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बुधवार, 30 अगस्त 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-21

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

इक्कीसवां प्रवचन,
गांधीवादी कहां हैं?

मेरे प्रिय आत्मन्!
मैं निरंतर सोचता रहा, व्हेअर आर द गांधीयंस? गांधीवादी कहां हैं? लेकिन मेरे भीतर सिवाय एक उत्तर के और कुछ शब्द नहीं उठे। मेरे भीतर एक ही उत्तर उठता रहा--वहीं हैं, जहां हो सकते थे। यही सोचते हुए रात मैं सो गया और सोने में मैंने एक सपना देखा। उसी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहता हूं। शायद यही सोचते हुए सोया था कि गांधीवादी कहां हैं, इसलिए वह सपना निर्मित हुआ होगा।
मैंने देखा कि राजधानी के एक बहुत बड़े बगीचे में जहां गांधीजी की प्रतिमा खड़ी है, मैं उस पत्थर की प्रतिमा के नीचे पड़ी बेंच पर बैठा हूं। दोपहर है और बगीचे में सन्नाटा है, कोई भी नहीं है। मैं सोचने लगा कि गांधीजी से ही क्यों न पूछ लिया जाए कि गांधीवादी कहां हैं? लेकिन इसके पहले कि मैं पूछता, मैंने देखा कि गांधीजी की प्रतिमा कुछ बड़बड़ा रही है। तो मैं गौर से सुनने लगा।
गांधीजी की प्रतिमा कह रही थी दुष्टों ने मुझे कहां खड़ा कर दिया है--धूप में, बरसात में, सर्दी में! और राणाप्रताप को घोड़ा दिया हुआ है, शिवाजी को घोड़ा दिया हुआ है, रानी लक्ष्मीबाई को घोड़ा दिया हुआ है। मुझे पैर पर ही खड़ा कर दिया है? मैं तो बहुत हैरान हुआ। मैंने नहीं सोचा था कि गांधी भी गुस्सा होते हैं। मैं भागा हुआ राजधानी के बड़े नेता के पास गया कि गांधीजी बहुत गुस्से में हैं, बहुत गालियां दे रहे हैं कि मुझे दुष्टों ने कहां खड़ा कर दिया है। मुझे भी घोड़ा चाहिए। उन नेता ने कहा कि ऐसा कही नहीं हो सकता। गांधीजी कभी गाली नहीं दे सकते। मैं तुम्हारे साथ चलता हूं मैं उन नेता को ले जाकर प्रतिमा के सामने खड़ा हो गया। उस प्रतिमा ने कहा कि मैंने घोड़ा लाने को कहा था, तू गधे को कहां से ले आया? वह तो हैरान हुआ। यह तो मैंने कभी सोचा भी नहीं था।
उनके इस कहने से नेता का क्या हुआ, मुझे कुछ पता नहीं, मेरी नींद टूट गई। और रात मैं बार-बार सोचता रहा, तो मुझे कुछ बातें खयाल आईं। मुझे पहली बात तो यह खयाल आई कि इसमें गधों का कोई कसूर नहीं है। महात्माओं के पास गधे इकट्ठे हो ही जाते हैं। असल में, महात्मा तो प्रथम कोटि के व्यक्ति होते हैं। प्रथम कोटि के व्यक्तियों के पास प्रथम कोटि का कोई व्यक्ति इकट्ठा नहीं होता। द्वितीय और तृतीय कोटि के लोग इकट्ठे होते हैं। असल  में प्रथम कोटि का मनुष्य कभी किसी का अनुयायी नहीं बनता है। अनुयायी हमेशा द्वितीय और तृतीय कोटि के लोग बनते हैं। असल में बुद्धिहीनों के सिवाय अनुयायी कभी कोई नहीं बनता। जिनके पास अपनी बुद्धि है वे अपने पैरों पर खड़े होते हैं और किसी के अनुयायी नहीं होते। इसलिए अनुयायी तो अनिवार्य रूप से खतरनाक है, क्योंकि बुद्धिहीनता ही किसी को अनुयायी बनाती है।
गांधी के पास जो लोग इकट्ठे हुए इस देश के, वे दूसरी और तीसरी श्रेणी की बुद्धि के लोग थे। प्रथम श्रेणी का कोई व्यक्ति उनके पास इकट्ठा नहीं हुआ। इकट्ठा हो भी नहीं सकता है। प्रथम कोटि का आदमी कभी किसी के पीछे नहीं चलता, अपनी ही दिशा खोज कर चलता है। न कोई महावीर, न कोई बुद्ध, न कोई जीसस कभी किसी के पीछे चलता है। न कोई गांधी कभी किसी के पीछे चलता है। जो लोग किन्हीं के पीछे चलते उनके आस-पास इस तरह के लोग इकट्ठे हो जाते हैं जो सदा किसी के पीछे चलते हैं। इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है कि अनुयायी कभी बुद्धिमान आदमी नहीं होता। और महात्मा के मरने के बाद इन्हीं बुद्धिहीनों के हाथ में महात्मा की सारी व्यवस्था पड़ जाती है।
प्रथम कोटि का आदमी मरा कि द्वितीय कोटि के हाथ में सत्ता चली जाती है। गांधी के मरते हिंदुस्तान की सत्ता द्वितीय श्रेणी की बुद्धि के पास चली गई। लेकिन द्वितीय श्रेणी की बुद्धि भी कुछ मूल्य रखती है। अब तो वे भी खतम हो चुके। अब तो तृतीय श्रेणी के लोग उनकी जगह बैठे हुए हैं। ये तीसरी श्रेणी के वे लोग हैं जो गांधी के जमाने में स्वयंसेवक का और वालंटियर का काम करते थे। पट्टा बिछाने का और गांव में डुंडी पीटने का काम करते थे कि महात्मा आ रहे हैं। प्रथम श्रेणी के व्यक्ति के आस-पास द्वितीय श्रेणी का, सेकेंड ग्रेड माइंड का एक घेरा खड़ा हो जाता है, यह अनिवार्यता है। द्वितीय श्रेणी के बाहर तीसरी श्रेणी का घेरा होता है। प्रथम श्रेणी के व्यक्ति के मरते ही द्वितीय श्रेणी के व्यक्तियों के हाथ में शक्ति चली जाती है।
और कुछ बातें समझने जैसी हैं। यह ऐतिहासिक प्रक्रिया का अंग है। अब तक ऐसा होता रहा है। आगे न हो, इसकी आशा करनी चाहिए, लेकिन अब तक ऐसा हुआ है।
प्रथम कोटि का व्यक्ति जब तक जिंदा होता है, द्वितीय कोटि के बहुत तरह के लोगों को वह अपने प्रभाव में बांध कर रखता है। लेकिन प्रथम कोटि के व्यक्ति के मरने के बाद द्वितीय कोटि के सारे लोगों में से एक आदमी प्रथम कोटि का बनना चाहता है, बाकी सारे उसके साथी नाराज हो जाते हैं। वे सब अलग हटना शुरू हो जाते हैं। सत्ता की दौड़, और असली वसीयत किसकी है, "हेयर' कौन है महात्मा का? प्रथम कोटि के व्यक्ति का कौन वंशाधिकारी है? तो द्वितीय श्रेणी के लोग प्रथम कोटि के व्यक्ति के तो प्रभाव में बंधे रहते हैं, लेकिन प्रथम कोटि के व्यक्ति के हटते ही द्वितीय श्रेणी के व्यक्तियों में आपसी संघर्ष और कलह और उपद्रव शुरू हो जाता है। क्योंकि वे सब एक ही कोटि के होते हैं, उनमें से कोई किसी को नेता नहीं मान सकता।
ऐसा हिंदुस्तान में हुआ। गांधी के मरते ही गांधीजी ने जिन बहुत से लोगों को अपने आसपास इकट्ठा किया हुआ था, गांधी के मरते ही वे सब एक-दूसरे के दुश्मन हो गए। क्योंकि उनमें से--से सब साथी थे--उनमें से प्रथम कोई किसी को स्वीकार नहीं कर सकता था। फिर जो उनमें से प्रथम बन गया, उसके बनते ही द्वितीय श्रेणी के सारे लोग बाहर आ गए। और वह जो प्रथम श्रेणी का बन गया, दूसरी श्रेणी का व्यक्ति, उसने तीसरी श्रेणी के व्यक्तियों को अपने आसपास इकट्ठा कर लिया। अब वे दूसरे श्रेणी के व्यक्ति भी जा चुके। अब देश तीसरी श्रेणी के व्यक्तियों के हाथ में पड़ा हुआ है।
यह अनिवार्य है होना। यह महात्मा गांधी के साथ हुआ हो,ऐसा नहीं है। यह महावीर के साथ भी हुआ, बुद्ध के साथ भी हुआ, यह जीसस के साथ भी हुआ, यह हमेशा होता रहा है। यह होना तो तब बंद होगा जब प्रथम कोटि के व्यक्ति अनुयायी इकट्ठा करना बंद करें। और अगर प्रथम कोटि के व्यक्ति अनुयायी इकट्ठा करते से इनकार कर दें तो दुनिया का बहुत हित हो सकता है। लेकिन अब तक ऐसा नहीं हो सका। गांधी के साथ भी ऐसा नहीं हो सका। और गांधी के साथ भी ऐसा नहीं हो सका। और गांधी के माध्यम से देश थर्ड रेट, तृतीय कोटि के लोगों के हाथ में पहुंच गया।
यह भी मैं आपसे कहना चाहता हूं कि यह जो स्थिति बनी है, यह बिलकुल निश्चित थी। यह बनती ही। इसलिए मैं गांधीवादियों को कोई दोष नहीं देना चाहता हूं। उनकी कोई आलोचना करने में भी मेरे मन में बहुत पीड़ा मालूम होती है। वे आलोचना के योग्य भी नहीं हैं। आलोचना उनकी करनी चाहिए जिनसे हम ज्यादा आशा रखते हों और वे आशा से नीचे सिद्ध हुए हों। अगर कोई आदमी कंकड़-पत्थर को हीरे-मोती समझ ले और फिर बाद में वे कंकड़-पत्थर साबित हों, तो आलोचना किसकी होनी चाहिए? कंकड़-पत्थरों की, या उस आदमी की जिसने उन्हें हीरे-मोती समझा था? अगर वह आदमी कहता है कि हीरे-मोती धोखेबाज निकल गए--हीरे-मोती कभी धोखेबाज निकलते--सच बात यह है कि उसकी समझ की कमी थी और उसने कंकड़-पत्थरों को हीरे-मोती समझा था। जब असलियत खुली तो वे कंकड़-पत्थर निकले। उसको अपनी बुद्धि की आलोचना करनी चाहिए।
मैं आपसे कहना चाहता हूं कि गांधीवादियों की आलोचना में मत पड़ना, इस देश को अपने मस्तिष्क की आलोचना करनी चाहिए कि तुम कंकड़-पत्थरों को हीरे-मोती समझा था? अगर वह आदमी कहता है कि हीरे-मोती धोखेबाज निकल गए--हीरे-मोती कभी धोखेबाज नहीं निकलते--सच बात यह है कि उसकी समझ की कमी थी और कंकड़-पत्थरों को हीरे-मोती समझा था। जब असलियत खुली तो वे कंकड़-पत्थर निकले। उसको अपनी बुद्धि की आलोचना करनी चाहिए।
मैं आपसे कहना चाहता हूं कि गांधीवादियों की आलोचना में मत पड़ना, इस देश को अपने मस्तिष्क की आलोचना करनी चाहिए कि तुम कंकड़-पत्थरों को हीरे-मोती समझ लेने की तुम्हारी आदमी कब छोड़ोगे? लेकिन हम अपनी आलोचना करने से बचना चाहते हैं और दोष उन पर थोप देते हैं जिनका कोई भी दोष नहीं है। यह होने वाला था। इसलिए मैं कहता हूं, गांधीवादी वहीं हैं जहां हो सकते थे। इससे अन्यथा वे कुछ भी नहीं हो सकते थे। और उनकी आलोचना में समय गंवाना व्यर्थ है। मुल्क को अपने चित्त की आलोचना करनी चाहिए कि हम इस तरह गलत लोगों को कैसे चुन लेते हैं, हम इनको आदर कैसे दे देते हैं! हम इनको प्रतिष्ठा, सत्ता और शक्ति कैसे दे देते हैं? अगर गांधीवादियों की आलोचना की गई तो मैं आपसे कहता हूं कि फिर हम इसी तरह के नासमझों के हाथ में मुल्क को दुबारा दे देंगे। उनकी शक्लें दूसरी होंगी, उनके झंडे दूसरे होंगे, वे किसी और महात्मा के आसपास इकट्ठे होंगे। और फिर वही गलती शुरू होगी जो हमने इधर बीस वर्षों में भोगी है। हम चुनाव करते हैं।
मैंने सुना है, एक आदमी ने अपनी जिंदगी में आठ शादियां कीं। और हर बार, उसने जब पत्नी बदली तो उसने बिलकुल पक्का तय कर लिया कि अब इस तरह की पत्नी दुबारा नहीं चुननी है। लेकिन वह आदमी तो वही था, चुनने वाला वही था। उसने फिर चार-छह महीने में उसी तरह की औरत फिर चुन ली। चार-छह महीने साथ रहने के बाद वह हैरान हुआ कि यह औरत भी फिर वैसी ही सिद्ध हुई, जैसी पहली औरत थी। आठ औरतें बदलने के बाद उसको यह लगा कि मालूम होता है, दुनिया की सब औरतें एक सी हैं क्योंकि जिस औरत को भी लाओ, वही वैसी सिद्ध होती है।
असली बात यह नहीं थी। असली बात यह थी कि वह चुनने वाला तो बदलता ही नहीं। हर बार वही था, उसकी पकड़ वही थी, उसकी समझ वही थी, उसका ढांचा वही था, हर बार उसकी पसंद वही थी जो पुरानी थी। फिर उसने वही चुन लिया जो पहले उसने चुना था। ये आठ औरतें बड़ी खोज कर वह लाया था।
इस देश में इस तरह की भूल निरंतर होती रही है। महात्माओं के आसपास इकट्ठे लोगों को हमने हमेशा चुना है। आज ही नहीं--महावीर के साथ भी यही, बुद्ध के साथ भी यही, गांधी के साथ भी यही। और उसका परिणाम हम भोग रहे हैं। पांच हजार सालों में हमारा समाज, हमारा व्यक्तित्व, हमारी आत्मा रोज नीचे गिरती चली गई। हम अनुयायियों को चुन लेते हैं। महात्मा के जीवित होने में महात्मा की ज्योति उनमें झलकती है, और लगता है कि वे जीवित हीरे-मोती हैं। महात्मा के मरते ही ज्योति विलीन हो जाती है। कंकड़-पत्थरों में जो चमक थी ज्योति की,वह भी विलीन हो जाती है। वे कंकड़-पत्थर साबित हो जाते हैं।
यह हमें ध्यान रखना पड़ेगा भविष्य में कि हम व्यक्तियों को देख कर चुनाव न करें, और व्यक्तियों को देख कर हम आदर न दें। जीवन-व्यवस्था और जीवन-दृष्टि और जीवन-दर्शन को देख कर चुनाव होना चाहिए। लेकिन हम व्यक्तियों से प्रभावित होने वाली कौम हैं, हम जीवन-दर्शनों के संबंध में जरा भी विचार नहीं करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि हर बार भूल होती है, हर बार हम वही भूल दोहरा लेते हैं, आलोचना करते हैं। और आलोचना हम क्या करते हैं? आलोचना हम अनुयायियों की करते हैं। उससे कुछ भी नहीं होता है। मैं आपसे कहना चाहता हूं, गांधीवादियों को तो कोई भी दोष नहीं है, सब वादी इसी तरह के सिद्ध होंगे, क्योंकि वादी कभी भी तृतीय, द्वितीय श्रेणी के ऊपर के लोग नहीं होते हैं।
वाद से मुक्ति चाहिए--चाहे वह गांधीवाद हो, चाहे वह माक्र्सवाद हो, चाहे कोई और वाद हो। अगर देश को अच्छा बनाना है तो वाद से मुक्ति चाहिए। एक वाद से छूट कर दूसरे वाद को पकड़ा जा सकता है। बहुत आसान वही है, लेकिन फिर गलती वही हो जाएगी। दुनिया हर बार वाद को बदल लेती है और हर बार वही मुसीबत खड़ी हो जाती है जो पहले खड़ी थी। असल में वाद को चुनने की जरूरत नहीं है। गांधीवाद को चुन कर हमने भूल की है, माक्र्सवाद को चुन कर भी हम भूल कर सकते हैं। वाद हमेशा खतरनाक सिद्ध होगा क्योंकि वाद में सिर्फ वे ही लोग प्रभावित होते हैं जिनके पास अपने सोचने-समझने की कोई बुद्धि नहीं होती। बुद्धुओं के सिवाय वादी कभी कोई आदमी नहीं होता। विचारशील आदमी सोचता है, समझता है, जीता है। किसी इज्म में, वाद में बांध कर अपने को खड़ा नहीं करता है। बांधने की उसे कोई जरूरत नहीं है। उसके पास अपने सोचने का ढंग है। वह सोचेगा, रोज-रोज जिंदगी की समस्याओं का सामना करेगा।
लेकिन वादी क्या कहता है? वादी कहता है, समस्या महात्मा हल कर गया है। हमारा गुरु हल कर सकता है। अब हमें कोई समस्या हल नहीं करनी है। हमारे पास बंधे हुए समाधान हैं। कोई भी समस्या आ जाए, हम अपनी किताब खोल कर समाधान निकाल लेंगे। वे समाधान खतरनाक सिद्ध हो सकते हैं, क्योंकि सब समाधान किसी विशेष परिस्थिति में पैदा होते हैं और उस परिस्थिति के बाहर उनकी कोई सार्थकता नहीं होती।
गांधीजी ने जो समाधान इस देश को दिए वे गांधीजी की परिस्थिति में सार्थक हो सकते थे। लेकिन अब न वह परिस्थिति है, न वह प्रसंग है, न वह संदर्भ है। लेकिन वादी कहता है हम उन्हीं को सार्थक कह कर बताएंगे। और वादी इसलिए हमेशा पीछे से बंधा रहता है। जिंदगी जाती है आगे की तरफ और वादी बंधा रहता है पीछे से। इसलिए वादी हमेशा जिंदगी पर बंधन सिद्ध होता है। इस देश की चेतना को वाद से, आइडियालॉजी से, इज्म से, शास्त्र से मुक्त करने की जरूरत है। लेकिन गांधी के आसपास एक नया शास्त्र खड़ा हो गया है।
गांधी के शिष्यों में दो तरह के लोथ थे--एक तो वे लोग थे जिसकी राजनीतिक बुद्धि थी, और एक वे लोग थे जो सिद्धांत और शास्त्र की बुद्धि के थे। तो गांधी के बाद उनका खेमा दो वर्गों में बंट गया। गांधीवादी दो वर्गों में बंट गए--एक सत्ताधीश गांधीवादी हैं, और एक मठाधीश गांधीवादी हैं। सत्ताधीश गांधीवादी सत्ता के ऊपर हावी हैं, मठाधीश गांधीवादी गांधीवाद के शास्त्र के निर्माण करने में संलग्न हैं। सत्ताधीश गांधीवादियों ने सत्य, अहिंसा, उन सबकी हत्या कर डाली है, और मठाधीश गांधीवादियों ने सत्याग्रह, मॉस-रेसिस्टेंस, असहयोग, उस सबकी हत्या कर डाली है।
गांधी के विचार में अहिंसा और सत्य का मूल्य था। जो लोग सत्ता में गए, उन्हें जाते से यह पता चला कि सत्ता असत्य से चलती है और हिंसा से। सत्ता हिंसा और असत्य से चलती है। तब उन्होंने दोहरे व्यक्तित्व ग्रहण कर लिए। हिंसा में उतरते चले गए रोज, असत्य में जीने लगे, और बातें सत्य और अहिंसा की और जोर से करने लगे। बातें इतने जोर से करनी जरूरी थीं ताकि वे जो कर रहे थे वह छिप जाए। बीस साल की आजादी में हिंदुस्तान सरकार ने जितनी हत्या और खून किया है और जितनी गोलियां चलाई हैं उतनी दुनिया की कोई हिंसावादी सरकार भी इतनी हिंसा करने का दावा नहीं कर सकती। अहिंसा का बात चलती रही और नीचे हिंसा चलती रही। सत्य की बात चलती रही और सत्ता की दौड़ में सब तरह का असत्य स्वीकार कर लिया गया। अपरिग्रह और दरिद्रता के वरण करने की बात चलती रही और सब तरह की संपत्ति और सब तरह का लोभ और सब तरह की परिग्रह काम करता चला गया।
मठाधीश गांधीवादी सत्याग्रह कर नहीं सकते क्योंकि उनके ही भाई-बंधु दिल्ली में हुकूमत में बैठे हुए हैं। असहयोग नहीं कर सकते तो उन्होंने भूदान के पाखंड को ईजाद किया हुआ है, जिससे न समाज बदलता, न समाज की जिंदगी बदलती। लेकिन मठाधीश गांधीवादी को भी कुछ हाथ में चाहिए, नहीं तो वह जिंदा नहीं रह सकता है। उसने असहयोग की बात बंद कर दी, उसने सत्याग्रह की बात बंद कर दी कि सत्याग्रह किसके खिलाफ करोगे, असहयोग किसके खिलाफ करोगे? उसका ही कोई भाई दिल्ली में हुकूमत कर रहा है। उसके खिलाफ सत्याग्रह भी नहीं हो सकता, असहयोग भी नहीं हो सकता। जब कि सच्चाई यह है कि इन बीस वर्षों में सत्ताधिकारियों ने असहयोग और सत्याग्रह की जितनी संभावनाएं और परिस्थितियां दी थीं, इतनी अंग्रेजों ने भी मुश्किल से दी थीं। लेकिन मठाधीश गांधीवादी तो सत्याग्रह किसके खिलाफ करें? तो उसे कोई ऐसा उपाय खोजना चाहिए जो सरकार के साथ-साथ चल सके।
अभी बिहार में था तो बिहार के गांव में गया। बिहार के गांवों के लोग विनोबा को सरकारी संत कहते हैं। अब सरकारी भी संत हो सकता है कोई। संत तो सदा विद्रोही होता है, वह सरकारी नहीं हो सकता है। और अगर संत सरकारी हो सकता है तो वह वैसा ही है जैसे कोई कहे कि पतिव्रता वेश्या। यह वैसे ही है, इसका कोई मतलब ही नहीं है। इसका कोई मतलब नहीं होता। संत तो अनिवार्यरूपेण विद्रोही है, रिबेलियन तो उसके खून में होगा। और जहां असत्य देखेगा, जहां बुराई देखेगा, लड़ेगा। लेकिन लड़े किससे? मठाधीश गांधीवादी मुश्किल में पड़ा हुआ है। सरकार अपनी है, अपने लोगों की है, तो लड़ना किससे है? तो लड़ सकता नहीं। तो अब सरकार के सहयोग से...गांधी जिंदगी भर असहयोग की बात किए, और विनोबा और उनके साथी सरकार के सहयोग से क्रांति लाने की कोशिश में लगे हुए हैं। वह क्रांति नहीं आ रही है। सिर्फ सरकार के बचाव का उपाय बन रहा है। क्रांति नहीं आ रही है, केवल समाज की सड़ी-गली व्यवस्था को शॉक एब्जार्वर का काम कर रहे हैं। कोई धक्का नहीं लगने देते हैं समाज की पुरानी व्यवस्था को। और लोगों को आशा बंधती है कि शायद इस तरह क्रांति हो जाएगी। तो लोग चुपचाप बैठे हुए प्रतीक्षा कर रहे हैं।
ये दो मठ हैं गांधीवादियों के। और मेरा मानना है, इनसे यही होने को था। इसलिए इनकी आलोचना का कोई अर्थ नहीं है। इनसे यही होने के और भी कारण हैं, वे भी समझने जरूरी हैं।
मेरी मान्यता यह है कि हिंदुस्तान के सारे महात्माओं ने आदर्श इतने ऊंचे रखे हैं कि सामान्य मनुष्य उन तक उठ ही नहीं सकता। आदर्श इतने ऊंचे रखे हैं कि सामान्य मनुष्य उनकी तरफ आंखें उठा कर भी नहीं देख सकता। और इसका परिणाम यह हुआ कि हिंदुस्तान में कुछ थोड़े से लोग, बड़े-बड़े लोग उस तरह पैदा हुए, और बाकी समाज हीन से हीन होता चला गया। अगर आदर्श असंभव होंगे तो समाज हीन हो ही जाएगा। गांधी के आदर्श भी असंभव की सीमा छूते हैं। और असंभव आदर्श प्रभावित कर सकते हैं, आकर्षित कर सकते हैं लेकिन आचरण में नहीं लाए जा सकते। हां, कभी कोई एकाध आदमी आचरण में ला सकता है। तो हम उसे आदर दे सकते हैं। सर्कस में आप जाते हैं और एक आदमी रस्सी पर चढ़ कर दिखाता है तो हम बड़ी तालियां पीटते हैं। वह सर्कस में देखने लायक काम है। इससे ज्यादा उसका उपयोग नहीं है। ताली पीटी जा सकती है। लेकिन अगर सारे लोग रस्सी पर चलने की कोशिश करें तो सिवाय अस्पतालों के बिस्तर भरने के और कुछ भी नहीं होगा।
महात्मा के नाम से चलने वाले जो प्राणी हैं, वे कुछ जीवन की रस्सी पर चलने की कोशिश करते हैं। कुछ लोग अभ्यास से चल भी जाते हैं। और लोग अगर आदर दे रहे हों तो कैसे भी अभ्यास से गुजरा जा सकता है। आप एक आदमी को सिर के बल खड़े होने में आदर देने लगें और सारा बंबई ताली पीटने लगे और महात्मा कहने लगे तो वह आदमी फिर दो पैर पर खड़े होने की फिकर छोड़ देगा। फिर वह सिर पर ही खड़े होने का अभ्यास जारी रखेगा। लेकिन उसके सिर के बल खड़े होने का मतलब यह नहीं होता कि सारे लोग सिर के बल चलने लगें।
हिंदुस्तान असंभव आदर्शों के पीछे पढ़ कर अपने जीवन को, अपने चरित्र को सबको नष्ट कर रहा है। गांधीजी ने फिर असंभव आदर्शों को हमारे सामने रख दिया। अहिंसा, एब्सल्यूट नॉन-वाइलेंस उनकी कल्पना में है। पूर्ण अहिंसा उनकी कल्पना में है। सच बात तो यह है कि गांधी खुद भी पूर्ण अहिंसक न हैं, न हो सकते हैं। कोई भी आदमी जिंदा रहते पूर्ण अहिंसक नहीं हो सकता। खुद गांधी भी नहीं हो सकते। गांधीवादियों की बात तो दूर है, खुद गांधीजी भी पूरे गांधीवादी नहीं हैं, न हो सकते हैं। जिंदा रहना है तो हिंसा अनिवार्य है। जी नहीं सकते एक क्षण बिना हिंसा के। हिंसा होगी ही। और जिन बातों को हम अहिंसा का नाम देते हैं वे भी हिंसा के ही रूप हैं।
अगर मैं आपकी छाती पर छुरा लेकर खड़ा हो जाऊं और आपसे कहूं कि जो मैं कहता हूं वह मान लें, तो आप कहेंगे, आप हिंसा का उपयोग कर रहे हैं। और मैं आपके सामने अनशन करके बैठ जाऊं और कहूं कि मैं मर जाऊंगा अगर मेरी बात नहीं मानते, तो मैं हिंसा का उपयोग नहीं कर रहा हूं? मैं अब भी हिंसा का ही उपयोग कर रहा हूं। फर्क इतना है कि वह हिंसा आपकी तरफ जा रही थी, यह हिंसा मेरी तरफ जा रही है। वह हिंसा पर हिंसा थी, यह हिंसा आत्महिंसा है। वह हिंसा "सैडिस्ट' थी, यह "मैसोचिस्ट' है। यह खुद को ही मारने की धमकी है।
और ध्यान रहे, गांधीजी ने जितनी बार खुद को मारने की धमकी दी, एक का भी हृदय परिवर्तन नहीं हुआ। लेकिन गांधीजी मर न जाएं, इस खयाल से लोग झुक गए। डा. अंबेदकर ने साफ कहा है कि मेरा हृदय जरा भी परिवर्तन नहीं हुआ, लेकिन सिर्फ यह सोच कर कि गांधी जैसे कीमत का आदमी न मर जाए, मैं झुका हूं। लेकिन मैं जो मानता था, अब भी मातना हूं। मेरा मानना वही है।
गांधीजी अनशन करके किसको झुका पाए? किसको समझा पाए? किसका हृदय-परिवर्तन हुआ है? लेकिन खुद मरने की धमकी देने से लोकमानस भयभीत हुआ कि इतना अच्छा आदमी मर न जाए! इसे बचाने की हमने कोशिश की। मैं मानता हूं, यह भी हिंसा है, यह भी कोएर्शन है, यह भी जबरदस्ती दबाव है। गांधीजी खुद भी पूरे अर्थों में अहिंसक नहीं हैं, न हो सकते हैं।
और यह भी ध्यान रहे, जब पूर्ण अहिंसा पर जोर दिया जाएगा तो उसके परिणाम घातक होंगे। हिंदुस्तान में गांधीजी ने पूर्ण अहिंसा पर जोर दिया, और हिंदुस्तान गांधीजी की आंखों के सामने इतनी बड़ी हिंसा से गुजरा जिसका कोई हिसाब नहीं। दस लाख आदमी हिंदुस्तान के विभाजन में मरे। दस लाख आदमी उस आंदोलन की पूर्णाहुति पर मरे, जो अहिंसक था। और खुद गांधी की हत्या भी हिंसा से हुई, यह भी थोड़ा विचारणीय है। इसके पीछे कुछ कारण है।
मुझे ऐसा दिखाई पड़ता है कि जीवन का एक बहुत महत्वपूर्ण नियम है जो हमारे खयाल में नहीं है। उस नियम को मैं कहता हूं--"लॉ ऑफ रिवर्स इफेक्ट', उलटे परिणाम का नियम। अगर मुझे तीर चलाना है तो मुझे प्रत्यंचा को, धनुष बाण को पीछे खींचना पड़ेगा। अगर तीर को आगे पहुंचाना है तो तीर को पहले पीछे खींचना पड़ेगा। जितना तीर पीछे चला जाएगा, उतना ही आगे जा सकता है। अब यह उलटी बात है। तीर को आगे भेजना है तो पीछे क्यों खींचते हैं आप? अगर दीवार पर गेंद आप मारते हैं जोर से, तो जितने जोर से आप मारते हैं गेंद उतनी ही जोर से आपकी तरफ वापस लौटा आएगी।
हिंदुस्तान हमेशा असंभव आदर्शों को थोपता रहा है मुल्क की चेतना पर। गांधीजी ने अहिंसा का असंभव आदर्श आदमी के ऊपर थोपना चाहा। इसका एक ही परिणाम हो सकता था, गेंद उलटी दिशा में चली गई। हिंदुस्तान अहिंसा की बातचीत सुनते-सुनते भीतर हिंसा से भरता चला गया। जितनी हमने अहिंसा की बात सुनी उतनी भीतर हिंसा इकट्ठी होती चली गई। अहिंसा की बात सुनी, ऊपर से अहिंसा थोपी, अपने को दबाया, अहिंसक बनने की कोशिश की। लेकिन कोई कभी अहिंसक बनने की कोशिश से अहिंसक हो सकता है? हिंसा भीतर दबती चली गई, इकट्ठी होती चली गई; उसकी आग, उसका तूफान, उसका ज्वालामुखी भीतर इकट्ठा हो गया। उसे निकलने की जरूरत पड़ गई। वह गांधीजी की जिंदगी में हिंदू-मुसलमान के नाम से निकल आया।
मैं मानता हूं कि हिंदुस्तान की इस हिंसा की जिम्मा अंततः गांधीजी के ऊपर है। इतनी अहिंसा की बातचीत करनी, असंभव आदर्श की तरफ लोगों को खींचने के परिणाम बुरे होते हैं। अगर समाज को बहुत ज्यादा ब्रह्मचर्य की शिक्षा दी जाए तो उसका परिणाम कामुकता का बढ़ना होता है, सेक्सुअलिटी का बढ़ना होता है। और जो समाज जितना ब्रह्मचर्य की शिक्षा में दीक्षित होता है, उतना कामुक और सेक्सुअल हो जाता है। हमारा समाज हुआ है। और जो आदमी जितना सेक्स से लड़ेगा उतना कामुक हो जाएगा। और जो आदमी जितना हिंसा से लड़ेगा उतना हिंसक हो जाएगा।
महावीर नंगे खड़े थे। उन्होंने सब छोड़ दिया, और महावीर के पीछे जैनियों का जो अनुयायियों का वर्ग खड़ा हुआ...आप देखते हैं, हिंदुस्तान में सबसे ज्यादा धन जैनियों के पास है। महावीर ने धन छोड़ दिया, उनके अनुयायी ने सब धन इकट्ठा कर लिया। महावीर नग्न खड़े थे। जबलपुर में, जहां मैं रहता हूं, मेरे एक मित्र की दुकान है। वे महावीर को मानने वाले हैं, नग्न महावीर को मानने वाले हैं, दिगंबर महावीर को। उनकी कपड़े की दुकान है। कपड़े की दुकान का नाम है, दिगंबर क्लाथ स्टोर्स। नंगों की कपड़ों की दुकान। अब नंगों की कपड़ों की दुकान का क्या मतलब होता है? महावीर नंगे थे और जैनी अधिकतर कपड़ा बेचने का काम करते हैं, या कपड़ा बनाने का काम करते हैं।
यह आकस्मिक नहीं है। इसके पीछे कारण हैं। हम चित्त को जिस दिशा में दबाएंगे, चित्त उससे उलटी दिशा में जाना शुरू हो जाएगा। और यह नियम समझ लेना जरूरी है, अन्यथा महात्माओं से छुटकारा बहुत मुश्किल है। उनसे छुटकारा न हो तो उनके अनुयायियों से छुटकारा नहीं हो सकता। यह ध्यान रखना जरूरी है कि महात्मा अतिवादी तो नहीं है, एक्सट्रीमिस्ट तो नहीं है। और सब महात्मा अतिवादी होते हैं। क्योंकि अतिवादी हुए बिना आप उनको महात्मा स्वीकार नहीं कर सकते। जब तक वे अति पर, एक्सट्रीम पर न चले जाएं तब तक आप उन्हें महात्मा नहीं मानेंगे। जब वे अति पर चले जाएंगे तब उससे ठीक विपरीत अति वह पैदा करना शुरू कर देंगे। इसलिए दुनिया में हर महापुरुष के बाद पतन का एक काल आता है। जिस समाज में महापुरुष पैदा होगा, उस समाज में बीस-पच्चीस, तीस साल तक ह्रास और पतन का काल होगा। हमेशा यह हुआ है। जीसस ने सिखाया कि जो तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे, तुम दूसरा गाल उसके सामने कर देना। और ईसाइयों ने जितनी तलवार चलाई उतनी किसी और के अनुयायियों ने नहीं चलाई।
मैंने सुना है, एक आदमी था, खूंखार जंगली। उसने ईसा की बाइबिल पढ़ ली। और उसने बाइबिल में पढ़ लिया कि जो आदमी तुम्हारे गाल पर चांटा मारे, उसके सामने दूसरा कर देना। वह खूंखार जंगली आदमी था। उसने यह सिद्धांत मान लिया। रास्ते से निकल रहा था, एक आदमी ने उसके एक गाल पर चांटा मार दिया। उसने दूसरा उसके सामने कर दिया। उस दूसरे आदमी ने मौका देख कर दूसरे पर और जोर से चांटा मारा। उस जंगली ने उसकी गर्दन पकड़ कर मरोड़ दी। आसपास के लोगों ने कहा, तुम तो यह सिद्धांत मानते थे कि जो एक गाल पर चांटा मारे, दूसरा उसके सामने कर देना। उसने कहा, दूसरा मैंने कर दिया, तीसरा मेरे पास नहीं है। और तीसरे के बाबत जीसस ने कुछ कहा भी नहीं है। अब जो मुझे करना है वह मैं करूंगा। आखिर मैं अपनी बुद्धि से भी चलूंगा न एक सीमा के बाद!
गांधीजी अब अपनी बुद्धि से चल रहे हैं। गांधीजी की बुद्धि से चले, अब वे अपनी बुद्धि से चल रहे हैं। आखिर कब तक गांधीजी की बुद्धि से चलेंगे? और वह बुद्धि अतिवादी है इसलिए खतरा होना सुनिश्चित है। हिंदुस्तान, साधुओं, संतों, अवतारों, तीर्थंकरों का देश है। जितने तीर्थंकर, अवतार हमने पैदा किए, दुनिया में किसी देश ने पैदा नहीं किए। होना यह चाहिए था कि हमारे देश का चरित्र सबसे ऊंचा होता। ऐसा नहीं हुआ। इसका कुछ कारण होना चाहिए।
हमारे तीर्थंकर, हमारे अवतार, हमारे महात्मा सब अतिवादी हैं। वे एक्सट्रीम पर जीते हैं। वे वहां जीते हैं जहां आखिरी छोर है। और उस आखिरी छोर पर कोई आदमी कोशिश करके चाहे तो जी सकता है लेकिन उसकी खुद की जिंदगी भी बहुत तनाव और चिंता और परेशानी की जिंदगी होगी। और उसके पीछे चलने वाले तो बहुत मुश्किल में पड़ जाएंगे। उसके पीछे चलने वालों को हिपोक्रेट होना ही पड़ेगा। उसके पीछे चलने वालों को पाखंडी बनना ही पड़ेगा। क्योंकि वे उतने अतिवादी हो नहीं सकते। अतिवादी के पीछे चल पड़े हैं तो बातें वे करेंगे एक, जीएंगे ठीक दूसरी तरह से। जीना उनका उनकी बातों से उलटा होगा। इसलिए मेरा कहना यह है कि हमें अतिवाद से विचार करके बचने की जरूरत है। भारत की चेतना बहुत अति में जा चुकी है।
कनफ्यूशियस एक गांव में गया हुआ था। उस गांव के लोगों ने उससे कहा कि हमारे गांव में भी बहुत बड़ा महात्मा है, आप उससे मिलें। कनफ्यूशियस ने कहा कि उस बड़े महात्मा का क्या कारण है कि तुम उसे बड़ा कहते हो? तो उन लोगों ने कहा, वह इतना विचारवान है कि एक छोटा सा काम करने के पहले तीन बार सोचता है। कनफ्यूशियस ने कहा, तीन बार जरा ज्यादा हो गया। एक बार कम होता है, तीन बार जरा ज्यादा हो गया। दो बार काफी है। मैं उससे मिलने नहीं जाऊंगा। वह अतिवादी है, एक्सट्रीमिस्ट है। मैं तो गोल्डन रूल को मानता हूं, मैं तो स्वर्ण-नियम को मानता हूं। बीच में चलने के अतिरिक्त और कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। हीन आत्मा, अपराधी एक एक्सट्रीम पर चलता है। वह कहता है, हिंसा ही नियम है और महात्मा दूसरे अति पर चलता है, वह कहता है अहिंसा की नियम है। लेकिन जीवन बीच में चलता है, जहां अहिंसा और हिंसा के मध्य एक रास्ता खोजना होता है। न तो पापी को नियम बनाया जा सकता और न महात्मा को नियम बनाया जा सकता है।   
गांधी ने भारत की जो पुरानी भूल थी उसको फिर दोहरा दिया है। लेकिन गांधी इसीलिए सफल भी हो सके। इसीलिए भारत के मन को वे प्रभावित भी कर सके। भारत की जो पुरानी बीमारी थी वह उसमें बिलकुल ही मौजूं बैठ गए। भारत की पुरानी बीमारी अतिवाद की है। आखिरी, पूर्णता की हमारी बीमारी है। और उस पूर्णता की बीमारी को हमने सब दिशाओं में बढ़ाने की कोशिश की। अपरिग्रह, तो पूर्ण; फिर हम वस्त्र भी नहीं पहनेंगे। वस्त्र भी परिग्रह है। धन, तो पूर्णतया उससे छुटकारा चाहिए; तो हम निर्धन हो जाएंगे। शरीर का विरोध, तो अंतिम सीमा तक होगा। यहां जो शरीर के विरोधी हैं, असली हैं उन्होंने मृत्यु की भी आज्ञा दी है। कोई आदमी आत्महत्या करना चाहे तो कर सकता है। आत्महत्या का उन्होंने विरोध नहीं किया है, क्योंकि वे कहते हैं, हत्या शरीर की होती है। तो अगर कोई आदमी शरीर को खत्म करना चाहे तो करे, क्योंकि शरीर हमारा दुश्मन है। उस सीमा तक हम अति पर गए। और वही अति गांधी ने फिर दोहरा दी। हमें बहुत ठीक मालूम पड़ी। हमारे चित्त पर बहुत प्रभाव हुआ। हमने कहा, ठीक वह आदमी आ गया जो हमारी भारतीय संस्कृति का प्रतीक है, प्रतिनिधि है। प्रतीक वह थे, लेकिन भारतीय संस्कृति बीमार है। वे बीमारी के ही प्रतीक हैं।
भारतीय संस्कृति पाखंडी है। भारतीय संस्कृति "स्किजोफ्रेनिक' है, जिसको हम कहें, आदमी को दो हिस्सों में तोड़ देने वाला है। पूरे आदमी को स्वीकार नहीं करती। अगर आप खाना खाते हैं तो भारतीय संस्कृति कहती है, अस्वाद से खाना, स्वाद मत लेना। गांधीजी भी वही समझाते थे। वह कहते थे, भोजन तो करो, लेकिन स्वाद मत लेना। अब आदमी को आप पागल करना चाहते हैं? स्वाद आदमी क्यों न ले? स्वाद बराबर ले, और मैं कहता हूं, पूर्णतया स्वाद ले। और जितना गहरा स्वाद ले सके उतना विकसित आदमी है। उतना रिफाइंड, उतना कल्चर्ड, उतना सुसंस्कृत आदमी है, जितना गहरा स्वाद ले सके। और मैं यह भी मातना हूं कि जो आदमी भोजन से जितना ज्यादा स्वाद लेगा वह भोजन से उतना ही मुक्त हो जाएगा। उसको भोजन की चिंता उतनी ही छूट जाएगी। और अस्वाद वाला आदमी भोजन करते वक्त अकड़ कर बैठेगा कि स्वाद लेना नहीं है। और जब भोजन कर चुकेगा तो चौबीस घंटा स्वाद का खयाल आता रहेगा कि नहीं लिया, वह पीछा करेगा। मैं मानता हूं, स्वाद लेना, पूर्णतया से लेना। यह अस्वाद की बात बेमानी है और खतरनाक है।
जीवन में सारे सुख का विरोध है। गांधीजी का भी विरोध है। किसी की तरफ के सुख के वे विरोधी हैं। दुख का वरण है। जो आदमी जितना दुख का वरण करे, गद्दी को छोड़ कर नीचे बैठ जाए, हम कहेंगे, उतना बड़ा आदमी है। कपड़े उघाड़ कर धूप में बैठ जाए, सर्दी में खड़ा हो जाए, हम कहेंगे, उतना त्यागी और तपस्वी है। हम दुखवादियों को आदर देते हैं। दुख को हम तपश्चर्या कहते हैं और दुख मनुष्य के स्वभाव के प्रतिकूल है। कोई आदमी दुख नहीं चाहता। कोई आदमी दुख चाहता ही नहीं। जब तक कि आदमी मानसिक रूप से बीमार न हो तब तक कोई आदमी दुख नहीं चाहता। आदमी सुख चाहता है। और मैं समझता हूं कि अगर हमने दुख चाहते की व्यवस्था सिखाई तो पाखंडी हो जाएगा। ऊपर से वह कहेगा, ठीक है, तपश्चर्या, त्याग। भीतर से? भीतर से वह सुख के रास्ते खोजेगा। इसलिए जैसे ही महात्मा विदा होगा, उसके दबाए हुए, स्टार्व्ड, भूखे जो अनुयायी होंगे, वे ठीक उलटे सिद्ध होंगे।
अगर महात्मा ने समझाया था कि झोपड़े में रहना, तो वे महल में रहना शुरू करेंगे। क्योंकि महात्मा के डर में, प्रभाव में, महात्मा के असर में उन्होंने किसी तरह झोपड़े में रहने को अपने को राजी कर लिया। मन उनका महल मांगता है। और हमें एक ऐसी दुनिया बनानी चाहिए जहां हर आदमी को महल मिल सके। झोपड़ी में रहना सिखाने की जरूरत भी क्या है? झोपड़े में रहना सिखाने की शिक्षा ही गलत है। उसका एक ही मतलब हो सकता है कि हम आदमी को उसके स्वभाव के विपरीत ले जाएं, फिर वह आदमी मौका पाकर अपने स्वभाव की पूर्ति करे।
तो आज दिल्ली में वाइसराय तो चला गया, लेकिन उसके महल बच गए। उनके महलों में, गांधीवादी जो झोपड़े में रहने की इच्छा रखता था, वह उन महलों में रह रहा है। हालांकि वह उसमें भी तरकीबें निकालता है। पहले राष्ट्रपति जब राजेंद्र बाबू हुए तो मैं दिल्ली गया तो उनका महल देखने गया। जिस कमरे में वे बैठते थे, मैं देख कर हैरान हुआ। उस कमरे को दिखाने वाले आदमी ने मुझे कहा कि राजेंद्र बाबू कितने तपस्वी, कितने सादे आदमी हैं, देखते हैं आप? मैंने कहा, क्या, मुझे समझ में नहीं पड़ता है, यह क्या किया गया है? महल में, वाइसराय की बैठक के महल में चटाइयां लगा दी गई हैं चारों तरफ। झोपड़ा हो गया यह। महल वही है, दीवाल पर चटाई और जड़ दी गई है, सादगी हो गई है।
मैंने कहा, यह पागलपन के लक्षण हैं। महल में रहना है महल में रहो, झोपड़े में रहना है झोपड़े में रहो, यह महल के भीतर झोपड़ा कैसे बना गया? ईमानदारी और सफाई सीधी होनी चाहिए। झोपड़े में रहो तो झोपड़े बहुत हैं। झोपड़ों की हमारे मुल्क में कमी नहीं है। आप झोपड़े में रहो। लेकिन यह वाइसराय का महल, जहां एक हजार नौकर दिन-रात काम कर रहे हैं, वहां आप झोपड़े में रहने का मजा भी ले रहे हो महल में भी रह रहो हो? ये दोनों बातें कुछ मेल नहीं खातीं।
लेकिन मेल खाती हैं। वह जो भीतर द्वंद्व हमने पैदा करवाया है आदमी को, वह मेल खाता है। तो गांधी ने सिखाया है कि मोटे कपड़े पहनो, खादी के कपड़े पहनो। खादी बारीक से बारीक होती चली गई। आज खादी हिंदुस्तान में सबसे महंगा कपड़ा है। उससे महंगा कोई कपड़ा नहीं है। आज खादी सिर्फ वे ही पहन सकते हैं जो कपड़े के संबंध में महंगी चीज का मजा लेना चाहते हैं, बाकी कोई नहीं पहन सकता है। खादी पहननी हो तो महंगी से महंगी चीज हो गई।
और गांधी ने मोटी खादी बनाई थी, और यह पतली खादी कैसे होती चली गई? मनुष्य का स्वभाव मोटा कपड़ा पहनने की इच्छा नहीं रखता। और मैं मानता हूं, क्यों पहने मोटा कपड़ा? अगर स्वभाव कहता है कि पतला और रेशमी कपड़ा दुखद है तो आदमी इस दुनिया में इसलिए पैदा हुआ है कि वह सुख ले। उसे दुख झेलने की जरूरत क्या है? और हम इस तरह की दुनिया बनाने की कोशिश करें जहां अधिकतम लोगों को रेशम मिल सके, यह तो समझ में, वैज्ञानिक समझ में आने वाली बात है। लेकिन आदमी का मन चाहता है रेशमी कपड़े, और चाहेगा। अगर आपकी चमड़ी खादी की तरह खुरदरी हो, कोई आपकी चमड़ी को हाथ फेरने को राजी नहीं होगा। रेशम जैसी हो तो सुखद होगी। और हमें एक ऐसी दुनिया बनानी चाहिए जहां हर बच्चे की चमड़ी रेशम जैसी सुखद हो। हर बच्चे को रेशम मिल सके, अच्छा मकान मिल सके, हर आदमी के मन की जो आकांक्षाएं हैं, उनकी अधिकतम तृप्ति को उपलब्ध  हो सके।
गांधी ने जो फिलासफी सिखाई इस मुल्क को, वह थी, अतृप्ति के भीतर सुख लेने की। अब यह हम आदमी को शीर्षासन करना सिखा रहे हैं, व्यर्थ। इसका कोई प्रयोजन नहीं है। इसका खतरा होगा, और इसका खतरा भोगना पड़ेगा अनुयायियों को। महात्मा तो विदा हो जाएगा, अनुयायी फंस जाएंगे पीछे। और उनकी दिक्कत होगी। और सारे लोग कहेंगे कि देखो, महात्मा के सिद्धांत ऐसे हैं कि ये बेचारे आदमी उस चक्कर में पड़ कर अपने आप गलत हुए चले जा रहे हैं। ये गलत होंगे ही।
इस देश ने कभी नैसर्गिक मनुष्य को स्वीकृति नहीं दी है। वह जो हमारा निसर्ग है, हमारा जो प्राकृतिक व्यक्तित्व है, वह जो हमारी आत्मा है, उसका जो सहज सुख है, उसे हमने कभी स्वीकृति नहीं दी। हम उससे उलटी बातों को आदर देते हैं। उलटी बातें कुछ लोग पूरी कर लेते हैं, उनको हम आदर, और महात्मा और तपस्वी कहने लगते हैं। फिर प्रभावित होकर हम भी इकट्ठे हो जाते हैं और हम कठिनाई में पड़ जाते हैं। हमारा व्यक्तित्व स्प्लिट पर्सनैलिटी है, टूट गया है। चाहते कुछ और हैं भीतर से, ऊपर से कुछ और चाहा जाता है। सिद्धांत कुछ और है, जिंदगी की मांग कुछ और है। तब दोनों के बीच उपद्रव शुरू हो जाता है। और तब ऐसा होता है, एक कदम इस दिशा में जाते हैं, दो कदम पिछली दिशा में जाना पड़ता है।
मैंने सुना है, एक दिन एक बच्चा स्कूल में आया है और अपने शिक्षक को उसने कहा कि--चूंकि उसे बड़ी देर हो गई है, और शिक्षक ने उससे पूछा, इतनी देर कैसे लगा दी?--उसने कहा, देखते नहीं, बाहर पानी पड़ रहा है! मैं एक कदम आगे चलता और दो कदम पीछे खिसक जाता था, ऐसी कीचड़ मची हुई है। शिक्षक ने कहा, इतनी कीचड़ कि तू एक कदम आगे चलता था, तो कदम पीछे खिसक जाता था? तो फिर तू यह बात कि तू स्कूल तक पहुंचा कैसे? क्योंकि एक कदम आगे चलेगा, तो कदम पीछे चलेगा, तो तू स्कूल पहुंचा कैसे? उसने कहा, जब मेरी समझ में आया तो मैंने घर की तरफ चलना शुरू कर दिया, तब मैं स्कूल पहुंच गया।
इस देश को घर की तरफ चलना शुरू करना पड़ेगा। नहीं तो एक कदम चलते हैं तपश्चर्या की तरफ आगे चलेगा और दो कदम पीछे खिसक जाते हैं। खींचतान कर आगे बढ़ते हैं, दुगुने पीछे खिसक जाते हैं, और दोष हमेशा यह देते हैं कि हमारी कोई गलती है। हमारी गलती नहीं है। हिंदुस्तान के जो गांधीवादी हैं उनकी कोई गलती नहीं है। गलती है तो सिर्फ एक, वे समझ नहीं पा रहे हैं कि आदमी का स्वभाव क्या है और हमारी मांग क्या है? हमारी मांग गलत है। सारी दुनिया धीरे-धीरे नैसर्गिक मुनष्य को स्वीकार करने के करीब आ रही है। वे स्वस्थ होते चले जा रहे हैं। हम अस्वस्थ हुए चले जा रहे हैं। हम पांच हजार साल से अस्वस्थ हैं और हमारा अस्वास्थ्य बढ़ता ही चला गया है और हमारे सब महात्मा हमारे अस्वास्थ्य को बढ़ाने वाले हैं, क्योंकि अति का आग्रह करते हैं और निसर्ग के प्रतिकूल जाने की आकांक्षा रखते हैं--उलटे जाओ, सीधे मत जाओ। सीधा कोई काम उन्हें पसंद नहीं है। ठीक कपड़े पहनो तो वे नाराज हैं, ठीक खाना खाओ तो वे नाराज हैं, ठीक मकान में रहो तो वे नाराज हैं।
मैंने सुना है, गांधी जेल में थे और वल्लभ भाई पटेल भी उसके साथ में थे। गांधीजी रोज सुबह दस छुहारे फुला कर खाते थे। वल्लभ भाई ने सोचा कि बूढ़ा आदमी, हड्डियां निकलती जा रही हैं, कुछ थोड़ा ज्यादा नाश्ता हो तो ठीक रहेगा। फिर उन्होंने सोचा कि छुहारे दस की जगह बारह फुला दिए जाएं, क्या हर्ज है? कौन पता लगाएगा, कौन हिसाब रखता है? तो उनको पता नहीं था। गांधीजी ने छुहारे पहले गिने दूसरे दिन, जब उन्होंने बारह फुला दिए तो गिने, बारह निकले। गांधीजी ने कहा, ये बारह क्यों फुलाए गए? मैं तो दस ही खाता हूं। वल्लभ भाई ने कहा, दस और बारह में क्या फर्क है? जैसे दस, वैसे बारह। गांधीजी आंख बंद करके थोड़ी देर बैठे रहे। उन्होंने चार छुहारे उठा कर अलग रख दिए। और उन्होंने कहा कि जब दस और बारह में कोई फर्क नहीं तो आठ और दस में भी कोई फर्क नहीं। अब मैं आठ ही खा लूंगा। उस दिन से वे आठ ही छुहारे खाने लगे।
यहां समझने की जो बात है--वल्लभ भाई दस की जगह बारह रखना चाहते हैं, गांधीजी दस की जगह आठ कर लेते हैं। वल्लभ भाई फिर दलील कुछ भी नहीं दे पाते। क्योंकि जब दस और बारह में कोई फर्क नहीं है तो आठ और दस में भी कोई फर्क नहीं है। फिर छह और आठ में भी कोई फर्क नहीं हुआ। गांधीजी को थोड़ा और आगे जाना चाहिए। फिर चार और छह में भी फर्क नहीं होगा, फिर दो और चार में भी कोई फर्क नहीं होगा। फिर शून्य में और दो में भी क्या फर्क है? अगर यह गणित ऐसा हो जाए तो शून्य पर ले जाने वाला है। अगर वल्लभ भाई पर गणित जाए तो वह अनंत पर ले जाने वाला है।
और मैं मानता हूं, यह सिकोड़ने वाला गणित खतरनाक है। फैलाव चाहिए, विस्तार चाहिए। और जितनी फैलाव और विस्तार की दृष्टि होगी उतना आदमी स्वस्थ होगा, क्योंकि उसके अनुकूल होगा। जीवन का सारा लक्षण फैलाव का है। एक बीज आप बोते हैं, एक बड़ा वृक्ष बीज से निकलता है। बीज से बहुत बड़ा वृक्ष निकलता है। एक वृक्ष में करोड़ों बीज लगते हैं, फैलाव हो गया है एक बीज का। फिर एक बीज बोइए, फिर एक वृक्ष, फिर करोड़ बीज। जीवन फैलता चला जाता है। जीवन विस्तार है। और यहां हिंदुस्तान का महात्मा सिखाता है, संकोच, सिकुड़ जाना, बंद हो जाना; क्लोजिंग, ओपनिंग नहीं। जीवन के विरोध में है सिकुड़ना। जितना आप सिकुड़ेंगे, जीवन इनकार करेगा। जीवन जगह-जगह तोड़ कर बाहर निकलेगा और अगर सिकोड़ने का बहुत आग्रह किया, फिर जीवन गलत जगह से मौका पाकर तोड़ कर निकल जाएगा। तब तकलीफ शुरू होगी। दरवाजे हैं और हमने इनकार कर दिया है कि दरवाजों से निकलना पाप है, तो फिर आप क्या करोगे? निकलना तो पड़ेगा। तो फिर दीवालें तोड़ कर निकलेंगे आप।
हिंदुस्तान ने जहां-जहां नैसर्गिक दरवाजा हो सकता है मनुष्य के विकास का, सब जगह पुलिस वाले बिठाए हुए हैं। वहां से नहीं जा सकते। वहां से गए कि नरक में पड़े। तो फिर आदमी जाएगा कहीं, फैलेगा! तब वह गलत जगह से चोरी के रास्ते दरवाजे खोल कर दीवालों से निकल जाएगा। जब दीवालों से निकले तो कहना, करप्शन बढ़ रहा है। जब दीवालों से निकले तो कहना कि भौतिकवाद बढ़ रहा है। जब दीवालों से निकले तो कहना कि आदमी का पतन हो रहा है। संस्कृत का तो शब्द है, ब्रह्म--परमात्मा के लिए--ब्रह्म का अर्थ है--विस्तार। वह जो सदा एक्सपैंडिंग है, वह जो सदा फैलता रहता है।
अगर आप आइंस्टीन से परिचित हैं तो शायद आपको पता होगा कि आइंस्टीन ने कहा कि सारी दुनिया भी फैल रही है। तारे एक दूसरे से प्रतिपल, करोड़ों मील के विस्तार से भागे जा रहे हैं। एक्सपैंडिंग यूनिवर्स है, सब चीजें फैल रही हैं। इस फैलते हुए जगत में जहां सब फैलने को आतुर है, आप भी फैलने को आतुर हैं। हर आदमी फैलने को आतुर है। जहां फैलने की आतुरता निसर्ग का नियम है वहां सिकुड़ना हमारा सिद्धांत है कि सिकोड़ो। आठ और दस में क्या फर्क है, शून्य और दो में क्या फर्क है--सिकोड़ते चले जाओ। और जब शून्य पर आदमी को खड़ा कर दोगे तो उस आदमी को भी भूख लगती है। तब फिर वह क्या करेगा? जब वह चोरी से खाना खाएगा। हम जीवन की सहज चीजों के लिए भी आदमी को मजबूर करते हैं कि वह चोर हो जाए, बेईमान हो जाए।
जीवन की सरलतम उपलब्धियों के लिए हम इतनी बाधाएं खड़ी कर देते हैं कि सिवाय व्यभिचारी और भ्रष्टाचारी हो जाने के कोई उपाय न रहे। लेकिन हमें यह दिखाई नहीं पड़ता है। और जब हमें यह सब दिखाई पड़ता है, भ्रष्टाचार, तो हम और जोर से रोकने की कोशिश करते हैं।
मैं दिल्ली गया, एक बड़े साधु एक बड़ा सम्मेलन करते थे। और सम्मेलन हो रहा था, अश्लील पोस्टर जो लगाए जाते हैं दीवालों पर उनके खिलाफ, कि अश्लील पोस्टर नहीं लगाए जाने चाहिए। भूल से मुझे भी बुला लिया। कुछ लोग भूल से मुझे भी बुला लेते हैं। उन्होंने भूल से मुझे बुला लिया और कहा कि आप भी समझाइए लोगों को कि अश्लील पोस्टर न लगाए जाएं। मैंने उनसे कहा, तुम साधु हो सब, तुम्हें अश्लील पोस्टर देखने की जरूरत क्या है? पहली बात। आप काहे के लिए अश्लील पोस्टर देखने जाते हैं? और जिनको देखना है, उन पर रोक लगाने का किसी को क्या हक है? सवाल यह नहीं है कि अश्लील पोस्टर लगे हैं, सवाल यह है कि आदमी अश्लील पोस्टर क्यों देखना चाहता है?
और मैंने उनसे कहा, महात्माओं, तुम्हीं कारण हो। अश्लील पोस्टर के दिखाने वाले तुम्हीं हो। उन्होंने कहा, क्या मतलब? हम तो सदा विरोध में हैं। हम कैसे कारण हो सकते हैं? लेकिन वह लॉ ऑफ रिवर्स इफेक्ट उनको पता नहीं है। वे कहते हैं, हम तो विरोध में हैं। हम तो कहते हैं, आंख बंद रखो, स्त्री को देखो ही मत। हम कहां अश्लील पोस्टर का पक्ष कर रहे हैं। लेकिन जो कौम सिखाएगी, आंख बंद करो, स्त्री को देखो मत, फिर आंख तिरछी करके स्त्री को देखना पड़ेगा। फिर अश्लील पोस्टर देखना पड़ेगा। फिर गंदी किताब गीता के बीच रख कर पढ़नी पड़ेगी। कवर गीता का रखना पड़ेगा, गंदी किताब पढ़नी पड़ेगी। वह अनिवार्य हो जाएगा। क्योंकि हम जो व्यवस्था दे रहे हैं, वह खतरनाक है।
अभी आपने अखबारों में पढ़ा होगा, सिडनी में एक अमरीकन नग्न अभिनेत्री को प्रदर्शन के लिए बुलाया गया। उस बड़े हॉल में जिसमें दो हजार लोग बैठ सकते थे, और उस बड़े नगर में जहां बीस लाख की आबादी हो, केवल दो आदमी उन नंगी औरत का नाच देखने आए। उस नंगी औरत को दो आदमी देख कर सर्दी लग गई। एक तो ठंडी रात थी और नंगा उसको नृत्य करना पड़ा। और दो आदमियों को देख कर नृत्य करने का मजा भी तो चला गया, और लोग होते तो गर्मी होती, प्रशंसा होती, थोड़ा गर्म होता, सब गड़बड़ हो गया। उसे सर्दी पकड़ गई और आयोजक मुश्किल में पड़ गए--कोई देखने नहीं आया।
हिंदुस्तान में नंगी औरत का प्रदर्शन करवाइए--बंबई में करवाइए--तो दो आदमी आएंगे देखने? दो आदमी पीछे रह जाएं तो मुश्किल है। और यह मत सोचना आप कि बुरे आदमी देखने आ जाएंगे। हो सकता है बुरे आदमी न भी आएं, लेकिन अच्छे आदमी सब आ जाएंगे। हां, एक फर्क होगा, अच्छे आदमी सीधे रास्ते नहीं आएंगे, सामने के दरवाजे से नहीं आएंगे। पीछे मैनेजर से व्यवस्था करेंगे कि अलग रास्ता हमारे लिए दो। हम चुपचाप आकर देख लें, कोई हमें न देख पाए। लेकिन सब आ जाएंगे। क्यों? इतना प्रताड़ित किया हुआ है, इतना सप्रेसिव, इतना दमनकारी हमारा विचार है कि वह चित्त को उलटी तरह ले जाता है। जितना दमन होगा, उतना आदमी कामुक होगा। दमन कौन करवा रहा है? सारे महात्मा मिल कर दमन करवा रहे हैं।
गांधीजी ने फिर दमन की फिलासफी हमें दे दी, एक सप्रेसिव मारेलिटी का फिर खयाल दे दिया, हर चीज का दमन करने का भाव दे दिया। इतना दमन उन्होंने करवाया अनुयायियों से पिछले तीस-चालीस सालों में, उसका बदला ले रहे हैं उनके सब अनुयायी। उसका बदला ले रहे हैं कि ठीक है, बहुत दमन कर लिया, अब आखिरी जिंदगी में थोड़ा तो आराम करने दो। तो जो-जो दमन करवाया गया था वही-वही उससे फूट कर निकल रहा है। वही फूट कर निकल रहा है जो दबाया गया है।
मेरा मानना है कि गांधीवादी कहां हैं, इसको इस तरह मत पूछें। गांधीवादी जहां हैं वह इस बात का सबूत है कि गांधीजी की जो विचार दृष्टि थी, वह यहीं ले जा सकती थी। वह और कहीं नहीं ले जा सकती थी। वह यहीं पहुंचा सकती थी। जीवन के सत्य को समझने का हमारा साहस ही हमने खो दिया है। जीवन का सत्य बहुत और है। अति नहीं है जीवन का सत्य। जीवन के सत्य को समझने का हमारा साहस ही हमने खो दिया है। जीवन का सत्य बहुत और है। अति नहीं है जीवन का सत्य। जीवन का सत्य अत्यंत मध्य का सूत्र है। और जीवन के सत्य सिकोड़ने वाले नहीं हैं, जीवन के सत्य विस्तार करने वाले हैं।
रवींद्रनाथ की फोटो आपने देखी है? गांधीजी की फोटो आपने देखी है? गांधीजी एक कपड़े के लपेट कर ऐसा पहने हुए हैं कि अगर उससे कम में काम चल जाए तो वह उसमें से और चिंदी फाड़ कर अलग कर दें। उससे कम में और नहीं चल सकता काम, इसलिए लपेटे हुए हैं। रवींद्रनाथ की फोटो आपने देखी है? वह इतना बड़ा कोट पहने हुए हैं कि उसमें दो-चार गांधी जैसे आदमी और अंदर समा जाएं। और वह कोट जमीन छू रहा है। रवींद्रनाथ ने कहा है, एफ्लुएंस चाहिए, समृद्धि चाहिए। हर चीज ज्यादा चाहिए ताकि भीतर कहीं भी मन को सिकोड़ने का कोई कारण न रह जाए। हर चीज ज्यादा चाहिए। मन को कहीं भी सिकुड़ना न पड़े, इतना फैलाव चाहिए। इतना फैलाव चाहिए कि कहीं कोई...मनोवैज्ञानिक भी यही कहते हैं कि अगर आप बाजार साबुन खरीदने जाते हैं तो बजाय इसके कि हर महीने एक साबुन खरीदें, मनोवैज्ञानिक कहते हैं, बाजार साबुन खरीदने जाते हैं तो बजाय इसके कि हर महीने एक साबुन खरीदें, मनोवैज्ञानिक कहते हैं, बाजार जाएं एक दिन और बारह साबुन इकट्ठे खरीद लाएं। आप ज्यादा फैले हुए अनुभव करेंगे। बारह साबुन आपने खरीदे हैं। कोई संकोच नहीं है, कोई सिकोड़ नहीं है। आप घर जाते हैं, आप ज्यादा फुलफिल्ड हैं। लगेगा कि ज्यादा पूरे आ गए हैं। जिंदगी फैलाव मांगती है।
गरीबी का दुख क्या है? गरीबी का दुख भूख नहीं है। गरीबी का दुख असल में यह है कि हर जगह सीमा आ जाती है, कहीं भी फैल नहीं सकते। अगर मैं किसी को प्रेम करता हूं और दो पैसे की चीज भेंट करना चाहता हूं तो नहीं कर सकता। भूख तो सही जा सकती है, लेकिन किसी को दो पैसे की चीज भी देने की हिम्मत मैं नहीं जुटा पाता हूं, तो बस सिकुड़ गई आत्मा। मैं मुश्किल में पड़ गया। गरीबी का सबसे बड़ा दुख यह है कि सब तरफ सीमाएं हैं। कहीं से भी बढ़ो, सीमा आ जाती है। धन का सबसे बड़ा सुख क्या है? धन का सबसे बड़ा सुख यह नहीं है कि आपकी तिजोरी में धन भर गया तो आप बहुत आनंदित हैं। धन का सबसे बड़ा सुख यह है कि आप पर सीमाएं जरा दूर हो गईं, आप कुछ कर सकते हो, हाथ फैला सकते हो। एक छोटे मकान में एक आदमी रहता है। वह आदमी छोटे मकान में रहेगा तो उसका मस्तिष्क धीरे-धीरे छोटा होता चला जाएगा। एक फैलाव चाहिए, एक बड़ा भवन चाहिए, एक बड़ा कमरा चाहिए जहां आदमी फैल सके, घूम सके, चल सके, हिल-डुल सके।
लेकिन हिंदुस्तान ने जो अब तक का दर्शन, फिलासफी विकसित किया है वह ऐसा सिकोड़ने वाला है, ऐसा सिकोड़ने वाला है कि सब तरफ जंजीरें हैं और सब तरफ जंजीरों को हमने कस कर पकड़ लिया है। और जितना जो आदमी इन जंजीरों को पकड़ता है, हम कहते हैं, उतना महान है। क्यों कहते हैं महान? महान सिर्फ इसलिए कहते हैं कि वह प्रकृति के प्रतिकूल चलता है, उलटा चलता है। और क्या महानता है? कोई प्रकृति के प्रतिकूल चलता महानता है? प्रकृति के प्रतिकूल चलना पागलपन है, और उस पागलपन में आदमी सिर्फ टूट सकता है, मिट सकता है, नष्ट हो सकता है। फिर यह हो सकता है, एकाध आदमी सर्कस का खेल साध ले, लेकिन जब पूरा समाज इस तरह का कार्य करने लगे तो बहुत मुश्किल खड़ी हो जाती है।
मेरी दृष्टि में गांधी पर पुनर्विचार की जरूरत है--गांधीवादियों की हालत देख कर जैनियों की हालत देख कर। महावीर पर पुनर्विचार की जरूरत है। ईसाइयों की हालत देख कर जीसस पर पुनर्विचार की जरूरत है। और अगर हम पूरी दुनिया की आज तक की हालत देखें तो हमें पूरे ओल्ड माइंड, वह जो पुराना मस्तिष्क था, उस पर पुनर्विचार की जरूरत है। उसमें कहीं भूल थी, उसमें बुनियादी भूल थी। वह अहिंसा की बात करता था और हिंसा पैदा होती थी। वह प्रेम की बात करता था और घृणा खड़ी होती थी। वह अपरिग्रह की थी। वह  अहिंसा की बात करता था और हिंसा पैदा होती थी। वह प्रेम की बात करता था और घृणा खड़ी होती थी। वह अपरिग्रह की बात करता था, परिग्रह बढ़ता था। वह निर्धनता की बात करता था और धन इकट्ठा होता था। वह पुराना पूरा मस्तिष्क उलटे परिणाम ला रहा था। जो वह कहता था उससे उलटा होता था। वह कहता, स्त्रियों से दूर, स्त्री-पुरुष अलग-अलग--और स्त्री-पुरुष का दिमाग सेक्स से भरता चला जाता है।
मेरे एक मित्र डाक्टर हैं दिल्ली के। वह कुछ दिन पहले लंदन में एक कांफ्रेंस में भाग लेने गए। एक मेडिकल कांफ्रेंस थी, यूरोप के डाक्टरों की। एशिया से भी कुछ डाक्टर गए। वह भी गए। मैं उनसे कुछ बात कर रहा था, उन्होंने एक घटना बताई। मुझे वह कहने लगे कि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया। हाइड पार्क में पांच सौ डाक्टरों के लिए मिलने-जुलने, खाने-पीने, गपशप करने की बैठक थी। वे सारे लोग इकट्ठे हुए। वे गपशप कर रहे हैं। यह मित्र डाक्टर सरदार हैं, यह भी वहां गए हुए हैं। लेकिन इनका मन उस बातचीत में नहीं लगता है। पास की एक बेंच पर एक झाड़ के नीचे एक युवक और युवती दोनों एक-दूसरे के गले में हाथ डाल कर आंख बंद किए कहीं खो गए हैं। इनके प्राण तो घूम-फिर कर वहीं चले जाते हैं। भारतीय दिमाग और कहीं जा नहीं सकता। उनको परेशानी यह होती है कि कोई पुलिस वाला आकर इनको उठाता क्यों नहीं है कि पब्लिक पार्क है, ऐसी खुली जगह में यह क्या हो रहा है! यह कोई प्रेम करने की जगह है? यह तो, इतने लोग जहां इकट्ठे हैं, कोई रोकता क्यों नहीं?
उनका ध्यान बार-बार वहीं जा रहा है। सारा रस उनका खो गया है। पास में एक डाक्टर है उनके, जर्मन का, उसने उनके कंधे पर हाथ रखा और कहा कि आप बार-बार उधर मत देखिए। हो सकता है पुलिस वाला आकर उठा कर आपको ले जाए। क्योंकि यह बहुत अशिष्ट और संस्कारहीन बात है। उन्होंने कहा, मुझे? वह तो उनको ले जाना चाहिए। उनका उससे कोई संबंध नहीं है। और इस मेरे मित्र डाक्टर ने कहा कि इतनी खुली जगह में ये लोग क्या कर रहे हैं? तो उन्होंने कहा, वे जानते हैं कि आसपास शिक्षित लोग इकट्ठे होने वाले हैं, उनसे क्या प्रयोजन है किसी का? वे अपने काम में होंगे, हम अपने काम में हो सकते हैं। आप क्यों परेशान हैं?
लेकिन हमारा जो चित्त है वह दमन से भरा हुआ है। और जो-जो हमने दबाया। वही-वही हमें चारों तरफ दिखाई पड़ना शुरू हो जाता है। तो गांधीजी ने फिर दमन हमें सिखाया--सब बातों में दमन। हिंसा को दबाओ, हिंसा बुरी है। घृणा को दबाओ घृणा बुरी है। परिग्रह को दबाओ, परिग्रह बुरा है। धन को दबाओ, धन बुरा है। सुख को दबाओ, सुख बुरा है। सब बुरा है, इसे दबाओ। और दबाने का एक मतलब हो सकता है--जो हुआ है--कि जो-जो दबाया था, वह सब फूट कर बाहर आ गया है। जैसे मवाद फोड़े में भरी हो ऊपर पट्टी लगा कर दबा दो। वह फूट कर निकलेगी, पूरे शरीर से निकलेगी। जो दबाया था गांधीवादियों ने, उसका परिणाम पूरा मुल्क भोग रहा है। दबाया था उन्होंने, लेकिन वे सत्ता में पहुंच गए और उनकी मवाद पूरे मुल्क में फैल रही है।
क्या इसका यह मतलब है कि मैं यह कहता हूं कि हिंसा को दबाओ मत, हिंसा करो? क्या मैं यह कहता हूं कि वासना में डूब जाओ? क्या मैं इंडल्जेंस को कहता हूं? क्या मैं यह कहता हूं, क्रोध करो, हिंसा करो, घृणा करो? नहीं, मैं यह नहीं कहता हूं। मैं यह कहता हूं, दबाओ मत, जान लो, पहचान लो, समझो। और मैं यह कहता हूं कि अगर समझी गई हिंसा, तो एक और तरह की अहिंसा व्यक्तित्व में आनी शुरू होती है--एक और ही तरह की। अगर मैं अपनी हिंसा को समझूं, पहचानूं, खोजूं और देखूं कि मेरी हिंसा मुझे ही दुख लाती है और मेरे ज्ञान और मेरी समझ के बढ़ने से मेरी हिंसा धीरे-धीरे कम हो, तो मैं दबाता नहीं। और तब धीरे-धीरे अहिंसा बढ़नी शुरू होती है। मैं अहिंसा को बढ़ाता नहीं। मैं अहिंसा को बढ़ाता नहीं। मैं हिंसा को दबाता नहीं, समझ को बढ़ाता हूं। समझ बढ़ती है, हिंसा कम होती है, अहिंसा बढ़ती है। लेकिन ऐसा आदमी खतरनाक नहीं होगा फिर क्योंकि उसने दबाई नहीं है हिंसा, जो मौका पड़ने पर फूट निकले।
मैं कहता हूं सेक्स को समझो, दबाओ मत; समझो, पहचानो, खोजो, जीओ। और उस समझ से जितना सेक्स विलीन हो जाए, शुभ है। फिर वह सेक्स वापस नहीं लौटेगा। और अगर दबाया तो वह प्रतीक्षा करेगा। आज नहीं कल, मौका पाते वापस लौट आएगा। धन को जीओ, समझो। और जो आदमी धन को जीएगा, समझेगा, वह धन को न तो पकड़ेगा, न छोड़ेगा; न धन के पीछे पागल होगा, न धन छोड़ने के पीछे पागल होगा। न तो वह महल न मिले तो सोने से इनकार करेगा, और न ही वह यह कहेगा कि महल मिल जाए तो मैं इसमें तो सो ही नहीं सकता। उसके जीवन में एक समझ, जीने की एक कला विकसित होगी।
दमन जीवन की कला को विकसित नहीं होने देता है।
और गांधीवादियों के साथ जो कठिनाई हो गई है वह यह कि उनके जीवन की कोई कला नहीं है। और तब वे खुद भी मुसीबत में पड़े हैं और चूंकि उनके हाथ में सत्ता है इसलिए वे दूसरों के भी मुसीबत में डालते हैं। वे जो कह रहे हैं, उनके जीवन में खुद भी गलत हो गया है, वही वह पूरे मुल्क को समझा रहे हैं। छोटे-छोटे बच्चों को भी वे वही समझा रहे हैं, जो उनकी जिंदगी में गलत हो गया है। वही समझाए चले जा रहे हैं। अब गांधी-शताब्दी चलती है तो वर्ष भर वही प्रचार कर रहे हैं जो उनकी जिंदगी में ही असफल हो गया है। उसी का वे प्रचार किए चले जा रहे हैं। वह पूरे मुल्क को असफल करना चाहते हैं।
इस पर चिंतन होना चाहिए। मैं समझता हूं महात्मा गांधी से ही नहीं, भारत को महात्मा मात्र से मुक्त होने की जरूरत है। महात्मा गांधी का सवाल नहीं है, भारत को दमन की दृष्टि से मुक्त होने की जरूरत है। यह सवाल ज्यादा गहरा, ज्यादा मनोवैज्ञानिक है। यह सवाल ज्यादा आध्यात्मिक है। किसी एक वाद से नहीं, वाद मात्र से भारत को मुक्त हो जाने की जरूरत है। और अगर हम यह नहीं कर सके, तो हमने एक जो दुर्भाग्य पैदा कर लिया है, एक अंधकार, और एक ऐसी मुसीबत, जो कहीं हल होती दिखाई नहीं पड़ती और जितना हम हल करने का उपाय करते हैं, मुसीबत और बढ़ती चली जाती है। क्योंकि हमारा उपाय वही होता है जिससे मुसीबत पैदा हुई है। वही हम उपाय करते हैं। जिससे मुसीबत का तो मूल कारण है, उसी उपाय को हम और करते चले जाते हैं। जिस दवा से मरीज बीमार पड़ गया है, हम वही दवा और पिलाए चले जाते हैं कि इसे ठीक करना है। वह मरीज और बीमार पड़ता चला जाता है। हमने पूरे देश की हत्या कर दी है। और आगे अगर हम नहीं सचेत होते हैं तो खतरे भारी हो सकते हैं। भारत की पूरी प्रतिभा को जंग लगा दी है और जंग लगने के कारण सूत्र-रूप में अंततः मैं कह दूं--
भारत की प्रतिभा को जंग लगने का सबसे बड़ा कारण--हम प्रकृति-विरोधी हैं। हमें प्रकृति-प्रेमी होना पड़ेगा। जो निसर्ग है, जो नेचरल है, जो स्वाभाविक है, उस पूर्ण मन से स्वीकार करना पड़ेगा। उसी के सहारे, उसी के माध्यम से, उसी को विकसित करके हम ऊपर उठेंगे। जैसे, शरीर को स्वीकार करना पड़ेगा, विरोध नहीं। और शरीर को ही हम सीढ़ी बना कर आत्मा तक पहुंच सकते हैं। लेकिन अब तक हम शरीर के विरोध में ही पहुंचने की कोशिश करते रहे हैं। और उलटा हुआ है। जो हमने चाहा है वह बिलकुल नहीं हुआ है। आज भारत से ज्यादा मैटीरियलिस्ट मुल्क खोजना मुश्किल है। और हम अध्यात्म की बातें करते हैं। और भौतिकवादी हम हद दर्जे के हैं।
एक साध्वी मुझसे मिलने आई। इधर बंबई के ही एक मकान बैठ कर हम बात करते थे। हवा आई समुद्र की, अब हवा को क्या पता? उसने मेरी चादर उड़ाई और साध्वी को मेरी चादर छू गई। वह साध्वी आत्मा-परमात्मा की बातें कर रही थी, एकदम घबड़ा गई। मैंने पूछा, क्या हुआ? बात जारी रखो।
उसने कहा, नहीं, आपकी, पुरुष की चादर छू गई। पुरुष की चादर? मैंने उससे कहा, चादर भी पुरुष और स्त्री हो सकती है? यह मैंने सोचा भी नहीं अब तक कि चादरों में भी सेक्स होता है। स्त्री और पुरुष की चादरों में भेद होता है। यह तेरे को किसने बताया है? उस साध्वी ने कहा, नहीं, जो पुरुष ओढ़ता है वह पुरुष की हो गई, जो स्त्री ओढ़ती है वह स्त्री की हो गई। और पुरुष का हमें कुछ भी नहीं छूना है। अब मुझे प्रायश्चित्त करना पड़ेगा।
मैंने उससे कहा, अभी तू आत्मा की बातें कर रही थी कि हम शरीर नहीं हैं। और मुझे पता चलता है कि तू शरीर तो दूर, चादर भी है। वह आत्मा की बातें कहां गईं? पुरुष की चादर ने आत्मा को भ्रष्ट कर दिया!
बातें आत्मा की कर रहे हैं, एकदम शारीरिक हैं, हद्द शारीरिक हैं। और बातें ब्रह्म की कर रहे हैं और ब्रह्मवादी शूद्रों को पैदा किए चले जा रहे हैं। और शूद्र छू ले अगर किसी महात्मा को तो महात्मा अपवित्र हो जाते हैं। यह जो हमारी अजीब दृष्टि है, हैरानी की है। एक तरफ कहते हैं धन बिलकुल बेकार है, लेकिन हमसे ज्यादा धन को पकड़ने वाला कोई भी नहीं है। इतने जोर से पकड़ते हैं कि वह धन मुट्ठी में रह जाता है। हम उस मुट्ठी को बांधे-बांधे मर जाते हैं। न उस धन को भोगते, न उस धन को जीते, न उस धन का उपयोग करते, बस जोर से पकड़ लेते हैं। और चिल्लाए चले जाते हैं कि धन बेकार है, धन बेकार है। जो चिल्लाते हैं, धन बेकार है, उनकी भी अगर वेल्यूएशन को, उनके भी अगर मूल्यांकन को खोजने जाएं तो हैरान हो जाएंगे।
मैं जयपुर गया था। एक मित्र आए और कहा कि एक बहुत बड़े महात्मा ठहरे हुए हैं। आप चलेंगे? मैंने कहा, वह बड़े महात्मा हैं, यह तुम्हें कैसे पता चला? उन्होंने कहा, खुद जयपुर महाराज उनके चरण छूते हैं। तो मैंने कहा, जयपुर महाराज बड़े होते हैं इससे, महात्मा तो बड़े नहीं होते। अगर जयपुर महाराज न छुएं पैर तो? तो महात्मा छोटे हो जाएंगे? जयपुर महाराज बड़े हैं क्योंकि धन उनके पास है, तो जिस महात्मा के पैर छूते हैं वह महात्मा बड़ा है। इसके भीतर गहरे में क्राइटेरियन क्या है? धन। इसमें महात्मा से कुछ लेना-देना नहीं है। धन यहां क्राइटेरियन है। मापदंड धन है।
महावीर के भक्त अपनी किताबों में लिखते हैं कि इतने हाथी, इतने घोड़े, इतने माणिक छोड़े, इतने रथ, इतने महल, इतनी जमीन-जायदाद छोड़ी। सबका पूरा ब्योरा देते हैं। उसको पूछिए कि यह ब्योरा किसलिए दे रहे हो? क्योंकि इसी ब्योरे से पता चलेगा कि महावीर कितने बड़े तपस्वी हैं। यही ब्योरा बताएगा कि महावीर कितने बड़े आदमी हैं। अगर महावीर किसी गरीब के घर में पैदा होते तो तीर्थंकर कभी नहीं होते। क्योंकि घोड़ा-हाथी कहां से छोड़ते? जब था ही नहीं छोड़ने को तो छोड? कैसे आते!
यही तो वजह है--यही तो वजह है कि हिंदुस्तान में एक गरीब का बेटा न तीर्थंकर बना, न  अवतार बना। अब तक नहीं बना। बन भी नहीं सकता। क्योंकि हम धन को नापने और पकड़ने वाले लोग हैं। जैनियों के चौबीस तीर्थंकर ही राजाओं के लड़के हैं। बुद्ध राजा के लड़के हैं, राम, कृष्ण, सब--सब राजा के लड़के हैं। हिंदुस्तान में गरीब आदमी को भगवान होने को अभी तक कोई हैसियत नहीं मिल सकी। कुछ कारण होना चाहिए पीछे। सारी पकड़ धन पर है--चाहे हम छोड़ें, चाहे हम पकड़ें, तौलेंगे हम धन से। माध्यम धन होगा। उससे ही नाप चलेगी और बातें हम धन के विरोध की करते रहेंगे। हमारा सारा का सारा दृष्टिकोण...जो हम कहते हैं, उससे उलटा जीते हैं।
और क्यों ऐसा होता है? आपको मैं दोष दूं? नहीं, आपको मैं दोष नहीं देता। किसी को दोष नहीं देता। दोष देता हूं चिंतना को, विचार की शक्ति को। हम यह नहीं समझ पाते, हम जीवन के विपरीत जाकर नहीं जी सकते। अगर कोई आदमी अपने जूते के फीते पकड़ कर उठाने की कोशिश करे खुद को, और गिर पड़े तो उसी आदमी को दोष देंगे आप कि यह आदमी नालायक है, गिर जाता है, उठते नहीं बनता है इससे? नहीं, दोष देना पड़ेगा सिर्फ उसकी बुद्धि को कि वह पागल है, यह नहीं समझ पा रहा है कि अपने पैर के जूते के फीते उठा कर कोई अपने को ऊपर नहीं उठा सकता। जैसे कोई आदमी अपने ही ओंठ को चुंबन करने की कोशिश करे, और चुंबन तो ले नहीं सकता अपने ही ओंठ का--चुंबन तो दूसरे के ही ओंठ का लिया जा सकता है, अपने ओंठ का कैसे लेंगे--तो पागल हो जाए। जैसे कभी किसी कुत्ते को देखा हो कि अपनी पूंछ को पकड़ने की कोशिश में छलांग लगाता है। जितना उचकता है, पूंछ उतनी सरक जाती है। उस कुत्ते को पता नहीं है कि पूंछ अपनी ही है। पकड़ोगे कैसे? जब तुम उचकोगे, पूंछ भी उचक जाएगी।
करीब-करीब भारत ऐसे ही असंभव, एब्सर्ड, नासमझी से भरे हुए काम करने में लगा हुआ है। जिंदगी से उलटा जाने की कोशिश कर रहा है। और जिंदगी हम खुद है, हम अपने से उलटे जा कैसे सकते हैं! कोई आदमी अपने से उलटा कैसे जा सकता है? जाने की कोशिश में टूट जाएगा, नष्ट हो जाएगा, परेशान हो जाएगा, चिंता से भर जाएगा। अशांत हो जाएगा, मुश्किल में पड़ जाएगा। नहीं, जिंदगी को स्वीकार करना पड़ेगा एक लाइफ अफर्मेशन चाहिए, जिंदगी का स्वीकार चाहिए। हमारा दृष्टिकोण लाइफ निगेटिव है।
हम जीवन के विरोध में रहने वाले लोग हैं। निषेध करने वाले लोग हैं। जीवन निंदित है, कंडेम्ड है, जीवन बुरा है, जीवन असार है। आपसे कहना चाहता हूं जीवन धन्यता है, ब्लिसफुल है। जीवन स्वयं परमात्मा है। कहीं और कोई परमात्मा नहीं है जीवन के अतिरिक्त। और कहीं कोई मोक्ष नहीं है जीवन के अतिरिक्त--जीवन ही। जीवन को ही हम कैसे जीएं और जीवन की धारा में कैसे बहें? अगर एक नदी पूर पर आई हो तो नासमझ आदमी तैरने की कोशिश करेगा और तैरने में बह जाएगा। और समझदार आदमी धारा के साथ बहेगा और धीरे-धीरे किनारे पर पहुंच जाएगा।
जरा फर्क समझ लेना।
समझदार आदमी भी पार हो जाएगा, लेकिन पहले वह धारा के साथ बहेगा, क्योंकि धारा इतनी तेज है कि उसके विपरीत अपने को तोड़ा जा सकता है। उसके साथ बहो, और साथ बहते हुए किनारे होते चले जाओ। धारा की ताकत का उपयोग करो, लड़ो मत। धारा की ताकत का उपयोग करो कि धारा ही तुम्हें किनारे पहुंचा दे। लेकिन हम धारा से लड़ने खड़े हो गए हैं।
जापान में जूडो, एक कुश्ती लड़ने की कला होती है। जूडो की कला का नियम अदभुत है और सारी दुनिया के समझदार लोगों को समझ लेना चाहिए। जूडो का नियम यह है कि अगर तुम्हें घूंसा मारे तो तुम कड़े मत हो जाओ, तुम बिलकुल ढीले हो जाओ, घूंसे को पी जाओ, तुम घूंसे को झेल लो, रिसीव इट; उसे पूरी तरह से ले लो, विरोध मत करो; तो घूंसा मारने वाला का हाथ टूट जाएगा। और अगर तुम कड़े हो गए तो तुम्हारी हड्डी टूट जाएगी।
आपने देखा है, अगर आप एक बैलगाड़ी में बैठे हों और पास में एक शराबी बैठा हो नशे में और बैलगाड़ी उलट जाए तो आपको चोट लगेगी। शराबी को कम लगेगी, या न भी लगेगी, क्योंकि वह होश में ही नहीं है, वह कड़ा नहीं होगा, वह ढीला रहा आया है। वह गाड़ी उलट गई तो गाड़ी के उलटने के साथ वह एक हो जाएगा। और आप, पता चला कि गाड़ी उलट गई, कि कड़े हो जाएंगे। आपकी हड्डी टूट जाएगी।
छोटा बच्चा भी गिरता है। हजार दफे गिरता है दिन में, लेकिन हड्डी नहीं टूटती। आप एक दफा गिर जाओ तो टूट जाएगी। बात क्या है? बच्चा गिरने के विरोध में खड़ा नहीं होता, गिरने के साथ ही हो जाता है। वह गिरने में एक ही हो जाता है। रेसिस्ट नहीं करता, विरोध नहीं करता, गिरने के साथ एक हो जाता है।
जिंदगी की बड़ी धारा के साथ होने की जरूरत है।
हमारे महात्मा सिखाते हैं, उलटे चलो, बहो, तैरो, लड़ो धारा से। जीतने की कोशिश करो--संयम, नियम, दमन, ये सब विपरीत जाने की चेष्टाएं हैं। मैं आपसे कहता हूं जिंदगी की जीओ। अगर जिंदगी कहती है, स्वाद लो, तो स्वाद लो। इतने अर्थ से, इतनी बुद्धिमत्ता से स्वाद लो कि स्वाद लेते-लेते स्वाद से मुक्त हो सको। अगर मन कहता है कि बहुत महीन और रेशमी कपड़ा पहनूं। तो पहनो। लेकिन पहनो इतने समझ से कि उसे पहन कर तुम जल्दी से जान लो कि इसमें बहुत कुछ नहीं है--और मुक्त हो सको। लेकिन वह मुक्ति बहुत दूसरी होगी। उस मुक्ति में तुम्हारे भीतर कुछ दमन नहीं होगा। दमन नहीं होगा तो कल उसके फूटने की कोई संभावना नहीं होगी। और जो दबाया जाएगा, वह फूटता है।
एक छोटे से रेस्ट हाउस में ठहरा हुआ था। और उस राज्य के एक मंत्री भी उस रेस्ट हाउस में ठहरे हुए थे। राम मैं भी लौटा, वे भी लौटे। मैं तो अपने बिस्तर पर सो गया। वे दूसरे कमरे में करवट बदलते रहे, फिर वे उठ कर आए, उन्होंने कहा, मुझे नींद नहीं आती है। क्योंकि बाहर कुत्ते इकट्ठे हैं और बहुत शोर-गुल करते हैं। मैंने कहा, कुत्ते अखबार भी नहीं पढ़ते, रेडियो भी नहीं सुनते, उनको पता भी नहीं होगा कि आप आए हुए हैं। उन्हें आपसे क्या मतलब? आप सो जाइए। उन्होंने कहा, मैं कैसे सो जाऊं? जब शोर-गुल करते हैं तो नींद नहीं आती। मैंने कहा, उनके शोर-गुल से आपके नींद के न आने का मेरी समझ से कोई संबंध नहीं मालूम होता है। वे दो-चार दफा उनको भगाए। अब जितना भगा कर आए, वे कुत्ते और वापस लौट आए। दो-चार और साथ ले आए। तो सारा रेस्ट हाउस कुत्तों के भौंकने से भर गया।
आखिर वे मिनिस्टर परेशान हो गए। उन्होंने कहा, क्या करूं? आप बताइए। मैंने कहा, आप एक काम करिए, आप कुत्तों के भौंकने को स्वीकार कर लीजिए, विरोध मत करिए। आप लेट जाइए और कहिए कि कुत्ते भौंकते हैं, मैं सोता हूं, तो दोनों बातों में विरोध कहां है? झगड़ा कहां है, आप चाहते हैं कि कुत्ते न भौंके, झंझट शुरू हो जाती है। झगड़ा कुत्ते भौंकने से नहीं है, आपके इस विचार से कि कुत्ते न भौंके, बस वह विचार आपको दिक्कत दे रहा है। कुत्ते क्या दिक्कत देंगे? आप इस विचार को छोड़ दें। कुत्ते भौंकते हैं, उनकी आवाज गूंजने दें। आवाज गूंजेगी, चली जाएगी। आप चुपचाप पड़े सुनते रहें। स्वीकार कर लें कुत्ते के भौंकने को। उनके भौंकने में बह जाएं, लड़ें मत। कोई रास्ता नहीं था तो उन्होंने माना। जाकर सो गए। समझा, मेरी बात से शायद उन्हें नींद लग गई होगी। सुबह उठ कर उन्होंने मुझसे कहा, कि मैं इतना गहरा जिंदगी में कभी नहीं सोया, और यह आश्चर्यजनक था। जब मैंने स्वीकार कर लिया तो मैं हैरान हुआ कि कुत्तों के भौंकने से तो कोई बाधा पड़ती ही नहीं। बाधा मेरे खयाल में थी, मेरे एटिट्यूड, में थी।
जिंदगी परमात्मा तक पहुंचाने में जरा भी बाधा नहीं देती--न स्वाद, न शरीर, न सेक्स, कुछ भी बाधा नहीं देता। हमारा एटिट्यूड, हमारा दृष्टिकोण कि लड़ना है सबसे--कि बस हम मुश्किल में पड़ जाएंगे।
गांधीजी की दृष्टि है और इसलिए अत्यंत खतरनाक है। उस खतरनाक दृष्टि के आसपास जो लोग इकट्ठे हुए थे, वे असफल हो गए हैं। असफल होना सुनिश्चित था। उनकी आलोचना का कोई प्रयोजन नहीं है। अब तो समझने की बात यह है कि भविष्य में हम, इस देश के लोग फिर इसी तरह की नासमझियों में पड़ते चले जाएंगे, या सोचेंगे? और खोजेंगे, इस बात को कि जीवन की धारा में बह कर परमात्मा तक पहुंचने का कोई रास्ता है? मैं मानता हूं, रास्ता वही है। और ये सारे के सारे जो दृष्टिकोण हैं विरोध के, निषेध के, दमन के, हिंसा के, आत्महिंसा के, अपने को मारने के, ये अपने ही दोनों हाथों को लड़ाने की तरह हैं। अगर आप अपने दोनों हाथ लड़ाएंगे तो कोई नहीं जीतेगा। आप हार जाएंगे। दोनों हाथ लड़ेंगे, आपकी शक्ति नष्ट होगी और कहीं आप नहीं पहुंचेंगे।
इसलिए मैं कहता हूं कि गांधीवादी नहीं, गांधीवादियों की हार से गांधीजी की पूरी दृष्टि पुनर्विचार के योग्य हो गई है। और गांधीजी की दृष्टि ही नहीं, हिंदुस्तान की पूरी दृष्टि; क्योंकि गांधीजी हिंदुस्तान की दृष्टि के प्रतिनिधि पुरुष हैं। रिप्रेजेंटेटिव हैं वे हमारे दिमाग के। हमारा जो पांच हजार वर्षों में मस्तिष्क विकसित हुआ है, जो टे्रडिशनल माइंड, परंपरा से भरा हुआ मन, शास्त्रों से भरा हुआ मन, धर्म और दमन से भरा हुआ मन--गांधीजी उसके प्रतिनिधि पुरुष हैं। इसलिए वे सफल हुए। और मैं मानता हूं कि गांधी के बाद अब एक नया युग शुरू हो सकता है। अगर हमने गांधी के साथ हिंदुस्तान की पूरी परंपरा पर पुनर्विचार किया तो हम एक नये युग में प्रवेश कर सकते हैं।
गांधीवादियों से तो जल्दी मुक्ति हो जाएगी, इसमें बहुत देर नहीं है। वे अपने हाथ से ही मुक्ति का उपाय करते चले जाएंगे। पंद्रह साल के भीतर गांधीवादी से हमारी मुक्ति सुनिश्चित है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है। वह तो हो जाएगी, वह तो ऐतिहासिक प्रतिक्रिया के द्वारा अपने आप हो जाएगी, उसमें कठिनाई नहीं है। गांधीजी से मुक्ति में कठिनाई है। और गांधीवादी से मुक्ति के बाद गांधीजी से मुक्ति होने में बड़ी कठिनाई पड़ जाएगी जब तक ये हैं तब तक इनको देखने से गांधी का भी खयाल आता रहेगा। जब ये विदा हो जाएंगे तो गांधी एकदम भगवान हो जाएंगे। फिर उससे छुटकारा बहुत मुश्किल हो जाएगा।
गांधी से मुक्ति चाहिए। और गांधी से मुक्ति का मतलब यह है--गांधी से मेरा व्यक्तिगत कोई प्रयोजन नहीं है--गांधी से मुक्ति का मतलब है, हिंदुस्तान के पुराने मन, पुरानी आत्मा से मुक्ति चाहिए।
एक नई आत्मा इस देश को मिले तो यह देश विकसित हो सकता है, स्वस्थ हो सकता है, चरित्रवान हो सकता है, धार्मिक हो सकता है, सुखी हो सकता है। और अगर हम पुरानी ही धाराओं में फिर से चलते रहे तो हम कोल्हू के बैलों की तरह घूम रहे हैं। न हम सोचते, न हम विचार करते, न हम खोजते। और हमने अपने जीवन को बिलकुल नरक बना दिया है। अब हमें नरक में जाने की कोई जरूरत नहीं है। भारत में पैदा होना नरक में होने के बराबर है, अब कोई हमें कहीं जाने की जरूरत नहीं है।
ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं। मेरी बातें मान लेना आवश्यक नहीं है, क्योंकि न तो मैं महात्मा हूं, न महात्मा होना चाहता हूं। न मेरा कोई अनुयायी है, और न मैं कोई अनुयायी इकट्ठे करना चाहता हूं। तो मेरी बात से राजी होने की कोई भी जरूरत नहीं है। मेरी बात सिर्फ सोचना। उतना काफी है। विचारना, देखना कि कोई बात ठीक मालूम पड़े। गलत मालूम पड़े तब छोड़ देना। कोई एक टुकड़ा भी ठीक मालूम पड़े तो उस पर सोचना, खोजना। और अगर वह आपके विवेक को ठीक लग जाए तो वह बात आपकी हो जाएगी, मेरी नहीं रह जाएगी। और जो सत्य आपका हो जाता है, वही सत्य आपको बुद्धिमान बनाता है। जो सत्य दूसरे का है, वह आपसे बुद्धि छीनता है और आपकी प्रतिभा को नुकसान पहुंचाता है।

मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे में अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।



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