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रविवार, 31 जनवरी 2010

स्वर्णिम बचपन (परिशिष्ट प्रकरण)—17

सौ फीट के पूल से छल्‍लांग

      मैंने इस जन्‍म में साहसी होने, प्रखर होने या होने या प्रति भावन होने के लिए आरंभ से ही कुछ अलग कार्य नहीं किया, और कभी इसे साहस प्रखरता प्रतिभा की भांति नहीं सोचा।
      यह तो बाद में धीर-धीरे मैं इस प्रति के प्रति सजग हुआ कि लोग कैसे मंदमति है। यह केवल बाद में प्रतिबिंबित हुआ। पहले मैं जानता ही नहीं था। कि मैं साहसी हूं। मैं सोचा करता था कि प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति ऐसा ही होना चाहिए। यह तो बाद में ही मुझे स्‍पष्‍ट हो पाया कि प्रत्‍येक  व्‍यक्‍ति वैसा नहीं है।
      अपने बचपन में लिए गए मजों में से एक है—नदी के किनारे की सबसे ऊंची पहाड़ी पर चढ़कर ओर कूद पड़ना। पड़ोस के अनेक बच्‍चे मेरे साथ आया करते थे। वे इसका प्रयास करते लेकिन वे बस छोर तक जा पाते और वापस लौट पड़ते; ऊँचाई को देख कर वे कहते, अचानक कुछ हो जाता है। मैं उनको बार-बार दिखाता था कि यदि मैं कूद सकता हूं—मेरे पास इस्‍पात की देह नहीं है। और यदि मैं कूदता रहता हूं, जिंदा बच जाता हूं, तो तुम क्‍यों नहीं कूद सकते।
     
      वे कहा करते, भरपूर प्रयास करते है हम—और वास्‍तव में वे प्रयास करते थे। मेरे ठीक पड़ोस में एक ब्राह्मण लड़का रहा करता था जो इससे बहुत अपमानित अनुभव करता था, क्‍योंकि वह नहीं कूद पाया था। इसलिए उसने अवश्‍य अपने पिता से कहा होगा, क्‍या किया जाए? क्‍योंकि बहुत अपमानजनक लगता है। वह पहाड़ी के शिखर पर पहुंच जाता और वहां से छलांग लगा देता है। और हम बस देखते रह जाते है। हम देख सकते है कि यदि वह कूद सकता है तो हम भी कूद सकते है। कोई समस्‍या नहीं है इसमें। यदि ऊँचाई उसको नहीं मार पाती तो यह हमें क्‍यों मार डालेगी। लेकिन बस जैसे ही हम साहस एकत्रित करते है। हर संभव प्रयास करते है और हम कूदते के लिए दौड़ते है, अचानक अवरोध आ जाता है।
      यह अवरोध कहां से आता है, हम नहीं जानते,लेकिन बस एक रूकावट है; हमारे भीतर से कोई कहता है, नहीं ये चट्टानें और यह नदी....यदि तुम किसी चट्टान पर गिर गए...या नदी गहरी है। और जब तुम ऊँचाई से गिरते हो तो पहले तुम नदी के बिलकुल निचले तल पर पहुँचेंगे, फिर तुम ऊपर आओगे; तूम और कुछ कर भी नहीं सकते।
      उसके पिता ने कहा: यह कोई अच्‍छी बात नहीं है—क्‍योंकि उसके पिता अच्‍छे पहलवान थे, जिले के विजेताओं में से एक थे। वे एक व्‍यायामशाला चलाते थे। और लोगों को सिखाते थे कि भारतीय ढंग की फ्री स्टाइल कुश्‍ती कैसे लड़ी जाए। यह मुक्‍केबाजी की तुलना में अधिक मानवीय, अधिक कौशल पूर्ण और अधिक कला पूर्ण होती थी।
      यदि बच्‍चा किसी और का रहा होता तो उसने उससे कह दिया होता कि वहां बिलकुल मत जाओ, लेकिन यह आदमी उस प्रकार का नहीं था। उसने कहा: यदि वह कूद सकता है और तुम नहीं कूद सकते, तो यह मेरे लिए बदनामी की बात है। मैं तुम्‍हारे साथ आऊँगा, मैं वहां खड़ा हो जाऊँगा,और चिंता मत करना: जब वह कूदता है तुम भी कूद जाना।
      मुझे ऐसा खयाल जरा भी नहीं था कि मेरे पिता आने वाले है। जब में पहुंचा तो मैंने पिता-पुत्र और कुछ अन्‍या लोगों को देखा जो इसे देखने के लिए एकत्रित हो गए थे। मैंने उन पर एक नजर डाली और अनुमान लगा लिया कि मामला क्‍या है। मैंने उस लड़के से कहा: आज तुमको चिंता करने की आवश्‍यकता नहीं है—अपने पिता को छलांग मारने दो। वे एक महान पहल वाल है। और उनके लिए यह कोई समस्‍या नहीं होगी।
      उसके पिता ने मुझको देखा, क्‍योंकि वे तो बस अपने लड़के को हौसला बढ़ाने के लिए आए थे, जिससे वह कायर न बने। उन्‍होंने कहा: तो मुझको  कूदना पड़ेगा?
      मैंने कहा: जी हां, तैयार रहिए।
      उन्‍होंने नीचे देखा और वे बोले, मैं पहलवान हूं। ये चट्टानें और यह नदी...ओर तुमने कूदने के लिए एक स्‍थान पा लिया है। यहां पर तुम कूदने का अभ्‍यास करते रहे होओगे। कूदने की कोशिश करने वाले व्‍यक्‍ति का अपनी गर्दन या पैर या कुछ भी टूटने वाला है।
      मैंने कहा: आप कूदने के लिए अपने पुत्र को ले आए है।
      उन्‍होंने कहा: परिस्थिति को न जानने के कारण  मैं उसको ले आया हूं। मैंने सोचा कि यदि तुम कूद सकते हो तो वह भी कूद सकता है। उसी आयु का है वह भी। लेकिन यहां पर परिस्थिति को देखते हुए मैं चिंतित था और सोच रहा था कि यदि तुम आज यहाँ नहीं आते तो यह एक बड़ी बात हो जाती, क्‍योंकि यहाँ से कूद कर मेरा लड़का बच नहीं सकता था। लेकिन तुम चतुर हो, तुमने बस मेरे बेटे को अलग कर दिया ओर मुझको फंसा लिया। में प्रयास करूंगा।
      और वह घटना घट गई। वे पहलवान भी जो इतने साहसी थे—वे अपने जीवन भर प्रत्‍येक ढंग से लड़ते रहे थे...लेकिन छोर पर आकर अचानक अवरोध—क्‍योंकि वह ढाल ही इस प्रकार का था, कम से कम पचास फीट नीचे, नदी तीस फीट गहरी थी। और चट्टानें ऐसी थीं कि यह तुम्‍हारे नियंत्रण के बाहर कि तुम कहां जाकर गिरोगे, तुमको किस पत्‍थर से चोट लगेगी। और पहाड़ी के शिखर पर खड़े रहना...हवा इतना ताकतवर थी कि तुम बस मार ही डाले जाओगे।
      वे बस वहीं पर ठहर गए। और उन्‍होंने कहा: मुझको क्षमा करो। और उन्‍होंने अपने पुत्र से कहां: बेटा घर चलो। यह हमारा काम नहीं है। उसी को यह करने दो—शायद उसे कुछ विशेष बात पता हे।
      उस दिन मैनें अपने बारे में अनोखापन अनुभव किया: यह अवरोध मेरे लिए क्‍यों नहीं आता? और मैंने बहुत विचित्र स्‍थानों पर प्रयास किया।
      नदी पर स्‍वभावत: रेलवे पुल सबसे उच्‍च स्थान था। क्‍योंकि बरसात में नदी विस्‍तृत होकर इतनी विराट हो जाती है। कि पुल को सदैव इससे ऊपर रहना चाहिए, इसलिए उसे उच्‍चतम स्‍थान पर बनाया गया था। और पुल पर सदैव दो रक्षक पहरा देते थे। दो कारण थे पहला कि वहां से कूद कर कोई आत्‍म हत्‍या न कर ले, क्‍योंकि वह लोगों के लिए आत्‍म हत्‍या करने का स्‍थान था...वहां से नदी में गिर पड़ना ही पर्याप्‍त था। तुम कभी नदी में जीवत नहीं पहुंच सकते थे। बीच में कहीं तुम्‍हारी श्‍वास खो जाती। यह इतना ऊँचा था कि नीचे देखना ही तुम्‍हें घबड़ाने वाली अनुभूति देने के लिए पर्याप्त था।   
      और दूसरी बात, क्रांतिकारियों को भय था जो बम लगा रहे थे, पुल उड़ा रहे थे। ट्रेनें जला रहे थे। पुल को काट देना क्रांतिकारियों के लिए बहुत लाभदायक था, क्‍योंकि ये पुल प्रांत के दो भागों को जोड़ा करते थे। यदि पुल टूट जाता तो सेना न जा पाती, फिर क्रांतिकारी दूसरे भाग में जहां सेना को कोई मुख्‍यालय न था कुछ भी उपद्रव कर सकती थी। इसलिए ये रक्षक वहां चौबीस घंटे रहा करते थे। किंतु उन्‍होंने मुझको स्‍वीकार कर लिया था।
      मैंने उनको समझाया, मैं न तो आत्‍महत्‍या करना चाहता हूं, न ही मैं तुम्‍हारे पुल को उड़ाने आया हूं। वास्‍तव में चाहता हूं कि पुल की सुरक्षा सावधानी से होती रहे। क्योंकि यह मेरा स्‍थान है। यदि यह पुल न रहा तो मेरा कूदने का उच्चतम बिंदू नष्‍ट हो जाएगा।
      उन्‍होंने कहा: यह तुम्‍हारा अभ्‍यास है।
      मैने कहा: यह मेरा अभ्‍यास है। आप देख सकते है। और एक बार आपने देख लिया तो आप समझ जाएंगे कि मेरी अन्‍य कोई इच्‍छा नहीं है।
      उन्‍होंने कहा: ठीक है हम देखते है।
      मैंने कहा: लो मैं कूद कर दिखाता हूं। और मैं कूद गया और वे इस पर विश्‍वास न कर सके। जब मैं लोट कर वापस आया तो मैंने उनसे पूछा: क्‍या आप कोशिश करना चाहेंगे?
      उन्‍होंने कहा: नहीं,लेकिन तुम्‍हारे लिए यह सदा उपलब्‍ध है, तुम यहां किसी भी समय आ सकते हो। हमने तुमको बहुत सहजता से कूदते हुए देखा है, लेकिन हम नहीं कूद सकते—हमें पता है कि यहां से कूद कर लोग मर गए है।
      वह पुल मौत के पुल के नाम से जान जाता था। और आत्‍महत्‍या करने का वह सरलतम,सहजतम उपाय था। यदि तुमने मरने के लिए जहर भी खरीदा हो, तो कुछ घन तो व्‍यय होगा ही, लेकिन पुल से कूद कर यह बस सरल था। वहां पर नदी अधिकतम गहरी थी और वह तुमको बहा कर दूर ले जाता। किसी को तुम्‍हारी देह भी नहीं मिलती, क्‍योंकि कुछ मील के बाद यह और बड़ी नदी, एक विशाल नदी से मिल जाती थीं—और तुम सदा के लिए विदा हो जाते।
      उन दो रक्षकों के चेहरों पर भय देख कर,इस पहलवान में भय देख कर मैंने बस आश्चर्य करना आरंभ कर दिया, शायद मुझमें अवरोधक नहीं है। शायद उन अवरोधकों को होना चाहिए, क्‍योंकि वे रक्षा करते है। लेकिन जैसे-जैसे मैंने विकसित होना आरंभ किया—और मैं विकसित होता रहा हूं मैं विकसित होता रहा हूं,मैं बूढ़ा नहीं हो रहा था। अपने जन्‍म से मैं विकसित हुआ हूं, विकसित होता हूं, विकसित हो रहा हूं। ऐसा कभी मत सोचना कि मेरी आयु बढ़ रही हू। केवल मूढ़ों को आयु बढ़ती है। अन्‍य प्रत्‍येक का विकास होता है।
      जैसे-जैसे मैंने विकसित होना आरंभ किया और में विगत जीवन और मृत्‍यु के प्रति सजग होने लगा, और मुझे स्‍मरण हो आया कि मैं कितनी सरलता से मर गया था।  मेरी रूचि परमात्‍मा को नहीं बल्‍कि उत्‍साहपूर्वक उन ज्ञात से जिसको मैं देख चुका था। अधिक उस अज्ञात को जानते में थी जो आगे था।
      मैंने कभी पीछे लौट कर नहीं देखा। और मेरे सारे जीवन का यही ढंग है—पीछे न देखना। कोई सार न रहा अब। तुम वापस लौट नहीं सकते,तो क्‍यों समय नष्‍ट करना? मैं सदा आगे देखता रहा हूं। अपने उस जन्‍म की मृत्‍यु के समय भी मैं आगे ही देख रहा था।
--ओशो

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