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सोमवार, 9 सितंबर 2024

लिंग भेद और मानव शरीर-(गहरी चर्चा) -मनसा-मोहनी

 लिंग भेद और मानव शरीर-

अध्यात्मिक जगत और लिंगिये भेद-शायद आप को ये जानकर अति विषमय होगा, परंतु अध्यात्मिक जगत रहस्यों के साथ एक वैज्ञानिक भी है। खास कर हिंदु धर्म। हम चक्र और उसके रंग, सूर, ताल और उस चक्र की परिणति स्त्री है या पुरूष की इस पर बहुत बात कर चुके है परंतु चक्र और उसके लिंग के भेद की कम ही बात करते है। क्योंकि यह अति गूढ़ रहस्य है। जिसे हर व्यक्ति को जानना जरूरी नहीं है। इस लिए इसे गूढ़ रहस्य कहा जाता है। जो कोई व्यक्ति जब अध्यात्म जगत में प्रवेश करता है वह इस जाने तो सही है या उसे ही केवल इसे जानना चाहिए। क्योंकि संसार में इस लिंग भेद के कारण कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता।

पहला शरीर और लिंग विभाजन-

अगर हम गहरे से जाने तो मानव शरीर के हम तीन विभाजन कर सकते है। पहला विभाजन एक लिंगिये कहेंगे- पहले एक लिंगिये शरीर का पहला प्रकार हम देखते है तो वह बाहर भी आसानी से दिखाई देता है।  जिस शरीर के पास एक ही लिंग होता है, यानि एक ही लिंग शरीर चाहे वह पुरूष को हो या स्त्री का, वह पुरूष या स्त्री में से कोई भी हो सकता है। जिसे हम हिजड़ा या किन्नर के नाम से जानते है। अब ये कैसे और क्यों यह प्रकृति का एक गहरा विभाजन है। ऐसा शरीर मानव चेतना के विकार से मिला या प्रकृति की कोई भूल है। परंतु हम इस पर बाद में बात कर सकते है। अब इस तरह का शरीर जो एक लिंगिये होता है। वह न समाज के, न प्रकृति के, न ही अध्यात्म के जगत में प्रवेश कर सकता है।

ये एक असहनीय दिशा हे। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को किन्नर को देख कर एक करूणा का उदय होता है। क्योंकि उसके पास दूसरा लिंग शरीर नहीं है इसलिए वह अतृप्त ही रहता है। रूखा-सूखा। वह लाख कोशिश कर के भी अध्यात्म जगत में प्रवेश नहीं कर सकता। ये एक मजबूरी है। क्योंकि वह प्रवेश की सीढ़ी ही उस के पास नहीं है। जिस पर चढ़ कर वह न संसार में जा सकता है न ही अध्यात्म में।

ठीक इसी तरह से प्रत्येक स्वस्थ मानव के पास दोनों लिंग होते है, स्त्री और पुरूष, परंतु प्रथम कुछ वर्षों तक स्त्री लिंग केवल स्त्री लिंग ही रहता है, पुरूष लिंग केवल पुरूष लिंग, इसलिए उस शरीर को हम स्वलिंगिये कहे तो ठीक होता है। इस पर भी तीन का विभाजन करते है। पहला विभाजन प्रत्येक प्राणी आपने को प्रेम करता है। चाहे वह किसी भी लिंग का हो। उसका अंग आगे चल कर विभाजन शुरू होता है। जब व्यक्ति परिपक्वता होता है यानि की चौदह वर्ष का तब उसका दूसरा शरीर सक्रिय हो जाता है। लगभग हमारे प्रत्येक शरीर की दो अवस्था होती है। एक सक्रियता और दूसरी सजगता। यानि समय पर प्रकृति हमारे दो शरीरों की सक्रियता में सहयोगी होती है। मूलाधार व स्वाधिष्ठान चक्र। परंतु इनकी दूसरी अवस्था केवल साधना से ही प्राप्त की जा सकती है। यानि वह शरीर अब सजग व सजीव हो गया है जाग गया है।  तब एक पुरूष को स्त्री शरीर खिंचता है और स्त्री शरीर को पुरूष शरीर ये एक प्रकृति खिंचाव है जो पशु पक्षियों पेड़ पौधों में भी देखा जा सकता है। लेकिन मानव शरीर एक अति विचित्र है। इस लिए इस के पास स्वतंत्रता है। की वह आगे जाये या वहीं रूके ये शायद उसके विकास क्रम पर निर्भर करता है। आज कल आप देखते है की एक स्त्री एक स्त्री के प्रति प्रेम में डूबी मिलेगी, या एक पुरूष एक पुरूष का संग चाहेगा। इस सब को समाज जब देखता है तो उसे विचित्र लगता है। क्योंकि यह प्रकृति विकास के तल से भी निम्न है। उस का विकास साधारण विकास भी नहीं हुआ है। उसे चाहे मानव शरीर मिल गया हे। परंतु अभी भी वह लिंग खिंचाव जो प्रकृति ने प्रत्येक फूल पौधों को, पशु पक्षियों या कीट को दिया है, उस विकास से भी वंचित है। क्योंकि प्रकृति आप से उत्पती चाहती है। इस मिलने में को उत्पती नहीं है। इस लिए यह अप्राकृतिक ही कहा जाना चाहिए।

फिर इसी शरीर में कुछ व्यक्ति केवल स्वयं में अटक कर रह जाते है। शायद वह किसी विकास या भय के कारण। खास कर वह स्त्री जब उसके साथ किसी जन्म में बलात्कार या उत्पिड़न या हत्या कि गई हो तो वह उस स्थिति से हमेशा भयभीत रहती है। और उस अवस्था से हमेशा बचना चाहती है। परंतु ये भी एक प्रकार की रुग्णता है। परंतु ये एक लाचारी है मजबूरी है क्योंकि पिछले जन्म में उसके साथ बुरा किया गया और शायद उसे मार भी दिया गया हो तो अगले जन्म में वह स्त्री साधारण नहीं रह सकती। परंतु अध्यात्म जगत में ये और भी भयंकर और बहुत धातक होता है। होता तो संसारी जगत में भी धातक है। क्योंकि किसी कारण से ही चाहे वह उस शरीर का उपयोग दूसरे व्यक्ति को न तो उपयोग करने देना चाहता है। और न ही उसका उपयोग खूद कर पाती है। जो प्रकृति का अभूतपूर्व सूख सारी प्रकृति भोग रही है वह उस से वंचित रह जाती है। शरीर उसके लिए एक बोझ हो जाता है। वह बाहर से ऐसा नहीं दिखता जितना की अंतस में पीड़ादायक है। इस लिए इस तरह हम संसार में कम ही देख पाते हे। क्योंकि वह शादी करती है, बच्चे पैदा करती है परंतु वह साधारण सूख नहीं भोग पाती। इस लिए समाज में कितनी कम औरत ऑर्गेज्म को प्राप्त कर पाती है शायद पाँच प्रतिशत भी नहीं जीवन भर उनके साथ सेक्स किया जाता है परंतु सही में वह होता है एक प्रकार बलात्कार ही। इस तरह की स्त्रियों के बीच में तब मन में एक भय बीच में आ जाता हो, परंतु वह अतृप्त ही रहती है। और विकास क्रम में भी कई जन्म के बाद एकल शरीर में जन्म ले सकती है।

क्योंकि प्रत्येक प्राणी का पहला शरीर अगर पुरूष का है तो दूसरा शरीर स्त्री का होगा। इसे हम चक्रों में जाने तो उसका नाभि चक्र स्त्री का होगा। स्त्री का नाभि चक्र पुरूष का होगा। जब बाहर ये शरीर मिलते है तो एक क्षणिक सूख एक आनंद के साथ उत्पति भी होती है। परंतु अगर ये मिलन अंदर के शरीर का हो तो अंतस के शरीर में भी उत्पति होती है। साधन के जगत में यह पड़ाव अति महत्वपूर्ण है। जिसे प्रत्येक साधक पार करना चाहता है। परंतु अति कठिन होने के कारण वह अटक जाता है।

इसलिए तीसरे चक्र का नाम मणिपूर चक्र रखा गया है। यानि की जैसे कहावत है सांप को मणि मिल गई। जो साधक तीसरे पर पहुंच जाता है, तो वह महत्वपूर्ण क्षण उसके गौरव का होता हे। इस प्रकार वह साधन एक अति महत्व पूर्ण पड़ाव को पार गया। ये लगभग अकेले पार किया जाना कठिन है जिसे गुरु की कृपा से या उसके सहयोग से ही किया जा सकता है। इस तरह के साधक को आप दूर से ही पहचान पायेंगे। वह लगभग दीवाना हो जायेगा। उसके जीवन में प्रथम स्थान ध्यान को प्राप्त हो जायेगा। उसका चलना उसका उठना, बैठना, स्वांस लेना सब ध्यान हो जायेगा। इस अवस्था पर जाकर मानव लिंग को विभाजन पूर्ण होता है। तब पुरूष एक पूर्ण पुरूष हो जाता है और स्त्री एक पूर्ण स्त्री। फिर बाहर उस का किसी बाहर की दूसरे लिंग से खिंचाव लगभग खत्म हो गया। तब अगर इस शरीर पर जो साधक है तो अगर वह सहवास भी करें तो संसार या प्रकृति के सहवास से उस की गुणवत्ता भिन्न होगा। परंतु इस अवस्था पर जो साधक पहुंच जाता है उस बाहरी सहवास में रस खत्म हो जाता है। तब अगर अंदर के सहवास करें तो उस समझना अति कठिन है। क्योंकि इस अवस्था पर साधक की चेतना का तल बदल जाता हे। और उसके जीवन में जन्म होता है प्रज्ञापारमिता का। जिसे बुद्ध सारिपुत्र को या सुभूति को बतला रहे है। तब वह एक पूर्ण है अगर उसे भाग्य से बहार भी उस स्थिति की लिंगिये स्त्री-पुरूष मिल जाते है। तो उनको तंत्र की अवस्था के लिए पूर्ण माना जा सकता है। ओशो को भारत में एक जोड़ उपलब्ध नहीं हुआ इस संसार में जब की उसके आस पास सब पूर्णता थी। एक बार उन्होंने स्वामी ध्यान चिन्मय को इसके लिए चूना था। क्योंकि वह तंत्र के प्रयोग कर के ध्यान को सरल बनाना चाहते थे। उन का संगीत बनवाना चाहते थे। परंतु सूना है जब ये बात योग चिन्मय जी के पास पहुंची तो वह इतना कांप गये घबरा गये की अपनी प्रेमी के साथ अपने सर के सारे बाल कटवा कर आश्रम में ये घोषणा कर दी की आज से हम ब्रह्मचारी का जीवन आपना रहे हे। आज से हम दोनों बहन भाई है।

आप सोच सकते है, या शायद इस बात की कल्पना कर सकते है कि आसान सा दिखने वाला मार्ग सच्चे साधक के लिए कितना कठिन हे। इसे समझना अति कठिन ही नहीं दूभर भी है मानव मन के लिए। इस लिए जिस मार्ग को लोगों को कम पता होता है उसे पर झूठा आडम्बर अधिक होता है। इस लिए आप चारों और तंत्र की चर्चा पायेंगे। परंतु उसका सही जानकार मिलना कितना मुश्किल है। आप इस योग चिन्मय की घटना को पढ़ कर समझ सकते है। लगलगओशो जब इस बात का की योग चिन्मय ने ये घोषणा का पता ओशो को चला तो केवल वह हंस भर दिए।

तब कोई साधक या साधिका जब इस लिंगिये शरीर पर पहुंच कर खड़े होते है तो वह एक पूर्णता में प्रवेश कर रहे होते है। अब उनका अध्यात्म जगत रूकने वाले नहीं है। इसलिए योग चिन्मय या उनकी मित्र साधिका का कोई नुकसान तो बिलकुल भी नहीं हुआ। और न ही आगे चल कर हो सकता है। चाहे वह ब्रह्मचारी जीवन अपनाये या सेक्स करें या न करें। परंतु वह वहां कितने दिन या जन्म ठहर सकता ये उसकी प्रज्ञा पर निर्भर करता है। ये अंतिम है। वह साधक अब अ-लिंगिये हो जाता है। यानि, की पूर्ण।

इसलिए एक लिंगिये से यात्रा शुरू हो कर अलिंगिये पर जाकर पूर्ण होती है। इसे चक्रों के माध्यम से में अधिक सुविधा से समझाया जा सकता है। परंतु कुछ गहरा विभाजन रह जाते हे। जैसा आपने देखा की एक स्त्री को दोनों शरीर मिलने पर भी वह दूसरे का उपयोग नहीं कर पाती। ये उसकी साधना में भी गति को कम करता है। वह साधक प्रेम विहिन रहती है सुखी-सुखी परंतु आगे जाकर उसके लिए मार्ग अति कठिन होता चला जायेगा। उसका वो भय, जो आप प्रेम बन सकता था, अगर वह गहरे में डुब गई तो उसे उभरना अति कठिन होगा। तब उसकी सहायता लगभग असंभव हो जाती है। तब वह भय अति साधारण नहीं रह जाता।

इसलिए आपने देखा प्रेम और मृत्यु समान है। प्रेम भी मृत्यु है और मृत्यु से प्रेम मुक्ति है।

 

मनसा-मोहनी दसघरा

ओशोबा हाऊस

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