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सोमवार, 28 अगस्त 2017

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—प्रवचन-16

देख कबीरा रोया-(राष्ट्रीय ओर सामाजिक)—ओशो

सोलहवां प्रवचन
विध्वंस: सृजन का प्रारंभ

यह सवाल नहीं है। पहली बात तो यह कि मैं निपट एक व्यक्ति की भांति, जो मुझे ठीक लगता है वह में कहूं। न तो मेरी कोई संस्था है, न कोई संगठन। हां, कोई संगठन बना कर मेरी बात उसे ठीक लगती है और लोगों तक पहुंचाए, तो वैसा संगठन जीवन जागृति केंद्र है। वह उसका संगठन है, जिन्हें मेरी बात ठीक लगती है और वे लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं। लेकिन मैं उस संगठन का हिस्सा नहीं हूं और उस संगठन का मेरे ऊपर कोई बंधन नहीं है, इसलिए वह संगठन रोज मुश्किल में है। क्योंकि कल मैंने कुछ कहा था, वह संगठन के लोगों को ठीक लगता था। आज कुछ कहता हूं, नहीं ठीक लगता है। वे मुश्किल में पड़ जाते हैं। मेरी तो उनसे कोई शर्त नहीं है, उनसे मैं बंधा हुआ नहीं हूं, इसलिए जितनी प्रवृत्तियां चलती हैं, जिन्हें मेरी बात ठीक लगती है, उनके द्वारा चलती हैं।
मेरे द्वारा तो सिर्फ एक ही प्रवृत्ति चलती है कि जो मुझे ठीक लगता है, वह मैं कहता रहता हूं।
उससे ज्यादा मेरी कोई प्रवृत्ति नहीं है और जो मुझे ठीक लगता है, इसलिए निरंतर निवेदन करता रहता हूं कि जो मुझे ठीक लगता है, वह आपको ठीक लगे, यह जरूरी नहीं है। बहुत ज्यादा संभावना तो यही है कि वह न लगे। क्योंकि दो व्यक्तियों को एक सी बात ठीक लगे, यह जरा असंभावना है। असल में दो व्यक्ति इतने भिन्न-भिन्न हैं कि एक ही बात पर राजी नहीं होते। तो पूछा जा सकता है कि फिर मैं क्यों कहता हूं, अगर दूसरे को मुझे राजी नहीं करना है, प्रभावित नहीं करना है, दूसरे को अपने साथ बांधना नहीं है, संगठन नहीं, अनुयायी नहीं, शिष्य नहीं, तो फिर मैं क्यों कहता हूं?
असल में आज तक निरंतर तभी कोई बोला है, जब उसे संगठन बनाना हो। तभी कोई बोला है, जब उसे किसी को प्रभावित ही करना हो, तभी तक बोला है, उसे पंथ और संप्रदाय ही बांधना हो। इसलिए यह सवाल उठता है। इसलिए बोलना सहज बात नहीं रह गई। मैं बोलने को अत्यंत सहज बात मानता हूं। मुझे तो ठीक लगता है, उसे कहने में मुझे आनंद आता है, इसलिए कहता हूं। आपको प्रभावित करने के लिए नहीं। एक फूल खिलता है और उस फूल से सुगंध गिरती है। यह रास्ते से चलने वाले लोगों को प्रभावित करने के लिए नहीं। फूल को आनंद है, वह खिला है, उसकी सुगंध मिलती है।
मैं जब आपसे बोल रहा हूं तो मैं आपको प्रभावित करने के लिए नहीं, जो मुझे आनंदपूर्ण लगता है बोलना, वह बोल रहा हूं। और मेरी अपनी समझ यह है कि जो आपको प्रभावित करने के लिए बोल रहा है, वह आपको दुश्मन है, क्योंकि किसी भी तरह की प्रभावित करने की चेष्टा, बहुत गहरे में, दूसरे व्यक्ति को गुलाम बनाने की चेष्टा है।
सब प्रभाव बहुत आध्यात्मिक गुलामी हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि लोग प्रभावित करने के डर की वजह से, बोलेंगे नहीं, कहेंगे नहीं।
एक चित्रकार एक पेंटिंग बना रहा है। हो सकता है, वह सिर्फ प्रभावित करने के लिए बना रहा हो। यह भी हो सकता है कि दूसरों से कोई प्रयोजन की न हो। बनाना उसका आनंद हो और वह जब दूसरों को दिखा रहा है, तब भी सिर्फ अपने आनंद की अभिव्यक्ति की भांति। शब्द भी चित्र की भांति या रंगों की भांति अभिव्यक्ति हैं। आपको प्रभावित करने को नहीं, मुझे व्यक्त करने को। और इसलिए निरंतर आपसे निवेदन करता रहता हूं कि भूल से मुझसे प्रभावित न हों।
लेकिन ध्यान रहे, प्रभावित होने के दो ढंग हैं। मेरे पक्ष में प्रभावित होना है, मेरे विपक्ष में भी प्रभावित होना प्रभावित होना है। इसलिए इस खयाल में मत रहना कि जो मेरे पक्ष में हैं, वे मुझसे प्रभावित हो गए हैं वे प्रभावित नहीं हुए हैं। वे विपक्ष में हैं, वे भी मुझसे प्रभावित हैं। प्रभाव से बचना हो तो पक्ष-विपक्ष से बचना पड़ता है, नहीं तो प्रभाव पड़ ही जाता है। जो आदमी वेश्या के घर की तरफ जा रहा है, वह भी प्रभावित है, तो वेश्या के घर से बच कर दूसरे रास्ते से गुजर रहा है, वह भी प्रभावित है। असल में प्रभाव के दो ढंग हैं। अक्सर हमें लगता है कि पक्ष वाला प्रभावित है, विपक्ष वाला प्रभावित नहीं है। विपक्ष वाला भी उतना ही प्रभावित है।
माक्र्स मरा तो उसकी कब्र पर बहुत लोग नहीं थे। जो उसे विदा करने गए थे, दस-बीस लोग थे। फिर भी एंजिल्स ने, जो उसकी कब्र पर दो बातें कहीं हैं, उनमें से एक बात बड़ी कीमती थी। बीस-पच्चीस आदमी, जिसको विदा करने आए हों, उसकी कब्र पर बोलते हुए एंजिल्स ने कहा कि माक्र्स दुनिया का बहुत बड़ा आदमी है। तो एक आदमी ने पूछा कि जिसको विदा करने बीस-पच्चीस लोग आए, उसको आप बहुत बड़ा आदमी कहते हैं? तो एंजिल्स ने कहा कि मैं इसलिए बहुत बड़ा आदमी कर रहा हूं कि माक्र्स की कोई बात सुने तो प्रभावित हुए बिना नहीं बच सकता। उस आदमी ने कहा, बहुत से लोग माक्र्स के दुश्मन हैं। एंजिल्स ने कहा, मैं यही कह रहा हूं, या तो पक्ष या विपक्ष। माक्र्स के संबंध में कोई निर्णय लेना ही पड़ेगा। यही प्रभाव है।
लेकिन मैं कोई बड़ा आदमी नहीं हूं और मैं मानता हूं कि सब बड़े आदमियों ने दुनिया को नुकसान पहुंचाया है, क्योंकि दूसरों को छोटा बनाए बिना, बड़ा होना असंभव है। तो दूसरों को छोटा बनाना ही पड़ेगा, बड़े होने के लिए। मैं कोई बड़ा आदमी नहीं हूं और मैं मानता हूं कि बड़े आदमी होने की जो आकांक्षा है, वही दूसरे को प्रभावित करने का रूप लेती है और बड़े आदमी होने की जो आकांक्षा है, वही दूसरे को प्रभावित करने का रूप लेती है और बड़े आदमी की जो आकांक्षा है, वह बहुत गहरे में किसी इंफिरिआरिटी कांप्लेक्स से, किसी हीनता की ग्रंथि से पैदा होती है। इसलिए सब बड़े आदमी, बहुत भीतर, हीन-ग्रंथि से पीड़ित होते हैं। वे दूसरे को प्रभावित करके, अंततः अपने को प्रभावित करना चाहते हैं कि मैं बड़ा आदमी हूं। इतने लोग मुझसे प्रभावित हैं, तो मैं बड़ा आदमी होना ही चाहिए। यह बहुत वाया मीडिया, दूसरों के जरिए, वे अपने को विश्वास दिलाना चाहते हैं।
मैं राजी हूं, उससे राजी हूं। आपको प्रभावित करके, मैं अपने को कोई विश्वास नहीं दिलाना चाहता कि मैं कौन हूं? मैं जो हूं, उससे मैं राजी हूं और छोटे और बड़े दोनों की परिभाषा के बाहर खड़ा हूं, क्योंकि छोटे और बड़े की परिभाषा, दूसरों से तुलना करने से पैदा होती है, कंपेरिजन करने से पैदा होती है  और मेरी ऐसी समझ है कि एक-एक आदमी इतना अपने जैसा है कि कंपेरिजन असंभव है। तुलना हो नहीं सकती। आप मुझसे बड़े हैं या छोटे, यह सवाल असंगत है, क्योंकि मैं मैं हूं, आप आप हैं। इसमें कोई तुलना का उपाय नहीं है।
मैं मानता हूं, एक-एक मनुष्य अतुलनीय है, इनकंप्रेबल है। इसलिए छोटे-बड़े की सब बातें मुझे बकवास मालूम पड़ती हैं। इसलिए प्रभावित करने का तो कोई सवाल नहीं है। लेकिन अपनी बात कहना जरूर चाहता हूं और अपनी बात में, आपको सुनने के लिए साझीदार भी बनाना चाहता हूं। जो मुझे दिखाई पड़ता है, वह मैं आपसे निवेदन कर देना चाहता हूं। वह निवेदन है, वह आग्रह नहीं हैं। मानने न मानने की आपके लिए छूट है।
मेरा तो निवेदन यह है कि आप न मानने की फिक्र करना, न न मानने की। आप सुन लेना। वह आपको एक विचार कि प्रक्रिया में ले जा सके, तो काफी है। वह विचार प्रक्रिया, अंततः मेरी नहीं रह जाएगी, आपकी ही हो जाएगी। लेकिन मेरे मित्र हैं, मेरे शत्रु हैं। मेरी तरफ से कोई मेरा मित्र नहीं है, मेरी तरफ से मेरा कोई शत्रु नहीं है। उनकी ही तरफ से वह है, क्योंकि मैं कोई कारण नहीं देखता, मित्रता और शत्रुता की जो पोलेरिटी है, उसको बनाने का--कोई कारण नहीं देखता। हम सब साझीदार हैं, एक जगत में। लेकिन मेरे मित्र कुछ करेंगे, मेरे शत्रु भी कुछ करेंगे।
नानू भाई ने बड़ा अच्छा सवाल पूछा। उन्होंने एक किताब छापी है "आचार्य रजनीश काय मार्गे' उसमें भी मेरी फोटो छापी है और मैं समझता हूं कि मेरे मित्रों ने जितनी अच्छी फोटो छापी है, उन सबसे अच्छी फोटो छापी है। हालांकि किताब मेरी आलोचना है। मुझसे तो पूछा नहीं था, फोटो छापते वक्त। मेरे मित्रों ने भी नहीं पूछा। उनको प्रीतिकर लगता है कि मेरी शक्ल वे लोगों तक पहुंचा दें, वे पहुंचा देते हैं।
अब रह गई बात यह कि मैं रोकता क्यों नहीं, पाजिटिवली? मैं कह सकता हूं कि मत छापो फोटो। मैं कह सकता हूं, मत छुओ मेरे पैर कभी मैंने किसी से कहा नहीं कि मेरे पैर छुओ। निश्चित ही मुझे दूसरी बात नानू भाई ने ठीक पूछी है कि आप पाजिटिवली कहते क्यों नहीं कि मत छुओ मेरे पैर। लेकिन मेरी समझ है कि जो आदमी कहता है, छुओ मेरे पैर, वह भी अहंकारी, जो कहता है, मत छुओ मेरे पैर, वह भी अहंकारी है। असल में मैं कौन हूं, जो आपको आज्ञा दूं कि आप क्या करो, छुओ। मैं कौन हूं? मैं आपसे नहीं जाऊंगा कहने कि मेरे पैर छुओ। अगर कहने जाऊं तो मैं खतरनाक आदमी हूं। लेकिन दूसरे छोर पर भी खतरा है।
पंडित नेहरू इलाहबाद की एक सड़क से गुजर रहे थे। वे बड़े सख्त थे। मत छुओ मेरे पैर। मैं पैर न छुआऊंगा। एक अस्सी साल की बूढ़ी औरत ने पैर छुए, तो उन्होंने लात मार दी। वह औरत गिर पड़ी। मैं समझता हूं, यह दूसरी छोर पर अन्याय शुरू होगा। मुझे कोई हक नहीं है कि मैं कहूं कि मेरे पैर छुओ। यह हक मुझे कहां है कि मत छुओ। मैं दूसरे की स्वतंत्रता में इतनी भी बाधा नहीं डालना चाहता हूं। यह उसकी मौज है।
और अभी एक गांव में ऐसा हुआ, जो नानू भाई को जानना अच्छा होगा कि एक आदमी ने पैर न छुए, मेरा सिर छुआ। दो आदमी साथ खड़े थे मेरे। उन्होंने कहा, यह क्या करते हैं? मैंने कहा, उस करने दो। उसको फिर छूने की मौज आई है, उसे करने दो। और इसलिए मैं आपसे निवेदन करता हूं कि किसी को अपना पैर भी मेरे सिर को छुपाने की मौज आ जाए, तो मैं मना न करूंगा। अगर मना करूं तो आप मुझसे पूछ लेना कि यह बात क्या है? पैर छूते वक्त मना नहीं किया और आपके सिर पर छुआ रहे हैं, तो आप मना क्यों कर रहे हैं? नहीं करूंगा।
नहीं, मेरी समझ यह है कि सब तरह से पाजिटिव असर्शन, सभी तरह के विधायक वक्तव्य, श्रद्धा पैदा करवाते हैं और आपको जान कर यह मजा होगा कि दुनिया में उन लोगों के पैर सर्वाधिक छुए गए हैं, जिन्होंने कहा, मत छुओ, मत छुओ, मत छुओ। लोगों ने कहा, अदभुत आदमी है, इसके तो छूने ही पड़ेंगे।
बुद्ध कहते हैं, मत छुओ मेरे पैर। लेकिन "बुद्ध शरणं गच्छामि' जितना बुद्ध के सामने कहा गया है उतना किसी के सामने नहीं कहा गया है। बुद्ध कहते हैं, मत बनाओ मेरी प्रतिमाएं। जितनी प्रतिमाएं बुद्ध की हैं उतनी किसी आदमी की नहीं हैं। आश्चर्यजनक है, आदमी का मन बहुत आश्चर्यजनक है। निषेध भी, निमंत्रण भी।
यहां दरवाजे पर लिख दें कि यहां झांकना मना है, फिर सूरत में इतना हिम्मतवर आदमी बहुत मुश्किल से होगा, जो बिना झांके निकल जाए। होगा? नहीं होगा, और अगर कोई सज्जन किसी वक्त संयम साध कर निकल गए, तो फिर कोई बहाना खोज कर भी, इस गली से उनको लौटना पड़ेगा और अगर दिन में हिम्मत करके न लौट पाएं, तो रात सपने में जरूर लौटेंगे। वहां है क्या? मेरे पैर में कुछ भी नहीं है। इतना भी नहीं है कि मैं आपसे कहूं कि मत छुओ इतना भी नहीं है कि मैं निषेध करूं। निषेध ही निमंत्रण है।
इसलिए मैं आपको कोई आज्ञा नहीं देना चाहता। आज्ञा में ही गुरु बनना शुरू हो जाता है। आज्ञा पूरी होती है, यह सवाल नहीं है। पैर छूने की है कि नहीं छूने की है। यह सवाल नहीं है--आज्ञा। जो आपसे पाजिटिवली कहता है, यह करो, यह मत करो, वह गुरु बनना शुरू हो जाता है। मैं किसी का गुरु नहीं हूं।
ठीक उन्होंने पूछा है कि आप शिष्य जाने बनाते हैं या अनजाने। नहीं, न जान कर बनाता हूं, न अनजान कर, लेकिन कोई बन जाए तो मेरे पास कोई उपाय नहीं है, उसे रोकने का। मुझे पता भी नहीं चलता। पता चलता है, तब तो मैं लड़ता हूं। कोई मुझसे आकर कहता है कि मैं आपका शिष्य हूं, तब तो मैं लड़ता हूं, लेकिन कोई आए ही न, मुझे पता ही न चले, तब बड़ी कठिनाई हो जाती है। और जब कोई मुझसे कहने भी आता है कि मैं आपका शिष्य हूं, तब भी मैं यह नहीं कहता कि तुम मेरे शिष्य नहीं हो, क्योंकि यह हक मुझे नहीं है। इतना ही मैं कहता हूं कि मैं तुम्हारा गुरु नहीं हूं, क्योंकि दूसरे को, मैं कैसे किसी को रोक सकता हूं? इतना ही मैं कह सकता हूं कि मैं तुम्हारा गुरु नहीं हूं। न जाने, न अनजाने, मैंने किसी का गुरु होने का भार नहीं लिया है। क्योंकि मैं मानता हूं, सभी गुरु पंगु करने वाले सिद्ध होते गए हैं।
असल में गुरु बनने का मतलब यह है कि तुम्हारा बोझ में लेता हूं।
मैं किसी का बोझ नहीं लेता। अपना ही बोझ जिंदगी में काफी है। किसी दूसरे का बोझ लेने का सवाल नहीं है और अगर मुझे कोई बात ठीक लगती है तो आपसे कह देता हूं, लेकिन इससे मेरा आपका कोई लेन-देन का संबंध नहीं बनता है। बल्कि में अनुगृहीत हूं कि आपने सुन लिया। आपकी तरफ से अनुग्रह नहीं मानता, क्योंकि लेन-देन के बड़े सूक्ष्म नियम हैं। कहीं पैसे लिए जाते हैं, कहीं श्रद्धा ली जाती है, कहीं अनुग्रह लिया जाता है, लेकिन सब बड़े सूक्ष्म नियम हैं।
आपसे मैं कुछ नहीं लेता, धन्यवाद देता हूं आपको कि आपने मेरी बात सुन ली, यह भी क्या कम है? किसके पास समय है, किसके पास सुविधा है? बात खतम हो गई। इसके आगे मुझे प्रयोजन नहीं है। लौट कर हिसाब नहीं रखूंगा कि आपने माना कि नहीं माना।
लेकिन यह जो हमारा देश है, यह हजारों साल से गुरुओं के नीचे जी रहा है। यह बिना संबंध बनाए नहीं रहता। यह संबंध बनाने की चेष्टा करता है। आदेश मानता है, चाहे विपरीत आदेश ही क्यों न हों। आदेश मानता है। यह कहता है, कुछ हमें आदेश दे दो, जो हम मान कर चलें। मैं कोई आदेश नहीं देता। मेरा जो भी है, वह निवेदन है और जैसा नानू भाई ने कहा कि अब धीरे-धीरे व्यवस्थित हो रहा है, ढांचा बन रहा है। मेरी तरफ से नहीं, बल्कि जो बना रहे हैं, वह मेरी तरफ से रोज मुश्किल में हैं। असल में मेरे आस-पास ढांचा बनाना मुश्किल ही है, क्योंकि मैं कोई ढांचे का आदमी नहीं हूं।
नारगोल में जमीन मिलती थी, मेरे मित्रों ने सब विधान बनाया था। कैबिनेट तक बात हो गई थी। मंत्री राजी थे, छह सौ एकड़ जमीन देने को। वह दो-चार दिन में तय हो जाने वाला था। गांधीजी के संबंध में, एक वक्तव्य मैंने दिया। मित्रों ने आकर कहा कि इस वक्तव्य को अभी बाहर प्रकट न किया जाए। पहले वह जमीन मिल जाए, फिर हम वक्तव्य प्रकट करेंगे। मैंने कहा, जमीन के लिए अगर वक्तव्य रुकेगा, तब तो अंततः मैं ही रुक जाऊंगा।
जमीन जाने से, मित्र बहुत दुखी हुए, मुझे छोड़ कर ही चले गए, दुश्मन ही हो गए। क्योंकि मित्र जब दुखी होते हैं, तो दुश्मनी से कम पर नहीं रुकते हैं। इसलिए मित्र बनाना खतरनाक है। इसलिए मैंने कहा, न हम मित्र बनाते हैं, क्योंकि मित्र बनाने का मतलब है, पोटेंशियल शत्रु बनाना, आज नहीं कल, बिलकुल बन सकता है। मित्र के सिवाय शत्रु कोई नहीं बनता, तो मित्र भी नहीं बनाता। निपट अकेला आदमी हूं, ऐसा घूमता रहता हूं। अब आपको अच्छी लगती है मेरी बात, आप चार मित्र मिल कर कुछ करते हैं, मैं आपको रोक नहीं सकता, न रोकता हूं, लेकिन आप मुझे नहीं बांध सकेंगे, किसी ढांचे में, किसी व्यवस्था में। आपका ढांचा जब तक बनेगा, तब तक...।
अभी कार में आ रहा था तो एक बहन ने कहा कि अगर मैं छह महीने तुम्हारे पार रह जाऊं तो डुप्लीकेट बन जाऊं, तुम्हारी सारी बातों की। मैंने कहा, वह तो हो जाएगा, लेकिन तब तक ओरिजिनल बदल जाएगा। तुम तो पक्की बन जाओगी, लेकिन मैं नहीं रुका रहूंगा। मेरी कोई निष्ठा नहीं है, मेरी कोई श्रद्धा नहीं है, इसलिए मेरे साथ ढांचा बनाना मुश्किल है, क्योंकि ढांचा बनता है श्रद्धा पर, निष्ठा पर और ढांचा बनता है, उन लोगों के साथ, जिनमें एक तरह की कंसिस्टेंसी होगी, जो-जो आज कहेंगे, कल भी कहेंगे, परसों भी कहेंगे, तब आप ढांचा बना सकते हैं। लेकिन अगर आप ढांचा बनाएं, कल मैं कुछ कहूं, परसों कुछ कहूं तो ढांचा बन न पाए और कुछ गड़बड़ कर दूं।
मेरे जैसे लोगों के पास ढांचा कभी नहीं बनता, इसलिए ढांचा तभी बनता है, जब मैं मरने की तैयारी करूं कि आज मैं फाइनली मर जाता हूं। अब मैं कल से वही कहूंगा, जो मैंने आज कहा। अब मेरे कल, आज की पुनरुक्ति होंगे, अब मेरा कोई कल नया नहीं होगा। अब हर आने वाला कल मेरी आज की ही रिपीटीशन होगा, तब ढांचा बनता है। मेरे जैसे आदमी के पास कुछ ढांचा बनता नहीं।
अभी कुछ मित्र उत्सुक हैं, थोड़े दिन में थक जाएंगे तो समझ जाएंगे कि आदमी गड़बड़ है, इसके पास ढांचे नहीं बन सकते। मगर वक्त लगेगा। वक्त लगेगा, दो-चार मित्र फ्रस्ट्रेट होते चले जाते हैं, दूसरे दस-पांच आ जाते हैं। वह अपना शुरू कर देते हैं, फिर वे चले जाते हैं। अभी इधर तीन साल के मेरे मित्रों के नाम का आप पता लगाएंगे, तो आपको पता चल जाएगा कि जो मित्र छह महीने पहले थे, छह महीने बाद मुझे नहीं मिलते। उसमें उनका कसूर नहीं है, कसूर जो है, वह मेरा है। क्योंकि वह चाहता था कंसिस्टेंसी। वह चाहता था कि जो आपने कहा था, उसको अब इधर-उधर मत करना और मैं कहता हूं जिंदगी बहुत इनकंसिस्टेंसी है।
सिर्फ मौत कंसिस्टेंसी है। जिंदगी का भरोसा नहीं कि हम हर सुबह सूरज से कहें कि तुम कल जैसे निकले थे, वही रूप रंग में निकलो, क्योंकि कल मैंने तुमसे कहा था कि भगवान, हम तुम्हारी पूजा करेंगे और आज तुम बदल गए और कल बदलियां और रंग थीं, आज और रंग हो गईं। सूरज कहेगा तुम पूजा मत करो, लेकिन कोई और उपाय नहीं है।
यह जो नानू भाई ने सवाल उठाया है, सभी सवाल उचित हैं, मुल्क में बहुत मित्रों के मन में उठते हैं, लेकिन गहरे अर्थों में असंगत हैं। मुझसे उनका कोई वास्ता नहीं है, मुझसे उनका कोई भी संबंध नहीं है। मैं निपट अकेला आदमी हूं, जो घूमता-फिरता, जो उसे ठीक लगता है, कहता रहता है। किसी को ठीक लगता है, मान लेता है। नहीं ठीक लगता है, नहीं मानता है। कोई मित्र बनता है, कोई शत्रु बनता है। वह सब आपकी तरफ से है वह मेरा काम नहीं है। उसके लिए मुझे कभी भी जिम्मेदार न ठहरा सकेंगे। उसकी मेरी कोई रिस्पांसिबिलिटी नहीं है। मेरा काम इतना ही था कि मैंने कह दिया और कल अगर लौट कर भी आपने कहा कि आपने कल यह कहा था, तो मैं कहूंगा कि कल का वह आदमी मर चुका, अब दूसरा आदमी हूं, वह आदमी हूं नहीं। तो इसलिए इन प्रश्नों की कोई संगति मुझसे नहीं है। फिर और कोई सवाल हो तो उठा लें, उनकी बात करें।
पहली बात तो यह है कि मेरे लिए कोई मामूली, सामान्य आदमी नहीं है। जिसको सामान्य आदमी कहते हैं, मेरे लिए कोई भी नहीं है। और जिसको असामान्य आदमी कहते हैं, वह भी मेरे लिए कोई नहीं है। मैंने कहा कि तुलना में बड़ी हिंसा है। इस मुल्क में जगह-जगह घूमता हूं। सामान्य आदमी की बहुत तलाश की, मिला नहीं। जो भी मिला उसने कहा, ये सामान्य आदमी जो हैं, ये न समझ सकेंगे। एक भी आदमी ने न कहा कि मैं सामान्य आदमी हूं, मैं नहीं समझ सकूंगा। प्रत्येक आदमी अपने तईं विशेष है और प्रत्येक आदमी की अपनी विशेषता है, उससे हिंसा करवाती है कि दूसरा सामान्य है। कोई भी सामान्य नहीं है। सामान्य आदमी पैदा ही नहीं होता।
एक अरबी कहावत मैंने सुनी है कि भगवान जब आदमी को बना कर भेजता है, तो जिस आदमी को भी बनाता है, उसके कान में कह देता है कि तुमसे बढ़िया आदमी मैंने कभी बनाया नहीं। सभी से कह देता है, तो हरेक यह खयाल लेकर आता है कि मैं विशेष और दूसरे सामान्य। कोई सामान्य नहीं है और कोई विशेष नहीं है। या तो सभी सामान्य हैं या सभी विशेष हैं और कोई सोचता हो कि मैं ऐसा वर्गीकरण करूं, ऐसी क्लास बनाऊं कि विशेष लोगों के लिए कुछ और हो और सामान्य लोगों के लिए कुछ और हो, तो यह मेरे वश के बाहर है। मेरे लिए ऐसा कोई वर्ग नहीं है और मेरे पास कहने को दो बातें भी नहीं हैं। जो है यही है, मैं वही कह सकता हूं। अगर आप भी चले जाएं और दीवाल के सामने भी मुझे कहना पड़े, तो भी मैं वही कह सकता हूं जो आपसे कह रहा था, और कोई उपाय नहीं है।
दूसरी बात, आपने कहा कि यहां कोई मंडन मिश्र या शंकर नहीं बैठे हुए हैं। अच्छा ही है कि नहीं बैठे हुए हैं, क्योंकि मंडन मिश्र अब दुबारा होंगे तो कार्बन कापी ही हो सकते हैं। हर आदमी एक ही बार होता है। मंडन मिश्र भी एक ही बार होते हैं और आप भी एक बार होते हैं। यूनीकनेस इतनी गहरी है कि एक आदमी दुबारा पुनरुक्त नहीं होता है। इसीलिए एक-एक व्यक्ति की महिमा अनंत है। वह जैसा है, वह वैसा ही है। अगर बुद्ध अपने जैसे हैं तो जिसे हम सामान्य कहते हैं वह भी अपने जैसा है। कौन बुद्ध उसका मुकाबला कर सकता है? अगर वह बुद्ध का मुकाबला नहीं कर सकता है, तो कौन बुद्ध उसका मुकाबला कर सकते हैं?
लेकिन मनुष्य की चिंतना चूंकि अहंकार केंद्रित रही, सदा उसने वर्गीकरण किए, विभाजन किए, शूद्र बनाए, ब्राह्मण बनाए, महान पुरुष बनाए, सामान्य जन बनाए, ज्ञानी बनाए, अज्ञानी बनाए। इस जगत में वर्ग नहीं हैं, व्यक्ति हैं और एक व्यक्ति बिलकुल अकेला है, दूसरा भी नहीं है कि उसका वर्ग बनाया जा सके। वर्ग बनने के लिए कम से कम दो चाहिए। तो मैं कोई मंडन मिश्र की ज्यादा इज्जत नहीं करता आपसे और न मंडन मिश्र से कम इज्जत करता हूं आपकी। मंडन मिश्र, मंडन मिश्र हैं; आप, आप हैं। दोनों अपनी जगह अदभुत हैं, इसलिए मुझे जो निवेदन करना है, वह मंडन मिश्र होते तो भी यही करता और आप हैं तो भी यही करूंगा। कोई उपाय नहीं है इसमें।
एक फूल खिला है, जैसा मैंने कहा, और रास्ते से मंडन मिश्र निकलें, तो वह फूल कोई दूसरी सुगंध नहीं फेंकता है और गांव का चमार निकला तो कहता, चमार निकला--जरा सामान्य आदमी निकला, तो अपनी सुगंध सिकोड़ लूं। नहीं, फूल अपनी सुगंध फेंकता रहता है। हां, ऐसे फूल हो सकते हैं, प्लास्टिक के बनाए हुए और यांत्रिक कि जो आदमी देख कर सुगंध दें। पर तब प्रभावित करना लक्ष्य होगा। तो उन्होंने कहा कि सामान्य आदमी पर गौर करिए आप, क्योंकि सामान्य आदमी को प्रभावित न कर सकेंगे। मैं प्रभावित करना नहीं चाहता, इसलिए उस भाषा में मत पूछें।
और आप कहते हैं, तत्व-दर्शन की भाषा मत बोलिए। बड़ी मुश्किल बात है। बड़ी मुश्किल बात है, एक संगीतज्ञ से कहिए कि संगीत की भाषा में नहीं, जरा किसी और भाषा में संगीत सुनाइए और एक चित्रकार से कहिए कि रंगों की भाषा में नहीं, जरा किसी और भाषा में चित्र बनाइए, तब हम समझ सकेंगे, एब्सर्ड है।
मैं जो हूं, वही निवेदन कर सकता हूं, संगीतज्ञ हूं तो वीणा बजाऊंगा, चित्रकार हूं तो रंग पोतूंगा। जो मैं कर सकता हूं, वही कर सकता हूं और मेरे भीतर कोई, कई तरह के आदमी नहीं हैं। मल्टी-साइकिक नहीं हूं ,बहुत के आदमी नहीं हूं, एक ही तरह का आदमी हूं। इसलिए बहुत तरह के चेहरे बनाना भी बहुत मुश्किल है, मेरे लिए। एक ही चेहरा है मेरे पास। सामान्य आदमी के सामने खड़ा होता हूं, तब भी वही, और जिसको आप असामान्य कहते हैं, उसके सामने खड़ा होता हूं, तब भी वही।
एक आदमी हिंदुस्तान से कोई चौदह वर्ष पहले चीन गया, बोधिधर्म। जब वह चीन पहुंचा तो वहां के लोग बहुत परेशान हुए, क्योंकि वह दीवाल की तरफ मुंह करके बैठता था, लोगों की तरफ पीठ कर लेता था। जब चीन का सम्राट मिलने आया तो फकीरों ने--दूसरे फकीरों ने कहा कि आप जरा कृपा करें, यह आदत छोड़ें। सम्राट मिलने आ रहे हैं, वह बहुत नाराज हो जाएगा। आप उसकी तरह पीठ करके बैठेंगे। आज दीवाल की तरफ मुंह न चलेगा, सामान्य आदमियों के साथ चल गया, वह बात दूसरी है, सम्राट आ रहा है।
तो बोधिधर्म हंसने लगा। उसने कहा कि मेरे लिए सामान्य आदमी और सम्राट होता, तब तो तुम जो कहते हो, वह ठीक कहते हो। मेरे लिए तो कोई भी आए, मैं दीवाल की तरफ ही मुंह करूंगा। समझाया कि ऐसा क्यों पागलपन पकड़ लिया है कि दीवाल की तरफ मुंह कर रहे हो। तो उसने कहा कि दीवाल की तरह मुंह रखने का कुल कारण इतना ही है कि लोगों की तरफ मैंने बहुत बार मुंह करके देखा, वहां भी दीवाल पाई तो मैंने सोचा कि नाहक क्यों परेशानी करनी है, तो दीवाल की तरफ मुंह फेर लिया।
नहीं, मेरे लिए फर्क नहीं है। और उन्होंने कहा कि बुद्ध भी आए, और विनोबा भी आए। मुझे ज्यादा पता नहीं है, लेकिन मैं मानता हूं कि विनोबा आग्रही थे, प्रचारक थे, प्रोपेगेंडिस्ट थे और अगर आज नहीं हैं तो फस्ट्रेशन के कारण। आग्रह था उनका कि ऐसी शक्ल दे देंगे, समाज को हम ऐसा बना देंगे। सत्याग्रह कहीं होगा आग्रह? आग्रह था। माक्र्स आग्रही हैं, गांधी आग्रही हैं, विनोबा आग्रही हैं। वे एक शक्ल देना चाहते थे, वे व्यक्ति को एक ढांचा देना चाहते थे कि ऐसा व्यक्ति होना चाहिए, एक नैतिकता देना चाहते थे, एक धर्म देना चाहते थे, एक आदत देना चाहते थे।
मैं  आग्रही नहीं हूं। मैं कोई ढांचा आपको देना नहीं चाहता। मैं नहीं कहता, ऐसा आदमी अच्छा आदमी होगा और मैं नहीं कहता कि ऐसा आदमी होना चाहिए, क्योंकि मैं मानता हूं कि दो आदमी एक जैसे हो नहीं सकते। इसलिए ढांचे की बात करने वाले लोग गलती ही कर रहे हैं। आदमी मशीन नहीं है। मैं तो अच्छे आदमी का भी ढांचा नहीं देना चाहता, क्योंकि जब मैं देखता हूं तो मुझे लगता है कि अकेला राम रह जाए, तो दुनिया बहुत बेरौनक हो जाएगी, रावण के बिना बहुत बुरी हो जाएगी। मुझे तो लगता है कि रावण उतना ही जरूरी है जितना राम है, और मुझे लगता है, रामलीला कोई करके देखे रावण के बिना, तो पता चलेगा कि सब गड़बड़ हो गया, रामलीला होती नहीं, आगे नहीं बढ़ती। रामलीला में रावण जरूरी है।
जिसको हम बुरा कहते हैं, मेरे मन में उसकी भी स्वीकृति है। जिसको हम हिंसक कहते हैं, मेरे मन में उसकी भी स्वीकृति है, जिसको हम पापी कहते हैं, मेरे मन में उसकी भी स्वीकृति है। असल में मेरे मन में किसी की अस्वीकृति नहीं है, क्योंकि अस्वीकृति हुई कि प्रभावित करने की चेष्टा शुरू हुई। जैसे ही मुझे लगा कि आप गलत हैं, आपका कुर्ता ऐसा होना चाहिए और आपके बाल ऐसे कटने चाहिए और आपको इस ढंग से बैठना चाहिए, मैंने आपको जैसे अस्वीकार किया कि मैं आपके साथ दर्ुव्यवहार शुरू किया।
दर्ुव्यवहार के बहुत ढंग हैं और गुरु जितना दर्ुव्यवहार करता है, उतना कोई भी नहीं करता है, क्योंकि वह आपको काटता है। वह कहता है कि ढांचे में आओ, ब्रह्मचर्य साधो, अहिंसा साधो, सत्य साधो, यह साधो, यह साधो। थोपता चला जाता है। वह आपको काट-पीट कर जैसे पत्थर काटता हो कोई, ऐसा काटता है। महावीर को भी आग्रह है, काटने को लोगों का। बुद्ध को आग्रह है, गांधी को भी, विनोबा को भी। इसलिए आप मुझे मत गिनें। उन आग्रही लोगों से मेरा कोई लेना-देना नहीं। वे आदमी को एक शक्ल देना चाहते हैं।
मैं मानता हूं कि किसी आदमी को किसी दूसरे आदमी की शक्ल देने का हक नहीं है, यही हिंसा है, यही वायलेंस है। जैसे ही कोई पति कहता है कि पत्नी ऐसी होनी चाहिए, हिंसा शुरू हो गई। बाप कहता है कि बेटा ऐसा होना चाहिए हिंसा शुरू हो गई। जब भी कोई किसी दूसरे से कहता है ऐसे बनो, तब भीतर से हिटलर बोलने लगा। वह चाहे खद्दर के वस्त्र पहने हो, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
नहीं, यह जो आदमी है, यह आदमी टार्चर करने के बहुत कुशल रास्ते खोजता है। जो बहुत नासमझ हैं, वे छुरी छाती पर रख देते हैं, टार्चर करने के लिए। जो ज्यादा समझदार हैं, वे अपनी छाती पर छुरे रख लेते हैं और कहते हैं हम अनशन करके भूखे मर जाएंगे; लेकिन तुम्हें ऐसा होना चाहिए। यह सब छुरेबाजी है। दूसरे की छाती पर रखते हो तो हिंसा, अपनी छाती पर रखते हो तो अहिंसा हो गई। नहीं, असल में जैसे ही मैं दूसरे आदमी को इनकार करता हूं, हिंसा शुरू हो गई। जैसे ही मैं कहता हूं कि दूसरा आदमी ऐसा नहीं, तो मैंने अपने को थोपना शुरू कर दिया।
नहीं, मेरा कोई आग्रह नहीं है। मैं मानता हूं रावण अपनी जगह है और बड़ा जरूरी है और बड़ा प्यारा है, और राम अपनी जगह हैं। और अगर मैं पूजा करने जाऊंगा तो दोनों की करूंगा या दोनों की नहीं करूंगा। लेकिन हम चुनाव करना पसंद करते हैं। हम कहते हैं, स्पष्ट कहिए, राम के पक्ष में हैं कि रावण के। मैं आदमी के पक्ष में हूं। रावण के भी नहीं और राम के भी नहीं। और आदमी एक अनंत घटना है, उसमें अनंत रूट हैं। मुझे गुलाब का फूल भी पसंद है और चमेली का और चंपा का भी और धतूरे का भी। मुझे कैक्टस भी पसंद है, कांटों वाला और मुलायम फूलों वाले पेड़ भी पसंद हैं, लेकिन मैं नहीं कहता कि कैक्टस को कांटे झड़ा देना चाहिए।
मैं परमात्मा का यह जगत जो जैसा है, इसको समग्रता से स्वीकार कर रहा हूं, न बुद्ध स्वीकार करते हैं, न महावीर स्वीकार करते हैं, न गांधी स्वीकार करते हैं, न विनोबा स्वीकार करते हैं। यह जो अस्वीकृति है, वह प्रभावित करने की, इनफ्लुएंस करने की, प्रापेगेट करने की चिंता आ जाती है उसमें कि आदमी को बदलो, संगठन बनाओ, पंथ बनाओ, समूह बनाओ, घेरा बनाओ, बदलो आदमी को। आदमी को ऐसा बदलो, जैसा हम चाहते हैं। लेकिन आप कौन हैं, आपको किसने कहा कि आदमी बदलो? आप हैं कौन?
आप भी एक आदमी हैं, थोड़ा बोल लेते हैं ढंग से या थोड़े कपड़े छोड़ कर नंगे खड़े हो जाते हैं या थोड़ा आपको कोई फेड पकड़ गया है कि चरखा चलाते हैं, कि बीड़ी नहीं पीते कि पान नहीं खाते, आपकी मौज है। लेकिन जब वह दूसरा आदमी बीड़ी पी रहा है, जब नहीं बीड़ी पीने वाला उसको पुलिस की आंखों से देखता है, तब हिंसा शुरू हो जाती है। कौन हकदार है? कोई हकदार नहीं है किसी पर थोपने का अपने को। तो इसलिए मुझे मत गिनें।
मुझे न प्रचार करना है, न कोई सर्वोदय लाना है, और न कोई समाज का आदर्श बदलना है, न एक व्यक्ति कोई ऐसा बनाना है, वैसा बनाना है, ऐसा नहीं। तो जब मैं कुछ कह रहा हूं, तो वह कहना मेरा आनंद होता है। उससे ज्यादा नहीं, उससे ज्यादा कोई प्रयोजन नहीं। हां, अगर मुझे लगता है कि बीड़ी पीने में मैंने बहुत दुख पाया, तो मैं निवेदन कर दूंगा कि बीड़ी पीकर मैंने बहुत दुख पाया, लेकिन तब भी मैं आपको कंडेमनेशन से नहीं देख सकता कि आप बीड़ी पी रहे हैं, क्योंकि कोई आदमी बीड़ी पीकर सुख पा रहा हो, इसकी पूरी संभावना है। मैंने दुख पाया, वह मैं कह देता हूं। लेकिन मेरा दुख सबका दुख नहीं है और मेरा सुख सबका सुख नहीं है।
एक आदमी का नरक, दूसरे का स्वर्ग हो सकता है। एक आदमी का स्वर्ग, दूसरे के लिए नरक हो सकता है। यह भिन्नता की मेरे मन में स्वीकृति है। इसलिए अभी मैं ट्रेन में सवार हुआ। जिस कंपार्टमेंट में मैं था--मैं था और एक मित्र और सवार थे। वह मुझे देख कर एकदम घबड़ा गए, जैसा कि महात्माओं को देख कर घबड़ा जाना चाहिए। एकदम उन्होंने नमस्कार किया और कहा, महात्मा जी! लेकिन मुझे ऐसा लगा कि मेरा आना उन्हें अच्छा नहीं लगा। असल में महात्मा का आना, किसी को भी, जिंदगी में अच्छा नहीं लगता, क्योंकि महात्मा बिना गड़बड़ किए नहीं रह सकता, नहीं तो उसका महात्मापन खो जाए। मैंने उनके कहा, ऐसा लगता है, मेरे आने से आप सुखी नहीं हुए। मैं दूसरे कंपार्टमेंट में चला जाऊं?
उन्होंने कहा, नहीं-नहीं, बड़ा आनंद हुआ आपके आने पर। मैंने कहा, आप जो कह रहे हैं, वह कुछ और कह रहा है, आपका चेहरा जो कह रहा है, वह कुछ और है। उन्होंने कहा कि क्या आप मेरे भीतर की बात पकड़ते हैं? मैंने कहा, भीतर की बात नहीं पकड़ता। आपका चेहरा इनकार कर रहा है। तो उन्होंने कहा, आपने बात ही उठा दी, तो मैं आपसे कह ही दूं कि मैं सफर मैं चलता हूं, तो मुझे शराब पीने की आदत है। मैंने शराब के लिए आर्डर दे रखा है। सोडा आ गया है, शराब आ रही है और आपको देख कर मैं डर गया और मैंने कहा अब मुश्किल हो गई। अब न शराब पी सकता हूं, न आमलेट खा सकता हूं, अब बड़ी मुश्किल हो गई है।
मैंने कहा, लेकिन क्या आप मुझे शराब पिलाएंगे? उन्होंने कहा, नहीं-नहीं, मैं क्यों पिलाऊंगा? मैंने कहा, आप पीएंगे तो मैं क्यों रोकूंगा? अगर आप मेरे ऊपर होकर जबरदस्ती शराब पिलाएं, जितनी हिंसा यह होगी, उससे कम हिंसा यह न होगी कि मैं आपको शराब न पीने दूं। ये दोनों बराबर हिंसाएं हैं। आप मजे से पीएं। नहीं, उन्होंने कहा कि संत के रहते हुए मैं कैसे पीऊंगा। मैंने कहा, कैसे पागल हो गए हैं। शराब पीनी है कि एक संत को पीना है? मैं दुष्ट आदमी नहीं हूं। अगर आपको फिर भी तकलीफ हो तो मैं चला जाऊं। दूसरी जगह खोज लूं।
उन्होंने कहा, नहीं-नहीं, आप बैठिए। वे डरते-डरते शराब पीए और बाद में उन्होंने मुझसे एक बात कही, जो हिंदुस्तान भर के सब संतों को, जिंदा मुर्दों को, सबको बता देनी है। उन्होंने मुझसे कहा कि आप संत जैसे दिखाई पड़ने वाले पहले आदमी हैं, जो मुझे भला आदमी मालूम पड़ा।
असल में संत भले आदमी हो ही नहीं सकते हैं।
अधिकतर संत सैडिस्ट होते हैं या मैसोचिस्ट होते हैं। या तो वे दूसरे को सताते हैं या खुद को सताते हैं और जो खुद को सताने में कुशल होते हैं, वे दूसरे को सताने का अधिकार पा जाते हैं। नहीं, मेरा उनसे कुछ लेना-देना नहीं है। विनोबा वगैरह को मत लाएं। मेरे हिसाब से इन सबकी तो बेचारों की मानसिक चिकित्सा होनी चाहिए। मेरे हिसाब से ये कहीं जाते नहीं। ये बहुत अजीब तरह की विकृतियों में घिरे रहते हैं लेकिन यह मैं कह रहा हूं। ऐसे विनोबा हैं, ऐसा आपको मानने को नहीं कह रहा हूं। ऐसा मुझे दिखाई पड़ता है। मेरा दिखाई पड़ना गलत हो सकता है।
मेरे हिसाब से मनुष्य-जाति को, जिन लोगों ने अब तक ढालने की कोशिश की है, उन ढालने वाले लोगों में, नब्बे प्रतिशत लोग मानसिक रूप से रुग्ण थे, इसलिए यह मनुष्यता पैदा हुई, जो मानसिक रूप से रुग्ण है। और यह मनुष्यता तो आई है, पैदा की गई है। इसमें महावीर का हाथ है, बुद्ध का हाथ है, कृष्ण का हाथ है, क्राइस्ट का हाथ है, मुहम्मद का हाथ है। इन सारे लोगों ने, इन सारे शिक्षकों ने मनुष्यता को ढालने की कोशिश की और यह मनुष्यता पैदा हुई है। यह मनुष्यता बिलकुल पागल मालूम पड़ती है। इस पागल मनुष्यता में बुद्ध को बचाया नहीं जा सकता, महावीर को हटाया नहीं जा सकता। उनका हाथ जरूरी है और जब तक हम सीधे सत्यों को देखने की हिम्मत न जुटाएं, बड़ी मुश्किल होती है।
असल में अच्छे आदमी, अनेक लोगों को बुरा बनाने का कारण बनते हैं।
अच्छे बाप के घर में, अच्छा बेटा पैदा होना बहुत मुश्किल हो जाता है। गांधी के बेटों से पूछो, हरिदास से पूछो, महात्मा गांधी के बेटे हरिदास से पूछो कि तुझे क्या हो गया है, पागल? इतना अच्छा बाप मिला और तुझे क्या हो गया कि तू मांस खाए कि तू शराब पीए कि तू मुसलमान हो जाए, तुझे क्या हो गया? इसमें गांधी का हाथ था। इसमें गांधी का जो अति टार्चर करने वाला व्यक्तित्व है, जो कहता है कि नहीं, यह मत खाना। इसकी अंतिम परिणति यही होने वाली है कि जो नहीं खाना है, वह खाना है। यह मत पीना, वह अंतिम परिणति वही होने वाली है।
अगर कभी भी दुनिया में कहीं लेखा-जोखा होता होगा, तो हरिदास के चक्कर में गांधी फंसेंगे--अगर कहीं लेखा-जोखा होता है तो। जब बाप थोपता है अपने को, तो बेटे को बगावत के लिए तैयार करता है और जब संत थोपते हैं अपने को समाज के ऊपर, तो समाज को विकृत करते हैं। नहीं, मैं थोपने वाले लोगों के पक्ष में नहीं हूं। कम से कम मैं किसी तरह के थोपने के सहयोग में खड़ा नहीं हो सकता। मैं इन क्रिमिनल्स के साथ खड़ा होने को राजी नहीं हूं। मेरे लिए जो अपराधी है, वे हैं।
आपसे नहीं कहता कि आप अपराधी मान लेना। फिर थोपना हो जाएगा। मैं सिर्फ निवेदन करता हूं कि मुझे ऐसा लगता है। अब मजबूरी है। मेरी आंखें खराब हो सकती हैं तो मुझे ऐसा दिखाई पड़ सकता है, लेकिन जैसा दिखाई  पड़ता है, वही मैं कह सकता हूं। नहीं, कोई योजना नहीं है मेरे पास। किसी आदमी को ढालने के लिए, कोई ढांचा नहीं है मेरे पास।
मेरी तो समझ यह है कि जब हम सब सांचे तोड़ देंगे, तब ठीक-ठीक मनुष्यता विकसित हो सकेगी। तब एक-एक आदमी वही हो सकेगा, जो होने को पैदा हुआ है। अभी हर आदमी इधर-उधर डैविएट कर जाता है। जब कि वह होने को पैदा ही नहीं हुआ। हम सब मिल कर उसको, वह होने में लगा देते हैं, जो आदमी जो होने को नहीं पैदा हुआ है।
एक मित्र कहते हैं कि आप दूसरे की निंदा न करें, और कोई बात करें।
मैं किसी की निंदा कर ही नहीं रहा। अपनी बात कह रहा हूं। उस अपनी ही बात में, वे भी आ जाते हैं। उसमें मेरा कसूर नहीं है और हम निंदा और प्रशंसा के सिवाय कुछ और सोच ही नहीं सकते। सत्य की बात सोच ही नहीं सकते। मैं सिर्फ तथ्य, जो मुझे दिखाई पड़ रहा है, उसे कहता हूं। आप उसे निंदा समझ लेते हैं, वह आपकी व्याख्या है, मेरी नहीं है। मैं कहता हूं कि गांधी रुग्ण व्यक्तित्व हैं, मेरे लिए एक फैक्ट है, वह मैं कह रहा हूं आप कहते हैं कि निंदा हो गई, क्योंकि मन में कोई प्रशंसा बैठी होगी कि महात्मा हैं, रुग्ण व्यक्तित्व कैसे हो सकते हैं! निंदा हो गई। यह आपकी व्याख्या हुई। यह आपकी तकलीफ है। इससे मेरा कोई लेना-देना नहीं है, इससे मेरा कोई संबंध नहीं है। मुझे दिखता है, वह मैं कहता हूं। आपके मूल्यों में भेद पड़ेगा, तकलीफ होगी, बेचैनी होगी, जिसको महात्मा कहा, वह बीमार कैसे हैं?
हमको खयाल है कि महात्मा बीमार होते ही नहीं, इसलिए हम खुद तकलीफ में पड़ जाते हैं। मैं किसी की निंदा नहीं करता, न किसी की प्रशंसा करता, न निंदा से कोई फायदा है, न प्रशंसा से। जो जैसा मुझे दिखाई पड़ता है, वैसा मैं कहता हूं। वह वैसा है ही, यह भी नहीं कहता। मुझे दिखाई पड़ता है, वह मैं कहता हूं।
एक मित्र ने कहा है कि आप जो बातें कहते हैं, उससे युवा पीढ़ी पर उलटा प्रभाव पड़ेगा।
जब मैं सीधे ही प्रभाव की फिक्र नहीं करता तो उलटे प्रभाव की मैं कैसे फिक्र करूंगा? मैं प्रभाव की ही फिक्र नहीं करता। और उलटा क्या है, सीधा क्या है? पुरानी पीढ़ी जिसे मानती है, वह सीधा है और नई पीढ़ी जिसे वह मानती है, वह उलटा है? अगर आप शीर्षासन के बल खड़े हो जाएं तो जितने लोग सीधे खड़े हैं, सब उलटे खड़े हैं? उलटा कौन है? और युवा पीढ़ी आपको सीधा करने की कोशिश से ही तो उलटी नहीं हुई जा रही है, यह कभी सोचा है आपने? आपके सीधे करने की कोशिश इतनी खतरनाक है कि कोई भी उलटा हो जाएगा। पहले नहीं होता था, इसका कारण था, क्योंकि जाल आपका बहुत सख्त था, बहुत मजबूत था। गुलामी बहुत गहरी थी और जंजीरें आपके पास बहुत ताकतवर थीं। और हर बच्चे को आप युवा होने से ही रोक देते थे। बाल-विवाह बुनियादी तरकीब थी। उसकी वजह से कोई युवा नहीं हो पाता था। आठ साल या दस साल के लड़के की शादी कर दी, वह युवा कब हो पाएगा? युवा होने के पहले वह बाप हो जाएगा। बाप कभी युवा नहीं होता। बूढ़ा हो गया है।
पुरानी दुनिया में युवा थे ही नहीं। वे सौ वर्ष में पैदा हुए हैं, इसलिए आपकी पुरानी व्यवस्था में युवक था ही नहीं और युवक बिगड़ जाएगा, यह डर बाप को रहता है और उसके बाप को भी उसके संबंध में यही डर था। यह जो युवक है, जिसको आप सोच रहे हैं कि बिगड़ जाएगा, अपने बेटे के संबंध में, इसी डर में जीएगा। यह डर सनातन है। मैंने दुनिया की पुरानी से पुरानी किताब खोजने की कोशिश की। मुझे ऐसी किताब नहीं मिल सकी, जो यह कहती हो कि आज के लोग अच्छे हैं। सब किताबें कहती हैं, पहले के लोग अच्छे थे। छह हजार साल पुरानी किताब कहती है चीन में। वह कहती है, पहले के लोग बहुत अच्छे थे। आजकल की पीढ़ी बिलकुल बिगड़ गई है।
इजिप्त में पत्थर मिला है, बेबीलोन में पत्थर मिला है। वे सब कहते हैं कि पहले के लोग अच्छे थे, आज की पीढ़ी, नई पीढ़ी बिलकुल बिगड़ गई है। ये पहले के लोग अच्छे कब थे? ये कभी थे? ये कभी भी नहीं थे। कभी भी पहुंच जाओ, नई पीढ़ी बिगड़ी हुई मालूम पड़ेगी। उसकी वजह है। बाप बूढ़ा हो गया है और लड़का जवान है। दोनों एक साथ बूढ़े नहीं हो सकते, उपाय ही नहीं है। अगर कोई उपाय होता कि बाप और बेटे एक साथ बूढ़े हो जाते तो सब ठीक हो जाता।
और ध्यान रहे, नई पीढ़ी बिगड़ती नहीं है। नई पीढ़ी के पास जो जीवन की धारा है। बाप के पास जीवन की धारा सूख गई है। और जब जीवन की धारा सूखती है तो क्रोध पैदा होती है और जब क्रोध पैदा होता है तो निंदा पैदा होती है, दुश्मनी पैदा होती है, लड़ाई पैदा होती है। बेटा वही कर रहा है, जो बाप आज भी करना चाहेगा, लेकिन नहीं कर पा रहा है, तो वह एक रस ले रहा है। रस ले रहा है कि सब बिगड़ गया, सब उलटा हो गया, सब खराब हो गया और मजा यह है कि सब यही, वह भी करता रहा था और उसके बाप भी यही कर रहे थे।
नहीं, कहीं कुछ नहीं बिगड़ गया है। आज जो हमें यह सवाल इतना तीव्र मालूम पड़ता है। किन-किन बातों में आप कहते हैं कि नई पीढ़ी बिगड़ गई है? पुरानी पीढ़ी वियतनाम में बम गिरा रही है और नई पीढ़ी वियतनाम में बम न गिरे, इसलिए लड़ रही है। उलटा कौन है? पुरानी पीढ़ी का द्रोण एकलव्य का अंगूठा काट रहा है, नई पीढ़ी का एकलव्य इनकार कर रहा है कि गुरुजी, बहुत हो चुका है, अब अंगूठे न काटने देंगे। उलटा कौन है? कभी सोचा है कि सारा का सारा पूरा हमारा अतीत? इसमें उलटा है कौन? लेकिन अपने को सीधा मान लेने की प्रवृत्ति से, दूसरे को उलटा मान लेना बहुत आसान है। नई पीढ़ी बहुत कमजोर होगी, आपके नीचे होगी। इस वक्त ताकतवर हो गई है, इसके पहले कभी ताकतवर न थी, क्योंकि एक गांव में बेटा अकेला था और बाप सदा इकट्ठे थे। तो सब बाप मिल कर बेटे की निंदा करें, तो वह खड़ा न हो सकता था। और बेटे इकट्ठे मिल कर बाप को कहीं फंसा नहीं पाते थे, क्योंकि बेटे इकट्ठे होने का कोई उपाय न था। एक-एक बेटा अपने बाप से सदा कमजोर था।
अब हालत बदल गई है। एक-एक यूनिवर्सिटी में बीस-बीस हजार विद्यार्थी इकट्ठे हो गए हैं। बेटे इकट्ठे हो गए हैं, बाप अलग-अलग पड़ गए हैं। बीस हजार बाप कहीं भी इकट्ठे नहीं हैं, इसलिए दबाना मुश्किल पड़ रहा है। और कोई मामला नहीं है। बीस हजार बेटे बदला ले रहे हैं। दस-पच्चीस हजार साल का बदला है, स्वाभाविक है। काफी सताया है उनको, वे बदला ले रहे हैं। इसमें उलटा वगैरह कुछ भी नहीं हो गया है।
मैं न तो सीधे प्रभाव को उत्सुक हूं और न तो उलटे प्रभाव को उत्सुक हूं। और उलटे प्रभाव को कैसे रोकिएगा? गांधीजी ने आत्मकथा लिखी, तो कई लोगों ने पत्र लिखा कि आपकी आत्मकथा पढ़ कर हममें कामोत्तेजना पैदा हो गई है। गांधीजी की आत्मकथा ने आग लगाई--कई लोगों में कामोत्तेजना पैदा हो गई? असल में जिसमें कामोत्तेजना है, वह किसी भी वजह से पैदा होगी और उभरेगी। असल में गांधीजी की आत्मकथा न मिलेगी तो भी कोई दूसरा बहाना खोजेगी। कोई कामोत्तेजना गांधीजी की आत्मकथा के लिए ठहरी नहीं थी, पहले दुनिया में। पहले भी उठती थी।
अभी हम लड़कों को कह रहे हैं कि सिनेमा देख कर बिगड़े जा रहे हो। तो पहले के लड़के क्या देख कर बिगड़े थे? सिनेमा देख कर बिगड़े थे? सिनेमा ने बिगाड़ दिया? तो खजुराहो किसने बनाया? आज के लड़कों ने? तो सिनेमा की नंगी तस्वीरें बिगाड़ रही हैं? तो कालिदास के ग्रंथ देखें। जितना नंगा वर्णन उनमें है, उतना आज की फिल्मों में कहीं भी नहीं है। कालिदास जंगल में जाएं, तो फल नहीं दिखाई पड़ते हैं, स्त्रियों के स्तन ही लटके हुई दिखाई पड़ते हैं। अभी तो मैंने कोई फिल्म नहीं देखी, जिसमें ऐसा हो कि फलों की जगह स्त्रियों के स्तन लटके हुए हों। तो कालिदास नई पीढ़ी के आदमी हैं? आदमी कौन उलटा है?
लेकिन हम जीवन की सहजताओं को दबाने के लिए आतुर हैं कि जीवन की जो सहजता है, स्वाभाविकता है, उसको दबा दो, सप्रेस कर दो। उसको मार डालो बिलकुल, गर्दन घोंट दो, तो बगावत होगी। यह जो सारी दुनिया में बगावत हो रही है। बूढ़ी पीढ़ी सेक्स सप्रेशन कर रही थी, नई पीढ़ी नहीं दबा रही है, काम को। और आपको पता नहीं, पहली दफे स्टार्वेशन पैदा हुआ, पहले न था। लड़के में, लड़की में सेक्स मैच्योरिटी आती, उसके पहले हम विवाह कर देते थे। भूख लगती, थाली लगा देते थे।
अब पंद्रह साल में सेक्स मैच्योरिटी आ जाती है, बल्कि और जल्दी। क्योंकि जितनी संपन्नता बढ़ रही है, मैच्योरिटी जल्दी आ रही है। हिंदुस्तान में चौदह साल की लड़कियां होती हैं मैच्योर। और अमेरिका मैं तेरह साल में होती थीं, अब बारह साल में हो रही हैं, दस साल में हो रही हैं। वैज्ञानिक कहते हैं नौ साल में अमेरिका की लड़की मैच्योर हो जाएगी, क्योंकि इतना पौष्टिक भोजन मिल रहा है कि मैच्योरिटी जल्दी आ जाएगी। अब नौ साल या दस साल की लड़की मैच्योर हो जाएगी और पच्चीस साल तक आप उसको स्टार्व करेंगे, रोकेंगे। लड़का मैच्योर हो जाएगा चौदह साल में और उसको चौबीस-पच्चीस साल रोकेंगे कि पढ़ो, इंजीनियर बनो, डाक्टर बनो, अभी स्त्री से बचना। और ये दस साल सबसे ज्यादा पोटेंशियल है। वीर्य की जितनी शक्ति अभी है, इसके बाद फिर कभी न होगी। अब उसको आप मुसीबत में डाल दिए हैं। उसकी प्रकृति इनकार कर रही है, उसकी बायोलाजी इनकार कर रही है और आप कह रहे हैं कि बेटे, बस, ब्रह्मचर्य ही परम-जीवन है, यह तख्ती लगा कर घर में बैठो और आंखें बंद रखो और स्त्री वगैरह को मत देखना। लेकिन स्त्री को देखने से कहां बचोगे, कैसे बचोगे और आंख बंद करने से स्त्री जितनी सुंदर दिखाई पड़ती है खुली आंख से कभी दिखाई नहीं पड़ती है।
जीवन के तथ्यों को उघाड़ कर रखने से ज्यादा मेरा कोई काम नहीं है। मुझे कोई प्रयोजन नहीं है क्या आदर्श है, कौन बनेगा, कौन बिगड़ेगा? मैं यह मानता हूं कि अगर सत्य बिगाड़ता होगा, तो मेरी बातें भी बिगाड़ देंगी और अगर सत्य बिगाड़ता हो, तो मेरी समझ है कि सत्य को साथ बिगड़ना अच्छा है, असत्य के साथ सुधरने से। अगर सत्य बिगाड़ता है तो बिगाड़ देगा। और आपने असत्य पांच-दस हजार साल से थोप रखा है। सुधारा नहीं उसने, कुछ आपको। तब एक सत्य को मौका दें कि जिंदगी के सब सत्य सीधे और साफ हो जाएं और उनको प्रकट होने दें, उनको छिपाएं मत। देखें, असत्य को बहुत मौका दिया है। अब सत्य को मौका देकर देख लें कि क्या सत्य कर सकता है। मुझे नहीं लगता है कि सत्य बिगाड़ेगा और अगर सत्य भी बिगाड़ता हो दुनिया में, तब फिर मानना चाहिए, सुधरने का कोई उपाय नहीं है। फिर बिगड़ना होना ही हमारा अस्तित्व है।
एक अंतिम बात और फिर मैं अपनी बात पूरी करूं। एक मित्र ने पूछा है कि चरित्र और नैतिकता नई पीढ़ी में, इस संबंध में कुछ कहें।
जो मैंने अभी कहा, वह आप खयाल में लिए होंगे। चरित्र पुरानी दुनिया में था ही नहीं, नैतिकता थी, चरित्र नहीं था। नैतिकता का मतलब, समाज ने जो नियम तय किए थे, आदमी उनमें बंध कर जीने की कोशिश कर रहा था। चरित्र का मतलब बहुत दूसरा होता है। चरित्र का और कलेक्टर का मतलब होता है समाज नहीं, निर्णायक मैं हूं। और जो आदमी अपना निर्णायक नहीं हो, कभी करेक्टर का आदमी नहीं हो सकता। समाज तय करता था कि ऐसा करो, यह है नीति, इसके अनुसार चलो, अन्यथा नरक है। नहीं तो स्वर्ग का प्रलोभन था। नरक का डर था कि ऐसा करो।
तो नीति समाज थोपता है और चरित्र व्यक्तिगत उपलब्धि है।
और चरित्र से बड़ी कोई नैतिकता नहीं। लेकिन हमने व्यक्ति को कभी स्वीकार नहीं किया। हम व्यक्ति को इनकार करते हैं। हम सिद्धांत को स्वीकार करते हैं। हम कहते हैं सिद्धांत सदा ठीक, और गड़बड़ होती हो, तो व्यक्ति गलत, सिद्धांत ठीक। मैं आपसे कहता हूं चरित्रवान समाज, चरित्रवान युग कहेगा, व्यक्ति सदा ठीक और अगर सिद्धांत से गड़बड़ी पैदा होती है तो सिद्धांत में कोई भूल है।
एक छोटी सी कहानी आपको कहूं। सुना है मैंने गर्मी का दिन है और कोई राजा अपनी कोठी में बैठा है, आराम से। नीचे आवाज सुनाई पड़ती है। कोई पंखे बेचता है और चिल्ला रहा है कि अनूठे पंखे हैं, सौ रुपये दाम में। राजा ने कहा, पंखा और सौ रुपये दाम। उसने खिड़की से झांक कर देखा, तो बहुत हैरान हुआ। पंखे बिलकुल साधारण थे, जैसे दो पैसे में मिलते हैं। पंखे वाले को बुलाया, कि या तो पागल है या हद्द चालबाज है। पंखे वाला ऊपर आया है और उससे पूछो कि ये पंखे और सौ रुपये? क्या खूबी? उसने कहा कि सौ साल की गारंटी है, सौ साल तक पंखा बिगड़ेगा नहीं।
राजा ने कहा, सौ साल इस पंखे की गारंटी है! यह सात दिन जाए तो बहुत है। उसने कहा, महाराज, प्रयोग करिए और देखिए। मैं भागा नहीं जा रहा हूं। रोज इसी रास्ते से गुजरता हूं। यह रहा पंखा, आप रखिए। सौ रुपये दे दिए गए। पंखा तो दूसरे ही दिन टूट गया। राजा ने सोचा, अब वह लौटेगा नहीं। लेकिन दूसरे दिन ठीक खिड़की के नीचे आवाज लगाई। कहा कि पंखे खरीदने हैं?
राजा ने उसे ऊपर बुलाया और कहा, कि अनूठा पंखा टूट गया। उसने एक दफा पंखे को देखा और फिर राजा को गौर से देखा और राजा से कहा कि मालूम होता है, आपको पंखा झलना नहीं आता। राजा ने कहा, पंखा झलना नहीं आता? क्या मजाक कर रहे हो? उसने कहा, कैसे झला था, जरा बताइए भी? राजा ने पंखा झल कर बताया। उसने कहा, बिलकुल गलत, बिलकुल गलत। यह कोई ढंग है, पंखा टूटेगा नहीं तो क्या होगा? यह तो आप बच गए, यही बहुत है, नहीं तो आप भी टूट जाते। गलत है यह ढंग। राजा ने कहा, ठीक ढंग सुनें? पंखा, उसने कहा, हाथ में ठीक से पकड़िए, सम्हाल कर और सिर को हिलाइए। पंखा--सौ साल के लिए गारंटी है।
सिद्धांत तुम्हारे पक्के हैं। हम कहते हैं, सिद्धांत कभी गलत नहीं हैं, गलत है तो आदमी है। अगर ठीक होना है तो आदमी ठीक हो। सिद्धांत गारंटी है, सनातन है। सौ साल नहीं, सनातन है। हमारे सब सिद्धांत बुनियादी रूप से गलत हैं। जिसको हम नैतिकता कहते हैं, वह बुनियादी रूप से गलत है और पाखंड के अतिरिक्त कुछ भी पैदा नहीं करती, करेगी। क्योंकि वह तथ्यों पर आधारित नहीं है। उस तथ्यों पर खड़ा करना पड़ेगा और जब तथ्यों पर खड़ी होती है तो हमारे प्राण निकलते हैं, क्योंकि हम तकलीफ मालूम होती है, क्योंकि हमारा सारा का सारा ढांचा गिरता है।
जैसे, उदाहरण के लिए एक-दो बात मैं आपसे कहूं। अधिकतम नीति, नब्बे प्रतिशत नीति सेक्स-सेंटर्ड है। एक तो पहली गलती यही है। बुनियादी रूप से गलती है, क्योंकि जो नीति नब्बे प्रतिशत यौन-केंद्रित हो, वह उस कौम ने बनाई होगी, जो यौन से आकर्षित है और विक्षिप्त है। अगर हम किसी आदमी को कहें कि वह चरित्रवान है, तो जो पहला खयाल आता है, वह खयाल आता है कि किसी स्त्री से वह बंधा हुआ न हो। यह खयाल नहीं कि वह आदमी वचन का पक्का नहीं है। यह खयाल नहीं आता कि वह आदमी टैक्स ठीक से नहीं चुकाता। यह खयाल नहीं आता है कि वह आदमी जेब काटता है। खयाल आता है चरित्रहीन, किसी स्त्री से बंधा हुआ है।
जिस मुल्क की दरिद्रता और जिस मुल्क की नैतिकता, केवल स्त्री-पुरुषों के यौन संबंधों पर केंद्रित है, वह सेक्स आब्सेस्ड है, वह कौम यौन विक्षिप्त है। उसकी सारी नीति वहीं खड़ी है, बस उतनी बात और सब तुल जाता है। सारा मामला इतना है, उससे ज्यादा कोई मामला नहीं है। इसलिए हम दूसरी दिशाओं में चरित्रहीन होने में सुविधा पा जाते हैं, बस एक मामले में पक्के रहो, पक्का पत्नीव्रती रहे, कोई पति। पक्की पत्नी, पतिव्रता रहे, बाकी सब चलेगा। इतना काफी है। बाकी जिंदगी जैसे इतने पर पूरी हो गई।
और सच्चाई यह है कि यौन संबंध दो व्यक्तियों के बीच निजी संबंध है। सामाजिक नैतिकता का उससे कोई संबंध नहीं है। असल में समाज की यह ज्यादती है कि दो व्यक्तियों के निजी संबंधों में दखल-अंदाजी करे, बीच-बीच में बार-बार झांक कर देखे। हम सब जगह की-होल से झांक रहे हैं! हमारा पूरा समाज हरेक के बाथरूम में छेद करके देखना चाहता है कि भीतर क्या हो रहा है! हम सब एक-दूसरे के भीतर पता लगा लेना चाहते हैं कि कहां क्या हो रहा है, कौन-कौन चरित्रहीन है।
यह चरित्रहीनता है, यह पता लगाना कि चरित्र नहीं है यह चरित्र की बात नहीं है। लेकिन तथ्य आधारित न होने से कठिनाई हो गई है। तथ्य आधारित नहीं है बिलकुल।
भौतिकवाद की निपट हमने निंदा की है और हमारी नीति हमने ऐसी बनाई है कि उसमें भौतिकता के विकास के लिए गुंजाइश नहीं है। और जिंदगी भौतिकता है। जिंदगी तो नब्बे प्रतिशत, निन्यानबे प्रतिशत भौतिकता है, जिंदगी तो धन है, मकान है, रोटी है, कपड़ा है। और हमारी नीति इनकी बात नहीं करती! क्योंकि यह तो मैटीरियलिस्टिक कंसीडरेशन है! मोक्ष, आत्मा, ब्रह्म, इनकी हम कंसीडरेशन करते हैं, जो कहीं नहीं हैं! जहां हमें जीना है चौबीस घंटे, उसका कोई कंसीडरेशन नहीं है। जहां हमें होना है, कभी पता नहीं, हो पाए या न। तो उसका पूरा कंसीडरेशन है। तो ऐसा मामला हो गया है कि सोचते हैं आकाश की, चलते हैं पृथ्वी पर। रोज टकरा जाते हैं। मुश्किल खड़ी हो जाती है। और इसलिए हम सारी दुनिया को गाली देते रहते हैं कि सब भौतिकवादी हैं और हम जैसा भौतिकवादी खोजना बहुत मुश्किल है। बहुत मुश्किल है, हमारी जैसी पकड़ भौतिकता की और किसी की नहीं है। लेकिन हमें सुविधा है, क्योंकि हम मंदिर में घंटा हिला आते हैं, हम आध्यात्मिक हैं, गीता पढ़ लेते हैं, जनेऊ बांधे हुए हैं।
जब जनेऊ भी भौतिक है, घंटा भी भौतिक है, और गीता भी भौतिक है, और मंदिर भी भौतिक है। इसमें कुछ अध्यात्म नहीं है। जिस कौम ने अध्यात्म पर नीति को खड़ा करने की कोशिश की उसने सारे जीवन को अनैतिक बना दिया, क्योंकि जीवन के तथ्य हम न खोज पाए। वह तथ्य हमें पता ही नहीं हैं। हम खोजने से भी डरने लगे। धन की भी जरूरत है। अगर हम धन की जरूरत सीधी-सीधी स्वीकार कर लेते तो मुल्क कम चोर होता। जिन मुल्कों ने धन की जरूरत सीधी-सीधी स्वीकार की है, वहां आदमी कम चोर हैं। हमने कहा, धन? सब माया है। और वह महात्मा कह रहा है।
अभी मैं एक महात्मा के पास गया। वह समझा रहा है लोगों को कि धन इत्यादि सब माया है। स्वर्ण से बचो, कामिनी से बचो और लोग पैसे चढ़ा रहे हैं! वह बीच में भाषण बंद करके, पैसे सब नीचे सरका लेता है! फिर वह कहता है, सब माया है! कामिनी-कांचन इनसे बचो! फिर कोई उसको रुपया चढ़ाता है, वह जल्दी से उसको नीचे सरका देता है, फिर बैठ जाता है! सारे महात्मा यही कर रहे हैं, करेंगे। मैं नहीं कहता कि पैसा सरकाना गलत है। बिलकुल ठीक सरका रहे हैं, लेकिन वे जो कह रहे हैं, वह गलत है। वह मत कहिए। पैसा मजे से सरकाइए, कौन नहीं कहता है? पैसा जरूरत है। मैं नहीं कहता कि साधु भी बिना पैसे के जी सकता है।
जब मैं बंबई था, स्वामी नारायण संप्रदाय के दो साधु मुझसे मिलने आए, ध्यान के संबंध में समझने आए। तो मैंने कहा, संन्यासी कैसे हो गए, जब ध्यान को समझा ही नहीं? उन्होंने कहा, संन्यासी तो हो गए। मैंने कहा, संन्यासी हो कैसे सकते हो, बिना ध्यान में गए? उन्होंने कहा, नहीं, अब जानना चाहते हैं। मैंने कहा, पहले कपड़े उतार कर आओ। झूठे हैं कपड़े। कल सुबह ध्यान में हम बैठेंगे, उसमें आ जाओ।
उन्होंने कहा, बड?ी मुश्किल होगी। क्या मुश्किल होगी? उन्होंने कहा, एक तीसरा आदमी बाहर बिठा रखा है। उसको अंदर लाए और कहा कि हम एक दिक्कत है कि पैसा हम अपने पास नहीं रख सकते हैं। यह जो तीसरा आदमी है, पैसा रखता है। यह टैक्सी में हमारे साथ आए, पैसा चुकाए, तब हम आ सकते हैं। अगर इसको समय हो कल, तो ही हम आ सकते हैं, नहीं तो आना बहुत मुश्किल हैं। मैंने कहा, घबड़ाओ मत। दो के आने से काम चल जाएगा,जहां तीन आ रहे हैं। और पैसा तुम अपने खीसे में क्यों नहीं रखते? उन्होंने कहा, हम तो रख ही नहीं सकते। मैंने कहा, और दूसरे के खीसे के पैसे का उपयोग कर सकते हो? तो तुम स्वर्ग जाओगे और यह बिचारा नरक जाएगा, क्योंकि तुमको ध्यान सिखलाने टैक्सी में बिठा कर इसने पहुंचाया। यह खीसे में पैसा रखे हुए तो तुम्हारे पैसे रखे हुए है?
बेईमान हो गया है मुल्क, क्योंकि हमने जीवन के तथ्य को स्वीकार नहीं किया। धन की जरूरत है। धन समाज का खून है। अगर इनकार करेंगे तो बच न पाएंगे। इनकार करेंगे तो हम पाखंडी हो जाएंगे, तब हमको पीछे से दरवाजे खोलने पड़ेंगे। उनको स्वीकार करने की जरूरत है। हम इतने बेईमान न होते, अगर हम धन को स्वीकार कर लेते। और इतने गरीब भी न होते अगर हम धन को स्वीकार कर लेते, लेकिन हमने स्वीकार नहीं किया। अगर हम स्त्री को स्वीकार कर लेते तो इतना व्यभिचार न होता। वह हमने स्वीकार न किया। अगर हम मनुष्य के मन को समझ लेते और स्वीकार कर लेते तो इतनी परेशानी न होती। हम आदमी पर, बिलकुल ही अनैसर्गिक चीजें थोपते हैं। अब एक आदमी ने एक स्त्री से शादी कर ली और वह स्त्री चाहती है कि वह आदमी किसी सुंदर स्त्री को कभी गौर से न देखे। अस्वाभाविक है, असल में सौंदर्य गौर से देखने को ही बना है।



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