
तब सादगी का अर्थ होगा: तुम्हारी आवश्यकताओं तक आ जाओ; इच्छाएं पागल होती है, है,आवश्यकताएं स्वाभाविक होती है। भोजन, घर, प्रेम; तुम्हारी सारी जीवन ऊर्जा को मात्र आवश्यकताओं के तल तक ले आओ। और तुम आनंदित हो जाओगे। और एक आनंदित व्यक्ति धार्मिक होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता। और एक अप्रसन्न व्यक्ति अधार्मिक होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता। हो सकता है वह प्रार्थना करे, हो सकता है, वह मंदिर जाए,हो सकता है। मस्जिद जाये। उससे कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला। एक अप्रसन्न व्यक्ति कैसे प्रार्थना कर सकता है? उसकी प्रार्थना में गहरी शिकायत होगी। दुर्भाव होगा। वह एक नाराजगी होगी। प्रार्थना तो एक अनुग्रह का भाव है, शिकायत नहीं।
केवल एक प्रसन्न व्यक्ति ही अनुगृहित रह सकता है। उसका पूरा ह्रदय पुकारता है एक समग्र अहो भाव में; उसकी आँखो में आंसू आ जाते है, क्योंकि परमात्मा ने उसे इतना दिया है बिना उसके मांगे ही। और परमात्मा ने इतना ज्यादा दिया है। तुम्हें जीवन मात्र देकर ही। एक प्रसन्न व्यक्ति प्रसन्न होता है केवल इस लिए। कि वह सांस ले सकता है। वहीं बहुत ज्यादा है। पल भर के लिए श्वास लेना मात्र ही पर्याप्त होता है। पर्याप्त से कहीं ज्यादा। जीवन तो इतना आशिष पूर्ण है—लेकिन एक अप्रसन्न व्यक्ति इसे समझ नहीं सकता।
इसलिए ध्यान रहे। जितने ज्यादा कब्जा जमाने की वृति से जुड़ते हो, उतने ही कम प्रसन्न होओगे तुम। जितने कम प्रसन्न होते हो तुम,उतने ही दूर तुम हो जाओगे परमात्मा से, प्रार्थना से, अनुग्रह के भाव से। सीधे-सहज होओ। आवश्यक बातों सहित जीओं और भूल जाओ आकांक्षाओं के बारे में; वे मन की कल्पनाएं है, झील की तरंगें है। वे केवल अशांत ही करती है, तुम्हें वे किसी संतोष की और तुम्हें नहीं ले जा सकती है।
ओशो
पतंजलि—योग-सूत्र,
भाग—2
प्रवचन-11
21अप्रैल, 1975, पूना
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें