(मेरा दुस्साहस
पापा का साहस)
घर जाते—जाते दिन
निकल आया था। चारों और चहल पहल थी। परंतु मेरी और किसी का ध्यान नहीं गया। बस एक
गली में कुछ कुत्तों ने मुझे देख और स्वभाव अनुसार भौंकें। लेकिन ये केवल उनका
संदेश मात्र ही माना जायेगा, कि हम सतर्क है अपने इलाके में। हमारी
नजरों से कोई बच कर नहीं जा सकता। बस वह बैठे—बैठे ही भोंकते रहे, परंतु वह भी आगे आने कि हिम्मत नहीं कर सके। शायद पूरी रात जागने के कारण
अब वह चैन से सोना चाहते थे। मैं छत से घर जाने का एक ही रास्ता जानता था। पीछे
की तरफ से जहां से अकसर मैं उसे भागने के लिए उपयोग करता था। परंतु छत से घर जाने
के लिए वापसी बहुत कठिन थी। क्योंकि ऊपर से तो 8—10 फीट भी कूद कर आ सकता था
परंतु वापस तो इतना कूद कर चढ़ नहीं सकता था। हमारे मकान से एक दम सटा हुआ
मामा—मामी का मकान था।
मैं वहीं पर अकसर पहुंच जाता था। वहीं अपनी हीरो कुत्ते वाली कथाएं। परंतु आज ऐसा कुछ नहीं कर सका। केवल छत पर खड़ा हो कर रोता रहा। कि मुझे कोई उतरा लो। मामी हमारे घर पर गई और मम्मी जी को बुला कर कहने लगी तिहरा पौनी आया है। गली में आज भी भीड़ लग गई थी। परंतु मेरे ऊपर से न कूदने के कारण लोग तरह—तरह की बातें कर रहे थे।
लगता है हीरों कुत्ता अब बूढ़ा हो गया है। मम्मी ने दीदी को कहा की पोनी आज उतर नहीं पा रहा। और लकड़ी की सीढ़ीयों से तू भी उसे उतार नहीं सकेगी। इसलिए पीछे से जाकर जय नारायण का दरवाजा खोल कर उसे उतार ला। मेरे दो दिन से घर न आने के कारण घर के लोग उदास हो गये थे। दीदी और बच्चे मुझे आया देख कर खुश हो गये। पड़ोस के घर से चढ़ कर दीदी मेरे पास आई तब मुझे बड़ा अचरज हुआ कि दीदी कहां से गई। उसने मुझे चैन से बांधा। और मेरे गले से चिपट का रोने लगी कि तुम कहां चला गया था। तू बड़ा ही खराब है बिना बतलाए कहीं भी चला जाता है। तुझे पता तो होगा की हम कितने परेशान थे तेरे लिए। मैंने एक बार दीदी का मुख चाट और अपनी गर्दन नीची कर ली। दीदी के ही नहीं मेरी आंखों में अब भी आंसू थे।दीदी मुझे गले से
लगा कर बार—बार यही कह रही थी। तू जानता है हमने तुझे कहां—कहां नहीं खोजा। वह स्कूल
के कपड़े पहने हुए थी। उसको ऐसे रोते देख कर मेरा भी दिल भर आया कि देखो मनुष्य
कितना प्रेम वाला है। मुझे भी ये लोग कितना प्यार करते है। जब आपको कोई प्यार
करता है तो आपको एक खास तरह का गर्व और तृप्ति का एहसास होता है। परंतु उसे अपना
अहंकार नहीं बना लेना चाहिए। उसमें एक तरलता ही सौंदर्य पूर्ण होती है वहीं आपको
विलय की और ले जाती है। एक मिटने की और जो सच एक अभूत पूर्ण आनंद का क्षण होता है।
पीछे का दरवाजा
मैंने देखा तो था परंतु वह हमेशा रात को बंद होता था। इसलिए उस रास्ते से मैं घर
नहीं आ सकता था। मैं बड़े मजे से दीदी के साथ सीढियां उतर कर अपने घर की और चल
दिया। गली के दोनों और दर्शकों का मेला लगा था। जैसे लोगों को कोई काम ही नहीं।
मुझे इस तरह के लोग बहुत बुरे लगते थे। मम्मी ने मेरे लिए गर्म—गर्म दूध डाल रखा
था। दो दिन से कुछ खाया नहीं था। परंतु उस दूध को देख कर मुझे रह—रह कर मां की याद
आ रही थी। वरूण और हिमांशु भैया भी मुझे देख कर खुशी के मारे पागल हो गये। और मुझे
चारों और घेर लिया कि बताओ तुम दो दिन कहां रहे। हिमांशु ने कहां की पोनी अब शैतान
हो गया है। अब ये हमारे बस के बाहर है। परंतु ऐसा कुछ नहीं था। क्योंकि अगर मुझे
मेरी मां नहीं मिलती तो मैं सुबह ही आ जाता। और कुदरत शायद यही चाहती थी।
उसने अंतिम समय
मुझे मेरी मां से मिला दिया ये क्या उसका कम उपकार था। सच कहूं तो कुदरत मुझ पर
बहुत अधिक मेहरबान है। हर मोड़ पर, इस परिवार से जोड़ा मुझे सब
दे दिया। इस सब को उस प्रकृति का खेल कहे या कर्म का फल। यह एक लम्बी बहस है। फिर
भी आप माने या न माने है तो उसी का हाथ ही। इसे किस्मत नहीं कहा जाना चाहिए। जरूर
मैंने कुछ ऐसा किया जिसका फल मुझे मिल रहा है। कभी कोई प्रेम का बीज बोया होगा।
उसके बदले ये सब मिला। शायद इस जन्म में मेरी मां भी ऐसा बीज बो कर गई है। शायद
अगले जन्म में उसे कोई महत्व पूर्ण परिवार मिले जिसकी वह पात्र थी।
लेकिन सब देख रहे
थे कि पोनी कुछ बदला—बदला जरूर लग रहा है। परंतु शायद बाल मन के कारण मेरे ह्रदय
में जो उथल—पुथल चल रही थी वह उनकी समझ के परे थी। मन कुछ खिन्न था। मेरे सामने
दूध से भरा कटोरा रखा था। मम्मी और सब बच्चे मुझे प्यार कर रहे थे। मैं भी एक दम
से सही समय पर घर आ गया और कुछ देर से आता तो बच्चे स्कूल चले जाते। और नाहक
मेरी याद में एक और दिन उदास रहते। अब उनके चेहरे पर एक ताजा खुशी थी। बच्चों को
स्कूल जाने के लिए देर हो रही थी। इसलिए सब मुझे बाए—बाए कर के भारी कदमों से स्कूल
की और चले गये। वरना तो शायद मेरे आने की खुशी के कारण वह आज स्कूल से जरूर छूटी
कर लेते। लेकिन शायद दो दिन से पहले ही स्कूल की छूटी होने के कारण किसी की हिम्मत
नहीं हुई।
मैं दूध के कटोरे
के पास बैठ गया। इस समय घर पर और कोई नहीं था। मैंने कटोरे में झांक कर देखा। मुझे
मेरी मां की छवि दिखाई दी। जैसे वह मुझे देख रही है। और वह मुस्करा रही है। परंतु
ये सत्य नहीं हो सकता। काश ये दूध मुझे वहां मिल जाता तो मैं इसे अपनी मां को दे
देता। दूध और दवा पाकर वह शायद जीवित हो जाती। पर ये सब मेरे सामर्थ्य के बाहर था।
परंतु सच मां मुझे जीवित देख कर कैसी प्रसन्न थी। कैसी खिली थी....उसकी मुरझाई
आंखें...कैसा चमत्कार है उसने अपने खून को एक पल में पहचान लिया मैं तो डरा भी था
परंतु देखा वह मेरे पास जाने पर जरा भी नहीं डरी थी। इतनी घायल होने पर भी वह
कितनी निडर थी,
साहसी थी, हिम्मत वाली थी।
मैंने दूध को पीना
चाहा। परंतु आज गला कुछ भरा—भरा सा था। कुछ अंदर नहीं जा रहा था। जैसे किसी ने उसे
बंद कर दिया हो। हां ऐसा एक बार और हुआ पहले, जब मैं मर रहा था वो घटना
समय आने पर आपको बताऊंगा। क्योंकि जब आपको मृत्यु घेर ले तो वही सब प्रतिक्रिया
घटित होने लग जाती है। क्या किसी अपने नजदीकी की मृत्यु के क्षण हम भी कुछ मर जाते
है। खेर दूध अंदर नहीं गया तो में पास रखी बाल्टी में जाकर थोड़ा पानी जरूर पिया।
आपने देखा ये कैसा चमत्कार है। पानी मृत्यु के एक क्षण पहले भी कोई प्राणी पी
सकता है। लेकिन दूध भी उतना ही तरल है लेकिन वह आपके कंठ से नीचे नहीं जाता। पानी
पाने के बाद मुझे कुछ राहत हुई। में वही धूप में लेट गया।
पूरा घर सूनसान था।
केवल में और मेरी तनहाई चारों और फैली हुई थी। मम्मी के जाने के काफी देर बार
दरवाजा खुला। मैंने देखा पापा जी आ रहे है। पापा जी को देख कर एक तो मुझे भय लगा।
फिर कुछ अपने पन का भी एहसास हुआ। परंतु भय की मात्रा आज कम थी। आज पीड़ा में अपना
पन उस पार छाया हुआ था। पापा जी पास आकर मेरे पास बैठ गये। मैंने अपनी पूंछ जोर से
हिलाई। पापा जी ने मेरे शरीर पर हाथ फेरा। मानो मेरा पूरा शरीर पीड़ा से भरा था।
एक जलती पीड़ा। मैंने आंखें बंद कर ली। और पापा जी का वो स्पर्श मुझे शांत किए जा
रहा था। कुछ ही क्षण में मेरी सारी पीड़ा न जाने कहा गायब हो गई। एक अनोखा चमत्कार
की आपको जब कोई सहला रहा हो तो मात्र उसके स्पर्श से ही आप एक नई उर्जा के संचार
को महसूस करें। और प्राणों का वह खालीपन आपमें था, वह पल भर में
प्राणों से लबालब भर जाये। और पल में आप अपने को तरोताजा महसूस करें।
मैंने आंखें खोली
उनमें एक दर्द था,
एक टीस थी। अपने किसी के खोना का एहसास था। जो पापा जी ने शायद देख
लिया। अचानक मेरी आंखों से झर—झर आंसू बहने लगे। मैंने पापा जी की गोद में सर रख
दिया। अब ये मैं नहीं कह सकता की पापा जी मेरे दुःख को समझ पाये या नहीं परंतु
इतना तो सत्य है कि मैंने अपना दुःख पापा जी से बांटा। और उन्होंने उसे आत्मसात
किया। मैंने प्यार से उनके हाथ को चाटा। उन्हें दांतों से पकड़ा। और अपने अंदर
का भरा दर्द बहार पापा जी की झोली में डाल दिया। कैसे मैं पल में ही निर्भर हो
गया। पर शायद मैं लाचार था अपना दर्द में जब तक सहता रहा उस चुभे कांटे की तरह। जो
मेरे शरीर के अंदर गड़ा था। मैं उस दर्द के कारण कराह भी नहीं पा रहा था। न ही
छटपटा सकता था। केवल पाषाण सा हो गया था। जिसे केवल एक प्रेम की तरलता ही पिघला
सकती थी।
और वह दर्द पल—पल
गहरा और गहरा होता जा रहा था। उसे निकालने के लिए मेरे पास ह्रदय था परंतु शब्द
नहीं थे। अब पापा जी को पास पाकर वह अचानक दर्द पिघल कर तरल हो गया था। और वह
आँखों और छुअन के माध्यम से बाहर फैल कर बह रहा था। शायद शब्दों के बिना भी बहुत
कुछ कहा जा सकता है। हम पूरी पृथ्वी पर और कौन से प्राणी शब्दों का इस्तेमाल
करते है। कोई भी नहीं,
मात्र एक मनुष्य को छोड़ कर। परंतु ये कुदरत के खिलाफ एक विकृति
है। जिस के जंजाल में मनुष्य ने खुद आपने आप को फंसा लिया है।
वो मेरे अंतस का
दर्द था। अगर बाहर का दर्द होता तो जरूर बहार से सहायता मिल सकती थी। मैं रो सकता
था, तड़प कर चाट कर बता सकता था की मुझे यहां चोट लगी है। लेकिन अब तो वही वैध
उसे ठीक कर सकता था। जो केवल नब्ज देख कर रोगी का दर्द पहचान सकता हो। और इत्तफाक
से पापा जी ऐसे वैद्य थे। पापा जी मुझे प्यार करते रहे। और आखिर मुझे उठ कर वह
दूध पीना ही पड़ा, किस अद्भुत शक्ति ने ये सब मुझ से करवाया
और कैसे। ये सब मेरी समझ के परे था। परंतु ये था एक चमत्कार ही। मन से न चाहते
हुए भी एक सम्मोहन की अवस्था में मैंने दूध पिया। दूध पीने के कुछ ही देर में उस
दर्द को भूलने लगा। पापा जी मेरी और देख रहे थे। उनके चेहरे पर एक खास तरह की
मुस्कुराहट फैली हुई थी। जो मेरे दर्द पर मरहम का काम कर गई।
धीरे—धीरे मन इस
हादसे को भूलता चला गया। मन का स्वभाव बड़ा विकट है। इससे जितना दूर जाया जाये
उतना ही जीवन सूख और आनंद से गुजरता है। एक याद तो मन पर छपी रही परंतु वह दुःख और
पीड़ा कम से कम होती चली गई।
घर मैं पिरामिड
बनने का काम चल ही रहा था। वह काना मजदूर। जिस का जिक्र मैंने पहले भी किया था।
पांचु,
वह हमेशा शक्ल से ही चालबाज और धूर्त लगाता था मुझे।
परंतु उसके अंदर एक
गुण जो सारे अवगुणों को दबा देता था वह मेहनती था। वह कामचोर नहीं था। इसलिए शायद
यहां पर वह काम कर सका। वरना मेरे देखते कितने ही मजदूर जो काम चोर थे। वह 10—15
दिन तक अपनी चालबाजी दिखाते रहे। और जब जबान से काम नहीं चला। लिपा पोती नहीं चली
जो भाग गये। उन्हें किसी ने भगाया नहीं। परंतु काम ही ऐसा था कि जो जरूरी है वह
तो होना ही चाहिए। कोई बड़ा चौड़ा फैला काम तो नहीं था कि उसमें कुछ काम चोर भी खप
जाये। असल में यहां जो भी काम होता वह प्रत्यक्ष था। उसके कुछ सफाई देने की जरूरत
नहीं था। और न ही किसी को दिखाने की।
पूरा दिन पांचु इँट
लाकर इकट्ठे करता। क्योंकि गली भिड़ी होने के कारण इंटों का ट्रक यहां नहीं आ सकता
था। 11 बजे तक पांचू वह इँट घर के आँगन में ढेर लगा देता था। पापा जी 11 बजे तक
दुकान से घर आते थे। फिर उसके बाद कपड़े बदल कर पांचु की मदद करते। इन दिनों ध्यान
नहीं होता था। क्योंकि ध्यान का कमरा तो टूट गया था। अब तो जब तक वह ध्यान का
कमरा नहीं बन जाता तब तक तो संभव ही नहीं
था। इतनी सारी इँट धीरे—धीरे कर के ऊपर चढ़ानी होती थी। काम बहुत मेहनत था।
अंगन से पांचु एक
हाथ से इँट ऊपर फेंकता। पहली मंजिल पर पापा जी उसे लपकते। मुझे तो यह देख कर डर
लगता था। अगर वह इँट लग जाये या आपका ध्यान चूक जाये तो आपको चोट भी अधिक लगा
सकती है। परंतु पांचु के साथ पापा जी भी गजब के खिलाड़ी निकले। क्या गजब की इँट
फेंकी जाती। और पापा जी उसे एक हाथ से लपक कर रखते जाते। कैसा तालमेल था दोनों का।
पाप जी भी विकट थे।
पापा जी किसी भी
काम को कितनी सहजता से कर लेते थे। फिर उन इंटों को उठाकर अंदर पिरामिड में ले
जाया जाता। फिर उसके बाद सबसे खतरनाक काम। अंदर पिरामिड में उन्हें उस पड़ पर फिर
फेंका जाता जो काफी ऊंचाई पर बंधी थी। लेकिन अंदर कम जगह थी इंटें फेंकने के लिए।
अगर पापा जी से ईंट गिर जाती तो पांचू काणें का बचना बहुत कठिन था। फिर उसके बाद
एक—एक करके पेड़ दर पेड़ उन्हें वहां रखा जाता जहां आज काम होना था। राम रतन
मित्र तो चार बजे के बाद घर आते थे। शायद वह कोई दूसरा काम भी कर रहे थे। फिर चार
या पाँच बजे के बाद। वह दो तीन घंटे काम करते। काम बस यही होता की उन इंटों के तीन
रद्दे या चक्कर ही लगाये जाते। इंटों को खसके की तरह बहार—बहार बढ़ानी होती थी।
करीब दो इंच मात्र हर चक्कर में। तो एक दिन में केवल तीन चक्र ही लगाये जा सकते
थे। अगर ज्यादा लगने का लालच करोगे तो सब इंटें नीचे गिरने का डर भी रहता था। और पिरामिड
जैसे—जैसे ऊपर होता जा रहा था उसका चक्र भी छोटा होता जा रहा था। परंतु आप उसे
खुले मुख को नीचे से देखो तो आपको बहुत डर लगेगा की ये झुकी दीवारें आपके ऊपर तो
नहीं आ गिरेंगी।
काम काफ़ी खतरनाक
और जोखिम भरा था। परंतु जिस सहज और सरलता से पापा जी उस में खड़े होकर करवा रहे
थे। वह एक दम आसान हो गया था। पहले दुकान भी देखते और इन लोगों के साथ मदद भी
करते। रात होने के कारण रोशनी का भी इंतजाम किया जाता था। परंतु एक बात थी इस सब
के कारण मुझे बहुत मजा आता था। एक रौनक मेला लगा रहा था रात तक। और इस सब के कारण
मैंने एक काम और सीख लिया था। कहो तो बता दूं परंतु आप समझोगे कि में उड़ा रहा
हूं। परंतु यह एक दम सत्य है। मैं उस लकड़ी की सीढ़ी पर चढ़ना भी सीख गया था।
अगली दोनों टांगें फँसाता रहता और धीर—धीर संतुलन कर के ऊपर और ऊपर चढ़ता रहता।
इतनी पतली लकड़ी की सीढ़ी पर अपने छोटे—छोटे पिछले पैर फंसा कर कैसे में संतुलन
करके चढ़ना सिख गया था। ये काम कोई सर्कस से कम नहीं था। परंतु ये था एक दम सत्य
ही। परंतु कोई भी काम साहस से अधिक बढ़ कर किया जाये तो वह खतरनाक भी हो सकता था।
पिरामिड धीरे—धीरे
ऊपर उठ रहा था। तो इसकी बंधी बल्लियों की पैड़ भी ऊँची और ऊँची उठती जा रही थी।
इसी तरह पापा जी,
पांचु और राम रतन के साथ मिल कर एक सीढ़ी बनाई जो करीब 18—20 फिट की
थी। सीढ़ी पैड़ बांधने के लिए इस्तेमाल होने वाली दो मजबूत बल्लियां ली गई। और
बल्ली की लकड़ी काट कर उसके डंडे लगाये गये जो। साधारण सीढ़ी से ऊँची और माटी भी
थी। साधारण सीढ़ियाँ 8—10 फीट की ही होती थी जो आम तोर पर बांस की ही बनी होती है।
अब जो पेड़ बंधी और उस पर मचान बनाया गया वह 20 फीट की ऊँचाई पर। वह एक ही सीढ़ी
वहां सीधी लगा दि गई थी। वरना तो उतनी जगह में करीब तीन पेड़ बांधी जाती जिस पर
नीचे से सारी इंटें फेंक कर इकट्ठा करना आसान नहीं था।
अब पहली पेड़ पर जो
20 फिट थी उस पापा जी बैठ जोते और पांचू नीचे से इंटें फेंकता। और पापा जी उन्हें
लपक कर वहाँ सहेजते जाते। फिर पेड़—दर पेड़ उन्हें ऊपर ले जाना थोड़ा आसान हो
जाता था। एक दिन ऐसा हादसा हुआ की मैं बहुत डर गया। क्योंकि जब इंटें ऊपर फेंकी
जाती तो मुझे पिरामिड में अंदर नहीं आने दिया जाता था। क्योंकि कभी—कभी भूल से या
चूक से वह इँट वापस जमीन पर गिर जाती तो वह बहुत खतरनाक हो सकती थी। चाहे उसमें
किसी की भी गलती हो पांचू ने उसे छोटा या गलत फेंके या पापा जी उसे पकड़ने भूल कर
दी। इस सब की सतर्कता के लिए मुझे बाहर ही रहने को कहा जाता था। इस तरह से नीचे
खड़े व्यक्ति को इतनी चोट लग सकती थी कि वह मर भी सकता था। काम काफी खतरनाक था।
इसलिए उस समय उसमें दरवाजा भी नहीं लगा था, ये हिदायत मेरे लिए ही नहीं
सभी के लिए थी कि मैं भूल से भी वहां न आ सकूँ। इसलिए जब वह काम चल रहा होता तो
मुझे अंदर नहीं आने दिया जाता था।
परंतु उस दिन क्या
हुआ। इंटें सारी की सारी ऊपर मचान पर फेंक दी गई थी। और सब लोग मचान पर ही बैठ कर
चाय पी रहे थे। वहां थोड़ी धूप होने के कारण धूप का आनंद भी ले रहे थे। मैं अकेला
नीचे रह गया था। अब अकेले में मेरा जरा भी मन नहीं लगता था। मुझे ये बीमारी मां के
मरने के बाद हुई। कोई संग साथ तो मुझे चाहिए ही। चाहे मैं सोता हुआ हूं या जागा
हुआ हूं। एक बच्चे की तरह पीछे—पीछे लगा रहता था। परिवार का कोई तो सदस्य चाहिए
ही जो मेरे आस पास हो। और कुछ नहीं मिले तो मैं मम्मी जी का कोई कपड़ा पकड़ कर
अपने पास रख लेता उसकी खुशबु के साथ सोता रहता था। सब लोग ऊपर धूप में ऊपर मजे से
बैठे थे। और भला मैं नीचे ऐसा कैसे हो सकता है। मैंने अपनी तिकड़म लगाई...और चढ़ने
लगा उस सीढ़ी के उपर। परंतु ये कोई आम सीढ़ी नहीं थी इसकी ऊंचाई बहुत ही अधिक थी।
जब मैं बीच में
पहुंच गया तब घबरा गया था। और मैंने एक दो
बार आवाज भी देकर उन्हें बुलाना चाहा। परंतु शायद वह बातों में तल्लीन थे। या और
कोई कारण हो सकता है। सीढ़ी चढ़ने का साहस तो मुझमें आ ही गया था। और धीरे—धीरे
सीढ़ी पर चढ़ने का मैं बहुत आदि हो गया था। परंतु वह एक बांस की छोटी सीढ़ी होती
थी जिस पर 8—10 डंडे ही लगे होते थे। परंतु इस सीढ़ी का मुझे तनिक भी अंदाज नहीं
था की यह इतनी ऊँची है। परंतु इसके साथ—साथ इसमें एक बात मेरे मतलब की थी वह क्या
कि इस के डंडो की मोटाई अधिक थी। जिसके कारण मुझे पीछे वाले पैर जमाने के लिए
ज्यादा जगह मिल रही थी। अब मैं तो अपने को मास्टर समझने लग गया था। सीढ़ी चढ़ना तो
मेरे बाएं हाथ का एक खेल बन गया था। लेकिन ये क्या मैं चढ़ रहा था और वह सीढ़ी तो
खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी।
मैंने एक बार नीचे
झांक कर देखा तो मैं बहुत ऊपर आ गया था। फिर भी अभी मचान तो काफी दूर था। शायद अभी
मैं आधी से कुछ ही अधिक चढ़ा था। सीढ़ी ऊँची होने के कारण झूल भी रही थी। मेरा
संतुलन बिगड़ रहा था। परंतु अगर मैं गिर जाता या कूद जाता तो मेरी हड्डियां चकना
चूर हो जाती। जितनी मैं हिम्मत कर के चढ़ सकता था चढ़ता रहा। परंतु एक समय के बाद
मेरी हिम्मत जवाब दे गई। मैं अपने आप को वहां किसी तरह से संतुलित कर के खड़ा हो
गया। और कुं.....कुं ....कर के रोने लगा। मेरा पूरा शरीर मारे भय के थिर—थिर कांप
रहा था। और रह—रह कर मुझे डर लग रहा था कि अब क्या होगा। मेरी आंखों के सामने
अंधेरा छा रहा था। शायद पापा जी या मम्मी जी चाय पी रहे थे। बातों के कारण या वो
सोच नहीं सकते कि मैं ऐसा पागल पन कर सकता हूं। मैं काफी देर इसी तरह से खड़ा रोता
रहा।
मेरी समझ में कुछ
नहीं आ रहा था कि क्या करूं। कुछ ही देर में पांचु ने मेरे रोने की आवाज सूनी और
पापा जी को कहा। कि पोनी को देखो कहां चढ़ा हुआ है। पाप जी तो मुझे इस हालत में
देखा तो वह भी बहुत घबरा गये। परंतु उन्होंने साहस से काम लिया। वो ऊपर ही थे।
अगर वह नीचे होते तो पीछे से आकर मुझे बड़ी ही आसानी से पकड़ सकते थे। परंतु पापा
जी ने मुझे प्यार से पुकार और धीरे—धीरे उतर कर मेरे नजदीक आते गये। पापा जी के
पास आने के कारण सीढ़ी और जोर से हिलने लगी। मुझे और अधिक डर लगने लगा था। परंतु
पापा जी मुझे बुलाते रहे। मेरा ध्यान अपने और खींचे रहे। ताकि मैं डरूं न। और
दूसरा पापा जी पर मेरा पूरा भरोसा तो था ही। की वो जरूर आकर मुझे बचा लेंगे। इसलिए
उस झूलती सीढ़ी के करण मुझे कम भय लग रहा था वरना कोई और समय होता तो मैं नीचे कूद
जाता। चाहे फिर जो भी होता इस के बारे में नहीं सोचा जाता। सच ऐसा करना बहुत ही
खतरनाक हो सकता था।
परंतु पापा जी की
वजह से मुझे लग रहा की वह जो भी कर रहे है मेरी भलाई के लिए ही कर रहे थे। मुझे उन
पर भरोसा करना चाहिए। और मैंने अपने मन की इस पुकार को सूना। जो मेरे लिए ही भली
और सही थी। इसलिए मैं जहां खड़ा था जरा भी नहीं हिला मुझमें एक नए साहास की उर्जा संचार
करने लगी थी। अगर हम अपने पर अधिक भरोसा करते है तो वह हमारा मैं या अहंकार ही
होता है। दूसरों पर भरोसा करना ही तो समर्पण बन जाता है। सहसा, पापा
जी धीरे—धीरे कर के मेरे पास आये। आप जरा सोचो कैसे ऊपर से झुक कर उन्होंने मेरे
सर पर हाथ फेरा। मेरा पूरा शरीर डर के मारे कांप रहा था। फिर मुझे आराम से पकड़ कर
अभी उन्हें मेरे से नीचे की सीढ़ी पर जाना था। जो काम बहुत जोखिम भरा था। मेरे
लिए ही नहीं पापा जी के लिए भी। मुझे कम से कम छुए हुए नीचे जाना था। मुझे लांघ
कर। और इस स्थिति में वह अपना संतुलन खोकर खुद भी नीचे गिर सकते थे। परंतु पापा
जी ने यह कार्य करना था इसके बिना काम नहीं बनता। वह धीरे से मेरे ऊपर से उतर कर
मेरे पीछे से नीचे पहुंच गये। पापा जी
नीचे जाने के बाद कुछ देर इसी तरह से खड़े रहे। शायद अपना संतुलन भी बना रहे
होंगे। उन्होंने एक गहरी स्वास ली।
क्योंकि अभी तो
आधा ही कार्य ही हुआ है। मुझे भी तो नीचे उतरना था, वह कैसे संभव है यह
मेरी समझ में नहीं आ रहा था। पापा जी ने पीछे खड़े होकर मुझे प्यार से बहुत
सहलाया। दो—तीन मिनट तक हम इस तरह से खड़े रहे। शायद पापा जी का मेरे पीछे आकर
खड़ा होने के कारण मेरा भय कम हो गया। यही शायद वह करना चाहता थे। क्योंकि अब अगर
में गिरता भी हूं तो पीछे पापा जी है वह मुझे सम्हाल लेते। मेरे गिरने के बीच में
पापा जी एक दीवार बन आ गये थे। अब मेरा भय और मेरा कांपना कम हो गया था। तभी अचानक
पापा जी ने मुझे एक हाथ से अपनी गोद में उठा लिया और एक हाथ से सीढ़ी को पकड़ कर
नीचे उतरने लगे। बहुत धीरे—धीरे हम नीचे आ रहे थे। ये काम जितना आसान दिखता है
उतना सच में नहीं था। कोई साहसी विरल ही इस जोखिम को उठा सकता था। और थे हमारे
महान पापा जी...जो खतरों के खिलाड़ी थे मेरी तरह से।
और जैसे ही आखिरी
सीढ़ी से पापा जी जमीन पर पैर रख और वहीं मुझे ले कर बैठ गए। हम दोनों एक साथ जमीन
पर बैठे थे। और सब लोग हंस रहे थे। तब जाकर मेरी जान में जान आई थी। लेकिन मैंने
भी समझदारी से काम लिया पापा जी ने जिस तरह से मुझे पकड़ा हुआ था मैं जरा भी नहीं हिला।
अगर मैं हिलता या अपने को छुड़ाने कि कोशिश करता तो हम दोनों नीचे गिर सकते थे। क्योंकि
एक तो उलटे पैरों पापा जी नीचे उतर रह थे। दूसरा एक ही हाथ से सीढ़ी को पकड़े थे।
और जो दूसरा हाथ था उससे मुझे उठाए हुए थे। मेरा वज़न भी कोई कम नहीं था परंतु
पापा जी ताकतवर आदमी थे। और तीसरा सीढ़ी मेरे और पापा जी एक समान्तर रेखा में आ
गयी थी। जिस के कारण पापा जी का सीढ़ी से दूरी अधिक हो गई थी। पर सब ठीक हो गया।
हम नीचे सही सलामत पहुंच गये थे।
जमीन पर जैसे ही
पापा जी मुझे छोड़ा मैं मारे खुशी के पिरामिड में दौड़—दौड़ कर पापा जी का धन्यवाद
कर रहा था। रो—रो कर अपनी खुशी और जीवित होने का उत्सव भी मना रहा था। सच आज पापा
जी ने जो साहस का काम किया वह मेरे लिए भगवान बन आये। इस घटना के बाद पापा जी के
प्रति मेरे मन में और अधिक श्रद्धा और विश्वास बढ़ गया। अगर पापा जी मुझे आग में
भी कूदने के लिए कहते तो शायद में बिना किसी झिझक और भय के कूद जाता। आज फिर मुझे
नया जीवन दान देकर पापा जी ने मुझे अपना कायल कर दिया....मेरे पास धन्यवाद के शब्द नहीं है केवल ह्रदय में एक आभार
है....एक प्रेम है,
एक श्रद्धा है......सच ही पापा जी महान है। मेरे लिए। वो आदर्श है।
नमन है उस मां को जिसने ऐसे पुत्र को जन्म दिया। शत...शत नमन इस धरा को, जहां मैं जीने का मोका दिया।
भू...... भू.....
भू......
आज इतना ही।

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