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बुधवार, 1 सितंबर 2010

सात शरीर और सात चक्र—3

तीसरा शरीर—मणिपूर चक्र
तीसरा चक्र; यह नाभि से थोड़ा उपर, जहां कोड़ी होती है। मैंने कहां, एस्‍ट्रल बॉडी है, सूक्ष्‍म शरीर है। उस सूक्ष्म शरीर के भी दो हिस्‍से है। प्राथमिक रूप से सूक्ष्‍म शरीर संदेह,विचार, इनके आसपास रुका रहता है। और अगर,ये रूपांतरित हो जायें, संदेह अगर रूपांतरित हो तो श्रद्धा बन जाती है। और विचार अगर रूपांतरित हो तो विवेक बन जाता है।
      संदेह को किसी ने दबाया तो वह कभी श्रद्धा को उपलब्‍ध नहीं होगा, हालांकि सभी तरफ ऐसा समझाया जाता है। कि संदेह को दबा डालों, विश्‍वास कर लो। जिसने संदेह को दबाया और विश्‍वास किया,वह कभी श्रद्धा को उपलब्‍ध नहीं होगा; उसके भीतर संदेह मौजूद ही रहेगा—दबा हुआ; भीतर कीड़े की तरह सरकता रहेगा। और काम करता रहेगा। उसका विश्‍वास संदेह के भय से ही थोपा हुआ होगा।
      , संदेह समझना पड़ेगा, संदेह को जीना पड़ेगा। संदेह के साथ चलना पड़ेगा, और संदेह एक दिन उस जगह पहुंचा देता है। जहां संदेह पर भी संदेह हो जाता है। और जिस दिन संदेह पर संदेह होता है उसी दिन श्रद्धा की शुरूआत हो जाती है।
      विचार को छोड़कर भी कोई विवेक को उपलब्‍ध नहीं हो सकता। विचार को छोड़ने वाले लोग है। छुड़ाने वाले लोग है; वे कहते है—विचार मत करो,विचार छोड़ दो। अगर कोई विचार छोड़ेगा, तो विश्‍वास ओर अंधे विश्‍वास को उपलब्‍ध होगा। वह विवेक नहीं है। विचार की सूक्ष्मतम प्रकिया से गुजर कर ही कोई विवेक को उपलब्‍ध होता है। विवेक का क्‍या मतलब है? विचार में सदा ही संदेह मौजूद है। विचार सदा ही इनडिसीसिव (अनिश्‍चयात्‍मक) है।
      इसलिए बहुत विचार करने वाले लोग कभी कुछ तय नहीं कर पाते और जब भी कोई कुछ तय करता है, वह तभी तय कर पाता है जब विचार के चक्‍कर के बाहर होता है। डिसीज़न (निश्‍चय) जो है वह हमेशा विचार के बाहर से आता है। अगर कोई विचार में पडा रहे तो वह कभी निश्‍चय नहीं कर पाता। विचार के साथ निश्‍चय का कोई संबंध नहीं है।
      इसलिए अक्‍सर ऐसा होता है कि विचारहीन बड़े निश्‍चयात्‍मक होते है। और विचारवान बड़े निश्‍चयहीन होते है। दोनों से खतरा होता है। क्‍योंकि विचार हीन बहुत डिसीसिव (निश्चय वान) होते है। वे जो कहते है पूरी ताकत से करते है; क्‍योंकि उनमें विचार होते ही नहीं जो जरा भी संदेह पैदा कर दें।
      दुनिया भर के डागमेटिक (हठधर्मी) अंधे जितने लोग है, फेनेटिक (दुराग्रही) जितने लोग है। ये बड़े कर्मठ होते है; क्‍योंकि इनमें शक का तो सवाल ही नहीं है, यक कभी विचार तो करते ही नहीं। अगर इनको ऐसा लगता है कि एक हजार आदमी मारने से स्‍वर्ग मिलता, तो एक हजार मार कर ही रुकते है। उसके पहले वे नहीं रुकते। एक दफा उनको ख्‍याल नहीं आता है कि यह ऐसा..... ऐसा होगा। उनमें कोई इनडिसीज़न (अनिश्‍चय) नहीं है। विचारवान तो सोचता ही चला जाता है, सोचता ही चला जाता है।
      तो विचार के भय से अगर कोई विचार का द्वार ही बंद कर दे, तो सिर्फ अंध विश्‍वास को उपलब्‍ध होगा। अंधा विश्‍वास खतरनाक है। और साधक के मार्ग में बड़ी बाधा है। चाहिए आँख वाला विवेक, चाहिए ऐसा विचार जिसमें डिसीज़न (निश्‍चय व स्‍पष्‍टता) हो। विवेक का मतलब इतना ही होता है। विवेक का मतलब है कि विचार पूरा है, लेकिन विचार से हम इतने गूजरें है कि अब विचार कि जो भी संदेह की, शक की बातें थीं, वे विदा हो गयी है; अब धीरे-धीरे निष्‍कर्ष में शुद्ध निश्‍चय साथ रहा गया है।
      तीसरे शरीर का केंद्र है मणि पूर....चक्र है मणिपूर। उस मणिपूर चक्र के ये दो रूप हैं—संदेह और श्रद्धा। संदेह रूपांतरित होगा तो श्रद्धा बनेगी। लेकिन ध्‍यान रखें; श्रद्धा संदेह के विपरीत नहीं है, शत्रु नहीं है,श्रद्धा संदेह का ही शुद्धतम विकास है—चरम विकास है; वह आखिरी छोर है जहां संदेह का सब खो जाता है। क्‍योंकि संदेह स्‍वयं पर संदेह बन जाता है और स्‍युसाइडल हो जाता है, आत्‍म धात कर लेता है और श्रद्धा उपलब्‍ध होती है।
--ओशो
जिन खोजा तिन पाइयां,
प्रश्‍नोत्‍तर चर्चाएं, बंबई,
प्रवचन--8

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