मैं धर्म क्या कहूं? जो कहा जा सकता है, वह धर्म नहीं होगा। जो विचार के परे है, वह वाणी के अंतर्गत नहीं हो सकता है। शास्त्रों में जो है, वह धर्म नहीं है। शब्द ही वहां है। शब्द सत्य की और जाने के भले ही संकेत हों,पर वे सत्य नहीं है। शब्दों से संप्रदाय बनते है, और धर्म दूर ही रह जाता है। इन शब्दों ने ही मनुष्य को तोड़ दिया है। मनुष्यों के बीच पत्थरों की नहीं, शब्दों की ही दीवारें है।
मनुष्य और मनुष्य के बीच शब्द की दीवारें है। मनुष्य और सत्य के बीच भी शब्द की ही दीवार है। असल में जो सत्य से दूर किए हुए है, वहीं उसे सबसे दूर किए हुए है। शब्दों का एक मंत्र घेरा है और हम सब उसमें सम्मोहित है। शब्द हमारी निद्रा है, और शब्द के सम्मोहक अनुसरण में हम अपने आपसे बहुत दूर निकल गए है।
स्वयं से जो दूर और स्वयं से जो अपरिचित है वह सत्य से निकट और सत्य से परिचित नहीं हो सकता है। यह इसलिए कि स्वयं का सत्य ही सबसे निकट का सत्य है, शेष सब दूर है। बस स्वयं ही दूर नहीं है।
शब्द स्वयं को नहीं जानने देते है। उनकी तरंगों में वह सागर छिप ही जाता है। शब्दों का कोलाहल उस संगीत को अपने तक नहीं पहुंचने देता जो कि मैं हूं। शब्द का धुआं सत्य की अग्नि प्रकट नहीं होने देता है। और हम अपने वस्त्रों को ही जानते-जानते मिट जाते है और उसे नहीं मिल पाते जिसके वस्त्र थे, और जो वस्त्रों में था, लेकिन केवल वस्त्र ही नहीं थ।
मैं भीतर देखता हूं। वहां शब्द ही शब्द दिखाई देते है। विचार, स्मृतियाँ, कल्पनाएं और स्वप्न ये सब शब्द ही है, और मैं शब्द के पर्त-पर्त घेरों में बंधा हूं। क्या मैं इन विचारों पर ही समाप्त हूं, या कि इनसे भिन्न और अतीत भी मुझमें कुछ है। इस प्रश्न के उतर पर ही सब कुछ निर्भर है। उतर विचार से आया तो मनुष्य धर्म तक नहीं पहुंच पाता,क्योंकि विचार से अतीत को नहीं जान सकता। विचार की सीमा विचार है। उसके पार की गंध भी उसे नहीं मिल सकती है।
साधारणत: लोग विचार से ही वापिस लौट आते है। वह अदृष्य दीवार उन्हें वापिस कर देती है। जैसे कोई कुंआ खोदने जाए और कंकड़-पत्थर को पाकर निराश हो रूक जाए। वैसा ही स्वयं की खुदाई में भी हो जाता है। शब्दों के कंकड़ पत्थर ही पहले मिलते है और वह स्वाभाविक ही है। वे ही हमारी बाहरी पर्त है। जीवन यात्रा में उनकी ही धूल हमारा आवरण बन गई है।
आत्मा को पाने को सब आवरण चीर देने जरूरी है। वस्त्रों के पास जो नग्न सत्य है, उस पर ही रूकना है। शब्द को उस समय तक खोदे चलना है, जब तक कि निशब्द का जल स्त्रोत उपलब्ध नहीं हो जाए। विचार की धूल को हटाना है, जब तक कि मौन का दर्पण हाथ न आ जाए। यह खुदाई कठिन है। यह वस्त्रों को उतारना ही नहीं है, अपनी चमड़ी को उतारना है। यही तप है।
प्याज को छीलते हुए देखा है, ऐसा ही अपने को छीलना है। प्याज में तो अंत में कुछ भी नहीं बचता है, अपने में सब कुछ बच रहता है। सब छीलनें पर जो बच रहता है, वही वास्तविक है। वहीं मेरी प्रामाणिक सत्ता है। वह मेरी आत्मा है।
एक-एक विचार को उठाकर दूर रखते जाना है, और जानना है कि यह मैं नहीं हूं। और इस भांति गहरे प्रवेश करना है। शुभ या अशुभ को नहीं चुनना है। वैसा चुनाव वैचारिक ही है, और विचार के पार नहीं ले जा सकता है। यहीं नीति और धर्म अलग रास्तों के लिए हो जाते है। निति अशुभ विचारों के विरोध में शुभ विचारों का चुनाव है। धर्म चुनाव नहीं है। वह तो उसे जानना है, जो सब चुनाव करता है। और सब चुनावों के पीछे है। यह जानना भी हो सकता है। जब चुनाव का सब चुनाव शून्य हो और केवल वहीं शेष रह जाए तो हमार चुनाव नहीं है वरन हम स्वयं है।
विचार के तटस्थ, चुनाव शून्य निरीक्षण से विचार शून्यता आती है। विचार तो नहीं रह जाते, केवल विवेक रह जाता है। विषय-वस्तु तो नहीं होती, केवल चैतन्य मात्र रह जाता हे। इसी क्षण में प्रसुप्त प्रज्ञा का विस्फोट होता है। और धर्म के द्वार खुल जाते है।
इसी उद्घाटन के लिए मैं सबको आमंत्रित करता हूं। शस्त्र जो तुम्हें नहीं दे सकते, वह स्वयं तुम्हीं में है। और तुम्हें जो कोई भी नहीं दे सकता, उसे तुम अभी और इसी क्षण पा सकते हो। केवल शब्द को छोड़ते ही सत्य अपलब्ध होता है।
--ओशो
‘’मैं कौन हूं? से संकलित क्रांति सूत्र
1966-67
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