एक बौद्ध भिक्षु अपना दैनिक जीवन चाय से आरंभ करता है। उषा काल में, इसके पूर्व कि वह ध्यान करने जाए, वह चाय पीता है। ध्यान कर लेने के उपरांत वह चाय पीता है। और वह इसे बहुत धार्मिक ढंग से, बहुत गरिमा पूर्वक और अहो भाव पूर्वक पीता है। इसे कभी एक समस्या के रूप में नहीं सोचा गया; वस्तुत: बौद्धो ने ही इसकी खोज की थी। ऐतिहासिक रूप से यह बोधि धर्म से संबंधित है।
बोधि धर्म को चाय का अन्वेषक समझा जाता है। वह पर्वत उपत्यका में रहा करता था। उस पर्वत का नाम टा था। और क्योंकि चाय वहां पहली बार खोजी गई थी। यहीं करण है कि टा, टी चा, चाय—वे सभी ‘’टी’’ से जन्मे हुए शब्द है। और बोधि धर्म ने इसे क्यों खोजा, और उसने इसे कैसे खोजा?
वह परम जागरूकता की एक अवस्था उपलब्ध करने का प्रयास कर रहा था। वह कठिन है। तुम भोजन के बीना कई दिन जीवित रह सकते हो। लेकिन नींद के बिना। और वह जरा सी नींद को भी नहीं आने दे रहा था। एक समय,सात आठ दिन बाद, अचानक उसे अनुभव हुआ कि नींद आ रही है। उसने अपनी आँख की पलकें उखाड़ दी और उनको फेंक दिया। जिससे कि अब जरा भी समस्या न रहे। ऐसा कहा जाता है कि वे पलकें भूमि पर गिरी वे चाय के रूप में अंकुरित हो गई। वहीं कारण है कि चाय जागरूकता में सहायक होती है; यदि तुम रात्रि में बहुत अधिक चाय पी लो तो तुम सोने में समर्थ नही हो पाओगे। और क्योंकि सारा बौद्ध मन यही है कि कैसे वह बिंदु उपलब्ध हो जहां नींद बाधा न डाले और तुम पूर्णत: जागरूक रह सको। नि: संदेह चाय करीब-करीब एक पवित्र वस्तु, पवित्रतों में पवित्रतम हो गई है।
जापान में आश्रमों में छोटे से घर, टी हाउस, चाय घर हुआ करते है। जब वे किसी चाय घर में जाते है, तो वे इस भांति जाते है। जैसे कोई चर्च या मंदिर में जा रहा हो। वे स्नान करते है, वे नये स्वच्छ वस्त्र धारण करते है। वे अपने जूते बाहर छोड़ देते है। वे मौन में आशीष में चलते है; वे बैठ जाते है।....ओर यह एक लंबा अनुष्ठान है। यह कोई ऐसा नहीं है कि तुम गए और चाय ली और पी और चले गये। इतनी जल्दी नहीं। देवताओं के साथ शुभ व्यवहार होना चाहिए, और चाय देवता है। जागृति की देवता, इसलिए वे मौन में बैठेंगे। और केतली अपना गीत गा रही है। पहले वि इस गीत को सुनेंगे। अभी वे तैयारी कर रहे है। वेग गाती हुई केतली पर ध्यान लगायेंगे।
फिर उनको कप और प्लेट दिए जायेगे। वे कपों और प्लेटों को छुएँ गे। उनको देखेंगे। क्योंकि वे कला की कृतियों है। और कोई बाजार से खरीदे हुए कप उपयोग करना नहीं पसंद करता है। प्रत्येक आश्रम अपने स्वयं के कप और प्लेट बनाते है। धनी लोग स्वयं के लिए बनाते है। गरीब लोग यदि अपने स्वयं के लिए कप और प्लेट बनाने के व्यय को वहन न कर सकें तो वह बाजार से खरीद लाते है। उनको तोड़ देते है उनको पुन: जोड़ते है, तब वे पूर्णत: अनूठे बन जाते है।
तब चाय उंडेली जाती है। और प्रत्येक, गहन, ग्राह्य, ध्यान पूर्ण भाव दशा में होता है। उनकी श्वास धीमी और गहरी चल रही होती है। और तब चाय पी जाती है। जैसे कि कुछ दिव्य तुम पर बरस रहा हो।
अब महात्मा गांधी इसके बारे में सोच भी नहीं सकते। उनके आश्रम में चाय की अनुमति नहीं थी। काली सूची...निषिद्ध वस्तुओं में थी चाय। यह तुम्हारे दृष्टिकोण पर निर्भर करता है।
--ओशो
पतंजलि—योग सूत्र
भाग—5
प्रवचन—10
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