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बुधवार, 1 सितंबर 2010

बुद्धों के शरीर से--काम वासना कैसे तिरोहित हो जाती है?(1)

बहुत सारी चीजें समझने जैसी है।
      पहली: कामवासना भोजन की भांति कोई सामान्‍य जरूरत नहीं है। वह बहुत असामान्‍य होती है। यदि भोजन तुम्‍हें नहीं दिया जाता है तो तुम मर जाओगे, लेकिन बिना काम वासना के तुम जी सकते हो। यदि पानी तुम्‍हें नहीं दिया जाता है तो शरीर मर जाएगा। लेकिन बिना कामवासना के तुम जी सकते हो। यदि वायु तुम्‍हें नहीं मिलती है तो तुम मर जाओगे कुछ पलों के भीतर ही। लेकिन कामवासना के बिना भी तुम जी सकते हो जीवन भर।
      यह पहला भेद है, और क्‍यों है ऐसा? क्‍योंकि कामवासना बुनियादी तौर से व्‍यक्‍ति की जरूरत नहीं है, यदि कामवासना पर रोक लगा दी जाये तो जाति मर जायेगी, लेकिन तुम तो नहीं मरोगे। मानव मर जायेगा। वह व्‍यक्‍तिगत नहीं, बल्‍कि सामूहिक है। कामवासना जाति की आवश्‍यकता है। किसी व्‍यक्‍ति की नहीं। यदि हम कोई ब्रह्मचारी बन जाए तो मनुष्‍यता तिरोहित हो जाएगी। लेकिन तुम जीओगे। लेकिन तुम सत्‍तर वर्ष या उससे भी ज्‍यादा जी सकते हो। क्‍योंकि तुम ज्‍यादा उर्जा बचा लोगे। वह व्‍यक्‍ति जिसे सत्‍तर वर्ष जीना था शायद सो वर्ष जिये बिना कामवासना के। क्‍योंकि उसकी उर्जा सुरक्षित रखी रह जायेगी। लेकिन कामवासना के बिना जाति मर जायेगी।
      यह पहला भेद है : भोजन की आवश्‍यकता होती है तुम्‍हारे लिए, कामवासना की आवश्‍यकता होती है दूसरों के लिए।  कामवासना की जरूरत है भविष्‍य में आने वाली पीढ़ियों के लिए। तुम तो आ ही चुके हो, इसलिए कोई समस्‍या नहीं। तुम्‍हारे आने के लिए तुम्‍हारे माता-पिता को जरूरत थी कामवासना की। यदि वे ब्रह्मचारी रहे होते, तो तुम यहां नहीं होते, लेकिन वे तो जी लिए होते। उनके लिए यह कोई समस्‍या नहीं रही होती। वे तो ज्‍यादा बेहतर ढंग से ही जी लिए होते, क्‍योंकि तुमने बना दी उनके लिए बहुत सारी तकलीफ।
      इसलिए प्रकृति ने तुम्‍हें कामवासना के लिए इतना गहरा सम्‍मोहन दिया है। वरना मनुष्‍यता तो तिरोहित हो जाएगी। प्रकृति ने तुम्‍हें कामवासना के प्रति पूरी तरह सम्‍मोहित कर दिया है—वह तुम्‍हें धक्‍के देती है। तुम जाल से बच निकलने की कोशिश करते हो। और तुम जाल में फंसा हुए अनुभव करते हो। जो कुछ तुम करते, जहां कहीं भी तुम जाते,कामवासना तुम्‍हारा पीछा करती है। प्रकृति तुम्‍हें निकलने नहीं दे सकती। वरना कामवासना स्‍वयं में इतनी असुंदर क्रिया है कि यदि तुम्‍हें स्‍वतंत्रता दे दी जाये, तब मैं नहीं समझता कि कोई चूनेगा उसे। वह जबरदस्‍ती लादी हुई प्रक्रिया है प्रकृति की और से।
      क्‍या तुमने कभी स्‍वयं के संभोग करने के बारे में सोचा है?—कितनी असुंदर लगती है ये बात। इसलिए लोग स्‍वयं को छुपा लेते है जब वे संभोग करते है। वे एकांत चाहते है, ताकि कोई देखे नहीं उनकी तरफ। लेकिन जरा सोचो, स्‍वयं की कल्‍पना करो संभोग करते हुए। सारी बात बेतुक, मूढ़ता भरी मालूम पड़ती है। क्‍या कर रहे होते हो तुम? यदि तुम्‍हारे भी उसे करने का कोई सम्‍मोहन नहीं होता तो कोई न करता वैसा। लेकिन तुम्‍हें प्रकृति ऐसा नहीं करने दे सकती। इसलिए प्रकृति ने इसके लिए तुम्‍हें एक गहन सम्‍मोहन दे दिया है। यह रासायनिक होता है, यह हार्मोन होता है। खून की धारा में खास हार्मोन बह रहे हैं, जो तुम्‍हें मजबूर कर देते है।
      अब जीव शास्‍त्री कहते है कि यदि वे हार्मोन तुम में से निकाले जा सकें,तो कामवासना तिरोहित हो जाएगी। तुम्‍हें उन हार्मोन के इंजेक्‍शन दिए जा सकते है। और काम-आकांक्षा बहुत शक्‍तिशाली हो जाती है। सत्‍तर या अस्‍सी वर्ष के वृद्ध व्‍यक्‍ति में भी, जिसका कि शरीर अब कामवासना में उतरने के योग्‍य भी नहीं रहा होता, हार्मोन के इंजेक्‍शन दिए जा सकते है और वह किसी मूढ़ युवा व्‍यक्‍ति की भांति व्‍यवहार करना शुरू कर देगा। वह पीछे पड़ जायेगा स्‍त्रियों के। वह शायद होगा व्‍हीलचेयर में,लेकिन तो भी वह पीछे जाएगा स्‍त्रियों के। ऐसा नहीं है कि व्‍यक्‍ति पीछा कर रहा होता है। वह तो शरीर के हार्मोन का रासायनिक तंत्र ही वैसा कर रहा होता है।
      एक बच्‍चा उत्‍पन्‍न होता है, हर्मोन्‍स तैयार नहीं होते है; वह समय लेंगे तैयार होने में। करीब चौदहवें वर्ष में वह कामवासना का आवेग पाने में सक्षम हो जाएगा। उस समय तक कोई समस्‍या नहीं। सेक्‍स-हर्मोन्स परिपक्‍व हो रहे होते है। ग्रंथियां तैयार हो रही होती है। अकस्‍मात चौदहवें वर्ष में फूट पड़ती है और बच्‍चा पागल हो जाता है। वह नहीं समझ सकता कि क्‍या हो रहा है।
      चौदहवें और अठारहवें के बीच की आयु सबसे ज्‍यादा नाजुक होती है। बच्‍चा समझ नहीं सकता कि क्‍या हो रहा है। किसी चीज ने उस पर कब्‍जा कर लिया होता है। वह एक आधिपत्‍य होता है। प्रकृति ने अधिकार जमा लिया होता है। अब तुम तैयार होते हो। अब शरीर तैयार होता है। अब प्रकृति तुम्‍हें बाध्‍य करती है प्रजनन करने को। कल्‍पनाओं की लहरें उठ खड़ी होती है। स्‍वप्‍न होते है, तुम बच नहीं सकते। जहां कहीं तुम देखते हो, यदि तुम पुरूष हो तो तुम केवल स्‍त्री को देख सकते हो; यदि तुम स्‍त्री होते हो, तो केवल पुरूष को देख सकते हो। यह एक तरह का पागलपन होता है। निस्‍संदेह,प्रकृति को निर्मित करना पड़ता है इसे, वरना कोई प्रजनन ही न होगा।
      तुम्‍हारा व्‍यक्‍तिगत जीवन दांव पर नहीं लगता है यदि तुम ब्रह्मचारी हो जाते हो। नहीं, कोई चीज दांव पर नहीं लगती। इसके विपरीत,तुम ज्‍यादा गहन रूप से जीओगे, ज्‍यादा आसानी से। क्‍योंकि ऊर्जा संरक्षित होगी।
      इसलिए पूरब के लोगों ने इसकी खोज की : उन्‍होंने खोज लिया कि कामवासना मृत्‍यु ज्‍यादा जल्‍दी ले आती है। इसलिए वे लोग जो ज्‍यादा दिन जीना चाहते थे, उन्‍होंने अपने कारण से, अपनी कामवासना को बिलकुल गिरा दिया था। उदाहरण के लिए, हठ योगी जो ज्‍यादा जीना चाहते है। क्‍योंकि उनके पास बड़ी धीमी गति से चलने वाली विधियां होती है। बैलगाड़ी की रफ्तार की विधियां। उन्‍हें पूरा करने के लिए उनको बहुत लंबा समय चाहिए,उन्‍हें लंबा समय चाहिए उनके योग को पूरा करने के लिए। उन्‍होंने कामवासना को गिरा दिया पूरी तरह से। और उन्‍होंने गिरा दिया उसे? उन्‍होंने निर्मित की विशेष मुद्राएं जो शरीर के हर्मोन्स के प्रवाह को बदल देती है। उन्‍होंने निर्मित किए विशेष शारीरिक व्‍यायाम जिसमें वीर्य भी फिर से समाविष्‍ट किया जा सकता था शरीर में।
      उन्‍होंने बहुत सारी विधियां निर्मित कीं काम-उर्जा को आत्‍मसात करने की,क्‍योंकि काम-उर्जा जीवन उर्जा है। बच्‍चा जन्‍मता है इसके कारण। यदि तुम उर्जा को वापस अपने शरीर में समाविष्‍ट कर सकते हो, तो तुम बहुत ज्‍यादा सक्षम हो जाओगे। तुम ज्‍यादा देर जी सकते हो। वस्‍तुत: वृद्धावस्‍था एकदम गिरायी ही जा सकती है। तुम बिलकुल अंतिम समय तक युवा रह सकते हो।
      भेद आस्‍तित्‍व रखते है। भोजन एक व्‍यक्‍तिगत आवश्‍यकता है। यदि तुम इसे बंद करोगे तो तुम मरोगे। कामवासना कोई व्‍यक्‍तिगत जरूरत नही है। यह एक अधिपत्‍य है। यदि तुम रोक दो तो तुम इस कारण बहुत कुछ पाओगे। लेकिन रोकना तीन प्रकार को हो सकता है। तुम दमन कर सकते हो। अपनी इच्‍छा का। लेकिन उससे मदद न मिलेगी। तुम्‍हारी कामवासना विकृत हो जायेगी। इसलिए मैं कहता हूं कि विकृत हो जाने से स्‍वाभाविक होना बेहतर है। जैन मुनि, बौद्ध भिक्षु, ईसाई, कैथोलिक साधु, जो सब जाए होते है। मात्र पुरूष समाज में। पुरूष समूहों में, सौ में से नब्‍बे प्रतिशत या तो हस्‍त मैथुन करने वाले होते है। या फिर होमोसेक्‍सुअल,या समलैंगिक। ऐसा होगा ही, क्‍योंकि कहीं जाएगी ऊर्जा, और वे केवल दमन करते  रहते है। उन्‍होंने हर्मोन्स के तत्‍व को तंत्र को, शरीर के रसायन को रूपांतरित नहीं किया होता। वे नहीं जानते क्‍या करना है। इसलिए वे केवल दमन ही करते है। और फिर दमन बन जाता है एक विकृति। मैं पहले प्रकार की विधियों के विरोध में हूं। स्‍वाभाविक होना बेहतर है। विकृत होने से। क्‍योंकि विकार ग्रसित व्‍यक्‍ति गिर रहा होता है स्‍वाभाविक से नीचे, वह पार नहीं जा रहा होता।
      और यह बात भी जीवन की दूसरे प्रकार की समस्‍याओं की और ले जा सकती है। तुम स्‍त्री से भय भीत हो जाओगे।  क्‍योंकि जिस क्षण वह निकट आती है तुम्‍हारा बदला हुआ रसायन फिर से धारण कर लेगा पुराना ढांचा। एक प्रवाह। स्‍त्री की खास ऊर्जा होती है, स्‍त्री-ऊर्जा चुंबकीय होती है। और बदल देती है तुम्‍हारे शरीर की ऊर्जा को। इसलिए हठ योगी तो भयभीत हो गए स्त्रियों से। वे भाग गए हिमालय की तरफ और गुफाओं की तरफ। भय अच्‍छी चीज नहीं है। और यदि तुम भयभीत होते हो, तो तुम उसमे जा पड़ते हो। यह ऐसा है जैसे एक आदमी अंधा हो जाता है। ताकि वह देख नहीं सके स्‍त्री को, लेकिन कोई ज्‍यादा मदद न मिलेगी उस बात से। तो फिर अंधों में तो काम वासना उठनी ही नहीं चाहिए।
      तीसरे प्रकार की विधि है; ज्‍यादा सजग हो जाना। शरीर को मत बदलना—जैसा कि वह है, अच्‍छा है वह। उसे स्‍वाभाविक बना रहने दो; तुम ज्‍यादा सजग हो जाओ। जो कुछ घटता है मन में और शरीर में तुम सजग हाँ जाओ। स्थूल ओर सूक्ष्‍म पर्तों पर ज्‍यादा से ज्‍यादा होश पूर्ण हो जाओ। बस केवल होश पूर्ण होने से साक्षी होने मात्र से, तुम और ऊंचे से उचे उठते चले जाते हो। और एक क्षण आता है जब मात्र तुम्‍हारी ऊँचाई के कारण, मात्र तुम्‍हारी शिखर चेतना के कारण, घाटी बनी रहती है वहां,लेकिन तुम अब नहीं रहते घाटी के हिस्‍से। तुम उसका अतिक्रमण कर जाते हो। शरीर कामवासनामय बना रहता है, लेकिन तुम वहां नहीं रहते उसका सहयोग देने को। शरीर तो बिलकुल स्‍वभाविक बना रहता है। लेकिन तुम उसके पास जा चुके होते हो। वह कार्य नहीं कर सकता है बिना तुम्‍हारे सहयोग के। ऐसा घटा बुद्ध को।
      इस शब्‍द ‘’बुद्ध’’ का अर्थ है—वह व्‍यक्‍ति जो कि जागा हुआ है। यह केवल गौतम बुद्ध से संबंध नहीं रखता है। बुद्ध कोई व्‍यक्‍तिगत नाम नहीं है। यह चेतना की गुण वता है। क्राइस्‍ट बुद्ध है, कृष्‍ण बुद्ध है, और हजारों बुद्धों का आस्‍तित्‍व रहा है। यह चेतना की एक गुणवता है—और यह गुणवता क्‍या है? जागरूकता। ज्‍यादा ऊंची और ज्‍यादा ऊंची जाती है जागरूकता की लौ और एक क्षण आ जाता है जब शरीर मौजूद होता है—पूरी तरह क्रियान्‍वित और स्‍वाभाविक, संवेदनशील, संवेग वान, जीवंत, लेकिन तुम्‍हारा सहयोग वहां नहीं होता। तुम अब साक्षी होते हो। कर्ता नहीं—कामवासना तिरोहित हो जाती है।

ओशो
पतंजलि: योग-सुत्र—2
प्रवचन—16, श्री रजनीश आश्रम, पूना,
26 अप्रैल,1975,

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