01-नीम का दर्द-(कहानी)
(दसघरा की दस कहानियां)नीम के उस पेड़ को अपनी विशालता, भव्यता और सौंदर्य पर बहुत गर्व था। गर्व हो भी क्यों न प्रत्येक प्राणी उसके रंग रूप और आकार को देख कर कैसा गदगद हो उठता था। पक्षी उस पर आकर कैसे अठखेलिया करते थे। एक दूसरे के साथ चिलौल-झपटमार करते थे। कैसे आपस में लड़ते झगड़ते कूदते-फुदकते इस डाल से उस डाल पर मचलते रहते थे। उन पक्षियों का नाद कैसे मधुर गीतों की किलकारीयों जैसा लगाता था। मानो आपके कानों में कहीं दूर से महीन घंटियों का मधुर नाद आ रहा हो। कोई अपनी चोंच टहनियों पर रगड़-रगड़ कर उसे साफ़ करने की कोशिश कर रहा होता था। कोई चोंच मार कर आपस में प्रेम प्रदर्शित करते दिखते थे। आप बस यूं कह लीजिए की उस नीम के पेड़ के चारों और एक रौनक मेला लगा रहता था। उस सब को देख कर नीम भी मारे खुशी के पागल हुआ जाता था। उस नीम का तना हमारे आंगन में जरूर था पर उसकी शाखा-प्रशाखा दूर पड़ोसियों के छत और आंगन तक पसरी फैली हुई थी। वो इतना ऊँचा और विशाल था कि ये बटवारे की छोटी-छोटी चार दीवारी उसकी महानता के आगे बहुत ही बोनी और छोटी थी। उसकी विशालता के आगे इन दीवारों की उँचाई का कोई महत्व नहीं रह गया था। या यूं कह लीजिए कि नीम कि उँचाई के आगे ये बटवारे की दीवारें बहुत बोनी ही लगती थी। जड़ें और तना भले ही हमारे आंगन में हो, परन्तु उसकी छत्र छाया का आशीर्वाद दूर दराज के घरों को भी उतना ही मिलता था। ये शायद उसकी बुजुर्ग और महानता का ही वरदान था।
मैंने जब कभी मां से उसके विषय में पूछता ‘’मां ये नीम कितना पुराना होगा।‘’ तब मां केवल इतना कहती, ‘’जब मैं शादी होकर इस घर में आई थी, मैंने भी इसे इतना ही बड़ा और विशाल ही देखा था। और मां कहती थी जब मैंने अपनी सासु मां से भी पूछा था कि आप जब यहाँ आई तो ये नीम कितना बड़ा था। तब उसने भी यही कहां की उसने भी इसे इतना बड़ा और विशाल ही देखा था।‘’ सौ मैंने गिनती का अन्त करते हुए उसे अति ‘’प्राचीन’’ होने के खिताब से नवाज़ दिया।नीम शब्द संस्कृत से आया है, नीम्बः से, कैसे उसकी टहनियों को गुच्छों में झूमती सिहरती, आनन्द तर झुकी हुई तुम पाओगे। परन्तु पूर्ण नीम को जब तुम देखोगे सीधा खड़ा अपनी पूर्णता में गौरव गर्वित इठलाता, प्रसन्न मुद्रा में लीन ही खड़ा देखोगे। उसकी पूर्ण शाखा-प्रशाखा, पृथ्वी तक नमी कैसी देव तुल्य सी प्रतीत होती थी। और दूसरी और शीशम के वृक्ष की (शीशा+नम:) टहनियों को जब भी आप झुके हुए देखेंगे वह कैसे साधु भाव सा लिए खड़ा लगेगा आपको। उसकी टेहनियां का इतना झुका हुआ दिखने पर भी आपके मन में शीशम के प्रति श्रद्धा भाव ही होगा। दूसरी और लहराती झूमती नीम की टहनियों को जब आप देखोगे तो आपको उसमें उसका होना कहीं वैभव पूर्ण लगेगा। वह खड़ा हुआ अपने में कैसे आपको पूर्ण देवत्व रूप लिए ही महसूस होगा। इस तरह से खड़ा देख कर आपका अंतस अनायास ही उसे देख कर झुक जाने का भाव जग ही जायेगा। उसकी गौरवपूर्ण विशालता उसकी झूमती टहनियों, महीन नाचते पत्तों को देख कर आप पल भर के लिए किसी और ही लोक में चले जायेगे। यही है उसके होने कि सत्यता। उसकी शीतल कड़वी छांव जब आपके नथुनों में घूस कर गले में कड़वापन भर कैसे आत्म सात करता महसूस होगा। उसका यूं फैलता सौंधापन आपके अंग संग भरता सा लगेगा। उस समय आपको आपने में कैसी निर्भयता एक हल्का पल भरा हुआ सा पायेंगे। उसका तना उबड़ खाबड़ होने पर भी कितना चित्र वत दिखता है। मुझे उसकी फटी चटकी दरारों को चित्र में अंकित करने में अति आनंद आता था।
नीम अपने आस पास के सभी घरों को छांव देता, पतझड़ में उनके पीले पत्ते आँगन में बिखेर कैसे मुस्कराता से दिखते थे। उस हर्षित बेला में जब आप उसे देख रहे होते तो वह कैसा एक नटखट बालक जैसा आपको दिखलाई दे रहा होता था। पत्तों के साथ जब उनकी पतली-पतली सीखें (डालियां) जमीन पर गिरती, तब लड़कियाँ-बच्चे उन्हें इकट्ठा कर के खेल-खेल का झाडू बनाते मिल जायेगे। सावन से पहले जब उसमें बुगर (फूल) आते तो कैसी तेज मधुर गंध बिखरी रहती थी पूरे आँगन में। और मधुमक्खियों को अपनी और कैसे अनायास ही खिंच लेता था वह पल भर में। आपके नथुनों के अंतस तक एक सोंधी ख़ुमारी सी, एक मादक मोहकता सी भर जायेगी उस गंध से। नीम अपनी सुगंध में एक औषधीय गुण समेटे रहता है। देखते ही देखते वह बुगर कैसे नीमोलियां बन कर अपना रूप बदल लेते थे। कैसे टहनियाँ पर लद वो निमोलियों के गुच्छे आपको नाचते गाते से लगेंगे। हम सब उसे बचपन में छोटे आम ही कहा करते थे। पक जाने पर जब वे नीमोलियां पीली हो जाती तब क्या बड़े और क्या बच्चे सब उनके दीवाने हो उठते थे। और पक्षियों, कीड़े मकोड़ों को कैसे अपनी और खींच कर सार दिन पागल बनाए रहती थी। आप उस समय नीम के नीचे केवल पीले पड़े खोल ही पाओगे। देर श्याम तक यही रोनक मेला चलता रहता था। दूर कहीं जब सूरज थक मांद कर अपने घर लोट रहा होता था। तब पक्षी भी दिन भर के थके मादे उसकी टहनियों पर आकर अपना रेन बसेरा करने लग जाते थे। चिडियाओं का चहकना कैसा मेले जैसा लगने लग जाता था। उस समय नीम मानो अपने सारे दिन की धूल धमास और थकावट को भूला जाता था। दूर दराज केवल पक्षियों का कलरव गान महीन घुंघरुओं का आभास सुनाई देता था। सब पक्षी सोने से पहले कैसे एक दूसरे के साथ मोज मस्ति करते खेल कूद कर गाते और फिर सो जाते थे। इस सब को अपने अंग-संग होता देख नीम गद्द-गद्द हो कर अपने को धन्य समझता था।
रात होते तक आस पास के सब पक्षी अपने अहं को भूल उसकी डाल पर रैन बसेरा करते थे। कैसे रात की कालिमा उनके रंग रूप को अपने में समेट करके, उनके होने को अपने में लीन कर लेती थी। उन सब पक्षियों का होना कैसी पल में किसी पूर्णता में खो जाता था। उन सब का आकार, उनका प्रकार, एकरसता में विलीनता कितनी मधुर लगती थी। दिन के उजाले में फिर अपने-अपने स्वरूप के अनुरूप मोर, तोते, कौवे, चिड़ियों, गिलहरी बन अपना संसार रच लते थे। रात के अंधेरे में नीम अपनी गोद और नींद में उनका होने का भाव अपने में कैसे पूर्णता से समेट कर लीन कर लेता था। और सूर्य उदय होते ही वह सब पाखी बन अपने अहं में चले जाते थे।
दिन के समय नीम के ऊपर की टहनियों पर पक्षियों का डेरा जमा होता था। और नीचे आँगन की छांव तले गांव की बहु-बेटियां सीने, पिरोने, चूटने के साथ बात-बात पर हंसते-हंसते लोट-पोट हो रही होती थी। उस समय वातावरण में कैसी मधुर ताजगी और एक सुहावना एहसास भर जाता था। नीम भी उसे देख कर कैसा पुलकित और अल्हादित बाल वत हो उठता था। उस समय वह बहु-बेटियों के इन अट्ठहास से अपने बुर्जग होने के अंदाज में थोड़ा झिझकता भी जरूर था।
नीम की छांव में दिन भर गांव की बहु बेटियों की चुहल-चपलता चारों तरफ बिखरी फैली होती थी। पास में ही बड़ी बूढ़ी अपना दांत रहित पोपला मूंह लिए गहन मंत्रणाओं के साथ-साथ बीच-बीच में एक आधी बार, बहु-बेटियों को डांटती डपटती भी रहती थी। ‘’कि क्या खी-खी करती रहती हो सार दिन दाँत निकाल कर बेशर्म की तरह मूंह फाड़ती रहती हो।‘’ ये सब सुन कुछ बहु बेटियाँ पल्लू में मुंह दबा कर कैसी मनमोहक हंसी हंसती थी। मानो उनका यूं चहकना बिना किसी उपहास के अधूरा था। तब नीम उन पर अपना बुगर फेंक कर उनका स्वागत करता और शायद थोड़ा सावधान भी करता था। पर उस बेचारे की सुनता कोई नहीं था। आस पड़ोस की सब लड़कियाँ अपने आँगनों में फैली टहनियों में झूला डालती थी। परन्तु रौनक मेला तने के आस-पास की झूल पर ही अधिक जमता था। पत्ते शाखा पर कहीं भी लगते हो परंतु सिंचना तो पड़ेगा उन्हें तने को ही। उन अंधेरों छिपी जड़ों को अपना माध्यम बना कर। सावन के दिनों में नीम पर झूला डालना भी वीरता पदक पा लेने का जैसा काम होता था। तब सब लड़कियां कैसे प्यार से मेरी लल्लो चप्पो कर मुझे मनाती थी। तू कितना अच्छा है, बहादुर है, तू मेरा सबसे राजा भैया है। देख कल मैं तुझे आपने गोद में बिठा कर झूला भी दूंगी और साथ में गुड़ चने भी। मैं जानती हूं तू सब की बात ठुकरा सकता है पर मेरी नहीं...मेरे राजा भैया मेरा झूला डाल दे ना। ना-ना करते भी मुझे सब लड़कियों का झूला डालना ही पड़ता था। ये दो काम मैंने उन दिनों इतने किए कि में आपको बता नहीं सकता। एक तो गांव की बहन क्या और बहु क्या सब के कपड़ों पर फूल-पत्ते छापता रहता था। और दूसरा इन सब लड़कियों का झूला डालना। परंतु ये मेरा सौभाग्य था की इन सब कलाओं की वजए से मेरे अंदर एक ठहराव आ गया था। मेरे ऊपर एक अमूल्य प्रेम चारों और से झरने लगा था। उसी प्रेम ने मेरा अंतस के प्रेम को पोषित किया। एक तो नीम का तना एक दम सीधा खड़ा था। दूसरा उसकी गोलाई इतनी मोटी भी की तीन चार बच्चे हाथ पकड़ कर उसका गोल घेरा भी मुश्किल से बना सकते थे।
इसके अलावा उस पर चींटियों की पहरेदारी एक दम अडिग थी। क्या मजाल कोई तने को छू भी ले, पेड़ पौधे भी कैसे शांत खड़े होकर भी अपनी रक्षा और उत्पत्ति के लिए फूल-फलों से लुभाने का सहारा लेते है। कैसे अपने फलों-फूलों से उन्हें अपनी और खिचते है। पर मैं इन चींटियों की बाधाओं को बड़ी सरलता से पार कर बड़े चाव से नीम पर चढ़ जाता था। और उतंग फुनगी पर उस कोवे का पहरा, उसके लिए तो मुझे सर पर एक कपड़ा भी बंधना होता था। वह पाजी जब उसके अंडे घोंसलें में होते तो पेड़ के आस पास भी किसी को नहीं आने देता था। ऊपर चढ़ने की तो आप सोचो भी मत। सच कहूं तो झूल डालना तो एक बहाना होता था। मैं खूद ही उस नीम की गोद में बैठा रहना चाहता था। परंतु मेरे एक बार ऊपर से गिर जाने की वजह से मां गुस्सा करती थी। बस अंधे को क्या चाहिए ...एक ही टिटकारी मैं झट पट उस नीम पर चढ़ जाता था। अगर मां को पता चल जाये तो वो डांटने न लगेगी तो, सब बहने मेरी और से मां को मना लेती थी। तब मेरे आनंद का कोई ठिकाना नहीं रहता था। मैं तो खुद ही उस नीम के साथ रह कर अपने को बहुत खुश महसूस करता था। झूला डालने के इस बहाने से उसके ऊपर चढ़ कर घंटो बैठा रहता। अगर झूला डालना न भी मिले तब भी कोई न कोई बहाना बना लेता की देखना कहीं तुम्हारे झूले का कपड़ा ठीक से तो है कहीं अगर कपड़ा खिसक तो नहीं गया है। फिर न कहना मुझे की बताया नहीं अगर तुम्हारी झूल कट जायेगी। मैंने तो तुम्हें बता दिया अब आगे तुम्हारी मर्जी। अगर तुम गिर गई या तुम्हारी पींग टूट जायेगी तो आफत आ जायेगी । फिर उस पर मुझे बार-बार फिर नहीं चढ़ने को कहना।
मैं नीम के तने पर बैठ कर नीम के पत्तों से खेलता रहता था। वो पत्ते जब मुझे छूते तो मुझे लगता की वो मुझे गुदगुदा रहा है। उसकी टहनियों का मेरी पीठ से यूं टकरा जाना मुझे बहुत अपने पन का अहसास दिलाता था। मैं ऊपर बैठ कर उस पूरे नीम को एक टक निहारता रहता था। उस समय मेरी आंखें उसका अपूर्व सौंदर्य देखती थी उसे शब्दों को में बांधा नहीं जा सकता। मानो वह कोई सौंदर्य से लवरेज देव खड़ हो। एकल एक राजा की तरह। कभी-कभी मेरे पास आकर कोई पक्षी अपना मधुर गान गाने लग जाता था। इतने पास से किसी पक्षी के कंठ का गान किसी गायत्री के पार की अनुभूति देने लग जाता था। और मजे की बात वह पक्षी मुझसे जरा भी नहीं डरता था। मुझे इस समय अपने होने-न होने एक क्षणिक आभास सा होने लग जाता था। वो सब जब आप पर घट रहा होता है, उसे शब्दों में नहीं उतारा नहीं जा सकता था। कभी-कभी कोई पक्षी अचानक कुछ देर लिए आपना गान बंद कर जरूर कर देता था, वह विषमय से मुझे देखने भी लग जाता था। मेरी उपस्थिति उसे कुछ अटपटी तो जरूर लगती थी। परंतु पल भर के लिए ही चुप होता और फिर निश्चिंत हो अपना मधुर गान गाने लग जाता था। उसके उस मधुर गान को सुन मैं उस समय अपनी आंखें बंद कर थिर हो जाता था। तब वह मधुर गान मानो मुझे थोड़ी देर के लिए किसी और ही लोक में ले जाता था। समय और स्थान पल भर के लिए मिट जाता। शायद वो पक्षी भी समझ जाते की हम सुरक्षित है और अविरल गाते रहते थे। पर एक बात जरूर थी, वहां बैठ कर पक्षियों को यूं सुनना, जितना अच्छा लगता इतना नीचे या और कही से नहीं लगाता था। पर ऐसा क्यों होता था? ये बे बुझा सा रहस्य था। जिसे मैं कभी नहीं समझ नहीं पाया था। पर कुछ चीजें समझ में न आने पर भी कितनी अच्छी लगती है। इस बात को मैंने पहली बार जाना था। शायद वह सब समझना हमारे मस्तिष्क के बहार बात थी। उसे हमारा मन या मस्तिष्क नहीं पकड़ पता और वह बेचारा बे बुझ सा आवक चुप हो जाता है। शब्द की शुन्यता साफ खड़ी दिखती थी मुझे आपने चारों और। क्योंकि वहां पर वह बेचारा मस्तिष्क उस गान की कोई व्याख्या नहीं कर पाता होगा।
घर की छत पर बैठ कर जब मैं पढ़ता होता तब मेरा ध्यान पढ़ने में कम ही रहता था। बार-बार में केवल उस नीम को ही निहारता रहता था। उस को देखना मेरे लिए धीरे-धीरे मात्र देखना भर रह जाता। बस वहां न ही नीम होता और न मैं होता केवल देखना ही। वो देखना भी कितना अभूतपूर्व सौंदर्य अपने में समेटे होता है। हम जब वस्तुओं को देखते है तो सोचते भी रहते है। तब उसे विचारों के साथ देखना होता है। देखी जाने वाली वस्तु और देखने वाले के बीच एक विचार की धारा भी बह रही होती है। जो पूर्णता से हमें देखने नहीं देती। प्रथम देखने की कला को तो मुझे नीम ने ही सिखाया थी। जब मैं उसे देख रहा होता तो न वहां विचार होते न नीम होता था। एक अमिट दूरी मिट जाती थी दोनों बीच की। सब अपनी पूर्णता में विलीन हो जाते थे। मेरे सामने वो अभूतपूर्व नीम उस समय अपने अपूर्व सौंदर्य की बुलंदियों के पार चला जाता था।
सुबह-सुबह औस की बुंदों में कैसी ताजगी को अपने ऊपर लिए उठता था वह नीम। उसकी पूर्णता कैसा अलसायापन अपने में समेटे किसी नन्हे बच्चे की तरह बाल वत छुपी दिखती थी। फिर दिन की धूप में कैसे कसमसाते हुए अँगड़ाई लेता था एक नवयुवक की तरह। उस समय तो ऐसा लगता, मानो वह तेज गर्मी में लम्बी-लम्बी ऊंसांसे भर रहा है। ठिठुरती सर्दी में सुबह जब ओस उसके पत्तों पर जमा हो चमक रही होती तब वह कैसे सी...सी.. करता सा ठिठुरता सा दिखता था, बरसात में मदमस्त हो उसका झूमना मुझे गदगद कर जाता था। मैं हर पल उसके बदलते स्वभाव को देखता रहता था। और मन ही में एक प्रेम की प्रतिछवि को महसूस करता रहता था। परंतु ये बात में किसी से कहता नहीं था। हां मां को जरूर कभी अपने और नीम के वार्तालाप को कह देता था। की देखो मां आज वह नीम शीत के कारण ठंड महसूस कर रहा है, तब मां केवल हंस देती और मेरे बालो पर अपनी उंगलियां फेर कर ...अनमनी सी हां कहती थी। तुम नीम पागल हो गया है। सच मैं नीम पागल हो गया हूं। ये सब दृश्य मुझे पारलौकिक या यू कहो आपने साथ कुछ क्षणों के लिए किसी और ही लोक में ले जाते थे। पर में तो उस समय इतना मंत्र मुग्ध हो जाता की मेरे लिये और सारी दुनिया पल भर के लिए खो ही जाती थी।
नीम को निहारते समय मेरा मन अचेतन तक अभिभूत हो उठता था। पतझड़ के आने पर उसके पके पीले पत्ते टहनी से टूट कर गिरते हुए कैसे गोल-गोल झूमते, नाचते, इठलाते, आनन्द विभोर और गौरव गर्वित होते दिखते थे। वही पत्ते जब जमीन पर सोये पड़े होते तो कैसे अपने अन्दर शान्ति लिये मौन मुखर दिखाई देते थे। जैसे उन्होंने किसी परिपूर्णता को पा लिया था। क्या यहीं मृत्यु है? इतनी शांति अपने में समेटे हुए। फिर इससे हमें कैसा भय, क्यों हम भयभीत होते है मृत्यु से? जब दूसरी और हम देखते है प्रकृति के और किसी प्राणी को मृत्यु का भय नहीं है। वह तो एक दम कैसे निश्चिंत है मृत्यु के प्रति। वह केवल जी रहा है। उसे मृत्यु का मानो पता तो है परंतु उस पर विचार नहीं करता। एक तरफ इस मनुष्य को देखो वह मृत्यु से कैसे हर समय भयभीत और सहमा दिखाई देता है। मनुष्य को देखों वह पल भी पूर्णता से जी नहीं पाता। ऐसा क्यों शायद हम सोचते है मृत्यु के विषय में विचार करते है। की मौत कब आयेगी हम बड़ी पीड़ा देगी। हमें मिटा देगी। सब खत्म हो जायेगा.... क्यों नहीं हम उसे सहजता से स्वीकार कर लेते। इसी सब के रहते हम जीवन को सहज और सरलता से जी नहीं पाते। क्या हमने जीवन के साथ मृत्यु को भी विकृत कर दिया है। उसकी पूर्णता को अपूर्णता में बदल दिया है? जीवन और मृत्यु तो एक पूर्णता का वर्तुल है। जिसे शायद विभाजित नहीं किया जात सकता। किसी एक भय की तरह.....जीवन के डरावने पहलू की तरह जिसे न हम देखना चाहते है न समझना चाहते है। और न ही उसकी चर्चा करना चाहते है।
बसन्त से पहले उसका पत्ते विहीन चेहरा, एक साधु भाव लिए हुए कैसा देव तुल्य प्रतीत होता था। उस समय कैसे एक छोटे नग्न बच्चे की झिझक और मासूमियत फैली हुए उसके चारों। ये सब मुझे उसमें साफ़ दिखाई देता था। जब उसमें लाल महरून कोमल पत्ते आते, वह कैसे नये चीवर पहन भिक्षु भाव लेकर खड़ा पूजनीय सा देव आत्मा लिए दिखाई देने लग जाता था। तब वो मुझे ऐसे गर्व से देखते हुए कहता सा प्रतीत होता था। देखों मेरे रूप मेरा उत्सव मेरी गौरव गरिमा को। उन्हीं लाल महरून पत्तों पर धूप की किरणें कैसे छिटक कर आंखों को चुन्नियाँ देती थी। मानो कोई दिव्य पुरूष साक्षात तुम्हारी नजरों के सामने आ खड़ा हुआ हो। बरसात की तेज हवाओं में भी वह कैसे अडिग खड़ा रहता था। मानो तूफान से भी टककर लेने का साहस उसने पा लिया था। डरा देने वाली बिजली की भय क्रांत गड़गड़ाहट उसकी निर्भीकता को छू तक नहीं पाती थी। लेकिन एक बात पक्की थी, वह धीरे-धीर अब बूढ़ा होने लगा था। बसन्त में नये कोमल पत्तों के साथ, उसमें बुगर भी आ जाता था। उम्र बढ़ने से जैसे मनुष्य का मस्तक के स्नायु सुप्त होने लग जाते है। इस तरह से शायद प्रकृति के प्रत्येक जीव में भी होता होगा। उसकी याददाश्त और दैनिक कार्य पर असर दिखाई देने लगा है। शायद ऐसा ही उस नीम के साथ हो रहा था। और तो क्या कारण हो सकता है, कि वो बिना मौसमी बसन्त में पत्तों के साथ बुगर (फूल) भी अपने ऊपर लगा लेता था। जब उस बुगर से निम्बोली बनकर पकती तब वे कैसी बे स्वाद और कड़वी होती थी। बे मौसम होने के कारण फलों में न ही वह रस न ही स्वाद आ पाता था। उसके फलों का स्वाद दूसरी और सावन के मौसम में कैसा माधुर्य वो रसीला पन अंदर तक एक शीतलता और तृप्ति दे जाता था। बे मौसम में वह एक दम बे स्वाद और रूखी-सूखी निर्जीव सी लगती थी। प्रकृति समय और स्थान पर जो फल और उसका माधुर्य बनता है वह अनमोल है। यह उस वृक्ष का प्रेम है उसका लावण्य है उसका माधुर्य है।
मैं छत पर बैठ जब पढ़ता होता, तब भी किताबों में लिखें काले अक्षरों से उसके पत्तों पर लिखी कविता मुझे ज्यादा लुभावनी लगती थी। मैं उसे जब भी देखता वो केवल प्रसन्न ही दिखाई देता, मैंने उसे कभी उदास नहीं देखा। कितना बड़ा तपस्वी है, कभी उफ् तक नहीं करता, न वो कभी मेरे की तरह बीमार ही पड़ता है। कभी-कभी उसके तने पर काले-काले मोटे तिल चट्टे मुझे चलते हुए जरूर दिखाई देते थे। जब मैं मां से पूछता मां इसके तने पर ये क्या चल रहे है। तब मां हंस कर कहती इसके शरीर पर जुएं हो गई है। मैं सोचता इसकी तो मां भी नहीं है जो इसकी जुएं निकाल दे। मेरे सर में जब भी जरा सी खुजली हो जाती थी, तब मां को कैसा शक हो जाता था कि कही जुएं तो नहीं हो गई है। तब वह किस तत्परता से मुझे पकड़ कर घंटो मेरे सर से जुएं ढूँढ कर निकालने की कोशिश करती रहती थी। मैं लाख छटपटाता और छुड़ा कर भागने की कोशिश करता। परंतु मेरे सारे बहाने नाकामयाब हो जाते थे। इस बीच मेरी गर्दन भी दुखने लग जाती थी। परन्तु उस समय कौन सुनने बाला था, डांट डपट कर बिठा दिया जाता था।
मुझे उसके तने के पास बैठना इतना अच्छा लगता कि आपको बता नहीं सकता, उस पर चलते तिल चट्टों का भी मुझ जरा डर नहीं लगता था। उसके संग होने पर में भूल ही जाता इस सारी दुनियां को। मैं बाल वत एक बच्चे की भांति उससे ऐसे चिपट जाता जैसे कोई मां के आँचल को सुस्वाद सुख ले रहा हूं। उस का खुरदरा पन, उस पर रेंगते कीड़े-मकोड़े मेरे ऊपर भी चढ़ जाते, पहले तो मेरे अंदर एक भय एक अनछुई घिन्न सी प्रतीत होती थी। परंतु जब मैंने उसे सब को स्वीकार कर लिया। वह कुछ ही दिनों में मुझमें भय के साथ घृणा का भाव भी खत्म हो गया था। मैं उस सब को स्वीकार भाव की तरह ले कर ग्रहण कर लेता था। अपने होने के साथ। उस के पास केवल बैठना इतना अच्छा लगने लगा कि घर के लोग ने मुझे ‘नीम पागल’ की उपाधि से नवाज़ दिया था। मैं नहीं जानता था कि नीम पागल क्या होता है, शायद मेरा दोस्त नीम और मैं.....पागल, शायद ये लोग यही कहना चाहते होंगे। मुझे ये गाली जैसा न लग कर ऐसा लगता कोई मुझे किसी उपाधि से सुशोभित कर रहा था। क्योंकि इसके साथ मेरे दोस्त का नाम भी तो संग जो जूड़ा था। दोस्त शब्द सच ही महान है जहां दो अस्त हो जाये, दो मिट जाये। शब्दों की यात्रा भी अपना पूरा इतिहास अपने में पिरोये हुए साथ चलती है। और मैं इतना गदगद हो जाता अपने उस दोस्त के साथ समय मेरे लिए ठहर जाता था। स्कूल में बैठे हुए भी मुझे उसकी छवि दिखाई देती रहती थी। उसकी मधुर यादें मुझे अपने अंदर घेरे रहती थी। कभी-कभी तो इस सब के कारण, मुझे स्कूल में भी मार खानी पड़ती थी। की तुम्हारा ध्यान कहां है, और सच ही मेरा ध्यान पढ़ाई से हट कर बस नीम की फुलंगियों पर मचलता होता था।
उसके अंदर की बहती जीवंतता, मुझे इतना अल्हादित और आनंदित करने लगती थी। मेरे आस पास क्या हो रहा होता, इस सब को पीछे छोड़ आपने में ठहर जाता था। मुझे अपना शरीर अपने विचार दूर सब पक्षियों की आवाज सुनाई देने लगती थी। कैसा अद्भुत होता था वह होना आप हो परंतु आपका न और है न छोर है। कितना सुखद लगता था इस शरीर के बंधन से मुक्त होने का। न मेरे पास शब्द है न ही उसे परिभाषा बंधा जा सकता था। कुछ क्षणों के लिए सब ठहर सा जाता था। और चाहे मैं कितना भी क्यों न थका होता या मेरे मन में कैसी भी उदासी, परेशानी क्यों न होती, मैं कुछ देर उस नीम के तने से सट कर बैठा नहीं की मेरी आंखें अचानक बंद हो जाती थी। जब मेरी आंखें खुलती तो मैं आपने किसी और लोक से इस लोक में अपने आप को आया हुआ पाता था। उसे मैं नींद भी नहीं कहा सकता था, और जागरण भी नहीं कह सकता। न वह प्रकाश है न अंधकार। मात्र वहां होना ही पूर्णता का भास दे रहा होता था। तब न आपके ऊपर किसी शरीर का या विचारो का बोझ ही होता था। अकसर हम अपने मन विचारों के भार को महसूस करते है। उसके आस-पास मुझे पूर्ण निर्भारता...किसी मुक्त उड़ान सी महसूस होती थी। उस बात का पता तो मुझे सालो बाद चला जब मैं ओशो से जूड़ा ओर ध्यान को जाना। और ध्यान करने लगा और उसे समझने लगा की मुझे उस नीम के पास बैठ कर क्या होता था। वो ध्यान के अनमोल क्षण मुझे मेरे दोस्त नीम के संग मिल गए थे।
नीम के पास बैठने भर से मेरी सारा तनाव और थकान न जाने कहां गायब हो जाती थी। और मैं एक नई ऊर्जा से अपने को सराबोर पाता था। मुझे अपने अन्दर एक नई उर्जा का संचार बहता सा साफ़ नजर आता था। एक बात और घटी नीम के संग बैठने से कुछ ऐसा हो गया कि जो पहले मैं घंटो बैठ कर भी याद नहीं कर पाता था उसको में मात्र एक बार पढ़ने से याद कर लेता था। उन दिनों मेरा मन इतना शांत रहता की मेरा किसी के साथ बात करने के जी नहीं भी चाहता था। उन्हीं दिनों मैंने पहली बार जीवन के वह गहरे तल जो अनछुए अनजाने निर्दोषता से भरे क्षणों को छुआ था। उन आयामों में मैंने अनजाने रूप में कितनी बार गोते मारे थे। उनमें खोया उनको मैंने जिया, उनको अनुभव किया था। कैसा सुरमई अँधेरे क्षण थे वो वही चीजें अब मुझे ध्यान करते हुए सालों बाद महसूस होने लगी थी। और मुझे वह मील के पत्थर जो अपरिचित था परिचित सा लगने लगते है। तब मुझे लगता है मैं इस मार्ग से तो परिचित हूं। कितना जाना पहचाना से है असल में हम युगों चलते आये है इस मार्ग पर। मुझे मेरा प्यारा नीम गुरु तुल्य बन कर वो सब निर्दोष भाव से अंजाने बिन मांगे वो सब दे गया, जिसे शायद मेहनत से प्राप्त करने में युगों लग जाते है, मानव को पाने के लिए। उससे उस दान से उसके उस निर्दोष प्रेम से मैं कभी उऋण नहीं हो सकता।
कभी-कभी अचानक पढ़ते-पढ़ते जब नीम शब्द मेरी पुस्तक में आ जाता तब में नीम के पास जा कर उसके कानों में थिसारस का पाठ भी पढ़ाने की कोशिश करता था। कि देख मैं कोई बुद्धू नहीं हूं, एक ज्ञानी हूं। (यानि में उससे कहता की देख तेरे इतने नाम है क्या तुझे मालूम है-चीर्णपर्ण, अरिष्ट, रवि प्रिय, मदार, सर्वतोभद्रक, महातिक्त, पीतसार.....आदि ..आदि) तब वह मेरी और देख कर मुस्कराता हुआ मालूम पड़ता, और कहता सा लगता कि ये सब उल जलूल बातें तुम मनुष्यों को ही शोभा देती है, हमें शब्दों की क्या जरूरत है, हम तो केवल महसूस कर हर बात को जान लते है। मानो मेरे ज्ञान के पिटारे को खुलने से पहले ही वह बंद करा देता था। और उस समय वो ऐसा झूमता की में अवाक सा रह जाता। उसकी टहनियों इस तरह झूमती इठलाती और बल खाती जैसे वो खिल खिला कर हंस-हंस कर लोट पोट हो रहा हो। मैं निरुत्तर सा उस ज्ञान के पिटारे के कारण शर्मिंदा हो जाता था। अपना सा मूंह लेकर नीची गर्दन कर बैठ कर उसे देखता ही रहता। परंतु अगले ही पल उसके अंतस से एक स्नेह मेरी और बहता सा मुझे महसूस होता था। उसका लड़ दुलार जैसे की यह तो एक अठखेली एक मजाक कर रहा था मेरे साथ। और पल में मन प्रसन्न हो उठता था।
उस रात को मैं कभी भूल नहीं सकता वह बड़ी ही मनहूस रात थी। बहुत तेज आंधी-तूफान आया, पूरे नीम की गूथनी पकड़ कर हवा मरोड़ती-तरोड़ती जा रही थी। नीम की ऐसी हालत देख कर मेरा दिल बैठा जा रहा था। इस बेचारे को इस समय हवा किस बुरी तरह से झक-झोर रही थी। मेरे दोस्त नीम को कितना भय लग रहा होगा। कैसे रात को भी बेचारे नीम को ये हवा सोने नहीं दे रही थी। ऊपर से हिला-हिला कर झकझोर रही थी। मां तो मुझे रात को सोते में कभी उठाती भी नहीं थी। अगर कभी मजबूरी में अगर उठाना भी पड़े तब कैसे प्यार से दुलार कर मेरे बालों में हाथ फेरती तब भी मुझे कैसा बुरा लगता। उस समय कच्ची नींद उठने के बाद न खाने में कोई रास आता था और न ही कुछ अच्छा लगता था। क्या हमारी बेहोशी हमें जीवन में पूर्ण रस नहीं लेने देती। क्या हम थोड़े और अधिक जाग्रत जब हो जाये तो, उन्हीं-उन्हीं स्थान उन्हीं-उन्हीं चीजों में हमारा रास अधिक नहीं बढ़ जाता है। मैं सोच रहा था क्या ये हवा दिन में नहीं चल सकती मेरा मन कर रहा था उसे हवा को बंद कर दूँ। पर मैं असहाय सा केवल देखता रहा कैसे इसकी मदद करूं, लेकिन वो बिना किसी भय के अडिग खड़ा तूफान का सामना करता रहा। उसे झूमते देख कर ऐसा बिलकुल नहीं लग रहा था की वह भयभीत है। लग रहा था मानो हवा उसे संगीत के झोंको में नृत्य करा रही हो। इस साहस को देख कर मुझे अपने दोस्त पर कितना गर्व हो रहा था। मैं आपको बता नहीं सकता हूं। मानो वह मुझसे कहा रहा था तुम डरो मत ये तो जीवन का एक अंग है। इस सब से ही तो जीवन का विकास होता है। थिरता तो मृत्यु तुल्य है।
इतनी देर में हवा के साथ-साथ बारिश भी आ गई थी। पहले हल्की फुहार फिर धीरे-धीरे वह रौद्र रूप ले रही थी। कितनी सहन शक्ति होती है, इन पशु पक्षियों और वृक्षों में। मनुष्य ने अपने आप को कितना सुरक्षित कर लिया है। तभी तो हम इतना बचा पाए, वारना हमारी शारीरिक संरचना पूरी पृथ्वी पर सबसे कमजोर है। मनुष्य का शरीर इतना बर्दाश्त कभी नहीं कर सकता। अचानक टेहनियां के बीच में बड़े जोर से फड़फड़ाहट की आवाज आई, जैसे कुछ गिरा हो। बीच में ही बिजली की गड़गड़ाहट जिसने दिल को कंपा दिया। उस समय बिजली इतनी जोर से चमकी की पल भर के लिए तो आंखें भी अंधी हो गई थी। जब इस तरह से बिजली चमकती थी तो मां आँगन में काले तवे को उलटा कर के रख देती थी। ताकि बिजली न गिरे, या गिरे भी तो तवे से उसका कुछ अर्थ हो जाए। अब उनका तर्क कितना सत्य या यह केवल एक दिल बहलाने वाला था। मैं ने उसे कभी खुद ही समझ पाया और न मां को ही समझा ही पाया।
दोबारा बिजली गड़-गड़ाई और पूरा आंगन तेज प्रकाश से नहा गया। मेरी भी आंखें मारे डर के एक दम से बंद हो गई। लेकिन प्रकाश के बाद में मुझे आँगन में कुछ गिरा हुआ दिखाई दिया। बिजली की गड़गड़ाहट के साथ ही जो बुंदा-बाँदी थी वो अचानक बरसात मूसलाधार में बदल गई। फिर भी मेरा मन नहीं माना मुझे लगा कोई चीज ऊपर से गिरी थी। वह गिरी हुई भी मुझे काफ़ी बड़ी दिखाई दे रही थी। पक्षी जैसा भान था मेरे मन में जब वह फड़-फड़ा कर गिर रही थी। मैंने मां को कहां की मां लगता है कोई पक्षी गिरा है अभी-अभी। मां के मना करने के बावजूद भी मैं बिना रुके और बारिश की परवाह किए बाहर कि तरफ भाग। मैंने उस गिरी चीज के पास जा कर देखा तो वह एक मोर था। उसका शरीर अभी तक भी गर्म था, सांसों का चलना भी महसूस हो रहा था। मैंने मां को आवाज दी: ‘मां देखो मोर गिर गया है।‘
मां को यकीन नहीं हुआ कि मोर कैसे गिर सकता है, उसके तो पंख होते है, वो तो गिरने से पहले अपने को संभाल सकता है। शायद हवा के झोंके में, या तेज बारिश में, उसके पर गीले पर होने के कारण वो अपने को संभाल न पाया होगा। उसका संतुलन बिगड़ गया हो। बिजली की गड़गड़ाहट के कारण या उस समय वह शायद गहरी नींद में हो। परंतु जो भी हुआ हो बेचारा इस समय जमीन पर गिरा असहाय दिखाई दे रहा था। उड़ने का प्रयास तो उसने जरूर किया था। परंतु वह उड़ नहीं पा रहा था। हां अभी भी मेरे हाथ लगाने से पंख फड़-फड़ाने की कोशिश कर रहा था।
इतनी देर में मानो आसमान टूट कर सर पर गिर गया हो। सहसा पूरा आँगन कांप गया। कुछ क्षण के लिए तो सब ठहर सा गया। आंख, मन, शरीर, मस्तिष्क सब निष्क्रिय हो गया। पास ही नीम के एक तने के हर-हरा कर दामिनी गिरने की आवाज आई। पक्षियों की भय कांत कर्कश करुण पुकार ने वातावरण को और भी डरावना बना दिया था। चारों तरफ भय और हाहाकार हवा में घुल गयी थी। नीम का एक बहुत बड़ी टहनें पर शायद बिजली गिरी हो और वो टूट कर नीचे गिर गया। उस पर सोये वो लाचार पक्षी इस तूफान भरी रात में बेसहारा हो कर न जाने अंधेरे में कहां उड़ गए। परंतु ये चमत्कार था उस बिजली गिरने के कारण एक भी पक्षी हताहत नहीं हुआ था। छीन गया पल भर में उन का आशियाना। भय से कि...कि...कि.. आवाज करते डरे सहमे अंधेरे और उस तूफान में दूर कहीं नये आशियाने की तलाश में उड़ गये।
मैंने जल्दी से मोर को उठाया और घर के अंदर की तरफ भागा। मोर मेरी गोद में कुछ कुल बुलाया और अपने को मेरी पकड़ से छुड़ाने की कोशिश करने लगा। उस ने मेरे हाथ को काटने कि कोशिश भी की परन्तु उसकी चोंच खुली भर रह गई दबाव न डाल पाई। मैंने एक कपड़े से उसे पोंछा और एक कोने में उसे बिठाने की कोशिश करने लगा। परन्तु वो बैठ न सका। उसकी गर्दन एक तरफ को मुड़ गई मैंने मां को बताया मां ने हाथ लगा कर देखा और वो कहने लगी शायद इसकी गर्दन टूट गई लगती है। मैं फटा-फट अंदर गया। आयोडेक्स बाम की शीशी और एक कपड़ा ले आया। मां ने कहां साथ में पानी भरने बाले रबर के पाइप का एक टुकड़ा काट कर उसके बीच से दो हिस्से कर पहले इसकी गर्दन के चारों तरफ लपेट दे, मैं मां का मूंह देखता रह गया। मानो मां ने कहीं से फर्स्ट ऐड का कोर्स किया हुआ था। हम दोनों डाक्टर बन उसकी मरहम पट्टी करने में व्यस्त हो गये। और एक चारपाई को कोने में आड़ी खड़ी कर के उसे एक कपड़ा ढक दिया। हमने अपनी तरफ से उसकी सुरक्षा का घेरा बना दिया ताकि हमारा पालतू कुत्ता या बिल्ली उस पर हमला न कर दे। मैंने उसे एक कपड़ा भी उढ़ा कर सुलाने की कोशिश की परंतु वह बहुत भीगा हुआ था। तब मां ने कहा की ले पहले में ईंट के टुकड़े को चूल्हे पर गर्म कर के तुझे देती हूं तू उसकी थोड़ी सिकाई कर दे ताकि उसके बाल सुख जाए और उसे गर्मी भी मिले। उसे बाद मैंने उसके बदन को सुखाने की कोशिश करने लगा। थोड़ी ही देर में उसने आंखें बंद कर ली पता नहीं दर्द से या गरमाहट से। बहार बारिश अपना तांडव दिखाती रही और बिजली सहयोगी बन उसे मार्ग दिखाती रही।
सुबह जब उठे तो आस पड़ोस
के घर में हाहाकार मचा था। जो नीम का बड़ा सा टहना रात को तूफ़ान में टूट कर गिरा
था। उससे एक पड़ोस के छप्पर को तोड़ दिया था। इससे तो उन्हें इतना डर हो गया कि
ये नीम किसी दिन हमारी जान भी ले लगा। जो नीम कल तक सब का दुलारा था, आज अचानक एक दम से दुश्मन हो गया। आस पड़ोस की भीड़ बस यहीं रट लगाये हुई
थी कि इस नीम को तो अब काट डालों। ये अब बूढ़ा हो गया है। इसे तो मरना ही है। पर
ये अपने साथ आस पास के लोगों को भी ले कर मरेगा। मां न उन्हें लाख समझाया कि इस
में इस नीम का कोई कसूर नहीं है। ये तो रात को तूफान ही इतना तेज आया था। मुझे तो
लग रहा था कि पेड़ कहीं जड़ से न उखड जाए। पर इसने कितनी हिम्मत दिखाई तुम देखते
तो अचरज कर जाते। आस पास के घरो के टीन टब्बर और छान तो न जाने कहा गायब हो गई
थी। उस भंयकर तूफ़ान के सामने उनकी क्या बिसात थी। फिर उस टीन के इस छप्पर को भी
नहीं बचना था। उड़ना इसे भी था परंतु ये बस उस नीम का कसूर हो गया। ये तो पहले ही
नीम के तने के गिरने के कारण दब कर टूट गया। पर अब उस नीम की शामत आई थी। सब लोग
उसके आस्तित्व के पीछे पड़ गये थे। कोई ये समझने की कोशिश नहीं कर रहा था ऐसा
खतरनाक तूफ़ान कोई रोज-रोज थोड़ा ही न आते है। फिर बेचारे नीम का एक ही तो टहना
गिरा था बाकी चार-पाँच तो अभी भी अडिग खड़े थे। परन्तु मां ने लाख समझाया ऊंच नीच
का वास्ता दिया। लेकिन अब कोई भी मां की बात किसी भी बात को सुनने को तैयार
नहीं था।
सब पड़ोसियों ने मिलकर निर्णय कर लिया था कि उनके आँगन में जो बड़े-बड़े टहनियों फैली हुए है, उसे काट देंगे। अच्छा तो यही रहे की इसे जड़ से काट दिया जाए। तने को काटने के लिए मां ने एक दम से साफ मना कर दिया। कोई मेरे नीम को हाथ नहीं लगायेगा। तना उसका यहीं रहेगा मेरे घर में। आज नीम के अंग-भंग किए जा रहे है। मैंने उसे छुआ वो बहुत उदास था। मेरी आंखों से आंसू बहने लगे। और मुझे एक मायूसी ने घेर लिया। शायद यहीं उदासी और हताशा, और पीडा वेदना उस नीम को भी घेरे हुए थी। वो जीवत बलि चढ़ाया जा रहा था। मैंने अपने हाथ पर चूँटी काट कर देखा की कितना दर्द होता है। अगर मेरा ये हाथ ही काट दिया जाए तो क्या में इस पीड़ा को सह सकूंगा। आज मेरे दोस्त नीम को इतनी पीड़ा मिल रही थी। मैं उसे बाट भी नहीं सकता था। क्या हो गया मनुष्य को क्या वो संवेदन हीन हो गया है, क्या कारण है इंसान आज इतना मतलबी हो गया है? क्या गांधी जी का वैष्णव जन कभी जीवित नहीं होगे? जो दूसरे की पीर, करुण, पीड़ा या वेदना को जान सके। ये संवेदन हीन होता मनुष्य खुद को काल के गर्त में खुद ही अपने आप को लिए जा रहा है। उसको पता नहीं है, प्रकृति का एक-एक साथी उसके लिए जीवन है। चाहे वो जल, वृक्ष, पशु, पक्षी, मिट्टी, पहाड़ दृश्य या अदृश्य दूर दराज तारा मंडल व मंदाकिनी ही क्यों न हो.......ये सब उसी के शरीर के अंग है। अगर वो इन्हें भंग करेगा तो उसे भी मरना पड़ेगा। शायद आज आदमी आत्म हत्या की तरफ कदम बढा रहा था। हमारी चाल बाजी तो देखो हम नारा विकसित करते है ‘’पृथ्वी को बचाए’’ उसे पता नहीं है पृथ्वी तो करोड़ों सालों से अपने ऊपर ये विपदाएं, उथल, पुथल झेलती आ रही हे। उसे तो मानो इस सब को सहने की आदत सी हो गई है। इसलिए इस सब घटनाओं के बाद वह अपने को और अधिक मजबूत बना लेती है। पर जब करोड़ों साल पहले उस पर मानव भी नहीं था, तब भी उसने अनेक संहार देखे है, सहे है, उनके साथ खड़े हो अपना आस्तित्व बचाया है। और आज भी वह हमारी हजार बाधाओं को झेलती आ रही है। देखना वह खत्म नहीं होगी खत्म होगा ये मनुष्य ही। इस पृथ्वी का कुछ नहीं होगा वह तो अपना नया परिधान पहन कर फिर भी आनंद से जीएगी...कड़वा सच तो ये है हमें अपने आप को बचाना है इस पृथ्वी को नहीं.......।
दिन भर उस नीम पर कुल्हाड़ी चलती रही। शाम होते तक उसके सब तने काट दिए गये। श्याम का कुहासा घिरने लगा था, उस पर दूर-दूर से जो पक्षी रैन बसेरा करने आते थे, आज अपना आशियाना न पा कर बड़े बेचैन हो रहे थे। वो बार-बार उड़ कर उन तनों पर बैठना चाह रहे थे। लेकिन अब वहां पर केवल रह गये थे मात्र ठूँठ। जिन पर वो सालों से सोते आ रहे थे, न जाने आज अचानक कैसे और कहां गायब हो गये। इस घटना के कारण उन मूक प्राणियों को समझ में कुछ नहीं आ रहा था। शायद ये उनकी समझ के परे की बात थी। उन्हें एक भ्रम ने घेर लिया था। कि कल तक भी हम जिन तनों पर बैठते थे दिन भर गीत गा-गा कर खेलते थे। एक दूसरे के साथ लड़ते थे। आज अचानक कैसे गायब हो गये। उन्होंने तो सोचा भी नहीं था कि रात जब हम अपने घर सोने आयेंगे तो वह अचानक गायब मिलेगा। लेकिन उन पक्षियों की बेचैनी और उधेड़ बुन की और किसी का भी ध्यान नहीं गया। वो बेचारे निरीह समझ ही नहीं पा रहे थे की हमारा आशियाने का क्या हुआ, कहां चला गया....... दस बीस कदम दूर तक उड़ते और फिर वापिस आ कर देखने की कोशिश करते थे। इसी उधेड़ बुन में रात घिरने लग गई थी और उन्हें जहां भी ठौर-ठिकाना तो चाहिए था। बेचारे उदास मायूस कहीं चले गये। शायद वो इस मनुष्य को कभी नहीं समझ सकेंगे जिनके संग वो रहते थे। मैं ये सब होते नहीं देख सका और अंदर कमरे जा करा दरवाजा बंद कर के अपने बिस्तरे में लेट गया। कितना उदास था मैं दूसरा उस समय अपने को बहुत असहाय महसूस कर रहा था। मेरे ही सामने मेरे दोस्त के अंग भंग किए जा रहे थे। और मैं चहा कर भी उसे बेचारे नीम को जो इतना लाचार था, बचा नह सका। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं नीम को अंग विहीन कैसे देख पाऊंगा। इसी सब के बीच न जाने कब मेरी आँख लग गई और मैं सो गया और जब उठा तो श्याम से रात हो गई थी।
बहार कि अफरातफरी खत्म हो गई थी और उसके बाद एक श्मशान की शांति फैली थी आँगन में। नीम के अंग काट दिए गये थे। वो असह्य पीड़ा से करहा रहा था। मैं उस से लिपट कर रो पड़ा मेरा मन चीत्कार कर उठा उसको इस हालत देख कर। लेकिन में लाचार और असहाय और मजबूर था। आज मुझे दुःख हो रहा था। उसकी विशालता पर कि तुम इतने विशाल क्यों हुए। क्या हमारे ही आँगन में नहीं समा सकते थे तुम। क्यों उसने अपने पराये की सीमाओं को तोड़ा। और दीवारें लांघ दी अपने पराये की। परंतु वह भी क्या करता अपने प्रेम से मजबूर था। उसे ये सब भोगना ही था। आज उसकी विशालता ही उसका अवगुण बन गई। मैं अपने दोस्त को नहीं बचा सकता…..इस का मुझे आज भी दुःख है। मां ने मेरे सर पर हाथ फेरा, मैंने अपना मुंह ऊपर उठा कर देखा तो मां भी मेरे साथ रो रही थी। और मैं जोर से ‘’मां’’ कहा कर उस के सीने से लिपट गया। हम दोनों की धड़कन एक हो गई। दोनों का दर्द भी एक दूसरे में प्रवाहित हो कर एक दूसरे में विलीन हो गया। आज अगर मैं इतना संवेदन शील और भावुक हूं तो इसका सारा श्रेय या तो उस नीम को जाता है, या मां के संग साथ को। मां ने लाड़ दुलार के साथ मुझमें प्रेम और संवेदना भी भरी थी। वह किसी पेड़ का पत्ता नहीं तोड़ने देती थी, कि उसे दर्द होता है। और न ही रात को पेड़ पर चढ़ने या खेलने देती थी की अब ये सो गया है। इसे तंग मत करो। नीचे उतर जाओ। कितने संवेदनशील थे वो लोग। जिन्हें हम अनपढ़ कहते है। रात को तारों की छांव को देख वह समय का अंदाज लगा लेते थे। देख वो हिरणी है ना (एक तारा मंडल के समूह का नाम) यहां पहुंची है अभी रात के तीन बजे है। वह झुमका जब वहाँ पर होगा समझो की रात पाँच बज जायेगें। इसमें बहुत हाथ मेरी मां के प्रेम और संवेदना कही ही है। काश मेरी मां जैसी सब की माँ हो जाती जो पीर पराई को पी सके उसे दूसरे में प्रवाहित कर सके।
मोर दो दिन तक जीवित रहा लेकिन उसे हम नहीं बचा सके। क्योंकि उसकी गर्दन टूट गई थी। आँखों में दवाई डालने वाले ड्रोपर मैं उसे दूध पिला रहा था। पर वह आखिर कार मर ही गया। फिर उसे मैं जंगल में ले जा एक गढ़ा खोद कर उसे दबा आया। ऊपर से दो चार पत्थर रख दिये ताकी कोई गीदड़ आदि उसे खोद न सके।
मैं उस दिन जब नीम के पास जाकर बैठा, मेरे अंदर की समस्वरता ही बदल गई। एक नीरसता, रस हीनता, एक उबाऊपन और बेचैनी ने मुझे घेर लिया। एक न जीने की चाहा जैसे मुझे लगा की मैं नहीं जीना चाहता, एक मरने की आकांक्षा बार-बार मेरे मन में उठ रही थी। समुद्र की लहरों की तरह जो टकराती जीवन के किनारे से और फिर नई बन कर तैयार हो जाती। ऐसा क्यों हुआ उस समय मुझे बड़ा अजीब सा लग रहा था। क्योंकि ये मरने का विचार तो मेरे बाल वत मन में उठा तो उठा कैसे? मैं तो जीवन को भगवान का दिया एक प्रसाद समझता था। इससे पहले ये विचार मेरे मन में कभी नहीं आया था। मुझे तो जीने का जितना रस और आनंद था वो करोड़ों में किस एक बच्चे के जीवन में रहा होगा। मां ने मुझे बचपन से यही तो सिखाया था जीओ पूर्णता से भर कर लबा-लब। एक-एक क्षण में खड़े होकर देखो तभी तुम ये जीवन जी सकोगे। वरना तो तुम बहुत चुक जाओ इस जीवन से.... परंतु ये विचार अभी तक या उससे पहले भी कभी नहीं उठा था। मेरे मन में उधेड़बुन कहां से उठ रही है वो भी फिर आज क्यों? तब अचानक मेरा माथा ठनका अरे ये विचार उस पागल नीम के अंदर से उठी तरंगें तो नहीं थी। शायद उस नीम से उठे विचारों ने मुझे घेर लिया था। उसकी पीड़ा के साथ उसके भाव भी मुझमें प्रवाहित तो नहीं गये थे। धीरे-धीरे ये मुझे साफ-साफ दिखाई देने लगा, ये विचार मेरे नहीं अपितु मेरे दोस्त नीम के ही थे। मैंने उसे अपने गले लगाया और उस प्यार से कहा, उसे मनाने की कोशिश भी की। मैं उस से लिपट कर खूब रोया उसे प्यार किया, क्या तू मुझे ऐसे ही छोड़ कर चला जाएगा। तब बता तेरे जाने के बाद फिर मेरा दोस्त कौन बनेगा। पर मैंने ज़िद्द नहीं की, मुझे उसकी पीड़ा का एहसास था। उसके कटे अंगों के कारण वह कितनी पीड़ा को सह रहा होगा। माना वो मनुष्य की तरह कह नहीं सकता। पर मैं अपने दोस्त को खोना भी नहीं चाहता थ। मैं जानता था मेरा दोस्त मुझे छोड़ कर चला गया तो मैं जीवन में फिर कोई दुसरा दोस्त नहीं सकूंगा। और सच ऐसा ही हुआ आज तक भी मैं नीम के बाद अपना कोई दोस्त नहीं बन पाया। तब मैंने मां को नीम के विचार बताये। मां की बड़ी-बड़ी आंखों से टप-टप आंसू झर रहे थे। मां ने रूँधे कंठ से मुझे कहा की एक पेड़ को काटना एक आदमी को मारने के बराबर पाप होता है। शायद हम दोनों को सब लोग नीम पागल समझ कर हंसते हो...पर हम नीम पागल आनंद से जितने तृप्त और शांति और प्रेम महसूस कर रहे थे। वह पीड़ा भी हमें एक प्रेम प्रसाद ही दे रही थी। शायद उतने नहीं जितने ये ठीक ठाक दिखने वाले मनुष्य झांके आपने अंदर और देखे की वे क्या कर रहे थे। परंतु इस के लिए संवेदना चाहिए इन समझदार मनुष्य की समझदारी उसे कभी नहीं देखा पायेगी। ये कोई दूसरा ही आयाम है। नीम पागलों के लिए।
परन्तु नीम की जीवेषणा शायद उस का साथ छोड़ चूकि थी। उस के पत्ते जो पहले झूमते इठलाते से महसूस होते थे। अब मायूस, और उदास दिखाई देने लगे थे। तब मैं छोटा था फिर भी उसकी वो पीड़ा और हताशा, देखने के साथ-साथ महसूस भी कर सकता था। अब उस के पास एक ही बड़ा टहना बचा था। केवल हमारे अंगन बाला, उसे अपना संतुलन करने में भी काफी तकलीफ हो रही थी। परन्तु एक बात जो सबसे ज्यादा मुझे दर्द दे रही थी। की उस टहनी पर उस रात के बाद एक भी पक्षी सोने के लिए नहीं आया था। शायद इस पीड़ा के समय में उस पर बैठे ये पक्षी नीम के जख्मों को कुछ मरहम का काम कर जाते। चमत्कार है प्रकृति का रहस्य भी बे बुझ है। धीरे-धीरे उसकी मायूसी बढ़ती चली गई। मैंने उसे लाख मनाया, प्यार किया, अपनी दोस्ती का वास्ता दिया, क़समें खाई रोया गिड़गिड़ाना परन्तु उस की उदासी कम नहीं हुई। और देखते ही देखते वो दो महीने के अंदर सुख कर ठुंठ रह गया। उस के प्राण पखेरू उड़ गये थे। मैं अंदर तक कांप गया। मेरा दोस्त मुझे छोड़ कर चला गया। पृथ्वी पर से तो नीम मिट गया पर मेरे ह्रदय में आज भी वह जीवित है। आज भी उस पर बसंत आती है। पक्षी गीत गाते है। निम्बोलियों से लद जाता है.....।
सालों वह ठुंठ वैसे ही हमारे आंगन में खड़ा रहा, मां ने अपने जीते जी उसे किसी को काटने नहीं दिया। इतने सालों बाद भी इन मनुष्य रूपी जीवों में मुझे एक भी नीम का पेड़ नजर नहीं आया। कि जिस के साथ मैं दोस्ती कर लूँ। फिर उसके बाद जीवन भर मेरा कोई दोस्त न बन सका। या कि शायद मैं ही खुद बना नहीं सका। पर आज भी उस नीम का वंशज मेरे साथ है। पहले तो मैंने उसे अपने बैठक खाने के आँगन में निमोलियों के बीजों से उगा दिया था। धीरे-धीरे समय पाकर से युवा होता जा रहा था। मेरे ही साथ-साथ वह भी जवान हो रहा था। उस पर भी अब नीम्बोलियां लगने लगी गई था। ये सब देख कर मैं अति प्रसन्न होता था। परंतु शायद समय को कुछ और ही मंजूर था। समय के साथ हमारे घर का बटवारा भी हो गया। और वो जगह जहां पर नीम था वह बड़े भाई के हिस्से में आ गई थी। मैंने जब भी जिद की थी की ये जगह हमें दे दो पर हमारी तब भी एक न चली थी। तब भाई साहब ने उस दस साल से खड़े उस बाल वत नीम को भी काट दिया। कठिन था ये सब देखना और उसे झेलना। परंतु मनुष्य इसे सहता है झेलता है। लेकिन अब मैंने आपने प्यारे दोस्त को एक ऐसी जगह उगाने का फैसला कर लिया था कि उसे कभी कोई नहीं मिटा सकेगा। मैंने इस बार उसकी कुछ निमोलियों को एक थैले में भर लिया और आपने गांव के पास अरावली के जंगल में बिखेर आया था। समय ने उन्हें स्वीकारा और मेरे प्रेम का विस्तार प्रकृति ने स्वीकार किया। आज मेरा दोस्त नीम की संतति एक नहीं सैकड़ों के रूपों में मुझे दिखाई देता है। और धीरे-धीरे उनकी संतति बढ़ती ही जा रही है। आज सैकड़ों पक्षी भी उन सब नीम के वृक्षों पर आ-आ कर बसेरा करते है।
मैंने उस समय भी अपने
दोस्त नीम को कहां कि तू मूर्ख है। इस मनुष्य को तू कभी नहीं पहचान सकता है। ये
पल-पल में गिरगिट की तरह से अपना रंग बदलता है। तू आपने घर प्रकृति की गोद में
अपनी मां के पास ही सुरक्षित है। इस का कोई भरोसा नहीं कब ये तुम्हारा घर कब तुझ से
छीन ले....मेरी इस बात से तब वह मुझ पर हंसता था। कि कैसी बात कर रहे हो,
यहीं तो मेरा घर मेरा परिवार है। कौन मुझे नुकसान पहुंचायेगा। तब
मैं इधर उधर देखता हूं की कोई और तो उसकी हंसी को सुन नहीं रहा। उसका इस तरह से
मेरे ऊपर हंसना मुझे कुछ और खुश कर जाता था। की पूरी मानवता के बदले का जहर उसके
मन में था उसे उसने स्वीकार नहीं किया। वह पहले भी निर्दोष था, भोला था, चंचल था। इस लिए आपने देखा भोले और सीधे
मनुष्य को लोग पागल
समझते है।
उस न तो अपनी बिदाई का कोई गम था। न ही मनुष्य से उस कोई शिकायत थी। वह अपने पूर्ण वृक्ष रूप में जीया। यहीं उसका स्वभाव था। और प्रत्येक प्राणी का स्वभाव ही उसका धर्म है। कम से कम उसे थोड़ी तो खुशी मिली मेरे संग की प्रेम की, ....पर मैं जब भी जंगल में उन नीम के पड़ो के पास से गुजरता हूं तो सब मुझे देखते ही आनंदित हो कर नाचते से प्रतीत होते है। और उनमें से किसी भी एक नीम के तने से लिपट कर अपने दोस्ती की यादों में खो जाती हूं.........उन पर हजारों पक्षी बैठ गीत गाते है। नीचे छांव में कितने पशु बैठ जुगाली करते हुए दिखाई देते है। दोस्त ने अपने को मिटा दिया प्रेम प्रीत के लिए। परंतु आज उसकी संतति स्वच्छंदता से जी रही है।
मैं सोचता हूं उस नीम के साथ रह कर कितना नीम पागल हुआ। क्या और अधिक नीम पागल नहीं हो सकता था। यही तो मेरा पछताव रह गया पूर्ण ही नीम पागल क्यों नहीं कर लिया उस नीम ने आपने साथ मुझे भी।
(यह कहानी जाह्नवी विशेषाकं में अगस्त माह 2012 में प्रकाशित हुई थी)
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