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बुधवार, 25 सितंबर 2019

पूना आवास व कार्य ध्यान--(2019)


पूना आवास और कार्य ध्यान-(2019)
    
    अभी पीछले ही दिनों पूना में कार्य-ध्यान आवास का मोका मिला, उन मधुर क्षणों की कुछ मधुर व खट्टी यादें आपके साथ साझा कर रहा हूं, हम चाहे तो कहीं भी, किसी भी प्रस्थिती में सिख सकते है, हर घटना हमें एक नये आयाम की और इशारा करती है, ठीक ऐसा ही मेरे उन तीस दिनों में देखने को मिला, क्योंकि पूना ध्यान के लिए तो मैं 1994 से लगातार जा ही रहा हूं, वहां एक-एक महीना या उस से अधिक रह कर भी ध्यान किया है, परंतु बेटी के कहने पर की आप अंदर ही रहो और अंदर काम करो उस अनुभव को भी लोगे तो आपको अच्छा लगेगा। सो मैंने कार्य ध्यान के लिए एक फार्म भर दिया, मैं चाहता था कि, मैं कम से कम दो महीने तो रहूं, तब उन्होंने एक महीने की मंजुरी मुझे दे दी। मैंने 15,000/- रु भी जमा करा दिए, टोटल 30,130/- मैंने वहां जाकर जमा करा दिए, एक सुंदर, स्वछ, ऐ सी कमरा, यह सब देख कर अच्छा लगा, उस दिन तो मुझे इवेंटस में लगा दिया, मुझ से दिन में पुछ लिया गया था कि आप क्या-क्या कार्य कर सकते हो, उसमें हिन्दी टंकन भी मेंने लिख दिया था, तब उन्होंने मुझे उसी श्याम कहां गया की आप सुबह नो बजे मुझे दफतर में मिले आपको
हिन्दी टाईपिंग आती है, आप उसका टेस्ट दे दे, मुझे साधना जी के पास ले जाया गया, वह कहने लगी लो करो टाईपिंग, मैंने कहां मुझे अंग्रेजी से हिन्दी में टाईप करने की आदत नहीं है, मैं रिमिंगटन की बोर्ड से टाईप कहता हूं वह कहने लगी वो तो मुझे नहीं आती आप स्वामी अमित जी के पास जाओं, वहां जाने के बाद पता चला की वह श्री लीप्पी में टाईप करते है, तब मैंने कहां अपने किबोर्ड की एक फोटो कोपी निकाल कर दो, वह काफी रिमिंगटन से मिलता था, से मैंने उसे सामने रख कर टाईप किया और उनके एक साथी स्वामी त्योहार-और अमीत जी ने कहा की तुम कर सकते हो, तब उन्होंने मुझे एक कम्पयुटर दे दिया और उस में श्री लिप्पी डलवा दि, कुछ ही घंटों में हाथ चलने लगा, अब उन्होंने मुझे जो पुस्तक टाईप करने को दी उस का नाम तंत्रा विजनइसे स्वामी सत्यवेदानंत ओर स्वामी अनिल भारती कानपुर वाले ने करिब पच्चीस साल पहले किया था। अनुवाद का अनुवादक से बहुत महत्वपूर्ण जूडाव होता है, बहुत ही सूंदर अनुवाद किसा था, उनके हास्त लिखत को पढ़ने में काफी दिक्कत हुई, परंतु एक दो दिन में वह शब्द मेंरी पकड़ में आने लगे, जब पहला प्रवचन मैंने टाइप कर के दिया तो मेरे सहयोगी ने जब मेरे साथ बैठ कर उसे पढ़ा और उस में बहुत गलतिया थी, या उनका उन्हें लिखने का तरिका अलग था, परंतु सच इतना अच्छा अनुवाद था, लग रहा था ओशो बोल रहे है, वह स्वामी जी खुश हो गये। और मेरे मुक्त कंठ से भुरी-भुरी प्रशंसा की।
वो कहने लगे स्वामी जी, ये पुस्तक अति महत्वपूर्ण है, मेरी तो है ही आपको भी इसे टाईप कर के बहुत कुछ मिलेगा, सच उनकी बात एक दम सत्य थी, उन्होंन जिद्द करके मेरा एक माह का कार्य काल बढाने के लिए कहा। और मैंने उन्हें मना किया की घर पर मेरी पत्नी अकेली है, और वहां बहुत काम हो जाता है, बेटी भी नहीं है, परंतु उस सुंदर अवसर को मैं भी चाहता था, सो मैंने एक महीने के रहने के लिए और अनुरोध कर दिया, मेरा अनुरोध अगले दिन ही स्वीकार कर लिया गया, मुझे बुलाया गया और कहा गया कि आप बाकि के पैसे जमा करा दो, मैंने कहा की मैं आज पैसे नही लाया बैंक से निकाल कर कल जमा करा दूंगा।
अगले दिन मैं पैसे लेकर गया, वहां पर एक जपानी महिला ने मुझे पैसे जमा करने एक सिलिप दी और कहा की हमने आपके चार हजार रु की बचत कर दी है, मैंने उन्हें ध्यवाद कहा, और जाकर 22,500/- रु जमा करा दिए, आकर अपने डेक्स पर काम करने लगा, कुछ देर बाद वह महिला आई और मेरे डीपोजिट स्लिप को लेकर चली गई, मेंने श्याम को अपनी स्लिप मांगी तो वह टाल गई, इस तरह से चार दिन गुजर गये, बेटी ने वापसी का टीकट करा दिया, की जब आपने वहां दो महीने रहना ही है, तो आप आराम से कार्य ध्यान करो, हम कुछ दिनों के लिए स्पेन चले जायेगे, तब आपको टिकट के लिए दिक्कत होगी, अब चार दिन के बाद मुझे बुलाया गया, ओर कहां गया की आपकी अंग्रेजी कमजोर है, इस लिए आप अपने कार्य को बदल लो, मैंने कहा मेरा अंग्रेजी के काम का इतना कोई महत्व ही नहीं है, मैं तो हिन्दी में टाईप कर रहा हूं, नहीं उपर से आदेश आया है, तब मैंने कहा की आपने मेरे पैसे क्यों जमा कराये आज पांच दिन हो गये, मैंने जहाज का टिकट भी करा लिया है, मुझे और कोई कोर्स नहीं करना, और आप मुझे ये बतोओं की जब मेरी अंग्रेजी कमजोर है, और उसके कारण मैं हिन्दी टाईप कार्य ध्यान ही नहीं कर सकता तो और फिर क्या कर सकता हूं? आप कृपा कर मेरे पैसे मुझे लोटा दो, तब उसने मुझे कोई जवाब नहीं दिया।
कहां की मैं अभी पूछ कर बतालती हूं, मैंने कहा मुझे एक घंटे में जवाब चाहिए क्योंकि मुझे अपना जाने के टिकट की तारिख भी बदलनी है, तब वह एक घंटे बाद आई और कहां की आप अपने पैसे वापस ले सकते हो, मुझे मेरे पैसे तीन दिन बाद मिल गये, मेरे सहायक ने कहां की ये क्या हो रहा है, मेरी समझ से बहार की ये बात है, क्योंकि ये लोग तीन माह से मुझे लगातार कह रहे थे कि आप हिन्दी टाईपिस्ट कार्य ध्यान के लिए विज्ञापन दो, और आज आप वो कार्य कितनी सरलता ओर समझ से मन लगा कर कर रहे है। मुझे सच आपके कार्य करने पर गर्व होता है, पूरे जीवन में मैंने एैसा टाईप करने वाला नहीं मिला। और ये सब क्या नाटक है......!
अब देखिए ओशो जी चाहते थे, की पूर्व अधुरा है, पश्चिम भी अधुरा, है, वह दोनों के बीच एक पुल बनाना चाहते थे, वह कार्य वह अपने कामों मैं भी छोड़ते चले गए। ओशो, ने तीन पुस्तको को अंग्रेजी में बोला, पंतजलि, विज्ञान भैरव तंत्र, तंत्रा विजन, इन में से दो का अनुवाद सालों पहले छप चुका है, ये पुस्तक टाईप के कारन सालों से उलझी पडी है, शायद ये अनुवाद जो मैंने टाईप किया 80 के दश्क का है, और जो कुछ भी हिन्दी में बोला है, वह पूर्व से अधिक पश्चिम के लोगों के लिए महत्वपूर्ण है, परंतु ये पश्चिम के लोग अति महत्वकांशी और अहंकारी होते है, एक पटरी से रेल नहीं चल सकती। वो यही चलाना चाहते है, उनके पास बुद्धी है, हमारे पास हृदय है, दोनों के मिलने से जीवन बहुत सूंदर और सहज हो सकता था। ओशे या उसके काफी समय से दोनों का मिलन होता रहा, अब वहां केवल बौद्धिकता वादी रहते है, ध्यान के विषयश् में भी वह इतने बौधिक हो गये है, इंच-इंच उस लकिर पर चलना चाहते है।
जो ओशो की देशना के बहार की बात है, ओशो ने ध्यान या किसी कार्य को सिरियसता से लेने को नहीं कहा, वो तो सिरियस्ता को एक बीमारी ही कहते थे, उसे तुम एक खेल की तरह से करो, उस में तुम बहो डूबो, और सहज सरलता से होने दो उसे। परंतु यहां तो सब उलटा-पूलटा हो रहा है, ये सब आदमी को एक मशीन बना रहे है, अब मैं तो केवल सुनता रहा और मन ही मन कलपता रहा, वाह रे भगवान जो तुम चहाते थे, ठीक उसके उलटा ही हम करेंगे, एक बुर्जग व्यक्ति ने पूछा की मैं जब सक्रिय ध्यान करने जाता हूं तो स्टोप में इतनी देर खड़ा नहीं हो सकता हूं, इस लिए पास की कुर्सी पर आराम से जाकर बैठ जाता हूं, तब मुझे कहा गया कि आप यूं बैठ नहीं सकते, मैंने कहा मेरे घुटनों मे दर्द हो जाता है, तब कहा गया की आप फिर ध्यान के लिए मत आएये, कितना अजीब लगा, उस व्यक्ति ने कहा की आप का ये ध्यान केंद्र है या टार्चर रुम तब उस व्यक्ति ने बडी बेर्शमी से कहा की टार्चर रुम, अब यह सब क्या है, शब्दों को इस तरह पकडना भी तो मुढ़ता ही तो हुई।
एक बीस साल के युवक के लिए जो सही है, क्या वह 60 साल के वृद्ध के लिए भी क्या सही है?
खेर प्रत्येक गुरु के साथ यह होता आया है, गुरु तो एक विशल सागर होता है, और हम केवल घट को ही देख समझ सकते है, ये हमारी मजबुरी है, अब सागर को घाटों से नहीं समझा जा सकता, उड़सा का घाट अलग, गोवा का अलग, परंतु सागर तो एक है, परंतु हम इतने ही बुद्धिमान है, परंतु श्याद है हम मुढ़ ही।
अब उस पुस्तक के मैंने साढे सात प्रवचन इन 21 दिनों में किए, उनके करने मात्र से जो मिला उसे शब्दों में उतारा नहीं सकता था, कभी रोने लग जाता, कभी, अपने में खो जाता, मैं रोज करिब 4 से 5 हजार शब्द टाईप करता था। सच आनंद आ गया। श्याम को इतना थक जाता परंतु चार बजें के बाद मै तुरंत उठ जाता और तरनलात की और चला जाता, वहां एक घंटा तेरता, मेरा सबसे प्रिय ध्यान तैरना ही है, मैं जल में जिस सरतला से उस में विलय हो जाता हूं, मेरा शरीर भी मुझसे अलग ही रहता है, इस उम्र में भी कितने ही चक्र लगा लु शरीर में थकावट नहीं होती या में खुद को उससे दूर पाता हूं। क्योंकि मेरे देखे मन भी तरल है, और जल भी तरह, इस लिए आपने देखा हिन्दुओं ने आपने सारे तीर्थ नदियों के किनारे ही बनाए है। जल के पास आपका ध्यान बहुत सरल और गहरा हो जाता है।
मेरी उर्जा और भाव को उन्होंने खंडित कर दिया, मन कुछ घंटो के लिए विचिलित हो गया। परंतु सच उसके बाद भी मैंने उस कार्य को डूब कर किया, ठीक टाईम पर जाकर कार्य करने लगता और उसे उस तन्मयता और लगन से करता जबकि मैं जानता था कि यहां इसे कोई महत्व नहीं दे रहा समय भी गजारा जा सकता था। परंतु मैं तो उसमें डूबना चाहता था। उसे पीना चाहता था। और कोई देखे न देखे परंतु मैं तो जानता था कि मैं क्या कर रहा हूं।
उन्होंने क्यों ऐसा क्यों किया, भला उनका क्या जा रहा था, मेरी समझ या किसी की भी समझ के बाहर की ये बात है, परंतु मैंने ये समझा की ये सब एक मुर्खता का ही खेल है, उसके साथ अगर अहंकार मिल जाये तो क्या कहने, क्योंकि चार हजार बचाने वाली लडकी जो इतनी हंस कर मुझे धन्यवाद के लिए कह रही थी वहां से गायब थी, शायद एक छोटी सी बात की कांऊटिंग में गलती हुई है, अगर हम एक साथ पैसा जमा करते है तब होते है, 52,600/- अब मैंने पहले पैसे तो जमा करा ही दिए थे सो उन्होंने मुझसे 22,500/- की जगह 26,500/- लेना चाहिए था, एक छोटी सी बात परंतु अहंकार उसे कितना जटिल बना देता है, वह लोग इतना भी कह सकते थे, मित्र हमसे जोडने में गलती हुई है, आप चार हजार रु और जमा कर दिजिए, तब शायद मैं भी समझता हूं, की सत्य बात तो यहीं है, और श्याद में करा भी देता परंतु आप इस पैसे को किसी दूसरे कोर्स में डीपोजिट कर ले, वगेरा-बगेरा कितना मुर्खता भरा लगात है, एक ओशो युग था जब कार्य करने के लिए साधक को फूड पास मिलते थे, क्योंकि वह अपनी उर्जा आपको दे रहा है, छ घंटे कार्य कर रहा है, आज हम पैसे भी दे रहे और कार्य भी कर रहे है, कितनी मुर्खता की बात नहीं है, और उपर से उनकी मुर्खता भी सहते रहो।
ये लोग ताली एक हाथ से बजाना चाहते है, ये कभी नहीं हो सकता, हम धीरे-धीरे ओशो आश्रम, ओशो कम्युन, से अब रिजोर्ट तक का सफर तो तय कर चूके है अब आगे आगे देखिए क्या होता है।
अब इन प्रवचनों को टाईप करते हुई दिन रात मैं वहीं सोचता, कमरे पर जाकर रात को मैं ओशो के वो प्रवचन अंग्रेजी में सुनता, फिर सुबह उन्हें टाईप करता, वह सूत्र, उस महान सराह के.....ही मेरे मस्तिष्क में घूमते रहेत, मन किसी मादमता से भरा रहा, और इन तीस दिनों में मैंने रात का भोजन एक दिन भी नहीं किया, बस फल खकर सो जाता।
हां एक दो बार बांसुरी का प्रोग्राम जरुर रात को किया परंतु वह आपने मन से नहीं। उनके आग्रह पर, और सच तो यह है कि बांसुरी बजाना मुझे तैरने के बाद दुसरा कार्य बहुत अच्छा लगता है। परंतु मन में सराह के सूत्रों की गुनगुहाट के आगे वह भी फीकी लग रही थी।  तब मैंने उन्ही दिनों सराह और उसकी गुरु पर एक कहानी लिखी जो अब घर पर आकर टाईप कर रहा हूं...आप उसे जरुर पढना आपको भी बहुत अच्छा लगेगा। इतिहास की उस छुपी खादन से हीरे निकलने की मैंने भरसक कोशिश की है। और मैंने एक बात और नोट की आपकी कोई भाव दशा हमेश एक जैसी नहीं होती, मेरी तो सालों से आदत है, मैं उसे शब्दों में उतार देता हूं तब वह मेरे चित की धरोहार हो जाती है। उसे जब चाहे खोलो और उसके साथ बहने लगो, आप उस अवस्था में कभी भी फिर डूब सकते हो। अब ये मेरे साथ होता है, हो सकता है मैं गलत भी हूं। परंतु मुझे इससे सहयोग मिलता है।
अब देखिए काल चक्र उन्होंने मेरे मेल पर उन प्रवचन चार दिन पहले भेज दिया। मेरे घर पर ही भेज दिया है, उन्हें घर से टाईप कर के भेज दूं.....वाह रे....ओशो तेरी महीमा अपरम पार है...वहां पैसे भी देता यहीं कार्य करता, यहां आराम से किसी भी समय कर सकता हूं, और सच इस उम्र में मैं सालों से दोपहर में दो घंटे आराम करता हूं, वहां पर दिन का खान खाने के बाद आराम की जरुरत होती थी, परंतु आप ऐसा नहीं कर सकते, चलो...ओशो ने जैसा चाहा उनकी रजा.....मुझे चूना इस कार्य के लिए तो अपने को भग्यशाली मानता हूं। वो मुझ जैसे को इतना प्रेम और इस कार्य को करने लायेक समझते है।
चार लाईने
भेद तेरा कोई क्या पहचाने।
जो तुझसा हो वो तुझे जाने।।.....
सच जिसे जानना है, उस जैसा ही होना होगा, उस चित की आवस्था के बिना हम उसे नही समझ सकते।

मनसा आनंद

दसघरा


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