बुद्धत्व का मनोविज्ञान-ओशो
प्रवचन-दूसरा-(ध्यान का रहस्य)
(The Psychology of the Esoteric-का हिन्दी रूपांतरण है)
पहला प्रश्न:
ओशो मैं एक वर्तुल में घूमता रहा हूं और कभी-कभीलगता है कि मैंने वर्तुल पूरा कर लिया है। लेकिन दूसरे ढंग
से देखने पर लगता है कि मैं परिधि से चिपका हुआ हूं।
क्या आपके पास ऐसी कोई कार्य योजना या ध्यान की
कोई विधि या व्यक्ति को ध्यान के योग्य बना देने की कोई
तरकीब है जिसे आप आरंभ में बताएंगे?
ध्यान केवल एक विधि नहीं है; यह केवल कोई तकनीक नहीं है। तुम इसे सीख नहीं सकते। यह एक विकास है-तुम्हारे संपूर्ण जीवन का, तुम्हारी संपूर्ण जीवनचर्या से। ध्यान कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे, जैसे कि तुम हो, उसमें जोड़ा जा सके। इसको तुमसे जोड़ा नहीं जा सकता है; यह तुम्हारे पास एक मौलिक रूपांतरण, एक परिवर्तन के माध्यम से आ सकता है।
सामान्यत: ध्यान को एक तकनीक के रूप में समझा जाता है, जिसे किसी व्यक्ति के साथ जोड़ा जा सकता है। मेरे लिए ऐसा नहीं है। जैसे कि तुम हो, ध्यान को तुम्हारे साथ जोड़ा नहीं जा सकता है। ध्यान एक खिलावट है, यह एक विकास है। और विकास सदा
पूर्ण से होता है, यह कुछ और जोड़ना नहीं है; प्रेम की भांति इसको तुम्हारे साथ जोड़ा नहीं जा सकता है। यह तुममें से तुम्हारी पूर्णता में से हुआ एक विकास है। इसलिए तुम ध्यान की ओर विकसित हो सकते हो।
इसलिए पहले व्यक्तित्व की इस समग्र खिलावट को ठीक से समझ लेना चाहिए। अन्यथा कोई व्यक्ति मन की तरकीबों के साथ खेल सकता है, और वे बहुत सारी है। कुछ समय के लिए तुम उनके द्वारा मूर्ख बनाए जाते रहोगे, लेकिन केवल इतना ही नहीं है कि
तुम्हें मूर्ख बनाया जा रहा है। वास्तविक अर्थ में न केवल तुमको उनसे कुछ मिलेगा नहीं, बल्कि तुम्हारी हानि भी होगी। क्योंकि यह दृष्टिकोण- ध्यान की एक विधि के रूप में कल्पना करना- आधारभूत रूप से गलत है। और जब कोई व्यक्ति मन की तरकीबों के साथ खेलना आरंभ कर देता है तो मन की गुणवत्ता नष्ट होने लगती है।
मन जैसा यह है, यह ध्यानपूर्ण नहीं है। इसलिए ध्यान के घटित होने से पहले संपूर्ण मन का रूपांतरण होना चाहिए। तब फिर मन, जैसा कि यह अभी है, क्या है? यह किस भांति कार्य करता है?
यह ध्यान के विपरीत कार्य करता है।
पहली बात, मन सदा शब्दीकरण करता है। यह शाब्दिक है, और इस शब्दीकरण को विचार प्रक्रिया की भांति समझा जाता है। यह विचार प्रक्रिया नहीं है। तुम शब्दों को जान सकते हो, तुम भाषा को जान सकते हो, तुम विचार प्रक्रिया की संरचनात्मक धारणा
को जान सकते हो, लेकिन यह विचार प्रक्रिया नहीं है। बल्कि इसके विपरीत यह विचार प्रक्रिया से पलायन है। तुम एक फूल देखते हो, और तुम इसका शब्दीकरण करते हो। तुम पास से गुजरते हुए किसी व्यक्ति को देखते हो और तुम उसका शब्दीकरण करते हो।
प्रत्येक परिस्थिति का शब्दीकरण कर दिया जाता है। मन केवल शब्दीकरण की एक यांत्रिकता बन चुका है। यह प्रत्येक अस्तित्ववान वस्तु को शब्दों में रूपांतरित कर सकता है-हर चीज को लगातार शब्दों में परिवर्तित किया जा रहा है। ये शब्द एक अवरोध निर्मित करते हैं, से शब्द कारागृह बन जाते हैं।
ये शब्द-वस्तुओं का शब्दों में, अस्तित्व का शब्दों में रूपांतरण का यह सतत प्रवाह एक रुकावट है, ध्यानपूर्ण मन के लिए एक बाधा है।
इसलिए ध्यान पूर्ण विकास की प्रथम आवश्यकता है, अपने सतत शब्दीकरण का बोध और इसको रोक सकने के योग्य हो जाना। वस्तुओं को बस देखो, शब्दीकरण मत करो। उनकी उपस्थिति के प्रति बोधपूर्ण रहो, किंतु उनको शब्दों में मत बदलो। वस्तुओं के साथ बिना भाषा के जीओ, व्यक्तियों के साथ बिना भाषा के जीओ। परिस्थितियों के साथ बिना भाषा के जीओ। यह असंभव नहीं है। यह स्वाभाविक है और संभव है। प्रत्येक परिस्थिति कृत्रिम है, बनाई गई परिस्थिति है और इसके लिए हम इस भांति यांत्रिक रूप से आदी हो चुके है कि हम कभी अनुवाद से उत्पन्न रूपांतरण के प्रति सजग नहीं होते।
सूर्योदय है। तुम कभी इस अंतराल के प्रति सजग नहीं होते। तुम इसे देखते हो, तुम इसको अनुभव करते हो, और तुम इसका शब्दीकरण कर देते हो। लेकिन अंतराल को कभी अनुभव नहीं किया जाता- अनुभूति और शब्दीकरण के बीच का अंतराल। उस
अंतराल में, मध्य के उस समय में व्यक्ति को सजग हो जाना चाहिए। व्यक्ति को इस तथ्य के प्रति सजग हो जाना चाहिए कि सूर्योदय कोई शब्द भर नहीं है; यह एक सच्चाई, एक उपस्थिति, एक परिस्थिति है। मन अपने आप से ही इसको एक शब्द में बदल देता है। ये शब्द एकत्रित हो जाते है। वे एकत्रित होते चले जाते हैं और अस्तित्व के सत्तावान के और चेतना के मध्य, शब्दों के ये ढेर, स्मृतियों के, भाषागत स्मृतियो के ये ढेर-ये ध्यानपूर्ण विकास की ओर बाधाएं है।
ध्यान का अभिप्राय है शब्द-विहीन परिस्थिति में जीना, भाषारहित होकर परिस्थिति में जीना। कभी-कभी यह सहजस्कूर्त रूप से घटित हो जाता है। जब तुम किसी के साथ प्रेम में होते हो, तो भाषारहित क्षण दीर्घकालिक हो जाता है। जब तुम वास्तव में प्रेम में होते हो तो उपस्थिति अनुभव होती है, भाषा नहीं। इसलिए जब दो प्रेमी एक-दूसरे के प्रति गहन आत्मीयता से भरे हों तो वे मौन हो जाते हैं। ऐसा नहीं है कि वहां पर अभिव्यक्त करने के
लिए कुछ भी नहीं है। इसके विपरीत इस समय बहुत कुछ उद्वेलित हो रहा है, जो अभिव्यक्त होना चाह रहा है। किंतु शब्द वहां नहीं होते, वे हो भी नहीं सकते। वे केवल तब आते हैं, जब प्रेम विदा हो चुका हो।
अगर दो प्रेमी मौन नहीं है और बातचीत कर रहे हों, तो यह एक संकेत है कि प्रेम मर चुका है। अब वे उस अंतराल को शब्दों से भर रहे है। जब प्रेम जीवित होता है, शब्द वहां नहीं होते, क्योंकि प्रेम की उपस्थिति इतनी उद्वेलित करने वाली, इतनी आर पार जाने वाली होती है कि अवरोध- भाषा और शब्दों का अवरोध पार कर लिया जाता है। और सामान्यत: ऐसा संकेत केवल प्रेम में ही घटित होता है कि अवरोध पार हो जाए।
यही कारण है कि प्रार्थना प्रेम का अगला कदम है और ध्यान शिखर है, प्रेम की पराकाष्ठा है र प्रेम किसी एक से-किसी व्यक्ति के साथ नहीं, वरन समग्र अस्तित्व के साथ। इसलिए मेरे लिए ध्यान उस समग्र अस्तित्व के प्रति, उस सभी के प्रति जो तुम्हें घेरे हुए है, प्रेम संबंध है। अगर तुम उसके साथ प्रेममय अवस्था में रह सको तो तुम ध्यान में हो।
और यह कोई मन की तरकीब नहीं है। यह कोई मन को स्थिर बना देना नहीं है; बल्कि मन की यांत्रिक व्यवस्था को समझ लेना है। यह उस यांत्रिक व्यवस्था में हस्तक्षेप करना नहीं है बल्कि यह मन की संपूर्ण यांत्रिक व्यवस्था की गहरी समझ है। जिस क्षण तुम
शब्दीकरण की, अस्तित्व और वस्तुओं को शब्दों में बदल देने की यांत्रिक आदत को समझ जाते हो, अंतराल दिखता है। यह सहज स्फूर्त आता है। यह समझ का अनुगमन करता है। यह समझ की छाया के समान है।
इसलिए पहले व्यक्ति को यह समझ लेना चाहिए कि कैसे वह ध्यान में नहीं है। वास्तविक समस्या यह नहीं है कि ध्यान में कैसे हों, वास्तविक समस्या यह जानना है कि हम ध्यान में क्यों नहीं है। वास्तविक समस्या यह नहीं है कि प्रेम कैसे किया जाए, बल्कि
यह जान लेना है कि हम प्रेम में क्यों नहीं हैं। नकारात्मक है यह, ध्यान की असली प्रक्रिया निषेधात्मक है। यह सकारात्मक रूप से तुममें कुछ जोड़ देना नहीं है, बल्कि इसके विपरीत तुममें से कुछ घटा देना है, जो पहले से ही तुममें जोड़ दिया गया है।
समाज भाषा प्रदान करता है, समाज भाषा के बिना अस्त्वि में नहीं रह सकता है। मानव समाज भाषा से उपजा हुआ विकास है, पशुओं के समाज नहीं हैं क्योंकि उनके पास कोई भाषा नहीं है। भाषा से समाज निर्मित होता है। समाज को भाषा की आवश्यकता है; अस्तित्व को इसकी आवश्यकता नहीं है। अस्तित्व भाषा के बिना हो सकता है, समाज भाषा के बिना नहीं हो सकता। इसलिए मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम्हें भाषा के बिना रहना चाहिए। तुमको भाषा का प्रयोग तो करना ही पड़ेगा। लेकिन यह यांत्रिक व्यवस्था ऐसी यांत्रिक व्यवस्था होनी चाहिए जिसका आरंभ और अंत किया जा सके।
जिस समय तुम एक सामाजिक व्यक्ति हो, तो इस यांत्रिक व्यवस्था को-भाषा की यांत्रिकी को सक्रिय बना रहना चाहिए। इसके बिना समाज में-तुम्हारा अस्तित्व नहीं बना रह सकता। किंतु जब तुम अस्तित्व के साथ होते हो तब उस यांत्रिक व्यवस्था को रोक देना चाहिए। और तुमको इसे रोक देने में समर्थ होना चाहिए, अन्यथा यह यांत्रिक व्यवस्था विक्षिप्त है।
अगर तुम इसको रोक न सको--और यह चलती रहे और चलती चली जाए, और तुम इसको रोक पाने में समर्थ न हो पाओ-तो इस यांत्रिक व्यवस्था ने तुम्हारे ऊपर आधिपत्य कर लिया है-तब तुम इस यांत्रिक व्यवस्था के, इस उपकरण के बस एक दास बन कर रह गए हो। मन का एक उपकरण की भांति उपयोग किया जाना चाहिए, मालिक के रूप में नहीं। यह मालिक बन गया है।
मन का मालिक होना गैर- ध्यानपूर्ण अवस्था है। तुम्हारा, चेतना का मालिक होना, ध्यानपूर्ण अवस्था है। इसलिए उस यांत्रिक व्यवस्था पर, मन पर स्वामित्व कर लेना ध्यान है।
मन का भाषा प्रदान करने वाला किया-कलाप सभी कुछ नहीं है और इसी पर समाप्त नही हो जाना है। तुम इसके पार हो, अस्तित्व इसके पार है। चेतना भाषा प्रदान करने वाली यांत्रिकता से परे है और अस्तित्व भाषा प्रदान करने वाली यांत्रिकता से परे है। और जब चेतना और अस्तित्व संवाद में हो तो उस स्थिति को मैं ध्यान कहता हूं-चेतना और अस्तित्व संवाद में हैं।
इसलिए भाषा को छोड़ देना चाहिए। जब मैं कहता हूं-छोडू देना चाहिए, तो मेरा अभिप्राय यह नहीं है कि तुमको इसे दूर हटा देना चाहिए, तुमको इसका दमन कर देना चाहिए, तुमको इसे काट फेंकना चाहिए-यह मेरा अभिप्राय नहीं है। जो मेरा अभिप्राय है
वह यह है कि तुमको समझ लेना चाहिए कि एक आदत जिसकी समाज में आवश्यकता पड़ती है, जिसकी सदैव आवश्यकता नहीं होती, वह चौबीस घंटे की आदत बन गई है। जब तुम चलते हो तो तुमको पैरों की गतिशीलता की आवश्यकता होती है। लेकिन अगर तुम बैठे हो तो उनको गतिशील नहीं रहना चाहिए। जिस समय तुम बैठे हुए हो और अगर उस समय भी तुम्हारे पैर गतिशील रहें तो तुम पागल हो, तब पैर विक्षिप्त हो चुके हैं। तुम्हें इस योग्य होना पड़ेगा कि उन्हें रोक सको। जब तुम किसी से बातचीत नहीं कर रहे हो तो भाषा को वहां नहीं होना चाहिए। यह बातचीत का यंत्र संवाद की एक विधि है। जब तुम कुछ संवाद कर रहे हो तो भाषा का प्रयोग किया जाना चाहिए। लेकिन जब तुम किसी के साथ संवाद नहीं कर रहे हो तो भाषा को वहां नहीं होना चाहिए।
अगर तुम इसमें समर्थ हो और तुम समझ के माध्यम से इसमें समर्थ हो सकते हो-तब तुम ध्यान में विकसित हो सकते हो। मैं कहता हूं तुम विकसित हो सकते हो क्योंकि जीवंत प्रक्रियाओं को कभी मुर्दा जोड़ नहीं बनाया जा सकता है। वे सदा विकासमान प्रक्रियाएं है। इसलिए ध्यान एक प्रक्रिया है, कोई विधि नहीं। विधि सदा ही मृत होती है-यह जोड़ी जा सकती है। प्रक्रिया सदा जीवंत है। यह विकसित होती है और विस्तृत होती है।
इसलिए पहली बात भाषा की आवश्यकता है, अनिवार्य है यह, लेकिन तुमको सदैव इसी में नहीं बने रहना चाहिए। ऐसे क्षण होने चाहिए जब तुम अस्तित्व से लयबद्ध हो रहो, भाषा में सीमित न बने रहो, जब तुम बस अस्तित्व वान हो। यह ऐसा नहीं होगा कि तुम बिलकुल निष्क्रिय हो जाओगे, क्योंकि चेतना वहां होती है और यह अधिक प्रगाढ़ है और यह अधिक जीवंत है क्योंकि भाषा चेतना को मंद कर देती है।
भाषा पुनरुक्त होने के लिए बाध्य है। भाषा को पुनरुक्त होना ही है। अस्तित्व कभी पुनरुक्त नहीं होता है। इसलिए भाषा से ऊब आती है। और भाषा जितनी शक्तिशाली होती जाती है-मन जितना अधिक भाषा-उन्मुख होता जाता है-यह उतना ही ऊब जाता है, क्योंकि भाषा एक पुनरुक्ति है। अस्तित्व पुनरुक्ति नहीं है।
जब तुम किसी गुलाब को देखते हो तो यह पुनरुक्ति नहीं है। एक नया गुलाब है यह, बिलकुल नया। यह कभी नहीं था और यह कभी होगा भी नहीं। यह पहली और आखिरी बार है कि यह वहां पर है। लेकिन जब तुम कहते हो--यह एक गुलाब है तो यह शब्द 'गुलाब' एक पुनरुक्ति है। यह सदा से ही वहां था, यह सदा वहां बना रहेगा। तुमने नये को पुराने शब्द से मार डाला है।
अस्तित्व सदा युवा है, और भाषा सदा बूढ़ी है। और भाषा के द्वारा तुम अस्तित्व से बचते हो, वस्तुत: भाषा के माध्यम से तुम जीवन से पलायन करते हो, क्योंकि भाषा मृत है। और भाषा से तुम जितना अधिक सम्बद्ध होते जाओगे, जितना अधिक तुम इसके भीतर जाओगे, उतना ही तुम इसके द्वारा मृतप्राय कर दिए जाओगे। इसलिए यदि तुम्हें कोई ऐसा व्यक्ति खोजना हो, जो पूरी तरह से मरा हुआ है तो तुमको किसी पंडित को खोजना पड़ेगा।
पंडित पूरी तरह से मरा हुआ है, क्योंकि वह भाषा और शब्द है, और कुछ भी नहीं है।
साई ने अपनी आत्मकथा को नाम दिया है 'शब्द।' यह लगभग प्रत्येक व्यक्ति की आत्म-कथा है। हम शब्दों में जीते है। अर्थात, हम जीते ही नहीं। और अंत में केवल संकलित किए गए शब्द ही मिलते हैं और कुछ नहीं। शब्द रुके हुए विचारों की भांति होते है। तुम कुछ देखते हो, तुम उसका चित्र खींचते हो, वह चित्र मृत है। वह परिस्थिति कभी मृत नहीं होती। तब तुम इन मृत चित्रों की एक एलबम बना सकते हो। अंत में, वह व्यक्ति जो ध्यान में नहीं जीया है, बस एक मुर्दा एलबम के समान है, केवल भाषा से बने हुए चित्र, स्मृतियां। कुछ भी जीया नहीं गया, प्रत्येक चीज का बस शब्दीकरण हो गया है।
ध्यान का अर्थ है--जीना, पूरी तरह से जीना और तुम समग्रता से केवल तभी जी सकते हो, जब भाषा का अवरोध पार कर लिया गया हो, जब तुम मौन हो। मौन होने से मेरा अभिप्राय अचेतन होना नहीं है। तुम मौन और अचेतन हो सकते हो, किंतु यह जीवंत मौन नहीं है। पुन: तुमने पलायन कर लिया है।
इसलिए मंत्र के माध्यम से तुम स्वयं को आत्म-सम्मोहित कर सकते हो। मात्र एक शब्द को दोहराते रह कर तुम मन में इतनी अधिक ऊब पैदा कर सकते हो कि यह सो जाता है। नींद के लिए ऊब हो जाना एक आवश्यक कदम है। तुम बस अचेतन में, नींद में खो जाते हो। इसलिए बहुत सारी-बल्कि ध्यान की सभी विधियां ऊब जाने के लिए विधियां है, या वे आत्म-सम्मोहक है। तुम राम-राम-राम दोहराते रह सकते हो। मन ऊब अनुभव करेगा, नींद आने लगेगी। और अगर तुम मंत्र जाप करते जाओ और करते चले जाओ, तब मन सो जाएगा। तब भाषा वहां नहीं होगी, भाषा का अवरोध वहां नहीं होगा, किंतु तुम बेहोश होगे।
ध्यान का अभिप्राय है कि भाषा वहां नहीं होनी चाहिए, और तुम्हें होशपूर्ण रहना है। अन्यथा अस्तित्व के साथ, यह सब-कुछ जो है, उस सभी के साथ जो है, कोई संवाद नहीं होगा। क्या किया जा सकता है? कोई मंत्र सहायक नहीं होगा, किसी मंत्र-जाप से सहायता नहीं मिलेगी। वे ध्यान के उपकरण नहीं बन सकते है। वे केवल आत्म-सम्मोहन के उपकरण बन सकते हैं और आत्म-सम्मोहन ध्यान नहीं है। बल्कि यह उससे विपरीत अवस्था है। आत्म-सम्मोहित अवस्था में होना नीचे गिर जाना है। यह भाषा के पार जाना नहीं है, यह इससे नीचे गिरना है।
तब क्या किया जा सकता है? वस्तुत: तुम समझने के सिवा और कुछ कर ही नहीं सकते हो, क्योंकि तुम जो कुछ भी कर सकते हो वह तुमसे ही आएगा। और तुम संशयग्रस्त हो, और तुम ध्यान में नहीं हो, और तुम्हारा मन मौन नहीं है, इसलिए जो कुछ तुमसे आएगा, वह और संशय पैदा कर देगा। वह सभी कुछ जो किया जा सकता है वह है। समझ लेना।
यह समझना आरंभ करो कि मन ने तुम्हारा सारा कार्यभार कैसे सम्हाल रखा है, और उन क्षणों को होने दो, उन क्षणों को घटित होने दो जहां पर शब्द न हों। तुम शब्दों को दूर भी नहीं ढकेल सकते हो, क्योंकि शब्दों को दूर ढकेलने का प्रयास भी भाषा का रूप ले लेगा। अगर तुम शब्दों को हटाना चाहते हो तो तुम्हें उनको दूसरे शब्दों से हटाना होगा। और तब एक दुष्चक्र निर्मित हो जाता है। तुम शब्दों को शब्दों के द्वारा नहीं हटा सकते। असंभव है यह, क्योंकि हटाने के लिए शब्दों का प्रयोग करके तुम अब भी भाषा का उपयोग कर रहे हो और रुकावट को मजबूत कर रहे हो। इसलिए किसी शब्द का उपयोग नहीं किया जा सकता है, इसका अर्थ यह हुआ कि किसी मंत्र का उपयोग नहीं किया जा सकता। मन कैसे कार्य करता है, तुमको बस इसके प्रति सजग हो जाना है, क्योंकि सजगता कोई शब्द नहीं है। यह एक कृत्य है- अस्तित्वगत, मानसिक नहीं। एक अस्तित्वगत कृत्य, कोई अस्तित्वगत कृत्य ही सहायक होगा।
और वह पहला अस्तित्वगत कृत्य जिसका उपयोग किया जा सकता है, वह है सजगता। अपने मन की प्रक्रिया के प्रति होश पूर्ण हो जाओ, तुम्हारा मन कैसे कार्य करता है। जिस क्षण तुम अपने मन की क्रिया के प्रति होशपूर्ण हो जाते हो, तुम मन नहीं होते। मन की प्रक्रिया के प्रति इस होश का अभिप्राय ही यह है, कि तुम परे हो, पृथक हो, साक्षी हो। और तुम जितना होशपूर्ण होते जाओगे, उतना ही तुम अंतरालों को देखने में समर्थ होते जाओगे। अंतराल तो है, किंतु तुम इतने बेहोश हो कि न तो कभी उनका ज्ञान हो पाता है, न ही वे दिखाई पड़ते है। अंतराल सदा से वहां पर हैं। दो शब्दों के मध्य सदा अंतराल होता है अन्यथा दो शब्द दो नहीं हो सकते है, वे एक शब्द बन जाएंगे।
दो शब्दों के मध्य सदा अंतराल होता है, चाहे कितना ही छोटा हो, कितना ही अदृश्य हो, लेकिन अंतराल है। संगीत के दो स्वरों के मध्य एक मौन होता है, भले कितना ही छोटा हो, कितना ही अश्रव्य हो। अन्यथा दो स्वर दो नहीं हो सकते, बिना अंतराल के दो शब्द दो नहीं हो सकते, एक शब्द रहित मध्यांतर सदा वहां होता है। लेकिन अंतराल को, मध्यांतर को जानने के लिए व्यक्ति को वास्तविक रूप से सजग, होशपूर्ण होना पड़ता है।
तुम जितना अधिक होशपूर्ण होते हो, मन की गति उतनी ही धीमी होती है। यह सदा सापेक्ष है। तुम जितना कम होशपूर्ण होते हो, मन की गति उतनी ही तेज होती है; जैसे-जैसे तुम होशपूर्ण होते हो, मन की प्रक्रिया धीमी होती जाती है। सभी चीजों के साथ लेकिन क्योंकि तुम सजग हो चुके हो, मन धीमा मालूम होता है, धीमा प्रतीत होता है; लेकिन वह वैसा ही है जैसा था। लेकिन तुम सतर्क हो, तुम देख रहे हो, तुम अधिक जागरूक हो चुके हो। अधिक जागरूकता का मतलब है--धीमा हो चुका मन। जब मन की गति धीमी हो जाती है, अंतराल बड़े हो जाते हैं; तुम उन्हें अनुभव कर सकते हो।
यह ठीक एक फिल्म की भांति होता है। यदि प्रोजेक्टर धीमी गति से चलता है तो तुम अंतरालों को देख लेते हो। वहां अनेक अंतराल है--अंतराल, अंतराल और बहुत सारे अंतराल। अगर मैं अपने हाथ को उठाऊं, तो बिना अंतरालों के इसका छायांकन नहीं किया जा सकता है। मैं इसे बिना किसी अंतराल के उठा सकता हूं लेकिन इसका छायांकन बिना अंतरालों के कभी नहीं किया जा सकता। मेरा हाथ उठा था, एक फुट ऊपर उठा था, इसका हजारों भागों में चित्र खींचना पड़ेगा और प्रत्येक भाग स्थिर, मुर्दा चित्र होगा। ये हजारों हिस्से, आशिक चित्र, आशिक हैं, मृत है। अगर तुम्हारी आंखों के सामने से उनको इतनी तीव्रता से गुजारा जाए कि तुम अंतरालों को न देख पाओ, तो तुम उठते हुए हाथ को देखते हो। तब तुम हाथ का उठना एक प्रक्रिया के रूप में देखते हो, क्योंकि अंतराल नहीं दिखाई पड़े है। अन्यथा फिल्म को कभी अंतरालों के बिना नहीं बनाया जा सकता है। अंतराल वहां होते है।
मन भी एक प्रोजेक्टर की भांति है, एक भाषायी प्रोजेक्टर। अंतराल वहां पर हैं। अपने मन के प्रति और सजग और होशपूर्ण हो जाओ और तुम अंतरालों को देख लोगे। यह बस गेस्टाल्ट चित्र की भांति है। एक चित्र को इस भांति बनाया जा सकता है कि उसे दो चीजों के रूप में देखा जा सके, लेकिन तुम दोनों चीजों को एक साथ नहीं देख सकते हो। यह एक बूढ़ी स्त्री का चित्र हो सकता है और साथ वही चित्र एक युवती का भी हो सकता है। चित्र में दोनों हैं, लेकिन यदि तुम एक को देख रहे हो, तो तुम दूसरे को नहीं देखोगे क्योंकि अवधान बदल जाता है। तुम एक पर केंद्रित हो गए हो, तब दूसरा नहीं दिखाई देता है। जब तुम दूसरे को देखते हो तो पहले वाला खो जाता है।
अब तुम जानते हो कि उन्हीं बिंदुओं, स्याही के उन्हीं बिंदुओं से दो चित्र बन रहे हैं। अब तुम्हें भलीभांति पता है, तुमने दोनों चित्रों को देखा है, लेकिन तुम दोनों चित्रों को एक साथ नहीं देख सकते हो। अगर तुम बूढ़ी स्त्री को देखते हो तो युवा स्त्री नहीं दिखती है। और तुमको एक चित्र से अपना अवधान हटा कर दूसरे चित्र पर लाने में कुछ कठिनाई भी होगी, क्योंकि अवधान केंद्रित हो जाता है। तुम्हें पता है--अब तुमने दूसरा चित्र भी देख लिया है--लेकिन तुमको अवधान को बदलने में कुछ कठिनाई होगी। जब अवधान बदल दिया जाता है तो युवा स्त्री दिखाई देगी, लेकिन बूढ़ी स्त्री खो जाएगी।
यही घटना मन के साथ भी घटित होती है। यह एक गेस्टाल्ट, देखने की विधि है। अगर तुम शब्दों को देखते हो, तो तुम अंतरालों को नहीं देख सकते। अगर तुम अंतरालों को देखो, तो तुम शब्दों को नहीं देख सकते। लेकिन अब तुम जानते हो कि वहां पर शब्द है और अंतराल हैं और प्रत्येक शब्द के बाद एक अंतराल आता है और प्रत्येक अंतराल के बाद एक शब्द आता है, लेकिन तुम उन दोनों को एक साथ उसी क्षण में नहीं देख सकते। अगर तुमने अंतराल पर अवधान केंद्रित किया है, शब्द खो जाएंगे और तुम ध्यान में प्रविष्ट हो जाओगे। शब्द वहां पर नहीं रहेंगे। अंतराल होगा।
ये शब्द और ये अंतराल, मन में ये दो चीजें होती हैं। मन दो चीजों में विभाजित
होता है--अंतरालों में और शब्दों में-लेकिन प्रत्येक शब्द के बाद अंतराल आता है और प्रत्येक अंतराल के बाद एक शब्द आता है। यह विभाजन एक क्रमबद्ध श्रृंखला में होता है। मन दो ठोस कक्षों में विभाजित नहीं होता हैं--शब्दों और अंतरालों में। वे मिले-जुले है। वे
एक श्रृंखला में है। दो शब्दों को एक अंतराल के द्वारा जोड़ दिया गया है। और दो अंतरालों को एक शब्द के द्वारा जोड़ दिया गया है।
केवल शब्दों पर केंद्रित मन, सिर्फ शब्दों पर केंद्रित चेतना गैर- ध्यानपूर्ण है। केवल अंतरालों पर केंद्रित चेतना ध्यानपूर्ण है। इसलिए ध्यान, अवधान का विशिष्ट दृष्टिकोण है-अंतरालों के प्रति चेतना, सजगता, अवधान। और तुम एक साथ दोनों के प्रति सजग नहीं हो सकते, असंभव है यह। इसलिए जब भी तुम सजग हो जाओ, शब्द खो जाएंगे। अगर तुम सावधानीपूर्वक देखते रहो, तुम्हें शब्द नहीं मिलेंगे, तुम मात्र एक अंतराल पाओगे।
अंतरालों को भी तुम न देख पाओगे क्योंकि तुम दो शब्दों के बीच के अंतर को महसूस कर सकते हो, किंतु दो अंतरालों के मध्य का अंतर तुम महसूस नहीं कर सकते। शब्द सदा बहुवचन है और अंतराल सदा एक वचन है. अंतराल। यही कारण है कि मैं अंतराल शब्द का उपयोग करता हूं। शब्द अनेक हो सकते हैं, लेकिन अनेक अंतराल नहीं हो सकते। वे एक हो जाते है। वे विलय होकर एक हो जाते हैं। इसलिए मेरे लिए ध्यान का अभिप्राय है? अंतराल पर अवधान। देखने का ढंग बदल देना पड़ता है और देखने का ढंग बदलता है...? देखने का ढंग बदल जाता है।
एक और बात समझ लेनी है। अगर तुम गेस्टाल्ट चित्र को देख रहे हो और तुम्हारा अवधान बूढ़ी स्त्री पर केंद्रित है; तब तुमको दूसरे चित्र के बारे में पता नहीं होता है। तुम एक चित्र के प्रति सजग हो गए हो और एक मात्र ढंग यही है। तुम एक चित्र के प्रति सजग हो जाते हो। तुम नहीं जानते कि इसके पीछे दूसरा चित्र छिपा हुआ है। तुम्हारी जानकारी में एक चित्र आ चुका है। अगर तुम बूढ़ी स्त्री पर ध्यान केंद्रित किए रहो--अगर तुम उसी पर मन केंद्रित और ध्यान केंद्रित किए रहो, अगर तुम उस पर अपना समग्र अवधान लगा दो--तो एक क्षण आएगा और अवधान परिवर्तित हो चुका होगा। बूढ़ी स्त्री जा चुकी होती है और अब तुम्हें दूसरा चित्र दिखाई पड़ता है। अब दूसरा चित्र वहां पर होता है।
ऐसा क्यों होता है? यह घटित होता है, क्योंकि मन लंबे समय तक केंद्रित नहीं रह सकता। इसे बदलना पड़ता है, इसको विषय बदलना पड़ता है। या तो इसको सो जाना पड़ेगा या इसको विषय बदलना पड़ेगा। यहां पर केवल दो संभावनाएं हैं। अगर तुम अवधान केंद्रित किए रहो, अपनी चेतना को बड़ी स्त्री के चित्र पर केंद्रित किए रहो, तो या तो तुम सो जाओगे......?
यह महेश योगी की तरह का ध्यान है--तुम सो जाओगे। यह शांतिपूर्ण है, यह स्फूर्तिदायक है, यह फिर से ताजगी देता है। इससे तुम ताजगी से भर कर बाहर आते हो। यह शारीरिक स्वास्थ्य में सहायता कर सकता है, यह मानसिक साम्य में भी सहायता कर
सकता है, किंतु यह ध्यान नहीं है।
यही कार्य आत्म-सम्मोहन द्वारा, सुझाव द्वारा किया जा सकता है--इमाइल कुए की विधियों से भी किया जा सकता है। इसको ध्यान की तरह समझ लेना बहुत खतरनाक है, यह ध्यान नहीं है। और अगर कोई इसको ध्यान के रूप में सोच लेता है तो वह कभी भी ध्यान के वास्तविक आयाम की खोज नहीं करेगा। इस प्रकार के अभ्यासों से और इस भांति के अभ्यासों के प्रचारकों से यही वास्तविक नुकसान हो रहा है। यह अपने आप को
मनोवैज्ञानिक नशे में डुबा देना है।
मन एक स्थिर अवस्था में नहीं बना रह सकता है। यह एक जीवंत प्रक्रिया है। यह एक स्थिर दशा में नहीं बना रह सकता है। अगर तुम इसको ऐसा करने के लिए बाध्य कर दो, तो यह नींद में चला जाएगा और अपनी जीवंत प्रक्रिया को जारी रखने के लिए स्वप्न देखने लगेगा। यह तुम्हारे स्थिर, जबर्दस्ती थोपे गए केंद्रीकरण से पलायन करने के लिए नींद में चला जाता है। तब यह फिर से नींद में जीना जारी रख सकता है।
अगर तुम सजग हो। केवल बोधपूर्ण हो, शब्दों से रहित हो--तो आत्म-सम्मोहन कठिन हो जाता है। शब्दों के बिना आत्म-सम्मोहन कठिन है, क्योंकि शब्दों के बिना तुम मन को कोई भी सुझाव नहीं दे सकते हो। भारतीय शब्द, मंत्र का अर्थ सुझाव है और कुछ नहीं। इसका अभिप्राय है सुझाव। अगर तुम शब्दों के बिना, उस बूढ़ी स्त्री और उसके चित्र के प्रति बस सजग हो, तब तुम देख लोगे कि तुम्हारा मन बदलता है, अवधान बदलता है और युवती दिखाई पड़ने लगती है।
मैं यह क्यों कह रहा हूं.....अगर तुम शब्दों के प्रति सजग हो जाते हो और उनको दूर हटाने के लिए किसी शब्द का उपयोग नहीं करते हो, उनको दूर हटाने के लिए किसी मंत्र का उपयोग नहीं करते हो, बस शब्दों के प्रति सजग हो जाते हो--स्वत: ही तुम्हारा मन अंतरालों पर केंद्रित हो जाएगा। यह लगातार शब्दों पर टिका हुआ नहीं रह सकता है। इसे अंतराल में जाकर विश्रांत होना पड़ेगा।
या तो तुम शब्दों से तादात्म्य करते हो, तब तुम एक शब्द से दूसरे शब्द पर छलांग लगाते रहोगे। तुम अंतराल से बच जाते हो और एक शब्द से दूसरे शब्द पर छलांग लगाते रहते हो, क्योंकि अगले शब्द में भी कुछ नयापन है। तुमने शब्द को बदल दिया है, पुराना शब्द वहां नहीं रहा है और नया शब्द आ गया है, इस प्रकार से मन बदलता चला जाता है, अवधान बदल जाता है।
या फिर तुमने शब्दों से तादात्म्य नहीं किया है, अगर तुम बस एक देखने वाले हो, बस शब्दों को एक श्रंखला में देख रहे हो, बस देख रहे हो, अकेले, ऊपर खड़े होकर बस शब्दों को देख रहे हो... वे एक कतार में चलते जा रहे है, ठीक उसी तरह जैसे सड़क पर लोग चला करते है और तुम बस इसको देख रहे हो सु चीजें बदल रही है, एक व्यक्ति चला गया है, दूसरा अभी आया नहीं है र वहां पर एक अंतराल है, सड़क खाली है।
अगर तुम बस देखते रहो, तो तुम अंतराल को जान लोगे। और एक बार तुम ने अंतराल को जान लिया, तो तुम छलांग लगाना भी जान जाओगे, क्योंकि यह अंतराल एक घाटी है। शब्द सतह है और अंतराल घाटी है। एक बार तुम अंतराल को जान लो--तुम इसमें हो, तुम इसमें छलांग लगा दोगे और यह परम शांतिदायक है, और यह परम सष्टा है। अंतराल में होना उत्क्रिाति है, अंतराल में होना रूपांतरण है। और एक बार तुम अंतराल के खजाने को जान लो, तुम इसको कभी न खोओगे।
उस क्षण भाषा की जरूरत नहीं रहती, तुम इसे छोड़ दोगे और यह सचेतन रूप से छोड़ देना है। तुम घाटी के प्रति चेतन हो, तुम मौन के प्रति, असीम मौन के प्रति चेतन हो। तुम इसी में हो। और दूसरी बात, जब तुम अंतराल में, मध्यांतर में, घाटी में होते हो तो तुम इसके साथ एक हो जाते हो। तुम इससे अलग नहीं रह सकते। तुम चेतन हो और एक हो, और ध्यान का यही रहस्य है। तुम इसके प्रति चेतन हो और इसके साथ एक भी हो। ऐसा नहीं है कि तुम अपने आप से भिन्न--किसी अन्य के प्रति चेतन हो। तुम घाटी के प्रति कभी भी किसी ‘अन्य' की भांति चेतन नहीं होते, इस घाटी के प्रति तुम अपने आप' की भांति चेतन हो। और फिर भी तुम चेतन हो तुम अचेतन नहीं हो। तुम जानते हो, लेकिन जानने वाला अब जाना गया हो गया है। तुम अंतराल को देखते हो किंतु अब देखने वाला ही देखा जा रहा है।
अब जहां तक शब्दों और विचारों का संबंध है, तुम साक्षी हो, भिन्न हो और शब्द अलग है। किंतु जब वहां पर शब्द नहीं होते, तुम अंतराल होते हो और फिर भी चेतन हो कि तुम अंतराल हो। क्योंकि अब तुम्हारे और अंतराल के मध्य, चैतन्यता और अस्तित्व के मध्य कोई अवरोध नहीं होता। सिर्फ शब्द ही अवरोध है। अब तुम एक अस्तित्वगत अवस्था में होते हो। यही ध्यान है; अस्तित्व में होना; समग्रता पूर्वक इसमें होना, और फिर भी चैतन्य होना। यही विरोध है, यही विरोधाभास है। क्योंकि हमने कभी ऐसी अवस्था को
नहीं जाना है जिसमें हम इसके प्रति चेतन हैं और इसके साथ एक हैं।
जब कभी हम किसी चीज के प्रति चेतन होते है, तो वह चीज ‘अन्य' बन जाती है। यदि हम उसके साथ तादात्म्य बना लेते हैं, तो हम केवल एक चीज को ही जानते है। तब वह चीज अन्य नहीं है, लेकिन उस समय हम उसके प्रति चेतन नहीं होते है। हम किसी चीज के साथ केवल तभी एक हो सकते हैं जब हम अचेतन हों। हमारा यही अनुभव रहा है। यही दिन-प्रतिदिन के जीवन का अनुभव है, सामान्य अनुभव है कि हम केवल तभी एक होते है जब हम अचेतन हों।
यही कारण है कि कामवासना में इतना अधिक आकर्षण है। एक क्षण के लिए तुम एक हो जाते हो, लेकिन उस क्षण में तुम अचेतन हो। और तुम उस अचेतनता की खोज करते हो। किंतु तुम जितना अधिक खोजते हो, उतना ही तुम चेतन हो जाते हो। तब
कामवासना नितांत असंगत हो जाती है। एक क्षण आएगा. क्योंकि यदि तुम सतत रूप से इसका अभ्यास करते हो तो तुम अचेतन नहीं बने रह सकते हो। चेतनता इसके भीतर प्रविष्ट हो जाएगी। वह कृत्य यांत्रिक बन जाएगा क्योंकि तब तुम इसके साथ तादात्म्य नहीं कर सकते हो। तब तुम कामवासना का आनंद अनुभव नहीं कर सकते, क्योंकि यह आनंद अचेतन से आ रहा था। वासनायुक्त उत्तेजना में तुम अचेतन हो जाते थे।
एक क्षण के लिए तुम्हारी चेतनता खो जाती थी; तुम घाटी में थे, किंतु अचेतन। और जिस क्षण तुम इसमें प्रविष्ट होते हो, यह क्षण छोटा हो जाता है। जितना तुम इसकी खोज करते हो, उतना ही यह खो जाता है। और एक क्षण आता है जब तुम कामवासना में होते हो, किंतु अचेतन नहीं होते। घाटी खो जाती है, और सुख खो जाता है। तब यह कृत्य मूढ़तापूर्ण बन जाता है। तब यह कृत्य मात्र एक यांत्रिक निकास बन जाता है, इसकी कोई आध्यात्मिक पृष्ठभूमि नहीं होती।
हमने केवल अचेतन एकता को जाना है, हमने कभी सचेतन एकता को नहीं जाना और ध्यान सचेतन एकता है। यह कामुकता का दूसरा ध्रुव है। कामवासना अचेतन एकता का एक ध्रुव है और ध्यान सचेतन एकता का दूसरा ध्रुव है। कामवासना एकता का निम्नतम बिंदु है, और ध्यान उच्चतम एकता का चरम शिखर है। और अंतर चेतना का है। उनमें चेतना का अंतर है।
पश्चिमी मन अब ध्यान के बारे में सोच रहा है, क्योंकि कामवासना का आकर्षण खो चुका है। जब भी कोई समाज कामवासना के प्रति दमित नहीं रह जाता है, ध्यान अनुगमन करेगा। जब कोई समाज कामवासना के निषेध को छोड़ देता है-- ध्यान अनुगमन करेगा--क्योंकि निषेध रहित कामवासना इसके आकर्षण और रोमांस को मार देगी; इसके आध्यात्मिक पहलू को मार देगी। तुम इतने अचेतन नहीं हो सकते हो। तुम अक्सर इतने
अचेतन नहीं हो सकते। वरना उस अचेतनता में चेतना का एक आयाम बन जाएगा।
इसलिए कामवासना का दमन करने वाला समाज कामवासना में उत्सुक बना रह सकता है, लेकिन अ-दमित, दमन न करने वाला, निषेध रहित समाज सदा के लिए कामुकता में नहीं बना रह सकता है। उसे इसका अतिक्रमण करना ही पड़ेगा। इसलिए जब कभी कामवासना मुक्त, निषेध रहित हो जाती है, ध्यान अनुगमन करता है। और जब कोई समाज कामुक है, धर्म अनुगमन करेगा। कामवासना का दमन करने वाला समाज वास्तविक रूप से धार्मिक नहीं हो सकता है, क्योंकि ध्यान के कृत्य का विकल्प कामवासना द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है। इसलिए मेरे देखे काम-दमन से मुक्त समाज धार्मिक क्रांति की ओर उठाया गया एक कदम है। पश्चिमी मन पूछ रहा है--ध्यान क्या है--एक खोज है, एक तलाश है। और जैसे-जैसे समय गुजरता जाएगा, खोज और प्रगाढ़ होती जाएगी।
क्योंकि खोज है, इसलिए निस्संदेह इसका शोषण किया जा सकता है। और इसका पूरब के द्वारा शोषण किया जा रहा है। इसका शोषण किया जा सकता है। गुरुओं की आपूर्ति की जा सकती है, उनका निर्यात किया जा सकता है। और उनका निर्यात किया जा
रहा है। किंतु उन गुरुओं के द्वारा केवल युक्तियां, केवल युक्तियां ही सीखी जा सकती है। समझ जीवन के माध्यम से आती है, समझ जीवन-शैली के माध्यम से आती है। इसे दिया नहीं जा सकता, इसका हस्तांतरण नहीं किया जा सकता है।
मैं तुमको अपनी समझ नहीं दे सकता हूं। मैं इसके बारे में बात कर सकता हूं लेकिन मैं तुमको इसे दे नहीं सकता। तुमको इसे पाना होगा। तुम्हें जीवन में जाना पड़ेगा। तुमको गलतियां करनी पड़ेगी, तुमको असफल होना पड़ेगा, तुमको हताशा से होकर गुजरना पड़ेगा। और केवल असफलताओं, गलतियों, हताशाओ के माध्यम से, वास्तविक जीवन-शैली के साक्षात के माध्यम से तुम ध्यान' पर आ जाओगे। यही कारण है कि मैं कहता हूं यह एक विकास है। लेकिन कुछ समझा जा सकता है। यह समझ बुद्धि के तल से गहरी कभी नहीं जाएगी। दूसरे के माध्यम से यह बौद्धिक से अधिक कुछ
भी नहीं हो सकती है।
यही कारण है कि कृष्णमूर्ति असंभव की मांग करते है। वे तुमसे कहेंगे मुझे बौद्धिक रूप से मत समझो र' लेकिन किसी दूसरे के माध्यम से बौद्धिक समझ के अतिरिक्त कुछ और नहीं आ सकता है। यही कारण है कि उनका प्रयास बेतुका हो चुका है। जो कुछ भी वे कह रहे है, वह ठीक वही है जो कहा जा सकता है, यह प्रमाणिक है। लेकिन जब वे श्रोताओं से बौद्धिक समझ से कुछ और अधिक की मांग करते है, तो यह असंभव हो जाता है। क्योंकि दूसरे के माध्यम से इससे अधिक कुछ और आ भी नहीं सकता है. इससे
अधिक कुछ और कहा भी नहीं जा सकता। लेकिन मेरे देखे बौद्धिक समझ भी काम की हो सकती है।
जो कुछ मैं तुमसे बौद्धिक रूप से कहता हूं अगर तुम उसे समझ सको, तो तुम उसको भी समझ सकते हो जिसको तुमसे नहीं कहा गया है। अगर तुम उसको समझ सको जो मैं तुमसे कह रहा हूं तो तुम अंतरालों को जो मैं तुमसे नहीं कह रहा हूं जो मैं तुमसे
कह भी नहीं सकता हूं उनको भी समझ सकते हो। और अगर तुम बौद्धिक रूप से समझ लो और पहली समझ तो बौद्धिक होनी ही है, क्योंकि बुद्धि द्वार है। यह कभी भी आध्यात्मिक नहीं हो सकती, क्योंकि आध्यात्मिकता तो अंतर-अनुभूति है।
इसलिए मैं तुमसे केवल बौद्धिक रूप से संवाद कर सकता हूं। लेकिन अगर तुम इसे समझ सके, तो वह जिसे नहीं कहा गया है उसको भी अनुभव किया जा सकता है। मैं शब्दों के बिना संवाद नहीं कर सकता, लेकिन जब मैं शब्दों का प्रयोग कर रहा हूं तो मैं 'मौन' का उपयोग भी कर रहा हूं। तुमको दोनों के प्रति बोधपूर्ण होना पड़ेगा। जो कुछ मैंने तुमसे कहा है वह उन अंतरालों की, उन दो शब्दों के बीच के अंतरालों की, जिनका मैंने प्रयोग किया है, तुलना में कम महत्वपूर्ण है। अगर केवल शब्दों को समझा जा रहा है, तब यह संवाद है। और अगर तुम अंतरालों' के प्रति भी सजग हो सको; तो यह सत्संग है। लेकिन यह सभी कुछ तुम पर निर्भर है।
कहीं से भी आरंभ कर दो क्योंकि व्यक्ति को कहीं से तो आरंभ करना पड़ता है। और प्रत्येक आरंभ झूठा आरंभ होने के लिए बाध्य है, लेकिन व्यक्ति को कहीं से आरंभ करना ही पड़ता है। और प्रत्येक आरंभ के द्वारा ही जो कि झूठा आरंभ होने के लिए बाध्य
है, क्योंकि आरंभ में तुम अंत को नहीं जान सकते हो और अंत को जाने बिना तुम आरंभ को नहीं जान सकते हो। आरंभ अतीत है, और तुमको कहीं न कहीं से आरंभ करना पड़ता है। यह झूठा होने के लिए बाध्य है, लेकिन इसको झूठा ही रहने दो।
आरंभ कर दो, क्योंकि झूठे के माध्यम से, टटोलते रहने के द्वारा, द्वार मिल जाता है। हम अंधकार में है, हमें कहीं न कहीं से आरंभ करना ही पड़ता है। और कोई व्यक्ति जो बहुत होशियार है और जो सोचता है मैं केवल उसी समय आरंभ करूंगा, जब कि सही आरंभ होगा, तो वह कभी आरंभ नहीं करेगा। वह कभी अंधेरे में नहीं टटोलेगा, क्योंकि वह कहेगा जब दरवाजा खुला है और मुझे पता है कि यही दरवाजा है, केवल उसी समय मैं पहला कदम उठाऊंगा, वह कभी पहला कदम नहीं उठाएगा, और अगर पहला कदम नहीं उठाया गया है तो अंतिम कदम तक कभी पहुंचा नहीं जा सकेगा। और मैं यह भी कहता हूं कि झूठा कदम भी एक कदम है, झूठा कदम भी सही कदम की दिशा में बढ़ाया गया एक कदम है, क्योंकि यह एक कदम है; यह एक आरंभ है।
इसलिए मैं यह भी कहता हूं कि झूठा आरंभ, गलत आरंभ भी सही आरंभ है, क्योंकि यह एक आरंभ है। तुम अंधकार में टटोलने से शुरू करते हो और टटोलते-टटोलते द्वार मिल जाता है।
इसीलिए मैं कहता हूं कि भाषा की प्रक्रिया के प्रति, शब्दों की प्रक्रिया के प्रति होशपूर्ण रहो और अंतरालों के प्रति, मध्यांतरो के प्रति सजगता की खोज में रहो। और कुछ पल ऐसे होंगे, जब तुम्हारी ओर से किसी सचेतन प्रयास के बिना, कुछ पल ऐसे होंगे और तुम अंतराल के प्रति सजग हो जाओगे। यही सम्मुख होना है, दिव्यता से सामना है, परम अस्तित्व से साक्षात है। जब कभी यह आमना-सामना हो, इससे जल्दी से भाग मत जाना। इसके साथ रहो। पहली बार में यह भय-जनक होगा, यह ऐसा होने के लिए बाध्य है।
जब भी अज्ञात से सामना होता है, भय उत्पन्न होता है क्योंकि हमारे लिए अज्ञात का अर्थ है मृत्यु। हम मृत्यु से भयभीत रहते है क्योंकि यह अज्ञात है--सर्वाधिक अज्ञात—यथा सबसे अधिक विख्यात अज्ञात अनुभूति। इसलिए जब कभी अंतराल होगा, तुम्हें मृत्यु की अनुभूति होगी, जैसे कि तुम्हारी मृत्यु होने वाली है। तब मर जाओ! बस उसी में रहो, और अंतराल में पूरी तरह से मर जाओ। और तुम फिर से जीवित हो उठोगे। पुनर्जीवन से मेरा यही अभिप्राय है, अंतराल में, मौन में मर कर जीवन पुर्नजावित हो जाता है। तुम जीवित लौट आते हो, और पहली बार वास्तव में जीवित होते हो।
इसलिए मेरे लिए ध्यान कोई विधि नहीं, बल्कि एक प्रक्रिया है; ध्यान कोई विधि नहीं है, बल्कि एक समझ है। इसको सिखाया नहीं जा सकता, इसका केवल संकेत दिया जा सकता है। तुम्हें इसके बारे में सूचित नहीं किया जा सकता क्योंकि कोई सूचना भीतर से नहीं दी जाती है। यह बाहर से दी जाती है। ध्यान तुम्हारी अपनी स्वयं की आंतरिक गहराइयों से आता है।
इसलिए खोजो, खोजी हो जाओ, और शिष्य मत बनो। क्योंकि केवल खोजी ही शिष्य है--किंतु तब वह किसी गुरु का शिष्य नहीं है, बल्कि वह समस्त जीवन का शिष्य है। तब शब्दों को ही मत सीखते रहो क्योंकि आध्यात्मिक सीख कभी शब्दों की नहीं हो सकती। अंतरालों को सीखते रहो--मौन के उन क्षणों को जो वहां है, सदा तुम्हें घेरे हुए है। भीड़-भाड़ में, बाजार में वहां वे है, वे वहां मौजूद है। मौन को खोजो, भीतर और बाहर अंतरालों को खोजो और एक दिन तुम पाओगे कि तुम ध्यान में हो। ध्यान तुम तक आ
गया है। यह सदा आता है।
व्यक्ति को इसकी खोज में होना पड़ता है, क्योंकि सिर्फ तब, जब कि तुम खोज में हो, तुम इसके प्रति खुले हुए, इसका स्वागत करने के लिए तैयार होते हो। तुम इसके मेजबान हो और ध्यान अतिथि है। तुम इसे निमंत्रित कर सकते हो और इसकी प्रतीक्षा कर
सकते हो। यह आता है। यह सदा से आता रहा है। यह बुद्ध के पास आता है, यह जीसस के पास आता है., यह प्रत्येक व्यक्ति के पास आता है, यह प्रत्येक उस व्यक्ति के पास आता है जो खुल जाने और खोजने के लिए तैयार है।
किंतु इसे कहीं और से मत सीखो; अन्यथा तुम धोखा खा जाओगे। और धोखे बहुत से हैं। और मन सदा किन्हीं सरलतर चीजों की तलाश में रहता है--कम से कम प्रतिरोध हो। मन सदा कम से कम प्रतिरोध की खोज में रहता है, और कम से कम प्रतिरोध
की यह चाहत शोषण का कारण बन जाती है। फिर वहां अनेक गुरु हैं, और गुरु परंपराएं हैं, और सारी आध्यात्मिक खोज विषाक्त हो जाती है।
सर्वाधिक खतरनाक व्यक्ति वह है जो किसी की आध्यात्मिक मांग का शोषण करता है। अगर कोई तुम्हारे धन पर डाका डाले तो यह इतना खतरनाक नहीं है, क्योंकि किसी चीज का चुरा लिया जाना इतना खतरनाक नहीं है; अगर कोई तुम्हें मार भी डाले तो
भी वास्तव में यह इतनी गंभीर बात नहीं है। लेकिन अगर कोई तुम्हें इस प्रकार से धोखा दे और ध्यान की ओर दिव्यता की ओर, समाधि की ओर की प्यास को मिटा दे या स्थगित भी कर दे, तो यह पाप बहुत बड़ा और अक्षम्य है।
लेकिन ऐसा किया जा रहा है। इसलिए इसके प्रति सावधान रहो। ऐसा अच्छा रहेगा...? हर किसी से मत पूछो 'ध्यान क्या है? ध्यान क्या है? ध्यान कैसे किया जाए?’ पूछो : बाधाएं क्या है? रुकावटें क्या है। हम ध्यान में क्यों नहीं हैं? विकास कहां रोक दिया गया है? कहा पर हम पंगु हो गए है। और किसी गुरु की खोज मत करो, क्योंकि गुरु लोग पंगु बना रहे है। वे पंगु बनाते है। और कोई भी व्यक्ति जो तुमको पूर्व--निर्मित सूत्र; बने-बनाए सूत्र दे देता है वह मित्र नहीं है वरन शत्रु है।
अंधकार में टटोलो। यही नियति है, यही परिस्थिति है, और कुछ किया भी नहीं जा सकता है। ऐसा ही है अंधकार में टटोलो और यह टटोलना ही वह समझ बनेगा जो मुक्त कर देती है। जीसस ने कहा है 'सत्य मुक्त करता है। सत्य स्वतंत्रता है।' समझ स्वतंत्रता
है क्योंकि सत्य सदैव समझ के माध्यम से आता है। यह कुछ ऐसा नहीं है कि तुम इससे मिलोगे और तुम्हारा इससे आमना-सामना हो जाएगा। यह कुछ ऐसा है जिसमें तुम विकसित होगे। सत्य कोई ऐसी चीज नहीं है जिससे किसी काल और किसी देश में तुम्हारा
मिलना हो जाएगा। सत्य कुछ ऐसा है जिसमें तुम विकसित होगे।
इसलिए समझ की खोज में रहो, क्योंकि समझ ही एकमात्र विकास है, और तुम जितना समझपूर्ण, जितना परिपक्व होते जाओगे, सत्य तुम्हारे उतने ही निकटतर होगा। और किसी अज्ञात, अनअपेक्षित क्षण में, क्योंकि मन उसकी अपेक्षा नहीं कर सकता है जो कि मन से परे हो, जिसकी पूर्व--घोषणा न हो सके, क्योंकि मन उसकी पूर्व घोषणा नहीं कर सकता जो मन का नहीं है-किसी अनअपेक्षित, अकल्पनीय पल में, जब समझ अपनी चरम अवस्था पर आती है, तुम खाई में होते हो। अब तुम नहीं बचे हो, और ध्यान है।
जब तुम नहीं होते हो तब तुम ध्यान में हो। दोनों का अस्तित्व एक साथ नहीं हो सकता है या तो तुम हो या ध्यान है। इस प्रकार ध्यान कभी तुमसे नहीं आता, यह सदा ही तुमसे परे है। जब तुम खाई में होते हो, ध्यान वहां होता है। तब अहंकार नहीं होता; तब
तुम नहीं होते। तब अस्तित्व होता है। यही है, जो धर्मों का परमात्मा से, परम अस्तित्व से अभिप्राय है। यही है जिसको धर्मो ने परम लक्ष्य कहा है। और ध्यान ही परम गन्तव्य है।
यह सभी धर्मो का, सभी खोजियों का और सभी अनुसंधानों का सार तत्व है। यह कहीं भी पूर्व--निर्मित नहीं मिलता है। और कोई भी जो ऐसा कहता हो, इसका दावा करता हो, तो उससे सावधान रहो।
टटोलते रहो, और असफलताओं से मत डरो। असफल हो जाओ, लेकिन उसी असफलता को दोहराओ मत।
यही है सभी कुछ, यही पर्याप्त है। गलतियां करना मानवीय है, क्षमा किया जाना दिव्य है, और उस व्यक्ति को जो सत्य की खोज में गलतियां करता रहता है, सदैव क्षमा कर दिया जाता है। यह अस्तित्व की परम गहराइयों में से किया गया वादा है, लेकिन
व्यक्ति को इसकी ओर विकसित होना पड़ता है।
आज इतना ही
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें