बुद्धत्व का मनोविज्ञान-ओशो
(The Psychology of the Esoteric-का हिन्दी रूपांतरण है)
प्रवेश से पूर्व
परंपरागत विधियां व्यवस्थित है क्योंकि उस समय का व्यक्ति, उस समय लोग और वे लोग जिनके लिए उन विधियों को विकसित किया गया था-भिन्न थे। आधुनिक मनुष्य एक बहुत नवीन घटना है, और किसी भी परंपरागत विधि का, जिस रूप में वह है, ठीक उसी रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता है, क्योंकि आधुनिकमनुष्य कभी अस्तित्व में था ही नहीं। आधुनिक मनुष्य एक नई घटना है। इसलिए एक प्रकार से तो सारी परंपरागत विधियां असंगत हो चुकी हैं। उनका सार-तत्व असंगत नहीं
हुआ है, लेकिन उनका रूप असंगत हो चुका है क्योंकि यह मनुष्य नया है। उदाहरण के लिए, शरीर काफी बदल चुका है। यह अब उतना प्राकृतिक नहीं रहा जितना यह सदा से था। आज के मनुष्य का शरीर बहुत अप्राकृतिक चीज है। जब पतंजलि ने अपना योग विकसित किया था, तब शरीर एक प्राकृतिक घटना था। अब यह प्राकृतिक घटना नहीं है। यह आत्यंतिक रूप से भिन्न है। यह इतना विषाक्त है कि कोई परंपरागत विधि सहायक नहीं हो सकती है।
हठयोगियों के लिए औषधियों को लेने की अनुमति नहीं थी, बिलकुल ही नहीं थी, क्योंकि औषधि लेने से हुए रासायनिक परिवर्तन न सिर्फ विधियों को दुष्कर बनाएंगे वरन
हानिकारक भी बना देंगे। इसलिए औषधियों का प्रयोग करने की अनुमति नहीं थी, या उनके लिए विशिष्ट औषधियों का विकास किया गया था। अब सारा वातावरण कृत्रिम है, वायु प्रदूषित है, जल प्रदूषित है, समाज में जीने की परिस्थितियां कृत्रिम हैं। कुछ भी प्राकृतिक नहीं है। तुम्हारा जन्म इसी कृत्रिमता में हुआ है, तुम इसी में विकसित हुए हो, इसलिए परंपरागत विधियां हानिकारक सिद्ध होंगी। वे जैसी हैं उन्हें वैसा ही उपयोग नहीं किया जा
सकता। उनको आधुनिक परिस्थिति के अनुसार परिवर्तित करना ही पड़ेगा। एक और बात, मन की गुणवत्ता मूलत: बदल चुकी है। पतंजलि के दिनों में, पुराने समय में मनुष्य के व्यक्तित्व का केंद्र मस्तिष्क नहीं था, यह हृदय था। और उससे भी पहले यह हृदय भी नहीं था। यह और नीचे था, नाभि के पास। पतंजलि-पूर्व के समय में, पतंजलि से पहले यह नाभि था-मनुष्य के व्यक्तित्व का केंद्र। इसलिए हठयोग ने उन विधियों का विकास किया जो उस व्यक्ति के लिए अर्थपूर्ण, महत्वपूर्ण थीं, जिसके व्यक्तित्वnका केंद्र नाभि था। फिर व्यक्तित्व का केंद्र हृदय हो गया। जब केंद्र हृदय होता है, तब केवल भक्ति-योग का उपयोग किया जा सकता है, वरना नहीं। इसलिए मध्य-काल में भक्ति-योग विकसित हुआ-इसके पहले नहीं, क्योंकि केंद्र बदल गया था। और विधि को उन लोगो के अनुसार बदल देना पड़ता है, जिनके लिए इसे प्रयुक्त किया जाना है।
अब भक्ति-योग भी अर्थपूर्ण नहीं रहा है। मुख्य केंद्र अब नाभि से और अधिक दूर हो गया है। अब यह केंद्र मस्तिष्क है। यही कारण है कि कृष्णामूर्ति जैसे लोगों की शिक्षाएं आकर्षित करती हैं, क्योंकि केंद्र मस्तिष्क है। अन्यथा उनमें कोई आकर्षण न होता; उनमें जरा भी आकर्षण नहीं होता। अब किसी विधि की जरूरत नहीं है, किसी भी उपाय की जरूरत नहीं है, केवल समझ की आवश्यकता है। लेकिन जब हम कहते है, समझ, तो यह बौद्धिक बन जाती है और कुछ भी नहीं। यह केवल शाब्दिक समझ है। इससे कोई परिवर्तन नहीं होता, इससे कोई रूपांतरण नहीं होता। फिर से यह जानकारी का संग्रह बन जाता है। पुन: यह स्मृति बन जाता है।
इसीलिए मैं व्यवस्थित विधियों का उपयोग नहीं करता हूं बल्कि अराजक विधियां प्रयोग करता हूं। इस केंद्र को मस्तिष्क से नीचे धकेलने के लिए अराजक विधियां बहुत सहायक होती है। किसी भी व्यवस्थित विधि के द्वारा इस केंद्र को मस्तिष्क से नीचे नहीं धकेला जा सकता है, क्योंकि व्यवस्थित करना ही मस्तिष्क का कार्य है। तुम हर चीज को मस्तिष्क के माध्यम से व्यवस्थित करते हो। इसलिए यदि तुम व्यवस्थित विधियों का उपयोग करोगे तो मस्तिष्क और अधिक शक्तिशाली हो जाएगा। यह ऊर्जा को अपने में समा लेगा।
इसलिए मैं अराजक विधियों का उपयोग करता हूं, क्योंकि अराजक विधियों के माध्यम से मस्तिष्क को शून्य कर दिया जाता है। इसके पास करने के लिए कुछ भी नहीं होता। न तो किसी व्यवस्था का निर्माण करना है और न ही किसी गणितीय सूत्र का उपयोग करना है। यह विधि इतनी अराजकपूर्ण है कि केंद्र मस्तिष्क से हटकर स्वत: हृदय की ओर धकेल दिया जाता है- और यह एक बड़ा कदम है-केंद्र को मस्तिष्क से हृदय की ओर धकेल देना। इसलिए यदि तुम मेरी ध्यान विधि को पूरी ताकत से, अव्यवस्थित रूप से अराजकता पूर्वक करो तो तुम्हारा केंद्र नीचे धकेल दिया जाता है। तुम हृदय पर आ जाते हो।
जब तुम हृदय पर आ जाते हो तो मैं रेचन का उपयोग करता हूं-क्योंकि तुम्हारा हृदय तुम्हारे मस्तिष्क के कारण बहुत दमित है। तुम्हारे मस्तिष्क ने तुम्हारे भीतर का इतना अधिक क्षेत्र घेर रखा है, यह तुम्हारे ऊपर इतना अधिक हावी है कि इसने सभी कुछ पर
मालकियत कर ली है। हृदय के लिए कोई भी स्थान नहीं बचा है, इसलिए हृदय की अभीप्साए दमित हो गई हैं। तुम कभी हृदयपूर्वक नहीं हरसे हो, तुम कभी हृदयपूर्वक नहीं रोए हो, तुमने हृदयपूर्वक कभी कोई कार्य नहीं किया है। मस्तिष्क सदा ही चीजों को व्यवस्थित करने, उन्हें गणितीय बना देने के लिए आ जाता है। मस्तिष्क हिसाब लगाता है, निष्कर्ष निकालता है और हावी हो जाता है। हृदय दमित हो जाता है।
इसलिए पहली बात अराजक विधियों का उपयोग केंद्र को, चेतना के केंद्र को, मस्तिष्क से हृदय की ओर धकेलने के लिए किया जाता है। तब हृदय को भार-मुक्त करने के लिए, दमित भावनाओं को निकाल फेंकने के लिए, इसे हलका करने के लिए रेचन की जरूरत पड़ती है। अगर हृदय हलका और निर्यात हो जाता है तो चेतना के केंद्र को और नीचे
खिसका दिया जाता है, यह नाभि पर आ जाता है। और केवल तब जब यह नाभि पर आ जाता है तब मैं तुमसे खोज करने के लिए कहूंगा मैं कौन हूं? वरना यह अर्थहीन है।
ओशो
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