‘’अन्य देशनाओं के लिए जो शुद्धता है वह हमारे लिए अशुद्धता ही है। वस्तुत:
किसी को भी शुद्ध या अशुद्ध की तरह मत जानों।‘’
यह तंत्र का एक बुनियादी संदेश है। तुम्हारे लिए यह बड़ी कठिन धारणा
होगी; क्योंकि यह बिलकुल ही गैर-नैतिक धारणा है। मैं इसे अनैतिक नहीं कहूंगा।
क्योंकि तंत्र को नीति-अनीति से कुछ लेना देना नहीं है। तंत्र कहता है कि
शुद्धि-अशुद्धि से कोई मतलब नहीं है। इसकी देशना तुम्हें शुद्ध-अशुद्धि के उपर
उठने में, दरअसल विभाजन के, द्वंद्व और द्वैत के पार जाने में सहयोग देने के लिए है।
तंत्र कहता है कि अस्तित्व अखंड
है, अस्तित्व एक है। और जो द्वंद्व है वह सब-स्मरण रहे, सब के सब—मनुष्य के बनाए हुए है। द्वंद्व नैतिक-अनैतिक, पाप-पूण्य ये सारी धारणाएं मनुष्य ने निर्मित की है। ये मनुष्य की
मान्यताएं है, ये यथार्थ नहीं है। क्या शुद्ध है और क्या अशुद्ध है। यह तुम्हारी
व्याख्या पर निर्भर करता है।
नीत्से ने कहीं कहा है कि सब नैतिकता
व्याख्या है।
तो कोई चीज इस देश में नैतिक हो सकती है और
वही चीज पड़ोसी देश में अनैतिक कहो सकती है। एक ही चीज मुसलमान के लिए नैतिक हो
सकती है और हिंदू के लिए अनैतिक हो सकती है। एक ही चीज ईसाई के लिए नैतिक और जैन के
लिए अनैतिक हो सकती है। या जो चीज पुरानी पीढ़ी के लिए नैतिक था, नई पीढ़ी के लिए अनैतिक हो सकती है। यह दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। यह
रुझान की बात है। बुनियादी रूप से ये एक मान्यता है। झूठ है। तथ्य बस तथ्य है।
वह न नैतिक होता है, न अनैतिक होता है। न शुद्ध और न ही अशुद्ध।
अगर विभाजन संसार को ही नहीं बाँटता
है, विभाजन करने वाले को भी बांट देता है। अगर तुम बांटते हो तो उसमें तुम खुद
भी बंट जाते हो। और जब तक तुम बह्म विभाजनों को नहीं भूलते,तब तक तुम अपने
आंतरिक विभाजनों को अतिक्रमण नहीं कर सकते हो। जो कुछ तुम संसार के साथ करते
हो, तुम उसे अपने साथ पहले ही कर लेते हो।
सिद्ध योग के महान सदगुरू नरोपा ने कहा है:
‘’इंच भर विभाजन भी किया, तो स्वर्ग और नरक अलग-अलग हो
जाते है। इंच भर का विभाजन। लेकिन हम बांटते है, नाम देते
है, निंदा करते है। औचित्य सिद्ध करते है। आस्तित्व के
शुद्ध तथ्य को देखो। और कोई नाम मत दो, कोई लेबल मत दो। केवल
तभी तंत्र की देशना को समझ सकते हो। तथ्य को भला या बुरा मत कहो। तथ्य पर अपने
चित को मत उतारों। ज्यों ही तुम तथ्य पर अपनी धारणा आरोपित करते हो, तुम झूठ का निर्माण कर लेते हो। अब यह तथ्य न रहा,
सत्य न रहा; यह तुम्हारा प्रक्षेपण हो गया।
यह
सूत्र कहता है: ‘’अन्य
देशनाओं के लिए जो शुद्धता है वह हमारे लिए अशुद्धता ही है। वस्तुत: किसी को भी
शुद्ध या अशुद्ध की तरह मत जानो।
तंत्र कहता है कि जो चीज अन्य देशनाओं के लिए बहुत शुद्ध मानी जाती
है, पुण्य मानी जाती है। वह हमारे लिए पाप है। क्योंकि उनकी शुद्धता की
धारणा बाँटती है; उनके लिए कुछ शुद्ध है कुछ अशुद्ध।
अगर
तुम किसी को संत कहते हो तो तुमने किसी को पापी बना दिया। अब तुम्हें कहीं ने कहीं
किसी न किसी को निंदित करना होगा। क्योंकि संत पापी के बिना हो नहीं सकता। अब
हमारे प्रयत्नों की व्यर्थता देखो। हम पापियों को मिटाने में लगे है। और हम एक
ऐसी दुनियां की आशा करते है जहां पापी नहीं होगें। सिर्फ संत होगे। यह अर्थ हीन है।
क्योंकि संत पापी के बिना नहीं हो सकता। वे एक ही सिक्के के दो पहलू है। तुम
सिक्के के एक पहलू को नहीं मिटा सकते; दोनों साथ
ही रहेगें। पापी और पुण्यात्मा भी संसार में विदा हो जायेंगे। लेकिन घबराओ
मत; उन्हें विदा होने दो। वे किसी मूल्य के नहीं सिद्ध हुए
है।
पापी और संत एक ही व्याख्या के, जगत के
प्रति एक ही दृष्टिकोण के अंग है। यह दृष्टि कहता है कि यह शुभ है और वह अशुभ है।
और तुम यह नहीं कह सकते कि यह अच्छा है। अगर तुम यह न कहो कि यह बुरा है। शुभ की
परिभाषा के लिए अशुभ जरूरी है। शुभ अशुभ पर निर्भर करता है। पुण्य पाप पर निर्भर
करता है। तुम्हारे महात्मा असंभव है, वे पापियों के बिना
नहीं हो सकते। उन्हें तो पापियों का अहसान मानना चाहिए; वे
उनके बिना जी नहीं सकते। वे चाहे पापियों की जितनी भी निंदा क्यों न करे। वे और
पापी एक ही घटना के अंग है। पापी संसार से तभी विदा होंगे जब महात्मा विदा होंगे।
उनके पहल नहीं और पूण्य की धारण के बिना पाप नहीं टिक सकता है।
तंत्र कहता है कि तथ्य असली बात
है; और व्याख्या झूठ है। व्याख्या मत करो।
वस्तुत: किसी को भी शुद्ध या अशुद्ध सत्य
पर थोपी गई हमारी व्याख्याएं है। हमारे दृष्टिकोण है। इसे प्रयोग करो। यह विधि
कठिन है, सरल नहीं है। कारण यह है कि हम द्वैत मूलक विचारण से इतने ग्रस्त है।
उसमे इतने डूबे है कि हमें इसका भी पता नहीं रहता कि हम किसकी निंदा कर रहे है। और
किसको उचित कह रहे है। अगर कोई व्यक्ति यहां धूम्रपान करने लगे तो तुम सचेतन रूप
से कुछ जाने बिना ही उसे निंदित कर दोगे; तुम अपने अंतस में उसकी निंदा कर डालोगे। तुम्हारी दृष्टि में निंदा हो
चाहे न हो। तुमने व्यक्ति पर नजर भी नहीं डाली हो, लेकिन तुमने निंदा कर दी।
यह विधि कठिन होगी। क्योंकि हमारी इतनी गहन
आदत है। प्रगाढ़ है। तुम महज अपनी भाव-भंगिमा से, अपने बैठने-उठने से किसी को निंदित कर देते हो। किसी को सही बताते
हो, और इसका होश भी नहीं रहता कि तुम क्या कर रहे हो। तुम जब किसी आदमी को
देखकर मुस्कराते हो या नहीं मुस्कराते हो। जब तुम किसी को देखते हो या नहीं देखते
हो, तुम उसकी उपेक्षा करते हो, तो तुम क्या कर रहे हो। तुम अपनी पंसद-नापसंद आरोपित कर रहे हो। जब तुम
कहते हो कि कोई चीज सुंदर है तो तुम्हें किसी चीज को कुरूप कहना ही होगा। और यह
बांटने वाली दृष्टि साथ ही साथ तुम्हें भी बांट रही है। तुम्हारे भीतर दो
व्यक्ति हो जाएंगे।
अगर तुम कहते हो कि कोई व्यक्ति क्रोध मे
है और क्रोध बुरा है तो तुम तब क्या करोगे। तुम कहोगे कि क्रोध बुरा है। तब
समस्याएं खड़ी होंगी। क्योंकि तुम कहते हो कि यह बुरा है, मुझमें जो क्रोध है यह बुरा है। तब तुम अपने को दो व्यक्तियों में
बांटने लगे। एक बुरा व्यक्ति होगा। पापी होगा। और दूसरा भला व्यक्ति होगा।
महात्मा होगा। निश्चित ही, तुम अपने को भीतर का महात्मा मानोगे। और भीतर के पापी की निंदा करोगे।
तुम दो में विभाजित हो गए। अब निरंतर लड़ाई चलेगी। संघर्ष होगा। अब तुम व्यक्ति न
रहे, अब तुम भीड़ हो गये। तुम्हारे भीतर एक गृह युद्ध चलेगा। अब मौन
गया, शांति गई। तुम तनाव और संताप से भर जाओगे। यही तुम्हारी हालत है। लेकिन
तुम्हें पता नहीं है कि ऐसा क्यों है? विभाजित व्यक्ति शांत नहीं हो सकता। कैसे हो
सकता है? तुम अपने शैतान को कहां रखोगे? तुम्हें उसे मिटाना होगा। लेकिन यह तुम ही हो; तुम उसे मिटा नहीं सकते। तुम दो नहीं हो; सच्चाई एक है, यथार्थ एक है। लेकिन अपनी बांटने वाल दृष्टि के कारण तुमने बाह्म यथार्थ
को बांट दिया, और उसके अनुसार भीतरी यथार्थ भी बंट गया। इसलिए हर एक आदमी स्वयं से ही
लड़ रहा है।
यह ऐसा ही है जैसे कि हम अपने ही दोनों को
लड़ाएं। बायां हाथ दाएं हाथ से लड़े। दायां हाथ बाएं हाथ से लड़े। और ऊर्जा एक ही
है। और बाएं दाएं हाथों मे एक ही ऊर्जा बह रही है। मैं ही दोनों हाथों में बह रहा
हूं। और एक ही संघर्ष,एक झूठा संघर्ष
खड़ा कर रहा हूं। कभी में अपने बाएं हाथ को धोखा दे सकता हूं, और मेरा
दायां हाथ जीत सकता है। और कभी में दाएं हाथ को हरा सकता हूं। परंतु सच में दोनों
मैं ही हूं।
तो
तुम कितना ही सोचो कि मेरे भीतर का संत जीत गया और शैतान हार गया,स्मरण रहे
कि तुम किसी भी क्षण जगहें बदल सकते हो, और तब संत नीचे होगा
और शैतान ऊपर होगा। इससे ही भय पैदा होता है, असुरक्षा का भाव
पैदा होता है; क्योंकि तुम जानते हो कि कुछ भी निश्चित नहीं
है। तुम जाने हो कि इस समय मैं प्रेमपूर्ण हूं और अपनी घृणा को दबा दिया है। लेकिन
तुम जानते हो कि घृणा क्षण भर में उपर आ जायेगी। और प्रेम नीचे दब जायेगा। क्योंकि
भीतर तुम दो हो।
तंत्र कहता है कि खंड मत करो। और केवल तभी तुम जीत सकते हो।
अखंड कैसे हुआ जाए? निंदा मत करो; मत कहो कि यह अच्छा है और वह बुरा है। शुद्धता और अशुद्धता की सभी
धारणाओं को विदा कर दो। संसार को देखो। लेकिन मत कहो कि यह क्या है। अज्ञानी रहो।
बहुत बुद्धिमानी मत दिखाओं। कुछ धारणा मत बनाओ। चुप रहो; न निंदा करो और न प्रशंसा। अगर तुम संसार के संबंध में मौन रह सकते हो
धीरे-धीरे यह मौन तुम्हारे भीतर भी प्रवेश कर जाएगा। और अगर बाहर का विभाजन
समाप्त हो जाए तो भीतर का विभाजन भी समाप्ति हो जाएगा। क्योंकि दोनों साथ ही हो
सकते है। लेकिन यह बात समाज के
लिए खतरनाक है। यही कारण है कि तंत्र का दमन हुआ, उसे दबाया गया। समाज के लिए यह दृष्टि खतरनाक है। कुछ भी अनैतिक नहीं है।
कुछ भी नैतिक नहीं है। कुछ शुद्ध नहीं है, कुछ भी अशुद्ध नहीं है। चीजें जैसी है वैसी है।
एक सच्चा तांत्रिक यह नहीं कहेगा कि चोर बुरा है; वह इतना ही कहेगा कि वह चोर है; बस। और उसे चोर कहने में उसके मन में निंदा नहीं होगी। अगर कोई कहता है कि
यह आदमी महान संत है तो तांत्रिक कहेगा; हां यह संत है। लेकिन उसे संत कहने में कोई मूल्यांकन नहीं
है; वह यह नहीं कहेगा कि यह अच्छा है। यह कहेगा; ठीक है, यह संत है और वह चोर है। यह कहना ऐसा ही है जैसे यह कहना कि यह गुलाब है
और वह गुलाब नहीं है। यह वृक्ष बड़ा
है,वह छोटा है। कि रात काली है और दिन उजला है। इसमें कोई तुलना नहीं है।
लेकिन यह खतरनाक है। समाज एक की निंदा और दूसरे की प्रशंसा किए बिना नहीं रह
सकता है। समाज नहीं रह सकता। क्योंकि समाज द्वैत पर खड़ा है। इसलिए तंत्र का दमन
किया गया। उसे समाज विरोधी समझा गया। तंत्र समाज-विरोधी नहीं है। बिलकुल नहीं है।
लेकिन अद्वैत कि दृष्टि सामाजिक धारणाओं का अतिक्रमण कर जाती है। वह समाज विरोधी
नहीं है। वह समाज का अतिक्रमण है। समाज के पार उठ जाना है।
इसे
प्रयोग करो। किसी मूल्यांकन के बिना, केवल
स्वाभाविक तथ्यों के साथ, कि अमुक यह है और अमुक वह है।
संसार में चलो। और धीरे-धीरे तुम्हें अपने भीतर एक अखंडता अनुभव होगी, तुम्हारे विपरीत शब्द, तुम्हारे
विरोध, तुम्हारी अच्छाई-बुराई सब इकट्ठे हो जाएंगे। वे एक
में मिल जाएंगे। और तुम एक इकाई बन जाओगे। तब न कुछ शुद्ध होगा और न कुछ अशुद्ध
होगा। तुम यथार्थ को सीधे जानते हो।
‘’अन्य
देशनाओं के लिए जो शुद्धता है वह हमारे लिए अशुद्धता ही
है।‘’
तंत्र कहता है कि जो दूसरों के लिए बुनियादी बात है वह हमारे लिए जहर है।
उदाहरण के लिए। अहिंसा पर आधारित देशनाएं है। जो कहती है कि हिंसा अशुभ है। और
अहिंसा शुभ है। तंत्र कहता है कि हिंसा-हिंसा है। और अहिंसा-अहिंसा है। न कुछ बुरा
है और न कुछ भला। कुछ देशनाएं ब्रह्मचर्य पर आधारित है। वे कहती है ब्रह्मचर्य शुभ
है। लेकिन यह तथ्य मात्र है। इनका मूल्यों से कुछ लेना देना नहीं है। तंत्र यह
कभी नहीं कहेगा कि ब्रह्मचारी अच्छा है। और जो कामवासना में डूबा है वह बुरा है।
तंत्र यह कभी नहीं कहेगा। चीजें जैसी है तंत्र उन्हें वैसे ही स्वीकार करता है।
और क्यों? सिर्फ तुम्हारे भीतर अखंडता निर्मित करने के लिए।
यह
विधि तुम्हारे भीतर एक अखंडता निर्मित करने के लिए है। तुम्हारे भीतर एक
समग्र,अखंड, द्वंद्व
रहित ओर विरोध रहित सत्ता पैदा करने के लिए है। केवल तब ही मौन संभव है। जो
व्यक्ति किसी वृति से भागता है वह कभी शांत नहीं हो सकता। कैसे हो सकता
है? और जो अपने भीतर खंडित है, स्वयं से ही लड़ रहा है। वह जीत कैसे सकता है। यह असंभव है। तुम ही दोनों
हो, फिर जीत किसकी होगी? किसी कि भी जीत नहीं होगी। तुम्हारी ही हार होगी। क्योंकि लड़ने में
तुम्हारी ऊर्जा नष्ट होगी।
यह विधि तुम में एक अखंडता निर्मित करेगी।
मूल्यों को जाने दो; निर्णय मत लो। जीसस ने कहीं
कहा है: ‘’दूसरे के संबंध में कोई निर्णय मत लो, ताकि तुम्हारे संबंध में भी निर्णय न लिया जाए।‘’ लेकिन यहूदियों के लिए इसे समझना असंभव हो गया। क्योंकि यहूदियों का सारा
चिंतन नैतिकता पर निर्भर है। यह शुभ है और वह अशुभ है। जीसस इस उपदेश में—कोई
निर्णय मत लो। तंत्र की भाषा बोल रहे है। यदि उनकी हत्या कर दी गई, उन्हें सूली पर लटकाया गया, तो उसका कारण यह उपदेश था। उनकी दृष्टि तंत्र की दृष्टि थी:
‘’कोई निर्णय मत लो।‘’
तो मत कहो कि वेश्या बुरी है। कौन जानता
है? और मत कहो कि महात्मा अच्छा है कौन जानता है? और अंतत: तो दोनों एक ही खेल के अंग है। वे एक दूसरे पर निर्भर
है, परस्पर जुड़े है। इसलिए जीसस कहते है: कोई निर्णय मत लो। और यही शिक्षा
इस सूत्र में है: ‘दूसरे के संबंध
में कोई निर्णय मत लो, ताकि
तुम्हारे संबंध में निर्णय न लिया जा सके।‘
अगर
तुम कोई निर्णय नहीं लेते हो, कोई नैतिक
दृष्टिकोण नहीं अपनाते हो तो, तथ्यों को वैसे ही देखते हो
जैसे वे है। अपने हिसाब से उनकी व्याख्या नहीं करते हो, तो
तुम्हारे संबंध में भी निर्णय नहीं लिया जाएगा।
तुम
पूरी तरह रूपांतरित हो गए हो। अब कोई सत्ता तुम्हारे संबंध में निर्णय नहीं
लेगी; उसकी जरूरत न रही। तुम स्वयं दिव्य हो गए; तुम
स्वयं परमात्मा हो गए।
तो
साक्षी बनो,
न्यायाधीश नहीं।
ओशो
विज्ञान भैरव तंत्र, भाग-तीन
प्रवचन-41
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