में होना चाहिए लेकिन प्रत्येक व्यक्ति ऐसा ही है।
इसलिए फिक्र मत करें। यह स्वाभाविक है। मनुष्य की सामान्य दशा यहीं है। प्रत्येक
व्यक्ति झंझट में पड़ा है। कोई भी नहीं जानता कि क्यों एक व्यक्ति एक विशिष्ट
कार्य करने जा रहा है। कभी तुम एक स्त्री से विवाह कर लेते हो। क्योंकि उसका चेहरा
आकर्षित करता है। लेकिन चेहरे के साथ विवाह का क्या लेना देना है? मधु यामिनी के दो तीन दिन जब गुजर जायेंगें फिर उसके बाद तुम उस चेहरे की
और फिर देखोगे भी नहीं। और तुम एक प्रामाणिक स्त्री से कभी विवाह नहीं करते हो।
तुमने केवल एक चेहरे से एक विशिष्ट आकृति से विवाह किया है। और आकृति का उसके साथ
कुछ भी लेना देना नहीं है।
अथवा हो सकता है कि तुमने उस स्त्री
के स्वर को पसंद किया हो, लोग मूर्खतापूर्ण
कारणों से विवाह करते हैं। अब गीत गाने वाले स्वर का उसके साथ कुछ भी लेना देना
नहीं है। गीत गाने जैसा स्वर तुम्हारा भोजन तैयार नहीं करेगा। वह तुम्हारा बिस्तरा
तैयार नहीं करेगा। कुछ ही दिनों के बाद तुम उसके स्वर को भूल जाओगे।
वास्तविकता में तुम्हें उसके साथ रहना
होगा। जिसका इन चीजों के साथ कुछ भी लेना-देना नहीं है। एक विशिष्ट स्त्री के पास
एक विशिष्ट आकृति और विशिष्ट गोलाई और घुमाव होता है। लेकिन जीवन के साथ एक गोलाई
और घुमाव को आखिर करना क्या है? एक विशिष्ट स्त्री के
पास चलने का एक विशिष्ट ढंग होता है, जो तुम्हें आकर्षित
करता है। लेकिन क्या तुम ऐसी चीजों के लिए अपने जीवन को नष्ट कर सकते हो? क्या तुम ऐसी तुच्छ और सारहीन चीज़ों के लिए अपने वैवाहिक जीवन को नष्ट कर
सकते हो? यह सम्भव ही नहीं है।
जीवन को कहीं अधिक यथार्थ वादी रास्ता
और कहीं अधिक वास्तविक बुनियादों की जरूरत होती है। कारण यह है कि तुम उसके प्रति
सचेत नहीं हो। यह प्रश्न केवल विवाह का ही नहीं है, यह प्रश्न तुम्हारे पूरी जीवन का है। यही है वह जो तुम किये चले जा रहे हो—तुम उसी क्षण अचानक ही, बिना गहराई से उन्हें देखे
हुए की जीवन को कहीं अधिक सचेतनता, कहीं अधिक जिम्मेदारी,
कहीं अधिक समझ और कहीं अधिक बुद्धिमत्ता की आवश्यकता है। उन कार्यों
को किए चले जा रहे हो।
कहीं अधिक बुद्धिमान बनने से शुरूआत
करो और तुम कम से कम कठिनाइयों में पड़ोगे। कहीं अधिक सावधान और सजग बनो। एक
साक्षी बनो।
आज बस इतना ही।
thank you guruji
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