देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर
सामाजिक)—ओशो
पांचवां-प्रवचन
अतीत के मरघट से मुक्ति
मेरे प्रिय आत्मन्!
आज ही एक पत्र में मुझे स्वामी आनंद का एक वक्तव्य पढ़ने को मिला। और
बहुत आश्चर्य भी हुआ, बहुत हैरानी भी हुई। स्वामी आनंद से किसी ने पूछा कि
मैं जो कुछ गांधीजी के संबंध में कह रहा हूं उसके संबंध में आपके क्या खयाल हैं?
स्वामी आनंद ने तत्काल कहा, उस संबंध में मैं
कुछ भी नहीं कहना चाहता हूं। शिष्टाचार वश शायद उनके मुंह से ऐसा निकल गया होगा,
क्योंकि यह कहने के बाद वे रुके नहीं और जो कहना था वह कहा। ऊपर से
ही कह दिया होगा कि कुछ नहीं कहना चाहता हूं, लेकिन भीतर आग
उबल रही होगी वह पीछे से निकल आई, इससे रुकी नहीं। आश्चर्य
लगा मुझे कि पहले कहते हैं कि कुछ भी नहीं कहना चाहता हूं और फिर जो कहते हैं!
आदमी ऐसा ही झूठा और प्रवंचक है। शब्दों में कुछ है, भीतर
कुछ है। कहता कुछ है, कहना कुछ और चाहता है। उन्होंने जो कहा
वह और भी हैरानी का है।
स्वामी आनंद तो मुझसे भलीभांति परिचित हैं। लेकिन, ऐसी जानकारी भी उनकी होगी, यह मुझे पता नहीं था।
उन्होंने कहा कि नहीं कुछ कहना चाहता हूं, और फिर कहा कि अगर
एक कौआ मस्जिद पर बैठ कर अपने को मुल्ला समझने लगे, तो इसमें
कुछ कहने की बात नहीं। स्वामी आनंद से मैं परिचित हूं। लेकिन मुझे इसका परिचय नहीं
था कि उनका कौओं से परिचय है।
कौवे मस्जिद पर बैठ कर क्या सोचते हैं, स्वामी आनंद किसी जन्म में कौआ न रहे हों, तो उन्हें
पता लगाना बहुत मुश्किल है, एकदम कठिन है। जरूर किसी जन्म
में कौआ रहे होंगे, किसी मस्जिद के ऊपर बैठ कर मुल्ला होने
की सोची होगी। अन्यथा कौवे क्या सोचते हैं, कैसे पता लगा
सकते हैं? कौआ की बुद्धि मुल्ला होने से ऊपर जा भी नहीं
सकती। कौओं को छोड़ कर शायद ही कोई और मुल्ला होना चाहता हो। जो मुल्ले हैं वे भी
कौवों की बुद्धि से ज्यादा बुद्धिमान नहीं होते। और फिर मुल्ला होने का शायद
स्वामी आनंद को पता नहीं कि मुल्ला होना कब संभव होता है। जब कोई किसी पंथ को
मानता हो, संप्रदाय को मानता हो, वाद
को मानता हो, किसी गुरु को मानता हो, तो
मुल्ला हो सकता है। न तो मैं किसी पंथ को मानता, न किसी वाद
को मानता रहा, न किसी गुरु को मानता, न
किसी संप्रदाय को मानता। मेरा मुल्ला होना बिलकुल मुश्किल है। लेकिन स्वामी आनंद
मुल्ला हैं और कहना चाहिए कठमुल्ला हैं।
गांधीवाद को एक धर्म बनाने की कोशिश की जा रही है। गांधीवाद को एक
चर्च बनाने की कोशिश की जा रही है। गांधी स्वयं जिंदगी भर यह चिल्ला कर कहते रहे
गए कि मेरी मूर्तियां मत बना देना, मेरे मंदिर मत बना
देना, लेकिन वह साजिश जारी है, उनकी
मूर्तियां बनाई जा रही हैं, उनके मंदिर बनाए जा रहे हैं। अभी
एक सज्जन ने गांधी-पुराण भी लिख डाला है। और उसमें उन्होंने इस भांति व्यवस्था की
है कि जैसे और पुराण हैं, विष्णु-पुराण, वैसा गांधी को अवतार बताने की कोशिश की है। बहुत शीघ्र गांधी के पास एक
धर्म खड़ा करने की कोशिश चल रही है। स्मरण रहे, जब भी किसी
व्यक्ति के पास धर्म खड़ा हो जाता है, तो व्यक्ति तो मर जाता
है, मुल्लाओं और पंडितों की बन आती है। जीसस के पास ईसाई
पादरी इकट्ठा है और जीसस की आवाज को दुनिया तक नहीं पहुंचने देता। महावीर के पास
महावीर के गणधर इकट्ठे हैं और महावीर की आवाज, सच्ची आवाज,
सत्य की आवाज दुनिया तक नहीं पहुंचने देना चाहते। जैसे ही किसी
व्यक्ति के आस-पास संगठन बनता है, संप्रदाय बनता है, सत्य की हत्या हो जाती है।
मैंने सुना है, एक बार एक आदमी को सत्य मिल गया था, तो शैतान के शिष्यों ने, वे जो डिसाइपल्स ऑफ डेविल
हैं, उन्होंने भाग कर शैतान को अपने गुरु को खबर दी कि पता
है, तुम आराम से सो रहे हो, एक आदमी को
सत्य मिल गया है और हमारी सल्तनत डगमगाई जा रही है। कुछ करना चाहिए शीघ्रता से।
क्योंकि अगर आदमियों को सत्य मिल जाएगा तो शैतान का क्या होगा? शैतान ने कहा कि क्या करोगे, अब सत्य मिल चुका। तुम
पहले कहां थे, क्यों मुझे आकर पहले नहीं कहा, हम पहले ही सत्य मिलने में बाधा डालते। अब तो एक ही रास्ता है। अब तुम जाओ
शीघ्रता से गांव-गांव में और डंडे और घंटी लेकर पीटो, गांव-गांव
में यह आवाज कि फलां आदमी को सत्य मिल गया है जिनको भी चाहिए हो चलो। शैतान के
शिष्यों ने कहा, इससे क्या होगा? शैतान
ने कहा, पंडित और मुल्ले सुन लेंगे यह और जहां भी उन्हें पता
चला कि किसी आदमी को सत्य मिल गया है, पंडित और मुल्ले वहां
जाकर अड्डा जमा लेते हैं और एजेंट बन जाते हैं। जनता और सत्य के बीच में पंडित से
बड़ी दीवाल और कोई भी खड़ी नहीं की जा सकती है। तुम जाओ और जल्दी गांव-गांव में खबर
कर दो।
और मैंने सुना है कि शैतान के शिष्य गए और उन्होंने गांव-गांव में खबर
कर दी। हजारों लोग वहां से चलने लगे। उस सत्य के खोजी के पास, उसके आस-पास पंडितों की दीवाल खड़ी हो गई। व्याख्याकारों की, टीकाकारों की। वे कहने लगे, क्या चाहते हो, हम बताते हैं। वह आदमी उस भीड़ में दब गया। मंदिर बन गया वहां एक उसकी लाश
पर। हजारों लोग पूजा करते हैं उस आदमी की। उसकी किताबें हैं। लेकिन उस आदमी को,
जो सत्य मिला था, उसकी कोई किरण किसी तक अभी
तक नहीं पहुंच पाई है। दुनिया में सत्य की हत्या का एक ही उपाय है, सत्य की हत्या करना हो तो शीघ्रता से संप्रदाय बना दो। संप्रदाय बना कर
सत्य की हत्या हो जाती है। मैं तो मुल्ला नहीं हो सकता, मुश्किल
है, क्योंकि मैं किसी संप्रदाय को नहीं मानता हूं। लेकिन
स्वामी आनंद मुल्ला हो सकते हैं। गांधी का एक संप्रदाय बनाए हुए हैं। अन्यथा मेरी
बातों से इतनी पीड़ा और परेशानी की जरूरत न थी। मेरी बातों का उत्तर दें, मेरी बातों की चर्चा करें। मैं जो कहता हूं वह गलत हो सकता है, उसे गलत बताएं, समझाएं। लेकिन शांति से इसमें क्रोध
की क्या जरूरत है? क्रोध वहां आता है जहां वेस्टेट इंट्रेस्ट
हो, जहां न्यस्त कोई स्वार्थ हो, तब
क्रोध आता है, अन्यथा क्रोध की क्या जरूरत है? अन्यथा यह चिल्लाने की क्या जरूरत है कि मेरी किताबों को आग लगा दो। यह
कहने की क्या जरूरत है कि मुझे आने मत दो, सभा मत होने दो।
ये सारी बातें सुन कर मुझे दादा धर्माधिकारी एक घटना सुनाते थे, वह याद आई। वे मुझे कहते थे, मैं पंजाब में था और
पंजाब में सरदारों की एक सभा में बड़ा शोरगुल होता था। जहां दादा को बोलने बुलाया
था। जो अध्यक्ष थे उन्होंने डंडा उठा कर पटका जोर से टेबल पर और कहा, चुप होते हो कि नहीं, डंडे से सिर तोड़ दूंगा,
चुप हो जाओ। वह सभा एकदम चुप हो गई। फिर डंडा बजा कर उन्होंने कहा
कि अब सुनो। अब दादा धर्माधिकारी अहिंसा पर भाषण देंगे। तो दादा मुझसे कहते थे,
मैंने अपनी खोपड़ी ठोंक ली और मैंने कहा, क्या
खाक भाषण देंगे अहिंसा पर! डंडा बता कर कहता है वह आदमी कि चुप हो जाओ, नहीं तो खोपड़ी तोड़ देंगे! और फिर अहिंसा पर भाषण होता है! बड़ा सही
अहिंसावादी रहा होगा। गांधी की आलोचना करके अहिंसावादियों की असलियत का मुझे भी
पहली दफा पता चलना शुरू हुआ है कि उनकी असलियत क्या है! हाथ में उनके भी डंडे हैं
और अगर अहिंसा की बात नहीं मानेंगे आप, तो वे डंडे से आपको
अहिंसा की बात समझाएंगे।
लेकिन, यह देश अब बहुत दिन इस तरह के धोखों में नहीं रखा जा
सकता है। बहुत लंबी कथा है इसके धोखों की। बहुत लंबी यात्रा है इसके दुर्भाग्य की।
विचार के लिए आज तक इस देश में परिपूर्ण स्वतंत्रता नहीं मिली। इसलिए हम जगत में
पिछड़ गए हैं और पीछे पड़ गए हैं। हिंदुस्तान ने कभी भी तीव्र विचार के लिए निमंत्रण
नहीं दिया। कभी भी विचारपूर्ण विद्रोह के लिए साहस नहीं दिखाया। नये विचार से भय
दिखाया, घबड़ाहट दिखाई। हमेशा उसने यह मानना चाहा कि जो हमारी
पुरानी किताब में लिखा हो, वही सही होना चाहिए। पुराने ने
कुछ सही होने का ठेका ले लिया है! पुराना ही सत्य होना चाहिए, जैसे कि सत्य को जानने के लिए आगे कोई पैदा ही नहीं होगा। वे सब लोग पीछे
पैदा हो चुके जिन्होंने सत्य जाना। अब आगे? आगे लोग व्यर्थ
पैदा हो रहे हैं, उन्हें कोई अनुभव नहीं होगा, कोई सत्य नहीं होगा।
यह हमारी प्रवृत्ति कि सब कुछ पीछे हो चुका--सत्य भी हो चुका, स्वर्णयुग भी हो चुका, सब तीर्थंकर, सब महावीर, सब पैगंबर, सब पीछे
हो चुके। अब आगे कुछ होने को नहीं है। इस विचार ने ही कि सब विचार किया जा चुका,
अब आगे कुछ विचार करने को नहीं है--भारत ने विचार की हत्या कर दी।
नहीं, बहुत विचार करने को शेष हैं, बहुत
नई खोज होने को शेष हैं, बहुत से सत्यों का उदघाटन होगा,
जो नहीं हुआ। बहुत से पर्दे उठेंगे, बहुत से
रहस्य उदघाटित होंगे। जीवन समाप्त नहीं हो गया है, जीवन की
यात्रा जारी है। लेकिन अगर कोई कौम ऐसा समझ ले कि सब हो चुका, अब उस पर कोई विचार नहीं करना, आगे कुछ नया विचार हो
नहीं सकता, तो उस कौम की अगर प्रतिभा नष्ट हो जाए तो इसमें
आश्चर्य है!
भारत के पास अदभुत प्रतिभा थी। आज भी प्रतिभा है सोई हुई। लेकिन उसका
नया अवतरण, नया विकास, नया ऊर्ध्वगमन उस
प्रतिभा का नहीं हो पाता है, क्योंकि हमारी धारणा यह है कि
अब नया कुछ होने को नहीं है। जब नया कुछ होने को नहीं है, तो
नया नहीं हो सकेगा। क्योंकि हम जो विचार करते हैं, जो धारणा
बनाते हैं वैसा ही हमारा जीवन हो जाता है। न तो महावीर पर रुक गए हैं हम, न कृष्ण पर और न गांधी पर रुकने की कोई जरूरत है। जिंदगी रुकना जानती ही
नहीं। लेकिन जहां-जहां गुरुडम खड़ी हो जाती है वहीं जीवन की धारा को बांध बना कर
रोकने की कोशिश की जाती है कि बस यहीं, अब इससे आगे नहीं।
गांधी रुक जाएंगे, जीवन तो नहीं रुकेगा। मैं रुक
जाऊंगा, जीवन तो नहीं रुकेगा। आप रुक जाएंगे, जीवन तो नहीं रुकेगा। यह मोह बिलकुल पागल मोह है कि मैं रुकूं, उसी के साथ जीवन भी रुक जाए। यह बिलकुल पागल मोह है, यह बिलकुल ही विक्षिप्त मोह है। मैं रुक जाऊंगा, ठीक
है, लेकिन जीवन तो आगे जाएगा, जीवन नये
किनारे छुएगा, जीवन नये मार्ग चुनेगा, जीवन
नये अनुभव करेगा। मेरे अनुभवों के साथ जीवन सदा के लिए रुक जाए, यह जरूरी है, यह उचित है, यह
योग्य है? मैं कोई जीवन हूं पूरा? व्यक्ति
पैदा होते हैं और विलीन हो जाते हैं। समाज सतत चलता रहता है। लेकिन जिन समाजों के
मन में यह धारणा बैठ जाती है कि हम रुक जाएं अतीत पर, वे
समाज भविष्य की तरफ गति करना बंद कर देते हैं। उनका जीवन स्टेगनेंट, रुका हुआ, अवरुद्ध हो जाता है। जैसे गंगा रुक जाए,
रुका हुआ पानी गंदा हो जाता है। यह भारत का समाज इतना गंदा इसीलिए
हो गया है। यह समाज रुका हुआ पानी है। रुके हुए समाज का फिर जीवन आगे तो नहीं
बढ़ता। धूप पड़ती है, ताप पड़ता है, सड़ांद
आती है, गंदगी बढ़ती है, भाप बन कर पानी
उड़ता है और कीचड़ पैदा होती है और कुछ भी नहीं होता। कभी आपने किसी तालाब को सागर
तक पहुंचते देखा है? सरिताएं पहुंचती हैं सागर तक। सरिताएं
जो कि भागती हैं अज्ञात की तरफ--खोज करती हैं अनजान की, अननोन
की। डबरा तालाब का अपने में बंद होकर बैठ जाता है कहीं नहीं जाता, गोल घेरे में घूमता रहता है। अपना वाद का घेरा है, उसी
में घूमता रहता है। फिर वह सागर तक भी नहीं पहुंच पाता है। और जो जल सागर तक न
पहुंच पाए वह जल कभी भी असीम अनुभव को उपलब्ध नहीं हो पाता।
जीवन भी अनंत तक पहुंचने को है। व्यक्ति आएंगे, महान से महान व्यक्ति आएंगे और विलीन हो जाएंगे और जीवन की धारा आगे बढ़ती
रहेगी। कोई महापुरुष अधिकारी नहीं है कि जीवन की धारा को अपने पास रोक ले। लेकिन
महापुरुष रोकना भी नहीं चाहते। महापुरुष तो चाहते हैं कि जीवन की धारा आगे बढ़े। लेकिन
महापुरुषों के पास जो लघु मानव हैं, छोटे-छोटे मानव इकट्ठे
हो जाते हैं, वे जीवन की धारा को रोकने की कोशिश करते हैं।
क्योंकि उनकी कीमत तभी तक है जब तक जीवन उनके महापुरुष के पास रुका रहे। अगर जीवन
आगे बढ़ गया और महापुरुष भूल गए तो इन दीन-जनों का क्या होगा जो आस-पास बैठ कर
दुकान खोले हुए थे, इनका क्या होगा? इनकी
दुकान तभी तक चलेगी, जब जीवन इनके महापुरुष की लाश के पास
रुका रहे।
भारत ने यह भूल बहुत कर ली है। आगे यह भूल नहीं की जानी है। भारत का
सारा का सारा मस्तिष्क अतीतोन्मुख है, पीछे की तरफ देखता
है। आगे की तरफ देखता ही नहीं। रूस के बच्चे चांद पर बस्तियां बसाने का विचार करते
हैं और भारत के बच्चे? भारत के बच्चे रामलीला देखते हैं! कब
तक हम रामलीला देखते रहेंगे? कितनी बार रामलीला देखी जा चुकी
है? राम बहुत प्यारे हैं, लेकिन कितनी
बार? क्या हम यही करते रहेंगे? क्या
हमारी चेतना एक वर्तुल में घूमती रहेगी? क्या हम आगे नहीं
बढ़ेंगे? कोई नई लीलाएं नहीं होंगी जगत में? कोई नये राम पैदा नहीं होंगे? कोई नया कृष्ण नहीं
होगा? बस, पीछे और पीछे? भगवान ने बड़ी भूल की है भारत के साथ, उसकी बड़ी कृपा
होती अगर वह भारतीयों की आंखें खोपड़ी में सामने की तरफ न लगा कर पीछे की तरफ
लगाता। उससे हमको बड़ी सुविधा होती। उससे हम निरंतर पीछे की तरफ देखने में समर्थ हो
जाते। लेकिन भगवान बड़ा नासमझ है। हम उसकी नासमझी को बर्दाश्त थोड़े ही करते हैं,
हम अपनी खोपड़ी पीछे की तरफ मोड़ कर, पीछे की
तरफ देखते चले जाते हैं, अगर कभी भारत ने अपनी कारें बनाईं,
अभी तो पश्चिम की नकल करनी पड़ती हैं हर बात में, तो हम कारों का लाइट पीछे की तरफ लगाएंगे, आगे कभी
नहीं लगा सकते। क्योंकि आगे की कार तो पश्चिम की कार है, शुद्ध
भारतीय कार में पीछे की तरफ लाइट होगा। चलना आगे है वह तो ठीक है, लेकिन देखना तो पीछे है। जहां उड़ती धूल रह जाती है, उसे
देखना है। जहां से रथ गुजर गए, उनकी उड़ती धूल देख रहे हैं।
राम का रथ निकल चुका, महावीर का रथ निकल चुका, गांधी का रथ निकल चुका। कब तक उस धूल को देखते रहेंगे? कब तक उस धूल को पूजते रहेंगे? आगे नहीं बढ़ना है?
और ध्यान रहे, जीवन जाता है सदा आगे की तरफ। जीवन कभी पीछे की तरफ
नहीं लौटता है, नहीं लौट सकता है। कोई मार्ग नहीं है पीछे,
पीछे सिर्फ स्मृति है, कोई मार्ग नहीं। पीछे
हम याद कर सकते हैं, पीछे जा नहीं सकते। समय में एक क्षण भी
तो पीछे नहीं लौटा जा सकता। एक क्षण को भी तो हम पीछे नहीं जा सकते। जो समय का
क्षण बीत गया, उसमें अब हम कभी भी नहीं जा सकेंगे, सदा को बीत गया, उसमें लौटने का कोई उपाय ही नहीं
है। वह सेतु गिर गया, वह मार्ग नष्ट हो गया। वहां हम कभी भी
नहीं जा सकते। पास्ट में, अतीत में जाने का कोई द्वार ही
नहीं है और जब अतीत में हम जा नहीं सकते, तो हम एक काम कर
सकते हैं; अतीत की स्मृति कर सकते हैं, याद कर सकते हैं।
लेकिन ध्यान रहे, जितनी हमारी ऊर्जा अतीत की
स्मृति में और याद में नष्ट होती है, उतनी ही ऊर्जा भविष्य
में जाने के लिए कम पड़ जाती है। जितनी हमारी दृष्टि अतीत से बंध जाती है, उतना ही हम आगे की तरफ देखने में असमर्थ हो जाते हैं। और यह भी ध्यान रहे,
चलना आगे है और देखना अगर पीछे रहा, तो गङ्ढों
में गिरे बिना कोई रास्ता नहीं रहेगा। गङ्ढों में गिरना पड़ेगा। भारत सैकड़ों बार
गङ्ढों में गिरता रहा है। हजार बार गङ्ढों में गिरा है। दुर्घटनाओं के सिवाय हमारी
लंबी कथा में और क्या है? कितनी गुलामी, कितनी दीनता, कितनी दरिद्रता! लेकिन हमारी आदत पीछे
देखने की कायम, बरकरार है। पीछे देखते हैं। आगे चलते हैं।
गिरेंगे नहीं तो और क्या होगा?
एक ज्योतिषी यूनान में एथेंस के पास एक गांव से गुजरता था। सांझ थी।
चांद उगा होगा आकाश में आज जैसा। वह चांद को देखता था, तारों को देखता था, एक गङ्ढे में गिर पड़ा। आकाश की
तरफ देख रहा था, जमीन का गङ्ढा नहीं दिखाई पड़ा होगा। एक बूढ़ी
औरत ने उसे गङ्ढे से निकाला। उसके दोनों पैर टूट गए थे। उसने उस बूढ़ी औरत को
धन्यवाद दिया और कहा कि मां, बहुत-बहुत धन्यवाद! मैं तेरी
क्या सेवा कर सकता हूं? इतना मैं कहता हूं, शायद तुझे पता नहीं होगा, मैं यूनान का सबसे बड़ा
ज्योतिषी हूं। अगर तुझे चांदत्तारों के संबंध में कुछ भी जानना हो तो मेरे पास आ
जाना।
उस बूढ़ी औरत ने कहा, पागल, मैं
तेरे पास चांदत्तारों के संबंध में पूछने आऊंगी? जिसे अभी
जमीन के गङ्ढे नहीं दिखाई पड़ते, उसके चांदत्तारों के देखने
का कोई भरोसा है? उसका कोई विश्वास किया जा सकता है? पहले बेटे जमीन के गङ्ढे देखने सीखो, फिर आकाश के
चांदत्तारे देखना। ठीक ही कहा उस बूढ़ी औरत ने। अभी जमीन का गङ्ढा न दिखाई पड़ता हो
तो चांदत्तारों के ज्ञान का भरोसा क्या है?
जिन्हें आगे हाथ भर नहीं दिखाई पड़ता वे हजारों मील पीछे की यात्रा की
कथाएं दोहरा रहे हैं। इतिहास की धूल, बीत गए रथों के
चक्कों के चिह्न, उन्हीं पर हम रुके हैं। दुर्भाग्य है,
इसीलिए दुर्भाग्य है, इसलिए भविष्य में रोज
टकरा जाते हैं। इसलिए भविष्य को हम निर्मित नहीं कर पाते। भविष्य का क्षण आ जाता
है और हम बिलकुल अनजान, बेहोश खड़े रह जाते हैं। जब क्षण आकर
पकड़ लेता है, तब हम चौंक कर खड़े हो जाते हैं। हमारी समझ में
नहीं आता क्या करें? हमारे खयाल में नहीं आता। जब तक हम सोच
पाते हैं समय बीत जाता है। समय किसकी प्रतीक्षा करता है? समय
रुका नहीं रहता, जो उसे पहले से तैयारी करते हैं, वे उस समय का उपयोग कर पाते हैं। जो उसके सामने बैठे रहते हैं, जब समय आ जाता है...हम उस तरह के लोग हैं, घर में आग
लग जाती है तब हम कुआं खोदने बैठ जाते हैं। हम कहते हैं, आग
लग गई है, अब कुआं खोदना चाहिए। जब तक हम कुआं खोद पाते हैं,
तक तक घर कभी का जल कर राख हो जाता है। घर में आग लगती हो तो कुआं
तैयार होना चाहिए, तब आग बुझाई जा सकती है। लेकिन हमें
फुर्सत कहां कि हम भविष्य के कुएं निर्मित करें, हमें फुर्सत
कहां, हमें ध्यान कहां, हमारी कल्पना
नहीं जाती वहां। पीछे और पीछे!
गांधी ने पुनः पीछे की दृष्टि हमें फिर से पकड़ा दी। गांधी कहने लगे, राम-राज्य चाहिए। बड़ी अजीब बात है। राम बहुत प्यारे हैं, लेकिन राम-राज्य? राम-राज्य बिलकुल बात दूसरी है।
गांधी को राम से बहुत प्रेम था, उचित ही है। राम जैसे
व्यक्ति से प्रेम किया जा सकता है। प्रेम भारी रहा होगा। उनके प्राण में, रग-रग में राम भर गए थे। गोली लगी गोडसे की, तो न तो
मां की याद आई, न पिता की याद आई, न
गांधीवादियों की याद आई। याद आई राम की। राम! प्राणों के प्राण में वह आवाज घुस गई
होगी, वह प्रेम घुस गया होगा। गोली प्राणों में पहुंची तो
वहां राम के सिवाय कुछ भी नहीं पाया उस समय। राम से उनका बहुत प्रेम था और उसी
प्रेम के वश वे राम-राज्य की बातें करने लगे। लेकिन, राम से
प्रेम ठीक है, राम-राज्य से प्रेम खतरनाक बात है।
राम-राज्य पूंजीवाद से भी पिछड़ी हुई व्यवस्था है, फ्यूडेलिज्म है, सामंतवाद है। राम-राज्य भविष्य की
समाज-योजना नहीं है। अतीत, पिछड़े हुए, बीते
हुए, जा चुके जीवन की व्यवस्था है। राम-राज्य नहीं लाना है
हमें, लाना है भविष्य का राज्य। राम-राज्य तो बीत गया। एक तो
हम लाना भी चाहें तो नहीं ला सकते। और अगर हम ला भी सकते हों तो हमें कभी लाने का
विचार भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि राम-राज्य तो पिछड़ा हुआ, आज
से भी बदतर समाज और जीवन-व्यवस्था है। करोड़ों-करोड़ों गुलाम हैं। स्त्रियों की
इज्जत कितनी रही होगी, वह सीता की इज्जत से पता चल जाता है।
एक साधारण से आदमी की आवाज से सीता को उठा कर फेंका जा सकता है जंगलों में। साधारण
स्त्री की क्या हैसियत रही होगी? स्त्री की यह हैसियत है!
रात बहुत प्यारे हैं। और यह ध्यान रहे, कि यह भूल हम हमेशा करते
हैं। हम क्या भूल करते हैं, वह भूल हमें समझ लेनी चाहिए ताकि
आगे हम न कर सकें। दो हजार साल बाद न तो मुझे कोई याद रखेगा, न आपको कोई याद रखेगा, लेकिन गांधी याद रह जाएंगे।
दो हजार साल बाद लोग सोचेंगे, कितना महान व्यक्ति था गांधी,
इतने ही महान लोग गांधी के समाज के लोग भी रहे होंगे। हम तो भूल
जाएंगे। हमारी तो कोई रूपरेखा नहीं छूट जाएगी। हमारे तो कोई पदचिह्न कहीं भी दिखाई
नहीं पड़ेंगे। हमारी तो कोई आकृति कहीं नहीं रह जाएगी। कैसे जीते थे हम, किन वासनाओं से भरे हुए, किन क्रोध से, किन घृणाओं से, किन हत्याओं से भरा हमारा जीवन था,
वह सब विलीन हो जाएगा, हवा में धुआं हो जाएगा।
गांधी की प्रतिमा रह जाएगी। दो हजार साल बाद लोग सोचेंगे, गांधी
का समाज कितना अच्छा रहा होगा। गलती बात सोच लेंगे वे।
गांधी हमारे प्रतिनिधि नहीं थे, अपवाद थे, एक्सेप्शन थे। हम गांधी जैसे नहीं हैं। हमारा गांधी से कुछ लेना-देना नहीं
है। हम गांधी से बिलकुल उलटे हैं। लेकिन दो हजार साल बाद जिससे हम बिलकुल उलटे हैं
उसी आदमी से हम जाने जाएंगे। हमारे युग को गांधी-युग कहा जाएगा। हमें कहा जाएगा,
गांधी-युग के लोग कैसे अदभुत रहे होंगे। और गांधी के आधार पर तर्क हमारे
बाबत अनुमान करेगा, वह अनुमान जितना झूठा होगा उतना ही
राम-राज्य के बाबत हमारा अनुमान झूठा है। राम बहुत प्यारे हैं, राम का समाज नहीं। बुद्ध बहुत प्यारे हैं, बुद्ध का
समाज नहीं। क्राइस्ट बहुत प्यारे रहे होंगे, क्राइस्ट का
समाज नहीं। एक-एक व्यक्तियों के आधार पर पूरे समाज का निर्णय लेने की भूल बहुत हो
चुकी, आगे यह भूल नहीं होनी चाहिए। और फिर ध्यान रहे,
हमें यह भी समझ लेना जरूरी है, गांधी इतने बड़े
महापुरुष दिखाई पड़ते हैं इसीलिए कि गांधी अकेले हैं। अगर दस-पच्चीस हजार गांधी
भारत में हों, तो मोहनदास करमचंद्र गांधी कौन हैं--पहचानना
आसान होगा? राम दिखाई पड़ते हैं हजारों साल के बाद इसीलिए कि
राम अकेले रहे होंगे। अगर हजार दो हजार राम जैसे सच्चे और अच्छे आदमी होते तो राम
की याद रह जाती?
एक स्कूल में शिक्षक काले बोर्ड पर, ब्लैक-बोर्ड पर सफेद
खड़िया से लिखता है, सफेद दीवाल पर क्यों नहीं लिखता है?
सफेद दीवाल पर लिखेगा तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता। काले तख्ते पर लिखता
है तो खड़िया सफेद उभर कर दिखाई पड़ती है। महापुरुष समाज के ब्लैक-बोर्ड पर उभर कर
दिखाई पड़ते हैं, अन्यथा दिखाई नहीं पड़ सकते। जिस दिन समाज
महान होगा उस दिन महापुरुषों को खोजना बहुत मुश्किल हो जाएगा। समाज क्षुद्र है,
नीचा है, इसीलिए महापुरुष दिखाई पड़ते हैं।
महापुरुष इतना बड़ा जो दिखाई पड़ता है, वह हमारी क्षुद्रता के
अनुपात में दिखाई पड़ता है। जिस दिन महान मनुष्यता पैदा होगी, उस दिन महापुरुषों का युग समाप्त समझ लेना चाहिए। मनुष्यता क्षुद्र है,
दीन-हीन है इसलिए महापुरुष दिखाई पड़ते हैं। महापुरुष तो हमेशा पैदा
होते रहेंगे, लेकिन महान मनुष्य के बीच उनका कोई पता लगाना
आसान नहीं रह जाएगा।
तो मैं कहता हूं कि राम दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि समाज राम से
विपरीत रहा होगा। बुद्ध दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि बुद्ध से
विपरीत समाज रहा होगा। बुद्ध की सफेद उज्ज्वल रेखा किसी काले समाज के ब्लैक-बोर्ड
के सिवाय दिखाई नहीं पड़ सकती थी। फिर यह भी ध्यान रख लेना जरूरी है कि अगर हम
बुद्ध की, महावीर की, राम की, कृष्ण की, लाओत्से की, कनफ्यूशियस
की, जरथुस्त्र की शिक्षाओं को देखें, तो
उन शिक्षाओं से बहुत-कुछ नतीजे लिए जा सकते हैं।
एक बड़े मजे की बात है, वह हम कभी ध्यान ही
नहीं देते। महावीर सुबह से सांझ तक लोगों को समझाते हैं: हिंसा मत करो, हिंसा मत करो। अहिंसा! अहिंसा! इसका क्या मतलब है? इसका
मतलब है कि लोग अहिंसक थे? लोग अहिंसक थे तो महावीर पागल थे
जो उनको समझा रहे थे कि हिंसा मत करो। बुद्ध सुबह से सांझ तक समझा रहे हैं: चोरी
मत करो, झूठ मत बोलो, बेईमानी मत करो,
परस्त्री का गमन मत करो। किसको समझा रहे हैं? लोग
अगर अच्छे थे, समाज अगर शुभ था, तो ये
शिक्षाएं किसके लिए हैं? ये शिक्षाएं बताती हैं कि आदमी कैसे
रहे होंगे। जिनको ये शिक्षाएं दी जा रही थीं वे आदमी कैसे रहे होंगे? वे ही शिक्षाएं हमें आज देनी भी पड़ रही हैं। जो शिक्षाएं तीन हजार वर्ष
पहले लागू थीं, वे ही आज भी लागू हैं। इससे सिद्ध होता है कि
समाज जैसा आज है, तीन हजार वर्ष पहले भी ऐसा ही था। समाज
ऊंचा नहीं था। समाज में बुनियादी कोई फर्क नहीं पड़ गया। और ये लेकिन हमारे खयाल
में नहीं आ पाता कि शिक्षाएं किन्हें देनी पड़ती हैं, किसको
देना पड़ती हैं?
एक चर्च में एक फकीर बोलने गया था। चर्च के लोगों ने कहा था सत्य के
संबंध में हमें कुछ समझाओ। उस फकीर ने कहा, सत्य के संबंध में?
लेकिन यह तो चर्च है, यहां सत्य के संबंध में
समझाने की जरूरत क्या? यहां तो सत्यवादी लोग ही आए होंगे,
क्योंकि मंदिरों में, चर्चों में सत्यवादी ही
आते हैं। लेकिन लोग नहीं माने, उन्होंने कहा कि नहीं-नहीं,
आप तो सत्य के संबंध में हमें समझाइए। वह फकीर खड़ा हुआ। उसने मंच पर
खड़े होकर पूछा कि इसके पहले कि मैं कुछ कहूं, मैं थोड़ी
जांच-परख कर लेना चाहता हूं। मैं तुमसे यह पूछता हूं कि मित्रो, तुम बाइबिल तो सब पढ़ते हो? उन सबने हाथ हिलाया कि हम
बाइबिल पढ़ते हैं। उस फकीर ने पूछा कि तब मैं तुमसे यह पूछता हूं, तुमने बाइबिल में ल्यूक का उनहत्तरवां अध्याय पढ़ा है? उन सबने हाथ हिलाए, सिर्फ एक आदमी को छोड़ कर जो
सामने बैठा था। उन्होंने कहा, हां, हमने
पढ़ा है। वह फकीर हंसने लगा, उसने कहा कि अब मैं सत्य के
संबंध में बोलूंगा, क्योंकि मैं तुम्हें बता दूं, ल्यूक का उनहत्तरवां अध्याय जैसा कोई अध्याय बाइबिल में है ही नहीं। और
तुम सब कहते हो, हमने पढ़ा है। तब ठीक है। फिर सत्य के संबंध
में बोलने में कुछ सार है। लेकिन उस फकीर ने कहा, यह जो आदमी
सामने बैठा है, यह बड़ा अदभुत आदमी मालूम पड़ता है। आश्चर्य!
मेरे दोस्त तुम चर्च में आ कैसे गए? क्योंकि चर्च में
धार्मिक आदमी शायद ही जाते हों। तुम मंदिर आ कैसे गए? मंदिर
का धार्मिक लोगों से संबंध ही नहीं रहा है कभी, तुम आए कैसे?
तुम चुप कैसे बैठे हो? तुमने हाथ क्यों नहीं
उठाया? उस आदमी ने कहा, महाशय, जरा जोर से बोलिए, मुझे कम सुनाई पड़ता है। क्या आप
कहते हैं उनहत्तरवां अध्याय ल्यूक का? रोज पढ़ता हूं, पढ़ता नहीं; रोज पाठ करता हूं। मैं समझा नहीं,
इसलिए मैं चुपचाप रहा कि कोई झंझट में न पड़ जाऊं।
समाज की शिक्षाएं समाज की खबर लाती हैं कि कैसे लोग होंगे। शिक्षाएं
उन्हें देनी पड़ती हैं जो शिक्षाओं के प्रतिकूल होते हैं। जिस दिन दुनिया पर धर्म आ
जाएगा उस दिन धर्म की शिक्षाओं को देने की आवश्यकता कम हो जाएगी। जिस गांव में
मरीज कम हों वहां डाक्टर बसने की कोशिश नहीं करेंगे। जिस गांव में स्वास्थ्य हो उस
गांव में चिकित्सक की क्या जरूरत होगी? हम बहुत गौरवांवित
होते हैं यह बात कह कर कि दुनिया के तीर्थंकर, बुद्ध और
अवतार हमारे यहां ही पैदा होते हैं। थोड़ा समझ-सोच कर इसमें गौरव अनुभव करना। यह इस
बात का सबूत है कि हमारा समाज एक अधार्मिक समाज है, जहां
धार्मिक शिक्षक को बार-बार पैदा होने की जरूरत पड़ती है। यह सबूत गौरव का नहीं है।
किसी घर में रोज-रोज डाक्टर आता हो तो मोहल्ले में यह नहीं कह सकता कि हमारे घर
में बड़े स्वस्थ लोग हैं, हमारे यहां डाक्टर रोज आता है।
धर्मगुरुओं की इतनी लंबी कतारें इस बात की खबर हैं कि यह समाज अधार्मिक समाज है और
अगर हम पीछे लौटने की बात करते हैं तो हम मुल्क को आत्महत्या सिखा रहे हैं,
स्युसाइड सिखा रहे हैं। मुल्क मर जाएगा पीछे लौटने की बातों में।
क्योंकि पीछे तो लौट नहीं सकता, लौटने की कोशिश में और
नासमझी के प्रयास में वह आगे नहीं जा सकेगा जहां जा सकता था।
नहीं, राम-राज्य नहीं, चाहिए भविष्य
का समाज। लौटा हुआ, बीता हुआ, गया हुआ
सामंतवादी समाज नहीं, चाहिए शोषण से मुक्त वर्ग-विहीन आगे का
समाज, भविष्य का समाज। लौटना नहीं है पीछे, जाना है आगे। लेकिन, हमारी सारी प्रवृत्ति, हमारा सारा चिंतन, हमारी सारी बुद्धि, हमारे व्यक्तित्व का सारा निर्माण, हमारी सारी
कंडीशनिंग, हमारे सारे संस्कार पीछे ले जाने वाले हैं,
आगे ले जाने वाले नहीं हैं। इसीलिए भारत में कोई क्रांति नहीं हो
पाती है। क्रांति का मतलब होता है आगे जाना। जो आगे जाना ही नहीं चाहते वे क्रांति
कैसे करेंगे? इसलिए भारत के पांच हजार वर्षों में क्रांति का
कोई भी उल्लेख नहीं है। इतने संत, इतने महात्मा, इतने विचारक! लेकिन विद्रोह? विद्रोह बिलकुल भी नहीं,
विद्रोह जरा भी नहीं, रिबेलियन जैसी चीज ही
नहीं। विद्रोह तो वे करते हैं, जो आगे जाना चाहते हैं। जो
आगे जाना चाहते हैं, उन्हें अतीत को इनकार करना पड़ता है। जो
आगे जाना चाहते हैं, उन्हें पिछली जड़ों को काटना पड़ता है। जो
आगे जाना चाहते हैं, उन्हें पीछे का मोह छोड़ना पड़ता है,
तब वे आगे जा पाते हैं। लेकिन हम? अगर हमारा
वश चले तो हम अपनी मां के गर्भ में ही रह जाएं, वहां से भी बाहर
न निकलें। अगर कोई बच्चा सच्चा भारतीय हो तो उसे इनकार कर देना चाहिए कि मैं मां
के गर्भ के बाहर नहीं आता। मां के गर्भ में बड़ी शांति से जी रहा हूं, संतोष से। इतना सुख कहां मिलेगा? मिलता भी नहीं।
कितने ही अच्छे मकान बनाओ, कितनी ही अच्छी कोच बनाओ, कितने ही अच्छे गद्दे और तकिए लगाओ; मां के पेट में
जो कम्फर्ट, जो सुख, जो सुविधा,
जो शांति है वह कहां मिलेगा?
मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि मां के पेट में बच्चा जो सुख जान लेता है, उसी सुख के कारण वह उसी तरह की चीजें बनाता चला जाता है। ये इतने मकान,
अच्छे गद्दे, तकिए, कारें,
इन सबके भीतर खोज यह चल रही है कि मां के गर्भ में जैसी शांति और
सुख मिलता था, वैसा मिल जाए। लेकिन बच्चे को मां के पेट के
बाहर आना पड़ता है। बड़ी रेवोल्यूशन हो जाती है, बड़ी क्रांति
हो जाती है, सारा जीवन अस्तव्यस्त हो जाता होगा, क्योंकि न वहां खाने की फिक्र थी, न नौकरी की,
न इंप्लाइमेंट की, न कोई और झंझट थी। वहां
सारा जीवन चुपचाप चलता था और चौबीस घंटे तंद्रा में, निद्रा
में सोने का आनंद था। वह कोई दुख न था, सब सुख था।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मोक्ष का खयाल गर्भ के अनुभव से ही पैदा हुआ है। वहां सब
कुछ था, कुछ कमी न थी। वही मन में कहीं स्मृति में मनुष्य की
गहरे में गूंजता रहता है कि कोई एक ऐसी जगह होनी चाहिए जहां सब सुख होगा, कोई दुख नहीं होगा। कोई एक ऐसा स्थान होना चाहिए जहां सब शांति होगी,
कोई अशांति नहीं होगी। कोई एक ऐसा स्थान होना चाहिए जहां कुछ भी नहीं
करना पड़ेगा और सब हो जाएगा। वही कहीं बीज में छिपी हुई स्मृति मां के गर्भ की है।
लेकिन बच्चा अगर कह दे कि नहीं जाता हूं यात्रा पर जीवन की, तो
क्या होगा उसका अर्थ? मां को उसे छोड़ना पड़ता है, मां से अलग खड़ा होना पड़ता है। थोड़े दिन मां से चिपटा रहता है, फिर अपने पैर से चलने लगता है, फिर धीरे-धीरे मां और
उसके बीच फासला पैदा होता चला जाता है। फिर कल एक और स्त्री उसके जीवन में आएगी और
शायद मां को वह भूल जाएगा। वह अपनी यात्रा पर जा चुका जहां वह मां से पूरी तरह
स्वतंत्र हो गया है। जीवन की यात्रा आगे की तरफ है, आगे की
तरफ है, रोज आगे की तरफ है। पिछला छोड़ देना पड़ता है, चाहे कितना ही सुविधापूर्ण रहा हो। आगे की असुविधाएं झेलनी पड़ती हैं ताकि
हम और नई सुविधाओं के जीवन को उपलब्ध हो सकें। पिछला कितना ही अच्छा घर रहा हो,
उसे छोड़ देना पड़ता है ताकि अनजान और नये घर हम बना सकें।
जीवन की खोज निरंतर अतीत से मुक्त होने की खोज है। और भारत के लिए
चिंता करने जैसी बात है। भारत अतीत से चिपटा हुआ है। उसका मन वहीं रुका रह गया है।
उसने जोर से पकड़ लिया अतीत को। वह मां के गर्भ को पकड़े है और कहता है कि नहीं, हम यहां से आगे नहीं जाएंगे। इस वजह से हम सिकुड़ गए हैं, इस वजह से हमारी ऊर्जा क्षीण हुई है, इस वजह से
हमारी प्रतिभा नष्ट हुई है, इस वजह से हम बौने हो गए हैं,
इस वजह से हम सिर उठा कर अज्ञात की यात्रा पर जाने में भयभीत हैं,
डर लगता है, अनजान, घबड़ाहट
लगती है। अपने घर में रहो। यह प्रवृत्ति ने ही भारत को हिंदुस्तान के भीतर कैद कर
दिया। भारत नहीं जा सका विस्तार पर। लेकिन अपने को समझाने की हम बहुत होशियारी की
बातें खोजते हैं। हम कहते हैं, हम आक्रमण नहीं करना चाहते
हैं, इसलिए हम अपने घर में बैठे रहते हैं। हम अहिंसक हैं
इसलिए हम कहीं नहीं जाना चाहते। लेकिन अहिंसक से अहिंसक आदमी को जरा सा उकसा दो और
उसके भीतर से खूंखार आदमी खड़ा हो जाता है। अहिंसक आदमी को जरा सा कुछ कह दो और
उसके भीतर से क्रोध उबलने लगता है। कैसा अहिंसक आदमी है! कैसी है यह अहिंसा!
चीन का हमला हुआ, पाकिस्तान का हमला हुआ और अहिंसक
आदमी को आप देख लेते कि अहिंसा कहां गई। उखड़ आई सारी की सारी। भीतर तो कुछ भी नहीं
है। हिंदुस्तान में कवि कविताएं करने लगे कि सिंहों को छेड़ो मत, हम बब्बर शेर हैं। लेकिन घर के बाहर कविता सुना रहे हैं लोगों को, कहीं जा नहीं रहे हैं। सारा हिंदुस्तान कविता कर रहा है जैसे कि कविताओं
से कोई युद्ध जीते जा सकते हैं। दुनिया में ऐसा कविताओं का बुखार, जुनून कभी भी नहीं आया होगा जैसा हिंदुस्तान में आया। गांव-गांव में कवि
पैदा हो गए, जैसे बरसात में मेंढक पैदा हो जाते हैं और वे सब
कहने लगे कि हम शेर हैं, सोते हुए शेर को मत छेड़ो। तुम्हारी
कविताओं से तुम शेर सिद्ध हो जाओगे? तुम्हारी यह जो बहादुरी
तुम कविताओं में बता रहे हो और कवि-सम्मेलन के मंच पर हाथ-पैर फेंक रहे हो,
इससे कुछ हो जाएगा? नहीं, हिंसा तो भीतर बहुत है, लेकिन साहस भी नहीं है बाहर
जाने का। तो वह हिंसा कहीं कविताओं में निकलती है, कहीं
बातचीत में निकलती है, क्षुद्रता में निकलती है। लेकिन,
बाहर हम नहीं गए इस देश के। उसका कारण यह था कि हम पकड़ते हैं,
रुकते हैं। गांव का आदमी गांव में रुक जाता है, शहर में नहीं जाना चाहता। डरता है, कहां जाए। जो
आदमी एक छोटी दुकान करता है उसी पर रुक जाता है। किसी तरह इसी में गुजरा कर लेंगे,
कहां जाएं, कहां कौन झंझट ले, कौन अनजान, अपरिचित में उतरे।
सारी दुनिया विकसित हुई है, वह इसलिए कि वह अनजान
और अपरिचित में जाने को आतुर हैं। जब भी उन्हें मौका मिल जाए अनजान में जाने का,
वे जाने-माने को छोड़ कर अनजान में चले जाएंगे। और हम हैं, मजबूरी में ही जाना पड़े तो बात दूसरी, जब तक हमारी
सामर्थ्य चलेगी हम जाने-माने को पकड़ कर रुके रहेंगे। यह स्थिति शुभ नहीं है,
यह मंगलदायी नहीं है। इसी के कारण हम पीछे-पीछे लौट कर पकड़ते हैं।
अगर मैं कोई बात कहूं तो आप कहेंगे, यह आदमी अनजाना, पता नहीं यह आदमी कौन है, क्या है? इसकी बात मानना ठीक है क्या? अपने कृष्ण की बात ठीक
है, तीन हजार साल से सुनते हैं, वही
ठीक होनी चाहिए। और इसलिए हिंदुस्तान में अगर किसी को नई बात भी कहनी हो तो उसको
एक झूठ का आडंबर पहनाना पड़ता है। उसे कहना पड़ता है, जो मैं
कह रहा हूं यही गीता में भी कहा हुआ है, तब कहीं वह बात
स्वीकृत होगी, नहीं तो नहीं। अजीब बेईमानियों करवाना चाहते
हैं। जब वह पहले यह सिद्ध करे कि यह गीता में कहा हुआ है तब कोई सुनने को राजी
होगा। कि तब ठीक है, तब बोलो, तब
पुराना परिचित ही बोल रहे हो, फिर कोई डर नहीं है तुमसे।
इसीलिए हिंदुस्तान में हजारों गीता की टीकाएं हो गईं। गीता की कोई एक
टीका की भी जरूरत नहीं है। गीता इतनी साफ किताब है, इतनी स्पष्ट, कि गीता की किसी टीका की जरूरत नहीं है। टीकाकार और धुआं पैदा कर देगा।
गीता को समझाने के लिए टीकाकार की जरूरत है? कृष्ण ने इतनी
स्पष्ट बात कही है, इतनी सीधी, कि अब
यह टीकाकारों की क्या जरूरत है? लेकिन एक हजार टीकाएं हैं और
हजार मतलब वाली। इससे क्या सिद्ध होता है? इससे दो ही बातें
सिद्ध होती हैं--या तो कृष्ण का दिमाग खराब रहा हो कि एक ही बात में हजार मतलब रहे
हों, कोई मतलब ही नहीं रहा, मतलब यह
रहा। हजार मतलब जिस बात के हों उसमें कोई मतलब ही न रहा। और या फिर, ये हजार टीकाकार क्या कह रहे हैं? ये जो कहना चाहते
हैं उसको जबरदस्ती बेचारे कृष्ण के ऊपर थोप रहे हैं, इसलिए
हजार टीकाएं पैदा हो गईं। नहीं तो हजार टीकाओं की क्या जरूरत है? जो इन्हें कहना है, सीधा नहीं कह सकते। क्योंकि यह
मुल्क सुनेगा ही नहीं, ये नये को सुनने को राजी नहीं। उसको
गीता में प्रवेश करके और उसको गीता की शकल में लाकर खड़ा करना पड़ेगा। जब वह बिलकुल
गीता की बात जंचने लगेगी तब कोई मानेगा। और इसमें गीता के साथ जो हत्या हो रही,
जो अत्याचार हो रहा, वह चलेगा। गीता की जो
शुद्धि है वह नष्ट होगी।
अभी मेरे खिलाफ जो लोगों ने इधर लिखा, उन्होंने क्या कहा?
उन्होंने कहा कि गांधीजी विनम्र थे। वे कभी यह नहीं कहते थे कि यह
मैं कह रहा हूं। वे कहते थे, यह गीता में लिखा है, यह महावीर ने कहा है, यह टालस्टाय कहता है, यह रस्किन कहता है, यह श्रीमद्राजचंद्र कहते हैं।
मैं तो वही कह रहा हूं जो सदा कहा हुआ है। यह विनम्रता नहीं है, यह इस मुल्क के बुनियादों रोगों में से एक रोग है। जो मैं कह रहा हूं,
वह मुझे कहना चाहिए कि मैं कह रहा हूं, चाहे
वह गलत हो, चाहे वह सही हो। मैं जो कह रहा हूं उसे कृष्ण के
ऊपर थोपना अन्याय है। यह बिलकुल क्राइम है कि मैं कहूं कि वह कृष्ण कर रहे हैं।
मुझे क्या पता कि कृष्ण क्या कह रहे हैं? कृष्ण के अतिरिक्त
और कोई दावा नहीं कर सकता है इस बात के कहने का कि कृष्ण क्या कह रहे हैं! कौन
दावा करेगा? कृष्ण की चेतना जिसके पास न हो, वह कैसे जानेगा कि कृष्ण क्या कह रहे हैं? क्यों
फिजूल कृष्ण के ऊपर सवारी करते हो? क्यों किसी के कंधे पर
सवार होते हो? अपने दो छोटे पैरों से ही खड़े हो जाओ। यह
अहंकार हो गया! अपने पैर पर खड़ा होना अहंकार है और कृष्ण के कंधों पर खड़े हो जाना
अहंकार नहीं है। कृष्ण के कंधों पर खड़े होकर आसानी से आप ज्यादा ऊंचे दिखाई पड़ोगे,
अपने पैरों पर खड़े होकर उतने ही ऊंचे दिखाई पड़ोगे जितने आप हो।
अहंकार किसमें ज्यादा सिद्ध होगा? परंपरा का सहारा
अहंकार की पुष्टि के लिए लिया जा सकता है। और या फिर, लोग
इतने नासमझ हैं कि वे सुनने को ही राजी नहीं नये को। इसलिए पुरानी शराब की बोतल
में नई शराब भर कर पिलानी पड़ेगी। नहीं, मैं इनकार करता हूं
इस बात को, क्योंकि यह पूरे मुल्क की प्रतिभा को नुकसान
पहुंचाने की तरकीबें हैं। मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि हमें ईमानदारी से,
स्पष्टता से यह कहना चाहिए कि यह मैं सोचता हूं ऐसा, वह गलत हो सकता है, वह सही हो सकता है। यह मूल्यवान
नहीं है, लेकिन मूल्यवान यह है कि हम अपने तईं सोचना शुरू
करें। हम कब तक कृष्ण और महावीर और बुद्ध को सताते रहेंगे। अगर वे कहीं मोक्ष में
होंगे तो बहुत परेशान हो गए होंगे। रोज उनकी टांग खींचो और उनको जमीन पर लाओ। उनकी
हुज्जत हो गई होगी, घबड़ा गए होंगे कि कहां के दुष्टों के
मुल्क में पैदा हो गए कि सुबह-सांझ परेशान किए रहते हैं। नहीं परेशान हो गए होंगे?
और कितने हैरान होते होंगे कि क्या-क्या शकल बनाई जा रही है उनकी
बातों की। जो उन्होंने कभी भी नहीं कहा होगा, वह हजार दो
हजार साल में उनके नाम पर थोप दिया गया। जो उन्होंने सोचा भी नहीं होगा वह उनकी
वाणी का हिस्सा बन गया। क्या-क्या हम थोप सकते हैं जिसका कोई हिसाब नहीं। हमारे मन
में जो होगा, हमें उनके ऊपर थोपना पड़ेगा।
जैनियों के चौबीस तीर्थंकर हैं। उनमें एक तीर्थंकर मल्लिनाथ हैं।
दिगंबर कहते हैं कि वह पुरुष हैं मल्लिनाथ। श्वेतांबर कहते हैं, वह मल्लीबाई है, स्त्री है। बड़ा मजा है! यह भी
संदिग्ध हो गया कि कोई आदमी स्त्री था कि पुरुष? अजीब इतिहास
लिख रहे हैं आप! कि यह भी पक्का नहीं है कि एक तीर्थंकर स्त्री था कि पुरुष?
नहीं, यह तो पक्का रहा होगा, लेकिन दिगंबरों की मान्यता यह है कि स्त्री मोक्ष जा ही नहीं सकती,
तो फिर तीर्थंकर स्त्री कैसे हो सकता है? स्त्री
रही होगी तो उन्होंने मल्लीबाई को मल्लिनाथ कर डाला, क्योंकि
वह तो अपनी धारणा के हिसाब से उनको खड़ा होना पड़ेगा, तीर्थंकर
को। महावीर की शादी हुई कि नहीं, महावीर को लड़की पैदा हुई कि
नहीं, इसमें भी झगड़े हैं। श्वेतांबर कहते हैं, शादी हुई, लड़की हुई, दामाद था।
दिगंबर कहते हैं कि यह कभी हुआ ही नहीं। तीर्थंकर जैसा आदमी और शादी करेगा,
बाल-ब्रह्मचारी। तो बाल-ब्रह्मचारी की जिसकी धारणा है, तो थोप देगा। मानने को राजी नहीं हैं कि उनकी स्त्री थी या उनकी लड़की हुई।
है ही नहीं, यह सवाल ही नहीं, यह बात
गलत है। अब एक ही महावीर को मानने वाले दो वर्ग अजीब बातें कर रहे हैं। यह क्या है?
हम अपनी ही धारणा थोपते हैं शास्त्रों पर, सिद्धांतों पर, महापुरुषों पर। हम पूजा कर रहे हैं
यह या अन्याय कर रहे हैं? यह क्रिमिनल एक्ट है, यह बिलकुल अपराधपूर्ण है और मुल्क को सख्ती से मुमानियत होनी चाहिए कि कोई
आदमी कृष्ण की तरफ से बोलने का हकदार नहीं है, न महावीर की
तरफ से। अपनी बात कहे। अगर महावीर के लिए भी कहना है तो यह कहे कि यह मैं कहता हूं
महावीर के संबंध में। महावीर कहते होंगे कि नहीं कहते, मैं
मानने को, मुझे कुछ भी पता नहीं है। हम वही समझ सकते हैं,
जो हमारी स्थिति है।
एक दिन, एक रात बुद्ध प्रवचन करते थे। प्रवचन के बाद रोज का
उनका नियम था कि वह भिक्षुओं को, श्रोताओं को कहते कि अब जाओ
रात्रि का अंतिम कार्य करो। वे भिक्षु दस हजार भिक्षु उनके साथ होते थे, रात्रि का अंतिम कार्य ध्यान था। सोने के पहले ध्यान करो, फिर सो जाओ। तो रोज-रोज यह कहने की जरूरत न थी कि ध्यान करो। तो वे इतना
कह देते थे कि अब जाओ, रात्रि का अंतिम कार्य करो।
उस दिन एक चोर भी आया था सभा में, एक वेश्या भी आई थी।
चोर ने जैसे ही सुना कि जाओ अब रात्रि का अंतिम कार्य करो। अरे, उसने कहा कि बहुत रात हो गई, चांद कितना चढ़ गया,
जाऊं, अपना धंधा करूं। ऐसे रात भर गंवा दूंगा
धर्म में, तो मुश्किल हो जाएगी। धर्म में थोड़ा-बहुत वक्त
गंवाया जा सकता है, फिर धंधा करने जाना ही पड़ता है, चाहे चोर हो, चाहे साहूकार हो। वेश्या ने सुना कि
रात्रि हो गई है, अपना काम। वेश्या बोली, अरे, ग्राहक आ चुके होंगे, मैं
जाऊं। बुद्ध ने एक ही बात कही थी। भिक्षु ध्यान करने चले गए, चोर चोरी करने चला गया, वेश्या अपनी दुकान पर चली
गई। बुद्ध ने जो कहा था, वह एक था, लेकिन
व्याख्याएं तीन हो गईं।
जो कहा जाता है वह एक है, जितने लोग सुनते हैं
व्याख्याएं उतनी हो जाती हैं। लेकिन कृपा करके अपनी व्याख्या को किसी के ऊपर मत
थोपें, इतना ही कहें, ऐसा मैं समझता
हूं। लेकिन इस मुल्क में थोपा जा रहा है, निरंतर थोपा जा रहा
है। इस मुल्क में कोई गीता की टीका न लिखे तो वह ज्ञानी ही नहीं है। कोई गीता की
टीका लिखे तभी ज्ञानी होता है। और अगर कभी भी कहीं कोई अदालत होगी, मोक्ष में, तो ये गीता के टीकाकार एक-एक बंधे हुए
नजर आएंगे, क्योंकि कृष्ण इन पर मुकदमा चलाएंगे, कि सज्जनों, तुम मेरे पीछे क्यों पड़े थे? मुझे जो कहना था वह मैंने कह दिया था, तुम कृपा
करते। मैंने कह दी थी बात पूरी। मेरी बात साफ थी। तुम कैसे अर्थ समझाने गए थे बीच
में कि इसका यह अर्थ है।
यह जो प्राचीनवादिता, यह जो प्राचीन का मोह, यह जो अतीत को जकड़ कर पकड़ लेना, यह हम कब तोड़ेंगे?
क्या हमको दिखाई नहीं पड़ता कि सारा जगत आगे बढ़ता चला जा रहा है,
भविष्योन्मुख है? हम अतीत के मोह में मर
जाएंगे, मर ही गए हैं, करीब-करीब मर गए
हैं। इकबाल ने गाया है--"कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी' अब इकबाल तो जा चुके, अन्यथा उनसे मिल कर कहता कि
महाशय, कुछ भी बात नहीं है। बात कुल इतनी है कि हस्ती बहुत
पहले मिट चुकी, तो अब मिटे भी तो मिटे क्या? खाक! मिटने के लिए हस्ती चाहिए न पहले? आदमी जिंदा
हो तो मर सकता है और मर ही गया हो तो अब क्या करेगा? मरने के
लिए भी जिंदगी चाहिए। मरा हुआ आदमी फिर नहीं मरता। एक दफा मर गया, फिर तो मरता ही नहीं। यह कौम इसलिए नहीं कि हमारी कोई बड़ी खूबी है जिससे
हमारी हस्ती नहीं मिटती। हमारी खूबी यह है कि हस्ती हम खो चुके अतीत के साथ। हमारी
कोई मौजूदा हस्ती नहीं है, हमारी कोई वर्तमान प्रतिभा नहीं
है, हमारी सारी प्रतिभा अतीत में हो चुकी। आज क्या है हमारे
पास? अभी क्या है? वर्तमान संपत्ति
क्या है हमारे व्यक्तित्व की? वह हमारी खो चुकी, इसलिए मिटने को अब कुछ बचा नहीं। लेकिन यह दुखद है और गांधी का चिंतन फिर
पुरातन की तरफ ले जाने वाला है। देश को ले जाना है आगे, रोज
आगे। रोज भूलते जाना है उसको, जो बीत गया है।
एक गांव में एक पुराना चर्च था। वह कहानी कह कर और थोड़ी सी बातें कह
कर मैं अपनी बात पूरी करूं।
एक गांव में एक चर्च था। एक बहुत पुराना गांव और बहुत पुराना चर्च। वह
चर्च इतना पुराना था कि हवाएं चलती थीं, उसकी दीवालें हिलती
थीं कि कब गिरीं, कब गिरीं। बादल गरजते थे तो लगता था गया
चर्च, बिजली चमकती थी तो लगती गिरेगी चर्च पर। ऐसे चर्च में
कौन प्रार्थना करने जाएगा? कोई प्रार्थना करने नहीं जाता था।
प्रार्थना करने वाले जीवन को दांव पर लगा कर तो प्रार्थना करने जाते नहीं। सुविधा
होती है तो जाते हैं। जिनको सुविधा होती है वे ज्यादा जाते हैं, जिनको कम सुविधा होती है वे कम जाते हैं। लेकिन वहां तो जान का खतरा था,
वहां कौन प्रार्थना करने जाता। चर्च खाली पड़ा रहता। चर्च की कमेटी,
संरक्षकों की कमेटी मिली। उन्होंने कहा, बड़ी
मुश्किल है। वह कमेटी भी बाहर मिली, वह भी कोई भीतर नहीं
मिली, क्योंकि नेता हमेशा अनुयायियों से ज्यादा होशियार होते
हैं। जहां अनुयायी नहीं जाता वहां नेता कभी जाता ही नहीं। आप इस खयाल में मत रहना
कि नेता अनुयायियों के आगे जाते हैं। यह सिर्फ भ्रम है अखबार में।
नेता हमेशा अनुयायी के पीछे जाते हैं, फॉलो करते हैं फॉलोअर
को। जब देख लेते हैं कि अनुयायी यहां जा रहा है तब वे उचक कर उसके साथ हो जाते हैं।
वे आपको आगे दिखाई पड़ते हैं सिर्फ, वे होते हमेशा पीछे हैं।
पहले पता लगा लेते हैं कि अनुयायी क्या मानता है, क्या
विश्वास करता है, वही कहते हैं जो आप मानते हैं। जो आप
मानोगे वही बात करते हैं, उसी तरह जीते हैं। वे भी बेचारे
नेता थे, वे काहे के लिए भीतर जाते, जब
कोई अनुयायी नहीं जाता था। वे भी बाहर मिले, दूर कंपाउंड से
कि कहीं कोई दीवाल गिर न जाए। उन्होंने वहां तय किया कि लोग बड़े खराब हो गए हैं,
कोई मंदिर में आता ही नहीं, कोई आता ही नहीं
मंदिर में, लोग बिलकुल नास्तिक हो गए हैं, लोग बिलकुल अधार्मिक हो गए हैं और सबने सिर हिलाया कि बात सच है। हालांकि
उनमें से भी कोई कभी नहीं आता था।
लेकिन एक जवान आदमी पहुंच गया था। उसने कहा कि महाशयों, सिर्फ लोगों को दोष मत दो, चर्च इतना पुराना हो गया
है कि उसमें जाना खतरनाक है। देखें, हम भी अपनी कमेटी की
बैठक बाहर कर रहे हैं, चलें हम भीतर। वे लोग बोले कि यह तो
बात सच है कि चर्च बहुत पुराना हो गया है। क्या करना चाहिए? तो
कमेटी ने एक प्रस्ताव पास किया कि अब बहुत हो गई प्रतीक्षा करते हुए पुराने चर्च
में कोई नहीं जाएगा। तो हम सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पास करते हैं कि पुराना चर्च
गिरा दिया जाना चाहिए। उन्होंने दूसरा प्रस्ताव पास किया और पुराने को गिरा कर
हमें एक नया चर्च बनाना है, यह भी सर्वसम्मति से। और तीसरा
प्रस्ताव पास किया विस्तार से और उसमें लिखा कि हम नया चर्च वैसा ही बनाएंगे जैसा
पुराना था, ठीक पुराने जैसा। वैसा ही मकान, उसी नींव पर, नींव पुरानी रहेगी, चर्च नया रहेगा, वैसी ही दीवालें, उन दीवालों में पुरानी ईंटें ही लगाई जाएंगी, नहीं
ईंट नहीं, पुराने ही द्वार-दरवाजे निकाल कर लगाए जाएंगे,
नये दरवाजे नहीं। ठीक पुराने चर्च जैसा ही, पुरानी
जगह पर ही, पुरानी दीवालों के अनुकूल दीवालें, पुरानी नींव पर नई दीवालें, ऐसा हम चर्च बनाएंगे।
इसे भी सर्वसम्मति से स्वीकार किया और फिर चौथा प्रस्ताव स्वीकार किया कि जब तक
नया चर्च न बन जाए, तब तक पुराना गिराएंगे नहीं।
वह चर्च अभी तक खड़ा हुआ है। वह कब गिरेगा? वह कभी नहीं गिरेगा। जो पुराने को गिराने की सामर्थ्य नहीं रखते वे नये को
निर्माण करने की सामर्थ्य खो देते हैं। जो पुराने को विध्वंस करने की हिम्मत रखते
हैं केवल वे ही नये का सृजन कर पाते हैं। जो पुराने की मौत देख सकते हैं वे ही
केवल नये को जन्म दे सकते हैं। और हम पुराने की मृत्यु देखने में असमर्थ हो गए
हैं। हम पुराने को नष्ट करने में असमर्थ हो गए हैं। हम पुराने को गिराने में
असमर्थ हो गए हैं, इसलिए नये का कोई जन्म नहीं हो पा रहा है।
लेकिन ध्यान रहे, जीवन नये के साथ है, पुराने के साथ मौत है। अगर मर ही जाना हो बिलकुल, तो
पुराने को कस कर पकड़ लेना चाहिए। घर में मां मर जाती है, पिता
मर जाते हैं, बहुत प्यारे हैं, लेकिन
फिर लाश घर में रख कर हम नहीं बैठ जाते हैं। बहुत प्यारे हैं, कितना दुख, कितनी पीड़ा आदमी झेलता है--मां चल बसी
उसकी, लेकिन फिर भी मरते ही लाश को घर में नहीं रखते। फिर यह
नहीं कहते कि मां बहुत प्यारी थी, हम लाश को कैसे घर के बाहर
ले जाएं, हम कैसे मरघट ले जाएं, हम तो
इसी से चिपटे हुए बैठे रहेंगे। नहीं, फिर लाश को ले जाना
पड़ता है, दुख में, पीड़ा में। मरघट पर
आग लगानी पड़ती है, जलाना पड़ता है उस मां को जिसे इतना प्रेम
किया था, जिससे जन्म पाया था, जो सब
कुछ थी। वह भी मर गई तो उसे भी मरघट पर ले जाना पड़ता है, मजबूरी
में जलाना पड़ता है। रोते हैं, लेकिन जला कर वापस लौट आते
हैं।
अगर किसी घर के लोग पागल हो जाएं और जितने बूढ़े लोग मरते जाएं उनकी
लाशें इकट्ठी कर लें, तो उस घर की आप समझते हैं क्या हालत हो जाएगी?
उस घर में नये बच्चे पैदा होने के पहले इनकार कर देंगे कि क्षमा
करिए, इन लाशों के इस ढेर में हम जन्म नहीं लेना चाहते। और
नये बच्चे पैदा भी हो जाएंगे तो पैदा होते से ही पागल हो जाएंगे, क्योंकि जिस घर में इतनी लाशें हों वहां नये बच्चे पागल होने के सिवाय और
कुछ नहीं हो सकते हैं। लेकिन नहीं, लाशें हम जला आते हैं।
लेकिन इतिहास की लाशें हम संजोते चले जाते हैं, मस्तिष्क पर
रखते चले जाते हैं, रखते चले जाते हैं। इतिहास भी कभी जला
देने जैसा हो जाता है, इतिहास भी कभी भूल जाने जैसा हो जाता
है, अतीत भी कभी मरघट पर पहुंचाने जैसा हो जाता है, ताकि शक्ति और ऊर्जा नये के जन्म की दिशा में अग्रसर हो सके।
नहीं, धर्म नहीं कहता कि पीछे जाओ। धर्म तो कहता है: आगे और
आगे और अंत में, अननोन, अज्ञात
परमात्मा है, वहां चलना है। निकलती है गंगा हिमालय से,
गंगोत्री से भागती है, गंगोत्री पर रुक नहीं
जाती। अनजान पहाड़ियों में, घाटियों में, वादियों में भागती है, दौड़ती है, पत्थरों से टकराती है। न मालूम कितने रास्ते हैं। रास्ते में न कोई पुलिस
वाला मिलता है जिससे पूछ ले कि सागर कहां है, न कोई पुरोहित
मिलता है कि पूछ ले कि सागर कहां हैं। कोई नहीं मिलता, कोई
गाइड नहीं, कोई मार्गदर्शक नहीं, भागती
चली जाती है। अपने भागने पर भरोसा है, अपने प्राणों पर भरोसा
है। भागती है, अनजान, भागती रहती है और
एक दिन सागर के पास पहुंच जाती है। गंगोत्री में रुक जाती तो सागर नहीं हो सकती
थी। गंगोत्री में नहीं रुकी, भागी, तो
गंगोत्री में छोटी सी धारा थी, सागर के पास पहुंच कर विराट
धारा हो गई और सागर में गिरते ही तो सागर हो गई। जाना है अनंत तक, जाना है आगे और आगे और भविष्य...वहां जहां अनंत का सागर है। जो पीछे रुक
गए हैं, उन्होंने अपने हाथ से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली
है।
मैं भविष्य को, उस आने वाले सूरज को जो उगेगा, उस
भवन को जो हम बनाएंगे, उसके लिए कामना जगाना चाहता हूं,
उसके लिए आकांक्षा और अभीप्सा जगाना चाहता हूं। लेकिन हमारे सारे
शिक्षक पुराने से बंधे हैं, हमारे सारे शिक्षक प्रतिगामी हैं,
हमारे सारे शिक्षक रिएक्शनरी हैं, हमारे सारे
शिक्षक कहते हैं, वह जो था, वही ठीक
था। एक बार इस देश को निर्णय करना होगा कि जो था अगर वह ठीक था तो हम गलत क्यों हो
गए हैं? जो था अगर वह ठीक था तो हम उसी से पैदा हुए हैं,
हम उसी के तो बाइ-प्रोडक्ट हैं। जो था अगर वह ठीक था तो हम ऐसे
क्यों हैं? बेटा सबूत है अपने बाप का। अगर बाप ठीक था तो यह
बेटा गड़बड़ कैसे? फल सबूत है, अपने बीज
का। अगर बीज मीठा था, तो यह फल कड़वा कैसे है?
फल यह नहीं कह सकता कि बीज तो ठीक था, लेकिन हम गड़बड़ हो गए
हैं। नहीं, बीज से ही फल पैदा होते हैं। बीज तो खो गए,
उनका तो अब कुछ पता नहीं है। अब तो फल सबूत देंगे कि बीज कैसे थे।
हम सबूत हैं, अपने पूरे अतीत के। हमारे अतिरिक्त और कोई सबूत
नहीं है। हम कैसे हैं, वह सबूत है हमारे पूरे इतिहास का।
क्योंकि उस पूरे इतिहास की यात्रा से हम जन्मे हैं, उस
यात्रा से हम पैदा हुए हैं। और अगर वह ठीक था तो हम गलत क्यों हैं? अगर हम गलते हैं तो हमें जानना पड़ेगा, हालांकि इस
बात को जानने में बड़ी पीड़ा होती है, बड़ा दुख होता है कि हम
अगर गलत हैं तो हमारे अतीत की प्रक्रिया गलत थी और हमें नई प्रक्रिया और नई जीवन
दिशा को चुनना जरूरी हो गया है।
मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम
करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
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