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शनिवार, 28 सितंबर 2019

बुद्धत्व का मनोविज्ञान-(प्रवचन-01)

बुद्धत्व का मनोविज्ञान-ओशो

प्रवचन-पहला-(अंतस-क्रांति)

(The Psychology of the Esoteric-का हिन्दी अनुवाद है)
 ओशो मनुष्य के विकास के पथ पर क्या यह संभव है कि
भविष्य में किसी समय सारी मनुष्य-जाति संबुद्ध हो जाए?आज मनुष्य विकास के किस बिंदु पर है?
मनुष्य के साथ विकास की प्राकृतिक स्वत: चलने वाली प्रक्रिया समाप्त हो जाती है। मनुष्य अचेतन विकास की अंतिम रचना है। मनुष्य के साथ सचेतन विकास का आरंभ होता है। बहुत सी बातें खयाल में ले लेनी है।
पहली बात अचेतन विकास यांत्रिक एवं प्राकृतिक होता है। यह अपने आप से होता है। इस प्रकार के विकास के माध्यम से चेतना विकसित होती है। किंतु जैसे ही चेतना अस्तित्व में आती है, अचेतन विकास रुक जाता है, क्योंकि इसका उद्देश्य पूरा हो चुका है।


अचेतन विकास की आवश्यकता तभी तक है, जब तक कि चेतना अस्तित्व में न आ जाए। मनुष्य चेतन हो गया है। एक प्रकार से उसने प्रकृति का अतिक्रमण कर लिया है।
अब प्रकृति कुछ नहीं कर सकती। प्राकृतिक विकास के माध्यम से जो अंतिम उत्पाद संभव था, वह अस्तित्व में आ चुका है। अब मनुष्य यह निर्णय करने के लिए स्वतंत्र है कि वह विकसित हो या न हो।


दूसरी बात अचेतन विकास सामूहिक होता है, लेकिन जिस पल विकास सचेतन बनता है, वह निजी हो जाता है। मानव-जाति से परे किसी सामूहिक, स्वत: चलने वाले विकास की गति नहीं है। अब से विकास एक निजी प्रक्रिया बन गया है। चेतना से निजता पैदा होती है। जब तक चेतना विकसित न हो, कोई निजता नहीं होती। केवल प्रजातियां होती है, व्यक्ति नहीं।
विकास अगर अभी तक अचेतन हो तो यह एक स्वत: चलने वाली प्रक्रिया होती है, इसके बारे में कोई अनिश्चितता नहीं होती है। घटनाएं कार्य और कारण के नियम से घटित होती हैं। अस्तित्व यंत्रवत और निश्चित होता है। लेकिन मनुष्य के साथ, चेतनता के
साथ अनिश्चितता अस्तित्व में आ जाती है। अब कुछ भी निश्चित नहीं होता। विकास घटित हो सकता है या नहीं भी हो सकता है। क्षमता तो होती है, पर चुनाव पूरी तरह से प्रत्येक व्यक्ति पर निर्भर होता है। इसीलिए चिंता मानवीय घटना है। मनुष्य से नीचे के जगत में कोई चिंता नहीं है, क्योंकि चुनाव की स्वतंत्रता भी नहीं है। प्रत्येक घटना उसी तरह से घटित होती है जैसे कि उसे घटित होना चाहिए। वहां पर न चुनाव होता है, न चुनाव करने वाला, और चुनाव करने वाले की अनुपस्थिति में चिंता असंभव है। कौन चिंतित होगा? कौन तनावग्रस्त होगा?
चुनाव की संभावना के साथ चिंता एक छाया की तरह आती है। अब हर चीज को चुना जाना है। प्रत्येक कार्य सचेतन प्रयास होना है। तुम अकेले ही उत्तरदायी होते हो। अगर तुम असफल होते हो, तो तुम असफल होते हो। यह तुम्हारा उत्तरदायित्व है। अगर तुम सफल होते हो, तो तुम सफल होते हो। यह भी तुम्हारा उत्तरदायित्व है।
और एक अर्थ में प्रत्येक चुनाव परम होता है। तुम इसे अनकिया नहीं कर सकते, तुम इसे भूल नहीं सकते, तुम इससे पहले की स्थिति में फिर से वापस नहीं जा सकते। तुम्हारा चुनाव तुम्हारी नियति बन जाता है। यह तुम्हारे साथ रहेगा और यह तुम्हारा एक हिस्सा बन जाएगा। तुम इससे इनकार नहीं कर सकते। लेकिन तुम्हारा चुनाव सदा ही एक जुआ है। प्रत्येक चुनाव अनभिज्ञता में किया जाता है, क्योंकि कुछ भी निश्चित नहीं होता।
यही कारण है कि मनुष्य चिंता से पीड़ित होता है। वह अपनी गहराइयों में चिंतित होता है। सबसे पहली बात जो उसे संताप ग्रस्त करती है, वह यह है कि होना है या नहीं होना है? करना है या नहीं करना है? यह करूं या वह करूं?
चुनाव न करना संभव नहीं है। अगर तुम नहीं चुनते हो, तो तुम न चुनने को चुन रहे हो, यह भी एक चुनाव है। इसलिए तुम चुनने के लिए बाध्य हो। तुम ' न चुनने' के लिए स्वतंत्र नहीं हो। चुनाव न करने का वैसा ही परिणाम होगा जैसा कि चुनाव करने का।
यह सजगता ही मनुष्य की गरिमा, प्रतिष्ठा और सौदर्य है। लेकिन यह एक बोझ भी है। जैसे ही तुम सजग होते हो वैसे ही तुम्हें एक गरिमा प्राप्त होती है और बोझ भी अनुभव होता है, दोनों एक साथ आते है। प्रत्येक कदम इन्हीं दो बिंदुओं के बीच की गति
होती है। मनुष्य के साथ दो बातें पैदा होती है चुनाव करना और जागरूकता से अपनी निजता को विकसित करना। तुम विकसित हो सकते हो पर तुम्हारा विकास तुम्हारा निजी प्रयास होता है। तुम विकसित होकर बुद्ध हो सकते हो या नहीं भी हो सकते हो। चुनाव
तुम्हारे हाथ में है।
तो विकास दो प्रकार का है सामूहिक विकास और वैयक्तिक सचेतन विकास। लेकिन हू विकास ' को अचेतन सामूहिक प्रगति समझा जाता है, इसलिए यह बेहतर होगा कि हम मनुष्य के संदर्भ में 'क्रांति' शब्द का प्रयोग करें। मनुष्य के साथ क्रांति संभव हो
जाती है।
क्रांति का जिस अर्थ में मैं यहां प्रयोग कर रहा हूं उसका अभिप्राय है, विकास की ओर किया गया निजी, सचेतन प्रयास। यह निजी उत्तरदायित्व को उसकी चरम सीमा पर लाना है। अपने विकास के लिए मात्र तुम ही उत्तरदायी हो।
सामान्यत: मनुष्य अपने विकास के प्रति उसका जो उत्तरदायित्व है, उससे भागने की कोशिश करता है; चुनाव करने की जो स्वतंत्रता है, उसके उत्तरदायित्व से भागने का प्रयास करता है। स्वतंत्रता बहुत भयभीत करती है। अगर तुम गुलाम हो तो तुम अपने जीवन के प्रति उत्तरदायी कभी नहीं होते; कोई दूसरा ही उत्तरदायी होता है। इसलिए एक प्रकार से गुलामी बहुत सुविधाजनक घटना है। वहां कोई बोझ नहीं होता। इस संदर्भ में
देखा जाए तो गुलामी एक स्वतंत्रता है क्योंकि तुम सजग चुनाव करने से बच सकते हो। जिस क्षण तुम पूरी तरह से स्वतंत्र होते हो, तुम्हें अपने चुनाव स्वयं करने पड़ेंगे। तुम्हें कोई कुछ करने को बाध्य नहीं करता है; सारे विकल्प तुम्हारे सामने खुले होते है। तब
मन से संघर्ष शुरू होता है। इसलिए व्यक्ति स्वतंत्रता से भयभीत हो जाता है।
कम्युनिज्म या फासिज्म जैसी विचारधाराओं के प्रति आकर्षण के कारणों में से एक कारण यह भी है कि वे व्यक्तिगत स्वतंत्रता से पलायन का प्रस्ताव रख देती हैं और व्यक्तिगत उत्तरदायित्व को नहीं मानती। व्यक्ति से उत्तरदायित्व का बोझ हटा लिया जाता है। समाज को जिम्मेवार ठहराया जाता है। जब भी कुछ गलत हो जाता है तुम राज्य पर, संगठन पर, अंगुली उठा सकते हो। मनुष्य बस एक सामूहिक संरचना का भाग बन जाता है। लेकिन व्यक्तिगत स्वतंत्रता को इनकार करके कम्युनिज्म और फासिज्म मानव के विकास की संभावना से भी इनकार कर देते है। यह उस महान संभावना से पीछे लौट जाना है जिसे क्रांति प्रस्तुत करती है मनुष्य का पूर्ण रूपांतरण। जब ऐसा होता है तो तुम परम को उपलब्ध करने की संभावना को नष्ट कर देते हो। तुम्हारा पतन हो जाता है, तुम दुबारा पशुओं के समान हो जाते हो।
मेरे देखे आगे का विकास निजी उत्तरदायित्व के साथ ही संभव है। तुम अकेले उत्तरदायी हो। यह उत्तरदायित्व छद्य रूप में एक महान आशीष है। इस व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ एक संघर्ष का जन्म होता है जो कि अंतत: चुनाव रहित बोध की ओर ले जाता है।
अचेतन विकास का पुराना ढांचा हमारे लिए समाप्त हो चुका है। तुम इसमें लौट सकते हो, लेकिन तुम इसमें ठहर नहीं सकते। तुम्हारा अस्तित्व विद्रोह कर देगा। मनुष्य चेतन हो चुका है, उसे चेतन बने रहना पड़ेगा। कोई और रास्ता नहीं है।
अरविंद जैसे दार्शनिक पलायनवादियों को बहुत लुभाते हैं। वे कहते है कि सामूहिक विकास संभव है। दिव्यता का अवतरण होगा और प्रत्येक व्यक्ति संबुद्ध हो जाएगा। लेकिन मेरे देखे यह संभव नहीं है। और अगर ऐसा संभव भी हो तो भी इसका कोई महत्व नहीं होगा। अगर तुम अपने व्यक्तिगत प्रयास किए बिना संबुद्ध हो जाते हो तो यह संबोधि किसी महत्व की न होगी। इससे तुम्हें उस प्रकार की समाधि नहीं मिलेगी जो प्रयास की पूर्णता से मिलती है। इसको मिले हुए के रूप में लिया जा सकता है- जैसे कि तुम्हारी आंखें, तुम्हारे हाथ, तुम्हारा श्वसन-तंत्र। ये महान वरदान हैं, लेकिन कोई उनका महत्व नहीं समझता, न ही उनको प्रिय मानता है।
जैसा कि अरविंद वादा करते हैं, अगर उसी प्रकार से तुम एक दिन संबुद्ध होकर जन्म लो तो यह महत्वहीन होगा। तुम्हारे पास बहुत कुछ होगा, लेकिन क्योंकि यह तुम्हारे पास बिना प्रयास के, बिना परिश्रम के आ गया है, यह तुम्हारे लिए अर्थहीन होगा। इसका महत्व खो जाएगा। सचेतन प्रयास आवश्यक है। उपलब्धि उतनी सार्थक नहीं है जितना कि प्रयास स्वयं में है। प्रयास इसको अर्थवत्ता देता है, संघर्ष इसको इसकी पहचान देता है।
जैसा कि मैं इसको देखता हूं वह संबोधि जो अचेतन, सामूहिक रूप से, दिव्यता की भेंट के रूप में आती है, न केवल असंभव है बल्कि अर्थहीन भी है। तुम्हे संबोधि के लिए संघर्ष करना चाहिए। संघर्ष के माध्यम से तुममें वह क्षमता सृजित हो जाती है जिससे
तुम आने वाले आशीष को देख सको, अनुभव कर सको और उसे ग्रहण कर सको।
अचेतन विकास मनुष्य के साथ समाप्त हो जाता है और सचेतन विकास- क्रांति- आरंभ होती है। लेकिन सचेतन विकास किसी विशेष व्यक्ति में आरंभ होना आवश्यक नहीं है। यह सिर्फ तभी आरंभ होता है जब तुम इसे आरंभ करना चाहो। लेकिन
अगर तुम इसे न चुनो, जैसा कि बहुत से लोग नहीं चुनते तो तुम बहुत तनावपूर्ण स्थिति में रहोगे। और आजकल मानव-जाति इसी तरह है-न कहीं जाना है, न कुछ पाना है। अब सचेतन प्रयास के बिना कुछ भी उपलब्ध नहीं किया जा सकता है। तुम अचेतन की
अवस्था में वापस नहीं जा सकते। दरवाजा बंद हो चुका है, पुल टूट चुका है।
विकसित होने का सचेतन चुनाव एक महान साहसिक कार्य है, यही मनुष्य का एकमात्र दुस्साहस है। पथ दुर्गम है, पर इसे ऐसा होना ही है। त्रुटियां वहां होंगी ही, असफलताएं आएंगी, क्योकि कुछ भी निश्चित नहीं है। यह स्थिति मन में तनाव पैदा कर देती है। तुम नहीं जानते कि तुम कहां हो, तुम नहीं जानते कि तुम कहां जा रहे हो। तुम्हारी पहचान खो गई है। यह स्थिति ऐसे बिंदु पर भी पहुंच सकती है कि तुम आत्मघाती हो सकते हो।
आत्मघात एक मानवीय घटना है। यह मानवीय चुनाव के साथ आती है। पशु आत्मघात नहीं कर सकते क्योंकि सचेतन होकर मृत्यु का चुनाव करना उनके लिए असंभव है। जन्म अचेतन की अवस्था में है, मृत्यु अचेतन की अवस्था में है। लेकिन मनुष्य- अज्ञानी मनुष्य, अविकसित मनुष्य के साथ एक चीज संभव हो जाती है मृत्यु को चुनने करने की योग्यता।
तुम्हारा जन्म तुम्हारा चुनाव नहीं है। जहां तक तुम्हारे जन्म का संबंध है, तुम अचेतन विकास के हाथ में होते हो। वस्तुत: तुम्हारा जन्म किसी भी तरह से मानवीय घटना नहीं है। अपनी प्रकृति से यह पशु जगत का हिस्सा है, क्योंकि यह तुम्हारा चुनाव नहीं है।
मानवता सिर्फ चुनाव से ही आरंभ होती है। लेकिन तुम अपनी मृत्यु का चुनाव कर सकते हो-एक निश्चयात्मक कृत्य। इसलिए आत्मघात निश्चित रूप से एक मानवीय कृत्य बन जाता है। और अगर तुम सचेतन विकास को नहीं चुनते तब बहुत संभावना है कि तुम आत्मघात को चुन लो। तुममें शायद इतना साहस न हो कि तुम सक्रिय रूप से आत्मघात कर सको, किंतु तब तुम एक धीमी, लंबी, आत्मघात की प्रक्रिया से गुजरोगे-घिसटते हुए, मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुए।
तुम किसी दूसरे को अपने विकास के प्रति उत्तरदायी नहीं ठहरा सकते। इस स्थिति की स्वीकृति तुम्हें शक्ति देती है। तुम अपने विकास के, वृद्धि के पथ पर होते हो। हम देवताओं को बनाते है और हम गुरुओं की शरण में जाते हैं, ताकि हमें अपनी स्वयं की जिंदगी के प्रति, अपने स्वयं के विकास के प्रति उत्तरदायी न बनना पड़े। हम खुद से हटा कर उत्तरदायित्व को किसी अन्य के ऊपर रखने का प्रयास करते है। अगर हम किसी देवता या किसी गुरु को स्वीकार कर पाने में समर्थ नहीं होते तो हम नशीले पदार्थो
या नशीली औषधियों के माध्यम से, या अन्य किसी पदार्थ के माध्यम से, जो हमें अचेतन बना दे, उत्तरदायित्व से बचने का प्रयास करते हैं। लेकिन उत्तरदायित्व को नकारने के ये प्रयास असंगत, बच्चों जैसे और बचकाने है। वे सिर्फ समस्या को स्थगित करते है, वे समाधान नहीं हैं। तुम इसे मृत्यु तक स्थगित कर सकते हो, लेकिन तब भी समस्या बनी रहती है, और तुम्हारे नये जन्म में यह सब उसी प्रकार से जारी रहेगा।
एक बार तुमको यह बोध हो जाए कि तुम अकेले ही उत्तरदायी हो, कि अचेतन होकर भी किसी प्रकार से कोई पलायन संभव नहीं है। और अगर तुम पलायन का प्रयास करते हो तो तुम मूर्ख हो, क्योंकि उत्तरदायित्व विकास के लिए एक महान अवसर है। इस
प्रकार से निर्मित संघर्ष से ही कुछ नया विकसित हो सकता है। बोधपूर्ण होने का अभिप्राय है, यह जान लेना कि सभी कुछ तुम पर निर्भर है। तुम्हारा देवता भी तुम पर निर्भर है, क्योंकि उसे तुम्हारी कल्पना द्वारा निर्मित किया गया है।
प्रत्येक बात अंतिम रूप से तुम्हारा हिस्सा है, और तुम ही इसके लिए उत्तरदायी हो। ऐसा कोई नहीं है जो तुम्हारे बहाने सुने न कोई अदालतें हैं जहां तुम अपील कर सको, पूरा उत्तरदायित्व तुम्हारा है। तुम एकाकी हो आत्यंतिक रूप से एकाकी हो। इसे
बहुत स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए। जिस पल कोई व्यक्ति सजग होता है, वह एकाकी हो जाता है। जितनी अधिक सजगता होगी उतना ही अधिक यह बोध होगा कि तुम अकेले हो। इसलिए समाज, मित्र, संघ, भीड़ इन सबमें उलझ कर इस तथ्य से मत
भागो। इससे भाग मत जाओ। यह एक महत घटना है, विकास की संपूर्ण प्रक्रिया इसी दिशा में कार्य करती रही है।
चेतना अब उस बिंदु पर आ चुकी है जहां तुम जान लो कि तुम एकाकी हो। और सिर्फ एकाकीपन में ही तुम संबोधि प्राप्त कर सकते हो। मैं अकेलेपन के लिए नहीं कह रहा हूं। अकेलापन तब अनुभव होता है जब कोई एकाकीपन से पलायन कर रहा हो, जब
कोई इसे स्वीकार करने को राजी नहीं है। अगर तुम एकाकीपन के इस तथ्य को स्वीकार नहीं करते तो तुम अकेलेपन का अनुभव करोगे। तब तुम किसी भीड़ या नशे का कोई उपाय खोजते हो, जिसमें तुम खुद को भूल सको। भूल जाने के लिए अकेलापन अपना
स्वयं का जादू निर्मित कर लेगा।
अगर तुम सिर्फ एक पल के लिए भी एकाकी हो सको, पूर्णत: एकाकी, अहंकार मिट जाएगा, 'मैं' मर जाएगा। तुम्हारा विस्फोट घटित हो जाएगा, फिर तुम न रहोगे। अहंकार एकाकीपन में नहीं रह सकता। यह सिर्फ दूसरों से संबंधों के द्वारा अस्तित्व में होता है। जब भी तुम एकांत में होते हो एक चमत्कार घटित होता है, अहंकार क्षीण हो जाता है। अब यह लंबे समय तक अस्तित्व में नहीं रह सकता है। इसलिए अगर तुममें एकांत में होने कि लिए पर्याप्त साहस है, तो धीरे- धीरे तुम्हारा अहंकार विलीन हो जाएगा।
एकाकी होना आत्यंतिक रूप से सचेतन और विचारपूर्ण कृत्य है, आत्मघात से भी अधिक विचारपूर्ण, क्योंकि अहंकार एकांत में नहीं रह पाता, किंतु यह आत्मघात में रह सकता है। अहंकारी लोग आत्मघात में अधिक उत्सुक होते हैं। आत्मघात सदा किसी और
से संबंधित होता है, यह कभी एकाकीपन का कृत्य नहीं होता। आत्मघात में अहंकार पीड़ित नहीं होगा। बल्कि यह और अधिक मुखर हो जाएगा। यह अधिक बलशाली होकर नये जन्म में प्रविष्ट हो जाएगा।
एकांत के द्वारा अहंकार बिखर जाता है। इसे संबंधित होने के लिए कोई नहीं मिलता तो यह रह नहीं पाता। इसलिए अगर तुम एकाकी होने के लिए, असंदिग्ध रूप से एकाकी होने के लिए तैयार हो-न भागो, न पीछे लौटो, बस एकाकीपन के तथ्य को जैसा यह है वैसा ही स्वीकार कर लो, तो यह एक महान अवसर बन जाता है। तब तुम एक बीज की भांति होते हो जिसमें बहुत संभावना निहित है। किंतु स्मरण रखना, पौधे के विकसित होने के लिए बीज को स्वयं को नष्ट करना पड़ता है। अहंकार एक बीज है, एक संभावना है। यदि यह बिखर जाता है, दिव्यता उत्पन्न होती है। दिव्यता न तो 'मैं' है, न ‘तू' है, यह एक है। एकांत के माध्यम से तुम इस एकात्मकता पर आ जाते हो।
तुम इस एकात्मकता के लिए झूठे विकल्प गढ़ सकते हो। हिंदू लोग एक हो जाते है, ईसाई एक हो जाते हैं, मुसलमान एक हो जाते हैं, भारत एक है, चीन एक है। ये सब एकात्मकता के विकल्प मात्र हैं। एकात्मकता सिर्फ पूर्ण एकांत के द्वारा आती है। एक भीड़ स्वयं को एक कह सकती है, किंतु यह एकता सदैव किसी अन्य के विरोध में होती है। जब तक भीड़ तुम्हारे साथ होती है, तुम आराम में होते हो। अब तुम और अधिक उत्तरदायी नहीं होते। तुम अकेले एक मस्जिद में आग नहीं लगा सकोगे, तुम अकेले किसी मंदिर को नष्ट नहीं कर पाओगे, किंतु भीड़ का अंग होकर तुम यह कर सकते हो, क्योंकि अब तुम निजी रूप से उत्तरदायी नहीं हो। हर एक उत्तरदायी है, इसलिए कोई एक विशेष रूप से उत्तरदायी नहीं है। वहां पर कोई निजी चेतना नहीं होती, मात्र एक सामूहिक चेतना होती है। भीड़ में तुम्हारा पतन हो जाता है और तुम पशु तुल्य हो जाते हो। भीड़ एकात्मकता की अनुभूति का झूठा विकल्प है। कोई भी व्यक्ति जो इस परिस्थिति के प्रति बोधपूर्ण है, अपने मनुष्य होने के उत्तरदायित्व के प्रति सजग है, उस कठिन, श्रमसाध्य कृत्य के प्रति जागरूक है, जो मनुष्य होने के कारण उसे करना है, किसी
झूठे विकल्प को नहीं चुनता है। वह तथ्यों के साथ उसी भांति जीता है जैसे कि वे हैं, वह किन्हीं कल्पनाओं की रचना नहीं करता। तुम्हारे धर्म और तुम्हारी राजनैतिक विचारधाराएं मात्र कपोल-कल्पनाएं हैं जो एकात्मकता की झूठी अनुभूति गढ़ती हैं।
एकात्मकता सिर्फ तब आती है जब तुम अहंकार-विहीन हो जाओ, और अहंकार सिर्फ तभी मिट सकता है जब तुम पूर्णत: एकाकी हो। जब तुम पूरी तरह से एकाकी होते हो, तुम नहीं होते। यही एक क्षण विस्फोट का क्षण है। तुम अनंत में विस्फोटित हो
जाते हो। यही और सिर्फ यही विकास है। मैं इसे क्रांति कहता हूं क्योंकि यह अचेतन नहीं है। तुम अहंकार-शून्य हो सकते हो या नहीं हो सकते हो। यह तुम पर निर्भर है। एकाकी
होना ही एकमात्र वास्तविक क्रांति है। बहुत साहस की जरूरत पड़ती है।
केवल एक बुद्ध एकाकी है, केवल एक जीसस या महावीर एकाकी है। ऐसा नहीं है कि उन्होंने अपने परिवार छोड़े, संसार छोड़ा। ऐसा दिखाई पड़ता है, पर ऐसा है नहीं। निषेधात्मक रूप से वे कुछ नहीं छोड़ रहे थे। कृत्य विधायक था, यह एकांत की ओर
चले जाना था। वे त्याग नहीं रहे थे। वे पूर्णत: एकाकी होने की खोज में थे। सारी खोज विस्फोट के उस पल के लिए है, जब कोई एकाकी होता है। एकांत में आनंद है। और सिर्फ तभी संबोधि उपलब्ध होती है। हम एकाकी नहीं हो सकते, दूसरे भी एकाकी नहीं हो सकते, इसलिए हम समूहों, परिवारों, समाजों, देशों का निर्माण करते है। सारे राष्ट्र, सारे परिवार, सारे समूह कायरों से बने है, उन लोगों से बने हैं जिनमें एकाकी होने के लिए पर्याप्त साहस नहीं है।
वास्तविक साहस अकेले होने का साहस है। इसका अभिप्राय है, इस तथ्य का सचेतन साक्षात्कार कि तुम एकाकी हो और तुम अन्य कुछ हो भी नहीं सकते। या तो तुम अपने आपको धोखा दे सकते हो या इस तथ्य के साथ रह सकते हो। तुम अपने आप को धोखा देने का सिलसिला कई जन्मों तक जारी रख सकते हो, पर तुम एक दुष्यक में चलते रहोगे। अगर तुम एकांत के इस तथ्य के साथ रह सको, केवल तब यह चक्र टूटता है और तुम केंद्र पर आ जाते हो। यह केंद्र दिव्यता का, समग्रता का, पवित्रता का केंद्र है।
मैं ऐसे किसी समय की कल्पना नहीं कर सकता जब प्रत्येक मनुष्य इसे अपने जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में प्राप्त करने योग्य होगा। यह असंभव है।
चेतना व्यक्तिगत होती है। सिर्फ अचेतन ही सामूहिक होता है। मानव-जाति चेतना के उस सोपान पर आ चुकी है जहां कि वह वैयक्तिक हो गई है। सच तो यह है कि मनुष्य-जाति जैसा कुछ है ही नहीं, सिर्फ वैयक्तिक मनुष्य है। प्रत्येक मनुष्य को अपनी निजी
वैयक्तिकता तथा इसके प्रति अपने उत्तरदायित्व का साक्षात करना पड़ेगा।
पहला काम जो हमें करना चाहिए, वह है एकाकीपन को आधार भूत तथ्य की भांति स्वीकार करना और इसके साथ रहना सीखना। हमें कोई कपोलकल्पनाएं नहीं गहनी हैं। अगर तुम कपोल-कल्पनाएं बना लेते हो तो तुम कभी सत्य को जान लेने में समर्थ नहीं
हो सकोगे। कपोल-कल्पनाएं, प्रक्षेपित, गढ़े गए, बनाए गए सत्य है, जो तुम्हें जो है' उसे जानने से रोकते है। अपने एकाकीपन के तथ्य के साथ रहो। अगर तुम इस तथ्य के साथ रह सके, अगर तुम्हारे और इस तथ्य के बीच में कोई कपोल-कल्पना न रही, तो सत्य तुम
पर उदघाटित हो जाएगा। प्रत्येक तथ्य, अगर उसमें गहनता से झांका जाए, सत्य का उदघाटन करता है।
इसलिए उत्तरदायित्व के इस तथ्य के साथ, इस तथ्य के साथ कि तुम एकाकी हो रहो। अगर तुम इस तथ्य के साथ रह सके तो विस्फोट घटित हो जाएगा। यह दुष्कर है, किंतु यही एकमात्र उपाय है। कठिनाई के माध्यम से, इस तथ्य की स्वीकृति के द्वारा, तुम
विस्फोट के बिंदु पर पहुंचते हो। केवल तभी वहां आनंद है। अगर यह तुम्हें पूर्व-निर्मित दे दिया जाए, तो यह अपना महत्व खो देगा, क्योंकि तुमने इसे अर्जित नहीं किया है। तुम्हारे पास आनंद को अनुभव करने की क्षमता नहीं होती है। यह क्षमता सिर्फ
अनुशासन से आती है।
अगर तुम अपने प्रति अपने उत्तरदायित्व के तथ्य के साथ रह सको, तो एक अनुशासन स्वत: ही तुम्हारे पास आ जाएगा। अपने प्रति पूर्ण उत्तरदायी होने पर तुम अनुशासित हो जाने के अतिरिक्त अपनी कोई और सहायता कर भी नहीं सकते। किंतु यह अनुशासन कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो कि तुम पर बाहर से थोप दी गई हो। यह भीतर से आता है। अपने प्रति अपने पूर्ण उत्तरदायित्व के कारण, तुम्हारे द्वारा उठाया गया प्रत्येक कदम अनुशासित होता है। तुम एक शब्द भी अनुत्तरदायी ढंग से नहीं बोल सकते हो।
अगर तुम अपने स्वयं के एकाकीपन के प्रति बोधपूर्ण हो, तो तुम दूसरे लोगों की व्यथा के प्रति भी बोधपूर्ण होओगे। तब तुम कोई एक अनुत्तरदायी कृत्य भी करने के योग्य न रहोगे, क्योंकि तुम न केवल अपने लिए बल्कि दूसरों के लिए भी उत्तरदायित्व अनुभव
करोगे। अगर तुम अपने एकाकीपन के तथ्य के साथ रह सको, तो तुम जानोगे कि प्रत्येक व्यक्ति अकेला है। तब पुत्र जानता है कि पिता अकेला है; पत्नी जानती है कि पति अकेला है; पति जानता है कि पत्नी अकेली है। एक बार तुम यह जान लो, तो यह असंभव है कि तुम करुणावान न हो जाओ।
तथ्यों के साथ रहना ही एक मात्र योग है, एकमात्र अनुशासन है। एक बार तुम मनुष्य की स्थिति के प्रति पूर्णत: सजग हो जाओ, तुम धार्मिक हो जाते हो। तुम अपने मालिक बन जाते हो। लेकिन इस तरह से आया हुआ आत्मसंयम तपस्वी का आत्मसंयम नहीं होता। यह जबर्दस्ती थोप। हुआ नहीं होता, यह कुरूप नहीं होता, यह आत्मसंयम सौदर्यपूर्ण होता है। तुम महसूस करते हो कि यही एकमात्र संभव कार्य है कि तुम इसे किसी और ढंग से कर भी नहीं
सकते। तब वस्तुओं पर से तुम्हारी पकड़ छूट जाती है, तुम अपरिग्रही हो जाते हो।
परिग्रह के प्रति आकर्षण एकाकी नहीं हो पाने के कारण उत्पन्न आकर्षण है। कोई व्यक्ति एकाकी नहीं हो पाता; इसलिए वह साथ खोजता है। किंतु दूसरे लोगों का साथ भरोसे योग्य नहीं है, इसलिए इसके स्थान पर वह वस्तुओं का साथ खोजता है। पत्नी के साथ रहना कठिन है, एक कार के साथ रहना इतना कठिन नहीं है। इसलिए कब्जा कर लेने की प्रवृत्ति अंतत: वस्तुओं की ओर मुड़ जाती है।
तुम व्यक्तियों तक को वस्तुओं में बदलने का प्रयास कर सकते हो। तुम उन्हें उस प्रकार से बदल देने का प्रयास करते हो कि वे अपनी वैयक्तिकता, अपनी निजता खो दें। पत्नी एक वस्तु हो जाती है, व्यक्ति नहीं; पति एक वस्तु हो जाता है, व्यक्ति नहीं।
अगर तुम अपने एकाकीपन के प्रति सजग हो जाते हो, तब तुम दूसरों के एकाकीपन के प्रति भी सजग हो जाते हो। तब तुम्हें पता लग जाता है कि दूसरे पर मालकियत करने का प्रयास अतिक्रमण है। तुम कभी विधायक ढंग से त्याग नहीं करोगे। त्याग तुम्हारे एकाकीपन की नकारात्मक छाया हो जाता है तुम अपरिग्रही हो जाते हो। तब तुम प्रेमी हो सकते हो, लेकिन पति नहीं, पत्नी नहीं।
इस अपरिग्रह भाव के साथ करुणा और आत्मसंयम का आगमन होता। तुम पर निर्दोषता आ जाती है। जब तुम जीवन के तथ्यों से इनकार करते हो, तब तुम निर्दोष नहीं हो सकते; तुम चालाक हो जाते हो। तुम खुद को तथा दूसरों को धोखा देते हो। किंतु अगर तुम इतना साहस कर पाए कि जीवन के तथ्यों के साथ उसी रूप में रह लो जैसे वे हैं, तो तुम निर्दोष हो जाते हो। यह निर्दोषता विकसित की हुई नहीं होती। तुम यही हो-निर्दोष। मेरे लिए निर्दोष होना ही वह सब-कुछ है जिसे उपलब्ध किया जाना है। निर्दोष हो जाओ और दिव्यता सदा आनंदपूर्ण ढंग से तुम्हारी ओर सदा प्रवाहित होती रहती है। निर्दोषता, ग्रहण करने की पात्रता है, दिव्यता का अंश हो पाने की पात्रता है। निर्दोष हो जाओ और अतिथि वहां आ जाता है। आतिथेय हो जाओ।
इस निर्दोषता का अभ्यास नहीं किया जा सकता, क्योंकि अभ्यास सदा सोच- विचार से किया जाता है। यह हिसाब-किताब से होता है। पर निर्दोषता कभी हिसाब- किताब से नहीं आ सकती, यह असंभव है।
निर्दोषता धार्मिकता है। निर्दोष होना, सच्चे आत्म-बोध का चरम उत्कर्ष है। किंतु सच्ची निर्दोषता, सचेतन क्रांति से ही आती है। यह किसी सामूहिक, अचेतन विकास से संभव नहीं है। मनुष्य एकाकी है। वह चुनने के लिए स्वतंत्र है-स्वर्ग या नरक, जीवन
अथवा मृत्यु, आत्म-बोध का आनंद या हमारे तथाकथित जीवन की पीड़ा।
साई ने कहीं पर कहा है 'मनुष्य स्वतंत्र होने के लिए बाध्य है। तुम स्वर्ग को चुन सकते हो या नरक को। स्वतंत्रता का अर्थ है किसी एक को चुनने की स्वतंत्रता। अगर तुम सिर्फ स्वर्ग ही चुन सको तो यह चुनाव नहीं है। यह स्वतंत्रता नहीं है। नरक के चुनाव
के बिना स्वर्ग अपने आप में नरक हो जाएगा। चुनाव का अर्थ सदा होता है यह या वह। इसका अर्थ यह नहीं है कि तुम केवल शुभ को ही चुनने के लिए स्वतंत्र हो। तब वहां पर कोई स्वतंत्रता न होगी।
अगर तुम गलत का चुनाव कर लेते हो तो स्वतंत्रता अभिशाप बन जाती है; किंतु अगर तुम सही चुनाव करते हो तो यह आशीष बन जाती है। यह तुम पर निर्भर है कि तुम्हारा चुनाव तुम्हारी स्वतंत्रता को अभिशाप में बदलता है या आशीष में। चुनाव करना
पूर्णत: तुम्हारा ही उत्तरदायित्व है।
अगर तुम तैयार हो, तो तुम्हारी भीतरी गहराई में से एक नये आयाम का आरंभ हो सकता है क्रांति का आयाम। विकास समाप्त हो चुका है। अब एक क्रांति की आवश्यकता है, जो तुम्हें उसके प्रति खोल दे जो उस पार का है। यह एक निजी व्यक्तिगत क्रांति है, एक अंतस-क्रांति।

आज इतना ही








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