प्रकृति की जीवेष्णा या जिजीविषा-
कल काफी दिन में घर से बाहर जाना हुआ। वैसे घुमने के लिए तो ही जाता हूं। परंतु बहुत जल्दी रात के अंधेरे में। तब प्रकृति को देखना एक अलग ही अनुभव होता है। सोई सी कुछ अलसाई सी जैसे कोई नींद में ही हवा के कारण झूम रहा है। आप अगर होश से देखोगे तो आपको पता चलेगा की रात को पेड़ हाव में जिस तरह से झूमते है और दिन में वह किस तरह से झूमते है। इनमें बहुत भेद होता है। दिन वह जागे से नाचते से लगते है। और रात को वह अलसाये से खामोश ऊंघते से दिखते है। काफी दिन से कुछ कविता ओर कहानियां संजो कर उन्हें एक पुस्तक रूप दे रखा था। बस आलस्य के कारण घर से निकलने का मन हो ही नहीं रहा था। सोचा चलो चलते है प्रकाश के पास और ये काम भी खत्म करते है। क्योंकि जब भी कम्पयूटर खोलता तो वो पुस्तकें धूर कर देखती की जैसे उन्हें कैद में रख हुआ है। मौसम तो कुछ-कुछ ठीक था। आसमान में बादल एक दूसरे साथ खेलते दौड़ते से लग रहे थे। सुबह मधुर समीर बह रही थी। अकसर मुझे नोएडा प्रकाश के पास जब भी जाना होता है तो मैं हमेशा मेट्रो तक पैदल ही जाता हूं। मुझे मेट्रो से सफर करना बहुत आनंदाई महसूस होता हे। राजेंद्र पैलेस का स्टेशन घर से करीब चार किलो मीटर है।
तब रास्ते में एक कबूली कीकर (बबूल का दूसरा
नाम है क्योंकि सालों पहले ये वृक्ष काबूल से आया था) क्योंकि जब मैं छोटा था तो
मेरे फूफा जी को हमारे ताऊ जी बहुत से काबुली कीकर के बीज यानि फलियां दी थी। ताकि
वह उन्हें अपने गांव के आस पास पैदा कर सके। और हमारी बुआ का गांव सैदपुर है यानि
बवाना से करीब दस किलोमीटर वहां तक भी ये वृक्ष अपना विस्तार नहीं कर पाया था। का
वृष देख उसने किस तरह से अपने को प्रकृति के अनुसार ढाल रख था देख कर उसकी जीवेष्णा
का अचरज हुआ। कितने मोड़ ले कर वह बीच सड़क के जीवित हे। गजब का सौंदर्य खड़ा था
वह।
अपने देखा वृक्ष अगर मर भी जाये तो उसका
सुखा आकार भी कितना वैभव शाली लगता है। पात विहीन प्राण विहीन भी वह कुरूप नहीं
लगाता। यही है उसके पूर्णता से जीने का अनुभूति का रूप। अगर हम पूर्णता से जीते है
और पूर्णता से मरते है। तो हमारा मरने के बाद भी रूप कम नहीं ये आप ओशो की शरीर
छोड़ने के बाद भी फोटो देख सके है उनका सौंदर्य उतना ही नहीं उससे भी सुंदर हो गया
था। लगता था। वो गहरे में सो रहे है मानों अभी बोल पड़ेगे।
मनसा ओशोबा हाऊस
दसघरा नई दिल्ली
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