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शनिवार, 18 सितंबर 2010

संभोग से समाधि की और—02

संभोग : परमात्‍मा की सृजन उर्जा—2
      लेकिन आदमी ने जो-जो निसर्ग के ऊपर इंजीनियरिंग की है, जो-जो उसने अपने अपनी यांत्रिक धारणाओं को ठोकने की और बिठाने की कोशिश की है, उससे गंगाए रूक  गयी है। जगह-जगह अवरूद्ध हो गयी है। और फिर आदमी को दोष दिया जा रहा है। किसी बीज को दोष देने की जरूरत नहीं है। अगर वह पौधा न बन पाया, तो हम कहेंगे कि जमीन नहीं मिली होगी ठीक से, पानी नहीं मिला होगा ठीक से। सूरज की रोशनी नहीं मिली होगी ठीक से।
      लेकिन आदमी के जीवन में खिल न पाये फूल प्रेम का तो हम कहते है कि तुम हो जिम्‍मेदार। और कोई नहीं कहता कि भूमि नहीं मिली होगी, पानी नहीं मिला होगा ठीक से, सूरज की रोशनी नहीं मिली होगी ठीक से। इस लिए वह आदमी का पौधा अवरूद्ध हो गया, विकसित नहीं हो पाया, फूल तक नहीं पहुंच पाया।
      मैं आपसे कहना चाहता हूं कि बुनियादी बाधाएं आदमी ने खड़ी की है। प्रेम की गंगा तो बह सकती है और परमात्‍मा के सागर तक पहुंच सकती है। आदमी बना इसलिए है कि वह बहे और प्रेम बढ़े और परमात्‍मा तक पहुंच जाये। लेकिन हमने कौन सी बाधाएं खड़ी कर ली?
      पहली बात, आज तक मनुष्‍य की सारी संस्कृति यों ने सेक्‍स का, काम का, वासना का विरोध किया है। इस विरोध ने मनुष्‍य के भीतर प्रेम के जन्‍म की संभावना तोड़ दी, नष्‍ट कर दी। इस निषेध ने....क्‍योंकि सचाई यह है कि प्रेम की सारी यात्रा का प्राथमिक बिन्‍दु काम है, सेक्‍स है।
      प्रेम की यात्रा का जन्‍म, गंगो त्री—जहां से गंगा पैदा होगी प्रेम की—वह सेक्‍स है, वह काम है।
      और उसके सब दुश्‍मन है। सारी संस्‍कृतियां,और सारे धर्म, और सारे गुरु और सारे महात्‍मा–तो गंगो त्री पर ही चोट कर दी। वहां रोक दिया। पाप है काम, जहर है काम, अधम है काम। और हमने सोचा भी नहीं कि काम की ऊर्जा ही, सेक्‍स एनर्जी ही, अंतत: प्रेम में परिवर्तित होती है और रूपांतरित होती है।
      प्रेम का जो विकास है, वह काम की शक्‍ति का ही ट्रांसफॉमेंशन है। वह उसी का रूपांतरण है।
      एक कोयला पडा हो और आपको ख्‍याल भी नहीं आयेगा कि कोयला ही रूपांतरित होकर हीरा बन जाता है। हीरे और कोयले में बुनियादी रूप से कोई फर्क नहीं है। हीरे में भी वे ही तत्‍व है, जो कोयले में है। और कोयला ही हजारों साल की प्रक्रिया से गुजर कर हीरा बन जाता है। लेकिन कोयले की कोई कीमत नहीं है, उसे कोई घर में रखता भी है तो ऐसी जगह जहां कि दिखाई न पड़े। और हीरे को लोग छातियों पर लटकाकर घूमते है। जिससे की वह दिखाई पड़े। और हीरा और कोयला एक ही है, लेकिन कोई दिखाई नहीं पड़ता है कि इन दोनों के बीच अंतर-संबंध है, एक यात्रा है। कोयले की शक्‍ति ही हीरा बनती है। अगर आप कोयले के दुश्‍मन हो गये—जो कि हो जाना बिलकुल आसान है। क्‍योंकि कोयले में कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता है—तो हीरे के पैदा होने की संभावना भी समाप्‍त हो गयी, क्‍योंकि कोयला ही हीरा बन सकता है।
      सेक्‍स की शक्‍ति ही, काम की शक्‍ति ही प्रेम बनती है।
      लेकिन उसके विरोध में—सारे दुश्‍मन है उसके, अच्‍छे आदमी उसके दुश्‍मन है। और उसके विरोध में प्रेम के अंकुर भी नहीं फूटने दिये है। और जमीन से, प्रथम से, पहली सीढ़ी से नष्‍ट कर दिया भवन को। फिर वह हीरा नहीं पाता कोयला, क्‍योंकि उसके बनने के लिए जो स्‍वीकृति चाहिए,जो उसका विकास चाहिए जो उसको रूपांतरित करने की प्रक्रिया चाहिए, उसका सवाल ही नहीं उठता। जिसके हम दुश्‍मन हो गये, जिसके हम शत्रु हो गये, जिससे हमारी द्वंद्व की स्‍थिति बन गयी हो और जिससे हम निरंतर लड़ने लगे—अपनी ही शक्‍ति से आदमी को लड़ा दिया गया है। सेक्‍स की शक्‍ति से आदमी को लड़ा दिया गया है। और शिक्षाऐं दी जाती है कि द्वंद्व छोड़ना चाहिए, कानफ्लिक्‍ट्स छोड़नी चाहिए, लड़ना नहीं चाहिए। और सारी शिक्षाऐं बुनियाद में सिखा रही है कि लड़ों।
      मन जहर है तो मन से लड़ों। जहर से तो लड़ना पड़ेगा। सेक्‍स पाप है तो उससे लड़ों। और ऊपर से कहा जा रहा है कि द्वंद्व छोड़ो। जिन शिक्षाओं के आधार पर मनुष्‍य द्वंद्व से भर रहा है। वे ही शिक्षाऐं दूसरी तरफ कह रही है कि द्वंद्व छोड़ो। एक तरफ आदमी को पागल बनाओ और दूसरी तरफ पागलख़ाने खोलों कि बीमारियों का इलाज यहां किया जाता है। एक बात समझ लेना जरूरी है इस संबंध।
      मनुष्‍य कभी भी काम से मुक्‍त नहीं हो सकता। काम उसके जीवन का प्राथमिक बिन्‍दु है। उसी से जन्‍म होता है। परमात्‍मा ने काम की शक्‍ति को ही, सेक्‍स को ही सृष्‍टि का मूल बिंदू स्‍वीकार किया है। और परमात्‍मा जिसे पाप नहीं समझ रहा है, महात्‍मा उसे पाप बात रहे है। अगर परमात्‍मा उसे पाप समझता है तो परमात्‍मा से बड़ा पापी इस पृथ्‍वी पर, इस जगत में इस विश्‍व में कोई नहीं है।
      फूल खिला हुआ दिखाई पड़ रहा है। कभी सोचा है कि फूल का खिल जाना भी सेक्‍सुअल ऐक्‍ट है, फूल का खिल जाना भी काम की एक घटना है, वासना की एक घटना है। फूल में है क्‍या—उसके खिल जाने में? उसके खिल जाने में कुछ भी नहीं है। वे बिंदु है पराग के, वीर्य के कण है जिन्‍हें तितलियों उड़ा कर दूसरे फूलों पर ले जाएंगी और नया जन्‍म देगी।
      एक मोर नाच रहा है—और कवि गीत गा रहा है। और संत भी देख कर प्रसन्‍न हो रहा हे—लेकिन उन्‍हें ख्‍याल नहीं कि नृत्‍य एक सेक्‍सुअल ऐक्‍ट है। मोर पुकार रहा है अपनी प्रेयसी को या अपने प्रेमी को। वह नृत्‍य किसी को रिझाने के लिए है? पपीहा गीत गा रहा है, कोयल बोल रही है, एक आदमी जवान हो गया है, एक युवती सुन्‍दर होकर विकसित हो गयी है। ये सब की सब सेक्सुअल एनर्जी की अभिव्‍यंजना है। यह सब का सब काम का ही रूपांतरण है। यह सब का सब काम की ही अभिव्‍यक्‍त,काम की ही अभिव्‍यंजना है।
      सारा जीवन, सारी अभिव्‍यक्‍ति सारी फ्लावरिगं काम की है।
      और उस काम के खिलाफ संस्‍कृति और धर्म आदमी के मन में जहर डाल रहे है। उससे लड़ाने की कोशिश कर रहे है। मौलिक शक्‍ति से मनुष्‍य को उलझा दिया है। लड़ने के लिए, इसलिए मनुष्‍य दीन-हीन, प्रेम से रिक्‍त और खोटा और ना-कुछ हो गया है।
      काम से लड़ना नहीं है, काम के साथ मैत्री स्‍थापित करनी है और काम की धारा को और ऊचाई यों तक ले जाना है।
      किसी ऋषि ने किसी बधू को नव वर और वधू को आशीर्वाद देते हुए कहा था कि तेरे दस पुत्र  पैदा हो और अंतत: तेरा पति ग्यारहवां पुत्र बन जाये।
      वासना रूपांतरित हो तो पत्‍नी मां बन सकती है।
      वासना रूपांतरित हो तो काम प्रेम बन सकता है।
      लेकिन काम ही प्रेम बनता है, काम की ऊर्जा ही प्रेम की ऊर्जा में विकसित होती है।
      लेकिन हमने मनुष्‍य को भर दिया है, काम के विरोध में। इसका परिणाम यह हुआ है कि प्रेम तो पैदा नहीं हो सका, क्‍योंकि वह तो आगे का विकास था, काम की स्‍वीकृति से आता है। प्रेम तो विकसित नहीं हुआ और काम के विरोध में खड़े होने के कारण मनुष्‍य का चित ज्‍यादा कामुक हो गया, और सेक्‍सुअल होता चला गया। हमारे सारे गीत हमारी सारी कविताएं हमारे चित्र, हमारी पेंटिंग, हमारे मंदिर, हमारी मूर्तियां सब घूम फिर कर सेक्‍स के आस पास केंद्रित हो गयी है। हमार मन ही सेक्‍स के आसपास केंद्रित हो गया है। इस जगत में कोई भी पशु मनुष्‍य की भांति सेक्‍सुअल नही है। मनुष्‍य चौबीस घंटे सेक्‍सुअल हो गया है। उठते-बैठते, सोते जागते,सेक्‍स ही सब कुछ हो गया है। उसके प्राण में एक घाव हो गया है—विरोध के कारण, दुश्‍मनी के कारण, शत्रुता के कारण। जो जीवन का मूल था, उससे मुक्‍त तो हुआ नहीं जा सकता था। लेकिन उससे लड़ने की चेष्‍टा में सारा जीवन रूग्‍ण जरूर हो सकता था, वह रूग्‍ण हो गया है।
      और यह जो मनुष्‍य जाति इतनी कामुक दिखाई पड़ रही है, इसके पीछे तथाकथित धर्मों और संस्‍कृति का बुनियादी हाथ है। इसके पीछे बुरे लोगों का नहीं, सज्‍जनों और संतों का हाथ है। और जब तक मनुष्‍य जाति सज्‍जनों और संतों के अनाचार से मुक्‍त नहीं होगी तब तक प्रेम के विकास की कोई संभावना नहीं है।
      मुझे एक घटना याद आती है। एक फकीर अपने घर से निकला था। किसी मित्र के पास मिलने जा रहा था। निकला है घोड़े पर चढ़ा हुआ है, अचानक उसके बचपन का एक  दोस्‍त घर आकर सामने खड़ा हो गया है। उसने कहा कि दोस्‍त, तुम घर पर रुको, बरसों से प्रतीक्षा करता था कि तुम आओगे तो बैठेंगे और बात करेंगे। और दुर्भाग्‍य कि मुझे किसी मित्र से मिलने जाना है। मैं वचन दे चुका हूं। वो वहां मेरी राह ताकता होगा। मुझे वहां जाना ही होगा। घण्‍टे भर में जल्‍दी से जल्‍दी लोट कर आने की कोशिश करूंगा। तुम तब तक थोड़ा विश्राम कर लो।
      उसके मित्र ने कहा मुझे तो चैन नहीं है, अच्‍छा होगा कि मैं तुम्‍हारे साथ ही चला चलू। लेकिन उसने कहा कि मेरे कपड़े गंदे हो गये है। रास्‍ते की धूल के कारण, अगर तुम्‍हारे पास कुछ अच्‍छे कपड़े हो तो दे दो मैं पहन लूं। और साथ हो जाऊँ।
      निश्‍चित था उस फकीर के पास। किसी सम्राट ने उसे एक बहुमूल्‍य कोट, एक पगड़ी और एक धोती भेंट की थी। उसने संभाल कर रखी थी कि कभी जरूरत पड़ेगी तो पहनूंगा। वह जरूरत नहीं आयी। निकाल कर ले आया खुशी में।
      मित्र ने जब पहन लिए तब उसे थोड़ी ईर्ष्‍या पैदा हुई। मित्र ने पहनी तो मित्र सम्राट मालूम होने लगा। बहुमूल्‍य कोट था, पगड़ी थी, धोती थी, शानदार जूते थे। और उसके सामने ही वह फकीर बिलकुल नौकर-चाकर दीन-हीन दिखाई पड़ने लगा। और उसने सोचा कि यह तो बड़ी मुशिकल हो गई, यह तो गलत हो गया। जिनके घर मैं जा रहा हूं,उन सब का ध्‍यान इसी पर जायेगा। मेरी तरह तो कोई देखेगा भी नहीं। अपने ही कपड़े....ओर आज अपने ही कपड़ों के कारण मैं दीन-हीन हो जाऊँगा। लेकिन बार-बार मन को समझाता कि मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए मैं तो एक फकीर हूं—आत्‍मा परमात्‍मा की बातें करने वाला। क्‍या रखा है कोट में,पगड़ी में,पगड़ी में छोड़ो। पहने रहने दो। कितना फर्क पड़ता है। लेकिन जितना समझाने की कोशिश की ,कोट-पगड़ी, में क्‍या रखा है—कोट,पगड़ी,कोट पगड़ी ही उसके मन में घूमने लगी।
      मित्र दूसरी बात करने लगा। लेकिन वह भीतर तो....ऊपर कुछ और दूसरी बातें कर रहा है,लेकिन वहां उसका मन नहीं है। भीतर उसके बस कोट और पगड़ी। रास्‍ते पर जो भी आदमी देखता, उसको कोई नहीं देखता। मित्र की तरफ सबकी आंखें जाती। वह बड़ी मुश्‍किल में पड़ गया यह तो आज भूल कर ली—अपने हाथों से भूल कर ली।
      जिनके घर जाना था, वहां पहुंचा। जाकर परिचय दिया कि मेरे मित्र है जमाल, बचपन के हम दोस्‍त हे, बहुत प्‍यारे आदमी है। और फिर अचानक अनजाने मुंह से निकल गया कि रह गये कपड़े मेरे है। क्‍योंकि मित्र भी, जिनके घर गये थे, वह भी उसके कपड़ों को देख रहा था। और भीतर उसके चल रहा था कोट-पगड़ी,मेरी कोट-पगड़ी। और उन्‍हीं की वजह से मैं परेशान हो रहा हूं। निकल गया मुंह से की रह गये कपड़े, कपड़े मेरे है।
      मित्र भी हैरान हुआ। घर के लोग भी हैरान हुए कि यह क्‍या पागलपन की बात है। ख्‍याल उसको भी आया बोल जाने के बाद। तब पछताया कि ये तो भूल हो गई। पछताया तो और दबाया अपने मन को। बाहर निकल कर क्षमा मांगने लगा कि क्षमा कर दो, गलती हो गयी। मित्र ने कहा, कि मैं तो हैरान हुआ कि तुमसे निकल कैसे गया। उसने कहा कुछ नहीं, सिर्फ जूबान थी चुक गई। हालांकि की जबान की चूक कभी भी नहीं होती। भीतर कुछ चलता होता है, तो कभी-कभी बेमौके जबान से निकल जाता है। चुक कभी नहीं होती है, माफ कर दो, भूल हो गई। कैसे यह क्‍या ख्‍याल आ गया, कुछ समझ में नहीं आता है। हालांकि पूरी तरह समझ में आ रहा था ख्‍याल कैसे आया है।
      दूसरे मित्र के घर गये। अब वह तय करता है रास्‍ते में कि अब चाहे कुछ भी हो जाये, यह नहीं कहना है कि कपड़े मेरे है। पक्‍का कर लेता है अपने मन को। घर के द्वार पर उसने जाकर बिल्‍कुल दृढ़ संकल्‍प कर लिया कि यह बात नहीं उठानी है कि कपड़े मेरे है। लेकिन उस पागल को पता नहीं कि वह जितना ही दृढ़ संकल्‍प कर रहा है इस बात का, वह दृढ़ संकल्‍प बता रहा है, इस बात को कि उतने ही जोर से उसके भीतर यह भावना घर कर रही है कि ये कपड़े मेरे है।
      आखिर दृढ़ संकल्‍प किया क्‍यों जाता है?
      एक आदमी कहता है कि मैं ब्रह्मचर्य का दृढ़ व्रत लेता हूं, उसका मतलब है कि उसके भीतर कामुकता दृढता से धक्‍के मार रही है। नहीं तो और कारण क्‍या है? एक आदमी कहता है कि मैं कसम खाता हूं कि आज से कम खाना खाऊंगा। उसका मतलब है कि कसम खानी पड़ रही है। ज्‍यादा खानें का मन है उसका। और तब अनिवार्य रूपेण द्वंद्व पैदा होता है। जिससे हम लड़ना चाहते है, वहीं हमारी कमजोरी है। और तब द्वंद्व पैदा हो जाना स्‍वाभाविक है।
      वह लड़ता हुआ दरवाजे के भीतर गया, संभल-संभल कर बोला कि मेरे मित्र है। लेकिन जब वह बोल रहा है, तब उसको कोई भी नहीं देख रहा है। उसके मित्र को उस धर के लोग देख रहे है। तब फिर उसे ख्‍याल आया—मेरा कोट, मेरी पगड़ी। उसने कहा कि दृढ़ता से कसम खायी है। इसकी बात ही नहीं उठानी है। मेरा क्‍या है—कपड़ा-लत्‍ता। कपड़े लत्‍ते किसी के होत है। यह तो सब संसार है, सब तो माया है। लेकिन यह सब समझ रहा है। लेकिन असलियत तो बाहर से भीतर,भीतर से बाहर हो रही है। समझाया कि मेरे मित्र है, बचपन के दोस्‍त है, बहुत प्‍यारे आदमी है। रह गये कपड़े उन्‍ही के है, मेरे नहीं है। पर घर के लोगो को ख्‍याल आया कि ये क्‍या–-‘’कपड़े उन्‍हीं के है, मेरे नहीं है’’ —आज तक ऐसा परिचय कभी देखा नही गया था।
      बाहर निकल कर माफ़ी मांगने लगा कि बड़ी भूल हुई जो रही है, मैं क्‍या करूं, क्‍या न करूं, यह क्‍या हो गया है मुझे। आज तक मेरी जिंदगी में कपड़ों ने इस तरह से मुझे पकड़ लिया है। पहले तो ऐसे कभी नहीं पकड़ा था। लेकिन अगर तरकीब उपयोग में करें तो कपड़े भी पकड़ सकते है। मित्र ने कहा, मैं जाता नहीं तुम्‍हारे साथ। पर वह हाथ जोड़ने लगा कि नहीं ऐसा मत करो। जीवन भर के लिए दुःख रह जायेगा की मैंने क्‍या दुर्व्‍यवहार किया। अब मैं कसम खाता हूं की कपड़े की बात ही नहीं उठाऊंगा। मैं बिलकुल भगवान की कसम खाता हूं। कपड़ों की बात ही नहीं उठानी।
      आकर कसम खाने वालों से हमेशा सावधान रहना जरूरी है, क्‍योंकि जो भी कसम खाता है, उसके भीतर उस कसम से भी मजबूत कोई बैठा है। जिसके खिलाफ वह कसम खा रहा है। और वह जो भीतर बैठा है, वह ज्‍यादा भीतर है। कसम ऊपर है और बाहर है। कसम चेतन मन से खायी गयी है। ओ जो भीतर बैठा है हव अचेतन की परतों तक समाया हुआ है। अगर मन के दस हिस्‍से कर दें तो कसम एक हिस्‍से ने खाई है। नौ हिस्‍सा उलटा भीतर खड़ा हुआ है। ब्रह्मचर्य की कसमें एक हिस्‍सा खा रहा है मन का और नौ हिस्‍सा परमात्‍मा की दुहाई दे रहा है। वह जो परमात्‍मा ने बनाया है, वह उसके लिए ही कहे चले जा रहा है।
      गये तीसरे मित्र के घर। अब उसने बिलकुल ही अपनी सांसों तक का संयम कर रखा है।
      संयम आदमी बड़े खतरनाक होते है। क्‍योंकि उनके भीतर ज्‍वालामुखी उबल रहा है, ऊपर से वह संयम साधे हुए है।
      और इस बात को स्‍मरण रखना कि जिस चीज को साधना पड़ता है—साधने में इतना श्रम लग जाता है कि साधना पूरे वक्‍त हो नहीं सकती। फिर शिथिल होना पड़ेगा, विश्राम करना पड़ेगा। अगर मैं जोर से मुट्ठी बाँध लूं तो कितनी देर बाँधे रह सकता हूं। चौबीस घंटे, जितनी जोर से बाधूंगा उतना ही जल्‍दी थक जाऊँगा और  मुट्ठी खुल जायेगी। जिस चीज में भी श्रम करना पड़ता है जितना ज्‍यादा श्रम करना पड़ता है उतनी जल्‍दी थकान आ जाती है। शक्‍ति खत्‍म हो जाती है। और उल्‍टा होना शुरू हो जाता है। मुट्ठी बांधी जितनी जोर से , उतनी ही जल्‍दी मुट्ठी खुल जायेगी। मुट्ठी खुली रखी जा सकती है। लेकिन बाँध कर नहीं रखी जा सकती है। जिस काम में श्रम पड़ता है उस काम को आप जीवन नहीं बना सकते। कभी सहज नहीं हो सकता है वह काम। श्रम पड़ेगा तो फिर विश्राम का वक्‍त आयेगा ही।
      इसलिए जितना सधा संत है उतना ही खतरनाक आदमी होता है। क्‍योंकि उसके विश्राम का वक्‍त आयेगा। चौबीस घंटे भी तो उसे शिथिल होना ही पड़ेगा। उसी बीच दुनिया भी के पाप उसके भीतर खड़े हो जायेंगे। नर्क सामने आ जायेगा।
      तो उसने बिलकुल ही अपने को सांस-सांस रोक लिया और कहा कि अब कसम खाता हूं इन कपड़ों की बात ही नहीं करनी।
      लेकिन आप सोच लें उसकी हालत, अगर आप थोड़े बहुत भी धार्मिक आदमी होंगे, तो आपको अपने अनुभव से भी पता चल सकता है। उसकी क्‍या हालत हुई होगी। अगर आपने कसम खायी हो, व्रत लिए हों संकल्‍प साधे हों तो आपको भली भांति पता होगा कि भीतर क्‍या हालत हो जाती है।
      भीतर गया। उसके माथे से पसीना चूँ रहा था। इतना श्रम पड़ रहा है। मित्र डरा हुआ है उसके पसीने को देखकर। उसकी सब नसें खिंची हुई है। वह बाल रहा है एक-एक शब्‍द कि मेरे मित्र है, बड़े पुराने दोस्‍त है। बहुत अच्‍छे आदमी है। और एक क्षण को वह रुका। जैसे भीतर से कोई जोर का धक्‍का आया हो और सब बह गया। बाढ़ आ गयी हो और सब बह गया हो। और उसने कहा कि रह गयी कपड़ों की बात, तो मैंने कसम खा ली है कि कपड़ों की बात ही नहीं करनी है।
      तो यह जो आदमी के साथ हुआ है वह पूरी मनुष्‍य जाति के साथ सेक्‍स के संबंध में हो गया है। सेक्‍स को औब्सैशन बना दिया है। सेक्‍स को रोग बना दिया है, धाव बना दिया है और सब विषाक्‍त कर दिया है।
      छोटे-छोटे बच्‍चों को समझाया जा रहा है कि सेक्‍स पाप है। लड़कियों को समझाया जा रहा है, लड़कों को समझाया जो रहा के सेक्‍स पाप है। फिर वह लड़की जवान होती है। इसकी शादी होती है, सेक्‍स की दुनिया  शुरू होती है। और इन दोनों के भीतर यह भाव है कि यह पाप है। और फिर कहा जायेगा स्‍त्री को कि पति को परमात्‍मा मानों। जो पाप में ले जा रहा है। उसे परमात्‍मा कैसे माना जा सकता है। यह कैसे संभव है कि जो पाप में घसीट रहा है वह परमात्‍मा है। और उस लड़के से कहा जायेगा उस युवक को कहा जायेगा कि तेरी पत्‍नी है, तेरी साथिन है, तेरी संगिनी है। लेकिन वह नर्क में ले जा रही है। शास्‍त्रों में लिखा है कि स्‍त्री नर्क का द्वार है। यह नर्क का द्वार संगी और साथिनी, यह मेरा आधा अंग—यह नर्क का द्वार। मुझे उसे में धकेल रहा है। मेरा आधा अंग। इस के साथ कौन सा सामंजस्‍य बन सकता है।
      सारी दुनिया का दाम्‍पत्‍य जीवन नष्‍ट किया है इस शिक्षा ने। और जब दम्‍पति का जीवन नष्‍ट हो जाये तो प्रेम की कोई संभावना नहीं है। क्‍योंकि वह पति और पत्‍नी प्रेम न करें सकें एक दूसरे को जो कि अत्‍यन्‍त सहज और नैसर्गिक प्रेम है। तो फिर कौन और किसको प्रेम कर सकेगा। इस प्रेम को बढ़ाया जा सकता है। कि पत्‍नी और पति का प्रेम इतना विकसित हो, इतना उदित हो इतना ऊंचा बने कि धीरे-धीरे बाँध तोड़ दे और दूसरों तक फैल जाये। यह हो सकता है। लेकिन इसको समाप्‍त ही कर दिया जाये,तोड़ ही दिया जाये, विषाक्‍त कर दिया जाये तो फैलेगा क्‍या, बढ़ेगा क्‍या?
--ओशो
संभोग से समाधि की और
भारतीय विद्या भवन,बम्‍बई,
28 अगस्‍त 1968,
प्रवचन—1  

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