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मंगलवार, 29 अगस्त 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-19

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

उन्नीसवां प्रवचन
परस्पर-निर्भरता और विश्व नागरिकता

नॉन-प्राडक्टिव वेल्थ के लिए हम टैक्सेस ज्यादा लगाएं और प्राडक्टिव वेल्थ के लिए हम जितना प्रमोशंस दे सकें, दें। दो ही तो उपाय हैं। अगर एक आदमी लाख रुपया पाया है मुफ्त में तो उस पर टैक्स भारी होना चाहिए और एक आदमी लाख रुपये से कुछ प्रॉडयूस कर रहा हो, डेढ़ लाख पैदा कर रहा हो तो उस पर टैक्सेस कम होने चाहिए। अभी हालतें उलटी हैं अगर आप लाख रुपया अपने घर में रख कर कुछ भी नहीं कमाते तो आपको कोई टैक्सेशन नहीं है और अगर आप डेढ़ लाख कमाते हैं तो आप पर टैक्सेशन हैं। अभी अगर वेल्थ को क्रिएट करते हैं तो आपको दंड देना पड़ता है टैक्सेशन के रूप में। अगर आप वेल्थ को रोक कर बैठ जाएं तो उसका कोई दंड नहीं है!

इसे हमें उलटना चाहिए। अनप्राडक्टिव वेल्थ पर बहुत भारी टैक्सेशन होना चाहिए और प्राडक्टिव वेल्थ पर टैक्सेशन कम होना चाहिए और जितना हायर प्राडक्शन हो, उतना, टैक्सेशन कम होना चाहिए। अगर एक आदमी लाख रुपया कमाए तो उसको जितना टैक्सेशन हो, दो लाख कमाने वाले पर उससे और कम हो, तीन लाख कमाने वाले पर और कम, पांच लाख कमाने वाले पर और कम, और दस लाख अगर कमाता हो तो उसको तो हम सरकार से और सहायता दे सकें तो देना चाहिए--टैक्सेशन खतम! एक सीमा के बाद टैक्सेशन खतम कर देना चाहिए। तो हम आदमी की जो वेल्थ पड़ी हुई है उसको प्राडक्शन की तरफ मोड़ पाएंगे, नहीं तो नहीं मोड़ पाएंगे। अभी हालतें उलटी हैं।
अभी हालत यह है कि अगर आप पैदा करते हैं तो आप पर टैक्स लगता है। और जितना ज्यादा पैदा करते हैं, उतना ज्यादा टैक्स लगता है। तो एक तो आप प्राडक्शन के इंसेंटिव को मार रहे हैं और एक भाव पैदा कर रहे हैं कि अगर एक सीमा पर जाए और लाख रुपये कमा कर नब्बे हजार टैक्स देना हो। और देना ही है इतना, तो कोई मतलब नहीं है। इसका कोई सेंस नहीं है। तो मेरी समझ यह है कि हमारा जो टैक्सेशन की पूरी सिस्टम है, वह अनप्राडक्टिव की तरफ हमें खींचने की कोशिश करवाती है। तो मेरी समझ यह है कि हमारा जो टैक्सेशन को प्रोडक्शन की तरफ मोड़ने की कोशिश करनी चाहिए।
और दूसरी मेरी अपनी समझ यह है कि सीलिंग की बकवास बंद करके फ्लोरिंग की बात करनी चाहिए। हमें यह बात बंद करनी चाहिए कि कितनी सीमा के बाद आपकी संपत्ति पर रोक लगाएंगे, हमें यह बात बंद करनी चाहिए। सीलिंग तो अनलिमिटेड होनी चाहिए, इसका कोई सवाल नहीं है। फ्लोरिंग की फिक्र करनी चाहिए। फ्लोरिंग का मेरा मतलब यह है कि नीचे हम सौ रुपये से कम किसी आदमी को नहीं मिलने देंगे, इसकी हम फिक्र करें। अगर आपकी फैक्ट्री में आप लाख रुपया कमाते हैं तो आप मजे से कमाएं, लेकिन हम मजदूर को सौ रुपये से कम आपकी फैक्ट्री में नहीं मिलने देंगे।

हमारे इंडिस्ट्रयलिस्ट एक प्रतिशत बोनस अधिक न देने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक जाते हैं, तो यह कैसे संभव है?

उसके कारण हैं कि आप एक क्लास स्ट्रगल का बोध पैदा किए हुए हैं। क्लास हार्मनी का बोध नहीं है। तो जब भी आप क्लास स्ट्रगल की बात करेंगे तो ठीक है कि कैपिटलिस्ट क्लास की लड़ाई शुरू करे अपनी, क्योंकि आप दूसरी तरफ से सब छीनने के लिए तैयार हैं उससे। आप सोसायटी को एज़ ए होल, नहीं अभी तक पकड़ पा रहे हैं। आप सोसाइटी को क्लासेस में बांट कर देख रहे हैं। और जब आप सोसाइटी को क्लासेस में बांट कर देखते हैं तो ठीक है, फिर वह अपने इंट्रेस्ट के लिए लड़ना शुरू कर देता है। तो मेरी अपनी समझ यह है कि सोशलिज्म सबसे पहले हमारे दिमाग में क्लास कांफ्लिक्ट का बोध देता है और वह अवेयरनेस इतनी गहरी कर देता है कि फिर हम क्लास के इंट्रेस्ट के सिवाय सोचते ही नहीं। एक पैसा छोड़ना है तो भी लड़ाई हम करेंगे और मजदूर को एक पैसा लेना है तो भी वह लड़ाई करेगा।
मेरी अपनी दृष्टि दूसरी है। मेरा अपना मानना यह है कि हमें मौके ऐसे बनाने चाहिए कि लड़ाई की कम से कम संभावना रह जाए। और हम कैपिटलिस्ट क्लास को आगे के लिए स्वतंत्र छोड़ें और आगे टैक्सेशन कम करते चले जाएं तो कैपिटलिस्ट क्लास को हम राजी कर सकते हैं कि वह नीचे फ्लोरिंग के लिए राजी हो जाए। क्योंकि सवाल यह है आज, अगर एक बार कैपिटलिस्ट क्लास को यह पता चल जाए कि समाज उसको मिटा देने को तैयार नहीं है, उसे भी सहयोग देने को तैयार है, तो कैपिटलिस्ट क्लास को यह पता चल जाए कि समाज उसको मिटा देने को तैयार नहीं है, उसे भी सहयोग देने को तैयार है, तो कैपिटलिस्ट क्लास को मजदूर सुखी हो। यह सारी दुनिया का अनुभव यह कहता है कि मजदूर जितना सुखी और संपन्न होता है, उतना ही वह ज्यादा संपत्ति पैदा करने को सहयोगी हो जाता है। और उसका सुख और संपन्नता कैपिटलिस्ट क्लास के विपरीत नहीं है।
लेकिन अगर हम क्लास कांशसनेस में लड़ाई शुरू करते हैं, तब तो विपरीत हो जाता है। अभी हालतें हमने क्या पैदा कर ली हैं? और सारी दुनिया में हालतें पैदा हो गई हैं कि जैसे ही हमने मजदूर को और अमीर को क्लासेस बना दिया, यानी वह कोई को-आपरेशन में नहीं है अब, अब कांफ्लिक्ट में है, तो लड़ाई पूरे वक्त चल रही है। और कैपिटलिस्ट एक पैसा भी छोड़ने में इसलिए जिद्द करता है कि वह एक पैसा छोड़ता है तो कल दो पैसा छोड़ने की स्थिति बनती है।

मान लीजिए कि लेबर फाइट करता है, लेकिन उन्हें ग्रेस उनके प्रति दिखाना चाहिए।

नहीं समझ रहे हैं--हालतें क्या हैं, जितनी ग्रेस दिखाई जाती है; उतनी ही संभावना कम्युनिज्म की बढ़ती है, कम नहीं होती। अब आज हम कहते हैं अमेरिका से कि वह वियतनाम में न लड़े। अगर वह वियतनाम में लड़ना बंद करता है तो कल उसको काश्मीर में लड़ना पड़ेगा और काश्मीर में लड़ना बंद करता है तो कल उसको इजराइल में लड़ना पड़ेगा। वह जहां से लड़ना छोड़ता है, वह लड़ना पड़ेगा और काश्मीर में लड़ना बंद करता है तो कल उसको इजराइल में लड़ना पड़ेगा। वह जहां से लड़ना छोड़ता है, वह कम्युनिज्म के हाथ जाता है और कहीं दूसरी जगह लड़ाई करनी पड़ती है। कैपिटलिस्ट के साथ भी वही तकलीफ हो गई है, क्योंकि मामला लड़ाई का हो गया है।
तो एक तो मेरी अपनी समझ यह है कि समाज एज़ ए यूनिट हमें स्वीकार करना चाहिए, नाट एज़ ए कांफ्लिक्ट। फाइट नहीं देखना चाहिए। तो बड़ी कठिनाई खड़ी हो गई है। मजा यह है कि कैपिटलिस्ट हारती हुई क्लास है, कोई जीतती हुई क्लास नहीं है, इसलिए हारती हुई क्लास आखिरी दम तक लड़ने की कोशिश करती है। और मजा यह है कि कैपिटलिस्ट को भी पता नहीं है कि उसकी लड़ाई से वह जीतने वाला नहीं है। उसकी लड़ाई से वह रोज हारते जाने वाला है। ग्रेस के लिए तैयार किया जा सकता है, लेकिन हम कैपिटलिस्ट के लिए क्या करने को तैयार हैं सोसाइटी में। यानी मैं यह पूछता हूं कि कैपिटलिस्ट से हम यह कहते हैं कि तुम मजदूर के लिए यह करो, लेकिन हम पूरे मुल्क से क्या कहते हैं कि तुम कैपिटलिस्ट के लिए यह करो।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

पहली बात तो यह है कि हम बात ही एक दृष्टि से सोचते हैं, तब दिखाई पड़ती है। ऐसा दिखाई पड़ता है कि कुछ दस-पच्चीस लोगों ने पूरे मुल्क को शोषण किया हुआ है, एक्सप्लायटेशन किया हुआ है, पूरी सोसाइटी को एक्सप्लायटेशन मशीनरी में बदल दिया है। यह बड़े सोचने की और मजे की बात है।
मजे की बात यह है कि जिन पच्चीस आदमियों को हम कहते हैं कि इन्होंने संपत्ति का शोषण किया हुआ है, हम यह बात मान कर ही चलते हैं कि अगर पच्चीस आदमी ने हों तो समाज के पास संपत्ति थी। तो पहले तो मैं इसको ही गलत मानता हूं कि समाज के पास संपत्ति थी। जब हम कहते हैं शोषण किया है तो इसमें यह भ्रांति पैदा होती है कि आपके पास था और मैंने छीन लिया है। मजा यह है कि इन पच्चीस ने आपसे कुछ भी नहीं छीना। आपके पास था ही नहीं। यह जो वेल्थ दिखाई पड़ती है कुछ लोगों के हाथ में, यह वेल्थ क्रिएट की गई है, यह किसी के पास से एक्सप्लाइट नहीं की गई है। यह कहीं रखी हुई नहीं थी। यहां ऐसा नहीं था कि पच्चीस आदमी इस कमरे में थे और मैंने सबसे एक-एक रुपया छीन कर मेरे पास पच्चीस हो गए हैं। इनके पास एक है और मेरे पास पच्चीस हैं। तो लगता है ऐसा कि मैंने चौबीस का शोषण किया हुआ है। आप क्या समझते हैं कि कैपिटलिस्ट जिस दिन नहीं था, उस दिन लोगों के पास संपत्ति थी?
मजे की बात यह है कि आज जिसको आप करोड़ों लोग कह रहे हैं और कह रहे हैं कि वह आज रायट कर रहे हैं, ये करोड़ों लोग भी नहीं थे। ये करोड़ों लोग भी कैपिटलिज्म की वजह से जिंदा हैं, अन्यथा ये पैदा भी नहीं हो सकते थे और बच भी नहीं सकते थे। आज से हजार साल पहले दस बच्चे पैदा होते थे तो नौ बच्चे मर जाते थे और एक बच्चा मरता है। ये जो नौ बच्चे इकट्ठे होते जा रहे हैं, ये होते ही नहीं। कैपिटलिज्म ने वेल्थ पैदा किए हैं, इसकी वजह से ये नौ बच्चों को भी काम है, नौकरी है, धंधा है। इनके पास जो कुछ भी है, यह कैपिटलिज्म ने पैदा किया हुआ है, अन्यथा यह बचता नहीं। और आज जब इनकी भीड़ इकट्ठी हो गई और वह जो भीड़ इकट्ठी हो गई है, वह उनको दिखाई पड़ती है कि उसके पास कुछ भी नहीं है और इनके पास सब कुछ है तो स्वभावतः ऐसा मालूम पड़ता है कि शोषण किया गया है।
मैं आपसे कहना चाहता हूं कि पहली तो बात यह है कि शोषण फ्यूडलइज्म का तो हिस्सा था, फ्यूडलइज्म ने कोई कैपिटल पैदा नहीं की थी। राजाओं और महाराजाओं ने कोई कैपिटल पैदा नहीं की थी। कैपिटल उन्होंने छीनी थी। वे लुटेरे थे, लेकिन हमारा ध्यान वही का वही है अब भी! कैपिटलिस्ट, कैपिटल छीन नहीं रही है, कैपिटल पैदा कर रहा है। और अगर आपसे काम लेकर दो रुपये आपको दे रहा है तो आप इस भांति में न रहिए कि आपको दो रुपये न मिलते तो आज आपके पास दो रुपये होते। और आपके पास जो लेबर की फोर्स है, लेबर की फोर्स तो एक दिन में खतम हो जाती। अगर कल उसने काम नहीं लिया होता तो आज आप नंगे होते। और आपके पास जो कल श्रम की शक्ति थी, वह हवा में खो जाती। उसको उसने कनवर्ट किया है कि उसने दो रुपये देकर आपके कल के लेबर को कैपिटल में कनवर्ट किया।
अच्छा, आप क्या कह रहे हैं? आप यह कह रहे हैं कि उसने हमें दो रुपये दिए, उसको दस रुपये देने चाहिए। और मजे की बात यह है कि अगर वह दो रुपये ने देता तो आपको दस रुपये कहीं मिलने वाले नहीं थे। दो रुपये भी आपको न मिलते। तो जो पहली बात तो मैं यह मानता हूं कि कैपिटलिज्म जो है, वह बेसिकली एक्सप्लायटेशन नहीं है। वह बेसीकली लेबर को कैपिटल में कनवर्ट करने की कोशिश है। और स्वभावतः आज इतना बड़ा लेबर उपलब्ध है कि पूरे लेबर को कनवर्ट वह नहीं कर सकता है। और चूंकि ज्यादा लेबर उपलब्ध है इसलिए कम पैसे मिलते हैं आपको। इसका भी जिम्मा उस पर नहीं है। इसका भी जिम्मा अधिक लेबर पर है। लेबर बच्चे पैदा किए जा रहा है। और वह इतने बच्चे पैदा कर रहा है कि लेबर के दाम रोज कम होते जाते हैं। लेकिन आप जिम्मा इस पर ठहराते--कैपिटलिज्म पर, कि यह दाम कम दे रहा है। यह दाम कम देगा ही, क्योंकि लेबर को जब कैपिटल में कनवर्ट करना है तो सस्ते से सस्ते लेबर को ही कनवर्ट किया जा सकता है। अन्यथा, कनवर्शन मुश्किल है।
तो मेरे हिसाब से पहले तो मैं कैपिटलिज्म को एक्सप्लायटेशन की नहीं, कनवर्शन की सिस्टम मानता हूं। और जिस बात को आप कह रहे हैं, बजाय पच्चीस आदमियों के हाथ में पच्चीस सौ लोगों के हाथ में हो, इसको मैं मानता हूं। लेकिन यह कैपिटलिज्म का विरोध नहीं है, वह कैपिटलिज्म को फैलाना है। और जब पच्चीस लोगों के हाथों में मुल्क की संपत्ति है--जिस मुल्क में पच्चीस लोगों के हाथ में है, इनको बांट कर आप पच्चीस सौ लोगों में नहीं फैला सकते। आपको कैपिटलिज्म को इंसेंटिव देना पड़े तो आज पच्चीस लोगों के हाथ में है, हम पच्चीस सौ के हाथ में हो सकता है। इसको आप कैपिटलिज्म को बांट के नहीं, कैपिटलिज्म के बुनियादी आधारों को सहारा देकर आप बढ़ा सकते हैं। यह कैपिटलिज्म का विरोध नहीं है। अगर हमें पच्चीस की जगह पच्चीस सौ उद्योगपति मुल्क में चाहिए या पच्चीस हजार उद्योगपति चाहिए तो जो पच्चीस के बनने का नियम है, उस नियम को हमें पच्चीस सौ लोगों तक फैलाने की सुविधा होनी चाहिए और अगर हमको उसे पच्चीस सौ को मिटाना है तो आप हैरान होंगे, पच्चीस सौ तक वह नहीं फैलेगा, पच्चीस मिट जाएंगे। क्योंकि जो आधार हैं कैपिटलिज्म के वे वही के वही रहने वाले हैं, चाहे पच्चीस हों, चाहे पच्चीस सौ हों।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

इसको थोड़ा समझना पड़े। इसको थोड़ा समझना पड़े, मैं इसे अनजस्ट नहीं कहूंगा। मैं अनजस्ट नहीं कहूंगा, और न ही मैं इस बात के लिए राजी हो सकता हूं कि कैपिटलिज्म उस जगह पहुंच गया है, जहां वह अब सोसाइटी को रुकावट डाल रहा है। इन दोनों बातों को थोड़ा मेरी तरफ से समझना पड़े। पहली बात तो यह है कि कैपिटलिज्म जिस जगह पहुंच गया है, जिन मुल्कों में कैपिटलिज्म विकसित हुआ है, उन मुल्कों में कम्युनिज्म और सोशलिज्म की कोई ताकत नहीं है। जिन मुल्कों में विकसित नहीं हुआ है, वहां ताकत है। तो आपकी बात को थोड़ा सोचना पड़े। क्योंकि सिर्फ गरीब मुल्कों में सोशलिज्म की ताकत है, अमीर मुल्कों में कोई ताकत नहीं है। अमेरिका की अभी भी कोई संभावना नहीं है कि वह कम्युनिस्ट हो जाए।
कैपिटलिज्म को स्टेटिक बात नहीं है, वह तो बदलता रहेगा। लेकिन जो मैं कह रहा हूं, वह यह कह रहा हूं कि कैपिटलिज्म की अपील और सोशलिज्म की अपील में अगर ऐसा संबंध है कि जहां कैपिटलिज्म ने अपना काम पूरा कर दिया है, वहां सोशलिज्म आता हो तो बात गलत मालूम पड़ती है। क्योंकि रूस में कैपिटलिज्म नहीं था और सोशलिज्म आया। चीन में कैपिटलिज्म का कोई नक्शा नहीं था और सोशलिज्म आया। और हिंदुस्तान में धेला भर भी कैपिटलिज्म नहीं है, वह सोशलिज्म की बातें कर रहा है! तो पहली तो बात यह दिखाई पड़ती है कि सोशलिज्म की अपील वहां होती है, जहां कैपिटलिज्म अपना काम नहीं कर पाया। जहां कैपिटलिज्म ने अपना काम किया हुआ है, वहां सोशलिज्म की कोई अति नहीं पकड़ती, उसका कारण है। उसका कारण है। क्योंकि कैपिटलिज्म अपना काम पूरा कर ले और वेल्थ क्रिएट कर सके तो वेल्थ जब अपने आप बड़े पैमाने पर क्रिएट होती है तो वह कुछ लोगों के हाथ में नहीं टिकती। कुछ लोगों के हाथ में नहीं टिकेगी, वह बड़ी संख्या में, बड़े पैमाने पर फैलनी शुरू हो जाती है।
आज अमेरिका का जो गरीब है, वह भी उस अर्थ में गरीब नहीं है, जिस अर्थ में हमारा गरीब है। असल में आज अमेरिका में जिसको हम प्रोलिटेरियट कहें, वह तो खतम हो गया है, मिडिल क्लास ही है। माक्र्स का खयाल उलटा था। उसका खयाल था, कैपिटलिज्म विकसित होगा तो मिडिल क्लास खतम हो जाएगा। गरीब रहेगा और अमीर रहेगा। हालत उलटी है अमेरिका में। गरीब का क्लास खतम हो गया है--मध्यम वर्ग है, और बड़ा वर्ग है। असल में अमेरिका में छोटे पूंजीपति हैं, और बड़े पूंजीपति हैं, और बड़े पूंजीपति हैं। लेकिन ठेठ जिसको प्रोलिटेरियट कहें, सर्वहारा कहें, वह अमेरिका से विदा होने के करीब आ गया है। इसलिए अमेरिका में कोई संभावना नहीं है, क्योंकि मिडिल क्लास बढ़ती हुई फोर्स है और जहां मिडिल क्लास बड़ी ताकत बन जाए, वहां सोशलिज्म का कोई उपाय नहीं है। और कैपिटलिज्म जब भी विकसित होगा तो अंततः पूरी सोसाइटी मिडिल क्लास हो जाएगी, मेरे हिसाब से। और नीचे मिडिल क्लास, लोअर मिडिल क्लास रह जाएगी, ऊपर जिसको हम अमीर कहते हैं, वह हायर मिडिल क्लास हो जाएगी। जिस दिन कैपिटलिज्म पूरी तरह फुलफ्लेज्ड रूप में होगा उस दिन न तो मजदूर होगा, न अमीर होगा; मिडिल क्लास होगी। इस मिडिल क्लास के छोर होंगे। यह लोअर मिडिल क्लास होगा, वह हायर मिडिल क्लास होगा। संपत्ति जब बड़े पैमाने पर पैदा होगी तो हाथों में रोकना असंभव है। संपत्ति फैलती है। असल में संपत्ति है उपयोग के लिए। उसका फैलाव अनिवार्य है। जब आप और संपत्ति पैदा करना चाहते हैं, तब आपकी संपत्ति को फैलाना पड़ता है, तभी आप और संपत्ति पैदा कर सकते हैं।
तो मेरी दृष्टि में कैपिटलिज्म ने जहां भी काम थोड़ा-बहुत कर लिया है, वहां तो सोशलिज्म की संभावना नहीं है। सोशलिज्म की पकड़ उन मुल्कों पर बैठ जाती है, जहां कैपिटलिज्म बिलकुल शुरुआत में है। क्योंकि गरीबी है बहुत बड़ी और कैपिटलिज्म है बहुत छोटा। और इन गरीबों को समझाया जा सकता है कि तुम्हारा शोषण करके यह कैपिटलिस्ट, कैपिटलिस्ट बन गया है। यह झूठी बात है। क्योंकि जहां उसने शोषण अच्छी तरह से किया है, वहां गरीब अपनी ही वजह से गरीब है। वहां शोषण के ये परिणाम ही दिखाई पड़ते हैं।
असल में मजा यह है कि हिंदुस्तान में जो गरीब है, गरीब अपनी ही वजह से गरीब है। उसका किसी ने शोषण नहीं कर लिया है। और मजा यह है कि अगर हिंदुस्तान के सब करोड़पतियों का पैसा बांट दिया जाए तो हिंदुस्तान का गरीब कोई अमीर नहीं हो जाता। तो एक बात पक्की है कि अगर इसका शोषण भी किया गया है तो उससे यह गरीब नहीं है। क्योंकि सारा पैसा भी इसको बांट दें तो गरीबी नहीं मिटती है। इसकी गरीबी के कारण दूसरे हैं। इसकी गरीबी का कारण पूंजीपति नहीं है, लेकिन पूंजीपति को इसके विपरीत बनाया जा सकता है। बताया जा सकता है कि देखो, इसके पास पैसा है, तुम्हारे पास पैसा नहीं है। जिनके पास पैसा नहीं है--हम सदा इस भाषा में सोचते हैं कि जिनके पास पैसा नहीं है और जिनके पास है तो कुछ इनजस्टिस हो गई। लेकिन मेरी समझ उलटी है। मेरी अपनी समझ यह है कि जिनके पास पैसा नहीं है--अगर हिंदुस्तान में ये पच्चीस लोग, जिनके पास भी पैसा नहीं होगा। तब सब जस्टिस हो जाएगी पूरी तरह। पूरा हिंदुस्तान तमस से भरा हुआ है, लिथार्जी से भरा हुआ है। कोई कैपिटल पैदा करने को उत्सुक नहीं है।
अच्छा, ये गधे जो कैपिटल पैदा नहीं करते, ये आखिर में अनजस्ट मालूम पड़ते हैं कि इनके साथ इनजस्टिस हो गई और जिसने पैदा कर ली है वह आदमी फंस जाता है कि इसने अन्याय कर दिया है! यानी हालतें कुछ ऐसी हैं कि जो पैदा कर रहा है, वह आखिर में फंसेगा कि इसने अन्याय किया है। और जो पैदा नहीं कर रहा है, आखिर में मालूम पड़ेगा कि इसके साथ अन्याय हो गया है! अब यह हमें बड़ी मजेदार बात मालूम होती है। यह मामला ऐसा है कि आज नहीं कल आप हो सकता है कि कुछ लोगों को कह दें कि यह आदमी बुद्धिमान हो गया है और इन्होंने कुछ लोगों की बुद्धि का शोषण कर लिया है। और कुछ लोग बुद्धू रह गए हैं। और जो लोग बुद्धू हैं, कल कहने लगें हमारे साथ इनजस्टिस हो गई है, क्योंकि हमारी बुद्धि कहां है!
अब यह बड़े मजे की बात है कि कैपिटल भी पैदा करनी पड़ती है, उसके लिए भी श्रम उठाना पड़ता है, बुद्धि लगानी पड़ती है। उसके लिए दौड़ करनी पड़ती है। जो लोग दौड़ते हैं, मेहनत करते हैं, महत्वाकांक्षी हैं, श्रम करते हैं, दांव लगाते हैं, जिंदगी लगाते हैं। ये सारे लोग, जब कभी थोड़े से लोग पैसा इकट्ठा कर पाते हैं तो जो बैठे हुए घर देख रहे थे और आराम से हुक्का पी रहे थे अपने घर में बैठ कर, उनके पास जब पैसा नहीं दिखाई पड़ता, तब उनको अचानक पता चलता है कि इनजस्टिस हो गई! कुछ लोग जिनके पास है उन्होंने इनजस्टिस की है और जिनके पास नहीं है वे बड़े जस्ट लोग हैं? यह बड़ा उलटा न्याय है, यह मैं नहीं मान पाता कि इसमें आप ठीक से जस्टिस कर रहे हैं।
मेरी अपनी समझ यह है कि पैसा कोई भी पैदा कर सकता है। पैसा पैदा करने की अपनी कला है। जैसे बुद्धि विकसित करने की कला है, आर्ट है, वैसे पैसा पैदा करने का अपना आर्ट है। अमेरिका को आज से तीन सौ साल पहले, अमेरिका में जो लोग रह रहे थे, हजारों साल से रह रहे थे, मुल्क वही था, उसके सोर्सेस वही थे, और आज भी रेड-इंडियन रह रहा है पहाड़ पर, उसने कभी संपत्ति पैदा नहीं की! अमेरिका में तीन सौ वर्ष से यूरोप की संपत्ति पहुंची और उसने संपत्ति पैदा कर ली। और सबसे नया मुल्क सबसे ज्यादा संपत्ति का मुल्क हो गया! और जो लोग गए, ये उस मुल्क में गए जो सरासर गरीब था। अब जरा सोचने जैसा है कि जिन्होंने संपत्ति पैदा कर ली, अब जो रेड-इंडियन है, अमेरिका का आदिवासी, वह कह सकता है, हमारा शोषण हो गया। और मजा यह है कि उसके पास कभी  संपत्ति नहीं थी, वह इसी मुल्क में सदा से था। और यही सोर्सेशस उसको उपलब्ध थे, उसने कभी पैदा किया नहीं!
दो सोसाइटी का मैं अध्ययन कर रहा था। अमेरिका में दो रेड-इंडियन सोसाइटी हैं एक ही पहाड़ पर रहती हैं, एक इस तरफ, एक उस तरफ--छोटे-छोटे कबीले। एक कबीले का नियम है कि वह कबीला एक के ही खेत पर पूरा काम करता है, अनादि काल से। सामाजिक व्यवस्था उनकी ऐसी है कि एक के खेत में ही काम हो सकता है एक दिन में। दूसरा जो कबीला है, वह अपने-अपने खेत पर काम करता है। वे एक पहाड़ के दो हिस्सों पर कबीले हैं। जो कबीला, सारा का सारा गांव काम करता है तो काम भी ज्यादा नहीं होता, फिजूल की बातें होती हैं, गाना-नाच होता है और काम भी ज्यादा नहीं होता है, इनसेंटिव भी नहीं है। क्योंकि एक आदमी का सवाल नहीं है। दूसरा अपने-अपने खेत पर काम कर रहा है कबीला। वह कबीला अमीर है।
एक ही जमीन है, एक ही हवा है, एक ही पानी है, एक ही कौम है, लेकिन एक कबीले का सोशल ढंग एक है और दूसरे का सोशल ढंग दूसरा है। इसमें आप कैसे तय करिएगा कि किसके साथ इनजस्टिस हो गई है। मेरी अपनी समझ यह है कि हिंदुस्तान में जो आज आपको गरीब दिखाई पड़ रहा है, उसके साथ इनजस्टिस इसलिए नहीं दिखाई पड़ रही है कि वह गरीब है, इसलिए दिखाई पड़ रही है कि कुछ लोग अमीर हो गए हैं। अगर ये भी गरीब होते तो बड़ी जस्टिस थी! क्योंकि हम सब गरीब थे और बराबर गरीब थे, कोई दिक्कत न थी।
यह कठिनाई हमको इसलिए पैदा हो रही है कि हमारे बीच में कुछ लोगों ने संपत्ति पैदा कर ली है और जिन्होंने संपत्ति पैदा कर ली है, वे हमारीर् ईष्या के बिंदु हो गए हैं। बड़े मजे की बात यह है कि हमने पैदा नहीं की है। जिन्होंने पैदा नहीं की है, वे बड़े गौरवांवित हैं कि उन्होंने बड़ा काम किया कि उन्होंने पैदा नहीं किया! मैं नहीं मानता हूं ऐसा। मेरी अपनी समझ यह है कि मुल्क में बड़ी लिथार्जी है और उस लिथार्जी से बचने के लिए सोशलिज्म बड़ी अच्छी, अदभुत अपील है। वे यह कह देते हैं कि इन्होंने शोषण कर लिया है तुम्हारा। और मजा यह है कि इसके पास कुछ था ही नहीं, जिसका शोषण किया जा सके। इसके पास कुछ होता--सिर्फ लेबर था उसके पास और अपने लेबर को वह कनवर्ट नहीं कर सका कभी भी कैपिटल में।

इट कैन नाट!

गलत बात है आपकी। क्यों, कैन नाट क्यों कहते हैं आप? अगर लेबर मेरे पास है तो मैं उसे बदल सकता ही हूं। कोई न कोई उपाय मैं खोज की सकता हूं। उसको मैं कैपिटल में बदलूं। हिंदुस्तान के पास लेबर है, लेकिन कैपिटल में बदलने की न तो आकांक्षा है, न समझ है। न समझ है, न श्रम है, न साहस है। आपसे यह कहूंगा, कि क्यों नहीं बदल सकते आप जब आपके पास लेबर है? और फिर अगर आप नहीं बदल सकते, और किसी ने बदला है तो इनजस्टिस हो गई? कि आपको दो रुपये मिल गए, जो आपको नहीं मिले होते? जब आपको दो रुपये मिलते हैं, तब आप कहते हैं, मेरे पास दस रुपये का लेबर था, मुझे दो रुपये मिले। और जब आपको नहीं मिल रहे थे, तब आपके पास धेले का लेबर नहीं था, लेबर खाली जा रहा था! मैं नहीं मानता, इनजस्टिस हो गई। इतना जरूर मातना हूं कि जितनी जस्टिस होनी चाहिए, उतनी नहीं हो पा रही है। इसको मैं फर्क करता हूं--जितनी जस्टिस हो सकती है, वह नहीं हो पा रही है। उसके लिए उपाय खोजने चाहिए।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

असल में, जैसा मैंने कहा कि मैं यह मानता हूं कि इनजस्टिस हुई है, मैं यह जरूर मातना हूं कि जितनी जस्टिस होनी चाहिए, उतनी नहीं हो पाई है। और इसका कारण है। इसका कारण मैं मातना हूं कि कैपिटलिज्म को विकास का मौका नहीं मिल पा रहा है और सोशजिल्म की बातें उसके विकास में सब जगह बाधा डाल रही हैं। दूसरा कारण, कि जो कैपिटल का कनवर्शन है, लेबर का जो कनवर्शन है कैपिटल में, जब तक हम ह्यूमन लेबर पर निर्भर करना पड़ेगा, तब तक दुनिया में ज्यादा विकसित अवस्था लोअर और हायर मिडिल क्लास की होगी। लेकिन जिस दिन हमें ह्यूमन लेबर से मुक्ति मिल जाएगी, और हम सीधे टेक्नालाजिकल लेबर पर निर्भर करेंगे, उस दिन दुनिया में क्लासेस की कोई जरूरत नहीं रहेगी। उसके पहले क्लासेस नहीं मिट सकते हैं--उसके पहले क्लासेस नहीं मिट सकते हैं।
तो मेरी नजर में कैपिटलिज्म उस जगह आता जा रहा है, आ जाएगा। अगर सोशलिज्म ने बाधाएं नहीं डालीं तो कैपिटलिज्म उस जगह आ जाएगा, जहां आदमी के श्रम की जरूरत न रह जाएगी। आदमी का श्रम बेमानी हो जाएगा। अगर सारी की सारी यंत्रों की व्यवस्था आटोमेटिक हो जाती है तो ही हम क्लासलेस सोसाइटी को पैदा कर पाएंगे, अन्यथा नहीं पैदा कर पाएंगे। इसकी जिम्मेवारी कैपिटलिज्म पर नहीं है, इसकी जिम्मेवारी मनुष्य के श्रम की विभिन्न क्षमताओं पर और इच्छाओं पर है। और इसके लिए कोई सिस्टम जिम्मेवार नहीं है। इसकी जिम्मेवारी हर आदमी की है। श्रम का क्षमता भिन्न है, और श्रम करने की इच्छा भिन्न है, एक।
और दूसरी बात, कि आदमी जब तक श्रम करेगा और तक तक श्रम का मूल्य बाजार में होता ही रहेगा। तो अगर श्रम ज्यादा मौजूद है तो श्रम में प्रतियोगिता भी होती रहेगी। श्रम की प्रतियोगिता और श्रम का कमोडिटी की तरह व्यवहार समाज से समाप्ति एक दिन होगी। और वह, वह दिन होगा, जिस दिन श्रम गैर-जरूरी हो जाएगा। मनुष्य का श्रम गैर-जरूरी हो जाएगा। और टेक्नीक, और टेक्नालाजी, और यंत्र उसके श्रम को कर पाएंगे। उस दिन लोअर और हायर मिडिल क्लास का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। उस दिन बात समाप्त हो जाएगी।
और मेरी अपनी समझ यह है कि उसके करीब पहुंच रहे हैं, और यह किसी सोशलिस्ट रेवोल्यूशन से न होगा, यह एक साइंटिफिक रेवोल्यूशन से होगा। इसका सोशलिस्ट से कोई लेना-देना नहीं है। और सोशलिज्म के असफल होने का कारण वही है कि उसमें जो आकांक्षाएं बताई हैं, आकांक्षाएं सिर्फ टेक्नालॉजिकल रेवोल्यूशनरी सपूरी हो सकती हैं। क्योंकि जब तक आदमी से काम लेना है, तब तक सोशलिज्म असफल होता रहेगा। क्योंकि आदमी से काम लेने का जो इनसेंटिव है, वह दिक्कत में पड़ जाता है। आज रूस में वह तकलीफ खड़ी हो गई है। आदमी काम करने को आज उस मौज से राजी नहीं है, जिस मौज से कैपिटलिज्म में काम करने को राजी है। या तो जबरदस्ती काम लो, और जबरदस्ती कितने दिन काम ले सकते हो?
आदमी की प्रकृति के खिलाफ ज्यादा दिन काम नहीं लिया जा सकता है। और जैसे ही कम्युनिटी काम लेने लगती है, वैसे ही आप पिछड़ने लगते हैं, आप व्यक्तिगत रूप से बचाव करने लगते हैं कि मैं सब श्रम बंद करूं। और जब सब सुविधा मिल ही गई है, और श्रम करने से भी मिल जाएगी, तो फिर श्रम करने का कोई अर्थ नहीं रह गया। मनुष्य की जो स्वाभाविक स्थिति है, उसका जो इंसटिंगटिव बिल्ट-इन व्यवस्था है, वह बिल्ट-इन व्यवस्था सोशलिज्म के खिलाफ है। वह बिल्ट-इन व्यवस्था कैपिटलिज्म के पक्ष में है। तो उस बिल्ट-इन व्यवस्था से उसी दिन मुकाबला हो सकता है, जिस दिन लेबर एज सच अननेसेसरी है। तब फिर ठीक है, आप काम कर रहे हैं कि नहीं कर रहे हैं, बराबर अपरच्यूनिटी मिल सकती है। लेकिन जब तक काम नेसेसरी है, तब तक बराबर अपरच्यूनिटी नहीं मिल सकती, क्योंकि काम करने की न तो क्षमता बराबर है, और न इच्छा बराबर है। अब इसके लिए कौन जिम्मेदार है?
इसके लिए कैपिटलिज्म जिम्मेवार नहीं है। अगर कोई जिम्मेवार है तो मनुष्य का स्वभाव जिम्मेवार है। और अगर मनुष्य का स्वभाव जिम्मेवार है तो वह कोई जिम्मेवारी नहीं रह गई किसी के ऊपर। अब मैं काम बिलकुल नहीं करना चाहता, और दुनिया की कोई ताकत मुझे अगर काम में नहीं लगा सकती सिवाय इसके कि बंदूक मेरे पीछे लगा दी जाए। तब इसके लिए कौन जिम्मेवार हैं कि आप मेहनत करेंगे?
जब हम दोनों कालेज में पढ़ रहे हैं--मैं और आप दोनों पढ़ रहे हैं। और आप रात भर मेहनत कर रहे हैं। और मैं रात भर सिनेमा देख रहा हूं। और कल आप फर्स्ट क्लास ले आते हैं और मैं सेकेंड क्लास ले आता हूं। निश्चित ही मेरी और आपकी अपरच्यूनिटी भिन्न हो गई है। और कोई उपाय नहीं है कि हम सब लड़कों को फर्स्ट क्लास ला सकें। और कल जब काम्पिटीशन के मार्केट में मैं पहुंचूंगा तो मैं पिछड़ जाऊंगा और आपको पहले नौकरी मिल जाएगी। अब अपरच्यूनिटी समान कैसे पैदा की जाएं?
यानी मामला यह है कि मैं और आप अलग हैं और चूंकि दो इंडिविजुअल अलग हैं, इसलिए दोनों के लिए सेम अपरच्यूनिटी पैदा हो कैसे सकती है? क्योंकि अपरच्यूनिटी तो हम पैदा करते हैं, अपरच्यूनिटी होनी चाहिए! लेकिन अपरच्यूनिटी कौन पैदा करे? यह तो सरकार ठोंक-पीट करके हमको एक सी अपरच्यूनिटी में बिठा दे कि वह तय कर दे कि सभी को फर्स्ट क्लास मिल जाएगा। और मजा यह है कि जिस दिन सबको फर्स्ट क्लास मिल जाएगा उस दिन मैं जो विश्राम कर रहा था, मैं तो विश्राम करूंगा ही; आप जो श्रम कर रहे थे, आप भी विश्राम करेंगे। इसलिए टोटली नुकसान होने वाला है, फायदा होने वाला नहीं है।
अगर कहीं कोई उलझाव है, कोई भी, तो वह मनुष्य के स्वभाव में ही है, और मनुष्य के स्वभाव को बदलने के दो उपाय हैं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

सरलतम तो केमिकल उपाय हैं, लेकिन सबसे खतरनाक हैं। हम एक सी अपरच्यूनिटी पैदा कर सकते हैं, एक से आदमी पैदा कर सकते हैं। जो निकटतम है, वह केमिकल है, कि हम सारे लोगों की केमिकल स्थिति को समान कर दें, जो कि बिलकुल आसान है। अब संभव हो सकता है। हम आपकी इंटेलिजेंस बराबर कर दें, आपकी काम्पिटीशन की क्षमता बराबर कर दें, आपकी दौड़ने की क्षमता बराबर कर दें, केमिकली। लेकिन तब हम आपकी आदमियत छीन लेंगे। क्योंकि तब आप मशीन हो गए। तो एक संभावना यह है कि जस्टिस की, कि जिसकी हमें बहुत पुकार है, वह पूरी हो जाए, आदमी को मशीन बना दें। अपरच्यूनिटी बराबर होगी; इक्वेलिटी बराबर होगी। कोई उपद्रव नहीं होगा, कोई झंझट नहीं होगी। लेकिन आदमियत खतम हो जाएगी। आदमी के नेचर को अगर हम बिलकुल बराबर करने की कोशिश करें तो आदमी खतम हो जाएगा। आदमी की विभिन्नता आदमी के होने का अनिवार्य तत्व है। और जब तक विभिन्नता है, तब तक थोड़ी सी इनजस्टिस अनिवार्य है।
दूसरा उपाय यह है। दूसरा उपाय यह है कि आदमी को बिना छुए हम कुछ कर सकें, और बिना छुए करने में थोड़ी सी इनजस्टिस बाकी रहती चली जाएगी। और मैं मानता हूं, परफेक्ट सोसाइटी कभी पैदा न हो सकी, और न होनी चाहिए। क्योंकि परफेक्ट सोसाइटी बेसिकली ऑटोमेटंस की ही हो सकेगी।
इसलिए परफेक्ट आइडियल के मैं हमेशा खिलाफ हूं। तो एब्सल्यूट जस्टिस का मेरे लिए कोई मतलब नहीं है, क्योंकि एब्सल्यूट जस्टिस, एब्सल्यूट इनजस्टिस होगी और जस्टिस का मीनिंग भी इसलिए है कि इनजस्टिस का बैक ग्राउंड चलता है। तो मेरी नजर में मोर जस्टिस है। मोर जस्टिस का कोई अर्थ है। एब्सल्यूट जस्टिस का कोई अर्थ नहीं है। और मोर जस्टिस का मतलब यह है कि इनजस्टिस कायम रहती है। उसकी भी मात्रा बनी रहती है। तो एब्सल्यूट आइडियल के तो मैं किसी भी पक्ष में नहीं हूं।
मेरा खयाल है कि जो भी यूटोपियंस एब्सल्यूट आइडियल दे रहे हैं, वे आदमी के हत्यारे सिद्ध होंगे। क्योंकि एब्सल्यूट आइडियल अब पूरे किए जा सकते हैं। अब तक कोई खतरा नहीं था। अब तक कोई खतरा नहीं था, अब तो हम आदमी के क्रोमोसोम में और सेल में भी आज नहीं, कल प्रवेश कर जाएंगे। और हम बिल्ट-इन प्रोसेस दे सकते हैं वहीं से। इसलिए कोई बहुत दिक्कत नहीं रह गई है बड़ी कि हम आदमी के बेसिक सेल्स में बिल्ट-इन इक्वालिटी पैदा न कर दें। तब तो बड़ा आसान हो जाएगा मामला और बिल्ट-इन जस्टिस का भाव डाल दें, सोशल जस्टिस का। या हो सकता है बिल्ट-इन हम उसकी इंडिविजुअलिटी को छीन लें और उससे कह दें कि तुम समाज के लिए जीओ। अब यह संभव है। बुद्ध-महावीर समझाते रहे, यह संभव नहीं था। क्राइस्ट समझाते रहे, संभव नहीं था। माक्र्स समझाता रहा, यह संभव नहीं था। लेकिन अब यह टेक्नालाजिकली संभव हो जाएगा, इन आने वाले बीस-पच्चीस वर्षों में कि हम आदमी को जितना हमने आइडियल्स तय किए थे, सब पूरे करवा दें। और इसलिए अब आइडियल्स से सावधान होने की जरूरत है। और हमको बहुत सचेष्ट हो जाना चाहिए कि अब हम ये एब्सल्यूट बातें न करें, क्योंकि वैज्ञानिक इनको पूरा कर देगा। कभी-कभी ऐसा होता है कि जो हम प्रार्थना करते हैं, वह अगर पूरी हो जाए, तब हमें पता चलता है कि मुश्किल में पड़ गए, यह नहीं होता तो अच्छा था।
मेरी अपनी समझ यह है कि इनजस्टिस की एक मात्रा कायम रहेगी। रहनी चाहिए, तो ही जस्टिस का कोई अर्थ है। अगर हेट्रेड की संभावना नहीं है, तो प्रेम का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। अगर मैं आप पर क्रोध नहीं कर सकता तो मेरी क्षमा बिलकुल बेमानी हो जाएगी। और अगर मैं आपको तलवार नहीं मार सकता तो आपके घाव पर पट्टी बांधना मेरा अर्थहीन हो जाएगा।
जिंदगी कंट्राडिक्ट्री है और आदमी का स्वभाव कंट्राडिक्शंस का है। अब सवाल जो महत्वपूर्ण है, वह यह नहीं है कि हम कंट्राडिक्शंस को बिलकुल काट दें। सवाल जो महत्वपूर्ण है, वह यह है कि जो कंट्राडिक्शंस अग्ली हैं साइड से, वे दब जाएं और जो ब्यूटीफुल साइड हैं, वे ऊपर आ जाएं। जो सबसे बड़ा सवाल है, वह यह है कि आदमी की बुराई खतम न हो जाए, क्योंकि बुराई के खतम होते ही भलाई भी खतम हो जाएगी। हां, इतना ही बड़ा सवाल है कि बुराई नीचे हो और भलाई ऊपर हो। भलाई जीतती हुई हो और बुराई हारती हुई हो। और यह हार अंततः चलती ही रहेगी, यह किसी सीमा पर समाप्त होने वाली नहीं है। तो मैं मानता नहीं कि एकदम से जस्टिस हो जाए; या होना चाहिए, यह भी नहीं मानता। क्योंकि मेरे लिए वह टोटल इनजस्टिस है। अब रह गया यह कि अधिकतम, मैक्सिमम जस्टिस की क्या संभावना है। उसमें मुझे तीन-चार बातें दिखाई पड़ती हैं।
एक तो मुझे यह दिखाई पड़ता है, जैसा मैंने कहा कि अगर मनुष्य के श्रम की जरूरत क्षीण हो जाए, एकदम समाप्त तो नहीं हो जाएगी, क्योंकि हमें बटन दबाने के लिए भी कुछ लेबर की जरूरत पड़ेगी, और मशीनें बिगड़ेंगी तो भी ठीक करने की जरूरत पड़ेगी, और कंप्यूटर गलत चला जाएगा, तो भी हमें साइंटिस्ट की जरूरत पड़ेगी, लेकिन कम हो जाएगी। जितना श्रम हमें करना पड़ रहा है कंपलसरी, वह विदा हो जाएगा। और वह इतना कम हो जाएगा कि हम उसे खेल की तरह कर पाएंगे। वह कोई अनिवार्यता नहीं रह जाएगी हमारे ऊपर।
और यह जो आप कहते हैं कि अमेरिका या रूस में जहां आटोमेटिक मशीनें चलाई जा रही हैं, वहां मजदूरी बढ़ेगी।
शुरू में बढ़ना स्वाभाविक है। क्यों? क्योंकि कोई भी नई चीज आएगी तो हमारी पूरी व्यवस्था गड़बड़ाती है, पूरी व्यवस्था में र्डिस्बेंस होता है। और आटोमेटिक मशीन आएगी तब भी हम उस मशीन के साथ वही व्यवहार करेंगे, जो हमने नॉन-आटोमेटिक के साथ किया था, क्योंकि हम उसे मशीन समझेंगे। वह मशीन नहीं है। रेवोल्यूशन हो गया। उसको साधारण मशीन मानना ठीक नहीं है। तो जब हम आटोमेटिक मशीन ले आएंगे तो हम कहेंगे कि अब हम जो आदमी काम नहीं कर रहा है, उसको पैसे दें? आटोमेटिक मशीन के साथ जो आदमी काम नहीं कर रहा है, उसको ज्यादा पैसा मिलने चाहिए। क्योंकि आपसे काम नहीं मांग रहा है। और जो आदमी कहता है, हम काम करेंगे ही, उसे थोड़े कम पैसे मिलने चाहिए, क्योंकि वह दो चीजें मांग रहा है, काम भी मांग रहा है और पैसे भी मांग रहा है। जो आदमी कहता है, हम काम न करने को राजी हैं, इसको थोड़ा ज्यादा पैसा मिलना चाहिए क्योंकि वह एक ही चीज मांग रहा है कि हम काम नहीं करते। काम करने की मांग नहीं कर रहा है।
आने वाले पचास साल में जब कोई सोसाइटी ठीक से आटोमेटिक ढंग से रन करने लगेगी, तो आप जो लोग काम नहीं मांगते हैं, उनको ज्यादा दे पाएंगे, क्योंकि वे आपको परेशान नहीं करते हैं। और जो लोग कुछ कहेंगे कि हम बिना काम के रह ही नहीं सकते, थोड़ा काम चाहिए ही, तो उनको आप थोड़ा कम दे सकेंगे, क्योंकि वे दो चीजें मांगते हैं--पैसा भी मांगते हैं, काम भी मांगते हैं। लेकिन यह घड़ी घटने में पचास साल का, सौ साल का वक्त लगेगा।
और आटोमेटिक मशीन इतनी बड़ी क्रांति है कि हम उसे जब पुरानी व्यवस्था में रखेंगे, तब हम पुरानी व्यवस्था से सलूक करेंगे। हम कहेंगे जो मजदूर कल काम कर रहा था, अब उससे हमें काम नहीं चाहिए, उस अलग करो। इसके लिए हमें पूरे के पूरे सोशल मूड, सोशल थिंकिंग, वह सारी की सारी बात आटोमेटिक मशीन के साथ बदलनी पड़ेगी हमेशा बदलनी पड़ती है। बैलगाड़ी बदलती है, रेलगाड़ी आती है तो बदलनी पड़ती है। बदलनी ही पड़ती है। फिर पुरानी वर्ण-व्यवस्था नहीं चलती है। रेलगाड़ी के साथ पुरानी वर्ण-व्यवस्था तो तोड़ना पड़ता है। क्योंकि भंगी और ब्राह्मण बगल में बैठ जाते हैं। और रेलगाड़ी में बैलगाड़ी वाला डिस्टिंक्शन करना मुश्किल हो जाता है।
ठीक आटोमेटिक मशीन आ जाए तो धीरे-धीरे फर्क होने शुरू होंगे। और फर्क होने शुरू हो गए हैं। उसके बाबत चिंतन करना शुरू हुआ है, क्योंकि चालीस हजार एक जगह काम करते हैं और चार हजार काम करेंगे और छत्तीस हजार मुक्त हो जाएंगे, तो इनका क्या होगा? ये कहां जाएं? ये विरोध भी डालेंगे, क्योंकि पुरानी व्यवस्था पूरा विरोध डालेगी। ये विरोध करेंगे कि हम पसंद नहीं करेंगे--हड़ताल करेंगे, स्ट्राइक करेंगे स्वभावतः। तो मेरा अपना मानना है कि आटोमेटिक मशीन के आते ही हमें बहुत सी चीजों के बारे में नया चिंतन खड़ा करना पड़ेगा। हमें कानून नये बनाने पड़ेंगे, नियम नये बनाने पड़ेंगे। कोर्ट को अधिकार देना पड़ेगा कि जिस आदमी का तुम काम छीनते हो, उसे जिंदगी भर का भोजन तुम्हें देना पड़ेगा, उसे कुछ आराम देना पड़ेगा। तो एक तो आटोमेटिक मशीन बड़े पैमाने पर आ जाए, टेक्नालाजिकल फर्क पड़े तो हम आदमी को करीब ले आएंगे।
बड़े मजे की बात यह है कि दुनिया में कोई आदमी श्रम करना नहीं चाहता। श्रम मजबूरी है। कोई करना नहीं चाहता। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि आदमी खाली बैठना पसंद करेगा। नहीं, आदमी काम तो करना चाहेगा, इसलिए जो लोग खाली बैठे हैं वे खेल में लग जाते हैं। खेल भी काम है, यह मौज से चुना गया है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

इसमें दो बातें हैं--एक तो जैसे ही काम छिन जाएगा आदमी के हाथ से तो मैं नहीं कहता कि, ही वुड बी हैपियर। मैं सिर्फ इतना कहता हूं, ही वुड नाट लिव मिजरेबल। मैं नहीं कहता कि वह हैपियर होगा।
पर नई तकलीफें शुरू होंगी। हायर लेवल पर तकलीफें शुरू होंगी क्योंकि तकलीफें तो खतम नहीं हो सकतीं, क्योंकि तकलीफों के साथ जिंदगी खतम हो जाती है। फिर कुछ करने को नहीं बचता है। लेकिन जब नीचे के तल की तकलीफें खतम हो जाती हैं तो ऊपर के तल की तकलीफें शुरू होती हैं। हो सकता है आप परेशानी में पड़ जाएं कि मैं उतना अच्छा सितार नहीं बजा पाता जितना कि पड़ोसी बजाता है। जैसे ही जरूरतों से आदमी मुक्त होगा, गैर-जरूरी चीजें महत्वपूर्ण हो जाएंगी। गैर-जरूरी चीजों का नाम ही कल्चर है, मेरे हिसाब से। गैर-जरूरी चीजों का नाम ही संस्कृति है।
तो जैसे ही आदमी जरूरी चीजों से मुक्त होता है, संस्कृति शुरू होगी। मेरे हिसाब से दुनिया में अभी तक कोई संस्कृति शुरू नहीं हुई है। हां, कभी-कभी कोई संस्कृत घर हुए हैं, वह दूसरी बात है। बुद्ध का परिवार का घर कि एक लड़के को नग्न घूमना है तो वह घूम सकता है। ये लास्ट लक्ज़रीज हैं, जो बहुत कम लोग अफोर्ड कर सकते हैं। लेकिन पहली दफा आटोमेटिक रेवोल्यूशन के साथ सारी मनुष्य-जाति कल्चर के लेवल पर पहुंचेगी। किसी अकबर को ही सुविधा नहीं रहेगी कि तानसेन को बैठ कर सुने। और किसी तानसेन को ही सुविधा नहीं रहेगी कि वह सितार बजाता रहे जिंदगी भर। यह सुविधा सबको उपलब्ध हो जाएगी।
तो जैसे ही श्रम से हमारी मुक्ति होती है, वैसे ही खेल की दुनिया शुरू होती है। और अभी भी जो लोग श्रम से बच जाते हैं, वे खेल की दुनिया में प्रवेश कर जाते हैं। खेल आनंदपूर्ण है, क्योंकि वह स्वेच्छा से किया गया श्रम है। और श्रम दुखद है, क्योंकि उसमें गहरी परतंत्रता है, वह मजबूरी है। तो एक निश्चित ही बहुत बड़ी क्रांति के करीब आ रहे हैं। न सोशलिज्म में उतनी बड़ी क्रांति है और न किसी इज्म में उतनी बड़ी क्रांति है, जो टेक्नालाजिकल रेवोल्यूशन से संभव होगी, कि आदमी एज ए होल, एज ए सोसाइटी कल्चर्ड हो जाएगा।
और यह कल्चर नये प्राब्लम खड़े कर देगी, क्योंकि बहुत से लोग हैं जो बिलकुल एनिमल के तल पर जी रहे हैं, जिनको कल्चर्ड होने में बड़ी मुश्किल पड़ जाएगी, जितनी मुश्किल भूखे रहने से नहीं पड़ेगी। और आप पाएंगे कि नई तरह की मिजरीज पैदा हो गईं, क्योंकि जो आदमी छह घंटे चरखा चलाए बिना शांत अनुभव नहीं करता था, उसकी बड़ी मुसीबत हो जाएगी। क्योंकि यह कहेगा, मैं तो चरखा चलाऊंगा। और चरखा चलाना बिलकुल बेमानी हो जाएगा। इसका कोई माने नहीं रहेगा। अगर यह चरखा नहीं चलाएगा तो यह कुछ और उपद्रव करेगा।
तो हमें कुछ ऐसे इनोसेंट काम खोजने पड़ेंगे, जिनको पीछे छूट गई मनुष्यता के हिस्सा को जो बिना काम किए नहीं जी सकता है--जो श्रम को कहता है, "बड़ी जरूरी बात है' जो श्रम को कहता है, "श्रम है भगवान', जो कहता है, "श्रम जो है, धर्म है'--ऐसा जो वर्ग है हमारा, उस वर्ग के लिए हमें कुछ इनोसेंट श्रम खोजने पड़ेंगे कि वह अकारण बैठ कर मछलियां मारता रहे। मेरा मतलब यह है कि वह मक्खियां मारता रहे। या हमें और तरह के श्रम खोजने पड़ेंगे जो कि हमारे उस हिस्से को जो श्रम को खेल में नहीं बदल सकता है, जिसको श्रम चाहिए ही, उसको लगाना पड़ेगा।
दूसरी बात, मिजरी कम हो जाएगी, लेकिन हैपिनेस नहीं बढ़ जाएगी। जो रुकावटें थी हैपिनेस की--हैपिनेस खोजने की सुविधा हो जाएगी। फिर भी नये तरह के काम्पिटीशंस शुरू हो जाएंगे, हैपिनेस की खोज के अंदर। फिर भी हो सकता है, जब मैं मछली मारूंगा तो ज्यादा मेडिटेटिवली मारूंगा और आप बड़े परेशान होकर मारेंगे। आप उतना आनंद नहीं पाएंगे, जितना मैं पा लूंगा। तब नये वर्ग शुरू हो जाएंगे।
दुनिया वर्ग-विहीन पूरी तरह कभी भी नहीं हो सकती, क्योंकि आदमी भिन्न है और भिन्न वर्ग शुरू हो जाएंगे। यह वर्ग हो सकता है, संगीतज्ञों का एक वर्ग बन जाए तो संगीत में रस लेते हों। जिसको कहना चाहिए इन-ग्रुप। और जो नहीं लेते, आउट-ग्रुप मालूम पड़ने लगे। जो लोग काव्यों में रस लेते हों वे इन-गु्रप के हो जाएं। जो लोग कुछ भी रस नहीं ले सकते हैं, वे शराब पीएं, एल.एस.डी. का उपयोग करें, मैस्कलीन लें, वह उनका इन-ग्रुप हो जाए, बाकी आउट साइडर्स हो जाएं। ये सारी संभावनाएं होंगी।
और नये तल पर मनुष्य की नई तकलीफें शुरू होंगी जो कि मेंटल होंगी, बॉडिली कम हो जाएंगी। निश्चित ही मेंटल तकलीफें बड़ी बॉडिली हैं। वह तो जब तक बॉडिली तकलीफें हैं, हमें उनका कोई पता नहीं चलता। इसलिए एक दफा जब आदमी अपनी सारी शरीर की जरूरतें पूरी कर लेता है, तब पहली दफे चिंतित होता है, जिसको एंग्जाइटी कहें। वह भूख से एंग्जाइटी पैदा नहीं होती। एंग्जाइटी बहुत ही हायर लेवल की बात है। टेंशन बहुत हायर लेवल की बात है। इसलिए मेरा मानना है कि जिस दिन आटोमेटिक व्यवस्था हो जाती है, तो उस दिन रिलीजन का एक्सप्लोजन होगा--बड़े जोर से होगा। क्योंकि आप इतनी एंग्विश से भर जाएंगे जो कि बिलकुल इनर होगा, जिसके लिए अब साइंस सहयोगी नहीं हो सकेगी। या ज्यादा से ज्यादा साइंस टैं्रक्वेलाइजर्स दे सकेगी। तो आप मेडिटेशंस की तरफ उत्सुक होंगे, धर्म की तरफ उत्सुक होंगे, ध्यान की तरफ उत्सुक होंगे। और मेरा मानना यह है कि पहली दफा दुनिया जब संस्कृति में प्रवेश करेगी तो धर्म की दिशा खुलेगी। अभी तक कोई सोसाइटी धार्मिक नहीं हो सकी, व्यक्ति हो सके हैं।
तो ये सारे के सारे इनके नये प्राब्लम्स होंगे, जिनको शायद हम आप सोच भी नहीं सकते कि क्या प्राब्लम्स होंगे?

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

गॉड हमेशा पूछा जाता रहेगा और उत्तर कभी नहीं हो सकता। जिस दिन उत्तर मिल जाएगा, उस दिन हमको सुइसाइड करनी पड़ेगी कि अब कोई बात ही नहीं, खतम हो गई बात। वह तो हमेशा बना रहेगा, नये लेबलों में।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

जिस दिन टेबलेट पर आप जीएंगे और बटन दबाना सिर्फ श्रम रह जाएगा, उस दिन पहली दफा आपके लिए स्प्रिचुअल रिविलेशंस खुलने शुरू होंगे; जिसको स्प्रिचुअल डायमेंशंस कहें, वह खुलने शुरू होंगे। आप पहली दफे उन चीजों में उत्सुक हो पाएंगे, जिनमें आप कभी उत्सुक नहीं हुए थे। और मनुष्य के जीवन में इतनी मिस्ट्रीज हैं और मनुष्य के जीवन में इतनी पोटेंशियलिटीज हैं, कि जिनके बाबत हमें उत्सुक होने का कभी मौका नहीं मिला, उनके बाबत हम बहुत उत्सुक हो जाएंगे। और हम कुछ ऐसी चीज जान पाएंगे जो हमने कभी नहीं जानी और हो सकता है हममें कुछ ऐसी इंद्रियां सक्रिय हो जाएं जो कभी सक्रिय नहीं थीं। जैसे, आदमी का ब्रेन है, वह आधा अभी भी खाली पड़ा हुआ है। आधा ब्रेन अभी भी सक्रिय नहीं है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

असल में वेद के समय में जिस आदमी ने कहा कि सिर्फ अंगुली के स्पर्श से उसने सब बनाया, यह कविता थी। और हम पांच सौ साल बाद जो करेंगे, वह विज्ञान होगा। और कविता और विज्ञान में बड़ा फर्क है। असल में कविता हमेशा विज्ञान के तीन हजार साल पहले शुरू हो जाती है। वे पोएट्स थे, वे कोई साइंटिस्ट नहीं थे। वे साइकिल का पंचर भी नहीं जोड़ सकते थे। और वे पोएट्स थे और पोएट हमेशा साइंटिस्टों से थाउजंडस इयर बिफोर होता है। तो पोएट्स जो कहते हैं आज, वह तीन हजार साल में पूरा होता है। विज्ञान उसको तीन हजार साल में एक्चुअलाइज करता है।
न्यू पोएट्स पैदा हो रहे हैं, क्योंकि अभी तो पुरानी पोएट्री भी एक्चुअलाइज नहीं हो पाई। वह एक्चुअलाइज होते ही न्यू पोएट्स पैदा होंगे। जैसे कि आज एल.एस.डी. लेकर जो कह रहा है, आज जो मैस्कलीन लेकर पोएट्री कर रहा है। आज अगर पिकासो चित्र बना रहा है, ये चित्र तीन हजार साल पहले किसी चित्रकार ने नहीं बनाए। यह पिकासो बना रहा है और आज हमारे लिए बिलकुल एब्सर्ड हैं। क्योंकि तीन हजार साल बाद वह आदमी आएगा, जो इनको एक्चुअल कर पाएगा।
वेद के ऋषि ने जो कहा है वह वेद के जमाने में उन्मादी था, पागल था, ईश्वर का दीवाना था। वह जो कह रहा था, कोई मतलब की बात न थी कि क्या कर रहा है, इसलिए हमने उसकी पूजा कर ली थी। और हमने कहा था कि वह, जिसको कहना चाहिए, ईश्वरी शराब में डूबा हुआ आदमी, लेकिन हम उसे तब समझ नहीं पाए। आज भी समझ नहीं पाए, आज भी बात पूरी साफ नहीं हो पाई है।
आज पिकासो को समझना मुश्किल है। आज जो नया म्यूजिक पैदा हो रहा है, उसको समझना भी मुश्किल है। वह हमारे कानों को शोर मालूम होता है। तानसेन हमें ठीक समझ में आता है। वह पकड़ में आता है। अब हमने उसको रिकग्नाइज किया है। यानी आज के पोएट को भी तो रिकग्नाइज करने में वक्त लगेगा, क्योंकि वह नई उसने बात कहीं है। नये को भी हम तब समझ पाते हैं, जब वह काफी पुराना हो गया होता है। उसको भी नहीं पकड़ पाते हैं। उसको भी पकड़ने के लिए वक्त चाहिए न!
तो आज भी गिंसबर्ग कुछ कह रहा है, लेकिन वह हमारी पकड़ में नहीं आ रहा है। वह आदमी पागल मालूम पड़ रहा है। अभी टिमोथी लियरी को पैंतीस साल की सजा दी है अमेरिका में, टिमोथी लियरी भविष्य का प्रोफेट है। लेकिन वह जो कह रहा है, हम उसको सिर्फ सजा दे सकते हैं। टिमोथी लियरी ने एक किताब लिखी है। और एल.एस.डी. एंड इंवेस्टीगेशन इन मिस्टीसिज्म पर लिखा है! अब वह यह कह रहा है कि तिब्बत में जो मिस्टिक्स ने कहा है वह एल.एस.डी. लेने से पता चलता है। और एल.एस.डी. लिए बिना उसकी कमेंट्री नहीं की जा सकती। एल.एस.डी. लेकर उसकी कमेंट्री की है उसने, बड़ी अदभुत है। लेकिन वह कह रहा है, एल.एस.डी. भविष्य है हमारे लिए। अब जो भी भविष्य में खुलने वाला है द्वार, चाहे विज्ञान का, चाहे कविता का, वह एल.एस.डी. से खुलने वाला है।
अब टिमोथी लियरी को हम सजा दे रहे हैं। हो सकता है, सौ साल बाद हम उसकी मूर्ति बनाएंगे। वह हमने सदा किया है। अभी हम पैंतीस साल की सजा दे रहे हैं, इसको बंद करो, यह आदमी खतरनाक है, यह गड़बड़ कर देगा। यह क्या बातें कर रहा है? लेकिन एल.एस.डी. ने एक केमिकल रेवोल्यूशन कर दी है। उसके बाद हम और तरह की सोचेंगे, कविता और तरह से होगी। वह कविता वैसी नहीं हो सकती है, जैसी कल तक होती थी। और कुछ आश्चर्य नहीं है कि जिसको हम कल तक कवि कहते थे, उसमें एल.एस.डी. का कुछ तत्व था, कि वह बिल्ट-इन था, यह दूसरी बात है। आज हम उसे ऊपर से सले सकते हैं, यह दूसरी बात है।
आश्चर्य न होगा हमें, कि ब्लैक जो कुछ देखता था, या कालिदास ने जो फूलों में देखा है, इनके माइंड में कुछ केमिकल फर्क हो। यह बहुत आश्चर्य की बात नहीं हो सकती है। यह संभव है। अब यह जो सारा का सारा...इधर बीस-पच्चीस वर्षों में जो यह सदी सिकुड़ेगी, इन बीस-पच्चीस वर्षों में जो भी होगा, उसे समझने में सौ साल लग जाएंगे। और इस पोएट्री को तभी समझा जाता है, जब साइंटिस्ट उसको धीरे-धीरे समझ लेता है।
अब आकाश में उड़ने की कल्पना कितनी पुरानी है, लेकिन इधर हम सौ साल में पूरा कर पाए उस कल्पना को। चांद तक पहुंचने की और मंगल तक पहुंचने की कल्पना कितनी पुरानी है और पुराण तो बात ही करते हैं कि पहुंच ही गया ऋषि-मुनि! लेकिन अब हमारे पहुंचने के पहले कदम होंगे।
जिस तरह हम भौतिक जगत में नये-नये आयामों में प्रवेश कर रहे हैं, उसी तरह हम आध्यात्मिक स्थितियों में भी नये-नये आयामों में प्रवेश कर सकेंगे। बहुत सी इंद्रियां हैं मनुष्य की, जो सक्रिय हो सकेंगी। मस्तिष्क के बहुत से प्वाइंटस हैं, जो निष्क्रिय हैं, वे सक्रिय हो सकेंगे। और हमारी जिंदगी में बहुत सी गतियां हो सकेंगी, जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते, क्योंकि जब तक वह हो न जाएं, तब तक उनकी कोई कल्पना भी संभव नहीं है। यह सबका सब संभव हो रहा है, संभव हो जाएगा।
और यह मेरी अपनी मान्यता है कि इस अगर संभव बनाना है तो सोशलिज्म इसमें बाधा है। सोशलिज्म इसमें सहयोगी नहीं है। क्योंकि एकबारगी स्टेट के हाथ में सारी ताकत पहुंच जाए तो ये सारी बातें खतरनाक सिद्ध हो सकती हैं। अगर रूस के डिक्टेटरशिप को यह पता चल जाए कि एक केमिकल है, जिसको पूर वाटर वक्र्स में डालने से रिबेलियन की ताकत खतम हो जाती है तो वह जरूर इसका उपयोग करेगा। और उसका उपयोग करने से रोकने के लिए हमें कोई ताकत नहीं रोक सकती है।
कैपिटलिज्म के पास भीतरी ताकतें हैं, जो रोक सकती हैं। सोशलिज्म के पास कोई भीतरी ताकत नहीं है, जो रोक सके। अगर एक बार मुल्क डिक्टेटोरियल रिजीम में चला जाता है और टेक्नोलाजी और विज्ञान उसको सब ताकतें दे देता है, तो वह उसका उपयोग किए बिना चूकने वाला नहीं है, क्योंकि कोई वजह नहीं कि वह उसका उपयोग क्यों न करे? अगर क्रांति रोकी जा सकती है केमिकल ड्रग्स से, तो बराबर रोकी जाएगी। और अगर बच्चों के दिमाग में कम्युनिज्म के विरोध में कोई बात न आने देने की है, कोई मेकेनिकल डिवाइस हो सकती है, तो बराबर उसका उपयोग किया जाएगा। और अगर माइंड वाश हो सकता है, तो किया जाएगा। इसलिए भी मैं कहता हूं कि सोशलिज्म अब जितना खतरनाक है, जो डिक्टेटोरियल फोर्सेस के हाथ में फेटल सिद्ध हो जाएंगे, इसलिए अब तो किसी भी हालत में इंडिविजुअल फ्रीडम को ही बचाना होगा। और डेमोक्रेसी अब एकदम ही मस्ट है, अब उससे इंच भर इधर-उधर होना खतरनाक है। और मेरी ऐसी समझ है कि सोशलिज्म के साथ डेमोक्रेसी का कोई संबंध नहीं है, न हो सकता है।
असल में सोशलिज्म का कांसेप्ट चेंज जो हो रहा है, वह मनुष्य के स्वभाव की वजह से चेंज हो रहा है। लेकिन अगर सोशलिस्ट डिक्टेटरों के हाथ में मनुष्य के स्वभाव को केमिकली बदलने की ताकत आ जाए तो कांसेप्ट चेंज नहीं हो सकता। और वह आती जा रही है और स्टैलिन अगर बीस साल और जिंदा रह जाता तो जल्दी हो जाती संभावना। और माओ अगर बीस साल जिंदा रहता है, तो वह कर लेता। आज माइंड वाश का बड़े जोर से उपयोग किया जा रहा है। चायना में और खतरनाक से खतरनाक वाशिंग की जा सकती है।
अभी एक अमरीकन वैज्ञानिक ने एक घोड़े के दिमाग को आप्रेट करके उसमें इलेक्ट्रोड रख दिया था। और उस इलेक्ट्रोड को रेडियो से प्रभावित किया जा सकता है। वह कितनी ही हजारों मील दूर से, अपने ट्रांस्मीटर से अगर उस घोड़े को कहे कि तुम नाचो, तो वह घोड़ा नाचेगा। एक मित्र ने मुझे कटिंग भेजी है कि यह घटना घटी है। मैंने कहा कि यह सारी दुनिया में शोक मनाने जैसी घटना है, क्योंकि घोड़े के दिमाग में रखा गया इलक्ट्रोड--कितनी देर लगेगी कि आदमी के दिमाग में रख दिया जाए। और एक दफा राज्य के हाथ में ताकत पूरी हो तो पूरे मुल्क के दिमाग में रख दिया जाए, तो इसमें दिक्कत क्या है।
तो अब तो मैं मानता हूं कि सोशलिज्म किसी भी हालत में महंगा है। किसी भी हालत में महंगा है, क्योंकि टेक्नालाजी इतनी ताकत दे रही है कि अब राज्य के हाथ में ताकत रोज कम होनी चाहिए। धीरे-धीरे राज्य के हाथ में कम ताकत रह जानी चाहिए कि सोसाइटी के पास राज्य से भी लड़ने का उपाय रहे। और राज्य सोसाइटी के साथ जो भी करना चाहे, वह कर न सके, सोसाइटी बगावत कर सके।
स्टेट सिर्फ क्लास एजेंसी ही नहीं है, स्टेट के और भी बहुत से फंक्शंस हैं। तो स्टेट अगर क्लास एजेंसी की तरह जो काम करती थी, वह तो विदर अवे हो जाएगा, दैट फंक्शन अलोन। और मैं नहीं मानता कि उसने इकॉनामी से फंक्शन किया है। मैं मानता हूं, फंक्शंस आर देअर, जो कि और बढ़ जाएंगे।
और मेरा मानना यह है कि माक्र्स जिस भांति सोचता था कि क्लास विदर अवे हो जाएगी, उस भांति तो कभी न होगी। माक्र्स के रास्ते से तो जाकर स्टेट और भी क्रिस्टलाइज हो जाएगी। माक्र्स के रास्ते से जाकर स्टेट क्रिस्टलाइज होगी, विदर अवे कभी न होगी। क्योंकि माक्र्स पहले स्टेट के हाथ में पूरी ताकत देगा, इस आशा में कि वह क्लासेस को मिटा दे। इस आशा में स्टेट को पूरी की पूरी ताकत दे दी जानी चाहिए, ताकि वह स्टेट क्लासेस को मिटा दे! लेकिन माक्र्स को यह खयाल नहीं है कि जैसे ही स्टेट क्लास को मिटाती है, दो क्लास बन जाती है--स्टेट्स के मैनेजर्स की, और मैनेज्ड की। और फिर दो क्लास में विभाजन हो जाता है। और एक डिक्टेटोरियल क्लास खड़ी हो जाती है तत्काल। और इसको मिटाना बहुत मुश्किल है। और इसके खिलाफ कोई उपाय नहीं है मिटाने का। इसके हाथ में सारी ताकत इकट्ठी हो जाती है। तो माक्र्स ने जिस रास्ते से सोचा है कि एक दिन राज्य-विहीनता आ जाएगी, उस रास्ते से तो कभी नहीं आ सकती।
और दूसरा, माक्र्स सोचता है कि स्टेट का कुल काम एजेंसी का है क्लास की, वह भी गलत है। स्टेट का अपना भी काम है। स्टेट सिर्फ क्लास एजेंसी नहीं है। इतने अधिक लोगों के बीच जो रिलेशनशिप है--दस करोड़ लोग रह रहे हैं, पचास करोड़ लोग रह रहे हैं। आज जमीन पर तीन अरब लोग रह रहे हैं, इन तीन अरब लोगों के बीच जो रिलेशनशिप का पैटर्न है, इन पैटर्न को सम्हालना भी स्टेट का काम है। तो स्टेट विदर अवे मेरे हिसाब से कभी भी न होगी। हां, स्टेट का फंक्शन बदलता जाएगा। जो भी फंक्शन बेकार होते जाएंगे, वे बदलते जाएंगे।
और दूसरा, स्टेट के साथ जो नेशन है, वह जरूर विदर अवे हो जाएगा। नेशन की तो कोई जरूरत नहीं रह जाने वाली है। जैसे ही हम इस सदी को पार करते हैं कि नेशन तो विदर अवे हो जाएगा। स्टेट शासन इंटरनेशनल हैसियत ले लेगी और उसकी फंक्शन जो है, वह फंक्शन पोलिटिकली कम हो जाएगी। उसका पोलिटिकली जो सारा का सारा स्ट्रक्चर है, वह दूसरे को हो जाएगा। उसको कहना चाहिए कि वह इकॉनामिकल हो जाएगा। उसको कहना चाहिए कि वह कंट्रोल रूम की भांति जीवन की जिन-जिन चीजों को व्यक्तिगत रूप से सम्हाला जा सकता, उनको वह सम्हालने लगेगी। और जिन चीजों को व्यक्तिगत सम्हाला जा सकता है, वह सारे के सारे स्टेट हाथ में लेते ही उनको खराब कर देती है--वह करने वाली है।
इस मुल्क में तो, हमारे मुल्क में तो अगर संपत्ति पैदा करनी है, शक्ति पैदा करनी है तो स्टेट के हाथ हमें रोज-रोज कमजोर करने चाहिए और व्यक्ति के हाथों में शक्ति पहुंचानी चाहिए। और बहुत काम पहुंचा सकते हैं। बड़ा मजा है कि ऐसे बहुत कम काम हैं जो स्टेट के हाथ में रह जाने चाहिए--पुलिस का काम है, वह स्टेट के हाथ में रहे। वह ज्यादा उचित होगा। क्योंकि गांव में मैं मानता हूं कि म्युनिसिपल का पुलिसमैन इतनी आसानी से गोली न चला सकेगा, जितनी आसानी से दिल्ली का पुलिसमैन गोली चलाता है।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

हमेशा टू अर्ली मालूम होता है, जब तक हो न जाए। उसके कारण हैं। क्योंकि जो कारण मुझे दिखाई पड़ते हैं, क्यों मैं ऐसा कर रहा हूं? तीन-चार कारण हैं। एक कारण तो यह है कि पहली दफा आदमी पृथ्वी के आर्बिट के बाहर हो गया है, जो कि बहुत बड़ी घटना है। पृथ्वी के आर्बिट से बाहर होते ही पृथ्वी पहली दफे एक हुई है। उसके पहले एक हो नहीं सकती थी। यूरी गागरिन से...जो पहली बात लौट कर पूछी कि तुम्हें क्या खयाल उठा? तो उसने कहा, माई अर्थ। माई रसिया उसने नहीं कहा। क्योंकि पृथ्वी के आर्बिट को छोड़ते ही रसिया का क्या मतलब रह जाता है? मेरी पृथ्वी हो जाती है।
पहली दफा आदमी ने पृथ्वी को छोड़ा है। और पहली दफा पृथ्वी के बाहर के जगत से संबंधित होना शुरू हुई है। अगर हम चांद पर या मंगल पर कल बस्तियां बसाना चाहते हैं तो न तो अमेरिका की अकेली ताकत है, न रूस की अकेली ताकत है, न चीन की अकेली ताकत है, हमें पहली दफा को-आप्रेट करना पड़ेगा। इसके बिना कोई उपाय नहीं है।
अभी अमेरिका के वैज्ञानिकों ने कहना शुरू किया कि अब अकेले कोई उपाय नहीं रह गया। अब हम चांद पर अगर ताकत बढ़ाना चाहते हैं तो हमें इकट्ठी बढ़ानी पड़ेगी। पहली दफा हमारे पास कुछ प्रोजेक्ट आए हैं, जो कि पूरी पृथ्वी करेगी। और जिंदगी इकट्ठी होती है प्रोजेक्ट से। अगर चीन से आपको लड़ना पड़ता है तो मराठी और गुजराती का फासला एकदम गिर जाता है, क्योंकि प्रोजेक्ट ऐसा है, जिसमें मराठी-गुजराती का कोई मतलब नहीं है। लेकिन चीन से आप नहीं लड़ते हैं तो मराठी-गुजराती लड़ना शुरू कर देता है। हिंदू-मुसलमान लड़ना शुरू कर दे तो प्रोजेक्ट खतम हो गया। लेकिन जब मुसलमान-हिंदू से लड़ता है तो शिया-सुन्नी का झगड़ा खतम हो जाता है। क्योंकि प्रोजेक्ट बड़ा है और उसमें शिया-सुन्नी दोनों के लिए कॉमन इनिमीज हैं तो पहली दफे पृथ्वी के लिए कॉमन इनिमीज मिलना शुरू हुए हैं।
और मेरा मानना है कि इस सदी के पूरे होते-होते हम किसी ने किसी ग्रह-उपग्रह पर जीवन को भी समझ पाने में समर्थ हो जाएंगे। क्योंकि कम से कम पचास हजार प्लेनेट संभव हैं, जिन पर किसी तरह का जीवन होगा। और एक बार अगर किसी प्लेनेट पर हमें जीवन का पता चल गया हो हमारी कांफ्लिक्ट पहली दफा प्लेनेटरी हो जाएगी और नेशन का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। यह तो टेक्नालाजिकली मैं मानता हूं कि टेक्नालाजी हमें इसके करीब पहुंचा देगी। यह मैं नहीं कहता कि ठीक यही सदी--बस बीस-पच्चीस वर्ष का फासला है, इससे कोई मतलब नहीं है। हां, लेकिन यह सदी कुछ चोटें करेगी और इन चोटों में बड़ी चोट यह है कि टेक्नालाजिकली संभव हो गया है कि पृथ्वी को बाहर के जगत से संबंधित कर सकें।
दूसरी बात--जितने जोर से हमारे यानों की मूवमेंट और स्पीड बढ़ रही है, क्योंकि अब हमारे पास ऐसे जेट हैं, जो आधा घंटे में पूरी पृथ्वी घुमा दें। तो पृथ्वी एक ग्लोबल विलेज से ज्यादा नहीं रह गई, टेक्नालाजिकली। और जिस दिन बैलगाड़ी चलती थी, उस दिन एक गांव का अलग अस्तित्व था, दूसरे गांव का अलग अस्तित्व था। क्योंकि दोनों के बीच जो संबंधित होने का माध्यम था, उस दिन एक गांव का अलग अस्तित्व था, दूसरे गांव का अलग अस्तित्व था। क्योंकि दोनों के बीच जो संबंधित होने का माध्यम था, वह इतना ढीला था कि संबंध हो नहीं सकता था। नेशंस बने, क्योंकि रास्ते बने। अगर रास्ते न हों तो बड़े नेशंस नहीं बन सकते थे। ये इतने बड़े नेशंस खड़े हो सके, क्योंकि रास्तों ने जोड़ दिया। फिर नेशंस बड़े होते चले गए, क्योंकि टेक्नालाजी कम्युनिकेशन के साधन बढ़ते चले गए। हिंदुस्तान जैसा बड़ा मुल्क--पुराने दिनों में आप ज्यादा देर तक बड़ा नहीं रख सकते थे। अगर एक दफा कोई राजा जीत कर उसको इतना बड़ा कर लेता था तो उसके मरने के पहले ही यह टूटना शुरू हो जाता था। क्योंकि कम्युनिकेशन मुश्किल था। अब कम्युनिकेशन के साधन बियांड नेशन हो गए हैं। आज अहमदाबाद से न्यूयार्क पहुंचना उतना दूर नहीं है, जितना कल अहमदाबाद से दिल्ली पहुंचना दूर था। तो अब दूरी इतनी कम हो गई है तो पोलिटिकल दूरियां अब ज्यादा दूर नहीं है, जितना कल अहमदाबाद से दिल्ली पहुंचना दूर था। तो अब दूरी इतनी कम हो गई है तो पोलिटिकली दूरियां अब ज्यादा देर तक टिक नहीं सकतीं। पोलिटिकल दूरियों को धीरे-धीरे हट जाना पड़ेगा। उनका कोई अर्थ नहीं है। और जब अकाल पड़े बिहार में और अमेरिका का किसान खाना दे, तो कितनी देर तक बिहार के आदमी को अमेरिका के आदमी से दूर रखिएगा? ज्यादा देर तक दूर नहीं रख सकते आप।
और अब हालतें ऐसी होती जा रही हैं कि हमारी इंटर-डिपेंडेंसी की एक हालत बनेगी। असल में पुरानी दुनिया में दो शब्द मौजूद थे, डिपेंडेंस और इंडिपेंडेंस। आने वाली दुनिया में इंटर-डिपेंडेंस सबसे मशहूर शब्द हो जाने वाला है। न इंडिपेंडेंस का कोई मतलब रहेगा, न डिपेंडेंस शब्द का कोई मतलब रहेगा। क्योंकि अब किसी को किसी के ऊपर पूरी तरह डिपेंडेंड या गुलाम होने का कोई अर्थ नहीं रह गया।
असल में अब गुलामी महंगी पड़ने लगी, जो गुलाम बनाए उसको। अगर ब्रिट्रिश एंपायर बेमानी हो गया है। अब इतने बड़े ढांचे को सम्हालना ब्रिटेन के लिए महंगा पड़ रहा है। और अब उस ढांचे को बचाए रखना बिलकुल बेमानी था। वह ऐसा ही था, जैसे कि पुराने बड़े बंगले बेमानी होते जा रहे हैं और छोटे फ्लेट उनकी जगह लेते जा रहे हैं। मेरे एक मित्र ने बंगला तीस लाख में खरीदा और अब उसको गिरा रहा है। मैंने उनसे पूछा कि यह किसलिए गिरा रहे हो इतना बढ़िया बंगला। उन्होंने कहा, यह बिलकुल बेमानी है। यह इतने बड़े स्ट्रक्चर को तीस लाख का बना कर रखना खतरनाक है। अब हम इसकी जगह चालीस मंजिल का मकान बनाना चाहते हैं।
तो होता क्या है, पुराना स्ट्रक्चर नई टेक्नालाजी के साथ बेमानी हो जाता है; यह हमको धीरे-धीरे पता चल रहा है। तो एक इंटर-डिपेंडेंट वर्ल्ड विकसित हो रहा है। परस्पर अवलंबी, जिसमें कि बहुत ज्यादा देर नहीं रह गई कि हमें किसी मुल्क से लड़ना मुश्किल हो जाएगा। आज आप अमेरिका से लड़ नहीं सकते, क्योंकि कल गेहूं कौन देगा? आज आप रूस से लड़ नहीं सकते, क्योंकि आपका स्टील का कारखाना कौन खड़ा करेगा? अभी आप पाकिस्तान से लड़ सकते हैं, क्योंकि आपकी कोई इंटर-डिपेंडेंस नहीं है और दोनों मुल्क चूंकि टेक्नालाजिकली पिछड़ें हैं, इसलिए पुराने ढांचे में जी सकते हैं।
सच तो यह है कि रूस और अमेरिका आगे लड़ नहीं सकते। अगर लड़ाई हो भी सकती है कभी तो वह रूस और चीन में हो सकती है, अमेरिका और चीन में हो सकती है, क्योंकि चीन अभी भी टेक्नालाजिकली पुरानी दुनिया का हिस्सा है, रूस और अमेरिका एक नई टेक्नालाजी में प्रवेश कर गए हैं। उनके फासले रोज कम होते जा रहे हैं और अगर फासले रह गए हैं तो वह डाग्मेटिक हैं। अब वे फासले नहीं रह गए। और आज रूस के साइंटिस्ट के दिमाग में और अमेरिकी साइंटिस्ट के दिमाग में कोई फासला नहीं है, क्योंकि वे निकट होना चाहते हैं। क्योंकि जो उन्होंने खोजा है, वह खोज अब अकेले रूस के बल की नहीं है कि वह उसको पूरा कर ले। अब भविष्य के जो भी रिसर्च प्रोजेक्ट हैं, वह उनके लिए वर्ल्ड गवर्नमेंट ही पूरी कर सकती है। इसको कहने की मेरी वजह है। प्रीमैज्योर नहीं है, जो मैं कह रहा हूं। मैं जो कह रहा हूं, उसको वक्त लगेगा। लेकिन यह सदी पूरे होते-होते रूप रेखाएं बहुत साफ होनी शुरू हो जाएंगी। मिनी स्टेट विल विदर अवे, एंड स्टेट विल कम इनटू ए न्यू फंक्शन। और वह जो न्यू फंक्शन होगी, जिसको हमें कहना चाहिए, इंटरनेशनल हो जाएगी। और दुनिया को अब बहुत ज्यादा देर तक एक बाजार बनने से रोकना गलत है। और दुनिया को अब बहुत ज्यादा देर तक अलग-अलग इकाइयों में जिलाए रखना गलत है, क्योंकि आप जी भी नहीं सकेंगे। अब आप यह पक्का समझ लें कि अब जीने का कोई उपाय नहीं है, सिवाय विश्व नागरिक हुए बिना जीने का कोई उपाय नहीं है।
अब अभी से चिंता खड़ी हो गई है। अब जैसे कि आप बच्चे पैदा कर रहे हैं। इससे अमेरिका चिंतित है। यह चिंता उनकी होनी भी नहीं चाहिए, क्योंकि आपके बच्चे से उन्हें क्या मतलब है? लेकिन पूरा मतलब है। क्योंकि आज से पचास साल पहले यूरोप और अमेरिका और एशिया की आबादी बराबर थी। फिर अनुपात बिगड़ने लगा। आज सत्तर परसेंट हम हैं और बीस परसेंट वे हैं। अब उनका डर बढ़ता जाता है कि अगर इस सदी के पीछे तक ऐसी गति चली तो वे दस परसेंट रह जाएंगे, नब्बे परसेंट हम हो जाएंगे। हम उनको वाशिंगटन उत्सुक है कि आपका बच्चा आप एकदम पैदा नहीं कर सकते हैं। क्योंकि अब मामला पूरी दुनिया का है। आप बच्चा पैदा कर रहे हैं तो आपको ही यह मामला नहीं है।
आपका मुल्क अकाल से ग्रस्त होता है, तो भी सारी दुनिया का मामला है। अगर आपके मुल्क में महामारी फैलती तो वह आपका ही मामला नहीं है, वह सारी दुनिया का मामला है। क्योंकि आज से अगर सौ साल पहले आपके मुल्क में कोई महामारी फैलती तो दूसरे मुल्क में प्रवेश नहीं कर पाती। आज अगर आपके मुल्क में महामारी फैल गई है तो पूरी पृथ्वी में प्रवेश कर जाएगी। वह फ्लू चाहे जापान में पैदा हो तो स्वीडन में पहुंच जाएगी। अब उसके रोकने का उपाय बहुत मुश्किल हो गया है। हम बहुत अर्थों में एक दुनिया बन चुके हैं, सिर्फ मेंटली हमारी पुरानी बेवकूफियां हमें रोके हुए हैं। उनको तोड़ने में जितना वक्त लग जाए, वह दूसरी बात है। लेकिन वस्तुतः हम दुनिया एक बन चुके हैं। पुरानी दीवालें विचार की, आइडियालाजी की, डाग्मा की, रिलीजन की, पालिटिक्स की कितनी देर टिकेंगी, यह समय की बात है, लेकिन वस्तुतः अब ज्यादा देर टिक नहीं सकतीं।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

यह जो बात आप कहते हैं, इसको तो तरह से सोचें--एक तो, कि जिसको हम मानव स्वभाव कहते हैं, असल में मानव स्वभाव कोई बहुत फिक्स्ड चीज नहीं है। और मानव स्वभाव बहुत ही फ्लूएड, तरल चीज है और मानव स्वभाव भी एक प्रोसेस है। उसमें भी हमें रोज-रोज नई बातें पता चलती हैं कि यह भी मानव स्वभाव में है, जो हमें कल पता ही नहीं था कि यह भी मानव स्वभाव में है। अब जैसे यह भी मानव स्वभाव का हिस्सा है कि आज अमेरिका का आदमी अपनी प्रास्पेरिटी को क्यों शेयर करना चाहता है आपके साथ। लेकिन आज अमेरिका का जो समझदार आदमी है, वह जानता है कि अगर उसको प्रास्पेरिटी बचाए रखनी है तो शेयर करनी पड़ेगी, नहीं तो प्रास्पेरिटी बचने वाली नहीं है। आज अमेरिका से समझदार हिस्से को बहुत साफ पता चलता है कि एशिया और अफ्रीका के मुल्कों से अपनी प्रास्पेरिटी बांटे बिना वह दस-बीस साल से ज्यादा प्रास्पेरिटी में नहीं रह सकता। उसका कोई उपाय नहीं रह जाएगा। एक, क्योंकि अंततः वह गरीबी वर्ल्ड वाइड हो जाएगी और फैल जाएगी। और यह खतरा भी इसीलिए बढ़ रहा है कि नेशंस के गिरने का डर है। और जिस दिन नेशंस गिर जाएंगे, उस दिन गरीबी के फैलाव का उपाय नहीं रह जाएगा और वह प्रवेश कर जाएगी। और नेशंस गिरने के करीब हैं, उनके बचने का कोई अर्थ नहीं रह गया है।
दूसरी बात, यह जो हमें खयाल है कि बैकवर्ड कंट्रीज और डिवेलप्ड कंट्रीज के बीच इकोनामिक इंबैलेंस है। उसको पूरा करने में बहुत देर लगेगी, मैं नहीं मानता। उसे पूरा करने में बहुत कम देर लगे, अगर हमारे पोलिटिकल डिफरेंस और स्टेट की बाउंड्री कम हो जाएं--उसे पूरा करने में देर न लगे।

(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)

असल में मैं ऐसा नहीं मानता और इस संबंध में थोड़ी बात करने जैसी है। एक पुरानी दृष्टि थी, जिसको कहना चाहिए वन डायमेंशनल; कि एक बेसिक कॉज से सब चीजें निकलती हैं। ऐसा हमारा खयाल था। और वह खयाल इतना गहरा हो गया कि अगर माक्र्स पकड़ेगा उसको तो जिसको देश-काल कहना चाहिए या मूल कारण कहना चाहिए, वह उसको इकॉनामिक बताएगा। फिर पालिटिक्स उससे निकलेगी, रिलीजन उससे निकलेगा, फिलासफी भी उससे निकलेगी, रिलीजन भी उससे निकलेगी, इकोनामिक्स भी उससे निकलेगा। इसलिए मैं मानता हूं, यह दृष्टि गलत है।
मल्टी-कॉजल है मनुष्य का एग्जिस्टेंस। उसमें एक कॉज, हमेशा की गलत बात है, मल्टी-कॉज़ल है। नहीं, इकोनामिक्स से पालिटिक्स को निकलने की जरूरत नहीं है। पालिटिक्स के अपने कॉजेज हैं। और इकोनामिक्स के अपने कॉजेज हैं। यानी मैं वन डायमेंशनल मानता ही नहीं जीवन को। मैं मानता हूं, मल्टी-डायमेंशनल है। इसलिए अगर पालिटिक्स को हमें समझना है तो पालिटिक्स कॉजेज को समझना पड़ेगा और इकोनामिक्स को समझना है तो इकोनामिक्स कॉजेज को समझना पड़ेगा। यह बात सच है कि दोनों मिल कर जिंदगी में जो ढांचे रचते हैं, वे सम्मिलित हैं। जिंदगी का पैटर्न जो है, वह सभी कॉजेज से मिल कर बनता है। लेकिन सभी कॉजेज की अपनी इंडिपेंडेंट सोर्स, मूल-धारा है। उसकी अपनी मूल-धाराएं हैं और इसलिए जिंदगी इतनी सरल नहीं है, जितना माक्र्स समझता है, या फ्रायड समझता है, या गांधी समझते हैं। जिंदगी इतनी सरल नहीं है, जिंदगी बहुत जटिल है। और हम क्यों एक कारण की बात मानते हैं, क्योंकि उस जटिल जिंदगी को समझाने में हमें आसानी पड़ती है कि एक कारण हम पकड़ कर बैठ जाएं। एक कारण नहीं है। पालिटिक्स की अपनी अंतर्धाराएं हैं, जो अलग काम कर रही हैं। अर्थशास्त्र की अलग धाराएं हैं।
आज इतना ही।



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