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रविवार, 3 जनवरी 2010

स्‍वर्णिम बचपन - (सत्र-- 42)

जवाहरलाल बोधिसत्‍व थे

      ओके. । मैं क्‍या बता रहा था तुम्‍हें?
      आप बता रहे थे कि सत्य भक्त और मोरार जी देसाई किसी प्रकार आपके दुश्‍मन बन गए। वे और अंत में आपने यह कहा था कि मोरार जी देसाई कह आंखों से धूर्तता और चालाकी झलकती रही थी। और यह आपको अच्‍छी तरह याद है।
      ठीक है, उसे याद न रखना ही अच्‍छा है। शायद इसीलिए मुझे याद नहीं आ रहा था, अन्‍यथा मेरी याददाश्‍त खराब नहीं है। कम से कम ऐसा किसी ने आज तक मुझसे कहा नहीं है। यहां तक कि जो लोग मुझसे सहमत नहीं हे वे भी कहते है कि मेरी स्‍मृति आश्‍चर्यजनक है। जब मैं सारे देश में घूम रहा था तो उस समय मुझे हजारों लोगों के चेहरे और नाम याद रहते थे—और इतना ही नहीं मैं जब उनसे दुबारा मिलता था तो मुझे यह भी याद रहता था कि इससे पहले में उनसे कहां मिला था और हम लोगों में क्‍या बातचीत हुई था। भले ही वह बातचीत दस पंद्रह वर्ष पहले हुई हो। मेरी बात को सुन कर लोग हैरान हो जाते थे। अच्‍छा है मेरी स्‍मृति में बहीं गड़बड़ होती है जहां होनी चाहिए—मोरार जी देसाई पर।
      तुम्‍हें यह सुन कर विश्‍वास नहीं होगा कि परमात्‍मा भी व्‍यंग्‍य-चित्र बनाता है। मैंने यह तो सुना था कि वह प्राणी बनाता है, किंतु व्‍यंग्‍य-चित्र, खासकर व्यंग्य चित्रकारों के लिए मोरार जी देसाई तो चलते-फिरते कार्टून है। किंतु मैं उन पर हंसा नहीं था, उस समय तो में आश्‍चर्यचकित था एक लड़के को प्रधानमंत्री की भेंट पर और उनकी पारस्‍परिक बातचीत पर। अभी भी मैं विश्‍वास नहीं कर सकता कि एक प्रधानमंत्री उस तरह से बातचीत कर सकते है। वे सिर्फ ध्‍यान से सुन रहे थे और बीच-बीच में प्रश्न पूछ कर उस चर्चा को और आगे बढा रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे वे चर्चा को सदा के लिए जारी रखना चाहते थे। कई बार प्रधानमंत्री के सैक्रेटरी ने दरवाजा खोल कर अंदर झाँका। परंतु जवाहरलाल समझदार व्‍यक्‍ति थे। उन्‍होंने जान बूझ कर दरवाजे की ओर पीठ की हुई थी। सैक्रेटरी को केवल उनकी पीठ ही दिखाई पड़ती थी।
      इस बात को मैं बाद में समझ सका। मस्‍तो ने मुझे बताया कि उसने जवाहरलाल को पहली बार ही इस प्रकार दरवाजे की और पीठ किए हुए देखा है। उसने कहा कह निजी सचिव दरवाजा खोल कर यह इशारा करता है कि इस मेहमान के जाने का समय हो गया और दूसरा मेहमान भीतर आने का इंतजार कर रहा है।
,      परंतु उस समय जवाहरलाल को किसी की भी परवाह नहीं थी। उस समय तो वे केवल विपस्‍सना ध्‍यान के बारे में जानना चाहते थे। मैं उन्‍हें विपस्‍सना के बारे में बताने के लिए वहां की परिस्‍थिति देख कर थोड़ा झिझक रहा था। मुझे तुम्‍हें विपस्‍सना शब्‍द का अर्थ समझाना होगा। इसका अर्थ होता है: पीछे देखना। पस्‍सना का अर्थ है: देखना और विपस्‍सना का अर्थ है: पीछे देखना।
      इस क्षण में जो भी कर रहा हूं वह विपस्‍सना है।
      मैं मस्‍तो को पैर से मार रहा था किंतु वह तो योगी की तरह बैठा हुआ था। उसे मालूम था कि मैं ऐसा कुछ करूंगा और वह इसके लिए तैयार बैठा था लेकिन मैंने उसे इतने जोर से पैर मारा कि उसके मुहँ से निकला—आह, जवाहरलाल ने भी पूछा कि क्‍या हुआ?
      मस्‍तो ने कहा: कुछ नहीं।  
      मैंने कहा: झूठ बोल रहा है।
      मस्‍तो ने कहा: तुमने तो हद कर दी। एक तो तूम मुझे इतने जोर से मार रहे हो कि मैं भूल ही गया कि मुझे चुप रहना चाहिए और तुम्‍हारे हाथों में मुझे फुटबॉल नहीं बनना है। इस पर भी तुम जवाहरलाल से कह रहे हो कि मैं झूठ बोर रहा हूं।
      मैंने कहा: अब यह झूठ नहीं बोल रहा, अब यह आपको बता रहा है कि कैसे भूला नहीं जा सकता क्‍योंकि विपस्‍सना का अर्थ है नहीं भूलना। और मैंने मस्‍तो से कहा: मैं जवाहरलाल को विपस्‍सना समझा रहा हूं। इस लिए मैंने तुम्हें जोर से मारा, इसके लिए मुझे माफ करना और ऐसा मत समझना कि मैं आखिरी बार मार रहा हूं।
      यह सुन कर जवाहरलाल तो इतने हंसे कि उनकी आंखों में आंसू आ गए। सच्‍चे कवि का यही गुण है। साधारण कवि ऐसा नहीं होता। साधारण कवियों को तो आसानी से खरीदा जा सकता है। शायद पश्‍चिम में इनकी कीमत अधिक हो अन्‍यथा एक डालर में एक दर्जन मिल जाते है। जवाहरलाल इस प्रकार के कवि नहीं थे—एक डालर में एक दर्जन, वे तो सच में उन दुर्लभ आत्माओें में से एक थे जिनको बुद्ध ने बोधिसत्‍व कहा है। मैं उन्‍हें बोधिसत्‍व कहूंगा।
      मुझे आश्‍चर्य था और आज भी है कि वे प्रधानमंत्री कैसे बन गए। भारत का यह प्रथम प्रधान मंत्री बाद के प्रधानमंत्रियों से बिलकुल ही अलग था। वे लोगों की भीड़
द्वारा निर्वाचित नहीं किए गए थे
, वे निर्वाचित उम्मीदवार नहीं थे—उन्‍हें महात्‍मा गांधी ने चुना था। वे महात्‍मा गांधी की पंसद थे।
      गांधी में अनेक दोष थे,किन्‍तु उनके इस काम की सराहना तो मैं करता हूं। वैसे गांधी ही हर बात की में आलोचना करता हूं,परंतु गांधी ने जवाहरलाल को क्‍यों चूना यह एक अलग कहानी है, वह शायद मेरे चक्र का अंश नहीं बन सकती मेरे लिए तो सिर्फ यह महत्‍वपूर्ण है कि कम से कम वे एक काव्‍यात्‍मक व्‍यक्ति के प्रति अवश्‍य संवेदनशील रहे होंगे। यूं तो वे तपस्‍वी जैसे थे। उनकी अन्‍य सब बातें तो बकवास थी किंतु उन्‍हों जवाहरलाल को मंत्रि पद के लिए चुन कर समझदारी का काम किया।
      और इस प्रकार एक कवि प्रधानमंत्री बन गया। नहीं तो एक कवि का प्रधानमंत्री बनना असंभव है। परंतु एक प्रधानमंत्री का कवि बनना भी संभव है जब वह पागल हो जाए। किंतु यह वही बात नहीं है।    
      तो मैं ने सोचा था कि जवाहरलाल तो केवल राजनीति के बारे में ही बात करेंगे, किंतु वे तो चर्चा कर रहे थे काव्‍य की और काव्यात्मक अनुभूति कि। मस्‍तो जो कि उनको वर्षो से जानता था। वह भी हैरान रह गया। जब उन्‍होंने काव्‍य के बारे में और काव्‍यात्‍मक अनुभूति के बारे में बात की। मस्‍तो ने मेरी और ऐसे देखा—जैसे कि मुझे इसका उत्‍तर मालूम है।
      मैंने कहा: मस्‍तो तुम तो जवाहरलाल को वर्षो से जानते हो, तुम्‍हें तो मालूम हो चाहिए। मैं तो उन्‍हें अभी-अभी मिला हूं और हम दोनों एक-दूसरे से परिचित होने की कोशिश कर रहे है। मेरी और प्रश्‍न भरी निगाहों से न देखो। हालांकि मैं तुम्‍हारा प्रश्‍न समझ रहा हूं। इस राजनीतिज्ञ को क्‍या हो गया है। क्‍या यह पागल हो गया है। नहीं, मैं तुमसे ओर उनसे कहता हूं कि वह राजनीतिज्ञ नहीं है। मेरा मतलब यह है कि वह अपने स्‍वभाव से राजनीतिज्ञ नहीं है। वह केवल दुर्घटना वश राजनीतिज्ञ बन गया है। जो इसके आंतरिक स्‍वभाव के अनुकूल है।
      जवाहरलाल ने हंस कर कहा: हां, यक एक दुर्घटना ही है। जीवन में पहली बार मुझे ऐसा आदमी मिला जो मेरे मन की बात समझ कर ठीक से अभिव्‍यक्‍त कर सका। हां, इसको दुर्घटना ही कहना चाहिए। इस पर मैंने कहा: और यह दुर्घटना संघातक थी। हम सब हंस पड़े। मैंने कहा कि यह दुर्घटना अवश्‍यक संघातक थी परंतु आपके भीतर के कवि को कोई नुकसान नहीं पहुंचा। बाकी बातों की मुझे कोई परवाह नहीं है। आप अभी भी तारों को एक बच्‍चे की तरह देख सकते है।    
      उन्‍होने कहा : बिलकुल ठीक,बिलकुल ठीक। मुझे तारों को देखना बहुत पसंद है। किंतु तुम्‍हें इसके बारे में कैसे मालूम हुआ।
      मैंने कहा: इसके बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता किंतु मैं कवि की विशेषताओं को जानता हूं। इसीलिए आपकी हर आदत का वर्णन कर सकता हूं। इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है। इसके बारे में सोचने की कोई जरूरत नहीं है। आप बेफिक्र होकर बैठिए। और वे सचमुच बड़े आराम से बैठ गए। अन्‍यथा एक राजनीतिज्ञ के लिए आराम से बैठना मुश्‍किल है।
      भारत में यह माना जाता है कि जब कोई साधारण आदमी मरता है ता उसे ले जाने के लिए एक ही यमदूत आता है। किंतु जब कोई राजनीतिज्ञ मरता है तो उसको ले जाने के लिए यमदूतों की भीड़ आती है। क्‍योंकि वह मर कर भी आराम से सो नहीं सकता। वह कुछ भी स्‍वाभाविक ढंग से नहीं होने देता है। होने दो, अपने को छोड़ दो, जैसे शब्‍दों के अर्थ को वह समझता ही नहीं है।
      परंतु जवाहरलाल तो पूर्णत: शिथिल हो गए। उन्‍होंने कहा: तुम्‍हारे साथ में आराम से बैठ सकता हूं। और मस्‍तो के कारण तो मुझमें कभी कोई तनाव पैदा नहीं हुआ। इसलिए वह भी आराम से बैठ सकता है। मैं उसे नहीं रोक रहा हूं। हां, संन्‍यासी और स्‍वामी होने के कारण उसे इसमें कुछ अड़चन हो सकती है। हम सब हंस पड़े।
      जवाहरलाल नेहरू के साथ यह हमारी अंतिम भेंट नहीं थी। यह तो शुरूआत थी। मस्‍तो और मैं तो समझ रहे थे कह ये अंतिम भेट है। किंतु जब हम लोग उनसे विदा ले रहे थे, तो जवाहरलाल ने कहा: क्‍या आप लोग कल नहीं आ सकते इसी समय। मोरार जी देसाई की और इशारा करते हुए  उन्‍होंने कहा: कल मैं इस आदमी को यहां से दूर ही रखूंगा। उसकी उपस्‍थिति तक से बदबू आती है। और तुम्‍हें पता है किस चीज की? मुझे खेद है कि मुझे विवश होकर क्‍या फर्क पड़ता है कि वह अपना पेशाब खुद पी लेता है। इस बात से मेरा कोई संबंध नहीं है। हम लोग फिर हंस दिए और चल दिए।
      उस शाम को उन्‍होंने हमें टेलीफोन पर फिर कहा: कल के बारे में भूल मत जाना । मैंने कल के सब दूसरों से मिलने के कार्यक्रम रद्द कर दिए है। मैं तुम दोनों का इंतजार करूंगा। हमें तो और कोई काम था ही नहीं। मस्तो मुझे प्रधानमंत्री से मिलाना चाहता था। और हम लोग मिल चुके थे।
      मस्‍तो ने कहा: अगर प्रधानमंत्री की यही इच्‍छा है तो हमें ठहरना ही पड़ेगा। हम इनकार नहीं कर सकते, क्‍योंकि यह तुम्‍हारे भविष्‍य के लिए अच्‍छा नहीं होगा। मैंने कहा: मेरे भविष्‍य की चिंता मत करों, यह बताओ कि जवाहरलाल के लिए यह अच्‍छा होगा कि नहीं? मस्‍तो ने कहा: तुमसे बात करना मुश्‍किल है।
      उसने ठीक ही कहा था किंतु इसके बारे में मुझे देर से पता लगा और तब मैं बदल नहीं सकता था।
      मुझे अपने ढंग से चलने की ऐसी आदत हो गई है कि छोटी से छोटी बात के लिए भी मैं नहीं बदलता। गुड़िया भी यह जानती है। उसने हर संभव तरीके से मुझे समझाने की कोशिश की है कि नहाते समय मुझे बाथरूम में चारों और पानी नहीं बिखेरना चाहिए। किंतु मुझे कोई कुछ नहीं सिखा सकता है। मैं तो जो करता हूं, वह करता ही रहूंगा। मैं इन लड़कियों को नाहक परेशान नहीं करना चाहता। मैं दिन में दो बार नहाता हूं। इसलिए इन्‍हें बाथरूम को दो बार साफ करना पड़ता है। गुड़िया सोचती है कि मैं इस तरह से भी नहा सकता हूं जिससे पानी इधर-उधर न फैले और इन बेचारी लड़कियों को फर्श न पोंछना पड़े।
      परंतु अंत में गुड़िया को हार माननी पड़ी। मेरे लिए बदलना असंभव है। नहाते समय मुझे इतना मजा आता है कि मैं भूल ही जाता हूं कि पानी को चारों और बिखरना ठीक नहीं है। और अगर पानी को न बखेरु तो मुझे ऐसा लगता है कि जैसे बाथरूम में भी मुझे किसी न नियंत्रित किया हुआ है।
      अब जरा गुड़िया को देखो, में जो कह रहा हूं वह उसे बड़े मजे से सुन रही है। उसे ठीक-ठीक पता है कह मैं क्‍या कह रहा हूं। जब मैं नहाता हूं तो खूब अच्‍छी तरह से नहाता हूं और पानी को फर्श पर ही नहीं बल्‍कि दीवालों के ऊपर भी बिखेरता हूं। और जो आदमी साफ करता है उसके लिए तो यह समस्‍या ही बन जाती है। किंतु अगर यह काम प्रेम से किया  जाए—जैसे ये लड़कियां करती है। तब तो वह मनोविश्लेषण और ट्रांसेंड़ेंटल मेडि़टेशन से भी अच्‍छा है। अब तो में कुछ भी नहीं बदल सकता।
      मस्‍तो जो कहा रहा था वह अब हो गया है—उस समय जो भविष्‍य था वह भूतकाल हो गया है, परंतु मैं वहीं हूं और मैं वैसा ही रहा हूं। मेरे विचार में तो मृत्‍यु श्‍वास के रूक जाने से नहीं होती वरन तब होती है जब तुम अपने जैसे नहीं रहते अर्थात जब तुम अपने स्‍वभाव के अनुकूल नहीं रहते। मैंने तो कभी भी किसी भी कारण से कोई समझोता नहीं किया।
      अगले दिन हम फिर गए। जवाहरलाल ने अपने दामाद,इंदिरा गांधी के पति को भी आमंत्रित किया हुआ था। मुझे बड़ी हैरानी हुई कि उन्‍होंने अपनी बेटी को क्‍यों नहीं आमंत्रित किया? बाद में मस्‍तो ने मुझे बताया कि जवाहरलाल की पत्‍नी की मृत्‍यु कम आयु में ही हो गई थी। उनको एक ही संतान थी—इंदिरा, जो उनके लिए बेटी भी और बेटा भी थी और वहीं अपने पिता की देखभाल करती है।
      भारत में जब बेटी की शादी होती है तो वह अपने पति के घर चली जाती है और उसके परिवार का अंग बन जाती है। इंदिरा ने ससुराल जाने से साफ इनकार कर दिया। उसने कहा कि मेरी मां नहीं इसलिए मैं अपने पिता को अकेला नहीं छोड़ कर जा सकती। बस इसी कारण से उनके वैवाहिक जीवन में, आरंभ से ही दरार पड़ गई। वे पति-पत्‍नी तो थे किंतु इंदिरा फिरोज गांधी के परिवार को अपना न सकी। उसके दोनों पुत्र, संजय और राजीव भी अपनी मां के कारण नेहरू परिवार को ही अपना परिवार मानते लगे।
      मस्‍तो ने मुझे बताया कि जवाहरलाल दोनों को एक साथ आमंत्रित नहीं कर सकते, क्‍योंकि दोनों में वहीं पर झगड़ा शुरू हो जाता। मैंने कहा: यह तो बड़ी अजीब बात है। क्या ये एक घंटे के लिए भी यह नहीं भूल सकते कि वे पति-पत्‍नी है। मस्‍तो ने कहा: नहीं, एक क्षण के लिए भी नहीं भूल सकते। पति-पत्‍नी बनने का अर्थ है: युद्ध की घोषणा। फिर भी लोग इसे प्रेम कहते है। जब कि यह तो शीतयुद्ध है। और चौबीस घंटे शीतयुद्ध होने के बजाए तो सर्दी के दिनों में गरम युद्ध का ठने रहना अधिक अच्‍छा है। यह शीतयुद्ध में होना तो तुम्‍हारा अंतर्तम भी बर्फ की तरह जम जाता है।
                हमें फिर हैरानी हुई जब जवाहरलाल ने तीसरे दिन भी सुबह हमें बुलाया। तीसरे दिन सुबह उन्‍होंने स्‍वयं हमें फोन करके आने को कहा। इसके बारे में दूसरे दिन उन्‍होंने कुछ कहा नहीं था और हम जाने की तैयारी करने लगे थे। किंतु तीसरे दिन सुबह जवाहरलाल का फोन आया। उनका अपना निजी टेलीफोन नंबर था जो डायरेक्‍टरी में नहीं दिया गया था। इसके बारे में उनके बहुत नजदीकी लोग जानते होगें। मैंने मस्‍तो से पूछा कि उन्‍होंने खुद टेलीफोन किया है, क्‍या वे सैक्रेटरी को फोन करने को नहीं कह सकते थे। मस्‍तो ने कहा: यह उनका निजी नंबर है ओर उनके सैक्रेटरी को भी नहीं मालूम कि वे हमें आमंत्रित कर रहे है। सैक्रेटरी को तो इसके बारे में तब पता चला जब हम पोर्च में पहुच जाएंगे।
      और तीसरे दिन जब हम गए तो जवाहरलाल ने इंदिरा गांधी से मेरा परिचय कराया। उन्‍होंने उससे कहा: अभी मत पूछो कि यह कौन है कयोंकि अभी तो यह कुछ नहीं है परंतु एक दिन यह अवश्‍य कोई महत्वपूर्ण व्‍यक्‍ति बनेगा।
      मुझे पता है वे गलत थे। मैं तो अभी भी कुछ नहीं हूं और मैं अंत तक ऐसा ही रहूँगा, क्‍योंकि ना कुछ होना बहुत आनंदपूर्ण है। ना-कुछ होने में बहुत स्‍वतंत्रता है। ना कुछ कोई न होने की कोशिश करो, यह गजब की स्‍थिति है। पर कोई भी ऐसा होना नहीं चाहता। इसलिए    स्‍वभावत: जवाहरलाल ने इंदिरा से यही कहा कि अभी तो यह कुछ नहीं है किंतु मैं  भविष्‍यवाणी कर सकता हूं कि एक दिन यह अवश्‍य कुछ बनेगा।
      जवाहरलाल अब आप तो नहीं रहे किंतु मेरे बारे में की गई आपकी भविष्‍यवाणी सच नहीं हुई। मैं उस भविष्‍यवाणी को पूरा नहीं कर सका। मुझे खेद है। सौभाग्‍य से यह सच नहीं हुई।
      यह से इंदिरा से मेरी मित्रता की शुरूआत हुई। उस समय वह एक ऊंचे पर थी और जल्‍दी ही देश पर राज्य करनेवाली पार्टी की प्रैजिडेंट बन गई। इसके बाद वह लाल बहादुर शास्‍त्री की कैबिनेट मंत्रि बनी और अंत में वह प्रधानमंत्री बनी। जिनको में जानता हूं उनमें केवल इंदिरा ही एक ऐसी महिला है जो इन बेवकूफ राजनीतिज्ञों को काबू में रख सकती है और उसने इनको बहुत कस कर रखा है।
      उसने यह कैसे किया यह तो में नहीं जानता, शायद जब वह कुछ न थी और सिर्फ अपने पिता की देख भाल कर रही थी तब उसने इन लोगों की कमज़ोरियों और दोषों को देखा होगा। इनकी कमज़ोरियों को वह इतने अच्‍छे से जानती थी कि ये लोग उससे डरते थे, उसके सामने कांपते थे। जवाहरलाल नेहरू भी इस मूर्ख मोरार जी देसाई को अपनी कैबिनेट से नहीं निकाल सके।
      बाद में भेंट में मैने इंदिरा गांधी से यह कहा था—इसका उल्‍लेख मुझे अभी कर देना चाहिए क्‍योंकि इन चक्रों पर अधिक भरोसा नहीं किया जा सकता। बाद में इस विषय की चर्चा हो या न हो कुछ कहा नहीं जा सकता। इंदिरा गांधी के साथ हुई अंतिम भेंट में मैंने उससे कहा, यह बात जवाहरलाल के मरने के कई बाद की है। शायद उन्‍नीस सौ अड़सठ के आस पास। आने मुझसे कहा: आप जो कह रहे है वह बिलकुल ठीक है और में यही करना चाहती हूं। परंतु मोरार जी देसाई जैसे लोगों के साथ क्‍या किया जाए? ये लोग मेरी कैबिनेट में है और इनकी संख्‍या अधिक है। ये है तो मेरी पार्टी के परंतु अगर मैं आपके सुझावों को कार्यांवित करने की कोशिश करू तो ये मुझसे सहमत नहीं होगें। मैं सहमत हूं पर में विवश हूं।
      मैंने कहा: आप इस आदमी को क्‍यों नहीं निकाल देती, ऐसा करने से आपको कौन रोक रहा है। और अगर ऐसा नहीं कर सकती तो आपको त्‍यागपत्र दे देना चाहिए क्‍योंकि आपको योग्‍यता वाले व्‍यक्‍ति को ऐसे मूढ़ों के साथ काम करना शोभा नहीं देता। इनको तो ठीक कर दो—उल्‍टा लटका दो, वही सही साइड को ऊपर करना होगा,क्‍योंकि ये शीर्ष सन कर रहे है। सिर के बल खड़े है। या तो इन्‍हें ठीक कर दो या त्‍यागपत्र दे दो, किंतु कुछ जरूर करो।
      इंदिरा गांधी को हमेशा पसंद किया है। अभी भी वह मुझे अच्‍छी लगती है। हालांकि उसने मेरे काम को मदद करने के लिए कभी कुछ नहीं किया। किंतु वह बात दूसरी है। मुझे वह उसी क्षण से अच्‍छी लगी जब उसने मुझसे कहा—बल्‍कि मेरे कान में फुसफुसाया, जब कि वहां पर सुनने बाला कोई भी नहीं था। पर कौन जाने, राजनीतिज्ञ बहुत सावधान रहते है। उसने धीरे से कहा: मैं कुछ न कुछ अवश्‍य करूंगी।
      उस समय तो मेरी समझ में नहीं आया कि उसके इन शब्‍दों का क्‍या अर्थ है मैं कि ‘’ मैं कुछ  न कुछ अवश्‍य करूंगी। किंतु सात दिन बाद के बाद मैंने समाचार पत्र में पढ़ा कि मोरार जी देसाई  को निकाल दिया गया है। मैं तो उस समय बहुत दूर था, शायद हजारों  मील दूर।
      वे अपने चुनाव क्षेत्र का दौरा करके प्रधानमंत्री से मिलने आए के और उसका ऐसा स्‍वागत हुआ, या यू कहना चाहिए कि अच्‍छा प्रस्‍थान हुआ। ऐसे लोगो का स्‍वागत कौन करता है। हां, उन्‍हें अच्‍छी तरह से विदा किया जाता है।
      किंतु मुझे आश्‍चर्य नहीं हुआ। सच तो यह है कि मैं रोज समाचार पत्रों को देखता था कि क्‍या हो रहा है। क्‍योंकि मैं जानना चाहता था कि इंदिरा गांधी के ‘’कुछ न कुछ करने का क्‍या अर्थ है। पर उसने कुछ किया, और उसने जो किया वह बिलकुल ठीक था। यह आदमी बहुत ही रूढ़िवादी, जड़बुद्धि और प्रगति के हर कदम पर अड़चन डालने  वाला था।
      देव गीत समय क्‍या हुआ है?
      दस बजकर चौबीस मिनट, ओशो।
दस मिनट मेरे लिए। यह ठीक है.........
--ओशो

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