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गुरुवार, 2 सितंबर 2010

बुद्धों के शरीर से--काम वासना कैसे तिरोहित हो जाती है?(2)

 
भोजन तिरोहित नहीं हो जाएगा; बुद्ध को भी आवश्‍यकता होगी भोजन की, क्‍योंकि यह एक निजी आवश्‍यकता है। कोई सामाजिक आवश्‍यकता नहीं है। कोई जातिगत आवश्‍यकता नहीं  है। निद्रा तिरोहित नहीं होगी, वह एक व्‍यक्‍तिगत आवश्‍यकता है। वह सब जो व्‍यक्‍तिगत है( मौजूद रहेगा। वह सब जो जातिगत है, तिरोहित हो जाएगा—और इस तिरोभाव का एक अपना ही सौंदर्य होता है।
      यदि तुम देखो किसी हठ योगी की और तो तुम देखोगें एक अपंग प्राणी को। उसके चेहरे से आ रहा किसी आभा को नहीं देख सकते हो। उसने नष्‍ट कर दिया है अपना रसायन; वह सुंदर नहीं है। यदि तुम देखते हो दमन से भरे मुनि को, वह तो और भी असुंदर होता है। क्‍योंकि उसकी आंखों से और चेहरे से तुम देखोगें सब प्रकार की कामुकता चारों ओर गिरते हुए उसके आस पास कामवासनामय वातावरण होगा—असुंदर और गंदा। स्‍वाभाविक आदमी बेहतर होता है। कम से कम स्‍वभाविक तो है। लेकिन विकृत आदमी बीमार होता है, और वह बीमार इस लिए रहता है कि उसने चारों और दमन की एक मोटी परत खड़ी कर रखी है।
      मैं तीसरे के पक्ष में हूं,लेकिन इस बीच तुम स्‍वाभाविक बने रहो। दमन करने की कोई जरूरत नहीं है। शरीर को कोई अपंग करने वाली किन्‍हीं विधियों को आज माने की जरूरत नहीं है। स्‍वभाविक हो जाओ और अपने बुद्धत्‍व के लिए साधना जारी रखो! स्‍वभाविक हो जाओ और ज्‍यादा से ज्‍यादा सचेत और सजग हो जाओ। एक क्षण आ जाएगा जब कामवासना बिलकुल तिरोहित हो जाती है। जब वह अपने से तिरोहित होने के लिए उसे विवश मत करना, वरना वह पीछे सारे घाव छोड़ जाएगी और तुम सदा उन्‍हीं धावों के साथ रहते रहोगे। उसे स्‍वयं ही जाने दो। केवल द्रष्‍टा बने रहो और जल्‍दी मत करो। स्‍वाभाविक बात अच्‍छी होती है। तुम स्‍वभाविक बने रहो। जब तक कि तुम स्‍वभाव के पास नहीं चले जाते, लड़ना मत प्रकृति के साथ। उच्‍चतर को आते रहने देना।
      और यही है मेरा दृष्‍टिकोण हर चीज के प्रति: निम्‍नतर के साथ संघर्ष मत करो,उच्‍चतर के लिए प्रार्थना करो। उच्‍चतर के लिए कार्य करो और निम्‍नतर को अनछुआ ही छोड़ दो, यदि तुम निम्‍न के साथ लड़ना शुरू कर देते हो तो तुम्‍हें वहीं रहना होगा निम्‍न के साथ; तुम वहां से सरक नहीं सकते। इंच भर भी। स्‍वभाविक हो जाओ ताकि प्रकृति तुम्‍हें अड़चन न दे सके। ताकि वह अपनी पकड़ को छोड़ सके और तुम और उचे उठने के लिए छोड़ दिये जाओ। जल्‍दी ही प्राकृतिक उदित होगी। प्रकृति में से आती परा प्रकृति, और फिर वहां होता है प्रसाद, फिर वहां होता है सौंदर्य, तब वहां होती है आपार धन्‍यता।
      तुम्‍हारे लिए अच्‍छा होगा एक और दूसरे आयाम से इसे समझना :कामवासना संबंध रखती है शरीर से, प्रेम संबंधित होता है सूक्ष्‍म शरीर से, प्रार्थना संबंधित है केंद्र से, एक दम तुम्‍हारी सत्‍ता के मूल से ही। कामवासना का संबंध होता परिधि से,प्रार्थना जुड़ी होती है केंद्र से, और केंद्र ओर परिधि के बीच है प्रेम। बुद्ध प्रार्थानामयी करूणा है; वे पहुंच चुके होते केंद्र तक। इससे पहले कि तुम केंद्र तक पहु्ंचो, जब  तुम  परिधि  और केंद्र के बीच गति कर रहे हो ,तो तुम प्रेम पूर्ण हो—बहुत ज्‍यादा गहरे रूप से प्रेममय। परिधि पर तुम काम पूर्ण रहोगे,कामवासना युक्‍त रहोगे। और वह वहीं ऊर्जा होती है। परिधि पर कामवासना एक जरूरत होती है। परिधि और केंद्र के बीच प्रेम होता है, एक बहाव, एक सरसता, एक सेतु वह बहुत जरूरी है। ऊर्जा एक ही होती है। तीनों आयामों में, तो बुद्ध को भूख नहीं कामवासना की; वह ऊर्जा करूणा बन चुकी होती है। प्रेम से भरा व्‍यक्‍ति कामवासना का भूखा नहीं होता है। वही ऊर्जा प्रेम बन चुकी होती है। इसलिए आवश्‍यकताओं के विषय को समझ लेना है।
      आवश्‍यकता अस्‍तित्‍व रखती है शरीर में, लेकिन यदि तुम सरकते हो शरीर से ज्‍यादा गहरे में,  तो आवश्‍यकता बदल जाती है। आवश्‍यकता तुम्‍हारा ही पीछा करती है। यदि तुम बहुत ज्‍यादा भरे हुए होते हो कामयुक्‍त प्रति छवियों से, कल्‍पनाओं से, तो यह बात केवल यही दर्शाती है कि तुम जीते हो परिधि पर। सरको वहां से। तुम परिधि पर ही कार्य किए जाते हो, लाखों सालों से, अनन्‍त जन्मों से, तुम लगातार यही कार्य किये चले जा रहे हो। और आवश्‍यकता पूरी हुई नहीं तुम्‍हारी। वह पूरी हो भी नहीं सकती। कोई जरूरत नहीं  हो सकती है—इस बता को याद रखना। तुम खाते हो, आठ घंटे, छ: घंटे बाद तुम्‍हें फिर भूख लग जाती है। कोई जरूरत पूरी नहीं हो सकती। वह तो एक अस्‍थाई परिपूर्ति होती है। तुम संभोग करते हो, कुछ घंटो बाद तुम फिर तैयार हो जाते हो। आवश्‍यकताएं पूरी हो नहीं सकती क्‍योंकि वह एक चक्र में घूमती है।
      तुम्‍हारी आवश्‍यकताओं से ज्‍यादा ऊंचे सरको। मैं नहीं कह रहा कि आवश्‍यकताओं से लड़ों; आने दो उन्‍हें; आनंदित होओ उनसे जबकि तुम वहां हो। लड़ना क्‍यों? आनंद मनाओ उसका जब तुम उसमें हो, यदि तुम प्रेम करते हो, तुम कामवासना में उतरते हो,तो आनंद मनाना उसका। अपराधी मत अनुभव करना, पापी मत अनुभव करना। ठीक से पाप कर लेना। यदि तुम पाप कर ही रहे हो तो कम से कम कुशल तो होओ।
      मुझे याद आ गई लूथर की। पेक्‍का फॉर्टीलर नामक एक शिष्‍य ने पूछा लूथर से, ‘’क्‍या करूं? मैं पाप करना बंद नहीं कर सकता।‘’ लूथर ने कहा, ज्‍यादा शक्‍तिशाली पाप करो।’’ बिलकुल ठीक ही कहा। मैंने लूथर के विचारों के साथ कभी कोई बहुत सहानुभूति अनुभव नहीं की। लेकिन इस बारे में बिलकुल उसके साथ हूं: अधिक सशक्‍त अधिक समर्थ पाप करो। यदि तुम रूक नहीं सकते तो फिर क्‍यों करनी चिंता? अधिक सशक्‍त पाप करो, क्‍योंकि चरम पर रूपांतरण संभव होता है। कुनकुने लोग कभी रूपांतरित नहीं होते।
      कुनकुने मत होना। मूढता केवल यही है जिसे तुम किए चले जा सकते हो। क्‍योंकि जब तुम सौ प्रतिशीत उबल रहे होते हो केवल तभी वाष्‍पीकरण घटता है। कुनकुने होते हो। तो तुम बने रह सकते हो कुनकुने बहुत-बहुत जन्‍मों तक ओर कुछ नहीं घटेगा। चरम की और बढ़ जाना। यदि तुम कामवासना में  उतरते हो तो उसमें सरक जाना समग्र रूप से। कोई संघर्ष मत बना लेना, कोई चीज रोक मत लेना और इसी बीच कार्य किए जाना। कामवासना को वहां अपने से मौजूद रहने दो। तुम काम करते जाओ जागरूकता पर। और ज्‍यादा से ज्‍यादा ध्‍यान करो और धीरे-धीरे तुम जानोंगे कि वही ऊर्जा बदल रही है। रूपांतरित हो रही है।
      जब तुम बदलते हो, तो ऊर्जा बदलती है, क्‍योंकि ऊर्जा का संबंध तुमसे है। जब तुम्‍हारा दृष्‍टिकोण बदलता है तो ऊर्जा को बदलना पड़ता है उसका तल। जब तुम्‍हारी अंतस-सत्‍ता का धरातल बदलता है। तब ऊर्जा को तुम्‍हारा अनुसरण करना पड़ता है। वह तुम्‍हारी ऊर्जा हे।
      जब तुम केंद्र की और बढ़ते हो, धीरे-धीरे तुम अचानक जान लोगे कि कामवासना तिरोहित हो रही है। और प्रेम शक्ति पा रहा है। तुम और ज्‍यादा प्रेम पूर्ण हो रहे हो। अब प्रेम कोई कामुकता नहीं है। प्रेम अग्‍नि की भांति नहीं होता। वह बहुत शीतल प्रकाश होता है।  कामवासना ज्‍वलंत होती है। वह आग होती है। वह तपे हुए सुर्य की भांति होती है। प्रेम शीतल चंद्रमा की भांति होता है। वह तुम्हें प्रकाश देता है। लेकिन शीतल, शांत। एक  शांत घेर लेती है प्रेम की। फिर धीरे-धीरे कामवासना हो जाएगी दूर, और दूर, और दूर और वही ऊर्जा सरक रही होगी प्रेम में। तुम भूखा अनुभव नहीं करोगे। बल्‍कि इसके विपरीत तुम ज्‍यादा परितृप्‍ति अनुभव करोगे अनुभव करोगे। क्‍योंकि प्रेम ज्‍यादा परितृप्‍त करता है। वह कामवासना का उच्‍चतर रूप है, और हर बार जब तुम ज्‍यादा ऊंचे जाते हो, तुम ज्‍यादा परितृप्‍त अनुभव करते हो क्‍योंकि उच्‍चतर रूप ज्‍यादा सूक्ष्‍म ऊर्जाऐं है। वे स्‍थूल नहीं होतीं,वे ज्‍यादा सूक्ष्‍म होती है। वे परिपूर्ति करती है; वे तुम्‍हें और ज्‍यादा देती है। तो उठते जाना जागरूकता में। एक दिन आता है, जब अचानक तुम केंद्र में बद्धमूल होते हो—केंद्रस्‍थ। अब प्रेम भी नए आयाम धारण कर लेता है; वह बन जाता है करूणा।
      भेद क्‍या होता है। कामवासना में तुम संबंधित हो स्‍वयं के साथ, दूसरे से बिलकुल ही संबंधित नहीं होते। तुम तो बस उपयोग करते हो दूसरे का। इसलिए कामवासना से जुड़े साथी निरंतर लड़ते है, क्‍योंकि एक अंत: अनुभूति वहां होती है कि दूसरा मेरा इस्‍तेमाल कर रहा है। कामवासना युक्‍त साथी आंतरिक समस्‍वरता के बिंदु तक नहीं आ सकते। उन्‍हें फिर-फिर लड़ना होगा, क्‍योंकि स्‍त्री सोचती है कि पुरूष उसका उपयोग कर रहा है—और ठीक सोचती है वह। इसमें गलत कुछ भी नहीं है। और पुरूष सोचता है कि स्‍त्री उसका उपयोग कर रही है।
      और जब कभी कोई तुम्‍हारा उपयोग करता है साधन की भांति, तो तुम्‍हें चोट लगती है। यह बात शोषण जैसी मालूम पड़ती है। पुरूष संबंध रखता है उसकी अपनी कामवासना से, स्‍त्री संबंध रखती है उसकी अपनी कामवासना से—दोनों में से कोई गतिमान नहीं हो रहा होता है एक दूसरे की तरफ। गति वहां होती है हीं नहीं। वह दो स्‍वार्थी व्‍यक्‍ति होती है। स्व केंद्रित, एक-दूसरे का शोषण करने वाले। यदि वे बात करते है प्रेम के बारे में और उसके गीत गाते है। काव्‍यात्‍मक होते है। तो वह बात होती है मात्र एक विमोह, विश्‍वास पैदा करने की कोशिश, एक प्रलोभन—लेकिन उन्‍हें दूसरे से कुछ लेना-देना नहीं होता। एक बार जब पुरूष ने उपयोग कर लिया होता है स्‍त्री का, तो वह करवट बदल लेता है। और सो जाता है। खत्‍म हो जाती है बात—चीज इस्‍तेमाल कर ली गई और फेंक दी गई।
      अमरीका में उन्‍होंने बनाई है प्‍लास्‍टिक की स्त्रीयां और प्‍लास्‍टिक के पुरूष। वे खूब संपूर्णता से काम आते है। प्‍लास्‍टिक की स्‍त्री यदि तुम छुओ उसके स्‍तनों को, तो स्‍तन जीवंत हो जाते है। वे उत्‍तप्‍त हो जाते है। तुम प्रेम कर सकते हो प्लास्टिक की स्‍त्री को। और वह वैसा ही तृप्ति दाई होता है। जैसा किसी स्‍त्री के साथ—कुछ ज्‍यादा ही, क्‍योंकि कोई लड़ाई नहीं, कोई संघर्ष नहीं है। समाप्‍ति पर तुम फेंक सकते हो स्‍त्री को और सो सकते हो। यही कुछ है जो लोग कर रहे है। चाहे स्‍त्री प्‍लास्‍टिक की होती है या वास्‍तविक होती है। इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता है। और स्‍त्री उपयोग किए चली जाती है पुरूष को।
      जब कभी तुम दूसरे का उपयोग करते हो साधन की भांति तो वह बात अनैतिक होती है। दूसरा स्‍वयं में साध्‍य होता है। लेकिन दूसरा स्‍वयं में साध्‍य बनता है तुम्‍हारे अस्‍तित्‍व की दूसरी अवस्‍था में  ही—जब तुम प्रेम करते हो। तब तुम प्रेम करते दूसरे के लिए,तब तुम उपयोग नहीं कर रहे होते। तब दूसरा महत्‍व पूर्ण होता है, अर्थ वान। स्‍त्री हो कि पुरूष दूसरा स्‍वयं में साध्‍य होता है। तुम अनुगृहीत होते हो। प्रेम में कोई शोषण संभव नहीं होता है। तुम मदद करते हो दूसरे की। वह कोई सौदा नहीं होता है। तुम आनंद मना रहे होते हो मदद देने में; तुम बांटने से आनंदित होते हो और तुम अनुगृहीत होते हो कि दूसरा तुम्‍हें बांटने का अवसर देता है।
      प्रेम सूक्ष्‍म होता है। कामवासना वाला स्‍थूल क्षेत्र छूट जाता है। दूसरा साध्‍य  बन जाता है। लेकिन फिर भी आवश्‍यकता मौजूद होती है, एक सूक्ष्‍म आवश्‍यकता। क्‍योंकि जब तुम प्रेम करते हो किसी व्‍यक्‍ति को तो एक सूक्ष्‍म अपेक्षा,चाहे अचेतन तौर पर हो छिपी रहती है। कि दूसरा तुम्‍हें प्रेम करे। यह बात छाया की भांति पीछे चलती है कि दूसरा भी तुम्‍हें प्रेम करे। अभी भी प्रेम पानी की आवश्‍यकता मौजूद होती है। यह कामवासना से बेहतर होती हे। लेकिन फिर भी एक अपेक्षा तो होती है। और वहीं अपेक्षा एक कर्कश सुर होगा। प्रेम में। वह अभी परिशुद्ध न हुआ।
      करूणा प्रेम की उच्चतम गुणवता होती है। उच्‍चतम शुद्धता। अब अपेक्षा भी नहीं रही वहां। दूसरा साधन नहीं होता,दूसरा साध्‍य होता है। और अब तुम किसी चींजे की उपेक्षा नहीं कर रहे होते। तुम तो बस दे देते हो जो कुछ भी तुम दे सकते हो। अपेक्षा पूरी तरह जा चुकी होती है। बुद्ध संपूर्ण दाता है, वे दिए चले जाते है, वे आनंदित होते है देने में। वह सहज बांटना हुआ। अब वह बन चुकी है करूणा—वही ऊर्जा और वही आवश्‍यकता—अंतस सत्‍ता के विभिन्‍न धरातलों पर। इसलिए कामवासना तिरोहित हो जाती है बुद्ध में, क्‍योंकि वह पुन: प्रकट होती है करूणा के रूप में।
     
ओशो
पतंजलि: योग-सुत्र—2
प्रवचन—16, श्री रजनीश आश्रम, पूना,
26 अप्रैल,1975,

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