देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर
सामाजिक)—ओशो
तेरहवां प्रवचन
समाजवाद: पूंजीवाद का विकास
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
मेरे खयाल में तो अगर कोई बात सत्य है, उपयोगी है, तो सत्य अपना माध्यम खोज ही लेता है। नहीं अखबार थे तब की दुनिया में,
सत्य मरा नहीं। बुद्ध के लिए कोई अखबार नहीं था, महावीर के लिए कोई अखबार नहीं था, क्राइस्ट के लिए
कोई अखबार नहीं था। तो भी क्राइस्ट मर नहीं गए। अगर बात में कुछ सच्चाई है,
तो सत्य अपना माध्यम खोज लेगा। अखबार भी उसका माध्यम बन सकता है।
लेकिन अखबार की वजह से कोई सत्य बचेगा, ऐसा नहीं है। या
अखबार की वजह से कोई असत्य बहुत दिन तक रह सकता है, ऐसा भी
नहीं है। माध्यम की वजह से कोई चीज नहीं बचती है, कोई चीज
बचने योग्य हो, तो माध्यम मिल जाता है। अखबार भी मिल ही
जाएगा। नहीं मिले, तो भी इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए। हम जो
कह रहे हैं, वह सत्य है, इसकी चिंता
करनी चाहिए। अगर वह सत्य है तो माध्यम मिलेगा।
और नहीं मिला तो भी क्या हर्ज है,
तो भी कोई हर्ज नहीं है।
लेकिन इस युग में फर्क पड़ा है, और वह फर्क यह है कि
थोड़ी-बहुत देर तक प्रचार के द्वारा असत्य को भी चलाया जा सकता है। प्रोपेगेंडा,
असत्य को भी थोड़ी देर तक तो चला ही सकता है। सत्य जैसा दिखा ही सकता
है। और थोड़ी देर तक प्रोपेगेंडा सत्य को भी प्रचारित होने से रोक ही सकता है।
लेकिन यह चरम बात नहीं है, यह थोड़ी देर के लिए बात है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
एक तो यह बिलकुल स्वाभाविक है। यह बिलकुल स्वाभाविक है क्योंकि जो मैं
कह रहा हूं, वह बहुत से न्यस्त-स्वार्थों के विपरीत कह रहा हूं।
जो मैं कह रहा हूं, वह बहुत सी दुकानों, बहुत से पुरोहितों, बहुत से वादों के विपरीत कह रहा
हूं। जो मैं कह रहा हूं, वह जो पुराना है, उसके विपरीत है। तो पुराना अपनी रक्षा के उपाय करेगा। लेकिन मेरी समझ यह
है कि जब भी कोई विचार रक्षा की, डिफेंस की हालत में आ जाता
है, तो उसकी मौत करीब है। जब भी कोई विचार डिफेंसिव हो जाता
है और रक्षा करने लगता है अपनी तब उसकी मौत करीब आ जाती है। और जब विचार जीवंत
होता है, तब वह आक्रामक होता है और जब मरने लगता है, तब वह रक्षात्मक हो जाता है। इसलिए मेरे लिहाज से वह शुभ लक्षण है। और अगर
एक आदमी को न्यूट्रलाइज करने के लिए दो साल मेहनत करनी पड़ी हो, तो ये बड़े शुभ लक्षण हैं। और एक आदमी को अगर मुल्क भर में सारे लोगों को
एक आदमी से लड़ना पड़ता हो...और मैं एक दिन के लिए आऊं और उनको फिर साल भर लड़ाई
चलानी पड़ती हो, तो ये बड़े शुभ लक्षण हैं। साधारण लक्षण नहीं
हैं। ये बड़े शुभ लक्षण हैं। इसका मतलब यह है कि वह एक बात उनकी समझ में आ गई है कि
वे डिफेंस में हैं।
दूसरी बात यह है कि जो मैं कह रहा हूं, और जो वे कह रहे हैं,
हम दोनों के बल अलग हैं। अलग का मेरा मतलब यह है कि मेरा बल भविष्य
में है, आने वाली पीढ़ी में है, उनका बल
अतीत में है, जाने वाली पीढ़ी में है। उनका जो बल है, वह जाने वाली पीढ़ी में है और अतीत में है। उनका बल डूबते हुए सूरज में है।
मेरा बल उगते हुए सूरज में है।
इसलिए मुझे उनकी कोई बहुत चिंता लेने जैसी बात नहीं है। अगर बीस साल
हम इसी तरह भी लड़ते रहे, तो भी आप देखेंगे कि उनका सूरज डूबता है। क्योंकि जिन
पर उनका बल है, वे बीस साल में विदा हो जाएंगे, जिन पर मेरा बल है, वे बीस साल में शक्तिशाली हो
जाएंगे। इसलिए लड़ाई आज भला ऐसी लग सकती है कि मैं कुछ कह कर जाता हूं, फिर साल-छह महीने में उसको लीप-पोत दिया जाता है, लेकिन
ऐसा बीस साल पहले नहीं कहा जा सकता है। और एक बड़े मजे की बात यह है कि जब मुझे गलत
सिद्ध करने में या मैं जो कह गया हूं, उसे लीप-पोंछ डालने
में उनको सारी ताकत लगानी पड़ रही है, तो वे कुछ दे नहीं
पाएंगे और बीस साल में उनका काम सिर्फ इतना ही रह जाएगा, जैसा
कि घर में सुबह नौकर घर को साफ करता हो, कचरा साफ करता हो,
उससे ज्यादा उनका मूल्य नहीं रह जाएगा। वे क्रिएटिव देने की हालत
में कुछ भी नहीं हैं।
मैं उनकी चिंता नहीं लेता। मुझे जो कहना है, वह मैं कहे चला जाऊंगा। मुझे जो ठीक लगता है, वह मैं
दोहराए चला जाऊंगा। मुझे जो अच्छा लगता है, उसे मैं बनाए चला
जाऊंगा। मेरा भरोसा क्रिएटिविटी में है। मेरा भरोसा इसमें नहीं है कि वे क्या कर
रहे हैं, मैं उनसे जूझने जाऊं, क्योंकि
मैं मानता हूं कि वे हारी हुई बाजी लड़ रहे हैं। इसलिए उनकी चिंता लेने की जरूरत
नहीं है।
और फिर एक बात है कि कुछ चीजें हैं, जो मर चुकी
हैं--सिर्फ कुछ स्वार्थ उनको जिंदा रखे हुए हैं, लाशें हो
चुकीं हैं। मकान गिर चुका है; लेकिन कुछ लोग बल्लियां लगाए
हुए सम्हाले खड़े हैं। क्योंकि उनका सारा स्वार्थ उसमें है। और हम इतने बड़े संक्रमण
के समय में हैं, इतना बड़ा ट्रांस्फार्मेशन करीब है, इतने जोर से सारी दुनिया बदल रही है कि बल्लियां बहुत ज्यादा देर नहीं
रोकी जा सकती हैं। और न बहुत ज्यादा देर मुर्दे को अब जिंदा रखा जा सकता है। वह तो
गिरेगा।
तो मेरा काम इतना ही है कि मैं यह बता जाऊं कि यह जो लाश पड़ी है, यह जिंदा नहीं है। और मैं मानता हूं कि अगर एक दफा आपको दिखाई पड़ जाए कि
लाश है और जिंदा नहीं है, तो फिर पचास गुरु भी आपको समझा कर
नहीं बता सकते हैं कि यह जिंदा है। एक दफा दिखाई पड़ जाना चाहिए फिर बहुत मुश्किल
है। और फिर...
अब जैसे राजकोट जैसी जगह है, अगर दो लाख आदमी रहते
हैं। दो लाख लोग तो मुझे नहीं सुनते हैं। थोड़े से लोग मुझे सुनते हैं। जरूरी नहीं
है कि वे ही लोग उनको सुनते हों, जो मेरा विरोध कर जाते हैं।
लेकिन एक मेरी समझ है और मेरी समझ यह है कि मुझे सुनने में रोज-रोज, नये से नया युवक उत्सुक हो रहा है। उस पर मेरी यात्रा है। और अगर कोई
वृद्ध भी मेरी इन बातों में उत्सुक हो रहा है, तो मैं मानता
हूं कि किसी गहरे अर्थ में वह वृद्ध नहीं है, क्योंकि मेरे
साथ वृद्ध खड़ा ही नहीं रह सकता। अगर कोई बूढ़ा आदमी भी मेरे पास आ रहा है, तो किसी न किसी अर्थ में उसकी आत्मा जवान है, तो ही
मेरे पास आ रहा है, नहीं तो नहीं आ रहा।
और वे जो मेरे विरोध में काम कर रहे हैं, उनके पास अगर आप देखेंगे, तो वहां आपको बिलकुल कब्र
में जिनका एक पैर चला गया है, वे लोग आपको दिखाई पड़ेंगे।
मंदिर में, मस्जिद में, पुरोहित के पास,
गुरु के पास मरा हुआ आदमी दिखाई पड़ेगा। उससे आशा नहीं बांधी जा सकती
है। और यह भी मेरी समझ है कि दुनिया में जब भी कोई क्रांतियां होती हैं तो कोई
सारा मुल्क क्रांति नहीं करता। एक चुना हुआ वर्ग, एक
सोच-विचारशील वर्ग, एक इंटेलिजेंसिया, यह
जो बहुत छोटा सा हिस्सा होता है, वह क्रांति करता है। यह
मेरी समझ है कि वह जो इंटेलिजेंसिया है, वह जो सोच-विचारशील
वाला वर्ग है, वह पुराने गुरुओं के पास नहीं है, न हो सकता है, उससे उसकी टूट हो गई है, वह उससे चला गया है, वह उसके पास नहीं है। चित्रकार
हो, मूर्तिकार हो, कवि हो, लेखक हो, विचारक हो, दार्शनिक
हो, चिंतक हो, वह वहां नहीं है,
जो मेरे विरोध में लगे हुए हैं। लेकिन वह धीरे-धीरे मेरी बातों में
उत्सुक हो रहा है।
तो मेरी अपनी समझ यह है कि देश की जो इंटेलिजेंसिया है, वह जो देश का सोचने वाला वर्ग है, जरूरी नहीं है कि
सोचने वाला वर्ग धनी हो। अक्सर ऐसा नहीं होता है। अक्सर सोचने वाला वर्ग धनी नहीं
होता। सोचने वाला वर्ग अक्सर मध्य वर्ग से आता है। सारी दुनिया की जो क्रांति है,
सब मध्यम वर्ग से आती है। तो मेरी नजर में वह खयाल में है कि वह
वर्ग मुझमें उत्सुक हो रहा है, और यह भी बड़े मजे की बात है
कि वह वर्ग मुझमें ही उत्सुक हो सकता है, वह उनमें उत्सुक
नहीं हो सकता है। उसके और उनके बीच के सेतु टूट गए हैं। इसलिए मुझे चिंता नहीं है।
मैं अपनी बात कहे चला जाता हूं, और फिर मुझे इसका भी
फर्क नहीं पड़ता कि क्या परिणाम होगा? इतनी बड़ी जिंदगी में
हमें परिणाम की चिंता में नहीं पड़ना चाहिए। मैं जो कर रहा हूं वह ठीक होना चाहिए,
इतना मुझे भरोसा होना चाहिए, परिणाम क्या होगा
इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए। वह कोई हिसाब-किताब भी नहीं किया जा सकता। मुझे ठीक
लग रहा है, उसे कहने में मैं आनंदित हूं, बात खतम हो गई। अगर वह कुछ उपयोग का होगा, तो लोग
उसका उपयोग कर लेंगे, नहीं उपयोग का होगा तो लोग उसे भूल
जाएंगे।
ऐसा भी मेरा आग्रह नहीं है कि जो मैं कह रहा हूं, उसे लोगों को मानना ही चाहिए। ऐसा भी मेरा आग्रह नहीं है कि मेरी बात मान कर
ही सब कुछ हो जाना चाहिए। अगर वह ठीक होगी तो वह मान लेंगे, अगर
ठीक नहीं होगी तो अच्छा ही है कि न मानें। संघर्ष तो चलेगा, और
इसलिए मैं मानता हूं कि जो आदमी आकर कहता है कि मैं गलत कह रहा हूं, वह भी मेरे काम में सहयोगी है। क्योंकि हो सकता है, मैं
गलत ही कह रहा हूं। तब देश के हित में ही है कि कोई पूछेगा कि मैं गलत हूं। और हो
सकता है मैं सही कह रहा हूं, तो उसके गलत कहने से बहुत देर
तक यह बात चलने वाली नहीं है। लोग भी सोचेंगे, समझेंगे। जो
ठीक होगा उन्हें दिखाई पड़ेगा। इसलिए मैं आग्रहशील नहीं हूं।
इसलिए जैसा आप कहते हैं कि आपके मिशन का क्या होगा? एक अर्थ में मेरा कोई मिशन नहीं है, क्योंकि मिशन का
मतलब आग्रह होता है। यानी मैंने कोई ठेका ले रखा हो कि नहीं ऐसा ही हो जाना चाहिए
दुनिया में, ऐसा मेरे मन में कोई भाव नहीं है, मिशनरी में नहीं हूं। मुझे जो ठीक लग रहा है, वह मैं
आपसे कह देता हूं। इतना मैं अपना दायित्व समझता हूं कि मुझे ठीक लग रहा हो और मैं
आपसे न कहूं, तो थोड़ी मनुष्यता की मुझमें कमी है।
जो ठीक लग रहा था वह मैंने आपसे कह दिया है, मेरा काम पूरा हो गया है। आप रास्ते से जा रहे हैं। मैंने देखा, पास में गङ्ढा है जिसमें मैं गिर सकता हूं। और मैंने आपसे कहा कि गङ्ढा है
और बात खतम हो गई। फिर भी आप गिरते हैं, वह आपकी मौज रही,
उसका मुझ पर कोई जिम्मा न रहा। लेकिन में बैठा हूं, आप गङ्ढे में जा रहे हैं। मैं बैठा देखता हूं। आप गङ्ढे में गिर जाएं और
मैं देखता रहूं, तो आपके गङ्ढे में गिरने में, मैं भी जिम्मेवार था। इसका दायित्व मुझ पर भी हो जाएगा। तो मेरा इतना है
कि मैं चिल्ला कर आपको कह दूं कि ऐसा हो रहा है। फिर आपकी मर्जी।
और हर आदमी को हक है कि अपनी मर्जी से तय करे और इसलिए हजारों करेंट
चलते हैं जिंदगी में, कोई एक करेंट निर्धारित हो ही नहीं सकता। इन सबके
चिंतन का इकट्ठा परिणाम अंत में निर्धारित होता है। अगर हम बीस लोग यहां बैठ कर
बात करें, तो न तो मैं सत्य का निर्धारक हो सकता हूं,
न आप। लेकिन अगर हम सत्य के खोजी हैं और बीस लोग विवाद करें,
वाद करें, संवाद करें, चर्चा
करें, तो अंत में जो सत्य बीस लोगों की चर्चा से निकलेगा,
न तो मेरा होगा, न वह आपका होगा। लेकिन अगर इन
बीस लोगों ने ईमानदारी से सत्य की खोज की है, तो मैं जिसको
सत्य कहता था, उससे भी ज्यादा सत्यतर होगा, आप जिसे सत्य कहते थे, उससे ज्यादा सत्यतर होगा।
तो जिंदगी तो एक बड़ा डायलाग है। उसमें जो गलत कह रहा है, सही कह रहा है, वह सबका उपयोग है। और मुल्क एक
स्थिति में है, जहां हमें कुछ निर्णय लेने हैं, जो हमने हजारों साल तक पोस्टपोन किए थे। तो उन निर्णय लेने की स्थितियों
में मेरे विचार मुझे सामने रख देने हैं। आपको अपने रख देने हैं, किसी को अपने रख देने हैं। एक डायलाग होगा, पूरा
मुल्क सोचेगा, समझेगा, उससे कुछ
निकलेगा। वह निकला हुआ न मेरा होगा, न आपका होगा, न किसी को होगा। वह हम सबका सम्मिलित फल होगा। और उस सम्मिलित फल के लिए
मेरी चिंता है। इसलिए मेरा कोई मिशन नहीं है। अगर मिशन की भाषा में कहें तो मेरा
यही मिशन है कि मुल्क में एक संवाद चल पड़े। एक बात चल पड़े, एक
चर्चा होने लगे, लोग सोचने लगें, लोग
चेतने लगें, लोग बात करने लगें, लोग तय
न रह जाएं, लोगों के पुराने कंक्लूजन न रह जाएं। वह मेरा काम
मैं पूरा कर रहा हूं और वह जो मेरे विरोध में बोल रहे हैं वे भी मेरे काम में
सहयोगी हो रहे हैं।
मैं चाहता हूं, मुल्क ऐसी स्थिति में आ जाए, नो
कंक्लूजन में, जिसके पास निष्कर्ष नहीं है, क्योंकि जिस कौम के पास निष्कर्ष पक्के हो जाते हैं, वह कौम सोचना बंद कर देती है। फिर सोचने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। हमेशा
हमारा कंक्लूजन पहले से तय होता है, सोचने की कोई जरूरत नहीं
है, हमने कोई दोत्तीन हजार साल से सोचा नहीं है। इसलिए मैं
मानता हूं कि मुल्क अगर संदिग्ध हो जाए, इतना काम मैं
करूंगा। इतना मैं हर मुद्दे पर कर दूंगा, इतना काम हो जाएगा।
इसमें कोई शक ही नहीं है। मैं संदेह में डाल दूंगा। जो मेरे विरोध में आएंगे,
वे भी मेरा काम कर जाएंगे, क्योंकि वे मेरे
साथ भी आपको निस्संदिग्ध न होने देंगे, मेरे साथ भी संदिग्ध
कर देंगे।
मुल्क संदेह की स्थिति में आ जाए--ए मूड ऑफ डाउट पैदा हो जाए तो काम
पूरा हो जाएगा। उस संदेह से बहुत कुछ पैदा हो सकता है। बहुत सृजनात्मक विचार का
जन्म हो सकता है।
और दुनिया में जो भी ऐसे हुए हैं, जिन्होंने दान किया
है, वे संदेह के युग हैं। जैसे बुद्ध और महावीर के वक्त,
आज से पच्चीस सौ वर्ष पहले बिहार ने कुछ दान दिया। वह बड़े संदेह का
युग था, बिहार के लिए। बिहार में कोई आठ तीर्थंकर थे और वे
आठों अपनी बात कह रहे थे, और आठों बाकी सात के विरोध में थे।
तो बिहार ने दान दिया था। एथेंस में साक्रेटीज और प्लेटो और अरस्तू के जमाने में
संदेह का युग था। पच्चीसों विचारक थे, जो अपनी बात कह रहे
थे। एथेंस जो उस समय दे गया, फिर नहीं दे सका कभी भी।
आज मैं मानता हूं कि उस तरह का संदेह जहां भी है, जिस देश में है। जैसे रूस में नहीं है, पिछले पच्चीस
साल में रूस की बुद्धिमत्ता ने कोई बहुमूल्य चीजें नहीं दीं। आश्चर्यजनक है कि
उन्नीस सौ सत्रह के पहले रूस एक संदेह का युग था, तो
दोस्तोवस्की पैदा हुआ, उसी से लेनिन पैदा हुआ। रूस में बहुत
अदभुत लोग पैदा हुए। उन्नीस सौ सत्रह के पहले रूस में कोई बीस ऐसे अदभुत आदमी हुए,
जो कि किसी भी कौम को हजारों साल के लिए गौरव दे दें। लेकिन उसके
बाद नहीं हो सके। उसके बाद जड़ हो गए, क्योंकि रूस के पास
कंक्लूजन हो गया, उसके पास पक्का कंक्लूजन हो गया। उसको अब
कोई सोचने की जरूरत न रही।
तो मैं यह कहता हूं, यह जो मुल्क है, कोई दोत्तीन हजार साल से अंधेरे में जी रहा है। एथेंस, या उन्नीस सौ सत्रह के पहले का रूस या बुद्ध के जमाने का बिहार, ऐसा इस मुल्क में नहीं हो पा रहा है। इतना काम भी पूरा हो जाए तो मेरा काम
पूरा हो जाए।
आज के भारत में जो क्लाइमेक्स आ गई है--अगर यही
स्थिति है और पंद्रह-बीस सात तक और चली गई तो ऐसा नहीं है कि...।
हां, हो सकता है, इसलिए जल्दी करने
की जरूरत है। इसलिए मुल्क जल्दी चिंतन करे, इसकी चिंता करने
की जरूरत है। और जो आप कहते हैं, क्लाइमेक्स तक पहुंच गए हैं,
वह मैं मानता। क्योंकि क्लाइमेक्स पर पहुंच कर सदा क्रांति हो जाती
है। हम क्लाइमेक्स पर नहीं पहुंच रहे हैं। बल्कि हम इतनी कमजोर कौम हैं कि छोटी सी
गड़बड़ होती है, उसको हम क्लाइमेक्स नहीं हो गया है, क्लाइमेक्स तक पहुंच जाए तो सौभाग्य है हमारा। क्लाइमेक्स के बाद परिवर्तन
है। सौ डिग्री पर पानी उबलने लगे तो भाप बनेगी ही, लेकिन भाप
बनती नहीं है और हम कहते हैं क्लाइमेक्स पर पहुंच गए हैं!
अभी आपने फरमाया कि उन्नीस सौ सत्रह तक रूस में
संदेह का युग था और उसे कंक्लूजन मिल गया, निष्कर्ष पर आ गई वह
कौम, वह मुल्क, तो अब उसे जड़ता आ गई
विचारों में। तो आप यह कह सकेंगे कि रूस का जो निष्कर्ष है वह किसी स्वरूप में
भारत के लिए लाभप्रद बन सकता है?
एक ही अर्थ में लाभप्रद बन सकता है, एक ही अर्थ में। और
वह यह कि भारत में जो संदेह की हवा चाहिए, उसमें वह सहयोगी
हो सकता है। लेकिन कंक्लूजन की तरह लाफप्रद नहीं हो सकता। अगर भारत सोचता हो कि
कम्युनिज्म हमारा निष्कर्ष बन जाए तो मूढ़ता होगी। एक ही अर्थ में उपयोगी हो सकता
है कि हमारी जो चिंतन की हवा पैदा हो रही है, उसमें वह चिंतन
का एक मुद्दा हो। हम उस पर भी सोचें, उसको भी हम कंक्लूजन की
तरह पकड़ लें और ऐसा मुझे डर लग रहा है कि हम पकड़े ले रहे हैं। हम पकड़े ले रहे हैं।
एक तो चिंतन से पकड़ी गई बातें होती हैं, जो चिंतन से निष्कर्ष
की तरह निकलती हैं। और एक घबड़ाहट में पकड़ी गई बातें होती हैं, जो कि कोई सहारा न मिलने से हम उसको पकड़ लेते हैं। भारत के साथ जो डर है
वह यह है कि यह सदा का विश्वासी मुल्क है। यह बड़ा खतरा है। यह इतना बड़ा खतरा है कि
अविश्वास तक में विश्वास कर सकता है। यह इतना विश्वासी मुल्क है कि अगर यह महावीर
को, कृष्ण को छोड़ेगा तो माक्र्स को, स्टैलिन
को, माओ को पकड़ सकता है, उतने ही
पागलपन से। इसका जो पकड़ने का ढंग है वह अंधा है। चिंतन का इसके पास ढंग नहीं है।
तो मैं मानता हूं कि कम्युनिज्म पर भी चिंतन होना चाहिए--चिंतनीय है।
और इस समय सबसे ज्यादा चिंतनीय है। लेकिन मुझे डर ऐसा लग रहा है कि धीरे-धीरे
हमारे मन में वह स्वीकृत होता जा रहा है। चिंतनीय हो रहा है। समाजवाद की जो हम
बातें कर रहे हैं, साम्यवाद की जो हम बातें कर रहे हैं, उसको हम इस तरह मान रहे हैं जैसे कि कोई तैयार कंक्लूजन है, जो कि हमने स्वीकार कर लिया तो सब हल हो जाएगा।
कोई चीज तैयार नहीं है। किसी एक मुल्क का अनुभव किसी दूसरे मुल्क के
लिए रेडीमेड नहीं होता है, न हो सकता है। क्योंकि हर मुल्क में हालतें इतनी
भिन्न हैं, चित्त-दशा इतनी भिन्न हैं, सोचने
के ढंग इतने भिन्न हैं कि जो उसके लिए संभव था, वह हमारे लिए
संभव नहीं हो सकता है। जो रूस के लिए संभव था, वह हमारे लिए
संभव नहीं हो सकता, तो चीन के लिए संभव है, वह हमारे लिए संभव नहीं हो सकता, लेकिन विचारणीय है।
तो हम चीन पर भी सोचें, हम रूस पर भी सोचें। न तो हम स्टैलिन
पैदा कर सकते हैं, न हम माओ पैदा कर सकते हैं। हम पैदा नहीं
कर सकते। आखिर पैदा करने के लिए हमारी भूमि में वह क्षमता चाहिए, जो हमारे पास नहीं है। हम और तरह के लोग पैदा कर सकते हैं। हम महावीर पैदा
कर सकते हैं, हम बुद्ध पैदा कर सकते हैं। वह हमें आसान है
पैदा करना। लेकिन सारे जगत में जो हो रहा है, वह हमें सोचने
जैसा है।
मेरी अपनी समझ यह है कि हमें सिर्फ कम्युनिज्म ही सोचने जैसा नहीं है।
एक चीज जिसको हम बिलकुल नहीं सोच रहे हैं, हमें कैपिटलिज्म भी
सोचने जैसा है। यानी हमारे लिए मास्को ही सोचने जैसा नहीं है, वाशिंगटन भी हमारे लिए बहुत सोचने जैसा है। जिसको हम सोच ही नहीं रहे और
हमने एक भ्रांति समझ रखी है कि हम यह बात मान कर बैठ गए हैं कि हम पूंजीवादी हैं,
हम पूंजीवादी भी नहीं हैं अभी। समाजवादी होना तो बहुत दूर की बात है,
हम अभी पूंजीवादी भी नहीं हैं।
अभी हम करीब-करीब सामंतवादी हैं। पूंजीवादी भी आज पूरे मुल्क को नहीं
नहीं हो गया है संभव। न कोई नेशनेलाइजेशन हुआ है, न औद्योगीकरण हुआ है,
न मुल्क के पास पूंजी है, न हमारे पास इतनी
संपत्ति है, जिसको हम बांट सकें। क्योंकि हम बड़े चक्कर में
पड़ सकते हैं। चक्कर में इसलिए पड़ सकते हैं कि हमारी हालत ऐसी है कि अगर आज हम इस
भाषा में सोचने लगें कि साम्यवाद, समाजवाद कैसे आए तो हम
गलती में भी पड़ सकते हैं।
क्योंकि साम्यवाद या समाजवाद पूंजीवाद की एक क्लाइमेक्स के बाद की
स्थिति है। पूंजीवाद जब परिपूर्ण हो जाए, या पूंजीवाद इतनी
पूंजी पैदा कर ले की बांटी जा सके, तब तो बंटवारे की बात
अर्थ रखती है। अभी भारत की हालत ऐसी है कि अब हम बांटेंगे तो सिर्फ गरीबी
बांटेंगे। अमीरी तो हमारे पास है ही नहीं, जिसको कि हम बांट
लें। तो मेरी अपनी समझ यह है कि भारत न केवल मास्को को सोचे, बल्कि वाशिंगटन को और भी ज्यादा सोचे।
और बड़े मजे की बात है कि मास्को आज निरंतर वाशिंगटन के करीब सरक रहा
है। क्योंकि मास्को के पचास साल का अनुभव यह है कि रूस गरीब है। रूस अमीर नहीं हो
सका। पचास साल की निरंतर मेहनत के बाद भी रूस अमीर मुल्क नहीं है। रूस आज भी गरीब
है, और उसको यह भी समझ में आ रहा है कि अमेरिका ने पचास वर्ष में इतनी संपत्ति
पैदा कर ली कि विचारणीय है कि मामला क्या है? रूस में रोज
इंसेंटिव नीचे गिरा है, लोगों के प्रेरणा कम हुई है, काम करने की।
ख्रुश्चेव ने सत्ता से जाने से पहले जो सबसे बड़ी चिंता प्रकट की थी, वह यह थी कि उसका कोई युवक काम करने के लिए उत्सुक नहीं है। रूस में रोज उत्पादन
नीचे गिर रहा है। अब यह हैरानी की बात है कि रूस पचास साल की समाजवादी व्यवस्था के
बाद भी अपना गेहूं पैदा करने में समर्थ नहीं है। उसे पूंजीवादी मुल्कों से आज भी
लेना पड़ रहा है।
तो रूस तो चिंतन कर रहा है रोज कि कुछ न कुछ गड़बड़ हो गई है, हमारा उत्पादन नीचे गिर रहा है और अमेरिका का उत्पादन रोज बढ़ रहा है कि वह
आज सारी दुनिया के भूखे लोगों को खाना दे पा रहा है। संपत्ति भी रोज बढ़ती जा रही
है। और बड़े मजे की बात यह है कि जिसको अमेरिका में गरीब कहते हैं, वह जो आदमी अमेरिका में गरीब है, वह आदमी रूस में
अमीर है। उसके पास कार है। यानी रूस के अमीर के पास कार नहीं है और अमेरिका के
गरीब के पास भी कार है। यह हमें सोचना है सारी बातें, क्योंकि
जब किसी मुल्क को निर्णय लेना हो तो उसे जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए।
मेरी अपनी समझ तो यह है कि हिंदुस्तान को पचास साल सुनियोजित पूंजीवाद
की जरूरत है, प्लैंड कैपिटलिज्म की जरूरत है। हिंदुस्तान पचास साल
में इतनी संपत्ति पैदा करने में संलग्न हो कि बांट सके। हिंदुस्तान के लिए समाजवाद
की बात पचास साल बाद अर्थ की होगी, और अभी आत्मघाती है,
स्युसाइडल है। अभी हमने बात की कि हम मरे। और अगर हमने अभी समाजवाद
पकड़ लिया, जैसा कि हमें डर लग रहा है कि एक पकड़ लेंगे,
क्योंकि नीचे गरीब जनता का जो दबाव है, वह
दबाव हमें समाजवाद पकड़वाने के लिए राजी कर रहा है।
समाजवाद पकड़ने के लिए हमारा चिंतन हमें राजी नहीं कर रहा है, नीचे की गरीब जनता का दबाव हमें राजी कर रहा है। यानी गरीब जनता की नीचे
कीर् ईष्या हमसे कह रही है कि बांट डालो, पूंजी को। नहीं
बांटोगे तो हम तुम्हें हटाते हैं सत्ता से। तो सत्ता में जो बैठा है, वह गरीब क्या मांग कर रहा है, वह पूरा करने को
उत्सुक है। उसको यह कोई खयाल नहीं है कि मुल्क की अर्थ व्यवस्था...यह संभव हो सकता
है कि नहीं हो सकता है। यह आज संभव भी नहीं हो सकता। हिंदुस्तान में मुश्किल से
बीस हजार परिवार हैं जिनको समृद्ध कहा जा सके। साठ करोड़ के मुल्क में बीस हजार
परिवार समृद्ध हों तो, बीस हजार परिवार और गरीब होंगे,
और कुछ भी होने वाला नहीं है। कोई अंतर ही नहीं पड़ने वाला है। अभी
हिंदुस्तान ने पूंजी ही पैदा नहीं की।
इसलिए मेरी अपनी समझ यह है कि हिंदुस्तान को तो अभी मास्को पर भी
सोचना चाहिए, जो वहां हुआ है, पचास सालों
में। जो दस सालों में चीन में हुआ है, उसे भी सोचना चाहिए,
और जो पचास सालों में वाशिंगटन में हुआ है, अमेरिका
में हुआ है, उसे भी बहुत गौर से सोच लेना चाहिए। और इस सबको
सोच कर निर्णय लेना चाहिए। निर्णय नीचे के दबाव से नहीं लेने चाहिए, निर्णय भविष्य की दिशा से लेने चाहिए। यानी यह हो सकता है कि एक भूखा आदमी
आज ज्यादा खा जाए और निर्णय ले ले कि चूंकि मैं भूखा हूं, इसलिए
ज्यादा खाने का हकदार हूं। लेकिन ज्यादा खाने से मर जाए और भूख से चाहे न मरता।
मुझे कोई बता रहे थे कि अभी कोई संत आए और उन्होंने कहा कि गायों को
लड्डू खिला दें। डोगरे महाराज ने कहा कि गायों को लड्डू खिला दो और बड़ी प्रशंसा पा
रहे हैं। और उन लड्डुओं से गायों को क्या मतलब है? हां, महाराज लोग लड्डू खाते हैं, तो वह सोचें, उनकी गाय को खिला देने चाहिए। और चूंकि गाय, जो अकाल
पीड़ित जगह से आई है, वह ज्यादा खा जाएगी। और उसे कुछ पता
नहीं है। वह मर जाएगी खाकर, भूखी दो-चार दिन जिंदा भी रह
जाती। लेकिन ज्यादा खाकर मर जाएगी। गाय के संबंध में समझदारी बरतने की जरूरत है।
भूखे आदमी को कैसा देना, इसकी फिक्र करनी
चाहिए। भूखे का खयाल नहीं करना चाहिए कि भूखा क्या मांगता है! इस समय सबसे बड़ा
सवाल है मुल्क का कि नीचे गरीब क्या मांगता है! ऊपर की लीडरशिप उसको पूरा करने को
उतारू है। क्यों? क्योंकि नहीं तो नीचे का आदमी कहता है कि
लीडरशिप से नीचे उतरो, नेतृत्व से नीचे हटो। हम उसको नेता
बनाएंगे जो हमारी बात पूरी करता है।
इसलिए नेता इस वक्त अनुयायियों का अनुयायी हो गया है। वह नीचे का आदमी
जो कह रहा है, उसको पूरा करने को हर हालत में तैयार है। अब उसको कोई
फिक्र नहीं कि इसका फल क्या होगा, परिणाम क्या होगा! मेरी
अपनी समझ यह है कि अगर हिंदुस्तान समाजवाद का कदम उठाता है, तो
हिंदुस्तान अपने इतिहास का सबसे दुभार्ग्यपूर्ण कदम उठाएगा अभी। पचास साल बाद यह
सार्थक बात हो सकती है। पचास साल हम पहले नेशनेलाइज कर दें मुल्क को, औद्योगीकृत कर लें, सारे मुल्क को कृषि व्यवस्था से
मुक्त करके उद्योग व्यवस्था पर ले जाएं। संपत्ति इतनी पैदा हो जाए कि बांटी जा सके,
तब तो समाजवाद अर्थ रखता है, नहीं तो अर्थ
नहीं रखता है। इसलिए मैंने कहना शुरू किया है सोशलिज्म, वाया
वाशिंगटन।
मैं मानता हूं कि हिंदुस्तान में समाजवाद आएगा, आना चाहिए, लेकिन वह आएगा वाया वाशिंगटन। वह वाया
मास्को नहीं आ सकता।
क्या आप इस बात से सहमत होंगे कि सक्रिय राजनीति
में आपका प्रयोग देश के लिए लाभप्रद साबित हो सकता है।
नहीं, अभी नहीं हो सकता है। क्योंकि मेरी समझ यह है कि
सक्रिय राजनीति में प्रवेश की जो शर्तें हैं--सक्रिय राजनीति में प्रवेश की जो
शर्तें हैं, अगर मुझे सक्रिय राजनीति में प्रवेश होना है,
तो मुझे भी नीचे के आदमी की बात की फिक्र ज्यादा करनी पड़ेगी,
बजाय बाद की फिक्र करने की। हां, क्योंकि
सक्रिय राजनीति की तो शर्तें हैं न! इसलिए मुझे तो निष्क्रिय राजनीति में ही रहना
होगा, ताकि मैं वह कह सकूं जो मुझे कहना है, मुझ पर कोई दबाव न हो, मुझ पर किसी पद का, कोई सत्ता का, कुछ भी दबाव न हो। मैं अकेला आदमी
रहूं तो भी कह सकूं, पचास करोड़ मेरे खिलाफ हों तो भी कह
सकूं।
तो मुझे अगर वही कहना है, जो मुझे ठीक लगता है,
तो मुझे सारी तरह की सक्रियता से बाहर रहना पड़ेगा। मेरा मतलब आप समझ
रहे हैं न? हां, लेकिन जो लोग सक्रिय
हैं, वे मेरी बात सुन सकते हैं और मेरी बात के ढंग से सक्रिय
हो सकते हैं। जो लोग निष्क्रिय हैं, वे मेरी बात सुन सकते
हैं और मेरे ढंग से सक्रिय हो सकते हैं।
लेकिन मेरा काम तो इस वक्त तो उस आदमी की तरह है, कि मकान में आग लग गई है, तो बजाय इसके कि वह जाकर
कुएं से एक बाल्टी भर कर लाए, क्योंकि एक बाल्टी से कुछ होने
वाला नहीं है, ज्यादा बेहतर है कि वह गांव में चिल्ला कर
पूरे गांव को जगा दे। और उनसे कहे कि तुम कुएं से बाल्टी भर कर पानी से मकान को
बुझा दो। हालांकि हो सकता है, जिसको मैं लगाना चाहूं,
वह मुझसे कहे कि आप क्यों नहीं पानी भर कर कुएं से, मकान को बुझाते? मैं कहूंगा, मैं
जा सकता हूं, किंतु एक बालटी ले जा सकूंगा। मुझे तो यह
ज्यादा उपयोगी लग रहा है कि मैं पूरे गांव को जगा दूं। अभी बालटी ले जाने की
उत्सुकता मेरी नहीं है, क्योंकि वह काम कोई और भी कर लेगा।
गांव को जगाने का खयाल मेरे खयाल में है।
तो इसलिए मैं किसी सक्रिय राजनीति में उपयोगी नहीं हो सकता हूं। उसमें
न कोई मेरा अर्थ है। मेरा अर्थ हो सकता है इस देश को एक चिंतना देने का, और जिसको भी चिंतना देनी हो, उसे सक्रियता के बाहर
होना चाहिए, क्योंकि सक्रियता की अपनी शर्तें हैं, जो चिंतन में बाधा डालती हैं। तो मेरी समझ यह है कि मुल्क के पास एक
पोलिटिकल फिलासफी भी हो। मुल्क के पास अभी कोई राजनीति दर्शन भी नहीं है।
आप ध्यान रखें, कि माक्र्स ने, जिसने कि
कम्युनिज्म दिया, वह बिलकुल ही निष्क्रिय व्यक्ति है। जिसने
कम्युनिज्म दिया सारी दुनिया को और आधी दुनिया आज कम्युनिस्ट है, और पूरी दुनिया भी हो जाएगी और हो सकता है, वह आदमी
एक लाइब्रेरी में बैठ कर ही काम करता रहा। उसने और कोई काम नहीं किया। वह इलेक्शन
भी लड़ सकता था, वह कम्युनिज्म लाने की कोशिश भी कर सकता था,
लेकिन बहुत बड़ा नुकसान होता दुनिया का। दुनिया को कम्युनिज्म कभी
मिलता ही नहीं। वह आदमी तो दस-दस, बारह-बारह, अट्ठारह-अट्ठारह घंटे ब्रिटिश म्यूजियम की लाइब्रेरी में बैठ कर ही काम
करता रहा। वह तो एक विचार दे गया। उस विचार की सक्रियता फैलती चली गई।
तो मेरा काम एक विचार की भूमिका खड़ी कर देने का है। उससे ज्यादा मेरी
उत्सुकता नहीं है। मैं मानता हूं उससे जो उत्सुक होंगे, जो सक्रिय हो सकेंगे वे हो जाएंगे। लेकिन उसका भी मुझे कोई हिसाब नहीं है
कि कोई सक्रिय हो, न हो। इतना मेरे खयाल में है कि मुल्क अगर
गङ्ढे में गिरे तो जानते हुए गिरे कि गङ्ढे में गिर रहा है। और गङ्ढे में गिरे तो
उसे अनुभव हो कि बात कही गई थी और गङ्ढे में हम गिर गए। यानी ऐसा न हो कि कल यह
कहने को हो कि कोई कहने वाला भी नहीं था कि गङ्ढे में हम गिर रहे थे और किसी ने
कहा भी नहीं और आवाज भी नहीं दी कि गङ्ढे में गिर रहे हो। वह काम मुझे करने जैसे
लगता है, वह मैं कर रहा हूं। सक्रिय राजनीति में मेरा कोई
उपयोग नहीं हो सकता।
आज की फिलासफी में छोटे से छोटे आदमी का भी महत्व
है, क्योंकि वह अज्ञान में है। तो पचास करोड़ आदमियों को
एजुकेट करने का काम तो बहुत महत्वपूर्ण है। इसके लिए तो काम करना ही पड़ेगा। एक
आदमी कैसे कर सकता है?
एजुकेट करने का काम बहुत कठिन है, लेकिन मिस-एजुकेट
करने से कम कठिन है। तो जब मिस-एजुकेट कर सकते हैं लोग तो एजुकेट भी किया जा सकता
है। इसलिए मेरा कहना यह है कि गाइड करना बहुत कठिन है। लेकिन मिस-गाइड करना जब
आसान पड़ रहा है, तो गाइड भी किया जा सकता है। और अभी भी मेरी
समझ है कि आज मुल्क को कोई भी आदमी गाइड कर रहा है, वह कहीं
भी ले जा रहा है, कहीं भी मुल्क जा रहा है। बल्कि अब पक्का
ही नहीं है कि कोई गाइड कर रहा है कि नहीं कर रहा है। यह भी पक्का नहीं है कि वह
जो आगे दिखाई पड़ रहा है, वह आगे किस वजह से है। मैं एक कहानी
कहता रहता हूं।
एक स्कूल में बच्चों का एक्जीबीशन हो रहा है, बच्चों का एक प्रदर्शन हो रहा है। बच्चों ने जो परेड की है, वह ऊंचाई के हिसाब से बच्चे खड़े किए गए हैं। छोटा बच्चा आगे है, उससे बड़ा पीछे है, उससे बड़ा पीछे है। ऐसी दस कतारें
हैं, लेकिन एक कतार में बड़ा बच्चा आगे है, उसके बाद छोटा बच्चा और फिर बड़े। तो ऐसा लगता है कि कुछ भूल हो गई है। तो
प्रिंसिपल से एक आदमी पूछता है, जो देखने आया है कि महानुभाव,
यह क्या मामला है? यह लड़का आगे क्यों है?
क्या यह सबका नेता है? उसने कहा, यह बात नहीं है। इसको आगे रखना पड़ता है, क्योंकि
इसको किसी के पीछे नहीं रखा जा सकता है। बात क्या है? पीछे
से च्यूंटी निकालना है किसी की भी। इसको पीछे रखा ही नहीं जा सकता। आगे रखना पड़ता
है। तो इसको आगे इतना रखा हुआ है कि इसके आगे कोई न हो। यह कोई लीडर नहीं है,
मगर इसका कोई उपाय नहीं है। इसको आगे ही रखना पड़ता है, इसको पीछे रखने में तकलीफ देता है, किसी को भी
तकलीफ देता है।
मुल्क में हालत करीब-करीब ऐसी हो गई है कि जो लीडरशिप है, वह करीब-करीब उस तरह के लोगों की है जो पीछे रहेंगे तो तकलीफ देंगे। इसलिए
उनको आगे रखना जरूरी है। उनको आगे कर दो, लेकिन नुकसान हो
रहा है, नुकसान होगा ही, क्योंकि जिसको
नेतृत्व कहें, वह नहीं है। और इतना बड़ा मुल्क है और इस बड़े
मुल्क में आपका कहना ठीक है कि एक आदमी कैसे एजुकेट करे? यह
बात बिलकुल ही ठीक है कि एक आदमी कैसे एजुकेट करेगा? मगर एक
आदमी यह कर सकता है।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
पता चला कर भी क्या हो गया है तुम्हें? यानी मजा यह है कि
पता चला कर क्या हो गया है? सबको पता है कि क्या बुरा है और
क्या अच्छा है? हो क्या गया है इससे? बुरा
मिट गया है? अच्छा आ गया है? कुछ भी तो
नहीं हो गया है। पता चला कर हो गया होता, तो मेरे पास आने की
जरूरत नहीं थी। हम थोपे हुए हैं, हम थोपे हुए हैं।
एक आदमी की पत्नी है और वह यदि दूसरे की पत्नी की
ओर जाता है तो यह तो व्यभिचार हो गया?
क्यों हो गया व्यभिचार? एक औरत के सात चक्कर
तुमने लगवा लिए तो व्यभिचार नहीं हुआ। जिसके नहीं लगाए सात चक्कर, उससे व्यभिचार हो गया। तो व्यभिचार का मतलब इतना ही हुआ कि जिसके साथ सात
चक्कर लगाया हो उसके साथ व्यभिचार नहीं होता, जिसके साथ सात
चक्कर न लगाए हों, उसके साथ व्यभिचार हो जाएगा। तो व्यभिचार
बड़ा बचकाना हो गया। तुम्हारी तकलीफ जो है न, तुम्हारी तथ्य
को जानने की तकलीफ नहीं है। तुम्हारी तकलीफ आदर्श को पाने की है, व्यभिचार से कैसे बचें? मैं यह कह रहा हूं, व्यभिचार को जानोगे भी कि कहां है? नहीं, व्यभिचार दूसरे की पत्नी को प्रेम करने में उतना नहीं है, जितना अपनी पत्नी को प्रेम न कर पाने में है। व्यभिचार, अगर खोजोगे तो यह मिलेगा। मैं अपनी पत्नी को प्रेम नहीं करता, ऐसे भी कोई अपनी पत्नी को प्रेम नहीं करता। वह तो सेकेंडरी है सदा। लेकिन
हमारा समाज अदभुत है। वह कहता है, दूसरे की पत्नी की तरफ
देखना व्यभिचार है, और अपनी पत्नी की तरफ बिलकुल मत देखो,
यह व्यभिचार नहीं है। वह कहता है, दूसरे की
पत्नी की तरफ देखना व्यभिचार है, और अपनी पत्नी की तरफ
बिलकुल मत देखो, यह व्यभिचार नहीं है। लेकिन यही मूलतः
व्यभिचार है, वह दूसरा इसके बाद पैदा होगा।
अगर मैं अपनी पत्नी की तरफ न देख पाऊं, तो फिर दूसरे की
पत्नी की तरफ देखना ही पड़ेगा। आखिर पुरुष तो पत्नी की तरफ, स्त्री
की तरफ देखेगा। तो वह जो देख रहा है, वह आएगा। अच्छा,
मगर समाज कहेगा, दूसरे की तरफ देखना व्यभिचार
है। पत्नी की तरफ बिलकुल मत देखो, तीस साल बैठे रहो, पीठ किए उसकी तरफ, चालीस साल, वह
व्यभिचार नहीं है। अगर कुछ भी व्यभिचार है, तो यह प्रेम की
कमी व्यभिचार है। अगर कुछ भी व्यभिचार है। जिस स्त्री को तुमने प्रेम नहीं किया है,
उसके साथ तुम सो रहे हो, तो मैं नहीं समझता कि
व्यभिचार कैसे नहीं है।
व्यभिचार को तुम्हें खोजने जाना पड़ेगा। मैं यह कह रहा हूं, तुम इसको मन मत लेना। यह तो मैं तुमसे इसलिए कह रहा हूं कि तुम्हें खोजना
पड़ेगा कि व्यभिचार क्या है। मैं नहीं कह रहा कि ऐसा मान लेना, मैं तो सिर्फ खोज के लिए धक्के देने की कोशिश करता हूं कि थोड़ा धक्का
तुमको दे दूं, तो शायद तुम अपनी जगह से हिल जाओ और थोड़े यहां
से चल कर देख लो। हम पहले से इसे मान कर बैठे हुए हैं। अब हम कितने ही व्यभिचार कर
रहे हों, दिखाई नहीं पड़ते। क्योंकि जिस समाज ने हमको बताया
है कि व्यभिचार क्या है। एक स्त्री से कभी तुमने प्रेम नहीं किया था, उससे तुमने विवाह कर लिया, यह व्यभिचार नहीं है?
जिस स्त्री को तुमने कभी प्रेम नहीं किया, उससे
विवाह व्यभिचार नहीं है?
जिस स्त्री को तुमने कभी देखा नहीं था, दो पंडितों ने मिल कर
जन्मपत्री मिला दी थी, उससे तुम्हारा विवाह हो गया और तुम
चालीस साल उसके साथ रहोगे, यह व्यभिचार नहीं है? इसमें पंडित भी भागीदार, तुम्हारे बाप भी भागीदार,
तुम्हारी मां भी, तुम्हारी पूरी सोसायटी भी।
जिस स्त्री को प्रेम नहीं किया, उस स्त्री के साथ तुम्हारा
संबंध वेश्या से ज्यादा कैसे हो सकता है? चाहे तुम उसको
पत्नी कहो। इतना ही हुआ है, सर्टिफाइड वेश्या हुई। सोसायटी ने
मान रखा है, इसको स्थायी। एक वेश्या के पास तुम रात में जाते
हो, चार रुपये फेंक कर आ जाते हो। इस स्त्री के सामने तुमने
जिंदगी भर का खाना, कपड़ा, रोटी फेंक
दिया है, यह जिंदगी भर की स्थायी वेश्या है, परमानेंट वेश्या है, और क्या होगा इससे ज्यादा मतलब?
हां, फर्क इतना ही है, सोसाइटी
ने बैंडबाजा बजा कर, मंत्र इत्यादि फूंक कर कह दिया कि यह
सर्टिफाइड है, यह पवित्र वेश्या है। इसको हमने सबने मान लिया
है कि इसमें कोई पाप नहीं है।
व्यभिचार क्या है? अब इस व्यभिचार से हजार व्यभिचार
पैदा होंगे, क्योंकि मौलिक व्यभिचार हो गया। मेरी दृष्टि में
जिस विवाह में प्रेम नहीं है, वह मौलिक व्यभिचार है। इसलिए
जिस समाज में बिना प्रेम के विवाह हो रहा है, वह समाज
व्यभिचार होगा। वह बच नहीं सकता। वह इधर वेश्या भी खड़ी करेगा, इधर दूसरे की पत्नी से भी प्रेम करेगा, उधर वह करेगा,
यह सब फैलेगा। और फिर वह समाज इस सबको कहेगा कि यह व्यभिचार है,
और इसका जो ओरिजिनल सोर्स है तो उसको वह कहेगा, वह तो विवाह है। विवाह तो भगवान की साक्षी में हुआ है, बड़ा पवित्र है।
मैं नहीं कहता कि मैं जैसा कहता हूं, वैसा मान लेना। मैं
सिर्फ इसलिए कह रहा हूं कि ऐसा खोजने जाओ, जल्दी में तय मत
कर लो कि क्या व्यभिचार है। खोजने जाओ, उस खोज से तुम्हें
जिस दिन तथ्यों का दर्शन होगा, उस दिन बदलाहट होगी। न होगी
बदलाहट तो समझना कि दर्शन न हुआ। न हो दर्शन तो समझना कि तुम दर्शन की शर्तें पूरी
नहीं कर रहे हो। और पहली शर्त है, तटस्थता। पहली शर्त है कि
पहले से तय मत कर लेना कि यह बुरा है, यह अच्छा है। तुमने
पहले ही तय कर लिया तो अब क्या खोजना होगा? अब खोजने को क्या
बचता है? अब खोजने को कुछ भी नहीं बचता।
मेरे पास तुम आए और तुम तय करके आए कि यह आदमी संत है, अब मुझसे समझने को क्या बचता है? तुम तय करके आए कि
यह आदमी शैतान है, अब दूसरा समझने को क्या बचता है? तुम तो समझ कर ही आए हो, और तुम जो समझ कर आए हो,
तुम उसमें थोड़ा सा और एडीशन करके लौट जाओगे। अगर तुम संत मान कर आए
हो तो और थोड़ा सा जोड़ कर लो उसमें कि हां भाई, है संत जरूर।
क्योंकि तुम वही देख लोगे, जो संत की मान्यता वाला देख सकता
है। उसमें मेरा कोई कसूर नहीं है। तुम और मुझे बड़ा संत मान कर लौट जाओगे। अगर
शैतान समझ कर आए हो तुम, तो मुझे और थोड़ा शैतान बना कर लौट
जाओगे। और हो सकता है, दो आदमी साथ ही मेरे पास आएं और मैं
एक के लिए बड़ा संत होकर लौटूं, और एक के लिए बड़ा शैतान बन
जाऊं। वह अपनी बात नहीं है। और मेरा कुछ लेना-देना नहीं है, क्योंकि
मैं जो हूं, हूं। उसमें संत और शैतान का हिसाब तुम्हारा है।
अब वह तुम अपना हिसाब लगा रहे हो। तुम पहले से तय करके चले आ रहे हो।
नहीं, एक ओपन माइंड चाहिए, जिंदगी को
समझने के लिए, जहां हमने कुछ भी तय नहीं किया। और अगर आज तुम
मेरे पास आओ तो निश्चित ही, अगर घंटे भर मेरे पास रहोगे तो
कुछ न कुछ तय करोगे। लेकिन थोड़ा सोचना कि एक आदमी को सत्तर साल जीना है, उसकी जिंदगी में हमने एक घंटे झांका, एक घंटा झांक
कर क्या हम तय कर सकते हैं? यह ऐसा ही है जैसे हजार पृष्ठ की
एक किताब है और हमने आधा पन्ना फाड़ कर पढ़ लिया, और हमने पूरी
किताब के बाबत तय कर लिया। पता नहीं, सब गड़बड़ हो जाए। इस आधे
पन्ने में जो है, उससे कुछ पक्का नहीं होता कि आगे-पीछे क्या
होगा? कुछ भी पक्का नहीं होता है। हम किसी आदमी को कभी पूरा
नहीं जानते हैं, किसी तथ्य को कभी पूरा नहीं जानते हैं।
आपने अपने लेक्चर में पहले बताया है कि गांधी
कहते हैं कि आत्मा कुछ नहीं करती। जो करता है, वह कोई और करता है। और जैसा अच्छा और बुरा, कुछ भी
कर्म करते हैं, उसकी वजह से उनको भला या बुरा नतीजा कुछ
मिलता है।
यह सब मैंने नहीं कहा, कब सुन लेते हो, पता नहीं!
यह जो भाव...गलत था उसका कहना? उसका कहना गलत है, तो आज आप कहते हैं, आत्मा अकर्म है?
हां, बिलकुल कहता हूं--बिलकुल कहता हूं।
तो कंफ्यूजन हो गया है।
हां, कंफ्यूजन तो करता हूं, पूरी
तरह। वही हमारा काम है। असल कठिनाई क्या होती है कि हमारी सोचने की जो आदतें हैं,
वह जिंदगी के साथ बहुत दर्ुव्यवहार करने की हैं। दर्ुव्यवहार करने
का मतलब यह है कि हम जिंदगी के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं कि जैसे जिंदगी कोई बंधी
हुई पटरियों पर चलती है। तो हम कहते हैं, यह आपने कहा गलत और
यह आपने कहा सही। मैं यह कह रहा हूं, एक स्थिति में वह बात
गलत हो सकती है, एक स्थिति में सही। स्थिति को बिना देखे
जल्दी से निर्णय मत लेना।
समझ लें, अगर मेरे पास एक पापी आए, तो
मैं तो उससे कहूंगा कि हां, आत्मा पाप करती है, क्योंकि पापी के पास पाप से ऊपर कोई आत्मा ही नहीं होती है। पापी के पास
पाप के अतिरिक्त कोई आत्मा ही नहीं होती, उसको और कुछ पता
नहीं होता है--पाप ही उसकी आत्मा है। उससे तो में कहूंगा, आत्मा
पाप करती है। अगर पापी से मैंने यह कहा कि आत्मा तो कुछ करती ही नहीं, आत्मा तो शुद्ध-बुद्ध है, तो पापी बड़ा प्रसन्न होगा।
वह कहेगा, फिर हमने कभी कुछ नहीं किया। तो फिर जो हम कर रहे
हैं, वह जारी रह सकता है, क्योंकि हमने
तो कभी किया ही नहीं। उससे हमारा कोई संबंध ही नहीं। नहीं, पापी
से मैं यह नहीं कहूंगा। पापी से मैं यह नहीं कहूंगा--पापी से तो मैं यही कहूंगा कि
यह तुम कर रहे हो।
और मजे की बात यह है कि जब पापी यह समझेगा कि यह मैं कर रहा हूं और
इसका दंश, पाप का, उसके पूरे प्राणों को
घेर लेगा, सब तरफ से छिद जाएंगे, सुई
की तरह उसके पाप उसको, और मुश्किल हो जाएगा करना, और न करने की वजह से सारा पाप गिर जाएगा। उस दिन वह जान पाएगा, आत्मा क्या है, उस आत्मा को जो कभी कुछ नहीं करती,
उसी दिन जान पाएगा।
तो मैं किससे कह रहा हूं, यह सदा ध्यान में
रखने की बात है, कब कह रहा हूं, यह भी
ध्यान में रखने की बात है। अकर्म जो है, वह अंतिम बात है।
अकर्म जो है, वह अंतिम अनुभूति है। यह पहले में तुमसे कहूंगा
कि तुम हिंसा कर रहो हो। न केवल यह कहूंगा कि हिंसा कर रहे हो, बल्कि कहूंगा तुम हिंसा हो। मैं तुमसे नहीं कहूंगा कि तुम ब्रह्म हो। यह
जानते हुए कि तुम ब्रह्म हो, मैं तुमसे नहीं कहूंगा कि तुम
ब्रह्म हो। मैं तो तुमसे कहूंगा कि तुम हिंसा हो। इसलिए कहूंगा कि अगर यह तथ्य
तुम्हें पूरी तरह दिखाई पड़ जाए, तो छलांग लग जाए। तुम हिंसा
के बाहर हो जाओगे, उससे तुम जान लोगे कि तुम ब्रह्म हो। मैं
तो तुमसे कहूंगा कि तुम हिंसा हो। इसलिए कहूंगा कि अगर यह तथ्य तुम्हें पूरी तरह
दिखाई पड़ जाए, तो छलांग लग जाए। तुम हिंसा के बाहर हो जाओगे,
उससे तुम जान लोगे कि तुम ब्रह्म हो। यानी मेरा कहना यह है कि आदमी
का ब्रह्म होना या शूद्र होना, या सत्य होना, उसके मानने की बात नहीं है। उसके मानने की बात नहीं है। इस छलांग के बाद
का अनुभव है। इस अनुभव को अगर तुमने नीचे दोहराया, उस तल पर
जहां सारा वर्ग इकट्ठा हुआ है, वे वहां बड़े मजे से जी रहे
हैं।
हिंदुस्तान में, न केवल हिंदुस्तान में वरन सारी
पृथ्वी पर हम सबसे ज्यादा अनैतिक हैं। कोई पूछता नहीं कि इसके बुनियादी कारण क्या
हैं, इसके इतने अनैतिक होने के! जहां इतने हजारों साल से
धर्म की चर्चा होती हो, जहां ब्रह्म-ज्ञान के नीचे बात न
उतरती हो, जहां नीति पर इतना मंथन हुआ हो, वहां अनैतिकता इतने बड़े विस्फोट की तरह क्यों प्रकट होती है; उसका कारण है कि हिंदुस्तान दो तल पर जी रहा है।
हिंदुस्तान ने एक तल पर परम बातें कह दीं, और परम बातों की वजह से नीचे का तल बिलकुल व्यर्थ हो गया। उस व्यर्थ के तल
पर उसको कोई चिंता ही नहीं। यानी जब उसे आत्मा की बात करनी है, तब वह कहता है, आत्मा शुद्ध-बुद्ध है, अजर-अमर, उस पर कभी कर्म का लेप नहीं चढ़ता है। उस पर
कर्म कभी लगता ही नहीं, उसको कर्म कभी छूता ही नहीं। इधर वह
यह बात कर लेगा। और तब वह मुक्त हो गया है, वह नीचे कुछ भी
करे--चोरी करे, व्यभिचार करे, भ्रष्टाचार
करे, रिश्वत ले, दे--यह सब नाटक है,
यह सब लीला है! वह कहेगा यह खेल चल रहा है, इसमें
कुछ मामला नहीं है। असली बात तो वहां है, वहां तो कुछ होता
ही नहीं कभी।
हमने इस तरह का एक अदभुत समझौता किया है। पहली दफा जब उपनिषदों का
अनुवाद हुआ जर्मनी में, तो जर्मनी में अनुवाद के बाद जो सबसे बड़ा सवाल उठा,
वह यह उठा कि इन उपनिषदों में नीति की कोई चर्चा नहीं है। तुम
ब्रह्म हो, तुम यह हो, तुम वह हो,
और तो कोई बात नहीं है! वह परम निष्पत्तियां हैं। उनको हैरानी हुई
कि ऐसी किताब को मानने वाली कौम अनैतिक हो सकती है। चूंकि यह किताब जो है, यह परम अनुभव की तो बात कहती है; लेकिन परम अनुभव तो
उसका है, जिसको हुआ है। और सुनने वाले का तो नहीं है। उसका
तो कोई अनुभव नहीं है। यह ऐसा ही है, जैसे कि एक बीमार आदमी
हमारे पास आए और हम उससे कहें कि आत्मा तो सदा स्वस्थ है। सब बीमारों को हम समझा
दें कि आत्मा सदा स्वस्थ है। अस्पताल बंद कर दिए जाएं, क्योंकि
आत्मा सदा स्वस्थ है। और यह बात सच है कि आत्मा कभी बीमार नहीं पड़ती। लेकिन आत्मा
के लिए अस्पताल भी कौन बना रहा है, अस्पताल तो हम शरीर के
लिए बना रहे हैं, जो बीमार पड़ता है। समझे न!
तो जो हमारी नैतिकता का चिंतन है, वह मन के लिए हो रहा
है, और बड़े मजे की बात है कि वह जो स्वस्थ आत्मा है, उसे भी बीमार शरीर वाला नहीं जान सकता है। क्योंकि बीमार शरीर वाला बीमारी
में इतना उलझ जाता है कि नजर की उसके पीछे नहीं जाती। स्वस्थ शरीर जरूरी है,
ताकि तुम भीतर जा सको। बीमार आदमी बाहर अटक जाता है। अगर तुम्हारे
पैर में एक कांटा गड़ा है तो तुम्हें ब्रह्म, आत्मा की किसी
की याद न आएगी, कांटे की याद आती रहेगी। छोटा सा कांटा,
ब्रह्म वगैरह को नदारद कर देगा एकदम। एक छोटा सा कांटा पैदा में गड़ा
है, फिर न उपनिषद बचा, न ब्रह्म बचा,
न कुछ बचा, न वेदांत रहा, कांटा रह गया। अब तुमको कांटा चुभ रहा है।
जीसस के जीवन में एक उल्लेख है कि जिस दिन जीसस को सूली हुई, उस रात एक आदमी का दांत दुखता रहा। तो रात उसकी पत्नी उसे दो-चार बार कहती
है आज नींद नहीं आ रही, कल सुबह जीसस को सूली लग जाएगी। वह
कहता है, नींद तो मुझे भी नहीं आ रही है, मेरे दांत में बहुत दर्द है। बार-बार यह बात चलती है, लेकिन वह कभी जीसस का नाम नहीं लेता है, वह कहता है,
बहुत तकलीफ है मेरे दांत में। करवट बदलता है, दवा
लगाता है, लेकिन दांत का दर्द नहीं जाता। सुबह से लोग आते
हैं, वे बाहर से निकलते हैं और कहते हैं, सुना तुमने, जीसस को सूली होने वाली है। वह कहता है,
रात भर नींद नहीं आई, दांत में बहुत दर्द है,
बहुत! फिर जीसस को सूली हुई, जीसस का जुलूस भी
निकल जाता है, फिर भी वह अपने दांत के दर्द की बातें करते
चला जाता है।
जिसके दांत में दर्द हो, उसको जीसस की सूली
कैसे याद आए? दांत की तकलीफ इतनी बड़ी है कि कहां जीसस और
कहां क्या? अभी कांटा गड़ जाए तो आत्मा एकदम तिरोहित हो जाती
है। कठिनाई जो है, अगर कोई कौम यह समझ ले कि आत्मा सदा
स्वस्थ है। और एक आत्मा बीमार भी कैसे पड़े। बीमार भी पड़ना चाहे, तो बीमार कैसे पड़े। आत्मा सदा स्वस्थ है। फिर वह कौम मेडिसिन विकसित नहीं
कर पाएगी, क्योंकि मेडिसिन विकसित तो तभी की जाती है जब हम
स्वीकार कर लें कि बीमारी है। तब तो विकसित करते। नहीं तो नहीं करते।
यह जो कठिनाई है--हमारी कठिनाई यह है कि जो परम निष्पत्तियां हैं, जो कंक्लूजंस हैं, जो अनुभूति के आखिरी छोर हैं,
उनको हमने शिक्षा का पहला कदम बनाया हुआ है। वह सब गड़बड़ हो जाएगा।
कंफ्यूजन तुम्हें ही नहीं है, कंफ्यूजन तो सारे मुल्क में
है। और कंफ्यूजन इतना स्थायी हो गया है कि अब किसी को चाहिए कि इसको उखाड़ने के लिए,
सब को कंफ्यूज्ड कर दे, एक दफा पूरी तरह से,
नहीं तो यह कंफ्यूजन टूटने वाला नहीं है। नहीं तो यह टूटने वाला
नहीं है, क्योंकि यह बिलकुल मजबूत हो गया है।
हम पूरे वक्त दो तल पर जी रहे हैं, और वह जो तल, जिसकी हम बातें कर रहे हैं, वह हमने कभी जाना नहीं
है, और जिसको हमने जाना है, उसको इनकार
किए चले जा रहे हैं। इनकार करने की वजह से, उसको सुधार भी
नहीं पाते हैं।
जिस बोकोजू की मैं बात किया हूं, उसका गुरु मर गया।
गुरु से भी ज्यादा प्रसिद्ध था, उसका यह शिष्य बोकोजू। लाखों
लोग आए इसकी वजह से इसकी प्रसिद्धि थी। लाखों लोग आए और बोकोजू दरवाजे के सामने
छाती पीट कर रो रहा है। तो लोगों ने उसको कहा, जो निकट के
डिसाइपल्स थे, उनको बड़ी फिक्र होती है। उनको भारी फिक्र होती
है कि कहीं गुरु की बदनामी न हो जाए, कि यह न हो जाए,
कि वह न हो जाए। वे गुरु की रक्षा करते रहते हैं। वे सब इकट्ठे हुए
हैं। उन्होंने कहा, रोओ मत तुम, अभी
लाखों लोग आ रहे हैं। अगर उन्होंने देख लिया कि बोकोजू रोता है, तो वे कहेंगे कि कैसा ब्रह्म-ज्ञानी है? तो उसने कहा,
ऐसे ब्रह्म-ज्ञानी को मैं लात मारता हूं, जिसमें
रो भी न सकूं। ऐसे ब्रह्म-ज्ञान से मुझे क्षमा कर दो। अब मुझे रोना आ रहा है तो
मैं तो रोऊंगा।
उन्होंने कहा, लेकिन यह तो बड़ा मुश्किल हो जाएगा। लोग तो आपको समझते
हैं कि यह परम-ज्ञान को उपलब्ध हो गया है। लोग क्या कहेंगे? उसने
कहा, लोग क्या कहेंगे अगर इसकी भी फिक्र परम-ज्ञानी को है,
तो अज्ञानी कौन है? लोग क्या कहेंगे, इसकी फिक्र में करूं? लोग जो कहेंगे, सो कहेंगे। इससे मुझे क्या लेना-देना है? उन्होंने
कहा, तुम जल्दी चुप हो जाओ। तुम तो कहते थे, आत्मा अमर है, तुम रो रहे हो? उसने
कहा, मैं आत्मा के लिए रो कहां रहा हूं? जो अमर है, उसके लिए रोने से फायदा क्या है? लेकिन वह शरीर भी बहुत प्यारा था और वह शरीर अब इस जगत में दुबारा नहीं आ
सकता। मैं उसी के लिए रो रहा हूं।
तो उन्होंने कहा, शरीर के लिए? मगर हम तो समझते हैं कि तुम आत्मवादी हो। उसने कहा, मैं
आत्मवादी हूं, इसीलिए तो शरीर के लिए भी रो सकता हूं।
क्योंकि मैं समझता हूं कि शरीर सीढ़ी बनाता है, शरीर मंदिर
बनाता है, उसमें निवास हुआ था, उसमें
यह आत्मा इतने दिन तक रही थी, और यह अदभुत आत्मा जिस शरीर
में रही थी, अभी हम उसको मिट्टी में मिलाएंगे, फिर आग में जलाएंगे। एक मंदिर गिरने के करीब है, जिसमें
एक अदभुत आदमी पचास साल, साठ-सत्तर साल तक रहा था। तो मैं तो
रोऊंगा।
अब यह जो आदमी है, तुम कहोगे कि यह आदमी बड़ा
कंट्राडिक्ट्री है। यह कहता है, आत्मा अमर है, और रोता है। कुछ कंट्राडिक्शन नहीं है। कंट्राडिक्शन इसीलिए है कि तुम समझ
नहीं पा रहे हो। जिंदगी बहुत अदभुत है और बहुत रहस्यपूर्ण है। उसमें आत्मा को अमर
मानने वाला भी रो सकता है। बल्कि मेरी अपनी समझ यह है कि यह आदमी अदभुत ही था।
अब तिलक जैसे आदमी थे--तिलक की पत्नी मर गई। खबर आई दफ्तर में कि
पत्नी मर गई है। उन्होंने घड़ी देखी, उन्होंने कहा कि पांच
के पहले मैं दफ्तर से कैसे जा सकता हूं! तो तिलक पर लिखने वाले लोगों ने कहा कि यह
स्थितप्रज्ञ है। इस आदमी को कोई मतलब ही नहीं है कि कौन मरता है, कौन जीता है! यह तो पार हो गया है! अगर मुझे चुनना हो, तो मैं बोकोजू को चुनूंगा कि यह आदमी अदभुत है। और अगर तुमने तिलक को चुना,
तो दुनिया को तुम उदास का डालोगे। अगर तुमने तिलक को चुना, तो मार डालोगे दुनिया को। क्योंकि मेरी नजर में इसका मूल्य नहीं है--मेरी
नजर में कुछ भी मूल्य नहीं है। और यहां बहुत बातें हो सकती हैं। यह तिलक का दिमाग
बिलकुल दुकानदार का दिमाग है। कहता है, पांच बजे दफ्तर बंद
करेंगे! और हो सकता है, इसने अपनी पत्नी को कभी प्रेम न किया
हो, और हो सकता है ये पक्का सिद्धांत बांध कर बैठे हुए हैं
कि सिद्धांत का पालन करना पड़ेगा, तो पांच बजे उठ कर जाएंगे!
इसलिए मैं नहीं मानता। अगर धर्म इतना अमानवीय बनाता हो तो मनुष्य होना बेहतर है,
धार्मिक होना बेहतर नहीं है।
और धर्म ने बहुत तरह की अमानवीयताएं पैदा की हैं। लेकिन उनका ऐसा
गार्बेज है, ऐसा उनका शब्दजाल है, कि उस
सबके पीछे, वह बिलकुल ठीक है। वह बिलकुल ठीक है--अगर धर्म
प्रेम और करुणा और आनंद और दुख और पीड़ा, इन सबसे ही आदमी को
निकाल देता हो और पथरीला कर देता हो, पत्थर बना देता हो,
तो ऐसे धर्म की कोई जरूरत नहीं है। ऐसा धर्म चाहिए जो सब तलों पर
क्रांति कर देता हो, सब तलों पर।
अब तुम रुको, उनके सवाल हो जाने दो, नहीं तो
रह जाएंगे।
परसों मैंने अखबार में पढ़ा, जिसमें आपने सोशलिज्म के बारे में कहा, कि भारत में
सोशलिज्म की आवश्यकता नहीं है--ऐसा अखबार में पढ़ा और मुझे मालूम नहीं है कि आपने
क्या कहा। आपने प्लैंड कैपिटलिज्म की बात कही--तो यह को कोई रहस्यवाद की बात नहीं
है, प्लैंड कैपिटलिज्म कहीं है नहीं--चूंकि कैपिटलिज्म का
बुनियादी स्वभाव जो है, वह अनार्किक है। तो फिर हिंदुस्तान
में अगर कैपिटलिज्म चलता है, तो इससे हिंदुस्तान में बुरा न
होगा? पचास वर्ष तक चलाने की बात आप कह रहे हैं और सोशलिज्म
लाने की बात कह रहे हैं, तो मेरी समझ में नहीं आता है कि आप
यह क्या कह रहे हैं।
असल में, जिसको हम सोशलिज्म कहते हैं, जिसको
कम्युनिज्म कहते हैं, वह सब प्लैंड कैपिटलिज्म है--चाहे रूस
में हो, चाहे चीन में हो, चाहे और कहीं
हो। सोशलिज्म तो दुनिया में कहीं भी नहीं है। जो भी हैं, वे
दो तरह के कैपिटलिज्म हैं। एक कैपिटलिज्म है, जो अनप्लैंड है,
जैसा अमेरिका में है। वह पूरा अनप्लैंड नहीं है, उसमें भी प्लानिंग प्रवेश कर रही है। और एक तरह का रूस में है, जो प्लैंड है। प्लैंड कैपिटलिज्म का मतलब है स्टेट कैपिटलिज्म। पहली बात
तो यह समझ लें।
असल में, समाजवाद तो कहीं भी नहीं है और संभावना भी नहीं दिखती
कि जिसको हम समाजवाद कहें वह कभी हो सके, वह बहुत युरोपियन
है। हो सिर्फ यह सकता है कि व्यक्तियों के हाथ में से संपत्ति का अधिकार राज्य के
हाथ में चला जाए, तो राज्य-पूंजीवाद ही, समाजवाद हमको दिखाई पड़ने लगता है, तब हम शोरगुल
मचाते हैं कि समाजवाद है, लेकिन होता राज्य-पूंजीवाद है।
पूंजिपतियों की व्यक्तिगत जो सामर्थ्य है या व्यक्तिगत जो उत्पादन के साधनों की जो
उनकी मालकियत है, वह राज्य के हाथ में चली जाती है। राज्य
दोनों हो जाता है, सत्ताधिकारी भी और पूंजीवादी भी। दोनों काम
राज्य करने लगता है। स्टेट कैपिटलिज्म है सब जगह जिनको हम सोशलिस्ट कंट्रीज कहते
हैं--एक।
दूसरी बात, जब मैं कहता हूं कि प्लैंड कैपिटलिज्म, तो मेरा मतलब यह है कि समाजवाद जो है वह पूंजीवाद है। ऐसा समाजवाद जिसको
कि राज्य-पूंजीवाद कहें, ऐसा समाजवाद भी पूंजीवाद के एक
विकसित अवस्था के बाद ही संभव है। इसलिए संभव है कि राज्य पूंजी अपने स्वामित्व
में ले, या पूरे मुल्क को स्वामित्व का अधिकार दे--इसके पहले
पूंजी होनी जरूरी है। जिस देश के पास पूंजी न हो, जैसे भारत
जैसा देश--भारत जैसा देश अभी भी नब्बे परसेंट सामंतवादी है। अभी भी वह दस परसेंट
ही पूंजीवादी है। अभी भी हम यह नहीं कह सकते कि वह पूंजीवादी है। क्योंकि जिसको
औद्योगिक क्रांति कहें, ऐसी कोई चीज से हम गुजर नहीं गए।
बंबई देखने से भ्रम पैदा हो जाता है, लेकिन इस बड़े मुल्क को
देखने से पता चलता है कि पूंजीवादी कहां? हमारा गांव तो हजार
साल पहले जहां था, वहीं जी रहा है, वहीं
खड़ा हुआ है।
हिंदुस्तान अभी, पूंजीवादी भी नहीं है। यानी यह
ऐसा ही है, जैसे कोई बच्चा अभी जवान भी नहीं हुआ है और बूढ़ा
होने की बातचीत हमने शुरू कर दी कि इसको बूढ़ा कैसे करें। रूस में जो हुआ, वह भी प्रि-मैच्योर हुआ। रूस में भी माक्र्स की कल्पना के बाहर था कि रूस
में, और समाजवाद आ जाएगा। और अगर कोई माक्र्स को कहता है कि
रूस में समाजवाद आ जाएगा, तो वह भी थोड़ी हैरानी से देखता है
कि रूस में कैसे आ जाएगा। क्योंकि उन्नीस सत्रह में दुनिया के अविकसित देशों में
एक था। वहां समाजवाद की माक्र्स के हिसाब से भी संभावना कम दिखती है। हां, रेवोल्यूशन हुआ, इसलिए प्रि-मैच्योर है, जैसे कि पांच महीने के बच्चे के साथ ब्लीडिंग हो, वह
रूस में हुई अच्छी तरह। कोई एक करोड़ आदमियों की हत्या हुई पूरी क्रांति में। और
इसके बाद भी रूस समृद्ध न हो सका, आज भी रूस गरीब ही है।
और इतने पचास साल की क्रांति के बाद भी, आज भी रूस अपने भोजन
के लिए पूंजीवादी मुल्कों पर निर्भर है! और पचास साल के निरंतर प्रयोग के बाद
ख्रुश्चेव ने जाने के पहले यह कहा है कि हमारे अभी भी सवाल यही है कि हम इंसेंटिव
पैदा नहीं कर पाते कि लोग काम कैसे करें? और रोज इंसेंटिव कम
हुआ है। काम करने की वृत्ति कम हुई है। या तो काम जबरदस्ती लेना पड़ता है, कोड़े के बल पर या बंदूक के बल पर, या साइबेरिया के
डर से काम लेना पड़ा। स्टैलिन ने काम उसी तरह लिया। और या फिर इंसेंटिव खो जाता है।
आज भी रूस पूंजी पैदा नहीं कर पाया है। और उसका कारण है, उसमें रूस की गलती नहीं है। रूस की गलती यही है कि जैसे पांच महीने का
बच्चा पैदा कर लिया और उसको किसी तरह पाल-पोस कर जिंदा भी रख रहे हैं, लेकिन फिर भी वह पिछड़ गया है, बुरी तरह से। पचास साल
में अमेरिका ने जितनी पूंजी पैदा की है, पचास साल में रूस
उतनी पूंजी पैदा नहीं कर पाया। वह उससे बहुत पीछे छूट गया है, पूंजी पैदा करने के मामले में। और बड़े मजे की बात है कि अमेरिका में जिसको
गरीब कहते हैं हम, वह आदमी रूस में आज अमीर मालूम पड़ता है।
अमेरिका का गरीब भी रूस में आज अमीर मालूम पड़ सकता है, हालतें
ऐसी हैं।
तो मेरी अपनी समझ यह है कि समाजवाद तो अनिवार्य है। अनिवार्य इन
अर्थों में है कि जैसे जवानी के बाद बुढ़ापा अनिवार्य है। पूंजीवाद विकसित हो जाए
तो समाजवाद में अपने आप परिवर्तित है। मैं जो कह रहा हूं, वह यह कह रहा हूं कि पूंजीवाद का ठीक विकास अनिवार्य रूपेण समाजवाद में ले
जाता है। तो समाजवाद और पूंजीवाद में विरोध नहीं है। पूंजीवाद की अग्रिम अवस्था है
समाजवाद, अनिवार्य अवस्था है, जिसको
उसको जाना पड़ेगा, बच नहीं सकता। लेकिन हम चाहें तो जोर से
जबरदस्ती से, जल्दी भी ले जा सकते हैं।
नौ महीने में बच्चा पैदा हो, यह तो ठीक है,
लेकिन जोर जबरदस्ती और आपरेशन करके हम पांच महीने में बच्चे को
निकाल ले सकते हैं। गर्भपात करवाया जा सकता है। कोई बहुत अड़चन नहीं है। यह जो
इसमें कोई ऐसी अड़चन नहीं है गर्भपात है, इसके मैं पक्ष में
नहीं हूं। मैं मानता हूं कि भारत में अभी जो होगा समाजवाद, वह
गर्भपात होगा। क्योंकि भारत पूंजीवाद मुल्क ही नहीं है।
दूसरी बात यह है, रूस का जो अनुभव है, रूस के अनुभव का हम पूरा उपयोग करें, न करें तो
नासमझ हैं। रूस ने एक बड़ा प्रयोग किया है और उस बड़े प्रयोग से सारी दुनिया को
अनुभव लेना जरूरी है। चीन भी एक बड़ा प्रयोग कर रहा है, उसका
भी अनुभव लेना जरूरी है। अगर हम वह अनुभव करें, तो रूस में
पिछले दस वर्षों से निरंतर व्यक्तिगत संपत्ति की तरफ ढलाव आ रहा है। निरंतर
व्यक्तिगत संपत्ति की तरफ ढलाव आ रहा है। निरंतर व्यक्तिगत संपत्ति को धीरे-धीरे
छूट देने की बात आ रही है। चीन और रूस के बीच आज झगड़ा ही वही है। माओ को लगता ही
यह है कि रूस जो है, वह किसी तरह से पूंजीवादी कैंप में
सम्मिलित होता जा रहा है। और रूस पचास वर्ष के अनुभव से यह कह रहा है। क्योंकि
पचास वर्ष के अनुभव ने यह बताया है कि मनुष्य और व्यक्ति को, व्यक्तिगत संपत्ति कुछ ऐसी अनिवार्य बात है कि अगर वह उससे छूट जाती है,
तो व्यक्तिगत किसी अर्थ में फीका और खाली और एंप्टी हो जाता है। और
काम करने की जो प्रवृत्ति है और श्रम करने का जो आग्रह है और पैदा करने का जो नशा
है, वह सब खो जाता है। वह आदमी खड़ा सा रह जाता है, सब खो जाता है। यानी व्यक्तिगत में, व्यक्तिगत
संपत्ति का कोई अनिवार्य रोल है, यह रूस को इधर पचास वर्ष
में खयाल आया है। अभी उन्होंने इधर पांच-सात वर्षों में व्यक्तिगत कार रखने की छूट
दे दी है।
मैं यह कह रहा हूं कि पचास वर्ष के रूस के अनुभव यह बताते हैं कि अब
किसी मुल्क को समाजवादी सोच-समझ कर होना चाहिए, क्योंकि पचास साल के
बाद यह तो परिणाम हुआ है--यह चीन में भी होगा। अभी माओ उसी नशे में है, जैसे रूस में स्टैलिन आज से पचास साल पहले था। नशा वही है भूल वही होने
वाली है, क्योंकि वहां वही सब होने वाला है। मेरी समझ में जो
है, वह यह है कि यह तो सौ वर्ष में तय होगी बात। मेरी समझ यह
है कि सिर्फ अमेरिका आज इस हालत में आता जा रहा है कि समाजवादी हो सके--सिर्फ
अमेरिका। और अमेरिका जिस दिन समाजवादी होगा, जो समाजवाद की
गरिमा ही और होगी। वह बहुत ही ठीक, पीसफुल सोशलिज्म होगा। और
कब आ गया चुपचाप, उसके पदचिह्न भी सुनाई नहीं पड़ेंगे।
मैं इसलिए कह रहा हूं--इसलिए मेरी नजर में जो मैंने कहा है, उसमें मैंने यही कहा है कि मैं मानता हूं कि हिंदुस्तान में समाजवाद जो
आएगा, वह वाया वाशिंगटन ही आएगा। वाया वाशिंगटन से मेरा मतलब
है कि हिंदुस्तान को पूंजीवाद विकसित करना पड़ेगा। वाशिंगटन--वह वाया वाशिंगटन ही
आने वाला है, वाया मास्को को अब कोई रास्ता नहीं है। तो पचास
वर्ष हमें पूरी मेहनत करनी चाहिए, पूंजीवाद को विकसित करने
की। तो स्टेट-कैपिटलिज्म के लिए नहीं कह रहा हूं। मैं तो व्यक्तिगत पूंजीवाद के
लिए कह रहा हूं। बिलकुल ही पचास वर्ष हमें व्यक्तिगत पूंजीवाद को देने हैं।
और जब मैं प्लैंड कह रहा हूं, तो प्लैंड से मेरा
मतलब यह है कि हम पूंजीवाद को एक मजबूरी की तरह नहीं ढोते हैं, पचास साल, हम जान कर ढोते हैं, एक अनिवार्य प्रक्रिया की तरह ढोते हैं। हम क्रोध और गुस्से में नहीं ढोते
हैं, हम जान कर ढोते हैं। और इस तरह मेरी दृष्टि यह है कि
सीलिंग अगर प्लैंड कैपिटलिज्म की कल्पना हो, तो सीलिंग ऊपर
की तरह नहीं होगी, नीचे की तरफ होगी। ऐसी सीलिंग करना खतरनाक
है, जिसमें हम तय करें कि एक लाख रुपये से ज्यादा किसी के
पास नहीं होंगे। मेरी दृष्टि में सीलिंग ऐसी होगी कि सौ रुपये से कम हम किसी आदमी
के पास नहीं होने देंगे। सीलिंग नीचे की तरफ--प्लैंड कैपिटलिज्म की तरफ मेरी जो
नजर होगी।
और कैपिटलिज्म को कैसे विकसित किया जाए?
अमेरिका में कैपिटलिज्म भी धीरे-धीरे विकसित हुआ है। अमेरिका में कोई
प्लैंड कैपिटलिज्म विकसित नहीं हुआ, धीरे-धीरे विकसित हुआ
है। लेकिन हिंदुस्तान जैसे मुल्क को जिसे दुनिया के साथ आने वाले पचास वर्षों में
कदम मिलाना हो, वह अगर उतने धीरे-धीरे का इंतजाम करे,
तो तीन सौ साल उसको लगें, और तीन सौ साल में
अमेरिका किन्हीं चांदत्तारों पर हो, तब फिर हमारा हिसाब कभी
मिलने वाला नहीं है। हमें तो पचास साल में तीव्र गति करनी पड़ेगी। जब वह इंटेंसिटी
और प्लानिंग किस तरह की हो। वह सोशलिज्म के लिए हो सीधी? मैं
मानता हूं गलत होगी, वह कैपिटलिज्म के लिए ही हो, वह उद्योग को मौका दे, उद्योग को बढ़ने का मौका दे,
उसको फलने-फूलने का मौका दे, सारी दुनिया की
पूंजी को निमंत्रित करे।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
मैं कुछ और कहा। मैं कुछ और कहा, वह समझे नहीं। मैं
कहा यह, जैसे कि माओ को पैदा करने की बात हो। नहीं हो सकता।
नहीं हो सकता, वही मैं कहा कि यह संभव नहीं है। और इसलिए जो
प्रयोग हमें करना है, वह एक अर्थ में नया ही प्रयोग होगा।
सदा नया ही प्रयोग होता है वह। हम दूसरे के प्रयोग से थोड़ा-बहुत लाभ ले सकते हैं,
किसी प्रयोग को पुनरुक्त नहीं कर सकते। पुनरुक्त करना असंभव भी है,
क्योंकि सब बदल चुका होता है सब बदला होता है। लेकिन होती क्या है
कठिनाई? जब जैसे यह सब क्लाइमेट और हवा, यह उन्होंने जोड़ लिया, यह मैंने कोई बात नहीं की।
कैनेडा का मैंने नाम ही नहीं लिया, वह कैनेडा भी उनकी जोड़
है। वह खयाल में आ जाता है, जुड़ जाता है। वे बेचारे, समझ में जो आता है, वे लिखते हैं।
माक्र्स के बारे में आपने कहा कि वह निष्क्रिय
राजनीति में रहा। तो क्या निष्क्रिय पोलिटीशियन माक्र्स है, ऐसा आप कहते हैं?
मैं जिस अर्थ में कहा हूं, वह इस अर्थ में कहा
हूं कि माक्र्स की जिंदगी का महत्वपूर्ण हिस्सा तो ब्रिटिश म्यूजियम की लाइब्रेरी
में बैठ कर गुजरा--बड़ा हिस्सा। बीस साल तो उसका कैपिटल लिखने में गुजरा। माक्र्स
का जो दान है--छोटी-मोटी पॉलिटिक्स में भाग ले रहा था वह। पूरे यूरोप की
रेवोल्यूशन के बीच संबंधित था; विवाद चल रहे थे, कांफ्लिक्ट थी, सब था, वह सब
चल रहा था। लेकिन माक्र्स का जो कंट्रीब्यूशन है--माक्र्स का सारा कंट्रीब्यूशन एक
थ्योरीटिशियन था। मैं जो कह रहा हूं, वह यह कह रहा हूं कि
माक्र्स जो है, वह कम्यूनिज्म की एक फिलासफी का जन्मदाता है।
और स्वाभाविक है कि जब भी फिलासफी पैदा होती है, कोई
तत्व-दर्शन पैदा होता है, और जब एक आदमी अपनी छोटी सी जिंदगी
में, इतने बड़े विचार को जन्म देता है, तो
बहुत स्वाभाविक है कि उसकी अधिकतम जिंदगी निष्क्रिय हो। निष्क्रिय इन अर्थों में
नहीं, वह विचार में सक्रिय तो है ही। हां, जो मैंने कहा, वह मैंने यही कहा कि जरूरत होती है
ऐसे लोगों की भी, जो सक्रिय राजनीति के बाहर खड़े होकर विचार
को जन्मा पाएं। और विचार जन्म जाए, तो विचार की अपनी
सक्रियता है।
जैसे मानता हूं, हिंदुस्तान में पोलिटिकल फिलासफी
जैसी चीज पैदा नहीं हो पा रही है। उसका एक बड़ा कारण यह है कि हिंदुस्तान के पास,
जिसको कहें थ्योरीटिशयन, वह नहीं पैदा हो पा
रहा है।
हिंदुस्तान के पास जितनी पॉलिटिक्स है, और जितने पोलिटिशियंस
हैं, वे डे टू डे पॉलिटिक्स में, इस
भांति उलझे हुए हैं कि उनको न कोई मौका है, न कोई फुर्सत है।
चौबीस घंटे इलेक्शन में खड़ा हुआ है, कुर्सी पर पहुंच गया है,
तो कुर्सी बचाने में लगा हुआ है। अब मैं हिंदुस्तान के राजनीतिज्ञों
के पास कभी ठहरता हूं, तो मैं हैरान हो जाता हूं। वे न कुछ
पढ़ पाते हैं, न सोच पाते हैं, उसकी
गुंजाइश नहीं है, उसके पास।
मैं समझ गया आपकी बात--मूवमेंट का तो मामला ऐसा है। मैं जब एक्टिव
पॉलिटिक्स की बात कर रहा हूं, तो मैं एक्टिव मूवमेंट में नहीं
था, ऐसा भी नहीं कर रहा हूं। मेरा कहना यह है कि ऐसे तो अगर
में भी तीस-चालीस साल घूमता रहूंगा, चिल्लाता रहूंगा तो एक
मूवमेंट खड़ा कर दूंगा। और एक्टिव मूवमेंट में हूं चौबीस घंटे--मैं किसी लाइब्रेरी
में नहीं लिख पा रहा--आप से लड़ ही रहा हूं, किसी से लड़ रहा
हूं, वह चल रहा है। एक्टिव हूं पूरे वक्त। लेकिन जब मैं कहता
हूं एक्चुअल पॉलिटिक्स, तो मेरा मतलब कुल इतना था कि कोई
सरकार का इलेक्शन लड़ रहा हो, किसी की हुकूमत को चला रहा हो,
किसी हुकूमत पर बैठ गया हो, यह सब सवाल नहीं
था, बड़ा सवाल माक्र्स के लिए यह था कि एक विचार-दृष्टि जन्म
जाए।
(प्रश्न का ध्वनि-मुद्रण स्पष्ट नहीं।)
मैं आपकी बात समझा। पहली तो बात यह है कि जो मैं कहूं, अगर वह उपनिषद से मेल खाए, इसलिए उपनिषद की ईको नहीं
हो जाता। वह मेरा भी अनुभव हो सकता है। उपनिषद की ईको होना जरूरी नहीं है और इसमें
मेरा कोई कसूर नहीं है कि जो मेरा अनुभव है, वह उपनिषद में
भी है। उपनिषद के लेखक को भी नहीं पकड़ा जा सकता कि उसका कोई कसूर है। तो एक तो यह
है कि वैसा मेरा अनुभव है, और जो अनुभव है, वही रियलिटी है। आप कहते हैं कि वह अनरियल हो जाता है, अनरियल नहीं हो जाता। क्योंकि अनुभव ही रियल है। अगर मेरा ऐसा अनुभव है कि
मैं यह नहीं हूं, या मेरा ऐसा अनुभव है कि मैं ब्रह्म हूं,
तो अनरियल कैसे हो जाएगा, क्योंकि अनुभव ही
रियलिटी है? और अनुभव के अतिरिक्त रियलिटी का कोई और मापदंड
भी नहीं है।
हम इतना ही कह सकते हैं कि ऐसी रियलिटीज भी हैं, जो हम सबके अनुभव में नहीं आती। इतना ही हम कह सकते हैं यानी अगर मुझसे आप
आकर कहें कि मैं ब्रह्म हूं, तो मैं इतना ही कह सकता हूं कि
इस रियलिटी को मैंने नहीं जाना। मैं यह नहीं कह सकता कि अनरियलिटी है, और अनरियलिटी कहूं, तो भी इतना ही मतलब होता है मेरे
लिए अनरियल है। लेकिन अनरियलिटी कहना जरा ज्यादा नतीजा ले लेना है। इतना ही हम कह
सकते हैं कि यह मेरा अनुभव नहीं है, मेरे लिए अभी यह यथार्थ
नहीं है। यह आपके लिए हो सकता है। तो मैं तो रियलिटी की ही बात कह रहा हूं।
अब यह जो मामला है--यह जो मामला है, यह साबित करना
मुश्किल है। यह जो कहना है आपका...साबित करना तो यह भी मुश्किल है कि आपके सिर में
दर्द है। नहीं, वह फिजिकल नहीं हो सकता है। अभी यह अनुभव
करना मुश्किल हो सकता है कि आपके हृदय में प्रेम है। इसका कोई उपाय नहीं है,
साबित करने का। डिस्कशन नहीं कर रहा हूं, मैं
जो कह रहा हूं, वह यह कह रहा हूं, कि
दे आर दि रियलिटीज बट कैन नाट बी प्रूव्ड, पर हैं। अगर मेरे
हृदय में किसी के लिए प्रेम है, तो ऐसा हो सकता है कि मैं
अपनी जान गंवा दूं। आप अगर मेरी सारी जांच-पड़ताल करने बैठें और मुझे सिद्ध करना
पड़े तो मैं कुछ भी सिद्ध न कर पाऊंगा। मगर इससे फिर भी नाराज न होऊंगा कि प्रेम जो
था अनरियल था कि नहीं था। मैं किसी भ्रम में पड़ा हुआ था या मेरे भीतर प्रेम जैसी
कोई घटना नहीं घट रही थी। वह घट रही थी।
जिंदगी में अनुभव हैं, जिन अनुभवों को पकड़ना जरूरी नहीं है कि प्रूफ में संभव हो जाए। और मजा यह
है कि जो अनुभव प्रूफ में नहीं आता, वह डिसप्रूफ में भी नहीं
आता।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें