कुल पेज दृश्य

शुक्रवार, 4 अगस्त 2017

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-04

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

सरस राग रस गंध भरो-(प्रवचन-चौथा)
दिनांक 04 जनवरी सन् 1979 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्नसार:

प    भगवान, आनंद क्या है? उत्सव क्या है?

प     भगवान, क्या जीवन मात्र संघर्ष ही है--संघर्ष और संघर्ष? या कुछ और भी?

भगवान, इस जीवन में मैंने दुख ही दुख क्यों पाया है?

भगवान, आपका संदेश घर-घर पहुंचाने का संकल्प अपने आप ही सघन होता जा रहा है।
      समाज हजार बाधाएं खड़ी करेगा, कर रहा है। जीवन भी संकट में पड़ सकता है।
      मैं क्या करूं?

पहला प्रश्न: भगवान, आनंद क्या है? उत्सव क्या है?


कबीर, आनंद तो अपरिभाष्य है, अव्याख्य है, गूंगे का गुड़ है। स्वाद तो ले सकते हो, जान तो सकते हो, जी तो सकते हो; मगर जना न सकोगे, बता न सकोगे। हृदय के अंतरतम में एक गीत तो उठेगा, मगर ओंठों तक ला न सकोगे।
अनगाया ही रह जाता है आनंद का गीत। अनकही ही रह जाती है आनंद की अनुभूति। और ऐसा भी नहीं है कि लोगों ने कहने की चेष्टा न की हो। सदियों-सदियों में, सनातन से सतत जानने वाले चेष्टा करते रहे हैं कि जतला सकें उनको जिनकी आंखें अभी बंद हैं; कि याद दिला सकें उनको जो दुख के गङ्ढों में डूबे हुए हैं; कि बता सकें उन्हें कि जीवन में जहर ही जहर नहीं, अमृत भी है। मगर नहीं बतला सके। बताया ही नहीं जा सकता।
आनंद का स्वभाव शब्दातीत है। इशारे किए जा सकते हैं; जैसे कोई चांद की तरफ अंगुली उठाए। अंगुली चांद नहीं है। अंगुली से चांद का क्या लेना-देना! और कोई नासमझ हो तो अंगुली को पकड़ कर बैठ जाए कि यही चांद है। और ऐसे नासमझ बहुत हैं, जिन्होंने मील के पत्थरों को मंजिल समझ कर पूजा करनी शुरू कर दी है; जो सत्यों को तो भूल गए और शब्दों को छाती से लगा कर बैठ गए हैं; जिन्होंने बुद्धों का तो विस्मरण कर दिया, लेकिन उनके वचनों को सिर पर सदियों से ढो रहे हैं। उन वचनों का वजन इतना है हिमालय जैसा कि लोगों का चलना भी मुश्किल हो गया है; बोझ के नीचे दबे हैं। ज्ञान के बोझ के नीचे मर रहे हैं, सड़ रहे हैं।
नासमझ हैं लोग। इशारे पकड़ लेते हैं। और जिस तरफ इशारे किए जाते हैं, उस तरफ आंख ही नहीं उठाते। उस तरफ आंख उठाना जरा मंहगा सौदा भी है। आनंद को जानना है तो दुख को खोने की तैयारी दिखानी होगी। और तुम कहोगे, यह भी कोई मंहगी बात है! हम सभी तो दुख खोने को तैयार हैं। नहीं, जरा भी नहीं, हजार बार नहीं। तुम कहते हो कि दुख खोने को तैयार हो, मगर दुख तुम खोना नहीं चाहते। दुख को तुम पकड़े हो, जोर से पकड़े हो। तुम्हारी दुविधा यही है। तुम ऐसा ही अनुभव करते हो कि दुख से मुक्त होने की तुम्हारी बड़ी प्रबल आकांक्षा है। और भीतर-भीतर तुम दुख के बीज बोते हो, दुख के जाल बुनते हो। क्योंकि तुम्हारे दुख में तुम्हारे बड़े न्यस्त स्वार्थ हैं। तुम्हारे दुख के बिना तुम्हारा अहंकार कैसे बचेगा?
आनंद में अहंकार तिरोहित हो जाता है, जैसे कपूर उड़ जाए बस ऐसे। दुख में अहंकार रहता है। और जिसको भी अपने अहंकार को बचाना है, उसे अपने दुख को बचाना होगा। बचाना ही नहीं, रोज-रोज बढ़ाना होगा, सजाना होगा, संवारना होगा। उसे नरकों पर नरक खड़े करने पड़ेंगे।
एक सज्जन मुझसे पूछते थे, कितने नरक हैं?
मैंने कहा, जितने खड़े करना चाहो उतने हैं। किन्हीं का एक से काम चल जाता है; किन्हीं का दो से नहीं चलता; किन्हीं का तीन से नहीं चलता। व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर है। कितना बड़ा अहंकार चाहते हो, उतने ही नरक खड़े करने पड़ेंगे। नरक अहंकार की सीढ़ियां हैं।
स्वर्ग चाहते हो? तो एक बात पक्की समझ लेना--मिटना होगा; अहंकार को विदा देनी होगी; ना-कुछ होने की तैयारी दिखानी होगी।
फकीरों ने सदा से कहा है: जब तक मैं था तब तक परमात्मा नहीं; और जब मैं न रहा तब परमात्मा हुआ!
यह "मैं' सिर्फ दुख में ही जी सकता है। दुख इसका भोजन है। और आनंद में इसकी मृत्यु हो जाती है। जैसे प्रकाश आ जाए और अंधेरा मर जाए, ऐसे ही आनंद आए तो अहंकार मर जाता है।
तो आनंद की तरफ पहला इशारा कि वहां कोई अहंकार नहीं पाया जाता; किसी भांति की अस्मिता नहीं पाई जाती; मैं हूं, यह भाव नहीं पाया जाता। परमात्मा है, लेकिन मैं नहीं। सागर है, लेकिन बूंद नहीं।
दूसरी बात...पर याद रखना इशारे हैं ये, परिभाषाएं नहीं। इंगित! समझो तो बड़े काम आ जाएं। समझो तो हजारों काम हल हो जाएं। दूसरा इंगित: आनंद तुम्हारा स्वभाव है। दुख अर्जित करना होता है बाहर से। दुख के लिए झोली फैलानी होती है। दुख मांगना पड़ता है। कोई दे तो मिले। आनंद--किसी से मांगे नहीं मिलता। कोई लाख देना चाहे तो भी नहीं दे सकता और तुम लाख मांगो तो भी मिल नहीं सकता।
दुख भिखमंगों की दुनिया का हिस्सा है; आनंद सम्राटों की। आनंद के लिए झोली नहीं फैलानी होती। आनंद किसी से मांगना नहीं होता। आनंद किसी से मिलता ही नहीं। आनंद तो तुम्हारी निजता है। आनंद तो तुम्हारा स्वभाव है। आनंद तो तुम लेकर ही आए हो। अभी भी जब तुम दुख से भरे हो, जब तुम्हारे चारों तरफ दुख की छायाएं खड़ी हैं, दुख के दंश, दुख के कांटे तुम्हारे प्राणों में छिदे हैं, जब दुख की फांसी लगी है--तब भी तुम्हारे अंतरतम में आनंद का झरना ही बह रहा है। उससे छूटने का कोई उपाय ही नहीं है। स्वभाव से कोई कैसे छूट सकता है! भूल सकते हो स्वभाव को, विस्मृत कर सकते हो स्वभाव को--विनष्ट नहीं।
आनंद भीतर जाने से मिलता है; दुख बाहर जाने से। दुख बहिर्यात्रा है; आनंद अंतर्यात्रा। दुख पर-निर्भर है; आनंद स्व-निर्भर।
ज्यां पाल सार्त्र का वचन महत्वपूर्ण है। उसने कहा है, दूसरा नरक है। दि अदर इज़ हेल।
इसमें सच्चाई का एक बहुत गहरा अंश है। दूसरा नरक है! लेकिन सिर्फ अंश ही है सच्चाई का। और महत्वपूर्ण अंश नहीं, गैर-महत्वपूर्ण अंश है। महत्वपूर्ण अंश तो जीसस के वचन में है: दि किंगडम ऑफ गॉड इज़ विदिन यू। परमात्मा का राज्य तुम्हारे भीतर है। ये दो हिस्से हुए एक ही सिक्के के। दूसरा दुख है, स्वयं का होना सुख है। दूसरा नरक है तो स्वयं का होना स्वर्ग है।
दुख के लिए मन के बड़े आयोजन चाहिए। मन इंतजाम करे, मन खूब आयोजन करे, तो दुख मिल सकता है। मन अर्थात तुम्हारी सारी वासनाएं, आकांक्षाएं, अपेक्षाएं। मन अर्थात तुम्हारी सारी कामनाएं, इच्छाएं, अभिलाषाएं। मन यानी तुम्हारी सारी बहिर्गामी दौड़--विचार की, कल्पना की, स्मृति की। यह जो मन है, यह दुख का मूल उदगम है। इसी मन के केंद्र पर अहंकार है और परिधि पर सारी वासनाओं का जाल है।
आनंद अमनी दशा है; या जैसा कि संतों ने कहा, उन्मनी दशा है। जैसा झेन फकीर कहते हैं, ए स्टेट ऑफ नो माइंड। मन-शून्य अवस्था, चित्त-रहित अवस्था। पतंजलि ने कहा है, चित्त-वृत्ति-निरोध! योग की परिभाषा, कि जहां चित्त की सारी वृत्तियों का निरोध हो जाता है। जहां चित्त की कोई वृत्ति नहीं रह जाती, कोई तरंग नहीं रह जाती। जहां चित्त ही नहीं रह जाता, क्योंकि चित्त तरंगों का ही जोड़ है। जहां तुम इतने शांत होते हो, तुम्हारे चैतन्य की झील इतनी मौन होती है कि एक लहर भी नहीं उठती--उस अनुभूति का नाम आनंद है। उस परम शांति का नाम आनंद है। उस स्वयं में प्रतिष्ठित हो जाने का नाम आनंद है।
मैं तुम्हें आनंद की तरफ ले चल सकता हूं, ले चल रहा हूं। संन्यास कुछ और नहीं, वही अंतर्यात्रा का दूसरा नाम है। ध्यान कुछ और नहीं, मन से मुक्ति का उपाय है। अमनी दशा की तरफ धीरे-धीरे सरकना है। लेकिन मैं तुम्हें बता नहीं सकता कि आनंद क्या है। शब्दों में नहीं, मेरी आंखों में झांको! कबीर, मेरी आंखों में झांको! या मेरे पास बैठ कर अनुभव करो। मेरे हृदय की तरंगों को अपने हृदय की तरंगों में मिल जाने दो। मेरी अंगुलियों को तुम्हारे हृदय की वीणा पर खेलने दो। और तुम जानोगे कि आनंद क्या है।
नहीं लेकिन, शब्दों में, व्याख्याओं में, परिभाषाओं में नहीं समाया जा सकता है उस विराट आकाश को। इसलिए ज्ञानी नेति-नेति की बात करते रहे--यह भी नहीं, यह भी नहीं।
अहंकार आनंद नहीं है; यह नेति की भाषा हुई। मन आनंद नहीं है; यह नेति की भाषा हुई। बाहर आनंद नहीं है; यह नेति की भाषा हुई। दूसरे में आनंद नहीं है; यह नेति की भाषा हुई। मगर यह तो बताया कि आनंद क्या नहीं है। आनंद क्या है, यह तो अनबताया रह गया। अनबताया ही रहेगा।
मेरा हाथ पकड़ो! मेरे साथ चलो! मैं तुम्हें उस पार ले चलूं। यह नाव लेकर उस पार से तुम्हारे लिए ही आया हूं। इसी किनारे पर मत पूछो कि वह किनारा कैसा है!
तुम्हारी तकलीफ भी मैं समझता हूं। तुम पक्के हो जाना चाहते हो कि वह किनारा है भी? है तो कैसा है? है तो इस किनारे से बेहतर है न? कहीं ऐसा तो न हो कि दुविधा में दोई गए, माया मिली न राम! कहीं ऐसा न हो कि यह भी किनारा छूट जाए। माना कि यहां दुख हैं, लेकिन कभी-कभी सुख की झलकें भी हैं। और माना कि यहां कांटे बहुत हैं, मगर कांटों में कभी-कभी गुलाब भी तो खिलते हैं। और माना कि असफलता है, विषाद है, पीड़ा है, संताप है, सब हो, लेकिन आशा का दीया तो जलता है; आशा का दीया बुझा तो नहीं! कौन जाने वह किनारा हो कि न हो, यहां से दिखाई भी नहीं पड़ता। और अगर हो भी तो कौन जाने कि वह भी किनारा ऐसा ही किनारा हो। इतनी यात्रा करें और फिर ऐसा ही किनारा हाथ लगे। और यह भी हो सकता है कि वह किनारा इस किनारे से भी बदतर हो।
तुम्हारा भय भी मेरी समझ में आता है। तुम इसी किनारे पर आश्वस्त हो जाना चाहते हो, वह किनारा कैसा है? उस किनारे का आनंद क्या है? उस किनारे का अहोभाव क्या है? उस किनारे पर कौन से उत्सव, कौन से महोत्सव मनाए जा रहे हैं? वहां कैसी रोशनी है? वहां कैसे चांदत्तारे हैं? वहां की वीणा में कैसे गीत उठते हैं, कैसा संगीत उठता है? तुम आश्वस्त होना चाहते हो।
मगर मैं लाख सिर पटकूं, कैसे तुम्हें आश्वस्त करूंगा? मैं उस किनारे की बातें कर रहा हूं, रोज ही कर रहा हूं। और तुम उस किनारे की आकांक्षा से भी कभी-कभी भर उठते हो। मगर इस किनारे के फैलाव बहुत हैं। इस किनारे में तुमने जड़ें दूर-दूर तक फैला दी हैं। इस किनारे के साथ तुमने बहुत से संबंध बना लिए हैं। इस किनारे पर तुमने घर बसा लिया है। और बड़ी मुश्किल से बसाया है। एक-एक ईंट चुन-चुन कर बसाया है, जन्मों-जन्मों में बसाया है। इस किनारे पर ही तो तुम्हारी सारी आत्मकथा घटी है। इस सारे अतीत को छोड़ कर एक अनजान-अपरिचित आदमी के साथ, एक ऐसे मांझी के साथ जिसकी नाव में कभी पहले सवारी नहीं की, न जिसकी नाव का भरोसा है, न जिसकी पतवार का भरोसा है, न जिसका भरोसा है--हो भी भरोसा तो कैसे हो--किसी अज्ञात तट की यात्रा पर निकलना! मन आश्वस्त हो जाना चाहता है। मन सब तरह के तर्क से अपने को समझा लेना चाहता है। मन कहता है, इतना छोड़ कर जा रहा हूं तो पक्का हो तो ही जाना ठीक है।
मगर कोई कैसे पक्का करे? न कृष्ण कर सके, न बुद्ध, न कबीर, न क्राइस्ट, न मोहम्मद, न मंसूर। कोई निश्चित रूप से तुम्हें आश्वासन नहीं दे सकता, इसकी कोई गारंटी नहीं हो सकती। क्यों? क्योंकि उस किनारे पर जो है वह इस किनारे की भाषा में प्रकट नहीं होता।
ऐसे समझो कि जैसे किसी देश में हीरे-जवाहरात न होते हों, कंकड़-पत्थर ही होते हों। और फिर हीरे-जवाहरातों के देश वाला आदमी उस दुनिया में आए और उनसे कहे कि ये क्या हैं, ये तो सब कंकड़ पत्थर हैं। तुमने हीरे-जवाहरात देखे? तुमने मोती-माणिक देखे? और लोग पूछें, कैसे होते हैं हीरे-जवाहरात? कैसे होते मोती-माणिक? और वह आदमी चारों तरफ खोजे कि कोई उदाहरण मिल जाए और कंकड़-पत्थर कंकड़-पत्थर ही पाए, तो क्या तुम्हें कंकड़-पत्थरों से उदाहरण दे?
वह कहेगा कि नहीं, तुम्हारी इस दुनिया की भाषा में मैं अपनी उस दुनिया को प्रकट न कर सकूंगा। क्योंकि वह सत्य का उल्लंघन होगा। ये रंगीन कंकड़-पत्थर, इनसे मैं कैसे हीरे-जवाहरातों की खबर दूं? ये अनगढ़ कंकड़-पत्थर, इनसे मैं कैसे कोहिनूरों की खबर दूं? बेहतर है मैं चुप रहूं। बेहतर है कि मैं उस किनारे के गीत गाऊं, तुम्हें लालसा से भरूं, तुम्हारे भीतर एक उद्दाम अभीप्सा पैदा करूं उस किनारे पर चलने की, लेकिन उस किनारे के हीरे-जवाहरातों के संबंध में कुछ भी न कहूं। क्योंकि तुम्हारे कंकड़-पत्थरों से मैं कितना ही उस किनारे को समझाऊं, बात गलत हो जाएगी--बात बिलकुल गलत हो जाएगी। और तुम ज्यादा से ज्यादा कंकड़-पत्थर ही समझ सकते हो। अगर मैं यह भी कहूं कि तुम्हारे कंकड़-पत्थरों से करोड़-करोड़ गुना ज्यादा कीमती! करोड़-करोड़ गुना ज्यादा चमकदार! ज्यादा रंगीन! ज्यादा रोशन! तो भी जो अंतर होगा वह परिमाण का होगा; गुण का नहीं होगा, मात्रा का होगा। और असली अंतर मात्रा का नहीं है, असली अंतर गुण का है। उस किनारे पर गुणात्मक रूप से कुछ भिन्न घट रहा है।
दुख में और आनंद में परिमाण का भेद नहीं है, गुणात्मक भेद है। वे एक-दूसरे से विपरीत हैं। वे इतने विपरीत हैं कि ज्यादा से ज्यादा इतना ही कहा जा सकता है कि आनंद दुख का अभाव है।
इसलिए बुद्ध ने इस परिभाषा को चुना: आनंद दुख का अभाव है। वही नेति-नेति की भाषा हो गई। मगर जो आदमी पूछ रहा है आनंद क्या है, उसे इससे तृप्ति नहीं मिलती कि दुख का अभाव है। बस दुख का अभाव? सिर्फ दुख न होंगे, बस? वह चाहता है कुछ विधायक, जिसे पकड़ सके; कुछ साकार, जो उसके प्राणों में रूप ले सके, आकार ले सके, दृश्य बन सके; कुछ, जिसे वह स्पर्श कर सके।
मगर आनंद का स्पर्श नहीं किया जा सकता। इस किनारे पर आनंद घटता ही नहीं। मन के जिस तट पर, कबीर, तुम अभी जी रहे हो वहां आनंद न कभी घटा है, न कभी घटेगा। तुम्हें यह किनारा छोड़ कर चलना होगा। ले चलने को राजी हूं। तुम्हें उस तट तक पहुंचा दूंगा। मगर उस तट तक पहुंचने के पहले यह तट छोड़ना होगा।
हमारी चाह यह होती है कि पहले हम वह तट पा लें, फिर इसे छोड़ देंगे। गणित, तर्क यही कहेगा कि हाथ की आधी रोटी मत छोड़ देना पूरी की आशा में। गणित और तर्क यही कहेगा कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं। जो पास है उसे मत छोड़ देना दूर की आशा में। कौन जाने वहां जाकर पता चले कि वह जो सुहावनापन था, सिर्फ दूर से दिखाई पड़ता था। लंबी यात्रा के बाद कहीं विफलता हाथ न लगे।
इसलिए ऐसे प्रश्न उठते हैं। मैं जानता हूं, तुम्हारा प्रश्न कोई सिर्फ बौद्धिक प्रश्न नहीं है। मेरे पास जो संन्यासी इकट्ठे हुए हैं, उनका कुतूहल बौद्धिक नहीं है। जिज्ञासा से भी ऊपर है उनकी बात; उनकी बात मुमुक्षा है। कुतूहल तो है ही नहीं; जिज्ञासा भी नहीं; मुमुक्षा है। वे जरूर जानना ही चाहते हैं। वे जरूर ठीक अनुभव करना चाहते हैं। मगर मन कहता है, कुछ प्रमाण मिल जाएं, कुछ सहारे मिल जाएं, कुछ बात सूझ-बूझ में आने लगे, तो हम भी उतरें इस नाव में, हम भी चलें उस किनारे!
मेरे करीब आओ। मेरे शब्दों को ही मत सुनो, मेरे शून्य को अनुभव करो। मेरे निःशब्द में तैरो। यह जो बुद्ध-ऊर्जा क्षेत्र निर्मित हो रहा है, इसमें सब भांति समर्पित हो जाओ--सब भांति, बेशर्त! धीरे-धीरे बूंद-बूंद अमृत टपकेगा। धीरे-धीरे बूंद-बूंद अमृत कंठ से नीचे उतरेगा। तुम जानोगे, निश्चित जानोगे कि आनंद क्या है।
और तुमने पूछा है: "उत्सव क्या है?'
जब आनंद उपलब्ध होता है और उसे कहने का कोई उपाय नहीं मिलता, तो उस असहाय अवस्था में उत्सव पैदा होता है। उत्सव, आनंद को भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता, इसलिए पैदा होता है। नाच कर कोई कहता है! जो नहीं कहा जा सकता वाणी से, नाच कर कहता है--पद घुंघरू बांध मीरा नाची रे! वह उत्सव। नहीं कह सकता वाणी से, बांसुरी बजा कर कहता है। कृष्ण ने बांसुरी बजाई। नहीं कह सकता, नहीं बतला सकता, तो अपनी अलमस्ती से, अपने होने से उसके प्रमाण देता है; वही उत्सव है।
उत्सव तो यहां चल रहा है। इसी उत्सव के कारण तो अनेक लोगों को कठिनाई हो गई है, बड़ी कठिनाई हो गई है।
कल ही मैंने तुम्हें कहा। किसी ने प्रश्न पूछा था कि कानजी स्वामी और उनके भक्त कहते हैं कि जो सम्यक-दृष्टि को उपलब्ध हो गया, वहां राग-रंग कैसा? और मैं तुमसे कहता हूं, जो सम्यक-दृष्टि को उपलब्ध हो गया, वहीं राग है, वहीं रंग है--असली राग, असली रंग! तुमने अभी राग कहां जाना? रंग कहां जाना? तुम्हारे जीवन की फाग अभी आई कहां? गुलाल अभी उड़ी कहां? तुम तो ठीकरे बीन रहे हो, उसी को राग-रंग कहते हो। तुम तो बाजार में कूड़ा-कर्कट इकट्ठा कर रहे हो, उसी को राग-रंग कहते हो। और जो उस बाजार के कूड़ा-कर्कट को छोड़ देता है, उसको तुम समझते हो सम्यक-दृष्टि! त्यागी! व्रती! वीतरागी!
तुम्हें कुछ पता नहीं। वीतरागता राग से मुक्ति नहीं है, वीतरागता महाराग का अवतरण है। वीतरागता राग से भाग जाना नहीं है, बल्कि असली राग का, महाराग का जन्म है।
मैं तुमसे कहता हूं कि महावीर से बड़े भोगी इस जगत में दूसरे नहीं हैं। तुम अपने को भोगी मत समझना। तुम क्या खाक भोगी हो! रोगी हो सकते हो, भोगी नहीं हो। और जिसको तुम भोग समझ रहे हो--खाया-पीया, मौज कर लिया--सिर्फ उस भोग के धोखे में जीवन को गंवा रहे हो। भोगते हैं महावीर, भोगते हैं बुद्ध, भोगते हैं रामकृष्ण, भोगते हैं रमण। इन्हें मैं कहता हूं--महाभोगी, परम भोगी! क्योंकि वे परमात्मा को भोगते हैं। वे परमात्मा को ही पी जाते हैं। वे परमात्मा को ही आत्मसात कर लेते हैं।
यहां उत्सव मनाया जा रहा है, क्योंकि यहां आनंद घटा है, घट रहा है। यहां धीरे-धीरे लोग आनंद के स्वाद में तल्लीन होते जा रहे हैं। यहां वीणा बजी है, धीरे-धीरे बहरे से बहरे कानों को भी सुनाई पड़ने लगी है। बीन के बजने पर जैसे सांप नाच उठता है, ऐसे आनंद के भीतर बजने पर तुम भी नाच उठोगे; उसी नाच का नाम उत्सव है।
उत्सव का अर्थ है: अनुग्रह। उत्सव का अर्थ है: धन्यवाद। उत्सव का अर्थ है: मुझ अपात्र को इतना दिया! इतना जिसकी न मैं कल्पना कर सकता था न कामना! मेरी झोली में पूरा आकाश भर दिया! मेरे हृदय में पूरा अस्तित्व उंडेल दिया! मेरे इस छोटे से घट में शाश्वत अमृत ढाल दिया! अब मैं क्या करूं?
उस अपूर्व आनंद की स्थिति में नाचोगे नहीं? गाओगे नहीं? उल्लास, उमंग, उत्साह न जगेगा? हजार-हजार रूपों में जगेगा। उसका नाम उत्सव है। आनंद का अनुभव और फिर वाणी से उसे कहने का उपाय न मिलने के कारण उत्सव पैदा होता है। उत्सव आनंद की अभिव्यक्ति है--शब्द में नहीं; जीवन में, आचरण में।
जो लोग बाहर से देखते हैं, जो कभी यहां आते भी नहीं, उन्हें तो यही लगता है कि राग-रंग चल रहा है। यहां उत्सव पैदा हुआ है। और स्वभावतः, परमात्मा भी उतरे तुम्हारे भीतर तो भी तुम्हारा उत्सव तो बहुत कुछ वैसा ही होगा न जैसा जगत का होता है। किसी को धन मिल जाए और नाच उठे और मीरा को कृष्ण मिले और मीरा नाच उठी। अगर तुम नाच ही देखोगे तो दोनों का नाच एक जैसा ही मालूम होगा, क्योंकि नाच तो देह से प्रकट हो रहा है। लेकिन कारण भिन्न-भिन्न हैं। मीरा इसलिए नाच रही है कि ध्यान मिला, और तुम इसलिए नाच रहे हो कि लाटरी मिल गई। दोनों के कारण भिन्न हैं।
लेकिन बाहर से तो कारण का पता नहीं चलेगा। और भीतर उतरने की तो किसकी तैयारी है? किसके पास समय है? किसके पास उत्सुकता है? भीतर उतरने में तो डर भी है कि कहीं ऐसे राग-रंग के जगत में जाकर हम भी डूब न जाएं, रंग न जाएं।
एक वीतरागता का बड़ा झूठा रूप इस देश में प्रचलित हुआ है--निषेधात्मक, नकारात्मक, जीवन-विरोधी, उत्सव-विरोधी। वह सिकुड़ना सिखाता है, फैलना नहीं।
मैं तुम्हें फैलना सिखाता हूं। मैं तो मानता हूं, विस्तीर्ण होना ही ब्रह्म के निकट आने का उपाय है। हमारा शब्द "विस्तार' ब्रह्म शब्द का ही एक रूप है। ब्रह्म का अर्थ होता है जो विस्तीर्ण होता चला जाए। जिसके विस्तार का कोई अंत ही न आए। फैलता जाए, फैलता जाए।
आनंद फैलाव है, दुख सिकुड़ाव है। तुमने अनुभव भी किया होगा, जब तुम दुखी होते हो तो बिलकुल सिकुड़ जाते हो। जब तुम दुखी होते हो, तुम द्वार-दरवाजे बंद करके एक कोने में पड़ रहते हो। तुम चाहते हो कोई मिले न, कोई बोले न, कोई देखे न, कोई दिखाई न पड़े। बहुत दुख की अवस्था में आदमी आत्मघात तक कर लेता है। वह भी सिकुड़ने का ही अंतिम उपाय है। ऐसा सिकुड़ जाता है कि अब दोबारा न देखना है रोशनी सूरज की, न देखना है चेहरे लोगों के, न देखना है खिलते गुलाब। जब अपना गुलाब न खिला, जब अपना सूरज न उगा, जब अपने प्राण न जगे, तो अब दुनिया जागती रहे इससे क्या, हम तो सोते हैं!
आत्महत्या अंतिम उपाय है सिकुड़ने का। उससे ज्यादा और सिकुड़ना नहीं हो सकता। दुख आत्मघाती है। और आनंद आत्मा की विस्तीर्णता है। आत्मा इतनी बड़ी होती जाती है कि दूसरे भी उसमें समाने लगते हैं। आत्मा इतनी बड़ी हो जाती है कि चांदत्तारे उसके भीतर आ जाते हैं।
स्वामी राम ने कहा है कि जब मैं सोया था तो सोचता था चांदत्तारे मुझसे बाहर हैं; जब मैं जागा तो मैंने पाया चांदत्तारे मेरे भीतर हैं। मेरे ही भीतर सूरज और मेरे ही भीतर चांद और मेरे भीतर तारे घूम रहे हैं।
किसी ने राम से पूछा कि चांदत्तारे बनाए किसने? राम ने कहा, मुझसे पूछते हो? अरे, मुझसे पूछते हो? मैंने ही बनाए! मैंने ही पहली बार अंगुली के इशारे से चांदत्तारों को जुंबिश दी थी।
तुम तो पागल कहोगे इस आदमी को। लेकिन यह आदमी बड़ी गहरी और पते की बात कह रहा है। यह यह कह रहा है कि अब राम नहीं हूं मैं--राम, जिसे तुम जानते रहे। अब तो मैं सच में ही राम हूं--राम, जिसे तुम नहीं जानते। अब तो मैं विराट के साथ एक हूं।
विराट के साथ एक हो जाना आनंद। लेकिन आनंद को समा तो न सकोगे। आनंद तो उछलेगा। आनंद तो अभिव्यक्त होगा। आनंद तो बजेगा--हजार-हजार रागों में। आनंद तो बरसेगा--हजार-हजार रंगों में। वही उत्सव है।
कबीर, आनंद है आत्म-अनुभव। उत्सव है परमात्मा के प्रति धन्यवाद।
जिन कुंजों में श्याम विहंसते
राधा का भी ध्यान वहीं है।
नेक अनेक देख छवि मैंने
मधुकर व्रत लेकर झूला डाला,
फूली डाल कदंब बिना ऋतु
गलबांही की सरसी माला;
जहां जहां श्यामा रस गर्वित
छवि का नवल विधान वहीं है।
रास रचे छवि जीवन पथ पर
कलकंठों का लगता मेला,
मगर एक स्वर विलग कि सबसे
जिसने अठखेली से खेला;
हंसी खेल यह जीवन भर का
जिसमें भ्रम विज्ञान नहीं है।
नास्तिक के सर पर चढ़ बोली,
आंख मूंद कर हंसी ठिठोली,
तुम भगवान बनो मैं पूजूं,
शतदल की लेकर मधु टोली
अब मंदिर में देवी शारदा
सीखा पूजन ध्यान वहीं है।
जिन कुंजों में श्याम विहंसते
राधा   का   भी   ध्यान   वहीं   है।
खोजी तो राधा है; जिसे खोज रहा है वह कृष्ण है। खोजी तो स्त्रैण है; जिसे खोज रहे, परमात्मा, वही एकमात्र पुरुष है।
जिन कुंजों में श्याम विहंसते
राधा   का   भी   ध्यान   वहीं   है।
अपने ध्यान को ले चलो दूर, ले चलो उस पार--जिन कुंजों में श्याम विहंसते! जहां परमात्मा का वास है, उस तरफ अपनी आंखों को टिकाओ। जैसे-जैसे परमात्मा की तरफ सरकोगे वैसे-वैसे आनंद का स्वाद उपलब्ध होना शुरू हो जाएगा।
नेक अनेक देख छवि मैंने
मधुकर  व्रत  लेकर  झूला  डाला
डालो अब झूले!
फूली  डाल  कदंब  बिना  ऋतु
और अगर तुम्हारी तैयारी हो तो बिना ऋतु भी कदंब की डाल फूल जाए। और तुम्हारी तैयारी हो तो कभी भी वसंत आने को तैयार है। वसंत द्वार पर खड़ा है। मधुमास तुम्हारी झोली भर देने को आतुर है--फूलों से, तारों से।
फूली डाल कदंब बिना ऋतु
गलबांही की सरसी माला;
जहां जहां श्यामा रस गर्वित
छवि  का  नवल  विधान  वहीं  है।
और तुम्हें थोड़ी-थोड़ी झलक मिलने लगे श्याम की, सत्य की, या स्वयं की, कि बस तुम्हारे जीवन में झूला डला! कि आया सावन! कि आया गीत गाने का मौसम! कि पैरों में घूंघर बांधने का क्षण! कि ढोलों पर थाप देने का क्षण! कि बजे अब बांसुरी!
यह सुनते हो दूर कोयल की कुहू-कुहू! ऐसे ही तुम्हारे प्राणों में भी कोयल छिपी है। तुम्हारे अंतरतम में भी पपीहा है, जो पुकार रहा है--पी कहां! मगर तुम्हारे सिर में इतना शोरगुल है कि उस शोरगुल के कारण तुम सुन नहीं पाते। और तुम्हारे शोरगुल में जिस चीज से सहारा मिल जाए, उसे तुम्हारा शोरगुल जल्दी से पकड़ लेता है।

आनंद स्वभाव ने एक प्रश्न पूछा है कि आपको पंद्रह साल से सुनता हूं; सुनने के बाद घंटों चिंतन-मनन की धारा जारी रहती। लेकिन परसों आपका प्रवचन सुना, बहुत खोखला लगा।

पंद्रह साल में आनंद स्वभाव ने कभी पत्र नहीं लिखा! पंद्रह साल सुनने के बाद चिंतन-मनन घंटों चलता था। वह चिंतन-मनन क्या है? वह तुम्हारे भीतर शोरगुल है। और परसों चूंकि चिंतन-मनन नहीं चला तो प्रवचन खोखला लगा। परसों की ही बात तुम्हारे काम की थी, स्वभाव, बाकी पंद्रह साल तो यूं ही गए। परसों की ही बात सुन कर अगर तुम चुप हो गए होते, मौन हो गए होते, शून्य हो गए होते, तो कोई बंद द्वार खुल जाता।
लेकिन लोग सुनने भी आते हैं तो शून्य के लिए थोड़े ही आते हैं; सुनने आते हैं तो ज्ञान के लिए। कुछ पकड़ में आए, कुछ बुद्धि काम करे, कुछ बुद्धि का विचार चले, कुछ तारतम्य बंधे। तो पंद्रह साल सब ठीक चला, क्योंकि मेरे विचारों ने तुम्हारे भीतर और विचारों का ऊहापोह जगा दिया।
लोग सोचते हैं चिंतन-मनन बड़ी मूल्य की चीजें हैं। दो कौड़ी का मूल्य है उनका। शून्य के अतिरिक्त और किसी चीज का कोई मूल्य नहीं है।
अगर मेरी बात सुन कर तुम्हें खोखली लगी थी, मौका चूक गए। उस क्षण तुम्हें भी बिलकुल खोखला हो जाना था। तो शायद पहली दफा शून्य की झलक मिलती। मगर तुम सोचने लगे होओगे कि अरे, आज का प्रवचन जंचा नहीं। आज की बात कुछ मन रुची नहीं। आज की बात में कुछ था नहीं, कोई सार हाथ नहीं आया। तुम इस विचार में पड़ गए होओगे। उसी विचार से तो यह प्रश्न आया। आदमी का मन बहुत अजीब है। वह हर चीज में से उपाय निकाल लेता है।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी रात अचानक मुल्ला को झकझोर कर बोली--आधी रात--सुनते हो जी, नीचे से खटर-पटर की आवाजें आ रही हैं, लगता है कि चोर आ गए हैं। जरा नीचे जाकर देखना तो। मुल्ला नसरुद्दीन ने कंबल सिर के ऊपर खींचते हुए कहा, बकवास बंद करो, चुपचाप सो जाओ। कहीं चोर भी खटर-पटर की आवाजें करते हैं? वे तो बिना कोई आवाज किए ही अपना काम करते हैं। कोई चोर वगैरह नहीं हैं। चूहे वगैरह कूदते होंगे। शांत रहो। और मुल्ला तो कंबल ओढ़ कर बिलकुल मुर्दा हो गया। कुछ समय बाद मुल्ला की पत्नी ने फिर मुल्ला को हिलाया और बोली, सुनते हो जी, नीचे से आवाजें अब बिलकुल नहीं आ रही हैं, देखना कहीं चोर तो नहीं हैं।
आदमी का मन यहां से भी, वहां से भी, सब तरफ से विचारों का ऊहापोह खोजता है; निर्विचार होने से डरता है।
स्वभाव, तुमसे कहा किसने कि मेरी बातें सुन कर चिंतन-मनन करो? सुनो और भूलो। कहते हैं न, नेकी कर और कुएं में डाल। सुनो और भूलो। जरा भी भीतर सरकने मत दो। मेरे पास शून्य सीखना है। मेरे पास तुम्हें देखना है कि तुम्हारे भीतर कुछ भी नहीं है। क्योंकि उस ना-कुछ में ही सब कुछ के घटने की संभावना है।
लेकिन मन भी बड़ा अजीब है। पंद्रह साल में धन्यवाद नहीं दिया, एक दिन बात नहीं जमी तो शिकायत आ गई! शिकायत करने के लिए मन कितना आतुर होता है, धन्यवाद देने में कितना कंजूस!
मैंने सुना है, एक मुसलमान बादशाह का एक नौकर था। उसे बड़ा प्यारा था। नौकर जैसा संबंध नहीं रहा था उससे, मैत्री जैसा संबंध हो गया। जी-जान देने को तैयार रहा सदा बादशाह के लिए। शिकार को गए थे। दोनों रास्ता भटक गए। एक झाड़ के नीचे रुके छाया में। सांझ होने लगी, भूख भी लगी। उस वृक्ष में एक ही फल लगा है--अनजाना, अपरिचित फल। सम्राट ने हाथ बढ़ा कर तोड़ लिया। नौकर ने कहा, मालिक, मुझे मालूम है कि आपको भूख लगी है; मुझे भी भूख लगी है। लेकिन यह अपरिचित फल है, इसकी पहली फांक मुझे खाने दें। पता नहीं जहरीला हो, पता नहीं घातक हो। जब मैं हां कह दूं तब आप चखें।
सम्राट ने चार फांकें कीं, एक फांक अपने दास को दी। उसने फांक ली और इतने आनंद से खाई, आंखों में उसके आनंद के आंसू आ गए। उसने कहा, मालिक, बहुत आपके सत्संग में सुस्वादु भोजन मिले हैं, किसको मिले होंगे! मगर नहीं, इस फल का मुकाबला नहीं, एक फांक और!
दूसरी भी ले ली, वह भी खा गया। और सम्राट से बोला कि मालिक, कभी आपसे कुछ मांगा नहीं; आज पहली बार मांगता हूं--तीसरी फांक और। सम्राट ने तीसरी फांक भी दे दी; इतना ही प्रेम था उस नौकर पर। लेकिन जब उसने कहा, मालिक, बस आखिरी इच्छा पूरी कर दें, अब जीवन में दोबारा आपसे कुछ कभी नहीं मांगूंगा। यह चौथी फांक भी दे दें। तो सम्राट ने कहा, तू अब ज्यादती कर रहा है। और जल्दी से सम्राट ने एक कौर उस फांक में से ले लिया। तत्क्षण थूका! इतनी जहरीली चीज उसने जीवन में कभी खाई ही नहीं थी। उसने नौकर से कहा, पागल, तू मांग-मांग कर ये फांकें खा गया! यह तो शुद्ध जहर है! और तूने कहा क्यों नहीं?
तो उस नौकर ने कहा, मालिक, जिन हाथों से बहुत सुस्वादु भोजन मिले, उस हाथ से मिली एक-दो कड़वी फांकों के लिए शिकायत करनी शोभा नहीं देता, इसलिए चुप रह गया। क्या बात करनी इस एक फांक की!
लेकिन स्वभाव को एक दिन बात नहीं जमी, शिकायत तत्क्षण आ गई। पंद्रह साल जमी, धन्यवाद नहीं आया। ऐसा हमारा मन है। और मैं तुमसे कहता हूं कि जो बात तुम्हें नहीं जमी, वही काम की थी।
तुम्हें जमती ही कौन सी बातें हैं? तुम्हें जमती वे ही बातें हैं जो तुमसे तालमेल खाती हैं। जो तुमसे तालमेल खाती हैं वे तुमको ही मजबूत कर जाती हैं। जो बातें तुमसे तालमेल नहीं खातीं, जो तुम्हें मजबूत नहीं करतीं, उनमें तुम्हें सार नहीं मालूम होता।
फिर जिनका मुझसे प्रेम है, उनके लिए यह असंभव है कि मैंने जो बात कही हो वह खोखली हो। यह सोचना असंभव है। अगर खोखली भी कही है तो उसमें भी कुछ राज होगा। वह भी किसी के लिए कही गई होगी। हो सकता है वह स्वभाव के लिए ही कही गई थी।
आनंद है अनुभव। लेकिन हमारे मन की आदतें तो दुख ही दुख की हैं। शिकायत, निंदा, विरोध, ये हमारी मन की आदतें हैं। इन आदतों से जागो तो आनंद तो अभी घट जाए--इसी क्षण, यहीं! क्योंकि सारा अस्तित्व आनंद से भरपूर है, लबालब है। सिर्फ तुम उसे अपने भीतर लेने को राजी नहीं हो। तुम्हारे द्वार-दरवाजे बंद हैं।
खोलो द्वार-दरवाजे! ये तुम्हारी सारी इंद्रियां आनंद के द्वार बनें। यह तुम्हारी देह आनंद को झेलने के लिए पात्र बने। यह तुम्हारा मन आनंद को अंगीकार करने के योग्य शांत बने। ये तुम्हारे प्राण आनंदित होने के योग्य विस्तीर्ण हों। फिर जो होगा वह उत्सव है। फिर तुम भी चांदत्तारों के साथ, फूलों के साथ, वृक्षों के साथ, हवाओं के साथ नाच सकोगे। उत्सव आनंद की अभिव्यक्ति है।
जब सौरभ सुधा लुटाता है
तब परिचित पाहुन जीवन का
कुसुमित कानन में आता है
रजनीगंधा की छाया में।
रस-रूप-रंग चितवन पुलकन
तन-मन से आंख मिचौनी कर
छिप-छिप बरसाता मधु के घन
इंद्रासन की मधु माया में।
मोती निर्माल्य सजे जग की
वह रात बड़ी छोटी होती
प्रिय बात बड़ी खोटी होती
कंचन पारस की काया में।
जब सौरभ सुधा लुटाता है
तब परिचित पाहुन जीवन का
कुसुमित कानन में आता है
रजनीगंधा    की    छाया    में।
तुम तैयार होओ! प्यारा आएगा, पाहुन आएगा। तुम तैयार होओ! तुम अभी से मत पूछो कि प्रकाश कैसा होगा, आंख खोलो! तुम अभी से मत पूछो कि वीणा-वादन के स्वर कैसे होंगे, कान खोलो!
कबीर, जागो! आनंद बरस रहा है। आनंद तुम्हारा स्वभाव है, अस्तित्व का स्वभाव है। तुम सोए हो, इसलिए अपरिचित हो। खोजना नहीं है कहीं--सिर्फ जाग, सिर्फ जाग; सिर्फ होश, सिर्फ पुनः स्मृति अपने निज की--और तत्क्षण बरस उठता है आनंद, जैसे मेघ बरस जाएं!
और बरसते मेघों के नीचे नाचते मोर देखे? वही उत्सव है। ऐसे ही मैं तुम्हें भी नाचते हुए देखना चाहूंगा। नृत्य के ही पाठ दे रहा हूं, गीत के ही पाठ दे रहा हूं।
गजगामिनि विहरो!
हृदय कुंज के छवि-निकुंज में
प्रिय आश्रम हरिणी सुवासिनी
प्रेमपुंज रस-प्रभा हासिनी
प्रकृति-वधू लीला प्रकाशिनी
ऊषा से रजनी तक छमछम सरस राग रस गंध भरो।
तृषा, तपन से जब जल उन्मन
नयन निहार थके सावन घन
बन बन तब करुणा की बदरी
बरसाती  हो  स्वाती  के  कण
पीर हरण मादक मधु मुरली सब दिन अधर धरो।
प्रेम-पराग शक्ति सीता की
विश्व-मंत्र जीवन-गीता की
राधा हो तुम नट नागर की
गति  नव  प्रकृति  पुनीता  की
रति  हो  कामदेव  की  मेरे  नित  छवि  सी  लहरो।
गजगामिनि विहरो!
ऊषा से रजनी तक छमछम सरस राग रस गंध भरो।
पीर हरण मादक मधु मुरली सब दिन अधर धरो।
जो द्वार तुम्हारे लिए खोल रहा हूं वह अदृश्य मंदिर का द्वार है। तुम अगर अपने किनारे की जंजीरों, अपने किनारे के मोह, सुरक्षाओं, सुविधाओं को छोड़ने को तैयार हो, तो देर नहीं लगेगी, जरा भी देर नहीं लगेगी।
क्या पूछते हो आनंद क्या है? आनंद को ही क्यों न जान लें! क्या पूछते हो उत्सव क्या है? उत्सव ही क्यों न मना लें!
आनंद के संबंध में कितना ही जान लो, आनंद नहीं होगा। उत्सव के संबंध में कितना ही जान लो उत्सव नहीं होगा। उत्सव शब्द उत्सव नहीं, आनंद शब्द आनंद नहीं। आनंद भी अनुभव, उत्सव भी अनुभव।


दूसरा प्रश्न: भगवान, क्या जीवन मात्र संघर्ष ही है--संघर्ष और संघर्ष? या कुछ और भी?

कृष्ण तीर्थ, जीवन तो वही हो जाता है जैसा तुम उसे बनाते हो। तुम मालिक हो, जीवन तुम्हारा है। तुम नियंता हो, तुम निर्णायक हो।
जीवन तो एक अनगढ़ पत्थर है, इसे तुम क्या बनाओगे, सब तुम पर निर्भर है। चाहो तो इस अनगढ़ पत्थर को किसी की छाती पर रख दो; चाहो तो इस अनगढ़ पत्थर को किसी के सिर पर पटक दो, प्राण ले लो; चाहो तो इस अनगढ़ पत्थर को गढ़ो, मूर्ति बनाओ, जो किसी मंदिर में शोभा बने, जो किसी मंदिर की आराध्य बने। सब तुम पर निर्भर है। जीवन तो मिलता है एक कोरी किताब की भांति; गालियां लिखोगे कि गीत, सब तुम पर निर्भर है। जीवन तो मिलता है एक वीणा की भांति; शोरगुल मचाओगे कि संगीत पैदा करोगे, सब तुम पर निर्भर है।
तुम मुझसे पूछते हो: "क्या जीवन मात्र संघर्ष ही है?'
अधिक लोग जीवन को संघर्ष की तरह ही जानते हैं। क्योंकि उन्होंने अहंकार को ही जीवन का आधार बना लिया। अहंकार है तो जीवन संघर्ष है। अगर अहंकार ही अहंकार है तो जीवन संघर्ष ही संघर्ष है। और ऐसा संघर्ष, जिसमें विजय कभी नहीं आएगी। ऐसा संघर्ष, जिसमें दौड़ोगे तो बहुत, लेकिन पहुंचोगे कहीं भी नहीं। ऐसा संघर्ष, जिसमें जलोगे तिल-तिल, सड़ोगे तिल-तिल, और मृत्यु के अतिरिक्त तुम्हारी कोई उपलब्धि नहीं होगी। अहंकार अगर तुम्हारे जीवन का आधार है तो तुम्हारा जीवन सिर्फ युद्ध होगा-र्-ईष्या, जलन, वैमनस्य, हिंसा। अहंकार अगर तुम्हारे जीवन की बुनियाद है तो तुम्हारा जीवन सिवाय राजनीति के और कुछ भी नहीं होगा।
और ध्यान रखना, जब मैं कहता हूं राजनीति, तो मेरा अर्थ उन सारी जीवन-दिशाओं से है जहां तुम दूसरों के साथ प्रतियोगिता करते हो, स्पर्धा करते हो। वह जो बाजार में धन के लिए लड़ रहा है, वह भी राजनीति में है। वह राज करना चाहता है धन के बल पर। वह जो ज्ञान के सागर में है, जो किसी विश्वविद्यालय में उपाधियों पर उपाधियां इकट्ठी किए जा रहा है, वह भी राजनीति में है। वह राज करना चाहता है उपाधियों के बल पर।
मैं बनारस में मेहमान था। जिनके घर मेहमान था वे एक सज्जन को मुझे मिलाने लाए। उन्होंने बड़ी प्रशंसा में कहा कि आप मिलने योग्य व्यक्ति हैं। आप बारह विषयों के एम.ए. हैं! मैंने कहा, इन्हें बाहर करो, क्योंकि इनका दिमाग खराब होगा। जिंदगी गंवाई बारह विषयों में एम.ए. होने में! एकाध विषय में एम.ए. होना ठीक है, माफ किया जा सकता है; लेकिन बारह विषयों में! होश है इस आदमी को? क्या करोगे बारह विषयों में एम.ए. होकर?
नहीं लेकिन, यह भी अकड़ बन गई है। यह भी अहंकार को तृप्त कर रही है बात कि और कोई इतने ज्यादा विषयों में एम.ए. नहीं जितने विषयों में मैं हूं। हालांकि इस आदमी के चेहरे को देख कर मुझे जरा भी नहीं लगा कि इसमें बुद्धिमत्ता की कोई भी झलक है। हो भी नहीं सकती। बारह विषयों में एम.ए. होते-होते बुद्धू हो ही जाएगा, कोई भी हो जाएगा। विश्वविद्यालय से अपनी बुद्धिमत्ता को बचा कर निकल आना बड़ा कठिन काम है।
जब पहली दफा हेनरी थारो विश्वविद्यालय से घर वापस लौटा तो गांव के एक बूढ़े आदमी ने आकर उसकी पीठ ठोंकी और कहा, बेटा, मैं बहुत खुश हूं। हेनरी थारो ने कहा, क्या आप खुश हैं क्योंकि मैं विश्वविद्यालय की बड़ी उपाधि लेकर लौटा? उसने कहा कि नहीं-नहीं, मुझे गलत मत समझना। मैं इसलिए खुश हूं, मैं देखने आया था कि विश्वविद्यालय ने तुझे बरबाद तो नहीं कर दिया, मगर तू बच कर आ गया। तेरी आंखों में अभी भी बुद्धिमानी दिखाई पड़ती है। तेरी आंखों में अभी भी थोड़ा होश है, चमक है। तेरे चेहरे पर अभी भी प्रतिभा है। तू अपनी प्रतिभा बचा कर लौट आया, यही देखने मैं आया था।
विश्वविद्यालय में से निन्यानबे प्रतिशत लोग प्रतिभा बचा कर नहीं लौटते। और जो आदमी बारह विषयों में एम.ए. करता रहा, करता ही रहा, जिंदगी इसी में गंवा दी...यह भी राजनीति है।
राजनीति का अर्थ है--स्पर्धा, संघर्ष। यहां दूसरों को हराना है, दूसरों को मिटाना है। यहां दूसरों के सिरों के ऊपर चढ़ना है। यहां दूसरों की लाशें भी पट जाएं तो कोई फिकर नहीं, लेकिन पदों पर, प्रतिष्ठा पर, सम्मान पर पहुंचना है। अहंकार की छाया है राजनीति।
इसलिए निर-अहंकारी राजनीति में नहीं हो सकता--न धन की, न पद की, न ज्ञान की, न त्याग की। निर-अहंकारी स्पर्धा में ही नहीं होता। निर-अहंकारी सिर्फ होता है--आनंदमग्न मस्त! निर-अहंकारी के लिए कल नहीं है सुख--अभी है सुख, यहीं है सुख। अहंकारी के लिए कल। लड़ेगा, धन कमाएगा, बचाएगा, बड़े पदों पर पहुंचेगा--तब। तब सुख होगा। अहंकारी का सुख किन्हीं शर्तों पर निर्भर है।
कृष्ण तीर्थ, अगर अहंकार से जीओगे तो जीवन संघर्ष है। और अगर जीवन संघर्ष है, तो याद रखना, तुम परमात्मा को कभी पहचान न पाओगे। क्योंकि परमात्मा को संघर्ष से नहीं जाना जाता। परमात्मा के साथ कोई युद्ध थोड़े ही करना है। परमात्मा पर कोई विजय थोड़े ही करनी है। परमात्मा के सिर पर जाकर कोई विजय का झंडा थोड़े ही गाड़ना है। परमात्मा कोई धन तो नहीं है जिसे तुम तिजोड़ी में बंद करोगे। परमात्मा कोई वस्तु तो नहीं है जिसे तुम मुट्ठी में बांध लोगे। और परमात्मा कोई ऐसी चीज तो नहीं है कि एक ने पा लिया तो अब तुम कैसे पाओगे?
जरा फर्क समझना। अगर एक आदमी ने धन पा लिया तो तुम्हें पाने में मुश्किल हो जाएगी। उतना धन कम हो गया। अगर एक आदमी प्रधानमंत्री हो गया तो अब तुम कैसे होओगे? एक ही कुर्सी पर दो आदमी तो नहीं बैठ सकते। हालांकि कोशिश करते हैं कई-कई आदमी एक साथ बैठने की। अभी इस वक्त इस देश में तीन आदमी एक साथ बैठने की कोशिश में लगे हुए हैं--एक ही कुर्सी पर! मगर एक कुर्सी पर कैसे बैठोगे? धक्कमधुक्की होगी।
इस जगत में सब चीजें सीमित हैं। इस जगत में जो कुछ भी पाने जाओगे, वहां तुम पाओगे: अगर किसी और ने पा लिया तो तुम्हारी उतनी कम हो गई बात। उतना तुम्हें कम मिलेगा। इसलिए अहंकार प्रत्येक को दुश्मन मानता है, कहे चाहे न कहे। तुम चाहे लाख कहो कि हम सब मित्र हैं, मगर जब तक तुम संघर्ष में लगे हो, कैसे मित्र हो सकते हो? तुम भी धन खोजने चले हो, तुम्हारा पड़ोसी भी धन खोजने चला है; तुम मित्र हो कैसे सकते हो? अगर पड़ोसी ने पहले पा लिया तो तुम चूकोगे। अगर तुमने पहले पा लिया तो पड़ोसी चूकेगा। दुश्मनी ही होगी; मित्रता ऊपर-ऊपर होगी, औपचारिक होगी।
हमने प्रतिस्पर्धा को इतना फैला दिया है, हमने लोगों के खून में राजनीति का जहर इस तरह डाला है कि इस दुनिया में मैत्री असंभव हो गई है। शत्रु ही शत्रु हैं और संघर्ष ही संघर्ष है। इस संघर्ष और शत्रुता में घिरे तुम परमात्मा को नहीं जान पाओगे; आनंद नहीं जान पाओगे; उत्सव नहीं जान पाओगे। तुम्हारे जीवन में जो घटने योग्य है, कभी नहीं घटेगा। तुम रहोगे, किसी तरह घिसटोगे और मरोगे। तुम्हारी जिंदगी में कोई भी अर्थवत्ता नहीं होगी। भगवत्ता ही नहीं होगी तो अर्थवत्ता कैसे होगी? भगवान के बिना कोई अर्थ नहीं है।
लेकिन यही कोई एक ढंग नहीं है जीने का। जीने के और भी ढंग हैं। संघर्ष से क्यों जीते हो, समर्पण से क्यों नहीं? लड़ कर जीने की भी बात क्या, बिना लड़ कर भी जीया जा सकता है।
आशा की रात में
तारों की बारात देख
शबनम सी जिंदगी
आई उतर
धरती के पात पर
करके सिंगार।
सिंदूर भरे मांग से
सूरज का मुख हुआ लाल
गाल पर अनुराग की पड़ी भंवर;
जाने कब ढुलक गई
पानी की माया
मिट्टी की काया
रामनाम सत्य है
धरती का सत्य
युग-युग का सत्य
फिर सत्य से भय क्यों
इसलिए कि नर ने
न मानी हार
लड़ रहा काल से
लड़ता रहा है
लड़ता रहेगा
वंशज भगीरथ का
जब तक न बहता है वह
तृण सा गंगा की धार में।
एक तो है तैरना और एक है तृण सा गंगा की धार में बह जाना। एक तो है लड़ना। लड़ने का अर्थ है अस्तित्व को तुमने शत्रु मान लिया। और एक है: मैं अस्तित्व का अंग हूं; लड़ना किससे है? बह जाना गंगा की धार में तृण की भांति। फिर जीवन में एक दूसरा ही स्वाद उत्पन्न होता है। उसे ही मैं संन्यास का स्वाद कहता हूं--बह जाना गंगा की धार में! लड़ना मत। तैरना मत। गंगा पराई थोड़े ही है; अपनी है। गंगा से हम भिन्न तो नहीं। तैरना क्या है? लड़ना क्या है?
कृष्ण तीर्थ, जीवन संघर्ष ही संघर्ष नहीं है। यद्यपि अधिक लोग इसी तरह जीवन को जान पाते हैं। जीवन आनंद भी है, उत्सव भी है। और मजा यह है कि संघर्ष संताप पैदा करता है। संघर्ष विफलता लाता है, विजय नहीं। और समर्पण अपूर्व शांति पैदा करता है और सफलता लाता है, विजय लाता है।
परमात्मा के जगत के नियम बड़े अनूठे हैं। इसलिए तो कबीर जैसे लोग उलटबांसियां कहे। उलटबांसियां इसलिए कहे कि परमात्मा के नियम बड़े अनूठे हैं। जैसे इस जगत में अगर कुछ बचाना है तो छीना-झपटी करो। अगर परमात्मा के जगत में कुछ बचाना है तो बांटो, लुटाओ।
जीसस ने कहा है: जो बचाएगा, उसका छीन लिया जाएगा। और जो लुटाएगा, उसका बच जाएगा।
जीसस ने कहा है: जो इस जगत में प्रथम हैं, वे मेरे प्रभु के राज्य में अंतिम होंगे। और जो इस जगत में अंतिम हैं, मेरे प्रभु के राज्य में प्रथम। वहां गणित कुछ और है।
अगर धन को लुटाओगे तो भिखमंगे हो जाओगे। और अगर ध्यान को लुटाया तो सम्राट हो जाओगे। अगर धन को लुटाया तो आज नहीं कल मांगोगे दर-दर। और अगर प्रेम को लुटाया तो अनंत स्रोत खुल जाएंगे जो बंद पड़े हैं। रोज नया-नया प्रेम तुम्हारे भीतर उमगता आएगा। नये-नये झरने ताजीत्ताजी प्रेम की ऊर्जा तुम्हारे भीतर लाने लगेंगे।
जो कुआं बंद कर दिया जाए, वह सड़ जाता है। उसके झरने भी बंद हो जाते हैं। उसका जल भी विषाक्त हो जाता है। कुआं तो जीता है--भरते रहो पानी, उलीचते रहो पानी। इसलिए ज्ञानी कहते हैं: दोनों हाथ उलीचिए! एक हाथ से भी काम नहीं चलेगा, दोनों हाथों से उलीचो! बांटो!
मगर बांट तो तुम तभी सकते हो, जब तुम्हारे जीवन की दिशा संघर्ष न हो, समर्पण हो। जब तुम्हारे जीवन की दिशा युद्ध न हो, विश्राम हो। जब तुम तलवार लेकर न जूझो, बल्कि हाथ में एक फूल लेकर। जब कि तुम्हारे ओंठों पर बांसुरी हो, हाथ में तलवार नहीं।
इसलिए मुझे राम की प्रतिमा, धनुर्धारी राम की प्रतिमा कभी भी मन नहीं भाई। मेरे मन तो बांसुरी बजाते कृष्ण भाए। धनुर्धारी राम, कहीं न कहीं संघर्ष के प्रतीक हैं, युद्ध के प्रतीक हैं; कहीं न कहीं जीतना है। और इसलिए ठीक किया इस देश ने कि कृष्ण को छोड़ कर किसी को पूर्णावतार नहीं कहा; सबको अंशावतार कहा। शुभ हैं, सुंदर हैं, मगर आंशिक रूपों में। कृष्ण को पूर्णावतार कहा। क्यों? क्योंकि बांसुरी पर जाकर बात पूर्ण हो गई; आनंद पर जाकर बात पूर्ण हो गई; उत्सव पर जाकर बात पूर्ण हो गई। अब उसके पार कुछ भी न बचा।
कृष्ण तीर्थ, बांसुरी की टेर सुनो, बांसुरी क्या कह रही है! संघर्ष नहीं, समर्पण। और विजय सुनिश्चित है। तैरो मत, बहो। गंगा सागर की तरफ जा ही रही है, तुम भी पहुंच जाओगे।
लेकिन कुछ हैं, जो न केवल तैरते हैं, बल्कि उलटी धार में तैरते हैं; जो गंगोत्री की तरफ तैरने की कोशिश करते हैं। उसका भी कारण है, अहंकार को तभी रस आता है जब उलटा कुछ करो।
इस अहंकार के रस के मनोविज्ञान को तुम ठीक से समझ लो। क्योंकि सदियों में हजारों-हजारों लोगों ने इसी तरह अपने जीवन को गंवाया है--इसी मनोविज्ञान को न समझने के कारण। एक आदमी सिर के बल खड़ा हो जाता है, भीड़ लग जाती है फौरन। तुम पैर के बल घंटों खड़े रहो, कोई नहीं आता। बड़ी अजीब दुनिया है! उलटे में इसका बड़ा रस है। एक आदमी उलटे-सीधे शरीर को मोड़ेत्तोड़े, बस लोग कहने लगते हैं कि महायोगी! कोई आदमी उपवास करे, और लोग कहते हैं त्यागीत्तपस्वी! कोई धूप में खड़ा रहे, कोई शीत में गलता रहे, कोई हिमालय पर जाकर नंगा बैठ जाए, बर्फ पड़ती रहे--बस लोग बड़े आदर-भाव से भर जाते हैं।
यह आदर-भाव बहुत भिन्न नहीं है उस आदर-भाव से जो तुम सर्कस में दिखलाते हो सर्कसी काम करने वाले लोगों के प्रति--कि कोई रस्सी पर चल रहा है नट और तुम्हारी धक-धक बंद हो जाती है कि कहीं गिर न जाए! कोई आग के वर्तुलों में से कूद रहा है; सिंहों को नचा रहा है।
मैंने सुना है, एक सर्कस में ऐसा हुआ। सिंहों को नचाने वाला अचानक हार्ट-फेल से मर गया। भर दुपहरी, ज्यादा समय नहीं, शाम होने का वक्त आ रहा है। सर्कस का विज्ञापन हो चुका है। क्या करें अब, क्या न करें! मैनेजर ने गांव भर में डुंडी पिटवाई कि है कोई हिम्मतवर जो कुछ सिंहों के साथ खेल कर सके? और देख कर चकित हुआ। आई एक महिला--सुंदर महिला!
उसने कहा, तू क्या कर सकती है? तू क्या कर पाएगी?
उसने कहा, मैं वह चमत्कार कर सकती हूं जो अभी तक किसी ने नहीं किया होगा। मैं जाकर घुटने के बल खड़ी हो जाऊंगी और तुम देखना, सिंह आकर अगर मेरा चुंबन न ले!
मैनेजर भी हैरान हुआ। चमत्कार उसने बहुत देखे थे; जिंदगी भर मैनेजरी की सर्कस की, एक से एक काम देखे थे, मगर यह काम उसने नहीं देखा था। उसने कहा, तू ठीक कह रही है? ठीक, तो जो तेरी मांग हो पूरी कर देंगे। आज का खेल अगर सफल हुआ तो तू जो तनख्वाह मांगेगी, कल से तेरी तनख्वाह तय हो जाएगी। और आज का तुझे जो चाहिए वह मांग ले।
उसने कहा, पीछे ले लेंगे। लेने की बात पीछे हो जाएगी, पहले खेल हो जाए।
गांव भर में खबर भी फैल गई। उस दिन बड़ी भीड़-भाड़ थी। क्योंकि लोगों ने देखा था हंटर मारते हुए आदमी को, शेरों को नचाते। लेकिन एक सुंदर स्त्री वहां जाकर घुटने टेक कर खड़ी हो जाएगी और सिंह उसका चुंबन लेगा! और यह हुआ। यह युवती आई। आकर घुटने टेक कर खड़ी हो गई। सिंह आया। सकता छा गया। लोगों की सांसें बंद हो गईं। लोगों ने तो समझा कि मारी गई बेचारी। हाथ में कोड़ा तक नहीं है। बचाव का कोई उपाय नहीं है। और मैनेजर ने दरवाजा भी बंद करवा दिया था कठघरे का, क्योंकि यह खतरनाक मामला है; नया मामला है, क्या हो इसका परिणाम! शेर कहीं बाहर आ जाए, कुछ से कुछ हो जाए। सिंह दहाड़ा। उसकी दहाड़ सुन कर क्या हालत हुई होगी! मगर युवती अडिग खड़ी रही। सिंह दहाड़ा, पास आया, फिर पूंछ हिलाने लगा। फिर आकर उसने स्त्री का चुंबन लिया। और वापस जाकर अपनी कुर्सी पर बैठ गया।
चमत्कार! मैनेजर ने घोषणा की कि दस हजार रुपये हम ईनाम देते हैं इस स्त्री को। अगर कोई मर्द यहां हो जो यह काम करके दिखा सकता हो तो उसके लिए हम बीस हजार देंगे।
मुल्ला नसरुद्दीन खड़ा हो गया। लोगों में और सकता छा गया कि यह बड़े मियां को क्या सूझा! ये किसी एक ताकतवर कुत्ते को भी न सम्हाल पाएं। अब तो और भी सन्नाटा छा गया। मुल्ला पहुंचा। मैनेजर ने कहा कि बड़े मियां, आप होश में हो? ज्यादा तो नहीं पी गए हो? क्या करने जा रहे हो? यह सिंह है और इस स्त्री को इसने चूमा है; आप भी यह खेल करके दिखा सकते हो?
उसने कहा, बिलकुल दिखा सकता हूं! लेकिन पहले इस सिंह के बच्चे को बाहर निकालो। यही खेल करके दिखाऊंगा। मगर जब तक सिंह भीतर है तब तक मैं भीतर नहीं जाऊंगा।
लोग उलटे काम करने में राजी होते हैं। इसके लिए कोई राजी नहीं हुआ। लोगों ने कहा, अरे बड़े मियां, हमें पहले ही पता था कि तुमसे क्या होगा। यह भी तुमने खूब शर्त लगाई! हो-हल्ला हो गया, हंसी-मजाक हो गई।
लोग उलटे में रस लेते हैं। उलटे से अहंकार की तृप्ति होती है। तुम किनको पूजते हो? कभी तुमने सोचा है अपने हृदय में कि तुम्हारी पूजा सिर्फ इसी कारण तो नहीं है कि वह आदमी सिर के बल खड़ा है? कुछ उलटा कर रहा है? कुछ अस्वाभाविक कर रहा है? कोई आदमी कांटों पर लेटा है, बस तुम्हारे मन में एकदम श्रद्धा के सुमन खिले! तुम पागल हो? कांटों पर लेट जाने से क्या होगा? भूखे मरने से क्या होगा? पहाड़ों पर गिरती बर्फ में नग्न बैठ जाने से क्या होगा? ये सब अभ्यास हैं और सरल अभ्यास हैं, कोई बहुत कठिन अभ्यास नहीं हैं।
तुम्हें अगर तैयारी करनी हो तो मैं तुम्हें सुगम उपाय बता सकता हूं। ये बहुत सरल अभ्यास हैं। तुम जरा अपने छोटे बच्चे को कहना कि सुई लेकर तू जरा मेरी पीठ पर जगह-जगह चुभा। और तुम चकित हो जाओगे, बच्चा अगर पचास जगह चुभाएगा तो तुम को सिर्फ पच्चीस जगह सुई चुभती मालूम पड़ेगी और पच्चीस जगह तुम्हें मालूम ही नहीं पड़ेगी। क्योंकि पीठ पर ऐसे बिंदु हैं, जो ब्लाइंड स्पॉट हैं, जिनमें कोई चुभन पता नहीं चलती। बस वह जो कांटों पर लेट रहा है, उसका कुल काम इतना है कि उसने अपनी पीठ पर कहां-कहां चुभन पता नहीं चलती वे बिंदु खोज लिए हैं। और कांटों की जो सेज बनाई है वह इस ढंग से बनाई गई है कि बस वे उन्हीं बिंदुओं पर कांटे पड़ते हैं जिन बिंदुओं पर चुभन का पता नहीं चलता।
तुम चाहो तो आज ही जाकर घर अपने बच्चे को कहना, जरा सुई लेकर तू मेरी पीठ पर चुभा। और तुम बहुत हैरान होओगे, बच्चा चुभा रहा है और तुम्हें पता नहीं चल रहा! पता ही नहीं चल रहा, क्योंकि उस स्थान पर कोई संवेदनशील तंतु नहीं है। तुम्हारी पूरी पीठ अनुभव नहीं करती; थोड़े से बिंदु हैं जो अनुभव करते हैं। बस उनको छोड़ दो, बाकी पर तुम भी लेट सकते हो कांटों पर।
तिब्बत में लामा अभ्यास करते हैं श्वास की एक खास प्रक्रिया का। एक खास ढंग से श्वास लेना गहरी और उसको खास समय तक भीतर रोकना; फिर उसे झटके से बाहर फेंक देना। फिर तीव्रता से श्वास लेना; पूरे फेफड़ों को भर लेना; फिर उसे भीतर रोकना। साधारणतः तुम जो श्वास लेते हो, इससे तुम्हें उतनी गरमी मिलती है जितनी तुम्हारे शरीर को जरूरी है। यह जो तिब्बती ढंग है श्वास लेने का--पूरे फेफड़े को भर देना। तुम आमतौर से जो श्वास लेते हो, उससे तुम्हारा एक तिहाई फेफड़ा श्वास से भरता है। छह हजार छिद्र अगर तुम्हारे फेफड़े में हैं तो केवल दो हजार छिद्रों तक श्वास पहुंचती है। चार हजार छिद्रों में कार्बन डाय आक्साइड इकट्ठी होती रहती है। वह जो तिब्बती ढंग है, उसमें पूरे छह हजार छिद्र आक्सीजन से भर जाते हैं। तीन गुनी मात्रा में आक्सीजन तुम्हारे भीतर हो जाती है। आक्सीजन अग्नि है। अगर उतनी आक्सीजन को तुम अपने भीतर रोक सको तो तुम्हारा खून उत्तप्त होने लगता है। उस उत्तप्त खून के कारण बरफ भी पड़ती रहे तो तुम्हारे शरीर से पसीना चूता रहेगा।
अब यह सिर्फ साधारण अभ्यास है। यह तुम कर सकते हो। इसमें कोई अड़चन नहीं है। मगर तिब्बती लामा को लोग इसीलिए सम्मान देते हैं, कि चमत्कार! इसको कहते हैं योग-बल!
यह न योग-बल है, न कोई चमत्कार है। और जितने चमत्कार तुम सोचते हो वे सब इसी तरह के हैं; उन सब की व्यवस्था है। मगर कोई आदमी उलटा कर रहा है और तुम्हारे मन में समादर पैदा होता है। इस कारण दुनिया में धर्म करीब-करीब सर्कस का खेल हो गया।
मैं एक ऐसा धर्म देखना चाहता हूं दुनिया में जो स्वाभाविक हो। उसको सम्मान दो जो बिलकुल स्वाभाविक है। उसको सम्मान दो जो बिलकुल प्राकृतिक है। तो अधिकतम लोग इस दुनिया में धार्मिक हो सकेंगे। और सबसे ज्यादा स्वाभाविक बात क्या है? संघर्ष से मुक्त हो जाना। क्योंकि जो संघर्ष से मुक्त हुआ, उसके तनाव गए, उसकी चिंताएं गईं। जो संघर्ष से मुक्त हुआ, वह शिथिल हुआ, विश्राम को उपलब्ध हुआ।
गंगा की धार में उलटे मत तैरो; गंगा की धार में साथ बहो। यह धार अपनी है। हम भी इस धार के हिस्से हैं। जीवन की इस गंगा में बहते चलो; यह गंगा सागर तक पहुंच ही जाएगी। यह जा ही रही है; तुम नाहक परेशान हो रहे हो।
तुम्हारी हालत वैसी है जैसे एक सम्राट राजमहल लौट रहा था शिकार खेल कर; रास्ते में उसे एक बूढ़ा आदमी मिला जो सिर पर गठरी लादे हुए चल रहा है किसी तरह। बहुत बूढ़ा है और बोझ ज्यादा है। ऐसे सम्राटों को दया नहीं आती; लेकिन एक तो शिकार करके लौट रहा था; जंगल था, अकेला था और इस बूढ़े आदमी को बड़ी देर से देख रहा था कि घसिट रहा है। कहा कि रुक, तू आकर मेरे रथ में बैठ जा। बूढ़े की हिम्मत तो नहीं पड़ी, लेकिन सम्राट आज्ञा दे तो इनकार भी नहीं कर सका। तो किसी तरह सिकुड़ कर सम्राट के चरणों में रथ में बैठ गया। मगर वह जो रखे है सिर पर बोझ, वह सिर पर ही रखे रहा। सम्राट ने कहा, अरे पागल, अब यह बोझ सिर पर क्यों रखे है, इसको नीचे क्यों नहीं रख देता? उसने कहा कि नहीं महाराज नहीं, आपकी इतनी कृपा क्या कम है कि आपने मुझे रथ में बिठाल लिया! अब आपके रथ पर अपने सिर का बोझ भी डालूं, नहीं-नहीं, यह मुझसे न हो सकेगा।
यही तुम्हारी दशा है। यह बूढ़ा समझ रहा है कि यह सिर का जो बोझ है, रथ पर नहीं पड़ रहा है। रथ पर तो पड़ ही रहा है, चाहे रथ पर रखो और चाहे अपने सिर पर रखो, क्योंकि तुम भी रथ पर हो। अब तुम नाहक अपने सिर पर ढोना चाहो तो तुम्हारी मर्जी।
जीवन की धारा अपने आप परमात्मा की तरफ बह रही है। बह ही रही है। अब तुम अगर गंगोत्री की तरफ तैरो तो तुम्हारी मर्जी। अगर धारा के साथ बहने को राजी हो जाओ, पहुंच जाओगे।
मगर एक बात खयाल रखना, धारा के साथ बहे कि न तुम्हें कोई त्यागी कहेगा, न कोई तपस्वी कहेगा, न कोई महात्मा कहेगा। धारा के साथ बहे कि लोग कहेंगे, अरे, राग-रंग में पड़े! लोग कहेंगे, अरे, यह कैसा संन्यास! मेरे संन्यासी को यही तो आलोचना झेलनी पड़ रही है। क्योंकि मैं संन्यास एक जीवन की स्वाभाविक दशा मानता हूं। मैं तुम्हें अगर उलटा चलना सिखाऊं, तुम्हें बड़ा सम्मान मिलेगा। मैं तुम्हें जीवन की जो सहज गति है, उसके साथ तालबद्ध होना सिखा रहा हूं; तुम्हें सम्मान मिलने वाला नहीं है। तुम चाहना भी मत। न मिले तो इसके कारण विषादग्रस्त भी न होना। यह बिलकुल स्वाभाविक है।
झेन फकीर कहते हैं: जब भूख लगे, खा लो; जब प्यास लगे, पी लो; जब नींद आ जाए, सो जाओ। बस इससे ज्यादा और कोई साधना नहीं।
मगर ऐसे आदमी को क्या तुम सम्मान दोगे--भूख लगे खा ले, प्यास लगे पी ले, नींद आए सो जाए? तुम कहोगे, इसमें योग कहां है? यम-नियम इत्यादि का क्या हुआ? आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, उस सब का क्या हुआ? जब भूख लगे खा ले, जब नींद लगे सो जाए, जब प्यास लगे पी ले। यह कोई साधना हुई! मगर मैं तुमसे कहता हूं, यही असली साधना है--सहज योग! अगर सहज योग को समझो, कृष्ण तीर्थ, बह चलो तृण की तरह गंगा की धार में, फिर जीवन संघर्ष नहीं है--फिर जीवन उत्सव है, महोत्सव है।


तीसरा प्रश्न: भगवान, इस जीवन में मैंने दुख ही दुख क्यों पाया है?

सुजाता, दुख ही दुख अगर पाया है तो बड़ी मेहनत की होगी पाने के लिए, बड़ा श्रम किया होगा, बड़ी साधना की होगी, तपश्चर्या की होगी! अगर दुख ही दुख पाया है तो बड़ी कुशलता अर्जित की होगी! दुख कुछ ऐसे नहीं मिलता, मुफ्त नहीं मिलता। दुख के लिए कीमत चुकानी पड़ती है।
आनंद तो यूं ही मिलता है; मुफ्त मिलता है; क्योंकि आनंद स्वभाव है। दुख अर्जित करना पड़ता है। और दुख अर्जित करने का पहला नियम क्या है? सुख मांगो और दुख मिलेगा। सफलता मांगो, विफलता मिलेगी। सम्मान मांगो, अपमान मिलेगा। तुम जो मांगोगे उससे विपरीत मिलेगा। तुम जो चाहोगे उससे विपरीत घटित होगा। क्योंकि यह संसार तुम्हारी चाह के अनुसार नहीं चलता। यह चलता है उस परमात्मा की मर्जी से।
जीसस ने अंतिम प्रार्थना की: हे प्रभु, तेरी मर्जी पूरी हो!
यह अंतिम भी है प्रार्थना, यही प्राथमिक भी होनी चाहिए--हे प्रभु, तेरी मर्जी पूरी हो! मेरी मर्जी बीच में न आए।
सुजाता, तू अपनी मर्जी बहुत बीच में ले आई होगी, इससे दुख ही दुख पाया है। अपनी मर्जी को हटाओ! अपने को हटाओ! उसकी मर्जी पूरी होने दो। फिर दुख भी अगर हो तो दुख मालूम नहीं होगा। जिसने सब कुछ उस पर छोड़ दिया, अगर दुख भी हो तो वह समझेगा कि जरूर उसके इरादे नेक होंगे। उसके इरादे बद तो हो ही नहीं सकते। जरूर इसके पीछे भी कोई राज होगा। अगर वह कांटा चुभाता है तो जगाने के लिए चुभाता होगा। और अगर रास्तों पर पत्थर डाल रखे हैं उसने तो सीढ़ियां बनाने के लिए डाल रखे होंगे। और अगर मुझे बेचैनी देता है, परेशानी देता है, तो जरूर मेरे भीतर कोई सोई हुई अभीप्सा को प्रज्वलित कर रहा होगा; मेरे भीतर कोई आग जलाने की चेष्टा कर रहा होगा।
जिसने सब परमात्मा पर छोड़ा, उसके लिए दुख भी सुख हो जाते हैं। और जिसने सब अपने हाथ में रखा, उसके लिए सुख भी दुख हो जाते हैं।
दुख पाया है हमने सुख के संवर्धन के नाम पर
दर्द मिला है हमें प्यार के आवंटन के नाम पर
अन्य सभी कुछ वैकल्पिक था आंसू ही अनिवार्य थे
बेआवाज रुदन पाया है गीत-सृजन के नाम पर
गहराई में गिरे सतत हर ऊंचाई के वास्ते
अवरोहण ही पाया हमने आरोहण के नाम पर
संबंधों वाली सूची से नाम हमारा काट दिया
हमें दूरियां मिलीं निकटता के गोपन के नाम पर
कलियों में छुपकर कांटों ने हमें निरंतर दंश दिए
सर्पों के कुंडल पाए हैं आलिंगन के नाम पर
जन्म उपासी प्यास चली है जब-जब भी व्रत खोलने
रख-रख दिए अंगारे अधरों पर चुंबन के नाम पर
हम समग्र जीवन जीते हैं, भ्रम था, हमको ज्ञात न था
टुकड़े-टुकड़े मौत मिली है इस जीवन के नाम पर
जिसे तुम जीवन समझ रहे हो, वह जीवन नहीं है, टुकड़े-टुकड़े मौत है। जन्म के बाद तुमने मरने के सिवाय और किया ही क्या है? रोज-रोज मर रहे हो। और जिम्मेवार कौन है? परमात्मा ने जीवन दिया है, मृत्यु हमारा आविष्कार है। परमात्मा ने आनंद दिया है, दुख हमारी खोज है।
प्रत्येक बच्चा आनंद लेकर पैदा होता है; और बहुत कम बूढ़े हैं जो आनंद लेकर विदा होते हैं। जो विदा होते हैं उन्हीं को हम बुद्ध कहते हैं। सभी यहां आनंद लेकर जन्मते हैं; आश्चर्यविमुग्ध आंखें लेकर जन्मते हैं; आह्लाद से भरा हुआ हृदय लेकर जन्मते हैं। हर बच्चे की आंख में झांक कर देखो, नहीं दीखती तुम्हें निर्मल गहराई? और हर बच्चे के चेहरे पर देखो, नहीं दीखता तुम्हें आनंद का आलोक? और फिर क्या हो जाता है? क्या हो जाता है? फूल की तरह जो जन्मते हैं, वे कांटे क्यों हो जाते हैं?
जरूर कहीं हमारे जीवन की पूरी शिक्षण की व्यवस्था भ्रांत है। हमारा पूरा संस्कार गलत है। हमारा पूरा समाज रुग्ण है। हमें गलत सिखाया जा रहा है। हमें सुख पाने के लिए दौड़ सिखाई जा रही है। दौड़ो! ज्यादा धन होगा तो ज्यादा सुख होगा। ज्यादा बड़ा पद होगा तो ज्यादा सुख होगा।
गलत हैं ये बातें। न धन से सुख होता है, न पद से सुख होता है। और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि धन छोड़ दो या पद छोड़ दो। मैं इतना ही कह रहा हूं, इनसे सुख का कोई नाता नहीं। सुख तो होता है भीतर डुबकी मारने से। हां, अगर भीतर डुबकी मारे हुए आदमी के हाथ में धन हो तो धन भी सुख देता है। अगर भीतर डुबकी मारे हुए आदमी के हाथ में दुख हो तो दुख भी सुख बन जाता है। जिसने भीतर डुबकी मारी, उसके हाथ में जादू आ गया, जादू की छड़ी आ गई। वह भीड़ में रहे, तो अकेला। वह शोरगुल में रहे, तो संगीत में। वह जल में चलता है, लेकिन जल में उसके पैर नहीं भीगते।
तू पूछती है सुजाता: "इस जीवन में मैंने दुख ही दुख क्यों पाया है?'
अगर तू किसी पंडित-पुरोहित से पूछेगी तो वह कहेगा, पिछले जन्मों में पाप किए होंगे। उससे तुझे राहत मिलेगी कि अब क्या किया जा सकता है? पिछले जन्म में जो हुआ हुआ। पंडित-पुरोहित कहेगा, अब जो पिछले जन्म में किया किया; अब इस जन्म में मत करना। पति को परमेश्वर मान। चरण दाब उनके। भजन-कीर्तन कर, यज्ञ-हवन कर। अगले जन्म में सुख मिलेगा।
अगले जन्म में क्या होगा, इसका कुछ पक्का नहीं। अगला जन्म भी होगा कि नहीं, इसका कुछ पक्का नहीं। कोई लौट कर बताता नहीं कि यज्ञ-हवन किए थे तो सुख मिला कि नहीं मिला। इसलिए पंडित का धंधा चलता है। पंडित के धंधे को तोड़ना बहुत मुश्किल है, क्योंकि वह जो चीजें बेचता है वे दिखाई पड़ती ही नहीं।
मैंने सुना है कि न्यूयार्क की एक दुकान ने विज्ञापन दिया कि अदृश्य पिन, बालों में लगाने के अदृश्य पिन आ गए हैं; जिनको लेना हो ले जाएं। बिक्री शुरू हो गई। महिलाएं और ऐसे मौके पर छूट जाएं--कतारें लग गईं! अदृश्य पिन! दिखाई न पड़ें, तब तो मजा आ गया। पिन दिखाई पड़ता है तो जरा बेहूदा सा तो लगता ही है।
एक महिला ने खरीदा। डब्बी खोली। उसमें कुछ दिखाई तो पड़े ही नहीं। दिखाई पड़ने का तो कोई सवाल ही नहीं था; अदृश्य पिन दिखाई कैसे पड़ें? उस महिला ने कहा, कुछ दिखाई तो पड़ता नहीं। तो उसने कहा, अदृश्य पिन हैं, ये दिखाई कैसे पड़ेंगे? तो उसने पूछा कि हैं भी इसमें कि नहीं? अब उस दुकानदार ने कहा, यह मत पूछो। तीन सप्ताह से स्टाक नहीं है, मगर बिक्री तो जारी है।
अदृश्य धंधे हैं; उसमें पुरोहित का धंधा सबसे अदृश्य है। तू अगर किसी पंडित-पुरोहित के पास गई होती तो तुझे सांत्वना भी मिलती कि पिछले जन्मों के पाप हैं; कटे जा रहे हैं, कट जाने दो। कट ही जाना अच्छा है। जो किया है, उसको भर जाना ही ठीक है। अगले जन्म में सुख ही सुख होगा।
यह मैं तुझसे नहीं कह सकता। ये दुख अगर तुझे मिल रहे हैं तो पिछले जन्मों के नहीं हैं। पिछले जन्मों के दुख पिछले जन्मों में मिल गए होंगे। परमात्मा उधारी में भरोसा नहीं करता। अभी आग में हाथ डालोगे, अभी जलेगा, अगले जन्म में नहीं। और अभी किसी को दुख दोगे तो अभी दुख पाओगे, अगले जन्म में नहीं। यह अगले जन्म की तरकीब बड़ी चालबाज ईजाद है, बड़ा षडयंत्र है, बड़ा धोखा है।
अगर अभी प्रेम करोगे तो अभी सुख बरसेगा और अभी क्रोध करोगे तो अभी दुख बरसेगा। सच तो यह है, क्रोध करने के पहले ही आदमी क्रोध से भस्मीभूत हो जाता है। दूसरे को जलाओ, उसके पहले खुद जलना पड़ता है। दूसरे को दुख दो, उसके पहले खुद को दुख देना पड़ता है।
ये पिछले जन्मों के दुख नहीं हैं। अभी तू जो कर रही है, उसी का परिणाम है। पहले तो मेरी बात सुन कर तुझे चोट लगेगी, क्योंकि सांत्वना नहीं मिलेगी। लेकिन अगर मेरी बात समझे तो छुटकारे का उपाय भी है। तो तुझे खुशी भी होगी। अगर इसी जन्म की बात है तो कुछ किया जा सकता है। यही मैं कह रहा हूं कि अभी कुछ किया जा सकता है।
सुख छोड़ो! सुख की आकांक्षा छोड़ो! सुख की आकांक्षा का अर्थ है--बाहर से कुछ मिलेगा, तो सुख। बाहर से कभी सुख नहीं मिलता। सुख की सारी आकांक्षा को ध्यान की आकांक्षा में रूपांतरित करो। सुख नहीं चाहिए, आनंद चाहिए। और आनंद भीतर है।
तो भीतर जितना समय मिल जाए, सुजाता, उतना भीतर डुबकी मारो। जब मिल जाए, दिन-रात, काम-धाम से बच कर, जब सुविधा मिल जाए, पति दफ्तर चले जाएं, बच्चे स्कूल चले जाएं, तो घड़ी दो घड़ी के लिए द्वार-दरवाजे बंद करके--घर के ही नहीं, इंद्रियों के भी द्वार-दरवाजे बंद करके--भीतर डूब जाओ। और धीरे-धीरे सुख के फूल खिलने शुरू हो जाएंगे--महासुख के! और वे ऐसे फूल हैं जो खिलते हैं तो फिर मुर्झाते नहीं हैं।
आज ही इस दुख से छुटकारा पाया जा सकता है। अगले जन्म तक प्रतीक्षा की कोई जरूरत नहीं। मैं कल पर नहीं टालता। क्योंकि परमात्मा को जैसा मैं जानता हूं उसमें एक बात बहुत स्पष्ट है कि परमात्मा कल पर नहीं टालता। परमात्मा सदा आज है।
और तुम भी आज जीने की कला सीखो। जीओ अपने अंतरतम से। पर-निर्भर नहीं, आत्म-निर्भर। जीओ भीतर की ज्योति से। बाहर के दीयों का भरोसा छोड़ो। इनसे सिर्फ अंधेरा मिलता है, रोशनी नहीं मिलती। इनसे सिर्फ अमावस आती है, पूर्णिमा नहीं आती।
न तो, सुजाता, पति से सुख मिलेगा, न बच्चों से, न घर से, न द्वार से। उसी आशा में अटकी रहेगी तो दुख पाएगी। और फिर तुझे याद दिला दूं, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि भाग जा हरिद्वार, काली कंबली वाले बाबा के आश्रम में जाकर बैठ जा! यह मैं नहीं कह रहा हूं। जहां है वहीं रहो। पति भी ठीक, बच्चे भी ठीक, घर भी ठीक, सब ठीक। मगर भीतर अपने खोदना शुरू कर दो। भीतर का कुआं खोदना शुरू कर दो। जल्दी ही, जैसे हर जमीन के नीचे जल-स्रोत हैं, ऐसे ही हर हृदय के भीतर आनंद का स्रोत है।


आखिरी प्रश्न: भगवान, आपका संदेश घर-घर पहुंचाने का संकल्प अपने आप ही सघन होता जा रहा है। समाज हजार बाधाएं खड़ी करेगा, कर रहा है। जीवन भी संकट में पड़ सकता है। मैं क्या करूं?

नीरज, जीवन तो संकट में है ही; मौत तो आएगी ही। इसलिए अब और जीवन संकट में क्या पड़ सकता है? मौत से बड़ी और क्या दुर्घटना हो सकती है? लोग बिगाड़ क्या लेंगे? ऐसे ही सब छिन जाने वाला है। इसलिए घबड़ाहट क्या? चिंता क्या? जहां सब लुट ही जाने वाला है, वहां तो घोड़े बेच कर सोओ, फिकर छोड़ो! लोग क्या करेंगे? लोग क्या छीन लेंगे?
और लोग जो अड़चनें पैदा करेंगे, अगर तुम में समझ हो तो हर अड़चन साधना बन जाएगी। लोग बाधाएं डालेंगे, अगर तुम में थोड़ी समझ हो तो हर बाधा सीढ़ी बन जाएगी। लोग अड़चन पैदा करें, बाधा पैदा करें, इससे तुम्हारे भीतर आत्मा सघन होगी, मजबूत होगी, एकाग्र होगी।
घबड़ाओ मत। अगर संकल्प जग ही रहा है तो तुम क्या कर सकते हो अब? संदेश को पहुंचाना ही होगा! यह तुम्हारे बस के बाहर बात है। अगर परमात्मा तुम्हारे भीतर से कोई गीत गाना ही चाहता है तो गाकर रहेगा।
और जब गाना ही चाहता है तो फिर तुम दिल से, पूरे दिल से साथ हो जाओ, ताकि गीत पूरा प्रकट हो, ऐसा अटका-अटका न हो।
चला है राहे-वफा में तो मुस्कुराता चल!
हवादसात के बरबत पै गीत गाता चल!
कमाले-आगही-ओ-कैफे-जुस्तजू लेकर
हिजाबे-दानिशो-होशो-खिरद उठाता चल!
तगैयुराते-जमाने को देके हुक्मे-सबात
मवालिगाते-जहां का मजाक उड़ाता चल!
गिरोहे-अहलेत्तलब के बुझे-बुझे से हैं दिल
चिरागे-मंजिले-मकसूद को जलाता चल!
अजीयतों से उठा लुत्फे-जिंदगी ऐ दोस्त!
हर-एक दर्द को दरमाने-गम बनाता चल!
दिखाके सोजे-मुहब्बत की ताबनाकी को
जहाने-शौक में इक आग सी लगाता चल!
मजाजे-बेहिसीए-जिंदगी को जल्द बदल
पयामे-अख्तरे-आतिशनवा   सुनाता   चल!
एक गीत तेरे भीतर पैदा होना शुरू हुआ, नीरज, होने दो पैदा।
चला  है  राहे-वफा  में  तो  मुस्कुराता  चल!
रास्ता ठीक है तो मुस्कुराते चलो, डर क्या!
हवादसात  के  बरबत  पै  गीत  गाता  चल!
आपत्तियां तो आएंगी, आपत्तियों के साज को बजाओ; उन्हीं पर गीत गाओ।
कमाले-आगही-ओ-कैफे-जुस्तजू   लेकर
उत्साह और उमंग से, ज्ञान और खोज की अभीप्सा से...।
हिजाबे-दानिशो-होशो-खिरद उठाता चल!
बुद्धि पर पड़े जितने परदे हैं, वे सब हटा दो अब। अपने भी हटाओ, दूसरों के भी हटाओ। परदे हटाने हैं, लोगों के घूंघट हटाने हैं; क्योंकि घूंघटों के भीतर परमात्मा छिपा है।
तगैयुराते-जमाने   को   देके   हुक्मे-सबात
युग को परिवर्तन की आवाज देनी है।
मवालिगाते-जहां  का  मजाक  उड़ाता  चल!
और दुनिया तो उपद्रव खड़े करेगी; उसके अंधविश्वास, उसकी धारणाएं उपद्रव खड़ा करेंगी। हंसते हुए चलो, मजाक करो। घबड़ाओ मत। दुनिया के अंधविश्वासों का मजाक उड़ाओ। हंसते हुए चलना है, गंभीरता से भी नहीं।
गिरोहे-अहलेत्तलब के बुझे-बुझे से हैं...
जरा देखो, लोगों की जिंदगी के चिराग बहुत बुझे-बुझे से हैं। यात्री-दल चल रहा है, और बिना चिराग, बिना मशालों के!
गिरोहे-अहलेत्तलब के बुझे-बुझे से हैं दिल
यात्रा करने वालों के दिल भी बुझे-बुझे से हैं।
चिरागे-मंजिले-मकसूद  को  जलाता  चल!
हिम्मत करो, थोड़े दीये जलाओ! थोड़ी रोशनी करो!
अजीयतों  से  उठा  लुत्फे-जिंदगी  ऐ  दोस्त!
और ये जो दीये जलेंगे, ये ही तुम्हारे आनंद का कारण बन जाएंगे, ये ही तुम्हारे उत्सव का कारण बन जाएंगे। इस जगत में इससे बड़ी और कोई सौभाग्य की घड़ी नहीं है जब तुम किसी अंधेरे आदमी की जिंदगी में दीया जलाने में सफल हो जाओ। तुम्हारे हाथ से अगर किसी की जिंदगी में एक फूल भी खिल जाए तो इससे बड़ी और कोई धन्य घड़ी नहीं है।
अजीयतों से उठा लुत्फे-जिंदगी ऐ दोस्त!
हर-एक दर्द को दरमाने-गम बनाता चल!
और कष्ट तो आएंगे, लेकिन उन सारे कष्टों को तुम्हारे गीतों में जोड़ लो। उन सारे कष्टों को तुम्हारी सीढ़ियों में जोड़ लो। उन सारे कष्टों को भी प्रभु का प्रसाद समझो। परमात्मा जो भी देता है, ठीक ही देता है। उसकी मर्जी पूरी हो!

आज इतना ही।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें