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गुरुवार, 7 जनवरी 2010

स्‍वर्णीम बचपन - (सत्र-- 44)

मस्‍तो की भविष्‍य वाणी—मोरारजी प्रधानमंत्री बनेगा

      कल मुझे अचरज हो रहा था कि परमात्‍मा ने इस दुनियां को छह दिनों में कैसे बना लिया। मुझे अचरज इस लिए हो रहा था, क्‍योंकि मैं तो अभी प्राइमरी स्‍कूल के दूसरे दिन पर ही अटका हुआ हूं, दूसरे दिन के पार भी जा सका। और उसने यह कैसी दुनिया बनाई है। शायद यह यहूदी था, क्‍योंकि यहूदियों ने ही इस विचार को फैलाया है।
      हिंदू एक परमात्‍मा में नहीं वरन अनेक परमात्मा में विश्‍वास करते है। सच तो यह है कि पहले जब उनको यह विचार सुझा तो उन्‍होंने उतने ही देवताओं की  गणना की जतनी उस समय भारतीयों की जनसंख्‍या थी। उस समय भी उनकी संख्‍या कम नहीं थी। तैंतीस करोड़ थी। हिंदुओं के मतानुसार प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति को अपना एक परमात्‍मा होना चाहिए। वे तानाशाह नहीं थे। वे प्रजातांत्रिक थे—पहले के हिंदू तो बहुत अधिक प्रजातांत्रिक थे।
      हजारों साल पहले उन्‍होंने एक ऐसे अलौकिक संसार की कल्‍पना की थी जिसमें उतने ही जीवित लोग थे जितने इस पृथ्‍वी पर। बहुत बड़ा काम किया था उन्‍होंने। तैंतीस करोड़ देवताओं की गणना करना आसान नहीं है। और तुम्‍हें हिंदू देवताओं के बारे में कुछ भी मालूम नहीं है। वे बिलकुल वैसे है जैसे मनुष्‍य हो सकते है—बहुत चालाक,कमीने, राजनीतिज्ञ,हर प्रकार के शोषण करने बाले। परंतु किसी ने किसी प्रकार किसी ने जनगणना कर ही ली।  
    
      हिंदू उस प्रकार के आस्‍तिक नहीं है जिस प्रकार पिश्चम सोचता है। ये पैगान्‍स है, परंतु वैसे पैगान्‍स नहीं जैसा ईसाई लोग इस शब्‍द का उपयोग करते है। पैगान्‍स बहुत मूल्‍यवान शब्‍द है। ईसाइयों, यहूदियों और मुसलमानों द्वारा इसका दुरूपयोग नहीं होना दिया जाना चाहिए। ईसाई, यहूदी और इस्‍लाम ये तीन धर्म बुनियादी रूप से यहूदी ही है। ये कुछ भी कहें—इनकी बुनियादें तो जीसस और मोहम्मद के जन्‍म से बहुत पहले ही पड़ गई थी। ये सब यहूदी है।
      जिस परमात्‍मा की बात तुम सुनते हो यह यहूदी है। वह दूसरा कुछ हो ही नहीं सकता। वहीं रहस्‍य छुपा है। अगर वह हिंदू होता तो वह खुद ही तैंतीस करोड़ में बंट जाता। तब वह इस दुनिया को कैसे बनाता। अगर पहले से कोई होती तो यह तैंतीस करोड देवता उसको नष्‍ट करने के लिए काफी होते।
      हिंदू परमात्‍मा जैसा तो कोई शब्‍द उपयोग ही नहीं क्या जा सकता। क्‍योंकि हिंदू धर्म में अनेक परमात्‍मा है, अनेक देवता है। कोई एक परमात्‍मा नहीं। उनका परमात्‍मा स्‍त्रष्‍टा नहीं है। क्‍योंकि वह स्‍वंय ब्रह्मांड का हिस्‍सा है। वहसे मेरा तात्‍पर्य है तैंतीस करोड़ देवताओं से। मुझे तुम्‍हारा शब्‍द  ही उपयोग करना पड़ रहा है। किंतु हिंदू परमात्‍मा के लिए दैट शब्‍द का प्रयोग करते है। दैट’’ एक ऐसा विशाल छाता है जिसके नीचे तुम जितने चाहों उतने देवताओं को छिपा सकते हो। जिनको जरूरत नहीं है उनको भी पीछे की और थोड़ी सी जगह दी जा सकती है। यह तो सर्कस के तंबू की तरह इतना बड़ा है कि उसमें हर संभव देवता को जगह मिल सकती है।
      यहूदी परमात्‍मा ने तो सचमुच बहुत बड़ा काम किया। निश्‍चित ही वह अच्‍छा यहूदी था। ओर उसने छह दिनों में इस दुनिया को बना लिया। एक दूसरे यहूदी अल्बर्ट आइंस्टीनी ने इस गड़बड़ को--विस्‍तृत हो रहा ब्रह्मांड कहा है। हर सेकेंड में इसका विस्‍तार हो रहा है। गर्भवती स्‍त्री के पेट की तरह बड़ा होता जाता है। और उससे भी कहीं  अधिक तेजी से। ये तो प्रकाश की गति से बढ़ रहा है। और हव अभी तक की जानी गई अधिकतम गति है। शायद किसी दिन हम उससे भी अधिक गति बाली चीजें खोज लें किंतु अभी तक तो वहीं अधिकतम गति है। ब्रह्मांड प्रकाश की गति से विस्‍तृत हो रहा है और यह सदा इस तरह फैलता रहा है। इसका न कोई आदि है न अंत। कम से कम वैज्ञानिक तो यही कहते है।
      परंतु ईसाई कहते है कि न सिर्फ इसका आरंभ हुआ बल्‍कि छह दिन में इसके बनाने का काम समाप्‍त हो गया। यहूदी हैं, मुसलमान है यह सब एक ही बकवास की विभिन्‍न शाखाएं है। शायद एक ही मूढ़ ने तीनों धर्मों की संभावना को जन्‍म दिया। मुझसे उनका नाम मत पूछो। मूढ़ तो मूढ़ ही होते है और उनके नाम नहीं होते। इसलिए किसी को ये मालूम नहीं कि छह दिनों में दुनिया बनाने का विचार किसको सुझा। इस पर तो केवल हंसा जा सकता है। परंतु ईसाई पादरी और यहूदी रबाई बड़ी गंभीरता से इस संसार की सृष्‍टि की बात करते है।  
      मुझे इस पर इसलिए आश्‍चर्य हो रहा था क्योंकि मैं तो अपनी कहाना को भी छह दिनों में समाप्‍त नहीं कर सकता। मैं तो अभी दूसरे दिन पर ही हूं। वह भी इसलिए क्‍योंकि मैंने बहुत सी बातों को महत्‍वहीन समझ कर छोड़ दिया है। किंतु कैसे पता शायद वह महत्‍वपूर्ण हो ही। परंतु अगर मैं बिना चुनाव किए सब कुछ बोलूं तो बेचारे देव गीत को क्‍या होगा। उसको इतनी अधिक नोटबुक रखनी पड़ेगी कह उन सबको देख कर ही वह पागल हो जाएगा। यह तो ऐसा होगा कि वह न्‍यूयार्क में एम्‍पायर स्‍टेट बिल्डिंग के पास खड़े होकर अपनी नोटबुक को देख कर सोच रहा हो कि अब इनको कौन पढ़े़गा।
      और फिर मुझे देवराज का खयाल आता है जिसे इनका संपादन करना पड़ेगा। और कोई इन्‍हें पढ़े या न पढ़े, कम से कम एक व्‍यक्‍ति तो इन्‍हें पढ़े़गा ही, वह है देवराज। देवराज तो इन्‍हें पढ़े़गा ही। दूसरी होगी आशु, आशु भी इन्‍हें पड़ेगी क्‍योंकि उसे इनको टाइप करना है।
      परमात्‍मा की सृष्‍टि की कहानी का न तो कोई संपादन है और न कोई टाइपिस्‍ट। बस उसने छह दिनों में सृष्‍टि बना दी और उस दिन के बाद से उसकी कोई खबर ही नहीं मिली। क्‍या हुआ उसे, कुछ लोग सोचते है कि वह फ्लोरिडा चला गया जहां पर सब अवकाश प्राप्‍त लोग जाते है। और कुछ लोग समझते है कि वह मियामी बीच पर मजे कर रहा है। किंतु यह सब अनुमान ही है।
      परमात्‍मा है ही नहीं। इसीलिए तो अस्‍तित्‍व संभव हो सका। नहीं तो वह बीच में अपनी       टाँग अड़ा देता। परमात्‍मा के बारे में सोचने के बजाए उसके बारे में भूल जाना हीं अच्‍छा है। और समय आ गया है, उसे क्षमा कर देना चाहिए। यह कहना कुछ अजीब सा लगता है कि परमात्‍मा को भूल जाओ और उसे क्षमा करों।  किंतु तभी तुम आरंभ कर सकते हो, उसकी मृत्‍यु तुम्‍हारा जन्‍म है।
      फ्रेड्रिक नीत्‍शे जैसे पागल आदमी को ही यह विचार सुझा—परंतु पागल आदमी की बात को कोई नहीं सुनता विशेषत: जब वह समझदारी की बात कर रहा हो। तब तो उन्‍हें सुनना और भी कठिन हो जाता है। नीत्‍शे की बात को किसी ने भी गंभीरता से नहीं लिया। परंतु मेरा ख्‍याल है कि चेतना के इतिहास में उसकी यह घोषणा कि—परमात्‍मा मर गया है। अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण क्षण‍ है। उसे यह घोषणा करनी पड़ी—इसलिए नहीं की परमात्‍मा मर गया था। वह ताक वहां पर कभी था ही नहीं। पहले तो वह कभी जन्‍मा ही नहीं तो वह मर कैसे गया? मरने से पहले तुम्‍हें कम से कम सत्‍तर साल तक जीने का दुःख भोगना पड़ेगा। परमात्‍मा कभी था ही नहीं। यह अच्‍छा हुआ क्‍योंकि अस्तित्‍व अपने आप में पर्याप्त है। इसे बनाने के लिए किसी बाहरी साधन की आवश्‍यकता नहीं है।
      मुझे इसके बारे में बात नहीं करनी थी। हर क्षण जब इतने रास्‍ते खोल देता है। तो उन पर चलना ही पड़ता है। किसी को भी चुनों बाद में इसका पछतावा ही होता है। क्‍योंकि जिन रास्‍तों को नहीं चुना उनके बारे में ही बार-बार यही विचार आता है कि न जाने वहां क्‍या था।
      इसलिए तो इस दुनिया में कोई भी खुश‍ नहीं है। सैकड़ों सफल लोग है—अमीर, शक्‍तिशाली परंतु कहीं पर भी खुशी और खुश लोग दिखाई नहीं देते जब तक कि तुम मेरे लोगों से न मिलो। हां,मेरे लोग सबसे बिलकुल अलग है—वे आनंदित है। सामान्‍यत: हर आदमी को कभी न कभी निराशा होना ही पड़ता है। जो बुद्धिमान है वे जल्‍दी निराश हो जाते है। और जो बेवकूफ वे देर से। और जो अत्‍यंत मुर्ख है, मूढ़ हो वे तो कभी निराश नहीं होते। वे तो डिजनी लैंड के मेरी-गो राउंड पर बैठ-बैठ ही मर जाते हे।
      आशु, इसका ठीक उच्‍चारण क्‍या है?
      डिजनेलैंड़, ओशो।
      डिजने, डिजनी। डिजनी। ठीक है। कोई भी स्‍त्री मुझसे अपने भावों को छिपा नहीं सकती। हां पुरूष कर सकता है। मुझे तुरंत मालूम हो गया कि कुछ गलत कहा है। किंतु तुम इसकी चिंता मत करो। मैं गलत ढंग का आदमी हूं। मैं तो संयोग से ही कभी गलती से कोई ठीक बात कह देता हूं। अन्‍यथा मैं तो सदा समझदार हीं होता हूं।
      अच्‍छा, अब हम अपनी कहनी को आगे बढ़ाते है। यह बीच में थोड़ा सा विषयांतर हो गया था। और यह हजारों विषयांतर का संग्रह बनने बाला है। क्‍योंकि जीवन ऐसा ही है...
      अब मस्‍तो तो था नहीं जो इंदिरा गांधी को मेरे काम करने के लिए राज़ी करता। किंतु उसने भारत के प्रधान मंत्रि को यह बात समझाने की पूरी कोशिश की। शायद इसमें वह सफल भी हो गया। लेकिन केवल यह समझाने में कि ऐसा आदमी है जिसे देश की राजनीति में कभी नहीं आना चाहिए। शायद जवाहरलाल मेरे लिए या और फिर देश की भलाई के लिए ऐसा सोच रहे होंगे। किंतु वे चालाक आदमी नहीं थे। इसीलिए यह दूसरी बात शायद सही नहीं हो सकती। मैंने उनको देखा है। इसलिए मैं जानता हूं। केवल उन्‍हें देखा ही नहीं बल्‍कि मेरे ह्रदय में उनके साथ एक गहन सामंजस्य हो गया। हम दोनों में समस्‍वरता उत्‍पन्‍न हो गई।
      वे वृद्ध थे, उन्‍होंने अपना जीवन जी लिया था और सफलता प्राप्‍त कर ली थी और अब वे निराश और हताश हो गए थे। वह इसी लिए मैं सांसारिक अर्थ में सफल नहीं होना चाहता था और मैं यह कह सकता हूं कि मैंने अपने आपको सफलता से दूर ही रखा है। में इस दुनिया में ऐसे रहा हूं जैसे में इस दुनियां में कभी था ही नहीं।
      मैं जो कह रहा हूं उसे कबीर ने बहुत ही सुंदर काव्‍यात्‍मक ढंग से एक गीत में अभिव्‍यक्‍त किया है। कबीर जुलाहा थे इसीलिए उनका गीत भी जुलाहे की भाषा में है।
      वे कहते है: झीनी-झीनी बीनी रे चदरिया: मैंने रात के लिए एक सुंदर चदरिया बनाई है....झीनी-झीनी बीनी रे चदरिया, रामनाम रस भीनी। किंतु मैंने उसको इस्‍तेमाल नहीं किया और न हीं उसे मैला किया है। मेरी मृत्‍यु के समय भी वह उतनी ही स्‍वच्‍छ और ताजी है जितनी वह मेरे जन्‍म के समय थी।
      और क्‍या तुम्‍हें मालूम है कि कबीर ने यह गीत गाया और वे मर गए। लोगों न समझा कि वे उनको सुनाने के लिए गीत गा रहे हैं। परंतु वे तो अस्‍तित्‍व के लिए गा रहे थे। ये एक ऐसे गरीब आदमी के शब्‍द थे जो इतना समृद्ध था कि सारा जीवन उस पर एक खरोंच भी नहीं लगा सका था और अस्‍तित्‍व ने उसे जो दिया था उसी प्रकार अस्‍तित्‍व को वापस दे सका।
      कई बार मुझे अचरज होता है इस शरीर पर कि यह कितना बूढा हो गया है, परंतु जहां तक मेरा प्रश्‍न है, न तो मुझे बुढ़ापे की क्रमिक प्रक्रिया का पता चलता है ओर न बुढ़ापे का। एक क्षण के लिए भी मुझे कोई अंतर महसूस नहीं हुआ, मैं तो वहीं हूं। बहुत सी बातें घटी हैं। परंतु वे केवल परिधि पर ही घटी है। इसलिए मैं तुम्‍हें बता सकता हूं कि क्या हुआ किंतु मेरे साथ कुछ नहीं हुआ। मैं उतना ही सरल, उतना ही अज्ञानी हूं जितना मैं अपने जन्‍म के पहले था।
      झेन लोग कहते हैं कि जब तक तुम्हें यह न मालूम हो जाए कि अपने जन्‍म से पहले तुम्‍हारा चेहरा कैसा था और तुम कैसे थे तब तक तुम हमको नहीं समझ सकते।
      स्‍वभावत: तुम सोचोगे कि ये लोग पागल है और मुझे भी पागल बना रहे है। शायद ये चाहते है कि मैं अपनी नाभि को देखता रहूँ या इस तरह की कोई मूर्खता करूं। हां, कुछ लोग ऐसा कर रहे है और इसमें वे सफल हो रहे है और उनके हजारों अनुयायी है।
      परंतु मेरे साथ होने का मतलब है कि किसी भी निर्धारित पथ पर नहीं चलना। वास्‍तव में किसी भी मार्ग पर नहीं चलना।.....ओर अचानक तुम अपने घर पहुंच जाते हो। ऐसा मेरे साथ हुआ और इसके अतिरिक्‍त सैकड़ों अन्‍य बातें भी घटी। और कोई नहीं जानता कि किससे क्‍या प्रेरित हो जाएगा।
      जरा देव गीत को देखो। अब उसके भीतर कुछ उठ रहा है। कोई नहीं जानता किसी भी चीज से वह प्रकिया आरंभ हो सकती है। जो तुम्‍हें तुम तक पहुंचा सकती है। न वह बहुत दूर है न वह अति निकट है—यह वहीं पर है जहां पर तुम हो। इसलिए तो बुद्ध पुरूष हंसते है—वे अपने प्रयास की मूर्खता पर हंस पड़ते है। परंतु इसे देखने के लिए इसे समझने के लिए उन्‍हें कई चीजों में से गुजरना पडा।
      समय क्‍या हुआ है?
      दस बज कर सात मिनट हुए है,  ओशो।
      हां
      अच्‍छा।
      अपनी अंतिम भेंट में मस्तो ने मुझे बहुत ही बातें कहीं, उनमें से कुछ शायद किसी के लिए कहीं अपयोग हो सकती है। वह जाने वाला था। इसलिए मुझे वह जो कुछ भी बताना चाहता था उसे वह अति संक्षेप में कह रहा था। मुझे यह बात अजीब लग रही थी। क्‍योंकि वह बहुत अच्‍छा वक्‍ता था और इस समय वह अति संक्षेप में अपनी बात कह रहा था।
      उसने कहा: तुम समझते क्‍यो नही, मैं बहुत जल्दी में हूं। तुम मेरी बात को ध्‍यान से सुना और तर्क मत करो। अगर हम दोनों तर्क ही करते रह गए तो मैं पागल बाबा को दिए गए अपने वायदे को पूरा नहीं कर सकूंगा।
      मस्‍तो को मालूम था कि पागल बाबा का नाम मेरे लिए कितना महत्व पूर्ण‍ था। उनका नाम सुनते ही मैं चुप हो जाता, कोई तर्क न करता। तब तो अगर वह कहता कि दो और दो पाँच होते है तो मैं चुपचाप सुन लेता। केवल सुनता ही नहीं इस पर विश्‍वास भी कर लेता। दो और दो चार होते है इसमें तो कोई संदेह नहीं है। परंतु अगर कोई कहे कि दो और दो जोड़ने से पाँच होते हे तो इसको मानने के लिए तो ऐसे प्रेम की आवश्‍यकता होती है। जो गणित के पार चाल जाता है। अगर बाबा ने ऐसा है तो ऐसा ही होगा। इसलिए मैं  चुपचाप सुनता रहा।
      वह अधिक नहीं बोला, उसने जो थोड़े से शब्‍द कहे वे बहुत महत्‍वपूर्ण थे।
      उसने कहा: पहला, किसी संगठन में प्रवेश मत करना।
      मैंने कहा: ठीक है। और मैंने किसी संगठन में प्रवेश नहीं किया । मैंने अपना वादा अच्‍छी तरह निभाया। मैं तो नव-संन्‍यास का भी सदस्‍य नहीं हूं। हो ही नहीं सकता। क्‍योंकि मैंने किसी से यह वादा किया था। उससे मैं बहुत प्रेम करता है। मैं तुम लोगों के बीच में रहते हुए भी बाहर का ही आदमी कहलाएगा। क्‍योंकि अंत तक मैं अपने वायदे को निभाने की कोशिश करूंगा।
      उसने कहा: दूसरी बात यह याद रखना कि कभी किसी संस्‍था के विरूद्ध कुछ मत कहना।
      इस पर मैंने कहा: मस्‍तो, ये शब्‍द तुम्‍हारे है। मुझे पूरा विश्‍वास है कि ये बाबा के शब्‍द नहीं है।
      उसने हंस कर कहा: हां, बिलकुल ठीक। यह बात मैं कह रहा हूं। मैं तो यूं ही जरा आजमा रहा था। कि तुम गेहूँ को भूसे से अलग कर सकते हो या नहीं।
      मैंने कहा: मस्‍तो, उसकी कोई जरूरत नहीं है। तुम तो जल्‍दी से वह सब कह दो जो तुम मुझे बताना चाहते हो, क्योंकि तुम कहते हो कि बहुत जल्‍दी है मुझे  तो ऐसा नहीं लगता कि कोई जल्‍दी है। किंतु अगर तुम कहते हो तो मैं विश्‍वास कर लेता हूं। क्योंकि मैं तुमसे भी बहुत प्रेम करता हूं। जो अति आवश्‍यक बातें है वह तुम मुझे बता दो। नहीं तो हम दोनों चुपचाप बैठ जाते है—जब तक तुम चाहो।
      थोड़ी देर तक चुप रह कर उसने कहा: अच्‍छा , हम दोनों चुप चाप बैठ जाते है। क्‍योंकि तुम्‍हें तो मालूम ही होगा कि बाबा ने मुझसे क्‍या कहा है। उन्होंने तुम्‍हें पहले ही बता दिया होगा।
       मैंने कहा कि मैं उनकी इतनी गहराई से, इतनी अच्‍छी तरह जानता हूं कि मुझे कुछ बताने की जरूरत ही नहीं। अगर वे भी यहां आ जाएं तो मैं कहूँगा कि कुछ कहने का कष्‍ट मत कीजिए बस मेरे साथ बैठ जाइए। इसलिए अच्‍छा है कि तुमने खुद ही निर्णय ले लिया, पर अपना वादा पूरा करो।
      उसने पूछा: कौन सा वादा।
      मैंने कहा: यह तो बड़ा सीधा-साधा वादा है। जब तक तुम चाहो तब तक तुम मेरे साथ मौन में बैठो।
      वह वहां पर छह घंटे तक रहा और  उसने अपना वादा निभाया। हम दोनों एक शब्‍द भी नहीं बोले। किंतु शब्‍दों से कहीं अधिक गहरा संवाद हुआ। स्‍टेशन जाने से पहले सिर्फ एक बात उसने मुझसे कही: अच्‍छा, क्‍या अब मैं अपनी अंतिम बात कह दूँ क्‍योंकि शायद अब मैं तुमसे दुबारा कभी नहीं मिल सकूंगा। और उसे पता था कि वह सदा के लिए जा रहा है।
      मैंने कहा: हां, जरूर कहो।
      उसने कहा: मैं केवल इतना ही कहना चाहता हूं कि अगर तुम्‍हें कभी मेरी सहायता कह आवश्‍यकता हो तो तुम इस पते पर सुचित करना। यदि मैं जीवित होऊंगा तो वे मुझे तुरंत बता देंगे। और उसने जो पता मुझे दिया उसपर बहुत अचरज हुआ कि उसका मस्‍तो से क्‍या संबंध हो सकता है।
      मैंने कहा: मस्‍तो।
      उसने कहा: कुछ मत पूछो, सिर्फ इस आदमी को बता देना।
      मैंने कहा: परंतु यह आदमी तो मोरार जी देसाई है। तुम्हें तो मालूम है कि इसको मैं सूचित नहीं कर सकता।
      उसने कहा: हां, मैं जानता हूं। किंतु यही एक आदमी है जो जल्दी ही सत्‍ता में आने वाला है। और यह हिमालय में मुझसे कहीं भी संपर्क कर सकेगा।
      मैंने कहा: क्‍या तुम सोचते हो कि यह जवाहरलाल के पद का उतराधिकारी बनेगा?
      उसने कहा: नहीं, दूसरा आदमी बनेगा। लेकिन वह अधिक दिनों तक जीवित नहीं रहेगा। वह इंदिरा उस पद पर बैठेगी और उसके बाद यह आदमी। मैं उसका पता तुम्‍हें दे रहा हूं, क्‍योंकि यह वह समय होगा जब तुम्‍हें मेरी सबसे ज्‍यादा जरूरत पड़ेगी, यूं तो जवाहरलाल है इंदिरा है......
      जवाहर लाला और इंदिरा कि बीच जो आदमी प्रधानमंत्री बने वह बहुत ही अच्‍छा आदमी थे। उनका नाम लाल बहादुर शास्‍त्री था। शरीर तो उनका छोटा था किंतु भीतर से वे बहुत महान थे। किंतु वे कुछ महीनों तक ही पद पर रहे। अजीब बात है कि जैसे ही प्रधानमंत्री बने वैसे ही उन्‍होंने मुझे सूचित किया कि वे मुझसे मिलना चाहते है। उन्‍होंने संदेश भेजा कि जल्दी से जल्‍दी मुझसे मिलो।  
      मैं समझ गया कि इसके पीछे अवश्‍य मस्‍तो का हाथ होगा। मैं वहां यही जानने गया कि किसका हाथ है। और मैं दिल्‍ली पहुंचा। मस्‍तो से मैं इतना अधिक प्रेम करता था कि उसके लिए तो मैं नरक भी चला जाता—और नई दिल्‍ली नरक ही तो है। क्‍योंकि प्रधानमंत्री ने मुझे बुलाया था इसलिए मैं वहां गया। और वहीं से मैं पता करना चाहता था कि मस्‍तो कहां पर है? और वह जीवित है या नहीं?
      परंतु दुर्भाग्‍य से प्रधानमंत्री ने मुझे जो तारीख दी थी....उस दिन वे रूस से स्‍थित ताश कंद से दिल्‍ली वापस आने वाले थे। वहां पर वे भरत, रूस और पाकिस्‍तान के शिखर सम्‍मेलन में भाग लेने गए थे। परंतु खेद कि केवल उनका मृत शरीर ही वापस आया। ताश कंद में ही उनकी मृत्‍यु हो गई। मैं दिल्‍ली पहुंच था उनसे मस्‍तो के बारे में पूछने के लिए और वे वापस आए मृत।
      मैंने कहा: यह ताह अच्‍छा खासा मजाक हो गया। एक व्‍यावहारिक मजाक। अब तो मैं कुछ पूछ भी नहीं सकता। और मस्‍तो ने जो मोरार जी देसाई का पता मुझे दिया था—उसको मालूम था कि जरूरत पड़ने पर भी मैं मोरार जी देसाई से कुछ नहीं कहूंगा। मैं नहीं पूछूंगी। इसका कारण यह नहीं है कि मैं उनकी नीतियों और फिलासफी के विरूद्ध हूं। ये तो बड़ी उथली बातें है। मैं तो उनके सारे काम के ढांचे के ही विरूद्ध हूं। वे ऐसे व्यक्ति नहीं है जिनके साथ कोई बातचीत या चर्चा हो सके।
      मैंने मस्‍तो के बारे में उनसे कभी नहीं पूछा। संयोगवश एक-दो बार उनसे मुलाकात भी हुई थी। एक बार तो उनके घर पर ही मिला था और वहां पर तो सिर्फ हम दोनों ही थे। परंतु जनाने क्‍यों मुझे उनकी उपस्थिति अच्‍छी नहीं लगी। मेरा तो दिल घबड़ाने लगा,उलटी आने लगी। उन्‍होंने मुझे एक घंटे का समय दिया था। किंतु मैं तो दो मिनट में ही वहां से भाग गया। इसपर वे भी भौचकें रह गए और उनहोंने पूछा क्‍यों क्‍या हुआ?
      मैंने कहा: क्षमा करना। मुझे बहुत जरूरी काम याद आ गया है। इसलिए जा रहा हूं और हमेशा के लिए, शायद अब हम कभी दुबारा नहीं मिलेंगे।
      उनको बड़ा शाक लगा, क्‍योंकि उस समय वे देश के प्रधानमंत्री बनने वाले थे। इसमें देर नहीं थी। किंतु तुम तो मुझे जानते ही हो, कि अगर किसी की उपस्‍थिति मुझे परेशान और बेचैन कर देती है तो मैं वहां नहीं ठहरता। वहां पर मैं जो दो मिनट ठहरा वह भी शिष्टाचार वश, क्‍योंकि कमरे के भीतर प्रवेश करते ही—इधर-उधर सूंघ कर अगर तुरंत ही बाहर निकल जाता तो बहुत अशिष्‍ट माना जाता। परंतु मैंने किया तो कुछ ऐसा ही। बस दो मिनट रुका, क्‍योंकि वह मेरा इंतजार कर रहे थे, और वयोवृद्ध थे। राजनीतिक महत्‍व भी था उनका, किंतु मेरे लिए इसका कोई अर्थ नहीं था। किंतु उनके लिए चह बहुत महत्‍वपूर्ण था। वे पूरी तरह राजनीतिज्ञ थे और इसीलिए मुझे उनके प्रति घोर विकर्षण हो गया।
      मुझे जवाहरलाल बहुत प्‍यारे लगे, क्‍योंकि उन्‍होंने राजनीति की कोई चर्चा नहीं की। तीन दिन लगातार हम मिलते रहे परंतु राजनीति के संबंध में एक शब्‍द भी नहीं कहा गया। मिलते ही दो मिनट में ही मोरार जी देसाई ने छूटते ही पूछा, वह औरत,इंदिरा गांधी के बारे में आपका क्‍या विचार है?  जिस तरह उन्‍होंने ‘’वह औरत’’ कहा, वह इतना भद्दा ढंग था। अभी भी मुझे उनकी आवाज यह कहते हुए सुनाई देती है...वह औरत। मुझे तो विश्‍वास ही नहीं होता कि कोई आदमी ऐसे भद्दे शब्‍द बोल सकता है।
--ओशो
       

     


     

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