नारी और क्रांति--(पहला प्रवचन
नारीः दीनता से विद्रोह
मेरे प्रिय आत्मन्!इस देश की जिंदगी में बहुत से दुर्भाग्य गुजरे हैं। और बड़े से बड़े जिस दुर्भाग्य का हम विचार करना चाहें वह यह है कि हम हजारों वर्षों से विश्वास करने वाले लोग हैं। हमने कभी सोचा नहीं है, हमने कभी विचारा नहीं है, हम अंधे की तरह मानते रहे हैं। और हमारा अंधे की तरह मानना ही हमारे जीवन का सूर्यास्त बन गया। हमें समझाया ही यही गया है कि जो मान लेता है वह जान लेता है।
इससे ज्यादा कोई झूठी बात नहीं हो सकती। मानने से कोई कभी जानने तक नहीं पहुंचता। और जिसे जानना हो उसे न मानने से शुरू करना पड़ता है। संदेह के अतिरिक्त सत्य की कोई खोज नहीं है। संदेह मिटता है, लेकिन सत्य को पाकर मिटता है। और जो पहले से ही संदेह करना बंद कर देते हैं वे अंधे ही रह जाते हैं, वे सत्य तक कभी भी नहीं पहुंचते हैं।
लेकिन हमें समझाया गया है विश्वास, बिलीफ, फेथ। हमें कभी नहीं समझाया गया डाउट, हमें कभी नहीं समझाया गया संदेह। इसलिए देश का मन ठहर गया और रुक गया है और गुलाम बन गया है।
और ध्यान रहे, शरीर के ऊपर पड़ी हुई जंजीरें इतनी खतरनाक नहीं होतीं, आत्मा के ऊपर पड़ी हुई जंजीरें बहुत खतरनाक सिद्ध होती हैं। इस देश की आत्मा गुलाम है। शरीर से तो हम शायद मुक्त हो गए हैं, लेकिन आत्मा से मुक्त होने में हमें बहुत कठिनाई मालूम पड़ेगी। आत्मा की गुलामी तोड़े बिना इस देश के जीवन में सूर्य का उदय नहीं होगा। और इस संबंध में ही थोड़ी बात मैं आपसे कहना चाहूंगा कि आत्मा की गुलामी के आधार क्या हैं और हम उन गुलामियों को कैसे तोड़ सकते हैं।
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