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गुरुवार, 27 मई 2010

ज्‍योतिष: अद्वैत का विज्ञान—8(अन्‍तिम)

 
ज्‍योतिष सिर्फ नक्षत्रों का अध्‍ययन नहीं हे। वह तो है ही वह तो हम बात करेंगे—साथ  ही ज्‍योतिष और अलग-अलग आयामों से मनुष्‍य के भविष्‍य को टटोलने की चेष्‍टा है कि वह भविष्‍य कैसे पकड़ा जा सके। उसे पकड़ने के लिए अतीत को पकड़ना जरूरी है। उसे पकड़ने के लिए अतीत के जो चिन्‍ह है, आपके शरीर पर और आपके मन पर भी छुट गये है। उन्‍हें पहचानना जरूरी हे।  और जब से ज्‍योतिषी शरीर के चिन्‍हों पर बहुत अटक गए है तब से ज्‍योतिष की गिराई खो गई है, क्‍योंकि शरीर के चिन्‍ह बहुत उपरी है।
      आपके हाथ की रेखा तो आपके मन के बदलने से इसी वक्‍त भी बदल सकती हे। आपके आयु की जो रेखा है, अगर आपको भरोसा दिलवा दिया जाए हिप्रोटाइज करके की आप पन्‍द्रह दिन बाद मर जाएंगे और आपको रोज बेहोश करके पन्‍द्रह दिन तक यह भरोसा पक्‍का बिठा दिया जाए की आप पन्‍द्रह दिन बाद मर जाओगे, आप चाहे मरो या न मरो, आपके उम्र की रेखा पन्‍द्रह दिन के समय पहुंचकर टूट जाएगी। आपकी अम्र की रेखा में गैप आ जाएगा। शरीर स्‍वीकार कर लेता है कि ठीक है, मौत आती है।
      शरीर पा जो रेखाएं है वह तो बहुत ऊपरी घटनाएं है। भीतर गहरे में मन है और जिस मन को आप जानते है वही गहरे में नहीं है। वह तो बहुत ऊपर है बहुत गहरे तो वह मन है जिसका आपको पता नहीं है। इस शरीर में भी गहरे में जो चक्र है, जिनको योग चक्र कहते है, वह चक्र आपकी जन्‍मों-जन्‍मों की संपदा की संग्रहीत रूप है। आपके चक्र पर हाथ रखकर जो जानता है वह जान सकता है कि कितनी गति है उस चक्र की। आपके सातों चक्रों को छूकर जाना जा सकता है कि आपने कुछ अनुभव किए है कभी या नहीं।
      मैं सैकड़ों लोगों के चक्रों पर प्रयोग किया हे। तो मैं हैरान हुआ कि एकाध या ज्‍यादा से ज्‍यादा दो चक्रों के सिवाय, आमतौर से तीसरा चक्र शुरू ही नहीं होता, उसने गति ही नहीं की है कभी, वह बन्द ही पडा है। उसका कभी आपने उपयोग ही नहीं किया। तो वह आपका अतीत है। उसे जानकर अगर एक आदमी मेरे पास आए और मैं देखू कि उसके सातों चक्र चल रहे है तो उससे कहा जा सकता है कि यह तुम्‍हारा अंतिम जीवन है, अगला जीवन नहीं होगा। क्‍योंकि सात चक्र चल गए हों तो अगले जीवन का अब कोई उपाय नहीं है। इस जीवन में निर्वाण हो जाएगा, मुक्‍ति हो जाएगी।
      महावीर के  पास कोई आता तो वे फिक्र करते इस बात की कि उस आदमी के कितने चक्र चल रहे है। उसके साथ कितनी मेहनत करनी उचित है, क्‍या हो सकेगा उसके साथ, मेहनत करने का कोई परिणाम होगा या नहीं होगा। यहाँ कब हो पाएगा? या कितने जन्‍म लगेंगे, भविष्‍य को टटोलने की चेष्‍टा है ज्‍योतिष—अनेक-अनेक मार्गों से। उनमें एक मार्ग जो सर्वाधिक प्रचलित हुआ,वह ग्रह नक्षत्रों का प्रभाव मनुष्‍य के ऊपर—उसके लिए वैज्ञानिक आधार रोज-रोज मिलते चले जाते है। इतना तय हो गया है कि जीवन प्रभावित है। और जीवन अप्रभावित नहीं हो सकता है।
      दूसरी बात ही कठिनाई की रह गयी—क्‍या व्‍यक्‍तिगत रूप से? क्‍या एक-एक व्‍यक्‍ति भी प्रभावित है। यह जरा चिन्‍ता वैज्ञानिकों को लगती है कि एक-एक व्‍यक्‍ति—तीन अरब, साढ़े तीन अरब, चार अरब आदमी है जमीन पर है। क्‍या एक-एक आदमी अगल-अलग ढंग से..., लेकिन उनको कहना चाहिए यह इतनी परेशानी की बात क्‍या है।
      अगर प्रकृति एक-एक आदमी को अलग-अलग ढंग का अंगूठा दे सकती है। इंडीवहजुअल और पुनरूक्‍ति नहीं करती है—इतनी बारीकी से हिसाब रख सकती है प्रकृति कि एक-एक आदमी को जो अंगूठा देती है वह इंडीवीजुअल, उसकी छाप किसी दूसरे आदमी की छाप फिर कभी नहीं होती। अभी ही नहीं कभी नहीं होती। जमीन पर अरबों आदमी रहे है और अरबों आदमी रहेंगे लेकिन मेरे अंगूठे की जो छाप है वह दोबारा फिर नहीं होगी।
      आप हैरान होंगे, मैंने एक अंडे के दो जुड़ाव बच्‍चों की बात कही। उनके भी अंगूठे एक जैसे नहीं होते। उनके भी दोनों अँगूठों का छाप अलग होती है। अगर प्रकृति एक-एक आदमी को इतना व्‍यक्‍तित्‍व दे पाती है। अंगूठे जैसी बेकार चीज को हम सबको, जो बेकार ही है, कुछ खास प्रयोजन का नहीं मालूम पड़ता उसको इतनी विशिष्‍टता दे पाती है तो एक-एक व्‍यक्‍ति को आत्‍मा और जीवन विशिष्‍ट न दे पाए, कोई कारण नहीं मालूम होता। पर विज्ञान बहुत धीमी गति से चलता है और ठीक है, वैज्ञानिक होने के लिए उतनी धीमी गति ठीक है। जब तक तथ्‍य पूरी तरह सिद्ध न हो जाएं तब तक इंच भी आगे सरकना उचित नहीं है।
      प्रोफट्स, पैगंबर तो छलाँगें भर लेते है। वह हजारों, लाखों साल बाद तो तय होगी उसकी कह देते है। विज्ञान तो एक-एक इंच सरकता है। अब प्राइमरी स्‍कूल के बच्‍चे में जो बात आ सके—वहीं बात, वह बात नहीं जो कि प्रोफट्स और विज़नरीज़—सपने देखन वाले लोग जो दूर-दूर की चीजें देख लेते है उनकी समझ में आ सकें—उतनी बात,नहीं, उससे विज्ञान का उतना प्रयोजन नहीं है। तथ्‍य–प्रयोगित तथ्‍य पर ही उसकी दृष्‍टि है। सपने देखने की उसे सुविधा नहीं हे। पर पैगम्‍बर तो सपनों में भी सत्‍य को खोल लेते है। उनके लिए तो भविष्‍य भी वर्तमान का ही फैलाव है।
      ज्‍योतिष मूलत: चूंकि भविष्‍य की तलाश है। और विज्ञान चूंकि मूलत: अतीत की तलाश है—विज्ञान इसी बात की खोज है कि काज क्‍या है, कारण क्‍या है ज्‍योतिष इसी बात की खोज है कि एफेक्ट क्‍या होगा। परिणाम क्‍या होगा? इन दोनों के बीच बड़ा भेद है। इन दोनों के बीच बड़ा भेद है। लेकिन फिर भी विज्ञान को रोज-रोज अनुभव होता है। कुछ बातें  जो अनहोनी लगती थी, लगती थीं—कभी सही नहीं हो सकतीं, वह सही होती हुई मालूम पड़ती है।
      जैसा मैंने पीछे आपको कहा, अब वैज्ञानिक इसको स्‍वीकार कर लिए है कि प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति अपने जन्‍म के साथ बिल्‍ट-इन अपना व्‍यक्‍तित्‍व लेकर पैदा होता है। इसको पहले वह मानने को राज़ी नहीं थे। ज्‍योतिष इसे सदा से कहता रहा है। जैसे समझो, एक बीज है—आम का बीज, आम के बीज के भीतर किसी न किसी रूप में जब हम आम के बीज को वो देंगे तो जो वृक्ष पैदा होता है उसकी बिल्‍ट-इन प्रोग्राम होना चाहिए। उसका ब्ल्यू प्रिंट होना चाहिए—नहीं,  तो यह आम का बीज बेचारा......न कोई विशेषज्ञों की सलाह लेता हे, न किसी यूनिवर्सिटी में शिक्षा पाता है।
      यह आम के वृक्ष को कैसे पैदा कर लेता है। फिर इसमें वैसे ही पत्‍ते जाते है, फिर इसमें वैसे ही आम लग जाते है। इस बीज, गुठली के भीतर छिपा हुआ कोई पूरा का पूरा प्रोग्राम चाहिए,नहीं तो बिना प्रोग्राम के यह बीज क्‍या कर पायेगा। इसके भीतर सब मौजूद चाहिए । जो भी वृक्ष में होगा वह कहीं न कहीं छिपा ही होना चाहिए। हमें दिखाई नहीं पड़ता काट पीट कर हम देख लेते है। कहीं दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन होना तो चाहिए। अन्‍यथा आम के बीज से फिर नीम निकल सकती है। भूल-चूक हो सकती है। लेकिन कभी भूल-चूक होती दिखाई नहीं पड़ती। आम ही निकल आता है सब रिपिट हो जाता है फिर वही पुनरुक्त रह जाता है।
      इस छोटे से बीज में अगर सारी की सारी सूचनाएं छिपी हुई नहीं है कि इस बीज को क्‍या करना है , कैसे अंकुरित होना है, कैसे पत्‍ते, कैसे शाखाएं, कितना बड़ा वृक्ष, कितनी उम्र का वृक्ष, कितना ऊँचा उठना है। यह सब इस में छिपा होना चाहिए। कितने फल लगेंगे, कितने मीठे होंगे पकें गे कि नहीं पकें गे, यह सब इसके भीतर छिपा होना चाहिए। अगर आम के बीज के भीतर यह सब छिपा है तो आप जब मां के पेट में आते है तो आपके बीज में सब छिपा नहीं होगा।
      अब वैज्ञानिक स्‍वीकार करते है कि आँख का रंग छिपा होगा,बाल का रंग छिपा होगा। शरीर की ऊँचाई छिपी होगी। स्‍वास्‍थ्‍य-अस्‍वास्‍थ्‍य की सम्‍भावनाएं छिपी होगी। बुद्धि का अंक छिपा होगा, क्‍योंकि इसके सिवाय कोई उपाय नहीं है कि आप विकसित कैसे होंगे। आपके पास अग्रिम प्रोग्राम चाहिए—कोई हड्डी कैसे हाथ बन जाएगी, कोई हड्डी कैसे पैर बन जाएगी। चमड़ी का एक हिस्‍सा आँख बन जाएगा, एक हिस्‍सा कैसे कान बन जायेगा। एक हड्डी सुनने लगेगी,एक हड्डी देखने लगेगी। ये सब कैसे होगा?
      वैज्ञानिक पहले कहते थे, सब संयोग है, लेकिन संयोग शब्‍द बहुत अवैज्ञानिक मालूम पड़ता हे। संयोग का मतलब है चांस, तो फिर कभी पैर देखने लगे और कभी हाथ सुनने लगे। और इतना संयोग नहीं मालूम पड़ता। इतना व्‍यवस्‍थित मालूम पड़ता है...ज्‍योतिष ज्‍यादा वैज्ञानिक बात कहता है। ज्‍योतिष कहता है। सब बीज को उपलब्‍ध है। हम अगर बीज को पढ़ पाये,अगर हम डी-कोड कर पाएँ, अगर हम बीज से पूछ सकें कि तेरे इरादे क्‍या हे—तो हम आदमी के बाबत भी पूर्व घोषणाएँ कर सकते है।
      वृक्ष के बाबत तो वैज्ञानिक घोषणाएँ करने लगें है। बीस साल में आदमी के बाबत बहुत सी घोषणाएँ वे करने लगेंगे। और अब तक हम सब समझते रहे कि सूपरस्‍टीटस है ज्‍योतिष, एक विश्‍वास मात्र हे। लेकिन यदि घोषणाएँ विज्ञान करेगा तो वह ज्‍योतिष भी हो जाएगा। और विज्ञान घोषणा करने लगेगा। बहुत पुराने ज्‍योतिषी, ज्‍योतिष का पुराने से पुराना इजिप्‍शियन एक ग्रंथ है जिसको पाइथागोरस ने पढ़कर और यूनान में ज्‍योतिष को पहुंचाया।    
      यह ग्रंथ कहता है—काश हम सब जान सकें, तो भविष्‍य बिलकुल नहीं है। चूंकि हम सब नहीं जानते कुछ ही जानते है—इसलिए जो हम नहीं जानते,वह भविष्‍य बन जाता है। हमें कहना पड़ता है, शायद ऐसा हो, क्‍योंकि बहुत कुछ है जो अनजाने है। अगर सब जाना हुआ हो तो हम कह सकते है कि ऐसा ही होगा। फिर इस में रति भर फर्क नहीं होगा। आदमी के बीज में भी अगर सब छिपा है।
      आज मैं जो बोल रहा हूं किसी न किसी रूप में मेरे बीज में संभावना होनी चाहिए थी। अन्‍यथा मैं यह कैसे बोलता। अगर किसी दिन सह सम्‍भावना हो सकी और हम आदमी के बीज को देख सकें तो मेरे बीज को देखकर मैं क्‍या बोल सकूंगा जीवन में उसकी घोषणा की जा सकती हे। और कोई आश्‍चर्य नहीं है कि हम आज नहीं कल आदमी के बीज में झांकने में समर्थ हो जाएं।
      जन्‍म कुंडली या होरोस्‍कोप उसका ही टटोलना है। हजारों वर्ष से हमारी कोशिश यही है कि जो बच्‍चा पैदा हो रहा है वह क्‍या हो सकता हे। या क्‍या हो सकेगा? हमें कुछ तो अन्‍दाज मिल जाए तो हम उसे शायद हम उसे सुविधा दे पाएँ। शायद हम उससे आशाएं बाँध पाएँ। जो होने वाला है, उसके साथ हम राज़ी हो जाएं।
      मुल्‍ला नसीरुद्दीन ने अपने जीवन के अन्‍त में कहा है कि मैं सदा दुःखी था। फिर एक दिन मैं अचानक सुखी हो गया। गांव भर के लोग चकित हो गए कि जो आदमी सदा दुःखी था और जो आदमी हर चीज का अँधेरा देखता था वह अचानक प्रसन्‍न कैसे हो गया। जो हमेशा पोसिमिस्‍ट था, जो हमेशा देखता था कि कांटे कहां-कहां है।
      एक बार मुल्‍ला नसीरुद्दीन के बग़ीचे में बहुत अच्‍छी फसल आ गई। सेब बहुत लगे। ऐसे कि वृक्ष लद गए। पड़ोस में एक आदमी ने पूछा, सोचा उसने कि आब तो नसीरुद्दीन कोई शिकायत न कर सकेगा। कहां कि इस बार तो फसल ऐसी है कि सोना बरस जायेगा, क्‍या नसीरुद्दीन ने बड़ी उदासी से कहा: और सब तो ठीक है लेकिन जानवरों को खिलाने के लिए सड़े सेब कहां से लाएँगें?  उदास बैठा है वह, जानवरों को खिलाने के लिए सड़े सेब कहां से लाओ गे, सब सेब अच्‍छे है कोई सड़ा हुआ ही नही,ये भी एक मुसीबत।
      वह आदमी एक दिन अचानक प्रसन्‍न हो गया तो गांव के लोगों को हैरानी हुई तो गांव के लोगों ने पूछा कि तुम और प्रसन्‍न–नसीरुद्दीन, क्‍या राज है इसका नसीरुद्दीन ने कहां आई हेवँ लर्न्‍ट टु कोआपरेटिव विद दी इनइवीटेबल। वह जो अनिवार्य है मैं उसके साथ सहयोग करना सीख गया हूं। बहुत दिन लड़कर देख लिया। अब मैंने यह तय कर लिया है कि जो होना है, होना है। अब मैं सहयोग करता हूं। इनइवीटेबल के साथ—जो अनिवार्य है उसके साथ सहयोग करता हूं। अब दुःख को कोई कारण न रहा। अंग मैं सुखी हूं।
      ज्‍योतिष बहुत बातों की खोज थी। उसमें जो अनिवार्य है, उसके साथ सहयोग—वह जो होने ही वाला है, उसके साथ व्‍यर्थ का संघर्ष नहीं, जो नहीं होने वाला है उसकी व्‍यर्थ की मांग नहीं, उसकी आकांशा नहीं, ज्‍योतिष मनुष्‍य को धार्मिक बनाने      के लिए, तथाता में ले जाने के लिए, परम स्‍वीकार में ले जाने के लिए उपाय था। उसके बहु आयाम है।
      हम धीरे-धीरे एक-एक आयाम पर बात करेंगे। आज तो इतनी बात, कि जगत एक जीवंत शरीर है, आर्गैनिक यूनिटी है—उसमें कुछ भी अलग-अलग नहीं है—सब संयुक्‍त है। दुर से दूर जो है वह भी निकट से निकट जुड़ा है-- इसलिए कोई इस भ्रांति में न रहे कि वह आईसोलेटेड आइलैंड है। कोई इस भ्रांति में न रहे कि कोई एक द्वीप है छोटा सा—अलग-थलग।
      नहीं कोई अलग-थलग नहीं है सब संयुक्‍त है और हम पूरे समय एक दूसरे को प्रभावती कर रहे है। और एक दूसरे से प्रभावित हो रहे है। सड़क पर पडा हुआ पत्‍थर भी, जब आप उसके पास से गुजरते है तो आपकी तरफ किरणें फेंक रहा है। फूल भी फेंक रहा है, और आप भी ऐसे नहीं गुजर रहे है, आप भी अपनी किरणें फेंक रहे है।
      मैंने कहा कि चाँद-तारों से हम प्रभावित होते है। ज्‍योतिष का और दूसरा ख्‍याल है कि चाँद-तारे भी हमारे प्रभावित होत है, क्‍योंकि प्रभाव कभी भी एक तरफा नहीं होता। जब कभी बुद्ध जैसा आदमी जमीन पर पैदा होता है तो चाँद यह न सोचे कि चाँद पर उनकी वजह से कोई तूफान नहीं उठते। बुद्ध की वजह से कोई तूफान चाँद पर शांत नहीं होते। अगर सूरज पर धब्‍बे आते है और तूफान उठते है। तो जमीन पर बीमारियां फैल जाती है। तो जमीन पर जब बुद्ध जैसे व्यक्ति पैदा होते है। और शांति की धारा बहती है। और ध्‍यान का गहन रूप पृथ्‍वी पर पैदा होता है। तो सूरज पर भी तूफान फैलने में कठिनाई होती है—सब संयुक्‍त है।
      एक छोटा सा घास का तिनका भी सूरज को प्रभावित करता है। और सूरज भी घास के तिनके को प्रभावित करता हे। न तो घास का तिनका इतना छोटा है कि सूरज कहे कि जा हम तेरी फ्रिक नहीं करते। और न सूरज इतना बड़ा है कि यह कह सके कि घास का तिनका मेरे लिए क्‍या कर सकता हे। जीवन संयुक्‍त है।
      यहां छोटा-बड़ा कोई भी नहीं है। एक आर्गैनिक यूनिटी है—इस एकात्‍म का बोध अगर ख्‍याल में आए तो ही ज्‍योतिष समझ में आ सकता है। अन्‍यथा ज्‍योतिष समझ में नहीं आ सकता हे।
      इस पर मैंने यह आज बात कही, कल आयामों पर हम धीरे-धीरे बातें करेंगे।
--ओशो
ज्‍योतिष: अद्वैत का विज्ञान,
वुडलैण्‍ड, बम्‍बई,  दिनांक 9 जुलाई 1971   

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