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बुधवार, 2 अगस्त 2017

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-02

उत्सव आमार जाति आनंद आमार गोत्र-(प्रश्नोंत्तर)-ओशो

डूबो-(प्रवचन-दूसरा)
दिनांक 2 जनवरी सन् 1979 ओशो आश्रम पूना।
प्रश्नसार:
प     भगवान, स्त्री तो बिना प्रेम के नहीं पहुंच सकती। स्त्री तो सिर्फ डूबना जानती है।
      और आप में डूब कर ही जाना हो सकता है। मुझे डुबा लें और उबार लें।

प     भगवान, सुना है श्री मोरारजी भाई को गीता पूरी कंठस्थ याद है।
      फिर भी वे राजनीति में इतने उत्सुक क्यों हैं?

प     भगवान, मेरी होने वाली पत्नी मुझे छोड़ना चाहती है, यह बात ही मुझे कटार की भांति चुभती है।
      मैं उसे प्रेम करता हूं और जीते जी कभी छोड़ नहीं सकता हूं। वह किसी और के प्रेम में है।
      कृपया, आप ऐसा कुछ करें कि वह मुझे छोड़े नहीं।
      मैं उसके डर के कारण अपना नाम भी नहीं लिख रहा हूं।

प     मैं कौन हूं? भगवान, क्या आप बता सकते हैं?

पहला प्रश्न: भगवान, स्त्री तो बिना प्रेम के नहीं पहुंच सकती। स्त्री तो सिर्फ डूबना जानती है। और आप में डूब कर ही जाना हो सकता है। मुझे डुबा लें और उबार लें।

प्रतिभा, प्रश्न स्त्री और पुरुष का नहीं है। बिना डूबे कोई भी कभी नहीं पहुंचा है, न कोई कभी पहुंचेगा।
आत्मा न तो स्त्री है, न पुरुष है। स्त्री-पुरुष के भेद तो अत्यंत ऊपरी हैं; जैसे वस्त्रों के भेद, बस इससे ज्यादा गहरे नहीं। चमड़ी के भेद, हड्डी-मांस के भेद। तुम्हारे भीतर जो विराजमान है, वह तो स्त्री-पुरुष दोनों के अतीत है। और वह डूबे तो नाव पार लगे।
इस तरह मत सोचो कि स्त्री तो बिना प्रेम के नहीं पहुंच सकती। बिना प्रेम के कोई भी नहीं पहुंच सकता है। प्रेम परमात्मा का द्वार है। प्रेम की पराकाष्ठा ही परमात्मा की अनुभूति है। प्रेम का फूल ही जब पूरी तरह खिलता है, तो जो सुवास उठती है, उस सुवास का नाम ही परमात्मा है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं। परमात्मा अनुभूति है--तुम्हारे अंतरात्मा से उठती सुवास की। और डूबे बिना यह नहीं होगा।
डूबने का क्या अर्थ?
डूबने का अर्थ है: अहंकार का विसर्जन। डूबने का अर्थ है: मैं भाव को छोड़ देना। मैं भाव को जिन्होंने पकड़ा है, वे किनारे से अटके रह जाएंगे। मैं भाव को जिन्होंने पकड़ा है, वे ऐसी नावें हैं जिनकी जंजीरें किनारों से बंधी हैं। फिर तुम पतवार कितनी ही चलाओ, यात्रा नहीं होगी।
एक पूर्णिमा की रात्रि, कुछ शराबी खूब पी गए और फिर नदीत्तट पर गए। मांझी तो जा चुके थे घर नावों को बांध कर जंजीरों से। एक सुंदर सी नाव उन्होंने चुनी। पतवारें उठाईं, नाव को खेना शुरू किया। धुत थे नशे में। खूब पतवारें चलाईं। सर्द रात थी, लेकिन पतवारें चला-चला कर पसीने-पसीने हो गए। जब सुबह होने के करीब आई, थोड़ी ठंडी हवा के झोंके आए, थोड़ा नशा उतरा, तो किसी एक ने कहा कि जरा उतर कर तो देखो, हम न मालूम कितनी दूर निकल आए हों! रात भर हो गई है पतवार चलाते-चलाते, एक क्षण भी तो रुके नहीं हैं कहीं। अब लौटना भी होगा। घर पत्नी-बच्चे राह भी देखते होंगे।
तो एक उनमें से उतरा किनारे पर और फिर ऐसा खिलखिला कर हंसा कि अपना पेट पकड़ कर वहीं बैठ गया। दूसरों ने पूछा, बात क्या है? उसने कहा कि तुम भी आ जाओ! बात बताने की नहीं, जानने की है। वे भी उतर कर आए। जो उतरा वही हंसा। जो उतरा उसी ने अपना पेट पकड़ लिया और लोट-पोट होने लगा। सब उतर आए तब समझ में बात आई कि जंजीर खोलना तो भूल ही गए! पतवार तो रात भर चलाई, मगर इंच भर यात्रा न हुई।
और यह कहानी सिर्फ कहानी नहीं है, यह अधिकतम लोगों के जीवन का यथार्थ है। जीवन भर दौड़ते हो, पहुंचते कहां? पतवार तो बहुत चलाते हो, यात्रा कहां होती? मंजिल तो दूर, पड़ाव भी नहीं मिलते। और कारण? कारण है अहंकार। जोर से अपने को पकड़े हो। और जो अपने को पकड़े है वह परमात्मा को नहीं पा सकता। दोनों हाथ लड्डू नहीं हैं संभव। कारण है। तुम चाहो कि कमरे में अंधेरा भी रहे और रोशनी भी, यह नहीं हो सकता। यह जीवन के गणित के खिलाफ है। अंधेरा चाहते हो तो रोशनी नहीं, रोशनी चाहते हो तो अंधेरा नहीं। कोई समझौता नहीं हो सकता। समझौते की कोई विधि नहीं है कि दोनों साथ रहें। कोई सह-अस्तित्व नहीं हो सकता।
अहंकार अंधेरा है। मैं हूं, यह उनका बोध है जिन्हें अपना बोध नहीं। मैं हूं, यह उनकी मान्यता है, जिन्हें मैं का कोई भी पता नहीं। जिन्होंने मैं को जाना वे तो कहते हैं, मैं नहीं हूं। वे तो कहते हैं, परमात्मा है, मैं कहां? बूंद नहीं, सागर है।
अज्ञानी कहता है, बूंद है, सागर नहीं। अज्ञानी कहता है, सागर कहां? मुझे सागर दिखा दो। देखूंगा तो मान लूंगा। मुझे सागर का प्रमाण दे दो। प्रमाण मिल जाएंगे तो स्वीकार कर लूंगा।
बूंद का भरोसा अपनी सीमा में है, और सागर असीम है। और जिसकी आंखें सीमा से दबी हैं, वह असीम को नहीं देख पाएगा। असीम को देखने के लिए सीमा को छोड़ना होगा। और सब से क्षुद्र सीमा अहंकार की है। इससे छोटी कोई सीमा नहीं। इससे छोटे तुम और नहीं हो सकते। अहंकारी से ज्यादा छोटे होने का कोई उपाय, कोई विधि नहीं है। अहंकार छोटे से छोटा अस्तित्व है। परमाणुओं से भी छोटे हो तुम। परमाणु का तो विभाजन भी हो जाए, तुम्हारा विभाजन भी नहीं हो सकता। तुम तो आखिरी हो।
अहंकार बस आखिरी, आत्यंतिक परमाणु है, उसके आगे फिर विभाजन नहीं। वह सब से छोटी इकाई है। और उस छोटी इकाई को तुमने इतने जोर से पकड़ा है कि तुम विराट को कैसे देख सकोगे!
डूबने का अर्थ होता है: धीरे-धीरे मैं को जाने दो, विदा होने दो। नमस्कार करो इसे। अलविदा कहो इसे। और अड़चन नहीं है इसे अलविदा कहने में, क्योंकि यह बिलकुल झूठ है। झूठ को छोड़ने में कोई अड़चन होने वाली है? छोड़ना ही न चाहो तो बात और। यह बिलकुल झूठ है। यह ऐसा है जैसे कोई नंगा कहे कि मैं नहाता नहीं, क्योंकि नहाऊंगा तो फिर निचोडूंगा कहां? नहाता नहीं, क्योंकि नहाऊंगा तो फिर कपड़े कहां सुखाऊंगा?
नंगा कहे, नहाता नहीं, क्योंकि कपड़े कहां सुखाऊंगा? तो तुम उससे क्या कहोगे कि पागल हो गए हो! कपड़े हैं कहां जिनको सुखाने की जरूरत और निचोड़ने की जरूरत पड़ेगी? तुम नंगे हो, दिल खोल कर नहाओ। जितनी बार नहाना हो उतनी बार नहाओ। तुम्हें तो कपड़े उतारने और पहनने की भी झंझट नहीं है।
मैं है ही नहीं, इसलिए छोड़ने में कोई अड़चन नहीं होती। होता तो अड़चन होती। है ही नहीं। जरा आंख भीतर मोड़ी, जरा गौर से देखा, कि मैं पाया नहीं जाता। और उस न पाने में सब पाना छिपा है--पाने का पाना छिपा है। जहां मैं नहीं पाया जाता, वहीं परमात्मा पाया जाता है। बूंद गई, सीमा गई; सागर प्रकट हुआ।
प्रतिभा, स्त्री ही प्रेम से नहीं पहुंचती, सभी प्रेम से पहुंचते हैं। यह हो सकता है, थोड़ा सा भेद हो सकता है। पुरुष पहले ध्यान करता है और ध्यान से प्रेम पर पहुंचता है। इतना फासला है, मगर पहुंचता तो प्रेम पर है। महावीर उसी प्रेम को अहिंसा कहते हैं। बुद्ध उसी प्रेम को करुणा कहते हैं। यह नाम का भेद है। और ये प्रेम से सुंदर नाम नहीं हैं, यह मैं तुमसे कह दूं। महावीर ने अलग नाम चुना। बुद्ध ने अलग नाम चुना। कारण थे। क्योंकि प्रेम के साथ बहुत कीचड़ जुड़ गई है, सदियों-सदियों की कीचड़। और हमने प्रेम के शब्द का इतना दुरुपयोग किया है, इस वजह से महावीर को नया शब्द गढ़ना पड़ा--अहिंसा।
लेकिन अहिंसा उतना महिमाशाली शब्द नहीं है जितना प्रेम। अहिंसा में वह रस नहीं है, न वह आनंद है, न वह विस्तार है। अहिंसा का तो अर्थ ही इतना होता है: हिंसा नहीं, किसी को दुख नहीं पहुंचाना। प्रेम इससे बहुत ज्यादा है। प्रेम इतने पर समाप्त नहीं है कि किसी को दुख नहीं पहुंचाना; यह तो उसका अनिवार्य हिस्सा है कि किसी को दुख नहीं पहुंचाना। लेकिन प्रेम और भी कुछ ज्यादा है।
प्रेम है: सुख पहुंचाना। अहिंसा है: दुख न पहुंचाना। अहिंसा नकारात्मक है। वह तो शब्द से ही जाहिर है: हिंसा नहीं। नकार है। महावीर ने नकारात्मक शब्द चुना। क्योंकि विधायक शब्द, प्रेम, सदियों-सदियों से गलत लोगों के हाथ में पड़े-पड़े गंदा हो गया था। तुम तो छोटी-मोटी चीज को ही प्रेम कहने लगते हो। कोई कहता है, मुझे आइसक्रीम से बड़ा प्रेम है! तो महावीर ने सोचा होगा कि अब क्या करना? कोई कहता है, मुझे मेरे कुत्ते से बहुत प्रेम है। और कोई कहता है, मुझे मेरे मकान से बहुत प्रेम है। लोग किस-किस चीज से प्रेम करते हैं! अगर इन सब प्रेमों पर ध्यान दिया जाए तो महावीर ने ठीक ही किया, उन्होंने सोचा कि इस शब्द को बीच में लेना उचित नहीं। इस शब्द के साथ गलत संयोग हो गए हैं।
मगर शब्द बड़ा अदभुत है! मैं तो शब्द को चुनूंगा। मैं तो कीचड़ को हटाऊंगा। कीचड़ के कारण शब्द को थोड़े ही फेंक देंगे। कीचड़ लग जाए तो कोई हीरे को फेंकता है! धो डालेंगे। प्रेम के हीरे को धोएंगे। उसी धोने में लगा हूं। मगर प्रेम को प्रेम ही कहेंगे।
बुद्ध ने थोड़ा ठीक किया। अहिंसा की जगह करुणा शब्द चुना। अहिंसा नकारात्मक है, करुणा कम से कम विधायक है। मगर करुणा में भी वे ऊंचाइयां नहीं जो प्रेम में हैं। करुणा में भी वे गौरीशंकर नहीं जो प्रेम के हैं। क्योंकि करुणा में कहीं न कहीं दया भाव है। दया भाव में कहीं न कहीं अहंकार के छिपे रहने का उपाय है। जब तुम किसी पर दया करते हो तो तुम ऊपर हो गए। जब तुम किसी पर करुणा करते हो तो वह नीचे हो गया, उसके हाथ नीचे हो गए; तुमने उसे दीन कर दिया।
करुणा शब्द कितना ही सुंदर हो, प्रेम की गरिमा और गौरव को नहीं पाता। कितना ही शुद्ध हो और कितनी ही कीचड़ उसको न छुई हो, मगर फिर भी क्या करो, कमल कीचड़ में उगते हैं! और प्रेम का कमल भी मनुष्य-जाति की बहुत-बहुत कीचड़ में से उगा है।
मैं तो प्रेम को प्रेम ही कहूंगा। अहिंसा नहीं कहूंगा, क्योंकि वह नकारात्मक हो जाता है। और नकारात्मक के खतरे हैं। खतरा यह है कि आदमी कहता है, हम दुख नहीं देंगे। हम अपने को किसी को दुख देने से बचाएंगे। लेकिन दूसरे को सुख देंगे, आनंद बांटेंगे--यह महोत्सव अहिंसा से नहीं उठता। इसलिए जैन धर्म सिकुड़ गया।
कभी-कभी छोटे-छोटे शब्द कितना महत्वपूर्ण परिणाम लाते हैं! जैन धर्म सिकुड़ गया अहिंसा शब्द के कारण। क्योंकि अहिंसा सिकोड़ सकती है, फैला नहीं सकती। चींटी न मारो, पानी छान कर पी लो, रात्रि भोजन न करो, झगड़ा नहीं, झंझट नहीं--सिकुड़ो, सिकुड़ते जाओ, बस अपने को बचा कर चलो किसी तरह। देखते हैं, जैन मुनि कैसे चलता है! अपने को बचा-बचा कर। साथ में पिच्छी लेकर चलता है; कहीं कोई चींटी इत्यादि हो, बैठे तो जल्दी से पहले साफ कर ले। पिच्छी भी बनाई जाती है भेड़ के बालों को, ताकि चींटी मर न जाए, चोट न लग जाए।
सब अच्छा है, इसको मैं बुरा नहीं कह रहा हूं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि चींटियां मारो, जहां मिल जाएं उन्हें मारो। चींटियों को बचाओ, अच्छा है। मगर चींटियों को बचाने में जहां धर्म सीमित हो जाए, वहां विस्तार नहीं हो सकता। और चींटियों को बचाने वाले के जीवन में आनंद का गीत कैसे उठेगा? इसीलिए कि तुमने एक हजार एक चींटियां बचाईं, तुम आनंद का गीत गा सकोगे? इसीलिए तुम बांसुरी बजा सकोगे कि धन्यभाग मेरे कि एक हजार एक चींटियां बचाईं?
तुम्हारी जिंदगी नकार के साथ नकार ही हो जाएगी। वही हुआ। जैन धर्म सिकुड़ गया। इसकी बड़ी क्षमता थी। इसके पास बड़ी महिमा थी। इसके पास ध्यान के गहरे सूत्र थे। मगर बुरी तरह सिकुड़ा। आज संख्या ही क्या है जैनों की--कोई तीस लाख! पच्चीस सौ साल के इतिहास में तीस लाख संख्या! अगर तीस जोड़ों ने भी महावीर से संन्यास लिया होता तो भी इतनी संख्या हो जाती पच्चीस सौ साल में।
यह क्या हुआ? महावीर जैसे अदभुत पुरुष की वाणी कहां खो गई? यह अहिंसा के रेगिस्तान में खो गई। यह शब्द नकारात्मक था। और फिर एक शब्द नकारात्मक नहीं था, महावीर ने जो चुनाव कर लिए वे सब नकारात्मक हो गए। अहिंसा, अपरिग्रह, अस्तेय, अचौर्य--सब अ से जुड़ गए। सारे व्रत नकारात्मक हो गए।
बुद्ध ने थोड़ा ठीक किया, इसलिए बुद्ध का विस्तार हुआ। बुद्ध धर्म फैला, खूब फैला, दूर-दूर तक गया। करुणा शब्द विधायक है। मगर करुणा में अहंकार डूबता नहीं। शुद्ध अहंकार हो जाता है जरूर, मिटता नहीं। और शुद्ध अहंकार ऐसा जैसे शुद्ध जहर। इसलिए बौद्ध भिक्षु खूब अकड़ा, खूब अहंकार से भरा। बुद्ध धर्म का पतन हुआ अहंकार से। जैन धर्म का पतन हुआ नकार से। बौद्ध ऐसे अकड़ गए कि पतन हो जाना बिलकुल सुनिश्चित हो गया।
प्रेम शब्द की बड़ी खूबी है। न तो इसमें नकार है और न अहंकार है। प्रेम में तो सिर्फ डूब जाना है--बेशर्त, बिना कुछ मांगे। प्रेम तो दान ही दान है। प्रेम तो अहर्निश दान है। प्रेम में विस्तार है और विस्तार ब्रह्म का रूप है।
विस्तीर्ण होने के लिए, प्रतिभा, बस एक शर्त पूरी करनी है: अपने भीतर झांक कर देखो, अहंकार है या नहीं? अगर है तब तो फिर धर्म संभव नहीं। अगर अहंकार है तो परमात्मा नहीं है। लेकिन जिसने भी भीतर झांका है उसने कभी अहंकार पाया नहीं। अहंकार बाहर भटकते हुए लोगों की भ्रांति है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दफा ट्रेन में पकड़ गया। टिकट कलेक्टर टिकट मांग रहा है। उसने पैंट की जेब देखी, कमीज की जेब देखी, कोट की जेब देखी, सब जेबें टटोल डालीं। एक दफा, दो बार, उलटा कर देख लीं, बिलकुल उलटा-उलटा कर कि कुछ कहीं भी छिपी टिकट रह न जाए। टिकट मिले नहीं। बिस्तर खोल डाला, सूटकेस खोल डाला, कपड़े उधेड़बुन डाले सब। टिकट कलेक्टर भी हैरान है।
टिकट कलेक्टर ने कहा कि देखो महानुभाव, और सब तो तुम कर रहे हो, यह तुम्हारी जो कोट की ऊपर की जेब है यह क्यों नहीं देखते? शायद इसमें हो!
उसने कहा, वह बात ही मत उठाना। उस जेब में मैं देख ही नहीं सकता हूं।
टिकट कलेक्टर ने कहा, क्यों?
उसने कहा, उसी में मेरी सारी आशा अटकी है कि अगर कहीं नहीं होगी तो वहीं होगी। और अगर वहां भी नहीं है तो मारे गए! तो मैं उसमें तो देख ही नहीं सकता, पहले मुझे सब जगह देख डालने दो। अपने बिस्तर ही नहीं, दूसरों के भी खोलूंगा। यह पूरे डब्बे में एक चीज नहीं छोडूंगा। वह जेब तो बिलकुल आखिर में। उसकी बात ही मत उठाओ। क्योंकि डर लगता है; अगर वहां नहीं हुई तो फिर क्या होगा! वहां की आशा है कि वहां होगी।
ऐसी हालत है आदमी की। आदमी बाहर देखता फिरता है और भीतर नहीं झांकता। डर है उसे, भीतर अगर झांका...और डर सच्चा है, डर में सचाई है, सत्य का अंश है, कि अगर भीतर झांका और अपने को नहीं पाया, फिर क्या होगा? इसलिए भीतर झांको मत। कुर्सियां चढ़ो। धन इकट्ठा करो। अहंकार को सजाओ। इसकी फिकर ही मत करो कि अहंकार है भी या नहीं।
एक फकीर एक गांव के बाहर मेहमान हुआ। उस फकीर के पास एक बकरी थी। उस गांव के एक युवक ने उसकी बड़ी सेवा की। सुबह से सांझ तक उसकी सेवा में रत रहे। रात भी वहीं उसके झोपड़े के बाहर सो जाए। जब फकीर जाने लगा तो वह अपनी बकरी उस युवक को भेंट कर गया। कहा, यह मेरा प्रसाद।
उस झोपड़े में युवक फकीर होकर रहने लगा। और क्या कमी थी अब! बकरी भी थी--और महात्मा की बकरी थी। झोपड़ी भी थी--महात्मा की झोपड़ी थी। इतने दिन सत्संग भी हुआ था। थोड़ी सत्संगी बातें भी सीख गया था। थोड़ी ज्ञान-चर्चा भी करने लगा था। थोड़ी आत्मा-परमात्मा की बात भी उठाने लगा था। जल्दी ही उसकी ख्याति हो गई। उसकी भी पूजा होने लगी।
कुछ वर्षों बाद फकीर वहां आया। वह तो बड़ा हैरान हुआ। झोपड़ा छोड़ गया था, वहां तो एक विशाल मंदिर बन गया था! मंदिर में वेदी थी। स्वर्ण और हीरे-जवाहरातों से खची थी। युवक, जिसको वह छोड़ गया था, वह तो उस मंदिर का महंत हो गया था। उसकी शान के तो कहने क्या! उस वेदी की बड़ी प्रतिष्ठा थी; दूर-दूर तक ख्याति पहुंच गई थी कि सब की मंशाएं पूरी हो जाती हैं।
रात जब फकीर अपने शिष्य के साथ सोया तो उसने पूछा, यह तो बता कि यह वेदी किसकी है? क्योंकि मैं जब छोड़ गया था, झोपड़ा था यहां। न कोई वेदी थी, न कोई सवाल था। कौन सी देवी की वेदी है यह? उसने कहा, अब आपसे क्या छिपाना! वह जो बकरी आप दे गए थे, वह मर गई। मर गई, आपकी बकरी थी, तो मैंने उसे ठीक से दफनाया, वेदी बनाई। मैं तो वेदी बना रहा था, लोग पूछने लगे कि यह किसकी है? तो अब मैं क्या कहूं? कहूं कि बकरी की है तो लोग हंसेंगे, तो मैंने कहा, किसी देवी की है। ऐसे अपने को बचाने के लिए बात शुरू की थी, बात बढ़ती चली गई। बात में से बात निकलती चली गई। लोग आने लगे। वेदी पर फूल चढ़े, पैसे चढ़े, रुपये चढ़े। यह मंदिर भी बन गया। अब तो कोई पूछता ही नहीं कि यह वेदी किसकी है। आपने पूछा तो मैंने कहा।
फकीर खिलखिला कर हंसने लगा। युवक ने पूछा, आप क्यों हंसते हैं? उसने कहा, मैं इसलिए हंसता हूं कि मैं जिस गांव में रहता हूं, इसी बकरी की मां की वेदी वहां है। यह बड़ी कुलीन बकरी थी। इसकी मां जब मरी थी तो भी यही हुआ था। मेरी भी जो प्रतिष्ठा है, इसी की मां के कारण है।
फिर कोई पूछता ही नहीं। लोग चढ़ाए जाते हैं।
अहंकार कुछ भी नहीं है, शून्य है। मगर तुम शून्य पर भी सोना चढ़ा सकते हो। और शून्य पर भी हीरे-जवाहरात टांक सकते हो। और शून्य के चारों तरफ भी महल खड़े कर सकते हो। और शून्य के आस-पास पद-प्रतिष्ठा, सत्कार-सम्मान, यश-गौरव, उपाधियां, तगमे लटका सकते हो। और फिर शून्य तो खो जाएगा, आस-पास तुमने जो लटका दिया है वही दिखाई पड़ेगा। और फिर डर भी लगेगा कि भीतर कभी जाना कि नहीं! कहीं ऐसा न हो कि भीतर जाएं और पता चले वहां कोई है ही नहीं, एक बकरी सड़ रही है!
प्रतिभा, अहंकार को डुबाने का यह अर्थ नहीं है कि अहंकार कुछ है और उसको पकड़ कर डुबाना है। अहंकार को डुबाने का केवल इतना अर्थ है: जरा भीतर देखो, बस जरा भीतर देखो, अहंकार पाया नहीं जाता। उस न पाए जाने में अहंकार का डूब जाना है। और तब प्रेम के फव्वारे फूट उठते हैं। वही प्रेम परमात्मा है। और इसमें न पुरुष का सवाल है और न स्त्री का। यद्यपि मार्ग में थोड़े भेद होंगे। मंजिल में भेद नहीं हो सकते। न तो स्रोत में कोई भेद है और न अंतिम मंजिल में कोई भेद हो सकते हैं। न उदगम में और न अंत में। हां, यात्रा-पथ में थोड़े भेद होंगे। पुरुष ध्यान से शुरू करेगा और प्रेम पर पहुंचेगा, स्त्री प्रेम से शुरू करेगी और ध्यान पर पहुंचेगी। वे भेद कुछ बड़े मूल्य के नहीं हैं। ध्यान से शुरू करो तो प्रेम पर पहुंच जाओ। प्रेम से शुरू करो तो ध्यान पर पहुंच जाओ। क्योंकि प्रेम और ध्यान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जैसे स्त्री और पुरुष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
तूने पूछा: "स्त्री तो बिना प्रेम के नहीं पहुंच सकती।'
कोई भी नहीं पहुंच सकता।
और तूने पूछा: "स्त्री तो सिर्फ डूबना जानती है।'
ऐसा हम कहते हैं। ऐसा हम मानते भी हैं। मगर न तो पुरुष डूबना चाहता है, न स्त्री डूबना चाहती है। दोनों अकड़ते हैं। दोनों अपने को बचाने की कोशिश करते हैं। हां, पुरुष के बचाने के ढंग थोड़े स्थूल होते हैं, स्त्री के बचाने के ढंग थोड़े सूक्ष्म होते हैं। पति और पत्नियों के झगड़ों में, स्त्री-पुरुषों के संघर्षों में निरंतर यह बात दिखाई पड़ जाएगी। दोनों में से कोई झुकना नहीं चाहता।
पुरुष तो झुकना ही नहीं चाहता। उसने तो अहंकार को सदियों-सदियों तक पाला-पोसा है, उसकी मालिश की है, मरम्मत, हर तरह से सम्हाला है, साज दिया है, शृंगार दिया है। लेकिन स्त्री भी कुछ पीछे नहीं रही है। उसके पास भी अहंकार है; स्त्रैण ढंग का है, इसलिए एकदम से पकड़ में नहीं आता। स्त्री पुरुष के पैर पकड़ लेती है, कहती है, आपके चरणों की दासी! लेकिन आखिरी परिणाम क्या होता है? चरणों की दासी तो मालकिन हो जाती है और वे जो मालिक थे, चरणों के दास हो जाते हैं। तुम घर-घर में चरणों के दास देखोगे! स्त्रियां मालिक होकर बैठी हैं। इसलिए भारत में तो ठीक है, हम स्त्री को घरवाली कहते हैं। घरवाले को घरवाला नहीं कहते। स्त्री घर की मालिक है, वह घरवाली है।
पुरुषों को भलीभांति पता है कि चिट्ठी वगैरह स्त्री लिखती है मायके से तो उसमें लिखती है: आपके चरणों की दासी! लेकिन पुरुष को पता है कि चरणों का दास असल में कौन है!
स्त्री का रास्ता थोड़ा सूक्ष्म है। वह जीत कर नहीं जीतती, वह हार कर जीतती है। वह गर्दन पकड़ कर नहीं जीतती, वह पैर छूकर जीतती है। वह मार कर नहीं जीतती, वह मर कर जीतती है।
इसलिए पुरुष को क्रोध आ जाता है तो स्त्री की पिटाई करता है; स्त्री को क्रोध आ जाता है तो वह खुद की पिटाई कर लेती है, खुद का सिर दीवार से मार लेती है। पुरुष को क्रोध आ जाता है तो वह हत्या कर देता है; स्त्री को क्रोध आ जाता है तो वह आत्महत्या कर लेती है। मगर ये सब एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, इनमें कहीं कोई भेद नहीं है। इनमें जो भेद हैं, वे स्त्री और पुरुष के मन के हैं, मनोवैज्ञानिक हैं।
मगर स्त्री भी संघर्ष करती है, पूरा संघर्ष करती है, पूरी जद्दोजहद, इंच-इंच लड़ाई चलती है। पति और पत्नियां प्रतिपल लड़ते रहते हैं। हर छोटी-बड़ी बात पर लड़ते रहते हैं। यह कुर्सी इस जगह रखी जाए या उस जगह, यह भी झगड़े का कारण होता है। आज इस चित्र को देखने जाया जाए या उस चित्र को, यह भी झगड़े का कारण होता है।
मुल्ला नसरुद्दीन से मैंने एक दिन पूछा कि नसरुद्दीन, क्या राज है, क्या रहस्य है? तुम में और तुम्हारी पत्नी में कभी झगड़ा नहीं होता!
हंसने लगा नसरुद्दीन और उसने कहा कि जब शादी की, बस पहला काम मैंने यही किया। क्योंकि पहले झगड़ा शुरू हो जाए तो फिर उसका अंत करना बहुत मुश्किल। मैंने पहले से ही पाबंदी की। मैंने कहा कि देख देवी, यह पहले ही हम निर्णय कर लें कि झगड़ना नहीं है। जो भी शर्त हो वह हम तय कर लें, साफ कर लें अपना समझौता। और हमने समझौता कर लिया और फिर झगड़ा नहीं हुआ।
मैंने पूछा, क्या समझौता किया? तो उसने कहा, दो समझौते किए। दोनों से बड़ा लाभ हुआ। एक समझौता तो यह किया कि छोटी-छोटी चीजों का हिसाब पत्नी रखेगी, बड़ी-बड़ी चीजों का हिसाब मैं रखूंगा। मैंने कहा, पत्नी राजी हो गई? उसने कहा, राजी हो गई। तो मैंने कहा, मुझे बताओ ठीक-ठीक छोटी चीजें कौन-कौन सी हैं? तो उसने कहा, जैसे घर में कौन सी कार खरीदनी, बच्चे को किस स्कूल में भेजना, कैसा मकान खरीदना, पैसे का बजट कैसे बनाना, सब छोटी-मोटी दुनियादारी की चीजें उसको दे दीं। और मैंने कहा, बड़ी चीजें? तो उसने कहा, जैसे ईश्वर है या नहीं? मोक्ष का क्या अर्थ? कितने स्वर्ग हैं, कितने नरक? वियतनाम में युद्ध बंद होना चाहिए कि नहीं? कश्मीर भारत में रहे कि पाकिस्तान में? ऐसे बड़े-बड़े जो प्रश्न हैं, वे सब मैं तय करता हूं। और छोटे-छोटे जो प्रश्न हैं, वे सब पत्नी तय करती है। झगड़ा हुआ नहीं।
झगड़ा होगा भी क्यों! पत्नियां होशियार हैं। ऐसे बड़े-बड़े सवाल अगर तुम्हें तय करने हैं तो वे जानती हैं मजे से करो, इनसे कुछ बनने-बिगड़ने वाला नहीं है। असली सवाल यह है कि घर के सामने एम्बेसेडर गाड़ी खड़ी होगी कि फिएट! परमात्मा है या नहीं, तुम सोचो। हो तो ठीक, न हो तो ठीक। साड़ी कौन सी खरीदनी है, यह पत्नी सोचेगी। नरक सात हैं कि तीन, यह तुम विचार कर लो। जाना भी तुम्हें है, तुम्हीं समझो।
और मैंने पूछा, दूसरा समझौता? उसने कहा, दूसरा भी बड़े लाभ का हुआ। दूसरा समझौता यह कि अगर किसी को क्रोध आ जाए तो वह तत्क्षण बाहर निकल जाए। जब तक क्रोध शांत न हो जाए, बाहर चक्कर लगाता रहे।
नसरुद्दीन कहने लगा, इसी कारण मेरी सेहत अच्छी है। क्योंकि दिन में दस-पच्चीस दफे मुझे पूरे गांव का चक्कर लगाना पड़ता है। जब भी क्रोध आता है, निकल पड़ता हूं। मारा एक चक्कर, दो चक्कर, तीन चक्कर...जब तक क्रोध शांत न हो जाए, चक्कर मारना पड़ते हैं। इससे मैं बीमार कभी पड़ा नहीं, सिरदर्द मैंने जाना नहीं, बुखार मुझे कभी आया नहीं। लाभ ही लाभ रहा है।
स्त्रियों और पुरुषों के गणित अलग-अलग हैं, मगर गणितों का लक्ष्य एक है। स्त्री भी चाहती है पुरुष पर कब्जा हो। इसलिए स्त्री बहुतर् ईष्यालु होती है। पुरुष भी चाहता है स्त्री पर कब्जा हो। और पुरुष सब तरह के आयोजन करता है इस कब्जे के लिए। स्त्री समाज में न जा सके, दूसरों से परिचित न हो सके, उसने स्त्री से सारा काम-धंधा छीन लिया, उसका सामाजिक जीवन छीन लिया। उसको बिलकुल अपंग कर दिया, ताकि वह उस पर पूरी तरह निर्भर हो। निर्भर होगी तो गुलाम होगी।
मगर ध्यान रखना, जिसको तुम गुलाम बनाओगे, तुम्हें उसका गुलाम बनना पड़ेगा। उसने सब छोड़ दिया, और उसके पास सारी मालकियत करने की जो आकांक्षा है, जो सब तरफ बिखर सकती थी--धन में, पद में, प्रतिष्ठा में--वह इकट्ठी हो गई। और उसने सारी की सारी मालकियत की इच्छा पति पर लगा दी। इसलिए हर पति घर में घुसते ही कुछ और हो जाता है।
एक स्कूल में एक शिक्षिका ने पूछा कि क्या तुम उस जानवर के संबंध में बता सकते हो जो शेर की तरह आता है और फिर बिल्ली की तरह घर में प्रवेश करता है?
एक छोटे बच्चे ने कहा, पिताजी। दरवाजे तक तो बिलकुल शेर की तरह आते हैं और घर में एकदम बिल्ली की तरह प्रवेश करते हैं।
स्त्री ने सारी राजनीति छोड़ दी, सारा उपद्रव छोड़ दिया; मगर सारी राजनीति और सारा उपद्रव संग्रहीभूत हो गया।
तो प्रतिभा, यह तो मत कह तू कि स्त्री डूबना जानती है। डूबना सीखना पड़े, बड़ी कला है! इस जगत की सर्वाधिक बड़ी कला है। उससे ऊपर कोई कला नहीं है। डूबना सीखना पड़े।
अहंकार स्त्री का भी है, और बड़ा सूक्ष्म है, और बड़ा सजा-बजा है। पुरुष का रूखा-सूखा है। पुरुष का बिलकुल प्रकट है। स्त्री का बहुत सूक्ष्म और छिपा है। डूबना दोनों को ही सीखना पड़ेगा। और डूबना सीखने की एक ही कुंजी है कि दोनों को अपने भीतर झांक कर देखना पड़ेगा कि मैं नहीं हूं। और यह बड़ा मंहगा सौदा है, जोखिम से भरा सौदा है। कम ही लोग कर पाते हैं। पर जो कर पाते हैं, वे बड़भागी हैं। परमात्मा उनका है।
तू कहती है: "स्त्री तो सिर्फ डूबना जानती है। और आप में डूब कर ही जाना हो सकता है।'
डूबो! यह बात बहुत गौण है कि डूबने का बहाना क्या। सदगुरु तो सिर्फ एक बहाना है डूबने का, एक आसरा है डूबने का, एक निमित्त है डूबने का। बिना बहाने डूबना मुश्किल होता है। डूबो! जिस बहाने बन सके, डूबो! मेरा उपयोग कर लो, मुझमें डूबो। क्योंकि डूबने का परिणाम तो एक है; किसमें डूबते हो इससे फर्क नहीं पड़ता। राम में डूबो, कृष्ण में डूबो, बुद्ध में डूबो, मोहम्मद में डूबो--कहीं डूबो! किस घाट से उतरे, इससे फर्क नहीं पड़ता। उस पार जाना है। सब घाट उसके हैं। और सब घाटों से उसकी नाव छूटती है। मुझमें डूबो! मैं तो सिर्फ बहाना हूं। मुझमें डूब कर तुम पाओगे क्या? मुझमें डूब कर पाओगे कि तुम नहीं हो। मुझमें डूब कर पाओगे कि परमात्मा है। ऐसा ही कृष्ण में डूब कर पाओगे। ऐसा ही जीसस में डूब कर पाओगे।
लेकिन शायद जीसस में डूबना मुश्किल होगा; दो हजार साल का फासला हो गया। कृष्ण में डूबना मुश्किल होगा; पांच हजार साल का फासला हो गया। कृष्ण हुए भी कि नहीं, चित्त में बहुत संदेह उठेंगे। मंदिर में मूर्ति है, मगर मूर्ति का क्या भरोसा? कल्पित हो, कथा हो। और करीब-करीब कृष्ण के नाम से जो चलता है उसमें निन्यानबे प्रतिशत कथा है और कल्पना है।
मनुष्य बड़ा कल्पनाशील है। वह जिनको भी चाहता है उनके आस-पास कल्पना के और कविताओं के बड़े जाल बुन देता है। और उन कविताओं और कल्पनाओं के जाल में सच्चे ऐतिहासिक लोग भी खोटे हो जाते हैं, झूठे हो जाते हैं। लोग तो महिमा के लिए कल्पनाओं के जाल बुनते हैं, लेकिन उनको पता नहीं, उन्हीं महिमाओं में उनके सदपुरुष डूब जाते हैं। क्योंकि उन्हीं महिमाओं के कारण वे सदपुरुष झूठे मालूम होने लगते हैं। कि कृष्ण ने अपनी अंगुली पर पर्वत उठा लिया!
अब इस तरह के झूठ तुम चलाओगे तो इससे यह मत समझना कि कृष्ण की गरिमा बढ़ती है। इससे सिर्फ इतना ही होता है कि कृष्ण भी झूठे हो जाते हैं। हां, अगर पर्वत ऐसा ही कोई रहा हो जैसा रामलीला वगैरह में होता है, जिसको हनुमान जी उठा कर लाते हैं, कागज का बना हुआ, तो बात अलग। ऐसा कोई गोवर्धन रहा हो, कागज का बना हुआ, कोई रामलीला चल रही हो और उसमें उठाया हो तो ठीक, चलेगा। लेकिन रामलीला में भी झूठ प्रकट होने में देर नहीं लगती।
एक गांव में रामलीला हुई। लक्ष्मण जी बेहोश पड़े हैं और हनुमान जी गए हैं संजीवनी बूटी लेने। तय नहीं कर पाते कौन सी संजीवनी बूटी है, तो पूरा पहाड़ ही ले आते हैं। पहाड़ लिए चले आ रहे हैं। अब रामलीला, और गांव की रामलीला! एक रस्सी पर पहाड़ है, उसी रस्सी पर वे भी हैं। रस्सी पर कागज का पहाड़ हाथ में सम्हाले, रस्सी से बंधे, आकाश में उड़ते चले आ रहे हैं। गांव की घिर्री, भारतीय घिर्री, अटक गई। हनुमान जी अटके हैं मय पहाड़ के। रामचंद्र जी नीचे से खड़े देख रहे हैं। लक्ष्मण जी भी थोड़ी-थोड़ी आंख खोल कर देख लेते हैं कि देर क्यों लग रही है? और जनता ताली पीट रही है। और जनता ने ऐसा खेल कभी देखा भी नहीं, अब यह होगा क्या? इसका अंत क्या होगा?
आखिर मैनेजर घबड़ा गया। वह गांव का ही मामला; गांव के ही मैनेजर। वह घबड़ा कर ऊपर चढ़ा कि किसी तरह रस्सी को सरका दे, हनुमान जी उतरें पहाड़ सहित। नहीं सरकी रस्सी, गांठ खा गई। जल्दी में घबड़ाहट में कुछ और नहीं सूझा, चाकू से उसने रस्सी काट दी। तो मय पहाड़ के हनुमान जी नीचे गिरे।
मगर अब बंधा-बंधाया पाठ। तो रामचंद्र जी को तो वही कहना है। तो उन्होंने कहा कि ले आए पवनसुत, संजीवनी ले आए?
हनुमान जी ने कहा, ऐसी की तैसी पवनसुत की! पहले यह बताओ रस्सी किसने काटी? अगर उसकी मैंने अभी मरम्मत नहीं की तो मेरा नाम बलवंत सिंह नहीं। भूल ही गए कि हनुमान हैं, बलवंत सिंह! कि पहले उसको निपटाऊं, फिर लक्ष्मण जी, और सब को देख लूंगा।
रामलीला में भी तो झूठ ज्यादा देर नहीं चल सकता। वहां भी फंस जाती है रस्सी। और तुमने तो राम को भी झूठा कर दिया, कृष्ण को भी झूठा कर दिया, महावीर को झूठा कर दिया, बुद्ध को झूठा कर दिया। तुम झूठा करने में कुशल हो। हालांकि तुमने बड़ी अच्छी इच्छाओं से किया, मगर अच्छी इच्छाओं से क्या होता है? अंग्रेजी में कहावत है: नरक का रास्ता शुभाकांक्षाओं से पटा पड़ा है। अच्छी-अच्छी आकांक्षाएं! तुमने तो यही सोचा, इससे गरिमा बढ़ेगी, लोगों में भक्ति-भाव बढ़ेगा। लोग कहेंगे, अहा, कृष्ण ने पर्वत उठा लिया--गोवर्धनधारी! कि हनुमान जी पहाड़ उठा लाए--पवनसुत! लोगों में प्रतिष्ठा बढ़ेगी। लोगों में पूजा बढ़ेगी, अर्चना बढ़ेगी।
बढ़ती रही होगी जब तक लोगों में बुद्धि कम थी। लेकिन अब बुद्धि का विकास हुआ है। अब इन सारी बातों से काम नहीं चलेगा। अब तो तुम्हें एक सत्य समझना होगा कि झूठी कविताएं और झूठे काव्य और झूठे पुराण, जो अतीत में काम आ गए थे, अब काम नहीं आएंगे। डुबाएंगे तुम्हें बुरी तरह; पार नहीं जाने देंगे। कागज की नावें हैं, ये काम नहीं आएंगी।
सदगुरु खोजो! कहीं कोई मिल जाए जीवित व्यक्ति, जो तुम्हें इतना आकर्षित कर ले, जो तुम्हें इतना अपने हृदय के समीप ले ले, जिसके हृदय के समीप जाने को तुम्हारा हृदय नाच उठे--तो उसको निमित्त बना लो, कारण बना लो, बहाना बना लो और डूब जाओ! क्योंकि डूबोगे तो सदगुरु में, लेकिन निकलोगे परमात्मा में।
तो प्रतिभा, डूब! तू कहती है, स्त्री डूबना जानती है। चल, तू प्रमाण दे। डूब!
और तू कहती है: "मुझे डुबा लें और उबार लें।'
मेरे किए यह नहीं होगा। तुझे ही डूबना पड़ेगा। और तू डूबेगी तो उबारना तो अपने आप हो जाता है। मेरे किए तो कुछ भी नहीं होने वाला है। न तो डुबा सकता हूं तुझे, न उबार सकता हूं तुझे। डूबेगी तू, उबरेगी तू। जबरदस्ती किसी को डुबाओ तो वह निकलने की कोशिश करेगा, घबड़ाएगा। किसी छोटे बच्चे को कभी पानी में डुबकी लगवाई है गंगा में ले जाकर? वह एकदम घबड़ा जाएगा। डुबकाना तो दूर है, जरा लोटा भर पानी किसी बच्चे के सिर पर से डालो--और वह भागा, और वह चिल्लाया।
मैं नहीं तुझे डुबाऊंगा। हां, डूबने के लिए पूरा आयोजन कर दिया है। घाट तैयार है। साहस के लिए पुकार दे रहा हूं, आह्वान दे रहा हूं। प्रतिपल चिल्ला रहा हूं कि आओ। डूबेगी तू, उबरेगी भी तू।
बुद्ध ने कहा है: बुद्ध तो केवल मार्ग बताते हैं, चलना तो तुम्हें पड़ता है, पहुंचना भी तुम्हें पड़ता है।


दूसरा प्रश्न: भगवान, सुना है श्री मोरारजी भाई को गीता पूरी कंठस्थ याद है। फिर भी वे राजनीति में इतने उत्सुक क्यों हैं?

कृष्ण वेदांत, गीता कंठस्थ याद हो, इससे क्या होगा? कंठ में ही होगी, हृदय में तो नहीं पहुंच जाएगी। गीता हृदयस्थ होनी चाहिए। और हृदयस्थ, बाहर से नहीं ले जाना पड़ता कुछ। जो गीता बाहर से जाएगी, कंठ तक ही जा सकती है, बस कंठ तक उसकी यात्रा है। जो कुरान बाहर से जाएगा, कंठ तक जा सकता है, बस कंठ तक उसकी यात्रा है। तुम्हें तोता बना देगा।
एक और गीता है, एक और गीत है, एक और कुरान है--जो तुम्हारे हृदय से उठता है; बाहर से नहीं लाना होता, भीतर जगता है। तुम्हारी अपनी ज्योति जलती है। तब तुम्हारे भीतर कृष्ण बोलते हैं, तब तुम्हारे भीतर अल्लाह की वाणी गूंजती है। तुम्हारी खुदी से खुदा जब बोलता है तब हृदयस्थ होती है गीता। फिर उसे कुरान कहो, बाइबिल कहो, धम्मपद कहो, कोई फर्क नहीं पड़ता। ये सब अलग-अलग गीत हैं, अलग-अलग गायकों ने गाए; मगर सब गीतों का स्वर एक है, संगीत एक है।
मोरारजी भाई को जरूर गीता कंठस्थ होगी। उसमें मुझे संदेह नहीं है। कंठस्थ ही हो सकती है लेकिन। और कंठस्थ गीता से राजनीति का क्या विरोध? जिसे गीता कंठस्थ है वह तो गीता में से भी राजनीति ही निकालेगा।
लोकमान्य तिलक ने अपने ढंग की राजनीति निकाली गीता में से, महात्मा गांधी ने अपने ढंग की राजनीति निकाली गीता में से। मोरारजी भाई भी अपने ढंग की राजनीति निकाल लेंगे।
कंठस्थ जो है उसमें अर्थ तो तुम डालोगे; शब्द तो कृष्ण के होंगे, अर्थ तुम्हारे होंगे। तोतों जैसी दशा होगी। तोतों के कोई अर्थ थोड़े ही होते हैं। तोतों को तो जो सिखा दिया उसको दोहराए चले जाते हैं।
मैंने सुना है, किसी दुकानदार के पास एक बहुत अदभुत बिल्ली थी। पिछले जन्म में वह बिल्ली जैन साध्वी रही होगी। लेकिन कुछ छोटे-मोटे पाप किए होंगे। जैसे दंतमंजन किया होगा, या कभी चोरी-चपाटी स्पंज से स्नान कर लिया होगा। कुछ छोटे-मोटे पाप किए होंगे, सो उन पापों के कारण इस जन्म में बिल्ली हुई। मगर व्रत-नियम उपवास भी किए थे, इसलिए विशेष बिल्ली हुई--बड़ी धार्मिक, मांसाहार नहीं करती थी। सामने से चूहे निकलते रहते और वह शांत बैठी रहती। इससे भी बड़ा गुण जो उस बिल्ली में था वह यह कि मनुष्यों की भाषा में बात करती थी और बड़ी ज्ञान-चर्चा करती थी। वह पिछले जन्मों की ज्ञान-चर्चा याद थी, महावीर के वचन याद थे। दुकानदार बिल्ली को अपने पास ही दुकान में बिठाए रखता था। ग्राहक उससे बातें करके मनोरंजन भी करते। इसी मनोरंजन में दुकानदार जितनी उनकी जेब काट सकता था काट लेता था।
एक दिन बिल्ली ने एक चूहे को मार खाया--पुरानी आदत, आखिरी बिल्ली बिल्ली, स्वभाव स्वभाव। जरा दुकानदार इधर-उधर देख रहा था कि एक चूहा पास से निकलता था, भक्तिन ने अपने को सम्हाला तो बहुत लेकिन न सम्हाल पाई। दुकानदार जैन था, यह सहन न कर सका। फिर यह उसकी प्रतिष्ठा का भी सवाल था। उसने पास में ही रखी छड़ी उठाई और लगा बिल्ली को पीटने। चंद ही मिनटों में बिल्ली लहूलुहान हो गई, उसके हाथ-पैर फूल गए, ओंठ और आंखें सूज गईं, पूंछ में भी सूजन आ गई और पेट तो ऐसा फूला कि जैसे उसमें हवा भरी हो।
बिल्ली एक चूहे को खाकर बहुत पछताई। जो भी ग्राहक आता वह उसी को रो-रो कर कहती, देखो मेरी हालत, पूरा शरीर सूज गया, मात्र एक चूहा खाने के कारण! सम्हलो, अहिंसा से रहो, अहिंसा परमो धर्मः! और तभी टुनटुन कुछ सामान खरीदने आई। इसके पहले कि दुकानदार कुछ कहे बिल्ली ने विस्मय से आंखें फाड़ कर कहा, माताजी, आपने कितने चूहे खाए थे?
बिल्ली और क्या करे? अर्थ तो उसके अपने ही होंगे।
तुम कहते हो: "मोरारजी भाई को गीता कंठस्थ है।'
जरूर होगी।
"फिर राजनीति में इतनी उत्सुकता क्यों है?'
वे गीता में से राजनीति निकाल लेंगे। तुम जो निकालना चाहो धर्मशास्त्रों में से वही निकाल लोगे। इसीलिए तो एक-एक धर्मशास्त्र पर कितनी व्याख्याएं होती हैं! गीता पर एक हजार प्रसिद्ध टीकाएं हैं। अप्रसिद्ध टीकाओं की तो गिनती ही मत करो। कृष्ण का तो अर्थ एक ही रहा होगा, एक हजार अर्थ तो कृष्ण के हो ही नहीं सकते। अगर एक हजार अर्थ कृष्ण के रहे हों तो कृष्ण भी पागल थे और अर्जुन भी पागल हो जाता। उनका तो अर्थ सुनिश्चित था। फिर एक हजार अर्थ कैसे निकले?
शंकराचार्य एक अर्थ करते हैं; उसमें से वेदांत ही वेदांत निकलता है, अद्वैत निकलता है। और रामानुजाचार्य बिलकुल उलटा अर्थ करते हैं। उसमें से द्वैत निकलता है, भक्ति-भाव निकलता है; वेदांत का पता ही नहीं चलता। और लोकमान्य तिलक ने उसी में से कर्म निकाल लिया। जो तुम्हारी मर्जी, जो तुम्हें करना हो वह निकाल लो।
शास्त्रों से चाहो बंदूकें बना लो, चाहे तलवारें बना लो। शास्त्रों की क्या क्षमता है तुम्हारे सामने! तुम्हारे हाथ में शास्त्रों की गर्दन है, जैसा दबाओगे वैसा ही शास्त्र बोलेंगे। शास्त्र तो मुर्दा हैं, तुम जीवित हो। शास्त्रों में तो शब्द हैं; शब्दों पर अर्थ की कलम कौन लगाएगा?
मैंने सुना है एक रईस, लखनवी रईस, बीमार था बहुत। बीमारी का कारण भी साफ था; रात तीन बजे, चार बजे तक महफिल, शराब, संगीत, वेश्याएं; और फिर सोता दिन भर। चिकित्सकों ने कहा, ऐसे अब नहीं चलेगा। अब तो ठीक समय पर सोओ सांझ, और ठीक सुबह छह बजे उठो, सूरज उगने के पहले। घड़ी से ठीक छह बजे उठ आना है। उसने कहा, ठीक। उसके दरबारी तो बहुत हैरान हुए, उनको भरोसा नहीं था कि यह कर सकेगा, यह छह बजे उठ सकेगा! लेकिन उस रईस ने कहा, घबड़ाओ मत, हर नियम के बाहर निकलने की तरकीब होती है। मेरे कमरे में चारों तरफ काले पर्दे डाल दिए जाएं। जब मैं उठूं तब पर्दे सरकाए जाएं, ताकि मेरे उठने के बाद ही सूरज उगे। और जब मैं उठूं तब घड़ी में छह बजाए जाएं।
अब यह बड़ा मजेदार मामला हो गया। चिकित्सक ने कहा, घड़ी में जब छह बजें तब उठना। रईस ने कहा कि चलो ठीक। जब मैं उठूं तब घड़ी में छह बजा दिए जाएं, इसमें है क्या मामला! अगर इतने से ही स्वास्थ्य ठीक होता है तो यही कर लेंगे।
आदमी बहुत बेईमान है। तुम गीता में से जो अर्थ निकालना चाहो निकाल लोगे। और जो अर्थ चाहोगे कि नहीं निकलना चाहिए वह उसको तुम इनकार कर दोगे।
कृष्ण ने अर्जुन को कहा, युद्ध में जूझ! अब महात्मा गांधी को बड़ी अड़चन थी, क्योंकि वे अहिंसक! और युद्ध में जूझने की शिक्षा! और गीता का पूरा आधार युद्ध है, सारी शिक्षा युद्ध की है। मगर आदमी बड़ा कुशल है। महात्मा गांधी ने तरकीब निकाल ली। तरकीब क्या कि यह युद्ध वास्तविक युद्ध नहीं है, यह तो काल्पनिक युद्ध है। यह युद्ध कौरव और पांडवों के बीच नहीं है, शुभ और अशुभ के बीच है। यह तो आध्यात्मिक युद्ध का प्रतीक है--धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे! यह कोई असली कुरुक्षेत्र की बात नहीं है, यह तो भीतर के धर्मक्षेत्र की बात है।
बस तब काम ठीक हो गया। तब अर्जुन ने खून नहीं गिराया, गर्दनें नहीं काटीं, बात खत्म हो गई। और अगर महात्मा गांधी ही सच हैं तो फिर यह अर्जुन यह जो प्रश्न उठाता है कि अपने बंधु-बांधवों को मारूं, इससे तो बेहतर जंगल चला जाऊं--यह पागल रहा होगा। और कृष्ण समझाते हैं कि इन्हें मारने का तू विचार ही मत कर, ये तो तेरे मारने के पहले ही मारे जा चुके हैं, तू तो निमित्त मात्र है। इनकी मौत तो घट ही चुकी है, तुझे तो सिर्फ धक्का देना है। तू नहीं मारेगा तो कोई और मारेगा। भाग कर तू कहां जाएगा? तू अपने कर्तव्य से च्युत न हो।
लेकिन इन सब बातों पर पानी फेर दिया महात्मा गांधी ने। उन्होंने गीता का ऐसा अर्थ किया कि जिसमें हिंसा है ही नहीं, जिसमें युद्ध है ही नहीं। युद्ध है तो काल्पनिक है, शुभ और अशुभ के बीच है।
ऐसे ही मोरारजी भाई भी अर्थ निकाल लेंगे। मोरारजी भाई भी कोई छोटे महात्मा नहीं, बड़े महात्मा हैं! अर्थ निकालना बहुत आसान है। गीता को जानना बहुत कठिन है। गीता को मानना बहुत आसान है। क्योंकि गीता को मानने में तुम अप्रत्यक्ष रूप से अपने को ही मानते हो। तुम गीता थोड़े ही मानते हो, तुम अपनी ही छवि गीता में देखते हो और उसी को मानते हो। तुम गीता थोड़े ही पूजते हो, अपने ही अर्थ गीता में रखते हो और उन्हीं को पूजते हो। तुम सब अपनी ही मूर्तियों के सामने सिर झुकाए बैठे हो। तुम अपनी ही पूजा कर रहे हो। और इस सब से अहंकार मजबूत होता है, घना होता है।
स्वभावतः, गीता कंठस्थ है तो अहंकार घना हो जाएगा। कुरान कंठस्थ है तो अहंकार घना हो जाएगा। ये बातें कंठ की नहीं हैं। कंठ की बातें तोतों पर छोड़ दो। मगर तोतों में भी कुछ अक्ल होती है, इतनी भी अक्ल तुम्हारे तथाकथित पंडितों में नहीं होती।
मैंने सुना है, एक महिला एक तोता खरीद लाई बाजार से। महिला कोई और नहीं, मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी। एक तोता खरीद लाई, बाजार में बिक रहा था। बेचने वाले ने कहा कि बाई, तू ले तो जा, मगर तोता जरा गलत जगह से आता है, एक वेश्या के घर से आता है। कुछ अंट-संट बोल दे तो हम पर नाराज मत होना, क्योंकि अंट-संट सुनता रहा है।
मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी ने कहा, घबड़ाओ मत, अरे जब मुल्ला नसरुद्दीन को सुधार लिया तो इस तोते की क्या बिसात है? एक-दो सप्ताह, तीन सप्ताह में ठिकाने लगा दूंगी।
तीन सप्ताह तोते को ढांक कर रखा कि किसी को पता ही न चले। और तोते को बड़ी ज्ञान की बातें सिखाए जब घर में कोई न रहे। और तोता ज्ञान की बातें दोहराने भी लगा। तीन सप्ताह बाद उसने घोषणा की, पर्दा उठाया। जैसे ही पर्दा उठाया, रोशनी हुई, तोते ने अपनी मालकिन को देखा और बोला, अरे नयी मालकिन! मालकिन बहुत खुश हुई कि तोता बड़ा बुद्धिमान! तभी मुल्ला नसरुद्दीन की लड़कियां कालेज से वापस लौटीं। तोते ने कहा, अरे नयी मालकिन! नयी छोकरियां भी! और तभी मुल्ला नसरुद्दीन घर लौटा। और उसने कहा, अरे नयी मालकिन, नयी छोकरियां, मगर ग्राहक पुराना!
तोतों में भी कुछ अक्ल होती है। मगर तुम्हारे पंडितों में इतनी अक्ल भी नहीं। पंडित से ज्यादा बुद्धिहीन व्यक्ति खोजना कठिन है। क्योंकि पंडित का भरोसा यह है कि ज्ञान बाहर से भीतर ले जाया जा सकता है। यह बुद्धिमत्ता की आखिरी सीमा से गिर जाना है। इससे ज्यादा नीचे गिरना नहीं हो सकता।
ज्ञान भीतर से आता है, बाहर से नहीं। बाहर से जो आती है बस सूचना मात्र है, शब्द मात्र। ज्ञान ध्यान की उत्पत्ति है, अध्ययन-मनन की नहीं। ज्ञान ध्यान की छाया है। जिसके भीतर ध्यान परिपक्व होता है, उसके भीतर ज्ञान के फल और फूल लगते हैं।
मोरारजी भाई को ध्यान का क्या पता है? दस वर्ष पहले मुझसे पूछा था, कैसे ध्यान करूं? तो मैंने उन्हें ध्यान का मार्ग बताया। उन्होंने कहा कि यह तो बड़ा कठिन है। और अब इस बुढ़ापे में क्या हो सकेगा? मैंने कहा, इस बुढ़ापे में राजनीति हो सकती है, इस बुढ़ापे में प्रधानमंत्री बनने की चेष्टा हो सकती है, और ध्यान नहीं हो सकता? करना न हो तो सब बहाने हैं।
जरा सोचो, इस बुढ़ापे में राजनीति की इतनी छीछालेदर हो सकती है, कोई टांग खींच रहा है, कोई हाथ खींच रहा है, कोई गर्दन ही ले भागा। कोई जूता चला रहा है, कोई पत्थर मार रहा है, कोई काला झंडा दिखा रहा है, कोई जिंदाबाद कोई मुर्दाबाद कर रहा है। यह सब चल रहा है! यह सब चल सकता है। जेल जाना हो सकता है, उपवास करना हो सकता है पद पाने के लिए! सब तरह के राजनैतिक दांव-पेंच, धोखाधड़ी, बेईमानी, सब हो सकता है। सब तरह की जालसाजियां, षडयंत्र हो सकते हैं। ध्यान नहीं हो सकता! कि इस वृद्धावस्था में अब जरा मुश्किल होगा, आप जो ध्यान कहते हैं, यह मुझसे न हो सकेगा।
करना न हो...। बड़ा मजा है! जवान से कहो तो वह कहता है, अभी जवान हूं, बुढ़ापे में ध्यान करेंगे। ध्यान इत्यादि तो बुढ़ापे के लिए हैं। कहा ही है शास्त्रों में--पचहत्तर वर्ष के बाद संन्यास, ध्यान, समाधि। और बूढ़े से कहो तो वह कहता है, अब बूढ़े हो गए, अब क्या होगा! और स्वभावतः बच्चों को तो क्षमा करना ही पड़ेगा। बच्चे तो बच्चे हैं, ये क्या ध्यान समझेंगे! बच्चे ध्यान समझ नहीं सकते; जवान कर नहीं सकते, अभी जवान हैं; बूढ़े कर नहीं सकते, क्योंकि बूढ़े हो गए। तो ध्यान करना किसको है? मुर्दों को? मोरारजी भाई देसाई नहीं करेंगे, फिर क्या मुर्दा भाई देसाई करेंगे? कौन करेगा?
लेकिन ज्ञान सस्ता मिल जाता है, ध्यान मंहगा है। ध्यान के लिए कीमत चुकानी पड़ती है--अहंकार की कीमत। और राजनीतिज्ञ अहंकार की कीमत नहीं चुका सकता, उसका तो सारा खेल ही अहंकार है।
और गीता तो यहां सभी को आनी चाहिए। हर राजनीतिज्ञ को कंठस्थ होनी चाहिए। न हो कंठस्थ तो भी कम से कम कुछ तो गीता का पता होना चाहिए। क्योंकि गीता मानने वाला बड़ा वर्ग है, उसका वोट लेना है। तो थोड़े शब्द उछाल देना आना चाहिए धर्मशास्त्रों के। यहां के राजनीतिज्ञ को थोड़े इसलाम के वचन भी आने चाहिए, थोड़े महावीर के वचन भी, थोड़े बुद्ध के वचन भी, थोड़े गीता, उपनिषद, वेद भी। यह यहां की राजनीति का आवश्यक अंग है। क्योंकि जिनसे वोट लेने हैं उनके अहंकारों को मक्खन लगाने का और कोई उपाय नहीं है। हिंदू से कह दो कि गीता महान ग्रंथ। बस हिंदू खुश हुआ, राजी हुआ तुम से। जैन को कह दो कि महावीर तीर्थंकर, भगवान, अदभुत, ऐसा व्यक्ति कभी हुआ नहीं। और जैन खुश!
और मजा यह है कि जैनों ने कृष्ण को नरक में डाला है, क्योंकि महावीर के हिसाब से अगर कृष्ण ने युद्ध करवाया तो महाहिंसा करवाई। और हिंदुओं ने महावीर को किसी शास्त्र में भगवान का अवतार नहीं माना है। मगर राजनीतिज्ञ को क्या लेना-देना है! उसे हिंदू को भी फुसला लेना है, तब हिंदू की खुशामद कर लेता है; जब जैन को फुसलाना है, जैन की खुशामद कर लेता है; जब मुसलमान को फुसलाना है, मुसलमान की खुशामद कर लेता है। वह सब की खुशामद करता फिरता है। उसका सारा धंधा खुशामद का है। उसे अगर सत्ता में जाना है तो सिवाय इसके कोई उपाय नहीं है।
तो उसको तो आना ही चाहिए--अल्लाह ईश्वर तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान! सिर्फ उसको भर न दे। उतना वह भीतर-भीतर कहता रहता है कि भगवान, मुझको भर मत देना। सबको सन्मति देना, ताकि सब मुझे वोट दें। मुझे सन्मति मत देना, नहीं तो मैं संन्यास ले लूं। मुझे सन्मति मत देना। अभी मेरी रोकना। अभी मुझे थोड़ा राज्य कर लेने दो।
इन राजनेताओं की जिंदगी तो देखो। इनके प्रवचन, इनके व्याख्यान, इनके उपदेश--और इनकी जिंदगी!
एक स्कूल में अध्यापक ने छात्रों से कहा, अच्छा, और किसी को कुछ पूछना तो नहीं है?
एक छात्र खड़ा हुआ। उसने कहा, सर, मुझे पूछना है। यह आपने न जाने क्या लिख दिया है मेरी कापी पर। मैं इसे पढ़ नहीं पा रहा हूं। जरा बता दें कि आपने क्या लिखा है।
अध्यापक क्रोध से आगबबूला हो गया। उसने कहा, अरे उल्लू के पट्ठे! इतना भी नहीं पढ़ सकता? साफ तो लिखा है कि सुंदर अक्षर लिखने की आदत डालो।
खुद के अक्षर की किसी को कोई चिंता नहीं है।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने गांव में अकेला ही पढ़ा-लिखा आदमी। तो गांव के लोग उसी से चिट्ठी-पत्री लिखवाते। एक दिन एक आदमी चिट्ठी-पत्री लिखवाने आया। बोलता गया, मुल्ला लिखता गया। जब पूरी चिट्ठी हो गई तो उस गांव के आदमी ने कहा कि भैया, अब जरा पूरी पढ़ कर सुना दो कि कुछ छूट तो नहीं गया। मुल्ला ने कहा, यह मुसीबत की बात है। मेरा काम लिखना है, पढ़ना नहीं। फिर यह गैर-कानूनी भी है। उस आदमी ने कहा, मतलब? उसने कहा, गैर-कानूनी इसलिए कि चिट्ठी मेरे नाम है ही नहीं और मैं पढूं!
गांव का आदमी भी राजी हुआ। उसने कहा, यह बात तो सच है कि चिट्ठी तुम्हारे नाम नहीं। असली बात यह थी कि मुल्ला अपना लिखा हुआ ही पढ़ नहीं सकता है। या अगर पढ़े भी तो बड़ी मुसीबत हो जाती है।
एक और मैंने कहानी सुनी है कि एक दफा और दूसरा आदमी आया। उसने कहा, भैया चिट्ठी लिख दो, बड़ी जरूरी है।
मुल्ला ने कहा, नहीं, मेरे पैर में दर्द है।
अरे, उसने कहा, तुम्हारे पैर में दर्द है तो इससे चिट्ठी लिखने में क्या बाधा आ रही है?
उसने कहा, तुम छोड़ो भैया, मेरे पैर में ज्यादा दर्द है।
पर उसने कहा, चिट्ठी हाथ से लिखनी है। चार लकीरें लिखनी हैं। दो ही लकीरें लिख दो। मगर वह राह देखता होगा।
मुल्ला ने कहा, तुम समझे नहीं जी। जब मैं चिट्ठी लिखता हूं तो फिर मुझे दूसरे गांव पढ़ने भी जाना पड़ता है, और पैर में मेरे दर्द है। मेरा लिखा और पढ़े कौन?
शास्त्र जिन्होंने लिखे हैं, दो तरह के लोग हैं उनमें। एक तो पंडित हैं, जिन्होंने और शास्त्रों के आधार पर शास्त्र लिखे हैं। और एक ध्यानी हैं, जिन्होंने भीतर के शास्त्र के खुल जाने से शास्त्र लिखे हैं। गीता, कुरान, बाइबिल, धम्मपद, ऐसे परम शास्त्र हैं, जो भीतर प्रकाश के हो जाने पर आविर्भूत होते हैं; इनका इलहाम होता है, इनका अवतरण होता है। ये कोई साधारण रचनाएं नहीं हैं कि तुमने कंठस्थ कर लीं, कि तुम्हें भाषा आती है तो बस तुमने समझा कि सब आ गया।
मोरारजी देसाई को जरूर गीता कंठस्थ होगी, मगर कंठस्थ ही। हृदयस्थ तो तब हो जब हृदय से उठे। और मजा यह है कि हृदय से तभी गीता उठ सकती है जब बाहर से सीखी गई सारी बातें छोड़ने की सामर्थ्य हो।
श्री रमण को किसी ने पूछा कि मैं बहुत दूर से आया हूं सत्य के संबंध में कुछ सीखने।
रमण ने कहा, अगर सत्य के संबंध में सीखना है तो कहीं और जाओ, और अगर सत्य सीखना हो तो यहां रुको। लेकिन सत्य सीखने की शर्त जानते हो? सत्य सीखने की शर्त यह है कि जो अब तक सीखा है, सब अनसीखा करना होगा।
शास्त्रों से मुक्त होना पड़ता है, तब भीतर का शास्त्र जन्मता है। पांडित्य से मुक्त होना पड़ता है, तब प्रज्ञा की ज्योति जलती है। विचारों से मुक्त होना पड़ता है, तब निर्विचार की निर्धूम शिखा उपलब्ध होती है। मन जब विदा हो जाता है, विलीन हो जाता है, अ-मन की दशा में, उन्मनी दशा में तुम्हारे भीतर जो भी उदघोष होता है वही भगवद्गीता है।
लेकिन शास्त्रों के साथ बड़ी आसानी है। न करो ध्यान, न करो आत्मा की शोध, न करो खोज। पढ़ लो किताब, दोहराते रहो रोज सुबह उठ कर।
और मोरारजी देसाई को आसान, रोज सुबह उठ कर चरखा कात लिया तीन घंटे, पढ़ ली घंटे भर गीता। यंत्रवत चरखा कतता रहता, यंत्रवत गीता कंठस्थ होती रहती। दोहराते-दोहराते चौरासी साल की उम्र हो गई, याद न हो जाए गीता तो क्या हो! मगर उसमें से अर्थ क्या निकलेंगे? उसमें से सुगंध नहीं उठ सकती। उसमें से राजनीति की दुर्गंध ही उठेगी।
एक पंडित बड़ी मुश्किल में पड़ा था। उसकी पंडिताई न चलती थी। गांव में और नये-नये पंडित आ गए थे और उनकी पंडिताई चल निकली थी। तो मजबूरी में उसे नौकरी करनी पड़ी। एक दिन उसने बड़े रुष्ट स्वर में अपनी मालकिन से कहा, बीबी जी, यह मेरा त्यागपत्र लीजिए, मैं काम छोड़ कर जा रहा हूं।
महिला ने कहा, क्यों? आखिर बात क्या है?
पंडित ने कहा, आपको मालूम होना चाहिए कि मैं कोई छोटा-मोटा नौकर नहीं, पंडित हूं। गीता मुझे कंठस्थ! यह तो भाग्य का मारा कि आपके घर में बुहारी लगानी पड़ रही है। यह कलियुग कि आपके घर में बर्तन मलने पड़ रहे हैं। यह मेरा भाग्य, यह विधाता ने लिखा होगा। लेकिन आदमी मैं ईमानदार हूं। और आप मुझे बेईमान समझती हैं!
महिला तो एकदम हैरान हो गई, उसने कहा कि यह तुम कैसे कह रहे हो कि मैं तुम्हें बेईमान समझती हूं? मेरा तो तुम पर पूरा-पूरा विश्वास है। यह देखो विश्वास का प्रमाण, तिजोड़ी की सारी चाबियां भी यहां अलमारी में पड़ी रहती हैं। मैं घर के बाहर भी जाती हूं तो तिजोड़ी की चाबियां नहीं ले जाती।
पंडित ने कहा, पड़ी तो रहती हैं, वह मुझे भी मालूम है। मगर उनमें से एक भी तिजोड़ी में लगती कहां है?
पांडित्य और सारी ईमानदारी और सारी धार्मिकता, सब ऊपर-ऊपर है। ये सब राम-नाम चदरिया ओढ़ कर बैठ गए लोग हैं। ये सब ऐसे लोग हैं जो सौ-सौ चूहे खाए हज की यात्रा को जा रहे हैं!
कृष्ण वेदांत, सावधान रहना पंडितों से! क्योंकि जितना उन्होंने संसार को भरमाया, भटकाया है, उतना किसी और ने नहीं। बच कर चलना पंडितों से, क्योंकि वे ही लुटेरे हैं, वे ही बटमार हैं। डाकू लूटेंगे तो क्या लूटेंगे? धन, पैसा। लेकिन पंडितों ने तुम्हारी आत्माएं लूट ली हैं। ये कंठस्थ हैं जिनको वेद और पुराण और गीता और कुरान, इनसे जरा बच कर निकलना, इनकी छाया भी तुम पर न पड़े। क्योंकि यही हैं जिनके कारण जगत वेद, कुरान और गीता से खाली हो गया है। यही हैं जिनके कारण अब उपनिषद पैदा नहीं होते। यही हैं जिनके कारण सत्संग के दीये बुझ गए हैं। और अगर कहीं कोई सत्संग का दीया जले तो ये सारे लोग उसे बुझाने के लिए तत्पर हो जाते हैं।
श्री मोरारजी देसाई कितनी चेष्टा में संलग्न हैं कि यह आश्रम बिलकुल नष्ट हो जाए, बिलकुल समाप्त हो जाए, यहां कोई एक व्यक्ति न आ सके। उनकी पूरी चेष्टा यह है कि इतना परेशान करें संन्यासियों को कि मुझे अंततः यह देश छोड़ देना पड़े। इसकी खबरें मेरे पास आती हैं, विश्वस्त सूत्रों से खबरें आती हैं--कि सारी चेष्टा यह है कि किसी भी तरह मैं यह देश छोड़ दूं।
क्या अड़चन होती होगी? यहां मैं कोई लोगों को अणु-बम बनाना नहीं सिखा रहा हूं, न लोगों को कोई बंदूक और तलवारों की शिक्षा दी जा रही है, न लोगों को हत्या करने के पाठ पढ़ाए जा रहे हैं। यहां एक और ही ढंग का काम हो रहा है जिससे इनको क्या विरोध हो सकता है? लोग नाच रहे हैं, लोग गा रहे हैं, लोग मस्त हो रहे हैं।
मगर इसी से विरोध है। जितनी मस्ती होगी, जितने लोग आनंदित होंगे, जितने लोगों के भीतर के झरने बहने लगेंगे--उतने ही पंडित-पुरोहितों और राजनीतिज्ञों का प्रभाव कम हो जाएगा। क्योंकि जितना भीतर की रोशनी उपलब्ध होगी, उतने ही तुम बाहर के नेताओं का पीछा छोड़ दोगे।
पंडित नाराज है मुझसे; क्योंकि अगर तुम्हारी प्रज्ञा जग गई तो तुम उसकी क्यों सुनोगे? नेता नाराज है मुझसे; क्योंकि अगर तुम में थोड़ा होश आ गया तो तुम इन अंधे नेताओं के पीछे चलोगे? अंधा अंधा ठेलिया, दोनों कूप पड़ंत! तो तुम झंडे उठा-उठा कर मोरारजी भाई देसाई का जय-जयकार करोगे? अगर तुम में थोड़ी भी समझ आ गई, अगर तुम में एक किरण भी फूट गई प्रकाश की, तो पंडित और नेता दोनों गए। इससे घबड़ाहट है। और यह घबड़ाहट नयी नहीं है, बड़ी पुरानी है, सनातन है!
और उनको दूसरा भी डर है कि अगर मैं सही हूं तो उनकी कंठस्थ गीता का क्या होगा? अगर मैं सही हूं तो महावीर और बुद्ध पर वे जो बिना समझे-बूझे वक्तव्य देते रहते हैं उनका क्या होगा? उन वक्तव्यों की क्या कीमत रह जाएगी?
अर्थशास्त्र का एक नियम है कि खोटे सिक्के असली सिक्कों को चलन के बाहर कर देते हैं; करने की कोशिश तो कम से कम करते ही हैं। यह नियम बिलकुल साफ-सुथरा है। तुम्हें भी पता होगा। अगर तुम्हारी जेब में दो नोट हैं--एक दस का असली नोट और एक दस का नकली नोट--तो तुम पहले नकली नोट को चलाने की कोशिश करोगे। स्वभावतः, असली तो कभी भी चल जाएगा, पहले नकली को चलाओ। अगर नकली नोट बाजार में बहुत हों तो सभी लोग नकलियों को चलाने की कोशिश में लगे रहते हैं; असली को दबाते हैं। असली तिजोड़ियों में पड़ जाते हैं, नकली बाजार में चलने लगते हैं।
वही हालत सत्य के जगत में भी है। सत्य के असली सिक्के जब भी प्रकट होंगे, नकली सिक्के बहुत मुश्किल में पड़ जाते हैं, क्योंकि उनके चलन का क्या होगा? उनको कौन पूछेगा? उनकी क्या कीमत रह जाएगी? वे असली सिक्कों को हटा देना चाहते हैं, दबा देना चाहते हैं। असली सिक्के की मौजूदगी उनके लिए बहुत प्राणघाती है।
इसलिए गीता तो कंठस्थ है मोरारजी भाई को। रामायण पर प्रवचन देते हैं। और राजनीति के सारे दांव-पेंच--क्षुद्र, ओछे, अमानवीय--वे सब खेलने को भी राजी हैं! सच पूछो तो यह गीता और रामायण भी उसी राजनीति के बड़े खेल का एक हिस्सा है, उसी षडयंत्र का एक हिस्सा है। इस देश को धार्मिक होने का भ्रम है। इसलिए इस देश के नेताओं को धर्मग्रंथ कंठस्थ करने पड़ते हैं। जहां जैसा भ्रम हो वहां के राजनेताओं को वही करना पड़ता है।
तुमने खयाल किया, अमरीका में अमरीकी प्रेसीडेंट को अक्सर दौड़ते हुए, सुबह घूमते हुए, साइकिल चलाते हुए चित्र छपवाने पड़ते हैं, व्यायाम करते हुए...। क्योंकि अमरीका में यह धारणा है कि प्रेसीडेंट को सबल, स्वस्थ, जवान होना चाहिए। तो उसको अपनी जवानी का प्रदर्शन करते रहना पड़ता है। अगर जरा भी लोगों को शक हो जाए कि वह जरा दुर्बल हो गया है या बूढ़ा होने लगा है या उसके हाथ-पैर कंपने लगे हैं, तो उसका पद गया। तो अमरीका में अगर प्रेसीडेंट बीमार हो तो उसकी बीमारी की खबर अखबारों में नहीं छपती।
अडोल्फ हिटलर न मालूम कितनी बीमारियों से परेशान था, लेकिन उसके मरने तक एक बीमारी की खबर जर्मनी में नहीं छपी। चिकित्सकों के मुंह पर सील बंद कर दिए गए थे। उसको बहुत बीमारियां थीं। वह थोड़ा विक्षिप्त भी था। लेकिन ये सारी बातें छिपाई गईं। क्योंकि अगर जर्मनी में यह पता चल जाए कि नेता बीमार है, तो नेता गया। जर्मनी भरोसा करता है जवानी पर, शक्ति पर।
भारत की हालत उलटी है। यहां जितना आदमी बूढ़ा हो उतना कीमती है। लोग यहां उम्र बढ़ा-चढ़ा कर बताते हैं।
एक साधु के पास बड़ी भीड़ लगी थी। और वह साधु किसी से कह रहा था, बच्चा, तू जानता है मेरी उम्र कितनी है? सात सौ साल!
एक विदेशी पर्यटक भी भीड़ में खड़ा था, उसे भरोसा न आया--सात सौ साल! उसने सुना तो है कि डेढ़ सौ साल तक के भी लोग कभी-कभी पाए जाते हैं रूस में, जार्जिया में। लेकिन सात सौ साल तो सुना ही नहीं कभी। उसी साधु के पास, जो ज्यादा से ज्यादा सत्तर साल का मालूम होता था, एक पच्चीस साल का जवान भी बैठा है जो उसकी चिलम भरने का काम करता है। उसने उस जवान को पास बुलाया, पांच का नोट हाथ में दिया और कहा कि भाई, तू तो साधु महाराज के पास सदा रहता है, सच-सच बता उम्र कितनी है?
उसने कहा, भाई, मुझसे न पूछो। मैं तो सिर्फ तीन सौ साल से उनके साथ हूं।
इस देश में उम्र को बड़ा करके बताने का प्रभाव है। जितनी ज्यादा उम्र, उतने तुम अनुभवी, उतने ज्ञानी। इस देश में धार्मिकता दिखलानी पड़ेगी।
अमरीका में प्रेसीडेंट को टेनिस खेलते हुए, फुटबाल खेलते हुए, हाकी खेलते हुए दिखलाना पड़ता है। इस देश में पूजा करते हुए, शंकराचार्य के चरण-प्रक्षालन करते हुए, गंगा मैया में स्नान करते हुए...। परसों ही मैंने मोरारजी भाई का चित्र देखा, गंगासागर में डुबकी ले रहे हैं!
देश धार्मिक है तो देश के लोगों की आंखों पर पट्टी बांधने के लिए धर्म का सब तरह का उपचार करना पड़ता है। सब औपचारिकता निभानी पड़ती है--मंदिर जाओ, काशी जाओ। जहां भी जाओ वहां जाकर धर्म को तो श्रद्धा के दो फूल चढ़ा दो, लोग तुम्हारे पीछे रहेंगे।
ये सब गीता और रामायण सरासर धोखे हैं!
गीता और रामायण उनके जीवन में पैदा होती हैं जो समाधि को उपलब्ध होते हैं। समाधि के पहले सब धोखा है। समाधि एकमात्र समाधान है।

तीसरा प्रश्न: भगवान, मेरी होने वाली पत्नी मुझे छोड़ना चाहती है। यह बात ही मुझे कटार की भांति चुभती है। मैं उसे प्रेम करता हूं और जीते जी कभी छोड़ नहीं सकता हूं। वह किसी और के प्रेम में है। कृपया आप ऐसा कुछ करें कि वह मुझे छोड़े नहीं। मैं उसके डर के कारण अपना नाम भी नहीं लिख रहा हूं।

भाई मेरे, योग्यता तो तुम्हारी बिलकुल पति होने के लायक है! जब अभी से डर रहे हो--अभी पत्नी पत्नी हुई नहीं, होने वाली है--जब अभी से उससे इतना डर रहे हो तो वह बड़ी नासमझ है जो तुम्हें छोड़ कर जा रही है! मुफ्त के लिए जिंदगी भर के लिए सेवक मिल रहा है, काहे को छोड़ रही है!
लेकिन अगर तुम मेरी सलाह मांगते हो तो मैं तुमसे कहूंगा कि अगर जाती है छोड़ कर तो चली ही जाने दो। जान बची और लाखों पाए, लौट कर बुद्धू घर को आए! उसकी बड़ी कृपा है कि वह किसी और के प्रेम में पड़ी है, तो किसी और को ही फंसने दो।
एक मनोवैज्ञानिक पागलखाना देखने गया था। एक आदमी पहले ही पिंजड़े में बंद था, सिर पीट रहा था। और हाथ में एक तस्वीर लिए हुए था, गंदी सी पुरानी तस्वीर, और छाती से लगाता और चिल्लाता: लैला! लैला! मनोवैज्ञानिक ने पूछा सुपरिनटेंडेंट को, इस आदमी को क्या हो गया?
उसने कहा, यह इस लड़की के प्रेम में था। यह इतने प्रेम में था कि यह अपने को मजनूं समझता, उसको लैला समझता। लेकिन वह इसे छोड़ कर चली गई, उसने दूसरे युवक से शादी कर ली। तब से यह पागल हो गया। बस तब से इसका काम ही यह है--सिर पीटना, उसकी तस्वीर छाती से लगाना और लैला-लैला चिल्लाना।
वे आगे बढ़े। दूसरे कटघरे में एक दूसरा आदमी बंद था, वह भी सिर पीट रहा था और चिल्ला रहा था: हे भगवान, बचाओ मुझे! बचाओ! मनोवैज्ञानिक ने पूछा, और इस बेचारे को क्या हो गया? सुपरिनटेंडेंट ने कहा, अब आप न पूछें तो अच्छा, यह वह दूसरा युवक है जिससे उस महिला ने शादी की।
अब तुम मुझसे पूछ रहे हो कि कृपया आप ऐसा कुछ करें कि वह मुझे छोड़े नहीं।
अगर सच में तुम मेरा आशीष चाहते हो तो मैं तो कहूंगा, जाने भी दो। धन्यवादपूर्वक। जब कोई और मुसीबत लेने को तैयार है तो तुम नाहक क्यों अपनी गर्दन फांसी में लगाते हो! और अगर तुम्हें फांसी लगानी ही है तो और फंदे मिल जाएंगे, ऐसी क्या जल्दी है? कोई इसी फंदे में मरने का सोचा है?
कहते हो: "मेरी होने वाली पत्नी मुझे छोड़ना चाहती है।'
दयावान है। महाकरुणा है उसके हृदय में।
और तुम कहते हो: "यह बात ही मुझे कटार की भांति चुभती है।'
यह प्रेम तो नहीं; यह प्रेम के नाम पर कुछ और है। उसे तुमसे प्रेम नहीं; तुम्हें भी उससे प्रेम नहीं, याद रखना। वह कम से कम ईमानदार है कि वह कहती है, उसे तुमसे प्रेम नहीं, किसी और से प्रेम है। उससे भी है या नहीं, अब यह तो वह जब आएगा तब पता चले। लेकिन तुम जो कहते हो कि मुझे उससे प्रेम है, वह झूठ है। क्योंकि प्रेम तो स्वतंत्रता देता है। प्रेम का तो अनिवार्य लक्षण है--बांधता नहीं, मुक्त करता है। अगर वह मुक्त होना चाहती है तो प्रेम मुक्त करेगा। चाहे आंसुओं से भरी हुई विदा क्यों न देनी पड़े, लेकिन प्रेम विदा देगा।
प्रेम पिंजड़ा नहीं बनता, प्रेम आकाश है। ठीक है, तुमने उसे चाहा। लेकिन अगर तुम उसे चाहते हो तो उसकी जो खुशी है वही तुम्हारी खुशी होनी चाहिए। चाह का और क्या अर्थ होता है? चाह का अर्थ--शोषण? चाह का अर्थ--मालकियत? चाह का अर्थ--उसकी गर्दन पर सवार हो जाना?
चाह का अर्थ होता है उसे मुक्त करो। अगर वह किसी और के साथ ज्यादा खुश हो सकती है बजाय तुम्हारे साथ, तो ठीक है, ऐसा ही हो। ऐसा ही होने दो। सहयोग करो। प्रेम अगर है तो दूसरे की खुशी अपनी खुशी से ज्यादा मूल्यवान होनी चाहिए। कहो उससे--
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों
न मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूं दिलनवाजी की
न तुम मेरी तरफ देखो गलतअंदाज नजरों से
न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाए मेरी बातों से
न जाहिर हो तुम्हारी कशमकश का राज नजरों से
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों
तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेशकदमी से
मुझे भी लोग कहते हैं कि ये जल्वे पराए हैं
मेरे हमराह भी रुसवाइयां हैं मेरे माजी की
तुम्हारे साथ भी गुजरी हुई रातों के साए हैं
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों
तअर्रुफ रोग हो जाए तो उसको भूलना बेहतर
तअल्लुक बोझ बन जाए तो उसको तोड़ना अच्छा
वह अफसाना जिसे तकमील तक लाना न हो मुमकिन
उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा
चलो  इक  बार  फिर  से  अजनबी  बन  जाएं  हम  दोनों
प्रेम है तो कितनी ही पीड़ा हो, पीड़ा तुम्हारी समस्या है। लेकिन तुम्हारी पीड़ा के कारण तुम दूसरे को बंधन में मत डालो। जाने दो। मुक्त करो। वह तुम्हारी अनुगृहीत रहेगी। और शायद किसी दिन जानेगी कि तुमने उसे चाहा था और प्रेम किया था। शायद किसी दिन तुम्हारे प्रेम का उसे अनुभव होगा। मगर उसके पैरों में जंजीरें न डालना। जंजीरें डालने वाला प्रेम प्रेम नहीं है।
पहलुए-शाह में यह दुख्तरे-जम्हूर की कब्र
कितने गुमगश्तः फसानों का पता देती है
कितने खूंरेज हकायक से उठाती है नकाब
कितनी   कुचली   हुई   जानों   का   पता   देती   है
कैसे मगरूर शहनशाहों की तस्कीं के लिए
सालहा-साल हसीनाओं के बाजार लगे
कैसे बहकी हुई नजरों के तअय्युश के लिए
सुर्ख   महलों   में   जवां   जिस्मों   के   अंबार   लगे
कैसे हर शाख से मुंहबंद महकती कलियां
नोंच ली जाती थीं तजईने-हरम की खातिर
और मुर्झाके भी आजाद न हो सकती थीं
जिल्ले-सुबहान की उल्फत की भरम की खातिर
कैसे इक फर्द के ओंठों की जरा सी जुंबिश
सर्द कर सकती थी बेलौस वफाओं के चिराग
लूट सकती थी दमकते हुए माथों का सुहाग
तोड़  सकती  थी  मये-इश्क  से  लबरेज  अयाग
सहमी-सहमी सी फिजाओं में यह वीरां मरकद
इतनी खामोश है फरियाद कुनां हो जैसे
सर्द शाखों में हवा चीख रही है ऐसे
रूहेत्तकदीसो-वफा    मर्सियाख्वां    हो    जैसे
तू मेरी जान! मुझे हैरतो-हसरत से न देख
हम में कोई भी जहांनूरो-जहांगीर नहीं
तू मुझे छोड़ के ठुकरा के भी जा सकती है
तेरे    हाथों    मेरे    हाथ    हैं,    जंजीर    नहीं
प्रेम अगर है तो इतनी कहने की सामर्थ्य होनी चाहिए--
तू मुझे छोड़ के ठुकरा के भी जा सकती है
तेरे    हाथों    मेरे    हाथ    हैं,    जंजीर    नहीं
और अगर इतना प्रेम तुम प्रकट कर सको, तो पत्नी मिले या न मिले, तुम्हारे जीवन में प्रेम का एक फूल खिलेगा। पत्नियों के मिलने से ही कहां फूल खिल जाते हैं? नहीं तो घर-घर में प्रेम के फूल खिले होते। लेकिन इतना अगर बड़ा दिल तुम कर सको, इतना उदार अगर दिल तुम कर सको, तो पत्नी न भी मिली तो कोई फिकर नहीं, तुम्हारे जीवन में प्रेम का एक फूल खिलेगा, तुम्हारे जीवन में प्रार्थना की संभावना उमगेगी।
मैं तो यही प्रार्थना कर सकता हूं तुम्हारे लिए, यही आशीष दे सकता हूं कि तुम्हारा प्रेम बड़ा हो, उदार हो, मुक्तिदायी हो, कि तुम्हारा प्रेम किसी दिन प्रार्थना बने। और ये हैं मौके प्रेम की कसौटी के। ये हैं अवसर चुनौती के। इन अवसरों को जो स्वीकार कर लेता है, उसकी कीमत, उसकी इज्जत परमात्मा की आंखों में बहुत बढ़ जाती है। रोना मत, दुखी मत होना। कसौटी पर कसे जाना है। आग है--गुजरना है, निखरना है। सौभाग्य है यह भी।
और ये जो तुम बातें कर रहे हो कि यह बात ही मुझे कटार की भांति चुभती है। मैं उसे प्रेम करता हूं और जीते जी कभी छोड़ नहीं सकता हूं।
इस तरह की बातें करोगे तो छोटे हो जाओगे। और अगर इस तरह की बातें करते ही रहे तो वह तुम्हें न भी छोड़ना चाहती होगी तो छोड़ भागेगी। ऐसे आदमी के पास कौन टिकेगा कि जीते जी छोड़ ही नहीं सकते! कि मरोगे कि मारोगे!
नहीं, किसी के पैर की जंजीर नहीं बनना जीवन में। किसी के भी पैर की जंजीर नहीं बनना--न पत्नी की, न भाई की, न बहन की, न बच्चों की, न मित्रों की।
तू मेरी जान! मुझे हैरतो-हसरत से न देख
हम में कोई भी जहांनूरो-जहांगीर नहीं
तू मुझे छोड़ के ठुकरा के भी जा सकती है
तेरे   हाथों   में   मेरे   हाथ   हैं,   जंजीर   नहीं


आखिरी सवाल: मैं कौन हूं? भगवान, क्या आप बता सकते हैं?

जहां तक मैं समझता हूं--वही सज्जन, जिन्होंने पिछला सवाल पूछा। इससे ज्यादा और क्या बताऊं? मैं कोई ज्योतिषी नहीं। यहां कोई चमत्कार नहीं करता, कोई ताबीज नहीं निकालता, कोई विभूति नहीं निकालता, कोई स्विस घड़ियां नहीं प्रकट करता। तुम गलत जगह आ गए।
अनुमान करता हूं कि तुम वही सज्जन हो जो डर के मारे नाम नहीं लिख पाए; अब तुमने दूसरा प्रश्न पूछा कि मैं कौन हूं? यह कोई आत्मिक प्रश्न नहीं है।
एक नवविवाहित जोड़े को उपहार में अनेक सामग्रियां प्राप्त हुईं। उन्हीं उपहारों में एक नयी पिक्चर के फर्स्ट क्लास के दो टिकट भी थे। साथ ही साथ उन टिकटों के साथ एक चिट भी लगी थी कि जरा बताइए कि मैं कौन हूं? पति-पत्नी दोनों ने बहुत सोचा-विचारा, बहुत माथापच्ची की, मगर उन्हें कुछ याद न आया कि आखिर ये टिकट किसने भेजे हैं।
पत्नी बोली, खैर, अब जिसने भी भेजे हों, समय खराब न करो। शो का समय हुआ जाता है। हमें इससे क्या, वैसे भी इस पिक्चर के टिकट आसानी से नहीं मिल रहे हैं। चलो पिक्चर ही देख आएं; मनोरंजन भी हो जाएगा और समय भी कट जाएगा। और सोचना ही है तो फिर बाद में सोच लेंगे कि किसने भेजे।
दोनों जब सिनेमाघर से वापस घर लौटे तो देखा, घर का अधिकांश सामान टेपरिकार्डर, रेडियोग्राम, टेलीविजन, घड़ी, पंखा इत्यादि सब गायब हैं। साथ ही एक दूसरी चिट बीचों-बीच टेबल पर उन्हीं अक्षरों में लिखी रखी है--शायद अब आप पहचान गए होंगे कि मैं कौन हूं।
मैं भी पहचान गया कि आप कौन हैं। आप वही हैं जो होने वाली पत्नी के डर के मारे अपना नाम नहीं लिखे!
इतना डर क्या? इतना भय क्या? ऐसे भयभीत कहीं जीवन में कोई विकास हो सकता है? छोड़ो भय। और मेरे देखे, जहां प्रेम है वहां भय नहीं होता और जहां भय है वहां प्रेम नहीं होता। भय और प्रेम साथ-साथ नहीं होते। तुम इतने भयभीत हो कि प्रेम क्या खाक होगा! तुम प्रेम से भरो कि भय तिरोहित हो जाए। लेकिन तुमने बड़ी होशियारी की! मुझे धोखा देना आसान नहीं है।
एक पहलवान ने होटल में अपना कोट टांगा, तथा चोरी न चला जाए, इस डर से उस पर एक पर्ची भी लगा दी कि कृपया कोट न चुराएं!--मुक्केबाजी में विश्व-चैंपियन।
जब खाना खाने के बाद लौटे तो देखा कोट गायब था और दूसरी पर्ची वहां रखी थी: कृपया पीछा न करें!--दौड़ में विश्व-चैंपियन।
तुम्हारी पर्चियां काम न आएंगी। पर्चियों के उत्तर मैं दे सकता हूं।
एक हिप्पी-कट युवक नाई की दुकान पर पहुंचा और उसने मजाक में नाई से पूछा, भाई साहब, क्या कभी आपने किसी गधे की हजामत बनाई है?
नाई ने संजीदगी से कहा, बनाई तो नहीं भइया, मगर बैठो, कोशिश करके देखता हूं।

आज इतना ही।



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