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शनिवार, 1 मई 2010

तीर्थ—11 अंतिम पोस्‍ट (वृक्ष के माध्‍यम से संवाद)

तीर्थ है, मंदिर  है, उनका सारा का सारा विज्ञान है। और उस पूरे विज्ञान की अपनी सूत्रबद्ध प्रक्रिया है। एक कदम उठाने से दूसरा कदम उठना है, दूसरा उठाने से तीसरा उठता है। पीछे चौथा उठता है और परिणाम होता है। यदि एक भी कदम बीच में खो गया तो, एक भी सूत्र बीच में खो गया तो। परिणाम नहीं होता। एक और बात इस संबंध में ख्‍याल में ले लेनी चाहिए कि जब भी कोई सभ्‍यता बहुत विकसित हो जाती है और जब भी कोई विज्ञान बहुत विकसित हो जाता है। तो ‘’रिचुअल’’ सिम्‍पलीफाइड़ हो जाता है। काम्प्लैक्स नहीं रह जाता। जब वह काम विकसित होता है तब उसकी प्रक्रिया बहुत जटिल होती है। पर जब पूरी बात पता चल जाती है। तो उसके क्रियान्‍वित करने की जो व्‍यवस्‍था है वह बिलकुल सिम्पलीफाइड़ और सरल जो जाती है।
     अब इससे सरल क्‍या होगा की आप बटन दबा देते है और बिजली जल जाती है। लेकिन आप सोच सकते है कि जिसने बिजली बनायी, क्‍या उसने बटन दबाकर बिजली जला ली होगीं। अब इससे सरल क्‍यो होगा कि जो मैं बोल रहा हूं वह रिकार्ड  हो रहा है। कुछ भी तो नहीं करना पड़ रहा है हमें। लेकिन आप सोचते है, इतनी आसानी से वह टेप रिकार्डर बन गया। अगर मुझसे कोई पूछे कि क्‍या करना पड़ता है, तो मैं कहूंगा बोल दो और रिकार्ड हो जाता है। लेकिन इस तरह वह बन नहीं गया है।
      जितना विज्ञान विकसित होता है उतना ही सिम्‍पलीफाइड़ प्रोसेसर, उतनी ही सरल प्रक्रिया  हो जाती है। तभी तो जनता के हाथ में पहुँचती है, नहीं तो जनता के हाथ कभी पहुंच न सकेगी। जनता के हाथ में तो सिर्फ आखिरी नतीजे पहुंचते है जिनसे वह काम करना शुरू कर देती है।
      धर्म के मामले में भी यही होता है। जब धर्म की कोई खोज होती है, जब महावीर कोई सूत्र खोजते है, तो आप ऐसा मत सोचना कि सरलता से मिल जाता है। महावीर का तो पूरा जीवन दांव पर लगता है, लेकिन जब आपको मिलता है तब बिलकुल सरलता से मिल जाता है। तब तो आपको भी बटन दबाने जैसा ही मामला होता है। और यही कठिनाई भी है,क्‍योंकि आखिर में खोजने वाला तो खो जाता है बटन आपके हाथ में रह जाता, जिसको आप एक्स प्लेन नहीं कर पात। फिर आप नहीं बता पाते कि कैसे करेंगे, इससे काम होगा कैसे?
      अभी रूस और अमरीका दोनों के वैज्ञानिक इस बात में उत्‍सुक है कि किसी भी तरह बिना किसी माध्‍यम के विचार संक्रमण के टेलीपैथी से सूत्र खोज लिए जाएं। क्‍योंकि जब से लूना खो गया है उसके रेडियो के बंद हो जाने से यह खतरा  खड़ा हो गया है कि मशीन पर अंतरिक्ष में भरोसा नहीं किया जा सकता हे। अगर रेडियो बंद हो गया तो हमारे यात्री सदा के लिए खो जाएंगे, फिर उनसे हम कभी संबंध ही न बना पाएंगे। हो सकता है, वह कोई ऐसी चीजें भी जान लें जो बताना चाहें लेकिन हमसे कोई संबंध नही पाएगा। तो आल्‍टरनेट सिस्टम की जरूरत है कि जब मशीन बंद हो जाए तो भी विचार  का संक्रामण हो सके।
      इसलिए रूस और अमरीका दोनों के वैज्ञानिक टेलीपैथी के लिए भारी रूप से उत्‍सुक है। अमरीका ने एक छोटा सा कमीशन बनाया है जो तीन साल, चार साल सारी दुनिया में घूमा। उस कमीशन ने जो रिपोर्ट दी वह बहुत घबड़ाने वाली है, लेकिन वह सब रिचुअल मालूम होता है। क्‍योंकि उसने देख कि ऐसी घटनाएं घटती है। लेकिन कैसे घटती है यह वह करने वाले भी नहीं बता सकते।
      उसने लिखा है कि अमरीका में एक छोटा सा कबीला बड़ी हैरानी का काम करता है। हर गांव में  एक छोटा सा वृक्ष हो ता है एक खास जाति का, जिससे मैसेज भेजने का काम लिया जाता है--वृक्ष से। पति गांव गया हुआ है बाजार में सामान लेने, पत्‍नी को ख्‍याल आ गया कि वह फलां सामान तो भूल गई, तो जाकर उस वृक्ष को कह देती है कि देखो वहां फलां सामान जरूर ले आना। वह मैं सेज डिलीवर हो जाता है। वह आदमी सांझ को लौटता है तो वह सामान ले आता है। कमीशन के लोगों ने देखा, वह तो घबरा देने जैसी बात थी।
      हम फोन देखकर नहीं घबड़ाते। हम फोन पर बात करते नहीं घबड़ाते। ऐ आदिवासी देखकर घबड़ा जाता है। कि यह क्‍या मामला है, आप किससे बात कर रहे है। हम बात कर रहे है, क्‍योंकि हमें पूरी सिस्‍टम का ख्‍याल है इसलिए हम नहीं घबड़ाते। वायर लेस से हम बात करते है, तो भी हम नहीं घबड़ाते क्‍योंकि सिस्टम का हमें पता है। और वह परिचित है।
      पर यह जानकर हैरान होते है कि इस वृक्ष से कैसे संवाद हो रहा है। उस कमीशन के लोगों ने दो-चार दिन सब तरह के प्रयोग करके देख लिए। उन स्‍त्रियों से पूछा, गांव के लोगों से पूछा। उन्‍होंने कहां, यह तो हमें पता नहीं लेकिन ऐसा सदा होता है। यह वृक्ष की शाखा को लगाते चले जाते है, यहीं एक सनातन नियम है। इसको हमारे बाप-दादों ने और उनके बाप-दादों ने, सबने इसका उपयोग किया। यह सदा से ही काम दे रहा है, यह क्‍या होता है।
      यह वैज्ञानिक की पकड़ के एकदम बाहर की बात हे। और जो कर रहा है, उसको भी पता नहीं है। इस वृक्ष की प्राण ऊर्जा का टेलीपैथी के लिए उपयोग किया जा रहा है। यह कैसे किया गया शुरू, और यह वृक्ष कैसे राज़ी हुआ कैसे इस वृक्ष ने काम करना शुरू कर दिया। और हजारों साल से कर रहा है काम, यह उस गांव के लोगों को कुछ नहीं पता । वह ‘’कुंजी’’  तो खो गयी हे, जिसने आविष्‍कार किया होगा। उसने किया होगा, पर वह काम ले रहे है उस वृक्ष से, उस वृक्ष को लगाए चले जा रहे है।
      अब बुद्ध के बोधि-वृक्ष को बौद्ध नहीं मरने देते। यह इस वृक्ष की बात समझकर आपको ख्‍याल में आ सकेगा कि उसका कुछ उपयोग है। जिस बोधि-वृक्ष के नीचे बुद्ध को ज्ञान हुआ, उसको मरने नहीं दिया गया। असली सूख गया, तो उसकी शाखा अशोक ने भेज दी श्री लंका में, तो वहां वह वृक्ष था। अभी उसकी शाखा को फिर लाकर पुन: आरोपित कर दिया, लेकिन वही वृक्ष कंटीन्‍यूटी में रखा गया। इस बोध गया के तीर्थ का उपयोग है, वह इस बोधि-वृक्ष पर निर्भर है सब कुछ।
      इस वृक्ष के नीचे बैठकर बुद्ध ने ज्ञान पाया। और जब बुद्ध जैसे व्‍यक्‍ति के ज्ञान की घटना घटती है तो जिस वृक्ष के नीचे बुद्ध बैठे थे वह वृक्ष बुद्ध के बुद्धत्व को पी गया हो तो बहुत हैरानी नहीं है। यह असाधारण घटना है—बुद्ध का बुद्धत्‍व को प्राप्‍त होना, अलौकिक हो जाना है इस व्‍यक्‍ति का उस वक्‍त एक कौंध बिजली पैदा हुई होगी, अगर आकाश से बिजली चमकती है और वृक्ष सूख जाता है तो कोई कारण नहीं है कि बुद्ध में चेतना की बिजली चमके इतना तेज फैले और वृक्ष किन्‍हीं नए अर्थों में जीवंत न हो जाए। वैसा कोई दूसरा वृक्ष
नहीं है।
      बुद्ध के गुप्‍त संदेश थे तभी इस वृक्ष को कभी नष्‍ट नहीं होने दिया गया। और बुद्ध ने कहा था, मेरी पूजा मत करना, इस वृक्ष की पूजा से काम चल जाएगा। इसलिए पाँच सौ साल तक बुद्ध की मूर्ति नहीं बनाई गयी। इस बोधि वृक्ष की मूर्ति बनाकर पूजा चलती थी। पाँच सौ साल बाद तक बुद्ध के जितने मंदिर थे वह बोधि वृक्ष की ही पूजा करते रहे है। जो चित्र है उनमें बुद्ध नहीं है बीच में सिर्फ ऑरा है। बुद्ध का प्रकाश है, बोधि-वृक्ष का जो अपयोग जानते है वे आज भी इस वृक्ष के द्वार बुद्ध से संबंध स्‍थापित कर सकते है।
      तो बोध गया नहीं है मूल्‍यवान मूल्‍य वान वह बोधिवृक्ष  है। उस बोधि वृक्ष के नीचे बरसों तक बुद्ध संक्रमण करते रहे। उनके पैर के पूरे निशान रखे गए है। जब वह ध्‍यान करते-करते थक जाते तो उस वृक्ष के पास घूमने लगते, वह घंटों उस वृक्ष के पास घूमते रहते । बुद्ध किसी के साथ इतने ज्‍यादा नहीं रहे जितने उस वृक्ष के साथ रहे, उस वृक्ष से ज्‍यादा बुद्ध के साथ कोई नहीं रहा। और इतनी सरलता से कोई आदमी रह भी नहीं सकता जितनी सरलता से वह वृक्ष रहा। बुद्ध उसके नीचे सोये भी है। उसके नीचे बैठे है उठे है। बुद्ध इसके आस-पास चले है। बुद्ध ने उससे बातें की होंगी, बुद्ध उससे बोले भी होंगे। उस वृक्ष की पूरी जीवन उर्जा  बुद्ध से आविष्ट है।
      जब अशोक ने भेजा आपने बेटे महेंद्र को लंका तो उसके बेटे ने कहा,मैं भेंट क्‍या ले जाऊँ? उन्‍होंने कहा,और तो कोई भेंट हो भी नहीं सकती इस जगत में एक ही भेंट हमारे पास में है कि तुम इस बोधि-वृक्ष की एक शाखा ले जाओ। तो उस साखा को लगाया गया,आरोपित किया गया। दुनियां में कभी किसी सम्राट ने किसी वृक्ष की शाखा किसी को भेट नहीं दी होगी। वह कोई भेट है, लेकिन सारा लंका आंदोलित हुआ उस साखा की वजह से। और लोग समझते है, महेंद्र ने लंका को बौद्ध बनाया, गलत समझते है। उस शाखा ने बनाया महेंद्र की कोई हैसियत न थी। महेंद्र साधारण हैसियत का आदमी था।
      अशोक की लड़की भी साथ में थी संध मित्रा उन दोनों की उतनी बड़ी हैसियत न थी। लंका का कन्‍वर्शन इस बोधि-वृक्ष की शाखा के द्वारा किया गया कन्‍वर्शन है। यक बुद्ध  के ही सीक्रेट संदेश थे कि लंका में इस वृक्ष की शाखा पहुंचा दी जाए। ठीक समय की प्रतीक्षा की जाए और ठीक व्‍यक्‍ति की। और जब ठीक व्‍यक्‍ति आ जाए तो इसको पहुंचा दिया गया। क्‍योंकि इसी से वापस किसी दिन हिंदुस्‍तान में फिर इस वृक्ष को लाना पड़ेगा। ये सारी की सारी अंतर् कथाएं है, जिसको कहना चाहिए गुप्‍त इतिहास है जो इतिहास के पीछे चलता है। इनके लिए ठीक व्‍यक्‍तियों का उपयोग करना पड़ता है।
      संध मित्रा और महेद्र दोनों बौद्ध भिक्षु थे, बुद्ध के जीवन में थे। हर किसी के साथ नहीं भेजी जा सकती थी वह शाखा। जो बुद्ध के पास जिया हो जिसने जाना हो, और जो इस शाखा को वृक्ष की शाखा मानकर न ले जाए। जीवंत बुद्ध मानकर ले जाए, उसके ही हाथ में दी जा सकती थी। फिर लौटने की भी प्रतीक्षा करनी जरूरी है। उसे वृक्ष को ठीक लोगों के हाथ से वापस आना चाहिए। ठीक लोगों के द्वारा वापस आना चाहिए।
      इस इतिहास के पीछे जो इतिहास है वह बात करने जैसा है। असली इतिहास वहीं है, जहां घटनाओं के मूल स्‍त्रोत घटित होते है। जहां जड़ें होती है। फिर तो घटनाओं का एक जाल है जो ऊपर चलता है। वह असली इतिहास नहीं है। जो अख़बार मैं छपता है और किताब में लिखा जाता है। वह असली इतिहास नहीं है। कभी असली इतिहास पर हमारी दृष्‍टि हो जाए तो फिर इन सारी चीजों का राज समझ में आता हे।
--ओशो  ( मैं कहता आंखन देखी)
‘’गहरे पानी पैठ’’: अंतरंग चर्चा
वुडलैण्‍ड, बम्‍बई, दिनांक—6 जून 1971

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