तंत्र, अध्यात्म और काम-(ओशो)
पहला-प्रवचन-(तंत्र और योग)
(Tantra Spiituality and Sex का हिन्दी अनुवाद)
प्रश्न: भगवान, पारंपारिक योग और तंत्र में क्या अंतर है? क्या वे दोनों समान हैं?तंत्र और योग मौलिक रूप से भिन्न हैं। वे एक ही लक्ष्य पर पहुंचते हैं लेकिन मार्ग केवल अलग-अलग ही नहीं, बल्कि एक दूसरे के विपरीत भी हैं। इसलिए इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है। योग की प्रक्रिया तत्व-ज्ञान प्रणाली-विज्ञान भी है योग विधि भी है। योग दर्शन नहीं है। तंत्र की भांति योग
भी किया, विधि, उपाय पर आधारित है। योग में करना होने की ओर ले जाता है लेकिन विधि भिन्न है। योग में व्यक्ति को संघर्ष करना पड़ता है; वह योद्धा का मार्ग है। तंत्र के मार्ग पर संघर्ष बिल्कुल नहीं है। इसके विपरीत उसे भोगना है लेकिन होशपूर्वक बोधपूर्वक।
योग होशपूर्वक दमन है तंत्र होशपूर्वक भोग है।
तंत्र कहता है कि तुम जो भी हो परम-तत्व उसके विपरीत नहीं है। यह विकास है तुम उस परम तक विकसित हो सकते हो। तुम्हारे और सत्य के बीच कोई विरोध नहीं है। तुम उसके अंश हो इसलिए प्रकृति के साथ संघर्ष की, तनाव की, विरोध की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें प्रकृति का उपयोग करना है; तुम जो भी हो उसका
उपयोग करना है ताकि तुम उसके पार जा सको।
योग में पार जाने के लिए तुम्हें स्वयं से संघर्ष करना पड़ता है। योग में संसार और मोक्ष तुम जैसे हो और जो तुम हो सकते हो दोनों एक दूसरे के विपरीत हैं। दमन करो, उसे मिटाओ जो तुम हो: ताकि तुम वह हो सको जो तुम हो सकते हो। योग में पार जाना मृत्यु है। अपने वास्तविक स्वरूप के जन्म के लिए तुम्हें मरना होगा।
तंत्र की दृष्टि में, योग एक गहरा आत्मघात है। तुम्हें अपने प्राकृतिक रूप अपने शरीर अपनी वृत्तियों अपनी इच्छाओं को- सब कुछ को मार देना होगा नष्ट कर देना होगा। तंत्र कहता है ''तुम जैसे हो, उसे वैसे ही स्वीकार करो।'' तंत्र गहरी से गहरी स्वीकृति है। अपने और सत्य के बीच संसार और निर्वाण के बीच कोई अंतराल मत
बनाओ। तंत्र के लिए कोई अंतराल नहीं है मृत्यु जरूरी नहीं है। तुम्हारे पुनर्जन्म के लिए किसी मृत्यु की जरूरत नहीं है बल्कि अतिक्रमण की आवश्यकता है। इस अतिक्रमण के लिए स्वयं का उपयोग करना है।
उदाहरण के लिए- काम है सेक्स है। वह बुनियादी ऊर्जा है जिसके माध्यम से तुम पैदा हुए हो। तुम्हारे अस्तित्व के तुम्हारे शरीर के बुनियादी कोश काम के हैं। यही कारण है कि मनुष्य का मन काम के इर्द गिर्द ही घूमता रहता है। योग में इस ऊर्जा से लड़ना अनिवार्य है। वहां लड़कर ही तुम अपने भीतर एक भिन्न केंद्र को निर्मित
करते हो। जितना तुम लड़ते हो उतना ही तुम उस भिन्न केंद्र से जुड़ते जाते हो। तब काम तुम्हारा केंद्र नहीं रह जाता। काम से संघर्ष- निश्चित ही होशपूर्वक- तुम्हारे भीतर अस्तित्व का एक नया केंद्र निर्मित कर देता है। तब काम तुम्हारी ऊर्जा नहीं रह जाएगा। काम से लड़कर तुम अपनी ही ऊर्जा निर्मित कर लोगे एक अलग प्रकार की ही ऊर्जा, एक अलग प्रकार का अस्तित्व-केंद्र पैदा होगा।
तंत्र के लिए काम-ऊर्जा का उपयोग करो उससे लड़ो मत। उसे रूपांतरित करो। उसे शत्रु मत समझो उससे मित्रता बनाओ। वह तुम्हारी ही ऊर्जा है; वह पाप नहीं है वह बुरी नहीं है। प्रत्येक ऊर्जा तटस्थ है। उसका उपयोग तुम्हारे हित में किया जा सकता है और तुम्हारे विरुद्ध भी किया जा सकता है। तुम उसे अवरोधक भी बना सकते हो और सीढ़ी भी बना सकते हो। उसका उपयोग हो सकता है। सही ढंग से उपयोग करने पर मित्र बन जाती है। गलत उपयोग पर वह तुम्हारी शत्रु हो जाती है। वह दोनों ही नहीं है। ऊर्जा तटस्थ है।
साधारण आदमी जिस तरह यौन का काम का उपयोग करता है वह उसका शत्रु बन जाता है उसे नष्ट कर देता है उसकी शक्ति का क्षय करता है। योग की दृष्टि ठीक इसके विपरीत है - साधरण मन के विपरीत। साधारण चित्त अपनी ही वासनाओं से विनष्ट होता जाता है।
इसलिए योग कहता है ''वासना छोड़ो और वासना-शून्य हो जाओ।'' वासना से लड़ो और अपने भीतर एक संघटन, इनटेग्रेशन पैदा करो जो वासना रहित हो। तंत्र कहता है ''वासना के प्रति जागो।'' उससे संघर्ष मत करो। वासना में पूरी सजगता के साथ प्रवेश करो और जब तुम पूरी होश से वासना में प्रवेश करते हो तुम उसका अतिक्रमण कर जाते हो। तब तुम उसमें होकर भी उसमें नहीं होते। तुम उसमें से गुजरते हो लेकिन अजनबी बने रहते हो, अछूते रह जाते हो।
योग बहुत अधिक आकर्षित करता है क्योंकि योग साधारण चित्त के बिल्कुल विपरीत है। इसलिए साधारण चित्त योग की भाषा समझ सकता है। तुम यह जानते हो कि किस भांति काम तुम्हें विनष्ट कर रहा है इसने तुम्हें किस तरह नष्ट कर दिया है किस तरह तुम इसके इर्द गिर्द गुलामों की भांति, कठपुतलियों की भांति घूमते रहते हो। अपने अनुभव से तुम यह जानते हो। इसलिए जब योग कहता है ''इससे संघर्ष करो'' तुम तत्काल इस भाषा को समझ जाते हो। यही आकर्षण है योग का सुगम आकर्षण है।
तंत्र इतनी सरलता से आकर्षित नहीं करता। यह मुश्किल लगता है कि कैसे इच्छा के बिना उसके द्वारा अभिभूत हुए प्रवेश किया जा सकता है? कामवासना में पूरी होश से किस प्रकार प्रवृत्त हुआ जा सकता है? साधरण चित्त भयभीत हो जाता है। यह खतरनाक लगता है ऐसा नहीं कि यह खतरनाक है। जो कुछ भी तुम काम के संबंध में जानते हो, वह तुम्हारे लिए खतरा उत्पन्न करता है। तुम अपने को जानते हो तुम जानते हो कि तुम किस प्रकार स्वयं को धोखा दे सकते हो। तुम भलीभांति जानते हो कि तुम्हारा मन चालाक है। तुम वासना में काम वासना में सभी वासनाओं में प्रवृत्त हो सकते हो और अपने को धोखा दे सकते हो कि तुम पूरी होश के साथ उसमें प्रवृत हो रहे हो। यही कारण है कि तुम्हें खतरे का अहसास होता है। खतरा तंत्र में नहीं है तुम में है तुम में है।
और योग का आकर्षण भी तुम्हारे कारण है। तुम्हारे साधारण मन तुम्हारा काम-दमित, काम का भूखा कामांध चित्त इसका कारण है। क्योंकि साधारण मन काम के संबंध में स्वस्थ नहीं है इसलिए योग के लिए आकर्षण है। एक बेहतर मनुष्यता जिसका काम के प्रति स्वस्थ नैसर्गिक सहज स्वाभाविक दृष्टिकोण होगा... हम सामान्य और प्रकृत नहीं है। हम सर्वथा असामान्य हैं अस्वस्थ और विक्षिप्त हैं। लेकिन क्योंकि सभी हम जैसे हैं इसलिए हमें इसका अहसास नहीं होता। पागलपन इतना सामान्य है कि शायद पागल न होना असामान्य प्रतीत होता है। हमारे बीच एक बुद्ध असामान्य हैं एक जीसस असामान्य है। वे इनसे अन्यथा मालूम होते है। यह सामान्यता एक रोग है। इसी सामान्य चित्त में योग का आकर्षण पैदा होता है।
यदि काम को उसकी स्वाभाविकता से ग्रहण करो यदि उसके गिर्द पक्ष या विपक्ष का कोई दर्शनशास्त्र न खड़े करो, ऐसे ही देखो जैसे अपने हाथ-पांव को देखते हो, एक स्वाभाविक चीज की तरह उसे उसकी समग्रता से स्वीकार करो, तन तंत्र आकर्षित करेगा, और तभी केवल तंत्र ही बहुत से लोगों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा।
लेकिन तंत्र के दिन आ रहे हैं। देर-अबेर पहली बार जन-साधारण में तंत्र का विस्फोट होने वाला है। पहली बार जमाना परिपक्व हुआ है--काम को प्राकृतिक रूप में ग्रहण करने के लिए परिपक्व। और संभव है कि यह विस्फोट पहले पश्चिम में हो, क्योंकि फ्रायड, जुंग और रेख ने पृष्ठभूमि तैयार कर दी है। उन्हें तंत्र के बारे में कुछ पता नहीं था लेकिन उन्होंने तंत्र के विकास के लिए बुनियादी भूमि तैयार कर दी है।
पाश्चात्य मनोविज्ञान इस निष्कर्ष पर पहुंच गया है कि मनुष्य की बुनियादी बीमारी कहीं न कहीं काम से संबंधित है उसका बुनियादी पागलपन काम-केंद्रित। इसलिए जब तक मनुष्य काम-अभिमुख है वह स्वाभाविक सामान्य नहीं हो सकता। काम के प्रति अपनी इस मनोवृत्ति के कारण ही मनुष्य गलत हो गया है। किसी भी भाव या विचार की जरूरत नहीं है और तभी तुम स्वाभाविक हो सकते हो। अपनी आंखों के बारे में तुम्हारा क्या विचार है? क्या वे दुष्ट हैं या दिव्य? क्या तुम अपनी आंखों के पक्ष में हो या विपक्ष में? कोई भी पक्षपात नहीं। इसीलिए तुम्हारी आंखों सामान्य हैं। कोई भी रवैया अपना लो सोचों कि आंखों बुरी हैं तब उनसे देखना मुश्किल हो जाएगा। तब देखना किसी समस्या का रूप ले लेगा जैसे अभी काम है यान है। तब तुम देखना चाहोगे। तुम देखने की इच्छा करोगे, देखने के लिए व्यग्र हो जाओगे। लेकिन जब तुम देखोगे, स्वयं को अपराधी समझोगे; जब भी देखोगे लगेगा कि कुछ गलत हो गया है। कुछ पाप हो गया है। और तब तुम दृष्टि के यंत्र को ही नष्ट कर देना चाहोगे; आंखों को ही नष्ट कर देना चाहोगे। और जितना ही नष्ट करना चाहोगे, उतना ही तुम आंख-केंद्रित हो जाओगे। तब एक विसंगति उत्पन्न होगी, तुम ज्यादा से ज्यादा देखना भी चाहोगे और ज्यादा से ज्यादा अपराधी भी अनुभव करोगे।
काम-केंद्र के साथ भी यही दुर्घटना घटी है।
तंत्र कहता है ''तुम जो भी हो उसे स्वीकार करो। यही मूलस्वर है।'' समग्र स्वीकार और केवल समग्र स्वीकार के माध्यम से ही तुम विकास कर सकते हो। तब उस ऊर्जा का उपयोग करो जो तुम्हारे पास है। पर उसका उपयोग कैसे करोगे? पहले उन्हें स्वीकार करो फिर खोजो कि ये शक्तियां क्या हैं? काम क्या है? तथ्य क्या है? हम उससे परिचित नहीं हैं। हम काम के बारे में जो कुछ भी जानते हैं वह दूसरों ने हमें सिखाया है। हम काम-भोग से गुजरे भी होंगे, लेकिन दमित मन से, अपराध भाव से, जल्दी-जल्दी, जैसे कोई बोझ उतारना है हल्का होना है। काम-भोग कोई प्रिय कृत्य नहीं है। तुम प्रसन्नता अनुभव नहीं करते लेकिन तुम छोड़ भी नहीं सकते। जितना ही तुम उसे छोड़ना चाहते हो उतना ही वह आकर्षक होता जाता है। जितना ही तुम उसे नकारते हो उतना ही वह तुम्हें निमंत्रित करता मालूम होता है।
तुम काम वासना को नकार नहीं सकते, लेकिन नकारने की नष्ट करने की मनोवृत्ति उस मन को ही उस होश को ही, उस संवेदनशीलता को ही नष्ट कर देती है जो काम वासना को समझ सकती है। इसलिए तुम बिना किसी संवेदना के ही काम भोग करते रहते हो। और तब तुम उसे समझ नहीं पाते। केवल गहरी संवेदनशीलता ही किसी चीज को समझ सकती है; उसके प्रति गहरा भाव, गहरी सहानुभूति और उसमें गहरी गति ही किसी चीज को समझ सकती है। तुम काम को केवल तभी समझ सकते हो जब तुम उसके पास ऐसे जाओ जैसे कवि फूलों के पास जाता है। अगर फूलों के साथ अपराध अनुभव करो तो तुम फुलवारी से आंखों बंद किये गुजर जाओगे; तुम बड़ी जल्दबाजी में होओगे- एक विक्षिप्त जल्दबाजी। किसी कदर निकल भागने की फिक्र लगी रहेगी। फिर तुम सजग, होशपूर्ण कैसे रह सकते हो।
इसलिए तंत्र कहता है ''तुम जो भी हो उसे स्वीकार करो।'' तुम अनेक बहु-आयामी ऊर्जाओं के महान रहस्य हो, उसे स्वीकार करो। और प्रत्येक ऊर्जा के साथ गहरी संवेदनशीलता, और सजगता से, प्रेम और बोध के साथ यात्रा करो। उसके साथ यात्रा करो... तब ऊर्जा प्रत्येक वासना के अतिक्रमण का वाहन बन जाती है। तब प्रत्येक
ऊर्जा सहयोगी हो जाती है। और तब संसार ही निर्वाण हो जाता है।
योग निषेध है तंत्र विधेय है। योग द्वैत की भाषा में सोचता है इसलिए यह योग शब्द है। योग का अर्थ है-दो चीजों को जोड़ना। उनका जोड़ा बनाना। लेकिन वहां चीजें दो हैं वहां द्वैत है। तंत्र कहता है ''द्वैत नहीं है। और अगर द्वैत है तो तुम उसे एक नहीं कर सकते। कितना भी प्रयत्न करो दो रहेंगे ही, कितना भी दो के दो रहेंगे ही। संघर्ष जारी रहेगा; द्वैत बना रहेगा।''
अगर संसार और परमात्मा दो हैं तो वे एक में नहीं जोड़े जा सकते। और अगर वे यथार्थ में दो नहीं है दो की तरह सिर्फ भागते हैं तो ही वे एक हो सकते हैं। अगर तुम्हारा शरीर और आत्मा दो है तो उनको जोड़ने का उपाय नहीं है। दो वे रहेंगे।
तंत्र कहता है ''द्वैत नहीं है वह मात्र आभास है।'' इसलिए आभास को मजबूत बनाने की जरूरत क्या है? इस आभास को मजबूत होने में सहयोग क्यों दिया जाए? इसी क्षण इसे समाप्त करो और एक हो जाओ। और एक होने के लिए स्वीकार चाहिए संघर्ष नहीं। स्वीकार एक करता है। संसार को स्वीकारो शरीर को स्वीकारो; उस सबको
स्वीकारो जो उसमें निहित है। अपने भीतर दूसरा केंद्र मत निर्मित करो। क्योंकि तंत्र की दृष्टि में वह दूसरा केंद्र अहंकार के सिवाय कुछ नहीं है। स्मरण रहे तंत्र की दृष्टि में वह अहंकार ही है। इसलिए अहंकार को मत खड़ा करो सिर्फ बोध रखो कि तुम क्या हो।
और अगर लड़ोगे तो अहंकार वहां होगा ही। इसलिए ऐसा योगी खोजना मुश्किल है जो अहंकारी न हो। सच में मुश्किल है। योगी निरहंकारिता की बात किये जाते हैं लेकिन वे निरहंकारी नहीं हो सकते। उनकी पद्धति ही अहंकार निर्मित करती है। और संघर्ष वह पद्धति है प्रक्रिया है। अगर लड़ोगे तो निश्चित ही- अहंकार को पैदा करोगे। जितना तुम लड़ोगे उतना अहंकार बलवान होगा। और अगर लड़ाई में जीत गए तो तुम्हारा अहंकार परम हो जाएगा।
तंत्र कहता है ''संघर्ष नहीं।'' और तब अहंकार की संभावना नहीं। लेकिन अगर हम तंत्र की मानें तो बहुत सी समस्याएं खड़ी हो जाएंगी। क्योंकि अगर हम लड़ते नहीं तो हमारे लिए भोग ही रह जाता है। हमारे लिए ''संघर्ष नहीं’’ का मतलब होता है भोग। और तब हम भयभीत हो जाते हैं। जन्मों-जन्मों हम भोग में डूबे रहे और कहीं नहीं
पहुंचे। लेकिन हमारा जो भोग है वह तंत्र का भोग नहीं है। तंत्र कहता है ''भोगो, लेकिन होश के साथ।''
अगर तुम क्रोधित हो तो तंत्र यह नहीं कहेगा कि क्रोध मत करो। वह कहेगा कि पूरी तरह क्रोध करो लेकिन साथ ही उसके प्रति सजग भी रहो। तंत्र क्रोध के खिलाफ नहीं है। तंत्र आध्यात्मिक नींद आध्यात्मिक मूर्च्छा के खिलाफ है। होश रखो और क्रोध करो। और तंत्र का यही गुहा रहस्य है कि अगर तुम होशपूर्ण रहे तो क्रोध रूपांतरित हो जाता है क्रोध करुणा बन जाता है। इसलिए तंत्र के अनुसार क्रोध तुम्हारा शत्रु नहीं है; क्रोध बीज रूप में करुणा है। क्रोध की ऊर्जा ही करुणा बन जाती है। और अगर तुम उससे लड़ते हो तो करुणा की संभावना समाप्त हो जाती है।
इसलिए अगर तुम दमन में सफल हुए तो मृत हो जाओगे। दमन के कारण क्रोध तो नहीं रहेगा लेकिन उसी कारण करुणा भी जाती रहेगी। क्योंकि क्रोध ही करुणा बनता है। अगर तुम काम के दमन में सफल हो गए--जो कि संभव है--तो काम तो नहीं रहेगा, लेकिन उसके साथ प्रेम भी नहीं रहेगा। क्योंकि काम के मर जाने पर वह ऊर्जा ही नहीं बचती जो प्रेम में विकसित होती है। तुम काम-रहित तो हो जाओगे, पर साथ ही प्रेम-रहित भी हो जाओगे। और तब तो असली बात ही चूक गए क्योंकि प्रेम के बिना भगवत्ता नहीं है। और प्रेम के बिना मुक्ति नहीं है और प्रेम के बिना स्वतंत्रता नहीं है।
तंत्र का कहना है कि इन्हीं ऊर्जाओं को रूपांतरित करना है। इसी बात को दूसरे ढंग से भी कहा जा सकता है। यदि तुम संसार के विरुद्ध हो तो निर्वाण संभव नहीं है क्योंकि संसार को ही तो निर्वाण में रूपांतरित करना है। तब तुम उन्हीं बुनियादी शक्तियों के ही खिलाफ हो गए जो कि शक्तियों के स्रोत हैं।
इसलिए तंत्र की कीमिया कहती है कि लड़ो मत सभी शक्तियां जो भी तुम्हें मिली हैं उन्हें मित्र बना लो। उनका स्वागत करो। तुम इसे अहोभाग्य समझो कि तुम्हारे पास क्रोध है कि तुम्हारे पास काम-वासना है कि तुम्हारे पास लोभ है। अपने को धन्यभागी समझो क्योंकि वे अप्रकट स्रोत हैं। और उन्हें रूपांतरित किया जा सकता
है और उन्हें प्रकट किया जा सकता है। और जब काम-वासना रूपांतरित होती है तो प्रेम बन जाती है। विष खो जाता है कुरूपता खो जाती है।
बीज कुरूप है लेकिन वही जब जीवित होता है अंकुरित होता है पुष्पित होता है तब उसका सौंदर्य प्रकट होता है। बीज को मत फेंकना क्योंकि तब तुम उसके साथ फूलों को भी फेंक रहे हो। वे अभी उनमें नहीं हैं अभी प्रकट नहीं हैं कि तुम उन्हें देख सको। वे अप्रकट है लेकिन हैं। बीज का उपयोग करो ताकि तुम फूलों को प्राप्त कर
सको। इसलिए पहले स्वीकृति, एक अति संवेदनशील बोध और होश- तब भोग की अनुमति है।
एक बात और जो कि वास्तव में बहुत ही हैरानी की है लेकिन वह तंत्र की गहरी से गहरी खोजों में से एक है। और वह है: जिसे भी तुम शत्रु मान लेते हो चाहे वह लोभ हो क्रोध हो, घूणा हो, या काम हो, जो भी हो तुम्हारा मानना ही उन्हें शत्रु बना देता है। उन्हें परमात्मा का वरदान समझो और कृतज्ञ हृदय से उनके पास जाओ।
उदाहरण के लिए तंत्र ने काम-ऊर्जा को रूपांतरित करने की अनेक विधियां विकसित की हैं। काम-वासना में ऐसे प्रवेश करते जाओ जैसे कोई परमात्मा के मंदिर में प्रवेश करता है। काम कृत्य को ऐसे लो जैसे कि वह प्रार्थना है जैसे कि वह ध्यान है। उसकी पवित्रता को अनुभव करो। इसीलिए खजुराहो पुरी, कोर्णाक सभी मंदिरों में मैथुन की मूर्तियां बनी हैं। मंदिर की दीवारों पर काम-क्रीडा के चित्र बे-तुके लगते हैं- खासकर ईसाइयत, इस्लाम और जैन धर्म की आंखों में। उन्हें यह बात परस्पर विरोधी मालूम होती है कि मैथुन के चित्रों का मंदिर से क्या संबंध हो सकता है? खजुराहो के मंदिर की बाहरी दीवारों पर संभोग की, मैथुन की हर संभव मुद्रा पत्थरों में अंकित है।
क्यों? मन्दिर में कम से कम उनका कोई स्थान नहीं है मनों में हो सकता हैं। ईसाइयत इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकती कि चर्च की दीवारों पर खजुराहो जैसे चित्र खुदे हों। असंभव!
आधुनिक हिंदू भी इस बात के लिए अपने को अपराधी अनुभव करते हैं। इसका कारण है कि आधुनिक हिंदू--मानस भी ईसाइयत के द्वारा निर्मित हुआ है। वे हिंदू-ईसाई है और वे बदत्तर हैं--क्योंकि ईसाई होना तो ठीक है लेकिन हिंदू-ईसाई होना बेहूदा है। वे अपराधी अनुभव करते हैं। एक हिंदू नेता पुरुषोतमदास टंडन ने तो यहां तक सलाह दी कि इन मंदिर को ध्वस्त कर देना चाहिए। वे हमारे नहीं हैं। सच ही वे हमारे नहीं मालूम पड़ते क्योंकि बहुत दिनों से, सदियों से तंत्र हमारे हृदयों से निर्वासित रहा। तंत्र हमारी मुख्य धारा नहीं रहा। योग मुख्य धारा रहा। और योग खजुराहो की बात सोच भी नहीं सकता। इसे नष्ट कर देना चाहिए।
तंत्र कहता है कि संभोग में ऐसे प्रवेश करो जैसे कोई पवित्र मंदिर में प्रवेश कर रहा हो। इसी कारण पवित्र मंदिरों की दीवारों पर उन्होंने संभोग के चित्र अंकित किए उन्होंने कहा कि काम-भोग में ऐसे उतरो जैसे तुम मंदिर में प्रवेश करते हो। इसलिए जब तुम किसी पवित्र मंदिर में प्रवेश करते हो वहां संभोग के चित्र इसलिए हैं कि
तुम्हारा मन दोनों में संबंधित हो जाए दोनों का साहचर्यगत संबंध स्थापित हो जाए ताकि तुम यह अनुभव कर सको कि संसार और परमात्मा दो विरोधी तत्व नहीं है बल्कि एक हैं वे परस्पर विरोधी नहीं। वे ध्रुवीय विपरीताएं हैं जो एक दूसरे की सहायता करती हैं। और इस ध्रुवीयता के कारण ही अस्तित्व में हैं। अगर यह ध्रुवीयता नष्ट हो
जाए तो सारा संसार ही नष्ट हो जाएगा। इसलिए इस गहरी एकतात्मकता को देखो। केवल ध्रुवीय बिंदुओं की मत देखो, उस आंतरिक धारा को देखो जो सबको एक करती है।
तंत्र के लिए सब कुछ पवित्र है। स्मरण रखो कि तंत्र के लिए सब कुछ पवित्र है; कुछ भी अपवित्र नहीं है। इसे इस भांति देखो। एक अधार्मिक आदमी के लिए सब कुछ अपवित्र है। तथाकथित धार्मिक आदमी के लिए कुछ चीजें पवित्र हैं और कुछ अपवित्र। तंत्र के लिए सब कुछ पवित्र है।
कुछ समय पहले एक ईसाई पादरी मेरे पास आया था। उसने कहा कि ईश्वर ने संसार को बनाया। इसलिए मैंने पूछा, ''पाप को किसने बनाया?'' उसने कहा, ''शैतान ने।'' तब मैंने पूछा, ''शैतान को किसने बनाया।'' तब वह पादरी विबूचन में पड़ गया। उसने कहा ''परमात्मा ने ही शैतान को बनाया।''
शैतान पाप को पैदा करता है और परमात्मा शैतान को। तब असली पापी कौन है--परमात्मा या शैतान? लेकिन द्वैतवादी धारणा इसी प्रकार की विसंगतियों की ओर ले जाती है।
तंत्र के लिए ईश्वर और शैतान दो नहीं हैं। वास्तव में, तंत्र में कुछ ऐसा ही नहीं जिसे शैतान कहा जा सके। तंत्र में सब कछ पवित्र है सब कुछ भागवत है! और यही सही दृष्टि बिंदु है गहनतम दृष्टि-बिंदु है। अगर इस संसार में
कुछ चीज भी अपवित्र है तो प्रश्न उठता है कि वह कहां से आती है और वह कैसे संभव है।
इसलिए दो ही विकल्प हैं। पहला है नास्तिक का विकल्प जो कहता है कि सब कुछ अपवित्र है। यह भी सही है। वह भी अद्वैतवादी है। उसे संसार में कहीं भी पवित्रता दिखाई नहीं देती। और दूसरा है तंत्र का विकल्प--सब कुछ पवित्र है। वह भी अद्वैतवादी है। लेकिन इन दोनों के मध्य में जो तथाकथित धार्मिक लोग हैं वे वास्तव में धार्मिक नहीं हैं--न तो वे धार्मिक हैं और न ही अधार्मिक- क्योंकि वे सदा द्वंद्व में जीते हैं। उनका पूरा धर्मशास्त्र दोनों द्वारों को मिलाने की कोशिश कर रहा है और वे कभी मिलते नहीं।
अगर एक भी कोशिका, एक भी अणु अपवित्र है तो सारा संसार अपवित्र हो जाता है। क्योंकि वह अकेला अणु इस पवित्र संसार में कैसे रह सकता है? यह कैसे संभव है! उसे सबका सहारा मिला है। होने के लिए अस्तित्व के लिए उसे समस्त का सहारा चाहिए। और अगर अपवित्र तत्व को पवित्र तत्वों का सहारा मिला है तो दोनों में क्या अंतर हुआ? इसलिए जगत या तो समग्ररूपेण पवित्र है बेशर्त या वह अपवित्र है। मध्य की कोई स्थिति नहीं है।
तंत्र कहता है कि सब कुछ पवित्र है। यही कारण है कि हम उसे समझ नहीं पाते। वह गहनतम अद्वैतवादी दृष्टि है--अगर हम इसे दृष्टि कह सकें तो। पर यह दृष्टिकोण है नहीं क्योंकि दृष्टिकोण द्वैतवादी ही होगा। तंत्र किसी चीज के विरुद्ध नहीं, इसलिए वह दृष्टिकोण नहीं है। वह अनुभूत एकत्व है एक ऐसा एकत्व जिसे जिया गया है।
ये दो मार्ग हैं- योग और तंत्र। हमारे अपंग चित्र के कारण तंत्र प्रभावी नहीं हो सका। लेकिन जब कोई भीतर से स्वस्थ होता है जब भीतर अराजकता नहीं होती तंत्र का अपना सौंदर्य है। और तभी वह वही समझ सकता है कि तंत्र क्या है? हमारे अशांत चित्त के कारण योग का आकर्षण है। योग हमें आसानी से आकर्षित कर लेता है।
स्मरण रहे कि अंत में तुम्हारा चित्त ही किसी चीज आकर्षक या विकर्षक बनाता है। तुम ही निर्णायक कारक हो।
ये दोनों अलग-अलग मार्ग हैं। मैं यह नहीं कहता हूं कि योग के द्वारा कोई पहुंच नहीं सकता। योग के मार्ग से भी पहुंचा जा सकता है लेकिन उस योग से नहीं जो आज प्रचलित है। जो योग आज प्रचलित है वह वास्तव में योग नहीं लेकिन वह तुम्हारे से रुग्ण चित्त की व्याख्या है। परम को उपलब्ध होने के लिए योग भी एक प्रामाणिक मार्ग
हो सकता है लेकिन वह तभी संभव है जब कि तुम्हारे चित्त स्वस्थ हो जब वह रुग्ण और बीमार न हो तब योग का रूप ही कुछ और होता है।
उदाहरण के लिए महावीर का मार्ग योग है; लेकिन वे काम का दमन नहीं करते। उन्होंने काम को जाना है उसे जीया है उसे भली भांति परिचित हैं वह उनके लिए व्यर्थ हो गया है इसलिए वह विदा हो गया है। बुद्ध का मार्ग योग है लेकिन वे भी संसार से गुजरे हैं; वह उससे भली भांति परिचित हैं। वह उससे लड़ नहीं रहे।
तुम जिसे जान लेते हो उससे मुक्त हो जाते हो। वह फिर सूखे पत्तों की भांति पेड़ से गिर जाता है। वह त्याग नहीं है उसमें लड़ाई नहीं है। बुद्ध के चेहरे को देखो वह लड़ने वाले का चेहरा नहीं है। वे लड़ नहीं रहे हैं। वे कितने शांत हैं शांति के प्रतीक हैं और फिर अपने योगियों को देखो; लड़ाई उनके चेहरों पर अंकित है। गहरे में वहां बड़ा
शोरगुल है क्षोभ है अशांति है मानो वे ज्वालामुखी पर बैठे हों। उनकी आंखों में झांको और तुम्हें इसका पता चलेगा कि उन्होंने अपने समस्त रोगों को किसी गहराई में दबा रखा है। वे उनके पार नहीं गए।
एक स्वस्थ संसार में, जहां प्रत्येक व्यक्ति अपना प्रामाणिक जीवन जीता है जहां कोई किसी का अनुकरण नहीं करता, बस अपने ही ढंग से जीता है योग और तंत्र दोनों ही मार्ग संभव हैं। वहां व्यक्ति उस गहरी संवेदनशीलता को उपलब्ध हो सकता है जो वासनाओं का अतिक्रमण करती है वहां वह उस बिंदु पर पहुंच सकता है जहां कामनाएं व्यर्थ होकर गिर जाती हैं। योग से भी वह संभव है। लेकिन मेरे देखे उसी संसार में योग कारगर होगा जहां तंत्र भी कारगर होगा इसे स्मरण रखें।
हमें स्वस्थ और स्वाभाविक चित्त की जरूरत है। जिस संसार में स्वाभाविक मनुष्य होगा वहां योग और तंत्र दोनों ही वासनाओं के अतिक्रमण में सहयोगी होंगे। हमारे रुग्ण समाज में न तो योग और न तंत्र हमारा मार्ग दर्शन कर सकता है कयोंकि अगर हम योग को चुनते हैं तो इसलिए नहीं कि हमारी कामनाएं व्यर्थ हो गई हैं। नहीं
कामनाएं तो अब भी अर्थपूर्ण हैं। वे गिरी नहीं उन्हें बलपूर्वक हटाना है। अगर हम योग को चुनते हैं तो उसे दमन की विधि के रूप में ही चुनते हैं।
और यदि तंत्र को चुनते है तो सिर्फ चालाकी के रूप में धोखे के रूप में ताकि हम भोग में उतर सकें। इसलिए अस्वस्थ चित्त के साथ न तो योग काम दे सकता है और न ही तंत्र। वे दोनों ही हमें धोखे में ले जाएंगे। आरंभ करने के लिए तो स्वस्थ चित्त की विशेष रूप यौन के तल पर स्वस्थ चित्त की जरूरत है। तब तुम्हें तुम्हारा मार्ग चुनने में कोई कठिनाई नहीं हैं। तुम योग चुन सकते हो; तुम तंत्र चुन सकते हो।
बुनियादी तौर से दो प्रकार के लोग है: स्त्री और पुरुष--जैविक अर्थों में नहीं, मानिसक रूप में। जो मानसिक तौर से पुरुष हैं--आक्रमक हिंसक बहिर्मुखी योग उनका मार्ग है। जो बुनियादी तौर से स्त्रैण है--ग्रहणशील, निष्क्रिय और अहिंसक--तंत्र उनका मार्ग है।
इसे ठीक से ध्यान में रख ले। तंत्र के लिए मां काली तारा देवी अनेक देवियां, भैरवियां बहुत महत्वपूर्ण है योग में तुम्हें कहीं किसी देवी का नाम नहीं सुनाई देगा। तंत्र में देवियां ही देवियां हैं और योग में देव ही देव। योग बाहर जाती हुई ऊर्जा है और तंत्र भीतर जाती हुई ऊर्जा है। इसलिए आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में कह सकते हैं कि योग बहिर्मुखी है और तंत्र अंतर्मुखी। इस लिए यह व्यक्तित्व पर निर्भर करता है। अगर तुम अंतर्मुखी हो तब संघर्ष लड़ाई तुम्हारे लिए नहीं है। अगर तुम बहिर्मुखी व्यक्ति हो तब संघर्ष तुम्हारा मार्ग है।
लेकिन हम उलझे हुए हैं सिर्फ उलझन हैं सब अस्तव्यस्त है सब गड़बड़ है। इसी कारण किसी से सहायता नहीं मिलती। उलटे, सब गड़बड़ हो जाता है। योग तुम्हें निक्षुब्ध करेगा तंत्र तुम्हें अशांत करेगा हर औषधि तुम्हारे लिए एक नई बीमारी पैदा करेगी क्योंकि चुनाव करनेवाला ही रोगी है विकृत है उसका चुनाव ही रुग्ण है रोग-
ग्रस्त है।
इसलिए मेरा यह मतलब नहीं कि योग के द्वारा तुम पहुंच ही नहीं सकते। मैं तंत्र पर सिर्फ इसलिए जोर देता हूं क्योंकि हम समझ पायेंगे कि तंत्र क्या है?
आज इतना ही
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