देखने के
संबंध में
छट्टी ओशो
‘’किसी
गहरे कुएं के
किनारे खड़े
होकर उसकी गहराइयों
में निरंतर
देखते रहो—जब
तक विस्मय-विमुग्ध
न हो जाओ।‘’
ये
विधियां
थोड़े से फर्क
के साथ एक
जैसी है।
‘’किसी गहरे
कुएं के
किनारे खड़े
होकर उसकी गहराईयों
में निरंतर
देखते रहो—जब
तक विस्मय-विमुग्ध
न हो जाओ।‘’
किसी गहरे
कुएं में
देखो; कुआं
तुममें
प्रतिबिंबित
हो जाएगा।
सोचना बिलकुल
भूल जाओ;
सोचना बिलकुल
बंद कर दो;
सिर्फ गहराई
में देखते
रहो। अब वे
कहते है कि
कुएं की भांति
मन की भी
गहराई है। अब
पश्चिम में
वे गहराई का
मनोविज्ञान
विकसित कर रहे
है। वे कहते
है कि मन कोई
सतह पर ही
नहीं है। वह
उसका आरंभ भर
है। उसकी
गहराइयां है,
अनेक
गहराइयां है,
छिपी गहराइयां
है।
किसी कुएं
में
निर्विचार
होकर झांको;
गहराई तुममें
प्रतिबिंबित
हो जाएगी।
कुआं भीतर गहराई
का बाह्य
प्रतीक है। और
निरंतर झाँकते
जाओ—जब तक कि
तुम विस्मय
विमुग्ध न हो
जाओ। जब तक
ऐसा क्षण न आए झाँकते
चले जाओ, झाँकते
ही चले जाओ।
दिनों हफ्तों,
महीनों झाँकते
रहो। किसी
कुएं पर चले
जाओ। उसमे
गहरे देखो।
लेकिन ध्यान
रहे कि मन में
सोच-विचार न
चले। बस ध्यान
करो, गहराई
में ध्यान
करो। गहराई के
साथ एक हो
जाओ। ध्यान
जारी रखो।
किसी दिन तुम्हारे
विचार
विसर्जित हो
जाएंगे। यह
किसी क्षण भी
हो सकता है।
अचानक तुम्हें
प्रतीत होगा।
कि तुम्हारे
भीतर भी वही
कुआं है। वही
गहराई है। और तब
एक अजीब बहुत
अजीब भाव का
उदय होगा, तुम
विस्मय
विमुग्ध
अनुभव करोगे।
च्वांत्सु
अपने गुरु लाओत्से
के साथ एक पुल
पर से गुजर
रहा था। कहा
जाता है कि लाओत्से
ने च्वांत्सु
से कहा कि
यहां रुको और
यहां से नीचे
देखो—और तब तक
देखते रहो जब
तक कि नदी रूक
न जाये। और पुल
न बहने लगे।
अब नदी
बहती है, पुल
कभी नहीं
बहता। लेकिन च्वांत्सु
को यह ध्यान
दिया गया कि
इस पुल पर
रहकर नदी को
देखते रहो।
कहते है कि
उसने पुल पर
झोपड़ी
बना ली और वहीं
रहने लगा।
महीनों
गुजर गये और वह
पूल पर बैठकर
नीचे नदी में झाँकता
रहा, और उस
क्षण की
प्रतीक्षा
करने लगा जब
नदी रूक जाए और
पुल बहने लगे।
ऐसा होने पर
ही उसे गुरु के
पास जाना था।
ओ एक दिन
ऐसा ही हुआ।
नदी ठहर गई और पुल
बहने लगा।
यह कैसे
संभव है? यदि विचार
पूरी तरह ठहर
जाये तो कुछ
भी संभव है।
क्योंकि
हमारी बंधी
बंधाई मान्यता
कि कारण ही
नदी बहती हुई
मालूम पड़ती
है। और पुल
ठहरा हुआ। यह
सापेक्ष है,
महज सापेक्ष।
आइन्सटीन
कहता है,
भौतिकी कहती
है कि सब कुछ
सापेक्ष है।
तुम एक तेज
चलने वाली
रेलगाड़ी में यात्रा
कर रहे हो। क्या
होता है, पेड़
भाग रहे है।
भागे जा रहे
है। और अगर
रेलगाड़ी में
हलन-चलन न हो,
जिससे रेल चलने
का एहसास होता
है। तो तुम
खिड़की से
बाहर देखो तो
गाड़ी नहीं,
पेड़ भागते
हुए नजर आयेंगे।
आइन्सटीन
ने कहा है कि
अगर दो रेलगाड़ियाँ
या दो
अंतरिक्ष यान
अंतरिक्ष में
अगल-बगल एक ही गति
से चले तो
तुम्हें पता
भी नहीं चलेगा
कि वे चल रहे
है। तुम्हें
चलती गड़ी का
पता इसलिए
चलता है। क्योंकि
उसके बगल में ठहरी
हुई चीजें है।
यदि वे न हों,
या समझो कि
पेड़ भी उसी
गति से चलने
लगे, तो तुम्हें
गति का पता नहीं
चलेगा। तुम्हें
लगेगा कि सब
कुछ ठहरा हुआ
है। या दो गाड़ियाँ
अगल-बगल विपरीत
दिशा में भार
रही हो तो
प्रत्येक की
गति दुगुनी हो
जाएगी। तुम्हें
लगेगा की वह बहुत
तेज भाग रही
है।
वे
तेज नहीं भाग
रही है। गाड़ियाँ
वही है, गति
वहीं है।
लेकिन विपरीत
दिशाओं में गति
करने के कारण
तुम्हें
दुगुनी गति का
अनुभव होता
है। और अगर
गति सापेक्ष
है तो यह मन का
कोई ठहराव है
जो सोचता है
कि नदी बहती
है और पुल
ठहरा हुआ है।
निरंतर
ध्यान
करते-करते च्वांत्सु
को बोध हुआ कि
सब कुछ
सापेक्ष है।
नदी बह रही है;
क्योंकि तुम
पुल को
थिर समझते हो।
बहुत गहरे में
पुल भी बह रहा
है। इस जगत
में कुछ भी
थिर नहीं है।
परमाणु घूम
रहे है; इलेक्ट्रॉन
घूम रहे है।
पुल भी अपने
भीतर निरंतर
घूम रहा है।
सब कुछ बह रहा
है। पुल भी बह
रहा है। च्वांत्सु
को पुल की
आणविक संरचना
की झलक मिल गई
होगी।
अब
तो वे कहते है
कि यह जो
दीवार थिर
दिखाई देती
हे। वह सच में थिर
नहीं है। उसमे
भी गति है।
प्रत्येक इलेक्ट्रॉन
भाग रहा है।
लेकिन गति
इतनी तीव्र है
कि दिखाई नहीं
देती। इसी वजह
से तुम्हें
थिर मालूम पड़ती
है।
यदि
यह पंखा अत्यंत
तेजी से चलने
लगे तो तुम्हें
उसके पंख या
उनके बीच के
स्थान नहीं
दिखाई देंगे। और
अगर वह प्रकाश
की गति से
चलने लगा तो
तुम्हें
लगेगा की वह
कोई थिर गोला
है। क्योंकि
इतनी तेज गति
को आंखें पकड़
नहीं पाती।
च्वांत्सु
को पुल के
अणु-अणु की
झलक जरूर मिल
गई होगी। उसने
इतनी
प्रतीक्षा की
कि उसकी बंधी
बंधाई मान्यता
विलीन हो गई।
तब उसने देखा
कि पुल बह रहा
है और पुल का
बहाव इतना
तीव्र है कि
उसकी तुलना में
नदी ठहरी हुई मालूम
हुई। तब च्वांत्सु
भागा हुआ लाओत्से
के पास गया। लाओत्से
ने कहा कि ठीक
है, अब पूछने
की भी जरूरत नहीं
है। घटना घट
गई।
क्या
घटना घटी? अ-मन घटित
हुआ है।
यह
विधि कहती है: ‘’किसी
गहरे कुएं के
किनारे खड़े
होकर उसकी
गहराईयों में
निरंतर देखते
रहो—जब तक
विस्मय
विमुग्ध न हो
जाओ।‘’
जब
तुम विस्मय-विमुग्ध
हो जाओगे। जब
तुम्हारे
ऊपर रहस्य का
अवतरण होगा।
जब मन नहीं बचेगा।
केवल रहस्य और
रहस्य का
माहौल बचेगा।
तब तुम स्वयं
को जानने में समर्थ
हो जाओगे।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र, भाग—2
प्रवचन—23
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें