बुद्धत्व का मनोविज्ञान-ओशो
प्रवचन-तीसरा (काम, प्रेम और प्रार्थना: दित्यता के तीन चरण)
(The Psychology of the Esoteric-का हिन्दी रूपांतरण है)
ओशो कृपया हमारे लिए काम-ऊर्जा के आध्यात्मिकमहत्व की व्याख्या करें। काम का ऊर्ध्वगमन और
आध्यात्मीकरण हम किस प्रकार से कर सकते हैं? क्या
यह संभव है कि काम का संभोग का ध्यान की भांति
चेतना के उच्चतर आयामों में जाने के लिए छलांग लगाने
के एक तख्ते की भांति उपयोग किया जा सके?
काम-ऊर्जा जैसी कोई चीज नहीं होती है। ऊर्जा एक है और एक समान है। काम इसका एक निकास द्वार, इसके लिए एक दिशा, इस ऊर्जा के उपयोगों में से एक है। जीवन-ऊर्जा एक है; किंतु यह बहुत सी दिशाओं में प्रकट हो सकती है। काम उनमें से एक है। जब जीवन-ऊर्जा जैविक हो जाती है तो यह काम-ऊर्जा होती है।
काम जीवन-ऊर्जा का मात्र एक उपयोग है। इसलिए ऊर्ध्वगमन का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यदि जीवन ऊर्जा किसी अन्य दिशा में प्रवाहित होती है, वहां काम नहीं होता। किंतु यह ऊर्ध्वगमन नहीं है; यह रूपांतरण है।
काम जीवन-ऊर्जा का प्राकृतिक जैविक प्रवाह है, और इसका निम्नतम उपयोग भी है। यह स्वाभाविक है, क्योंकि जीवन का अस्तित्व इसके बिना नहीं हो सकता, और निम्नतम है, क्योंकि यह आधार है, शिखर नहीं। जब काम सभी कुछ हो जाता है, तो सारा
जीवन मात्र एक व्यर्थता बन जाता है। यह आधार बनाने और आधार बनाते रहने जैसा है, बिना उस मकान को कभी भी बनाए जिसके लिए आधार रखा गया है।
काम जीवन-ऊर्जा के उच्चतर रूपांतरण के लिए मात्र एक अवसर मात्र है। जब तक यह सामान्यत: ढंग से चलता है, ठीक है, किंतु जब काम सभी कुछ हो जाता है, जब यह जीवन-ऊर्जा का एकमात्र निकास बन जाता है, तब यह विध्वंसात्मक हो जाता है। यह बस साधन हो सकता है, साध्य नहीं। और साधनों का महत्व तभी तक है, जब साध्य प्राप्त कर लिया जाए। जब कोई व्यक्ति साधनों को गाली देता है, सारा प्रयोजन नष्ट हो जाता है। अगर कामवासना जीवन का केंद्र बन जाए, जैसा कि यह बन गया है, तब साधन, साध्यों में बदल जाते हैं। जीवन के अस्तित्व में रहने के लिए, सातत्य के लिए कामवासना जैविक आधार निर्मित करती है। यह एक साधन है, इसे साध्य नहीं बन जाना चाहिए।
जिस पल कामवासना साध्य बन जाती है, आध्यात्मिक आयाम खो जाता है। किंतु अगर काम ध्यानपूर्ण हो जाए, तो यह आध्यात्मिक आयाम की ओर उन्मुख हो जाता है। यह सीढ़ी का पत्थर, छलांग लगाने का तख्ता बन जाता है।
ऊर्ध्वगमन की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि ऊर्जा जैसी वह है, न तो कामुक है और न आध्यात्मिक। ऊर्जा तो सदैव तटस्थ है। अपने आप में यह अनाम है। जिस द्वार से होकर यह प्रवाहित होती है, उसी का नाम इसे मिल जाता है। यह नाम स्वयं ऊर्जा का नाम नहीं है, यह उस रूप का नाम है, जिसे ऊर्जा ग्रहण कर लेती है। जब तुम कहते हो, काम-ऊर्जा, इसका अभिप्राय है वह ऊर्जा जो काम के द्वार से जीव-शास्त्रीय निकास से प्रवाहित होती है। यही ऊर्जा, जब वह भगवत्ता में प्रवाहित होती है, आध्यात्मिक ऊर्जा है।
ऊर्जा अपने आप में तटस्थ है। जब इसकी जीव-शास्त्रीय अभिव्यक्ति होती है, यह कामवासना है। जब इसकी भावनात्मक अभिव्यक्ति होती है, तो यह प्रेम बन सकती है, यह घृणा बन सकती है, यह क्रोध बन सकती है। जब यह बौद्धिक रूप से अभिव्यक्त होती है, यह विज्ञानवादी बन सकती है, यह साहित्यिक बन सकती है। जब यह शरीर के माध्यम से गति करती है, यह भौतिक हो जाती है। जब यह मन के माध्यम से गुजरती है, यह
मानसिक हो जाती है। ये अंतर ऊर्जा के अंतर नहीं हैं, वरन उसके प्रयुक्त रूपों के हैं।
उसलिए काम-ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन' कहना सही नहीं है। अगर काम का निकास द्वार उपयोग में न आए तो ऊर्जा दुबारा शुद्ध हो जाती है। ऊर्जा तो सदा शुद्ध है। जब यह दिव्यता के द्वार के माध्यम से प्रकट होती है, यह आध्यात्मिक बन जाती है, पर धारण
किया गया रूप इसकी बस एक अभिव्यक्ति है।
ऊर्ध्वगमन शब्द के साथ बहुत सी गलत धारणाएं जुड़ी है। ऊर्ध्वगमन के सारे सिद्धांत दमन के सिद्धांत हैं। जब कभी तुम कहते हो, काम ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन, तुम इसके प्रति शत्रुतापूर्ण हो चुके होते हो। इस शब्द में ही तुम्हारी निंदा छिपी है।
तुमने पूछा है कि काम के बारे में कोई क्या कर सकता है?
काम के प्रति सीधे ही कुछ भी किया जाना दमन है। केवल कुछ अप्रत्यक्ष विधियां है जिनमें तुम काम-ऊर्जा से कोई मतलब नहीं रखते, बल्कि इसके बजाय दिव्यता का द्वार खोलने का उपाय खोजते हो। जब 'दिव्यता' की ओर द्वार खुला होता है तो तुम्हारे भीतर जो भी ऊर्जाएं है, उस द्वार की ओर प्रवाहित होना शुरू कर देती हैं। काम को अवशोषित कर लिया जाता है। जब कोई उच्चतर आनंद संभव हो तो आनंद के निम्नतर रूप असंगत हो जाते है। तुम्हें न तो उनको दबाना है, न उनके विरोध में लड़ना है। वे बस विदा हो जाएंगी। काम का ऊर्ध्वगमन नहीं होता, उसका अतिक्रमण हो जाता है।
काम के साथ निषेधात्मक रूप से किया गया कोई भी कृत्य ऊर्जा का रूपांतरण नहीं करेगा। बल्कि इसके विपरीत यह तुम्हारे भीतर एक संघर्ष पैदा करेगा, जो विध्वंसक होगा। जब तुम किसी ऊर्जा से लड़ते हो, तो तुम अपने आप से लड़ रहे होते हो। यह लड़ाई कोई भी नहीं जीत सकता। एक क्षण को तुम्हें लगेगा कि तुम जीत गए, और अगले ही पल तुम अनुभव करोगे कि कामवासना जीत गई। यह लगातार चलता रहेगा। किसी समय बिलकुल भी काम अनुभव नहीं होगा और तुम महसूस करोगे कि तुमने इसे नियंत्रित
कर लिया है, और अगले ही पल तुम काम का खिंचाव पुन: अनुभव करोगे और वह सब--कुछ जो तुम्हें अर्जित किया हुआ लग रहा था खो जाएगा। कोई भी अपनी खुद की ऊर्जा के खिलाफ लड़ कर जीत नहीं सकता।
अगर तुम्हारी ऊर्जाओं की किसी अन्य स्थान पर आवश्यकता है, कहीं अधिक आनंद देने वाले स्थान पर, तो काम मिट जाएगा। यह ऐसा नहीं है कि ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन हो गया है, यह ऐसा नहीं है कि तुमने इसके साथ कुछ किया है। बल्कि तुम्हारे लिए और
अधिक आनंद की ओर का एक नया रास्ता खुल गया है और अपने आप सहजस्कूर्त रूप से, ऊर्जा नये द्वार की ओर प्रवाहित होने लगती है।
अगर तुमने पत्थरों को पकड़ रखा हो और अचानक तुम्हारे सामने हीरे आ जाएं, तो तुम्हें पता ही न चलेगा कि तुमने पत्थरों को कब गिरा दिया। वे अपने आप ही गिर जाएंगे जैसे कि वे तुम्हारे पास कभी न थे। तुमको याद भी न आएगा कि तुमने उनको त्याग दिया है, कि तुमने उन्हें दूर फेंक दिया था। इसको तुम महसूस भी नहीं करोगे। यह ऐसा नहीं है कि किसी चीज का ऊर्ध्वगमन हो गया है। प्रसन्नता का एक विराटतर स्रोत खुल गया है और निम्नतर स्रोत अपने आप ही छोड़ दिए गए हैं।
यह इतना स्वचालित, इतना सहजस्फूर्त है कि कामवासना के विपरीत किसी सकारात्मक कृत्य की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है। जब कभी तुम किसी ऊर्जा के विरुद्ध कुछ कर रहे हो तो यह नकारात्मक ही होता है। असली, विधायक कार्य तो कामवासना से
संबंधित भी नहीं है, बल्कि उसका संबंध ध्यान से है। तुम्हें तो यह पता भी न चलेगा कि कामवासना कब विदा हो गई। यह तो बस नये द्वारा अवशोषित हो जाता है।
ऊर्ध्वगमन एक कुरूप शब्द है। यह अपने आप में शत्रुता का, संघर्ष का स्वर लिए हुए है। कामवासना को बस उतना ही महत्वपूर्ण समझा जाना चाहिए, जितनी यह है। यह जीवन के अस्तित्व में बने रहने का बस जीवशास्त्रीय आधार है। इसे कोई आध्यात्मिक या
गैर--आध्यात्मिक अर्थ मत दो। बस इसके तथ्य को समझो।
जब तुम इसे जीवशास्त्रीय तथ्य के रूप में लेते हो, तब तुम इसकी जरा भी चिंता नहीं करते। तुम इसकी फिकर केवल तभी करते हो जब इसको कोई आध्यात्मिक अर्थ दे दिया गया हो। इसलिए इसे कोई अर्थ मत दो, इसके चारों ओर किसी दर्शनशास्त्र का निर्माण मत करो। बस तथ्यों को देखो। इसके पक्ष या विपक्ष में कुछ मत करो। जैसा यह है इस को वैसा ही रहने दो, इसे सामान्य रूप में स्वीकार कर लो। इसके प्रति कोई असामान्य दृष्टिकोण मत बनाओ।
जैसे कि तुम्हारे पास आंखें और हाथ है, ऐसे ही तुम्हारे पास कामवासना भी है। तुम अपनी आंखों के या अपने हाथों के विरोध में तो नहीं होते, इसलिए कामवासना के विरोध में भी मत हो जाओ। तब यह प्रश्न कि कामवासना के बारे में क्या किया जाए असंगत हो जाता है। कामवासना के पक्ष या विपक्ष में द्वैतवाद निर्मित करना अर्थहीन है। यह एक प्रामाणिक तथ्य है कि तुम कामवासना के माध्यम से अस्तित्व में आए हो, और तुम्हारे पास पुन: कामवासना के माध्यम से जन्म देने का पूर्व--निर्मित कार्यक्रम भी है। तुम एक बड़े सातत्य के हिस्से हो। तुम्हारे शरीर को मर जाना है, इसलिए इसके पास एक दूसरे शरीर को निर्मित करने का पूर्व-निर्धारित कार्यक्रम होता है, जो इसके स्थान पर बना रहे। मृत्यु निश्चित है। यही कारण है कि कामवासना इतनी प्रभावशाली है। तुम यहां सदा नहीं होगे, इसलिए तुम्हें एक नये शरीर, एक अनुकृति के द्वारा प्रतिस्थापित होना पड़ेगा। कामवासना इसलिए इतनी महत्वपूर्ण है क्योंकि सारी प्रकृति का जोर इसी पर है, अन्यथा मनुष्य का अस्तित्व सदा नहीं बना रह सकेगा। अगर यह स्वैच्छिक होता, तो धरती पर कोई भी नहीं बचता। कामवासना इतनी प्रभावशाली है, इस कदर विवश कर देने वाली है, इसकी मांग इतनी सघन है, क्योंकि सारी प्रकृति इसी के लिए है। इसके बिना जीवन का अस्तित्व नहीं रह सकता है।
धार्मिक खोजियों के लिए कामवासना इतनी महत्वपूर्ण इसी कारण से हो गई क्योंकि यह इतनी अनैच्छिक, विवश कर देने वाली और इतनी स्वाभाविक है। इसी कारण से यह इस बात को जानने की यह कसौटी बन गई कि किसी व्यक्ति की जीवन ऊर्जा अभी
दिव्यता तक पहुंची या नहीं। हम सीधे ही यह नहीं जान सकते हैं कि कोई दिव्यता तक पहुंच चुका है या नहीं, हम सीधे ही यह नहीं जान सकते है कि किसी के पास हीरे हैं, लेकिन हम सीधे ही यह जान सकते हैं कि किसी ने पत्थरों को फेंक दिया है, क्योंकि पत्थरों से हमारी जान-पहचान है। हम सीधे ही यह जान सकते है कि किसी ने कामवासना का अतिक्रमण कर लिया है क्योंकि कामवासना को हम पहचानते हैं।
कामवासना इतनी विवश कर देने वाली, इतनी अनैच्छिक है, और इसमें इतना विराट बल है कि जब तक कोई दिव्यता को प्राप्त न कर ले, इसका अतिक्रमण संभव नहीं है। इसलिए यह जानने के लिए कि कोई व्यक्ति दिव्यता तक पहुंच गया है या नहीं, ब्रह्मचर्य
इसकी कसौटी बन गया। तब ऐसे व्यक्ति के लिए काम वासना, जैसी कि यह सामान्यजनो में होती है, का अस्तित्व नहीं रहेगा।
इसका अर्थ यह नहीं है कि कामवासना को छोड़ कर कोई दिव्यता को प्राप्त कर लेगा। यह विपरीत बात एक भ्रांति है। वह व्यक्ति जिसे हीरे मिल गए है, उन पत्थरों को फेंक देता है, जिन्हें वह लिए हुए था। किंतु इसका विपरीत सच नहीं है। तुम पत्थरों को
दूर फेंक सकते हो, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हें उनसे श्रेष्ठ कुछ मिल गया है। तब तुम बीच में होगे। तुम्हारे पास एक दमित मन होगा, अतिक्रमण किया हुआ मन नहीं। कामवासना तुम्हारे भीतर उबलती रहेगी और एक भीतरी नर्क निर्मित कर देगी।
यह कामवासना के पार जाना नहीं है। जब कामवासना दमित हो जाती है तो यह कुरूप, रुग्ण और विक्षिप्त हो जाती है। यह विकृत हो जाती है।
काम के प्रति तथाकथित धार्मिक दृष्टिकोण ने, एक विकृत कामुकता, एक ऐसी संस्कृति को जो पूरी तरह विक्षिप्त कामुकता है, निर्मित किया है। मैं इसके पक्ष में नहीं हूं। कामवासना जैव-वैज्ञानिक सच्चाई है, इसमें कुछ भी गलत नहीं है। इसलिए इससे संघर्ष मत करो, वरना यह विकृत हो जाएगी, और यह विकृत कामवासना कोई आगे बढ़ाया गया कदम नहीं है। यह सामान्य अवस्था से नीचे गिर जाना है, यह पागलपन की ओर बढ़ाया गया एक कदम है। जब दमन इतना सघन हो जाता है कि तुम इसे और अधिक जारी न रख सको, तब यह फूट पड़ता है-और इस विस्फोट में तुम खो जाओगे।
तुममें सभी मानवीय गुण है, तुममें सभी संभावनाएं है। एक सामान्य तथ्य की भांति कामवासना स्वस्थ है; किंतु जब यह असामान्य रूप से दमित हो जाती है, तब यह अस्वस्थ बन जाती है। तुम सामान्य अवस्था से तो बहुत सरलता पूर्वक दिव्यता की ओर जा सकते हो, लेकिन विक्षिप्त मन के साथ दिव्यता की ओर जाना कठिन और एक प्रकार से असंभव है। पहले तुम्हें स्वस्थ और सामान्य होना पड़ेगा। तब अंत में कामवासना के अतिक्रमण की संभावना पैदा हो सकती है।
तब क्या करना है? काम को जानो! इस में सचेतन रूप से प्रवेश करो। एक नये द्वार को खोलने का रहस्य यही है। अगर तुम अचेतन रूप से कामवासना में जाते हो, तो तुम जैविक विकास के हाथों में मात्र एक उपकरण हो; किंतु अगर तुम काम-कृत्य में सजग
रह सको, तो वह सजगता एक गहरा ध्यान बन जाती है।
काम-कृत्य इतना अनैच्छिक और इतना बाध्यकारी है कि इसमें चेतन रह पाना कठिन है, किंतु असंभव नहीं है। और अगर तुम काम-कृत्य में चेतन रह सको, तब जीवन में कोई भी ऐसा कृत्य नहीं है जिसमें तुम चेतन न रह सको, क्योंकि कोई भी कृत्य उतना
गहरा नहीं है जितना काम-कृत्य है।
अगर तुम काम-कृत्य में सजग हो सको, तो मृत्यु में भी तुम सजग रहोगे। काम-कृत्य की गहराई और मृत्यु की गहराई एक जैसी है, एक सी है। तुम उसी बिंदु पर आते हो। इसलिए अगर तुम काम-कृत्य में होशपूर्ण रह सको तो तुमने एक महान उपलब्धि कर
ली है। यह अमूल्य है।
इसलिए कामवासना का ध्यान के कृत्य की भांति उपयोग करो। इससे संघर्ष मत करो, इसके विरुद्ध मत जाओ। तुम प्रकृति से लड़ नहीं सकते, तुम इसी का भाग और अंश हो। तुम्हें कामवासना के प्रति मित्रतापूर्ण, सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। यह तुम्हारे और प्रकृति के मध्य गहनतम संवाद है।
वस्तुत: काम-कृत्य वास्तविक रूप से पुरुष व स्त्री के मध्य संवाद नहीं है। यह पुरुष का, स्त्री के माध्यम से, प्रकृति से संवाद है र और स्त्री का पुरुष के माध्यम से प्रकृति से संवाद है। यह प्रकृति के साथ संवाद है। एक क्षण के लिए तुम ब्रह्मांडीय प्रवाह में होते हो, तुम एक दिव्य लयबद्धता में होते हो, तुम समग्र के साथ एक हो जाते हो। इस प्रकार से पुरुष को स्त्री के माध्यम से और स्त्री को पुरुष के माध्यम से परितृप्ति प्राप्त होती है।
पुरुष संपूर्ण नहीं है और स्त्री संपूर्ण नहीं है। वे एक संपूर्णता के दो हिस्से है। इसलिए जब कभी काम-कृत्य में वे एक हो जाते हैं, वे वस्तुओं के अंतर्तम स्वभाव के साथ, ताओ के साथ लयबद्धता में हो सकते हैं। यह लयबद्धता एक नये प्राणी के लिए जीवशास्त्रीय जन्म हो सकती है। अगर तुम बेहोश हो तो यही एकमात्र संभावना है। किंतु अगर तुम होश से भरे हो, तो यह कृत्य तुम्हारे लिए एक जन्म, आध्यात्मिक जन्म बन सकता है। इसके माध्यम से तुम द्विज बन जाओगे--ट्वाइस बार्न।
जिस क्षण तुम इसमें सचेतन रूप से भाग लेते हो, तुम इसके साक्षी हो जाते हो। और एक बार तुम काम-कृत्य में साक्षी हो सके तो तुम कामवासना का अतिक्रमण कर लोगे; क्योंकि साक्षित्व में तुम मुक्त हो जाते हो। अब वहां कोई बाध्यता नहीं होगी। तुम एक अचेतन भागीदार नहीं होओगे। एक बार तुम कृत्य में साक्षी हो गए, तुमने इसका अतिक्रमण कर लिया। अब तुम जानते हो कि तुम मात्र शरीर ही नहीं हो। तुम्हारे भीतर के साजित्व की शक्ति ने उसके पार का कुछ जान लिया है।
यह 'पार' सिर्फ तभी जाना जा सकता है जब तुम गहनता से अपने भीतर हो। यह कोई सतही मामला नहीं है। जब तुम बाजार में मोलभाव कर रहे होते हो, तुम्हारी चेतना बहुत गहरी नहीं जा सकती, क्योंकि यह कृत्य अपने आप में बहुत सतही है। जहां तक मनुष्य का संबंध है, काम-कृत्य सामान्यत: एक मात्र कृत्य है, जिसके माध्यम से कोई अपनी भीतरी गहराइयों का साक्षी बन सकता है।
जितना अधिक तुम कामवासना के माध्यम से ध्यान में जाओगे, कामवासना का प्रभाव उतना ही कम होगा। इसमें से ध्यान का विकास होगा, और विकसित होते हुए इस ध्यान से एक नया द्वार खुल जाएगा और कामवासना विदा हो जाएगी। यह कोई ऊर्ध्वगमन नहीं होगा। यह ऐसे ही होगा जैसे कि वृक्ष से सूखी पत्तियां गिर रही हों। वृक्ष को तो कभी पता भी नहीं चलता कि पत्तियां गिर रहीं हैं। ठीक उसी प्रकार से तुम्हें कभी पता भी न चलेगा कि काम की यांत्रिक चाहत विदा हो रही है।
कामवासना में से ध्यान का सृजन करो, कामवासना को ध्यान का विषय बनाओ। इसे मंदिर की भांति समझो, और तुम इसका अतिक्रमण कर लोगे और रूपांतरित हो जाओगे। तब कामवासना वहां पर नहीं होगी, किंतु वहां कोई दमन, कोई ऊर्ध्वगमन भी
नहीं होगा। कामवासना बस असंगत, अर्थहीन हो जाएगी। तुम इसके पार विकसित हो गए हो। अब तुम्हारे लिए इसका कोई अर्थ नहीं रह जाता है। यह एक विकसित होते हुए बच्चे की भांति है। अब खिलौने अर्थहीन हैं। उसने किसी चीज का ऊर्ध्वगमन नहीं किया है; उसने किसी चीज का दमन नहीं किया है। बस वह बड़ा हो गया है, वह वयस्क हो गया है। खिलौने अब अर्थहीन हैं। वे बचकाने हैं, और बच्चा अब बच्चा नहीं रहा है।
ठीक इसी प्रकार से जितना अधिक तुम ध्यान में उतरोगे, तुम्हारे लिए काम का आकर्षण उतना ही कम होने लगेगा। और धीरे-धीरे सहजस्कूर्त रूप से, बिना काम के ऊर्ध्वगमन का सचेतन प्रयास किए, ऊर्जा प्रवाहित होने के लिए एक नया स्रोत पा लेगी।
वही ऊर्जा जो कामवासना के माध्यम से प्रवाहित हुई थी, अब ध्यान के माध्यम से प्रवाहित होने लगेगी। और जब यह ध्यान के माध्यम से प्रवाहित होती है, भगवत्ता का द्वार खोला जा रहा होता है।
एक और बात, तुमने दो शब्दों का प्रयोग किया है काम और प्रेम। आमतौर से हम इन दोनों शब्दों का प्रयोग इस तरह से करते है जैसे कि इनमें कोई भीतरी साहचर्य हो। उनमें ऐसा नहीं है। प्रेम सिर्फ तभी आता है जब कामवासना जा चुकी होती है। इससे पहले प्रेम बस एक प्रलोभन है, एक प्रेमप्रणयता, प्रेमक्रीड़ा है, और कुछ भी नहीं। यह तो बस काम-कृत्य के लिए आधार तैयार करना है। यह और कुछ नहीं वरन काम की भूमिका प्रस्तावना है। इसलिए जब दो व्यक्तियों के मध्य अधिक कामवासना होगी तो वहां कम प्रेम होगा, क्योंकि तब प्रस्तावना की जरूरत नहीं है।
अगर दो व्यक्ति प्रेम में है, और उनके बीच जरा भी काम नहीं है, तो वहां अधिक उमंगपूर्ण प्रेम होगा। किंतु जिस पल कामवासना भीतर आती है, प्रेम बाहर चला जाता है। काम इस कदर अप्रत्याशित होता है। अपने आप में यह इतना हिंसक है कि इसे प्रस्तावना की जरूरत होती है, इसे प्रेमप्रणयता, प्रेमक्रीड़ा चाहिए। प्रेम जैसा कि हम इसे जानते है कामवासना के नग्न तथ्य को आवरण पहनाना मात्र है। जिसे तुम प्रेम कहते हो, अगर उसके भीतर तुम गहराई से झांको तो तुम वहां कामवासना को खड़ा पाओगे, बाहर कूदने को तत्पर। यह सदा से वहां मौजूद होती है। प्रेम ऊपर की बातचीत है। नीचे से कामवासना तैयारी कर रही होती है।
यह तथाकथित प्रेम कामवासना से संबंधित है, किंतु केवल एक भूमिका की भांति। अगर कामवासना आती है, तब प्रेम खो जाएगा। यही कारण है कि विवाह उमंगपूर्ण प्रेम को मार देता है, और उसे पूरी तरह से मार डालता है। दोनों व्यक्ति एक-दूसरे से परिचित हो गए हैं और प्रेम क्रीड़ा, प्रेम अनावश्यक हो जाता है।
असली प्रेम कोई प्रस्तावना नहीं है। यह एक सुगंध है। यह कामवासना के पहले नहीं बल्कि उसके बाद है। यह भूमिका नहीं वरन उपसंहार है। अगर तुम कामवासना से होकर गुजर चुके हो, और दूसरे व्यक्ति के प्रति करुणा अनुभव करते हो, तब प्रेम का
विकास होता है। और अगर तुम ध्यान करते हो तो तुम करुणापूर्ण होना अनुभव करोगे। अगर काम-कृत्य में तुम ध्यान करो, तब तुम्हारी कामवासना का साथी तुम्हारे मात्र शारीरिक आनंद के लिए उपकरण नहीं बनेगा। तुम्हें उस पुरुष या उस स्त्री के प्रति धन्यता
का अनुभव होगा, क्योंकि तुम दोनों गहन ध्यान तक पहुंच गए।
जब तुम कामवासना में ध्यान करते हो तो तुम दोनों के मध्य एक नई मैत्री का उदय होगा, क्योंकि एक-दूसरे के माध्यम से, तुम्हारा प्रकृति के साथ संवाद हो गया है, एक दूसरे के माध्यम से तुमने सत्य की अज्ञात गहराइयों की एक झलक पा ली है। तुम एक-दूसरे के प्रति धन्यता और करुणा अनुभव करोगे, कष्ट के प्रति करुणा, खोज के प्रति करुणा अपने सहगामी के प्रति, हमराही के प्रति करुणा।
अगर कामवासना ध्यानपूर्ण हो जाए, केवल तभी वहां एक सुगंध होती है जो पीछे छूट जाती है एक अनुभूति, जो कामवासना से पहले का प्रेमप्रणयता, प्रेमक्रीड़ा नहीं होती बल्कि एक परिपक्वता, एक विकास, एक ध्यानपूर्ण संचेतना होती है। इसलिए अगर काम-कृत्य ध्यानपूर्ण हो जाता है, तो तुम प्रेम को अनुभव करोगे। प्रेम, धन्यता, मैत्री और करुणा का संगम है। अगर ये तीनों अनुभूतियों हैं तो तुम प्रेम में हो।
अगर यह प्रेम विकसित होता है तो यह कामवासना का अतिक्रमण कर लेगा। प्रेम कामवासना के माध्यम से विकसित होता है, लेकिन इसके पार चला जाता है। बिलकुल एक फूल की भांति यह जड़ों के माध्यम से आता है, किंतु उनके पार चला जाता है। और यह वापस नहीं लौटेगा, वहां कोई पीछे लौटना नहीं होता है। इसलिए अगर प्रेम विकसित होता है तो वहां पर कामवासना नहीं होगी। वस्तुत: यह इस बात को जानने का उपाय है कि प्रेम विकसित हो गया है। कामवासना अंडे के खोल की भांति है, एक खोल जिसके माध्यम से प्रेम को प्रकट हो जाना है। जिस पल यह प्रकट हो जाता है, खोल वहां और अधिक देर नहीं रहता है। यह तोड़ दिया जाएगा, हटा दिया जाएगा।
कामवासना प्रेम तक सिर्फ तभी पहुंच सकती है, जब ध्यान वहां हो, अन्यथा नहीं। अगर ध्यान वहां नहीं है, तो उसी कामवासना की पुनरावृत्ति होगी और तुम ऊब जाओगे। कामवासना और अधिक जड़तापूर्ण हो जाएगी और तुम एक-दूसरे के प्रति
धन्यता अनुभव नहीं करोगे। बल्कि तुम धोखा खाया हुआ अनुभव करोगे, तुम उसके प्रति शत्रुतापूर्ण अनुभव करोगे। वह तुम पर मालकियत करता है। वह कामवासना के माध्यम से मालकियत करता है, क्योंकि यह तुम्हारे लिए आवश्यकता बन चुकी है। तुम गुलाम बन चुके हो, क्योंकि तुम कामवासना के बिना रह नहीं सकते। तुम उसके प्रति कभी मित्रतापूर्ण अनुभव नहीं कर सकते जिसके तुम गुलाम हो गए हो।
और दोनों को यही अनुभव होगा कि दूसरा मालिक है। मालकियत से इनकार किया जाएगा और संघर्ष होगा, लेकिन फिर भी कामवासना की पुनरावृत्ति होगी। यह रोजमर्रा का काम बन जाएगा। तुम अपने कामवासना के साथी के साथ संघर्ष करोगे, और
तब चीजों को फिर से व्यवस्थित करोगे। फिर से तुम संघर्ष करोगे, फिर तुम लीपा-पोती करोगे। प्रेम अधिक से अधिक एक समायोजन भर है। तुम मैत्रीपूर्ण अनुभव नहीं कर सकते, वहां कोई करुणा नहीं है। इसके स्थान पर वहां कूरुरता और हिंसा होगी, तुम धोखा खाया हुआ अनुभव करोगे। तुम गुलाम बन गए हो। कामवासना प्रेम में विकसित न हो सकेगी। यह बस कामवासना ही बनी रहेगी।
कामवासना से होकर गुजरो। इससे भयभीत मत होओ। क्योंकि भय कहीं नहीं ले जाता। अगर तुम्हें किसी बात से डरना है, तो बस भय से ही डरना है। कामवासना से मत डरो। और इससे संघर्ष भी मत करो, क्योंकि यह भी भय का ही एक रूप है, संघर्ष या पलायन-लड़ना या भाग जाना, ये भय के ही दो रास्ते हैं। इसलिए कामवासना से भागो मत, इसके साथ संघर्ष मत करो। इसको स्वीकार कर लो। इसे अपना समझो। इसमें गहरे उतरो, इसे पूरी तरह से जानो, इसे समझो, इसमें ध्यान करो और तुम इसके पार चले जाओगे। जिस पल तुम काम-कृत्य में ध्यान कर सके, एक नया द्वार खुल जाता है। तुम एक नये आयाम में आ जाते हो, एक नितांत अनजाना, एक बिलकुल ही अनसुना आयाम, और इसके माध्यम से एक महत्तर आनंद प्रवाहित होता है।
तुम किसी ऐसी आनंददायक अनुभूति को पा लोगे कि कामवासना अर्थहीन हो जाएगी और यह अपने आप ही शांत हो जाएगी। तुम्हारी ऊर्जा अब इस दिशा में और अधिक नहीं बहेगी। ऊर्जा सदा आनंद की ओर प्रवाहित होती है। क्योंकि कामवासना में
आनंद का आभास होता है, ऊर्जा इस ओर बहती है र किंतु अगर तुम अधिक आनंद खोज लो, ऐसा आनंद जो कामवासना का अतिक्रमण करता है, जो कामवासना के पार चला जाता है, ऐसा आनंद जो अधिक तृप्ति दायक, अधिक गहरा और अधिक विराट है—तब ऊर्जा अपने आप ही कामवासना की ओर प्रवाहित होना बंद कर देगी।
जब कामवासना ध्यान हो जाती है तो वह प्रेम में खिल उठती है; और यह खिल उठना दिव्यता की ओर गति करना है। यही कारण है कि प्रेम दिव्य है। कामवासना शारीरिक है, प्रेम आध्यात्मिक है। और यदि प्रेम का पुष्प वहां हो तो प्रार्थना आएगी, यह अनुगमन करेगी। अब तुम दिव्यता से दूर नहीं हो। तुम घर के निकट हो।
अब प्रेम पर ध्यान करना आरंभ करो। यह दूसरा कदम है। जब वहां संवाद का पल हो, जब वहां प्रेम का क्षण हो, ध्यान आरंभ कर दो। इसमें गहरे उतरो, इसके प्रति होशपूर्ण हो जाओ। अब शरीरों का मिलन नहीं हो रहा है। कामवासना में शरीर मिल रहे थे, प्रेम में आत्माएं मिल रही हैं। अभी भी यह एक मिलन है, दो व्यक्तियों के बीच मिलन। अब प्रेम को उसी प्रकार से देखो, जैसे तुमने कामवासना को देखा था। संवाद को, आंतरिक मिलन को, भीतर के संभोग को देखो। तब तुम प्रेम के भी पार चले जाओगे, और तुम प्रार्थना पर आ जाओगे। यह प्रार्थना द्वार है। अभी भी यह मिलन है, लेकिन दो व्यक्तियों का नहीं। यह तुम्हारे और समग्र के मध्य संवाद है। अब दूसरा एक व्यक्ति की भांति नहीं रहा। यह अव्यक्ति की भांति दूसरा है--समग्र अस्तित्व और तुम।
लेकिन प्रार्थना अभी भी मिलन ही है, इसलिए अंतिम चरण में इसका भी अतिक्रमण होना है। प्रार्थना, पूजा करने वाला और पूजित होने वाला अलग-अलग हैं, भक्त और भगवान भिन्न हैं। अभी भी यह एक मिलन है। इसीलिए मीरा या थेरेसा अपनी प्रार्थना के अनुभव में काम संबंधों वाली शब्दावली का प्रयोग कर सकी।
प्रार्थनापूर्ण क्षणों में ध्यान करना चाहिए। दुबारा से इसके साक्षी हो जाओ। अपने और समग्र के मध्य संवाद को देखो। इसके लिए यथासंभव सूक्ष्मतम सजगता की आवश्यकता पड़ती है। अगर तुम अपने और समग्र के मध्य मिलन में सजग रह सके, तब तुम अपने आप का और समग्र का, दोनों का अतिक्रमण कर लेते हो। तब तुम समग्र होते हो। और इस समग्र में कोई द्वैत नहीं है, वहां बस एकता है।
इस एकता की खोज काम के माध्यम से, प्रेम के माध्यम से, प्रार्थना के माध्यम से की जाती है। यही वह एकता है, जिसकी अभीप्सा थी। कामवासना में भी, अभीप्सा इसी एकता के लिए है। आनंद आता है, क्योंकि क्षण भर के लिए तुम एक हो जाते हो। कामवासना गहराती है प्रेम में,--प्रेम गहराता है प्रार्थना में और प्रार्थना गहराती है संपूर्ण अतिक्रमण में, समग्र एकता में।
यह गहराना सदा ध्यान के माध्यम से घटित होता है। विधि सदा वही है। स्तर भिन्न है, आयाम भिन्न हैं, चरण भिन्न है, पर विधि वही है। कामवासना में खोदो और तुम्हें प्रेम मिलेगा। प्रेम में गहरे जाओ और तुम प्रार्थना पर आओगे। प्रार्थना में खोदो और तुम
विस्फोटित होकर एक हो जाओगे। यही एकता संपूर्ण है, यही एकता आनंद है, यही एकता समाधि है।
इसलिए संघर्ष का भाव न रखना मूलभूत बात है। प्रत्येक तथ्य में दिव्यता उपस्थित है। यह आवृत हो सकती है यह वस्त्रों से ढंकी हुई हो सकती है, किंतु तुमको इसे अनावृत करना पड़ेगा, इसे उघाड़ना पड़ेगा। तुम्हें और भी सूक्ष्म आवरण मिलेगा। पुन: इसे अनावृत करो। जब तक कि तुम एकता का उसकी पूर्ण नग्न अवस्था में साक्षात न कर लो, तुम्हें संतुष्टि नहीं मिलेगी, तुम्हें तृप्ति की अनुभूति नहीं होगी।
जिस क्षण तुम अनावृत एक, उघाड़े गए एक पर पहुंचते हो, तुम इसके साथ एक हो जाते हो, क्योंकि जब तुम इस नग्न को जानते हो, तो यह कोई और नहीं वरन तुम ही होते हो। वस्तुत: प्रत्येक व्यक्ति दूसरों के माध्यम से अपने आप को खोज रहा है। व्यक्ति को उसका अपना घर, दूसरों के दरवाजों पर दस्तक देकर पाना पड़ता है।
जिस क्षण सच्चाई अनावृत होती है, तुम इसके साथ एक हो जाते हो, क्योंकि यह भेद केवल आवरणों का है। वस्त्र बाधा हैं, इसलिए तुम सच्चाई को तब तक अनावृत नहीं कर सकते जब तक कि तुम अपने आप को अनावृत न कर दो। यही कारण है कि ध्यान
दुधारी तलवार है, यह सच्चाई को अनावृत करता है और साथ ही यह तुम्हें भी अनावृत कर देता है। सच्चाई नग्न हो जाती है और तुम भी नग्न हो जाते हो। और परम नग्नता के, परम शून्यता के पल में तुम एक हो जाते हो।
मैं कामवासना के विरोध में नहीं हूं। इसका अभिप्राय यह नहीं है कि मैं कामवासना के पक्ष में हूं। इसका अभिप्राय यह है कि मैं इसमें भीतर गहरे जाने और इसके पार को उघाड़ने के पक्ष में हूं। यह पार सदा वहां है, किंतु सामान्य कामवासना छुओ और भाग
जाओ वाला काम संबंध है, इसलिए कोई इसमें गहरा नहीं उतरता। अगर तुम गहरे उतर सको तो तुम दिव्यता के प्रति आभारी अनुभव करोगे कि कामवासना के माध्यम से एक द्वार खुल गया है। लेकिन अगर कामवासना केवल छूकर भाग जाना है, तो तुम कभी न जान पाओगे कि तुम किसी श्रेष्ठतर के निकट थे।
हम इतने चालाक है कि हमने झूठा प्रेम निर्मित कर लिया है जो कामवासना के बाद नहीं वरन इसके पहले आता है। यह उपजाई हुई नकली चीज है। यही कारण है कि जब कामवासना तृप्त हो जाती है तो हमें लगता है कि प्रेम खो गया है। प्रेम केवल एक भूमिका था, और अब भूमिका की जरूरत न रही। लेकिन असली प्रेम सदा कामवासना के पार है, यह कामवासना के पीछे छिपा है। इसमें गहरे उतर जाओ, इसमें धर्मनिष्ठा से ध्यान करो,
और तुम मन की प्रेममयी दशा में खिल उठोगे।
मैं कामवासना के विरोध में नहीं हूं और मैं प्रेम के पक्ष में नहीं हूं। तुमको इसका भी अतिक्रमण करना पड़ेगा। इस पर ध्यान करो, इसके पार चले जाओ। ध्यान से मेरा अभिप्राय है, तुम्हें इससे पूर्ण होश से, जागरूकता पूर्वक गुजरना पड़ेगा। तुम्हें इससे अंधे की तरह से, अचेतन होकर नहीं गुजरना है। वहां अतिशय आनंद है, लेकिन तुम अंधों की तरह वहां से होकर गुजर सकते हो और इससे चूक सकते हो। इस अंधेपन को रूपांतरित किया जाना है, तुम्हें खुली आंख वाला बन जाना चाहिए। खुली आंखों के साथ कामवासना तुम्हें एकता के रास्ते पर ले जा सकती है।
बूंद सागर बन सकती है। यह प्रत्येक बूंद के हृदय की अभिलाषा है। प्रत्येक कृत्य में, प्रत्येक इच्छा में, तुम इसी अभिलाषा को पाओगे। इसको उघाड़ दो, इसका अनुगमन करो। यह एक महत साहसिक अभियान है। जिस प्रकार से हम अपनी जिंदगी आज जीते है, हम अचेतन है। किंतु इतना तो किया ही जा सकता है, कठिन है यह, पर यह असंभव नहीं है। यह किसी जीसस, किसी बुद्ध, किसी महावीर के लिए संभव हो चुका है, और हरेक दूसरे के लिए संभव है।
जब तुम कामवासना में ऐसी त्वरा के साथ, ऐसी जागरूकता के साथ, ऐसी संवेदनशीलता के साथ उतर जाते हो तो तुम इसका अतिक्रमण कर लोगे। वहां पर किसी तरह का कोई ऊर्ध्वगमन नहीं होगा। जब तुम अतिक्रमण कर लेते हो, तो वहां पर कोई कामवासना, यहां तक कि ऊर्ध्वगमित हो चुकी कामवासना भी नहीं होगी। वहां पर प्रेम, प्रार्थना और एकता होगी।
प्रेम के ये तीन चरण हैं : भौतिक प्रेम, मानसिक प्रेम और आध्यात्मिक प्रेम। और जब इन तीनों का अतिक्रमण हो जाता है, तो वहां पर दिव्यता है। जब जीसस ने कहा : परमात्मा प्रेम है, तो यह उसकी निकटतम संभव परिभाषा है, क्योंकि परमात्मा की ओर
जाने वाले पथ पर हम जिस अंतिम चीज को जानते हैं, वह है प्रेम। इसके पार अज्ञात है, और अज्ञात को परिभाषित नहीं किया जा सकता है। हम दिव्यता की ओर अपनी अंतिम अनुभूति, प्रेम के माध्यम से संकेत मात्र कर सकते है। प्रेम के उस बिंदु के पार वहां पर कोई अनुभव नहीं है, क्योंकि वहां पर अनुभव करने वाला नहीं है। बूंद सागर बन गई है। एक-एक कदम चलो, लेकिन मैत्रीभाव के साथ, बिना किसी तनाव के, बिना संघर्ष के। बस जागरूकता के साथ जाओ। जीवन की अंधेरी रात में जागरूकता ही एक मात्र प्रकाश है। इस प्रकाश के साथ, इसमें जाओ। प्रत्येक कोने को देखो और खोजो। हर स्थान पर दिव्यता है, इसलिए किसी चीज के विरोध में मत होओ।
लेकिन किसी वस्तु के साथ रहो भी मत। पार चले जाओ, क्योंकि श्रेष्ठतर आनंद तुम्हारी प्रतीक्षा में है। यात्रा जारी रहनी चाहिए। अगर तुम कामवासना के निकट हो तो कामवासना का उपयोग करो। अगर तुम प्रेम के निकट हो, तो प्रेम का उपयोग कर लो। दमन या ऊर्ध्वगमन की भाषा में मत सोचो, संघर्ष की भाषा में मत सोच विचार करो। दिव्यता किसी भी वस्तु के पीछे छिपी हो सकती है; इसलिए संघर्ष मत करो, किसी चीज से भागो मत। वस्तुत: यह हर चीज के पीछे है। इसलिए तुम जहां कहीं भी हो, निकटतम द्वार को चुन लो और तुम प्रगति कर लोगे। कहीं पर भी रुके मत रहो और तुम पहुंच जाओगे क्योंकि जीवन सब कहीं है।
जीसस ने कहा है प्रत्येक पत्थर के नीचे प्रभु है, किंतु तुम केवल पत्थरों को देखा करते हो। तुम्हें मन की इस पाषाणवत दशा से गुजरना पड़ेगा। जब तुम कामवासना को शत्रु की भांति देखते हो, तो यह पत्थर बन जाती है। तब यह अपारदर्शी हो जाती है, तुम इसके पार नहीं देख सकते हो। इसका उपयोग करो, इस पर ध्यान करो, और पत्थर कांच की भांति हो जाएगा। तुम इसके पार देख लोगे, और तुम कांच को भूल जाओगे। जो कांच के पीछे है वही याद रहेगा।
कोई भी वस्तु जो पारदर्शी हो जाती है, मिट जाएगी। इसलिए कामवासना को पत्थर मत बनाओ, इसे पारदर्शी बनाओ। और ध्यान के द्वारा यह पारदर्शी बन जाती है।
आज इतना ही
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