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मंगलवार, 5 जून 2012

‘’ओशो की शौर्य गाथा’’—स्‍वामी संजय भारती

ओशो किसी और तैयारी में थे--
      जैसा कि हमने पीछे देखा, धर्म और राजनीति की मशीनरी या तो ओशो के जबरदस्‍त विरोध में थी या मौन समर्थन में जिसे कोई खास समर्थन नहीं कहां जा सकता। लेकिन इस दौर में ज्‍यों-ज्‍यों उनकी आवाज ऊंची और पैनी होती गई, उनके कार्य के प्रति भारतीय समाज के धुरंधरों का ध्रुवीकरण होता गया। जहां राजनेता और धर्माचार्य उनके प्रति अपने वैमनस्‍य में सने हर कोशिश कर रहे थे कि उन्‍हें बोलने ही नहीं दिया जाए, उन्‍हें गोली ही क्‍यों न मार दी जाए, वही साहित्‍य और कला के क्षेत्र से जुड़े हुए प्रमुख नाम उनके पक्ष में आकर खड़े होते हुए—और उनका समर्थन नेहरू या शास्‍त्री की तरह मौन नहीं मुखर था।

      यह दौर हिंदी साहित्‍य का स्‍वर्ण-युग था। यह युग था अज्ञेय का, निराला का, बच्‍चन का, राम धारी दिनकर, और सुमित्रा नंदन पंत का। ये सभी लोग ओशो के परंपरा-संहार और मूर्ति भंजन से अवाक थे। साहित्‍य गोष्‍ठियों में उनका जिक्र सम्‍मान के साथ होने लगा। उम्र में उनसे काफी बड़े होने के बावजूद ये लोग अपना साहित्‍यक अहंकार ताक पर रखकर उनके पास वे प्रश्‍न लेकिन आने लगे जो उनके प्राणों को न जाने कब से कचोट रहे थे।
      और ओशो इस बात से स्‍वयं बेफिक्र थे कि उन्‍हें किसी को अपने पक्ष में लेना है या समर्थन में खड़ा करना है। उनके पास कोई प्रश्‍न लेकिन आता तो उसे वह उसी आग से लिपटा हुआ उत्‍तर देते जिसे वह पूरे समाज में बिखेर रहे थे। और वही आग इन संवेदनशील लोगों को सम्‍मोहित कर रही थी।‘’
      एक बार जब हरिवंशराय बच्‍चन उन्‍हें अपने प्रख्‍यात महाकाव्‍य ‘’मधुशाला’’ की भेंट देने आए तो काव्‍य के कुछ अंश सुनने के बाद ओशो उनसे बोले, ‘’बच्‍चन जो, आप केवल कल्‍पना करते है। कल्‍पना कितनी ही सुंदर क्‍यों न हो लेकिन जब तक आप उसे साकार करने का साहस न करे यह कल्‍पना ही है।
      जीवित--मधुशाला
प्रियतम  तेरे सपनों की, मधुशाला मैंने देखी है।
होश बढ़ता इक-इक प्‍याला, ऐसी हाला  देखी है।।

शब्‍दों कि मधु, शब्‍दों की हाला,
शब्‍दों की ही बनी   मधुशाला।
आँख खोल  कर  देख सामने,
थिरक रही  जीवित की हाला।।
स्‍वामी आनंद प्रसाद ‘’मनसा’’
       और वह साहस मैं आप में नहीं देख रहा हूं। और साथ ही एक प्रोफेटिक वक्‍तव्‍य उन्‍होंने और जोड़ दिया, ‘’यह जो समाज की कल्‍पना आपने की है, वही मैं बनाने जा रहा हूं।
      आगे जाकर बच्‍चन जी ने अपनी डायरी में जब इस वार्तालाप का जिक्र किया ता उसमे उनकी साहस की कमी बताए जाने के प्रति रोष नहीं था। अपनी कल्‍पना के साकार होने का आनंद था। उस कल्‍पना के साकार होने का आनंद था जिसमे सब धर्मग्रंथ जला दिए गए होंगे—सब क्रिया कांडो से मुक्‍त मनुष्‍य जीवन को पूरी समृद्धि में जी रहा होगा।
      इसी तरह अज्ञेय, दिनकर और पंत की डायरियां में भी ओशो का उल्‍लेख मिलता है। दिनकर तो पूछते है अपनी डायरी में—‘’क्‍या समाज ओशो को सहन कर पाएगा। क्‍या उनकी नियति सुकरात की ही तरह विष पाने की नहीं है?
      इन दिनों यक आम था कि ओशो अपनी यात्राओं के दौरान  जिस भी शहर से गुजर रहे होते, वहां लेखक, कवि, गीतकार अपनी रचनाएं लेकिर उनके पास आते और उनकी प्रतिक्रिया जानना चाहते। बंबई या दिल्‍ली में तो ऐसी मुलाक़ातों के लिए अलग से काफी लंबा समय तय किया जाता। बंबई में संगीत निर्देशक कल्‍याण जी के घर ऐसी कई गोष्ठियों हुई है। जहां लेखक या कवि ही उन्‍हें अपनी रचनाएं सुनाने नहीं आते थे बल्‍कि बहुत से संगीतकार और गायक भी अपनी-अपनी विधा की ऑफ रिग उनके सामने करते थे। कई बार तो ऐसा भी होता था कि ओशो बंबई से जबलपुर यात्रा करते कि उनकी यात्रा को संगीतमय बना सकें। महेंद्र कपूर ऐसी कितनी ही यात्रा और पर उनके साथ रहे है।
      ज्‍योंतिशिखा का संपादन अब हिंदी फिल्‍मों के प्रसिद्ध अभिनेता, महीपाल करने लगे थे। उस समय के सुपरस्‍टार, मनोज कुमार अक्‍सर कई गोष्‍ठियों में प्रमुख प्रश्‍नकर्ता की भूमिका अदा करते थे। एक फिल्‍म डायरेक्टर तो ओशो की वाक्-शैली से इतने प्रभावित हो गए थे कि उन्‍होंने ओशो को अपनी फिल्‍म में प्रमुख पात्र का अभिनय करने का निवेदन ही कर डाला—जिसे ओशो ने हंसते हुए टाल दिया।
      लेकिन बौद्धिक जगत से आया हुआ यह समर्थन भी अधिक दिन टिकने को नहीं था। ओशो किसी और ही तैयारी में थे।

(स्‍वामी संजय भारती की अप्रकाशित पुस्‍तक ‘’ओशो की शौर्य गाथा’’ के कुछ अंश)

      

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