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शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

सात शरीर और सात चक्र— 5

पाँचवाँ शरीर—विशुद्ध चक्र
     पांचवां चक्र है विशुद्ध; यह कंठ के पास है। और पांचवां शरीर है स्‍पिरिचुअल बॉडी—आत्‍म शरीर है। विशुद्ध उसका चक्र है। वह उस शरीर से संबंधित है। अब तक जो चार शरीर की मैंने बात कहीं। और चार चक्रों की, वे द्वैत में बंटे हुए थे। पांचवें शरीर से द्वैत समाप्‍त हो जाता है।
      जैसा मैंने कल कहा था कि चार शरीर तक मेल (पुरूष) और फीमेल (स्‍त्री) का फर्क  होता है। बॉडीज़ (शरीरों) में; पांचवें शरीर में मेल और फीमेल का, स्‍त्री और पुरूष का फर्क समाप्‍त हो जाता है। अगर बहुत गौर से देखें तो सब द्वैत स्‍त्री और पुरूष का है—द्वैत मात्र, डुआलिटि मात्र स्‍त्री-पुरूष के है। और जिस जगह से स्‍त्री पुरूष का फासला खत्‍म होता है। उसी जगह से सब द्वैत खत्‍म हो जाता है।
      पांचवां शरीर अद्वैत है। उसकी दो संभावनाएं नहीं है। उसकी एक ही संभावना है।
      इसलिए चौथे के बाद साधक के लिए बड़ा काम नहीं है, सारा काम चौथे तक है। चौथे के बाद बड़ा काम नहीं है। बस इस अर्थों में विपरीत कुछ भी नहीं है वहां। वहां प्रवेश ही करना है। और चौथे तक पहुंचते-पहुंचते इतनी सामर्थ्‍य इकट्ठी हो जाती है कि पांचवें में सहज प्रवेश हो जाता है। लेकिन प्रवेश न हो और हो, तो क्‍या फर्क होगा? पांचवें शरीर में कोई द्वैत नहीं है। लेकिन कोई साधक जो.....
      एक व्‍यक्‍ति अभी प्रवेश नहीं किया है उसमें क्‍या फर्क है, और जो  प्रवेश कर गया है उसमें....इनमें क्‍या फर्क होगा। वह फर्क इतना होगा कि जो पांचवें शरीर में प्रवेश करेगा उसकी समस्‍त तरह की मूर्छा टूट जायेगी; वह रात भी नहीं सो सकेगा। सोयेगा, शरीर ही सोया रहेगा; भीतर उसके कोई सतत जागता रहेगा। अगर उसने करवट भी बदली है तो वह जानता है, नहीं बदली है तो जानता है; अगर उसने कंबल ओड़ा है तो जानता है—नहीं ओड़ा है तो जानता है। उसका जनना निद्रा में भी शिथिल नहीं होगा; वह चौबीस घंटे जागरूक होगा। जिनका नहीं पांचवें शरीर में प्रवेश हुआ, उसकी स्‍थिति बिलकुल उल्‍टी होगी; वे नींद में तो सोये होंगे ही, जिसको हम जागना कहते है, उसमें भी एक पर्त उनकी सोयी ही रहेगी।
     
आदमी की मूर्छा और यांत्रिका—
      काम करते हुए दिखाई पड़ते है लोग। आप अपने घर आते है, कार का घुमाना बायें और आपके घर के सामने आकर ब्रेक का लग जाना, तो आप यह मत समझ लेना कि आप सब होश में कर रहे है। यह सब बिलकुल आदतन, बेहोशी में होता है। कभी किन्हीं क्षणों में हम होश में आते है, बहुत खतरे के क्षणों में—जब खतरा इतना होता है कि नींद से नहीं चल सकता..कि एक आदमी आपकी छाती पर छुरी रख दे, तब एक सेकेंड को होश में आते है। एक सेकेंड को वह छुरे की धार आपको पांचवें शरीर तक पहुंचा देती है। लेकिन बस, ऐसे दो चार क्षण जिंदगी में होते हैं, अन्‍यथा साधारणत: हम सोये-सोये ही जीते है।
      न तो पति अपनी पत्‍नी का चेहरा देखा है, ठीक से कि अगर अभी आँख बंद करके सोचे तो ख्‍याल कर पाये। नहीं कर पायेंगे—रेखाएं,थोड़ी देर में ही इधर-उधर हट जायेगी। और पक्‍का नहीं हो सकता की यह मेरी पत्‍नी का चेहरा है। जिसको तीस साल से मैंने देखा है। देखा ही नहीं है कभी; क्‍योंकि देखने के लिए भीतर कोई जागा हुआ आदमी होना चाहिए।
      सोया हुआ आदमी, दिखाई पड़ रहा है कि देख रहा है, लेकिन वह देख नहीं रहा है। उसके भीतर तो नींद चल रही है। और सपने भी चल रहे है।
      आप क्रोध करते है और पीछे कहते है, कि पता नहीं कैसे हो गया; मैं तो नहीं करना चाहता था। जैसे ही कोई और कर गया हो। आप कहते  है कि यह मुंह से मेरे गाली निकल गयी, माफ करना, मैं तो नहीं देना चाहता था, कोई जबान खिसक गई होगी। आपने ही गाली दी, आप ही कहते है कि मैं नहीं देना चाहता था। हत्‍यारे है, जो कहते है कि पता नहीं—इन्‍सपाइट आफ अस, हमारे बावजूद हत्‍या हो गयी; हम तो करना ही नहीं चाहते थे, बस ऐसा ही गया।
      तो हम आटोमैटिक है, यंत्रवत चल रहे है। जो नहीं बोलना है वह बोलते है जो नहीं करना है वह करते है। सांझ को तय करते है: सुबह चार बजे उठेंगे—कसम खा लेते है। सुबह हम खूद ही कहते है, कि क्‍या रखा है उठने में अभी और थोड़ा सो लो, कल देखी जायेगी। सुबह छ: बजे उठ कर खुद ही पछताते हो, कि ये तो बड़ी भारी गलती हो गई। ऐसा कल नहीं करेंगे, अब कल से तो उठना ही है। वह जो कसम खाई थी उसे तो निभाना ही है।
      आश्‍चर्य की बात है, शाम को जिस आदमी ने तय किया था। सुबह चार बजे वही आदमी बदल कैसे गया? फिर सुबह चार बजे तय क्या था तो फिर छ: बजे कैसे बदल गया। फिर सुबह छ: बजे जो तय किया है, फिर सांझ तक बदल जाता है। सांझ बहुत देर है, उस बीच पच्‍चीस दफे मन बदल जाता है।
      , ये निर्णय, ये ख्‍याल हमारी नींद में आये हुए ख्‍याल है सपनों की तरह। बहुत बबूलों की तरह बनते है और टूट जाते है। कोई जागा हुआ आदमी पीछे नहीं है। कोई होश से भरा हुआ आदमी पीछे नहीं है।
      तो नींद आत्‍मिक शरीर में प्रवेश के पहले की सहज अवस्‍था है। नींद; सोया हुआ होना; और आत्‍म शरीर में प्रवेश के बाद की सहज अवस्‍था है, जागृति। इसलिए चौथे शरीर के बाद हम व्‍यक्‍ति को बुद्ध कह सकते है। चौथे शरीर के बाद आदमी को जागना आ गया। अब वह जागा हुआ आदमी बुद्ध हो गया। बुद्ध का अर्थ जिसके अंदर अब कोई भी हिस्‍सा सोया हुआ न हो। और हम ऐसे है जिसका कोई भी हिस्‍सा अंदर का जगा हुआ नहीं है।
      बुद्ध गौतम सिद्धार्थ का नाम नहीं है। पांचवें शरीर की उपलब्‍धि के बाद दिया गया विशेषण है—गौतम दि बुद्ध; गौतम जो जाग क्या। यह मतलब है उसका।  नाम तो गौतम ही है, लेकिन वह गौतम सोये हुए आदमी का नाम था। इसलिए फिर धीरे-धीरे उसको गिरा दिया और बुद्ध ही रह गया।

सोये हुए आदमियों की दुनिया—
      यह हमारे पांचवें शरीर का फर्क है, उसमे प्रवेश के पहले आदमी सोया-सोया है, वह स्‍लिपी है। वह जो भी कर रहा है, वे नींद में किये गये कृत्‍य ही है। उसकी बातों का कोई भरोसा नहीं है; वह जो कहा रहा है। वह विश्‍वास के योग्‍य नहीं; उसकी प्रॉमिस (वायदे) का कोई मूल्‍य नहीं है। उसके दिये गये वचन को कोई मूल्‍य नहीं है, कोई अर्थ नहीं है। वह कता है कि मैं जीवन भी प्रेम करूंगा, और अभी दो क्षण बाद हो सकता है कि वह आपका गला ही घोट दे। वह कहता है, यह संबंध जन्‍मों–जन्‍मों तक रहेगा। यह दो क्षण  न टिके। उसका कोई कसूर भी नहीं है, नींद में दिये गये वचन का क्‍या मूल्‍य है? रात सपने में मैं किसी को वचन दे दूँ कि जीवन भर यह संबंध रहेगा, इसका क्‍या मूल्‍य है। सुबह मैं कहता हूं सपना था।
      सोये हुए आदमी को कोई भी भरोसा नहीं है। और हमारी पूरी दुनियां सोये हुए आदमियों की दुनियां है, इसलिए इतना कन्फ्यूज है, इतनी कॉनफ्लिवट है, इतना द्वंद्व है—इतना झगड़ा है, इतना उपद्रव है, ये सोये हुए आदमी पैदा कर रहे है।
      सोये हुए आदमी और जागे हुए आदमी में एक और फर्क पड़ेगा। वह भी हमें ख्‍याल में ले लेना चाहिए। क्‍योंकि सोये हुए आदमी को कभी पता नहीं चलता की मैं कौन हूं। इस लिए वह पूरे वक्‍त ये कोशिश में लगा रहता है कि मैं किसी को बता दूँ कि मैं यह हूं पूरे वक्‍त इसी में लगा रहता है।
      उसे खुद ही पता नहीं कि मैं कौन हूं,इसलिए पूरे वक्‍त वह हजार-हजार रास्‍तों से...कभी राजनीति के किसी पर सवार होकर लोगों को दिखाता है कि मैं यह हूं,कभी एक बड़ा मकान बनाकर दिखाता है कि मैं यह हूं, कभी पहाड़ पर चढ़कर दिखाता है कि मैं यह हूं; वह सब तरफ से कोशिश कर रहा है, कि लोगों को बता दे कि मैं यह हूं। और इस सब कोशिश से वह घूमकर अपने को जानने की कोशिश कर रहा है कि मैं हूं कौन; मैं हूं कौन;

मैं कौन हूं का उत्‍तर—
      चौथे शरीर के पहले इसका कोई पता नहीं चलेगा। पांचवें शरीर को आत्‍म शरीर है, इसलिए कह रहे है कि वहां तुम्‍हें पता चलेगा कि तुम कौन हो, इसलिए पांचवें शरीर के बाद ‘’मैं’’ की आवाजें एकदम बंद हो जायेगी। पांचवें शरीर के बाद वह सम बॉडी (विशिष्टि) होने का दावा एकदम समाप्‍त हो जायेगा। उसके बाद अगर तुम उससे कहोगे कि तुम यह हो तो वह हंसेगा। और अपनी तरफ से उसके दावे खत्‍म हो जायेगे। क्‍योंकि अब वह जानता है कि अब दावे करने की कोई जरूरत नहीं; अब किसी के सामने सिद्ध करने की कोई जरूरत नहीं है। अपने ही सामने सिद्ध हो गया कि मैं कौन हूं। इसलिए पांचवें शरीर के भीतर कोई द्वंद्व नहीं है; लेकिन पांचवें शरीर के बाहर और भीतर गये आदमी में बुनियादी फर्क है; द्वंद्व अगर है तो इस भांति है—बाहर और भीतर में।
     
पांचवां शरीर बहुत ही तृप्‍ति दायी—
      भीतर, पाँचवें शरीर में गये आदमी में कोई द्वंद्व नहीं है। लेकिन पांचवें शरीर का अपना खतरा है कि चाहों तो तुम वहां रूक सकते हो; क्‍योंकि तुमने अपने को जान लिया है। और यह इतनी तृप्‍ति दायी स्‍थिति है.....ओर इतनी आनंद पूर्ण....कि शायद तुम आगे की गति न करो।
      अब तक जो खतरे थे वे दुःख के थे, अब जो खतरा शुरू होता है वह आनंद का है। पांचवें शरीर के पहले जितने खतरे थे वे सब दुःख के थे। अब जो खतरा शुरू होता है। वह इतना आनंदपूर्ण है कि अब शायद तुम आगे खोजों ही न।
      इसलिए पांचवें शरीर में गये व्‍यक्‍ति के लिए अत्‍यंत सजगता जो रखनी है वह यह है कि आनंद कहीं पकड़ न ले। रोकनेवाला न बन जाये। और आनंद परम है। यहां आनंद कहीं पकड़ न ले, रोकनेवाला न बन जाये। और आनंद परम है। यहां आनंद अपनी पूरी ऊँचाई पर प्रकट होगा; अपनी पूरी गहराई में प्रकट होगा। एक बड़ी क्रांति घटित हो गयी है। तुमने अपने को जान लिया है। लेकिन अपने को ही जाने हो। और तुम ही नहीं हो, और भी सब है, लेकिन बहुत बार ऐसा होता है कि दुःख रोकने वाले सिद्ध नहीं होते, सुख रोकने वाले सिद्ध होते जाते है। और आनंद बहुत रोकने वाला सिद्ध हो जाता है। बाजार की भीड़-भाड़ तक को छोड़ने में कठिनाई थी। अब इस मंदिर में बहती वीणा को छोडने में तो बहुत कठिनाई हो जायेगी। इसलिए बहुत से साधक आत्‍मज्ञान पर रूक जाते है। और ब्रह्मज्ञान को उपलब्‍ध नहीं हो पाते।

आनंद में लीन मत होना---
      तो इस आनंद के प्रति भी सजग होना पड़ेगा। यहां भी काम वहीं है कि आनंद में लीन मत हो जाना। आनंद लीन करता है, तल्‍लीन करता है, डूबा लेता है, आनंद के अनुभव को भी जानना कि वह एक अनुभव है—जैसे सुख का अनुभव, दुःख का अनुभव, तब तक समाधि है; और जब तक अनुभव भी बहार खड़े रहना,तुम इसके भी साक्षी बन जाना; क्‍योंकि जब तक अनुभव है, तब तक उपाधि है; और जब तक अनुभव है, तब तक अंतिम छोर नहीं आया। अंतिम छोर पर सब अनुभव समाप्‍त हो जायेंगे : सुख और दुःख तो समाप्‍त होते ही है, आनंद भी समाप्‍त हो जाता है। लेकिन हमारी भाषा इसके आगे फिर नहीं जा पाती। इसीलिए हमने परमात्‍मा का रूप सच्‍चिदानंद कहा है। यह परमात्‍मा का रूप नहीं है, यह जहां तक भाषा जाती है वहां तक। आनंद हमारी आखिरी भाषा है।
      असल में पांचवें शरीर के आगे फिर भाषा नहीं जाती। तो पांचवें शरीर के संबंध में कुछ कहा जा सकता है—आनंद है वहां, पूर्ण जागृति है वहां, स्‍वबोध है वहां; यह सब कहा जा सकता है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है।

आत्‍मवाद के बाद रहस्‍यवाद—
      इसलिए जो आत्‍मवाद पर रूक जाते है उनकी बातों में मिस्‍टीसिज्‍्म नहीं होगा। इसलिए आत्‍मवाद पर रूक गये लोगों में कोई रहस्‍य नहीं होगा; उनकी बातें बिलकुल साइंस (विज्ञान) जैसी मालूम पड़ेगी; क्‍योंकि मिस्ट्रि (रहस्‍य) की दुनिया तो इसके आगे है, रहस्‍य तो इसके आगे है। यहां तक तो चीजें साफ हो सकती है। और मेरी समझ है कि जो लो आत्‍मवाद पर रूक जाते है, आज नहीं कल उनके धर्म को विज्ञान आत्‍मसात कर लेगा; क्‍योंकि आत्‍म तक विज्ञान भी पहुंच सकेगा।

सत्‍य का खोजी आत्‍मा पर नहीं रुकेगा—
      और आमतौर से साधक जब खोज पर निकलता है तो उसकी खोज सत्‍य की नहीं होता, आमतौर से आनंद की होती है। वह कहता है सत्‍य की खोज पर निकला हूं, लेकिन खोज उसकी आनंद की होती है। दुःख से परेशान है अशांति से परेशान है, वह आनंद खोज रहा है। इसलिए जो आनंद खोजने निकला है। वह तो निश्‍चित ही इस पांचवें शरीर पर रूक जायेगा। इसलिए एक बात और कहता हूं, कि खोज आनंद की नहीं, सत्‍य की करना, तब फिर रूकना नहीं होगा।
      तब एक सवाल नया उठेगा कि आनंद है, वह ठीक है; मैं अपने को जान कर कहता हूं,यह भी ठीक है; लेकिन ये वृक्ष के फूल है, वृक्ष के पत्‍ते है, जड़ें कहां है? मैं अपने को जान रहा हूं, यह भी ठीक; मैं आनंदित हूं ये भी ठीक, लेकिन मैं कहां हूं, ‘’फ्राम ह्वै अर’’ मेरी जड़ें कहां है, मैं आया कहां से, मेरे आस्‍तित्‍व की गहराई कहां है? कहां से मैं आ रहा हूं, ये जो मेरी लहर है किस सागर से उठी है?
      सत्‍य की अगर जिज्ञासा है, तो पांचवें शरीर से आगे जा सकोगे। इसलिए बहुत प्राथमिक रूप से ही, प्रारंभ से ही जिज्ञासा सत्‍य की चाहिए, आनंद की नहीं, नहीं तो पांचवें शरीर तक तो बड़ी अच्‍छी यात्रा होगी। पर पांचवें पर जाकर एक दम रूक जायेगी। सत्‍य की अगर खोज है तो यहां रूकने का सवाल नहीं है।
      तो पांचवें शरीर में जो सबसे बड़ी बाधा है। वह उसका अपूर्व आनंद है। और हम एक ऐसी दुनिया से आते है,  जहां दुःख और पीड़ा और चिंता और तनाव के सिवाय कुछ भी नहीं है। और जब हम पहली बार आनंद के मंदिर में प्रवेश होते है। तो मन होता है कि अब बिलकुल ही डूब जाओ—इस आनंद में नाचो और खो जाओ।
      खो जाने की यह जगह नहीं है। खो जाने की जगह आयेगी, लेकिन तब खोना न पड़ेगा। बस खो ही जाओगे, वह बहुत और बात है, खोना और खो ही जाना—यानी वह जगह आयेगी, जहां बचना भी चाहोगे तो नहीं बच सकोगे। देखोगें अपने को खोते हुए, कोई उपाय नहीं रह जायेगा। लेकिन यहां खोना हो सकता है, यहां भी खो सकते है हम। लेकिन वह उसमें भी हमारा प्रयास हमारी चेष्‍टा.....ओर बहुत गहरे में अहंकार तो मिट जायेगा। पांचवें शरीर में—अस्‍मिता नहीं मिटेगी। इसलिए अहंकार अरे अस्‍मिता का थोड़ा सा फर्क समझ लेना जरूरी है।

आत्‍म शरीर में अहंकार नहीं, अस्‍मिता रह जायेगी—
      अहंकार तो मिट जायेगा; मैं का भाव मिट जायेगा, लेकिन ‘’हूं’’ का भाव नहीं मिटेगा। मैं हूं,इसमें दो चीजें हैं—मैं  तो अहंकार है, और हूं अस्‍मिता है—होने का बोध। ‘’मैं’’ तो मिट जायेगा पांचवें शरीर में, सिर्फ होना रह जायेगा—‘’हूं’’ रह जायेगा; अस्‍मिता रह जायेगी।
      इस लिए इस जगह पर खड़े होकर अगर कोई दुनिया के बाबत कुछ कहेगा तो वह कहेगा अनंत आत्‍माएं है, सबकी आत्‍माएं अलग है। आत्‍मा एक नहीं है, प्रत्‍येक की आत्‍मा अलग है।
      इस जगह से आत्‍मवादी अनेक आत्माओं को अनुभव करेगा; क्‍योंकि अपने को वह अस्‍मिता में देख रहा है, अभी भी अलग है।
      अगर सत्‍य की खोज मन में हो और आनंद में डूबने की बाधा से बचा जा सकें....बचा जा सकता है; क्‍योंकि जब सतत आनंद रहता है तो उबाने वाला हो जाता है। आनंद भी उबाने वाला हो जाता है; एक ही स्‍वर बजता रहे आनंद का तो यह तो उबाने वाला हो जाता है।
      बर्ट्रेंड रसल ने मजाक में कहीं कहा है कि मैं मोक्ष जाना पसंद नहीं करूंगा, क्‍योंकि मैं सुनता हूं कि वहां सिर्फ आनंद है और कुछ भी नहीं। तो बहुत मोनोटोनस (एकरस) होगा...कि आनंद है। उसमें एक दुःख की रेखा भी बीच में न होगी। उसमें कोई चिंता और तनाव न होगा। तो कितनी देर तक ऐसे आनंद को झेल पायेंगे?
      आनंद की लीनता बाधा है पांचवें शरीर में। फिर अगर आनंद की लीनता से बच सकेत हो—जो कि कठिन है, और कई बार जन्‍म–जन्‍म लग सकते है—आनंद से ऊब ने के लिए, और स्‍वयं से ऊबने के लिए आत्‍म से ऊबने के लिए; वह जो सैल्फ है, उससे ऊबने के लिए।
      तो अभी पांचवें शरीर तक जो खोज है, वह दुःख से छूटने की है, घृणा से छूटने की है, हिंसा से छूटने की,वासना से छूटने की; पांचवें शरीर के बाद जा खोज है, वह स्‍वयं से छूटने की है।
      तो दो बातें है—फ़्रीडम फ्रॉम समथिंग—किसी चीज से मुक्‍ति, यह एक बात है; यह पांचवें तक पूरी होगी। फिर दूसरी बात है—किसी से मुक्‍ति नहीं, अपने से ही मुक्‍ति। और इसलिए पांचवें शरीर से एक नया जगत शुरू होता है।
--ओशो
जिन खोजा तिन पाइयां,
प्रश्‍नोत्‍तर चर्चाएं, बंबई,
प्रवचन--8

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