केंद्रित
होने की दसवीं
विधि:
‘’अपने
अवधान को ऐसी
जगह रखो, जहां
अतीत की किसी घटना
को देख रहे हो
और अपने शरीर
को भी। रूप के
वर्तमान
लक्षण खो
जायेगे, और
तुम रूपांतरित
हो जाओगे।‘’
तुम
अपने अतीत को
याद कर रहे
हो। चाहे वह
कोई भी घटना
हो; तुम्हारा
बचपन, तुम्हारा
प्रेम, पिता
या माता की
मृत्यु, कुछ
भी हो सकता
है। उसे देखो।
लेकिन उससे एकात्म
मत होओ। उसे
ऐसे देखो जैसे
वह किसी और
जीवन में घटा
है। उसे ऐसे
देखो जैसे वह
घटना पर्दे पर
फिर घट रही हो,
फिल्माई जा
रही हो, और तुम
उसे देख रहे
हो—उससे अलग,
तटस्थ
साक्षी की
तरह।
उस
फिल्म में,
कथा में तुम्हारा
बीता हुआ रूप
फिर उभर
जाएगा। यदि
तुम अपनी कोई
प्रेम-कथा स्मरण
कर रहे हो, अपने
प्रेम की पहली
घटना, तो तुम
अपनी प्रेमिका
के साथ स्मृति
के पर्दे पर
प्रकट होओगे
और तुम्हारा
अतीत का रूप
प्रेमिका के
साथ उभर आएगा।
अन्यथा तुम
उसे याद न कर
सकोगे।
अपने
इस अतीत के रूप
से भी तादात्म्य
हटा लो। पूरी
घटना को ऐसे
देखो मानो कोई
दूसरा पुरूष
किसी दूसरी स्त्री
को प्रेम कर
रहा हो। मानो
पूरी कथा से
तुम्हारा
कुछ लेना-देना
नहीं है। तुम
महज दृष्टा
हो।
यह
विधि
बहुत-बहुत
बुनियादी है।
इसे बहुत प्रयोग
में लाया गया—विशेषकर
बुद्ध के
द्वारा। और इस
विधि के अनेक प्रकार
है। इस विधि
के प्रयोग का
अपना ढंग तुम
खुद खाज ले
सकते हो।
उदाहरण के
लिए, रात में
जब तुम सोने
लगो, गहरी
नींद में
उतरने लगो तो
पूरे दिन के
अपने जीवन को
याद करो। इस
याद की दिशा उलटी
होगी, यानी
उसे सुबह से न
शुरू कर वहां
से शुरू करो
जहां तुम हो।
अभी तुम बिस्तरे
में पड़े हो
तो बिस्तर
में लेटने से
शुरू कर पीछे लोटों।
और इस प्रकार
कदम-कदम पीछे
चलकर सुबह की
उस पहली घटना
पर पहु्ंचो जब
तुम नींद से
जागे थे अतीत
स्मरण के इस
क्रम में सतत
याद रखो कि
पूरी घटना से
तुम पृथक हो,
अछूते हो।
उदाहरण
के लिए, पिछले
पहर तुम्हारा
किसी ने अपमान
किया था; तुम
अपने रूप को अपमानित
होते देखो,
लेकिन द्रष्टा
बने रहो। तुम्हें
उस घटना में
फिर नहीं
उलझना है, फिर
क्रोध नहीं
करना है। अगर
तुमने क्रोध
किया तो
तादात्म्य
पैदा हो गया।
तब ध्यान का
बिंदु तुम्हारे
हाथ से छूट
गया।
इसलिए
क्रोध मत करो।
वह अभी तुम्हें
अपमानित नहीं
कर रहा है। वह
तुम्हारे
पिछले पहर के
रूप को
अपमानित कर
रहा है। वह
रूप अब नहीं
है। तुम तो एक
बहती नदी की
तरह हो जिसमें
तुम्हारे
रूप भी बह रहे
है। बचपन में
तुम्हारा एक
रूप था, अब वह
नहीं रहा। वह
जा चुका। नदी
की भांति तुम
निरंतर बदलते
जा रहे हो।
रात
में ध्यान
करते हुए जब
दिन की घटनाओं
को उलटे क्रम
में,
प्रतिक्रम
में याद करो
तो ध्यान रहे
कि तुम साक्षी
हो, कर्ता
नहीं। क्रोध मत
करो। वैसे ही
जब तुम्हारी
कोई प्रशंसा
करे तो
आह्लादित मत
होओ। फिल्म
की तरह उसे भी
उदासीन होकर
देखो।
प्रतिक्रमण
बहुत उपयोगी
है, खासकर
उनके लिए जिन्हें
अनिद्रा की
तकलीफ हो। अगर
तुम्हें ठीक
से नींद आती
है। अनिद्रा
का रोग है। तो
यह प्रयोग
तुम्हें
बहुत सहयोगी
होगा। क्यों? क्योंकि
यह मन को खोलने
का, निर्ग्रंथ
करने का उपाय
है। जब तुम
पीछे लौटते हो
तो मन की तहें
उघड़ने लगती
है। सुबह में
जैसे घड़ी में
चाबी देते हो
वैसे तुम अपने
मन पर भी तहें
लगाता शुरू
करते हो। दिन
भर में मन पर
अनेक विचारों
और घटनाओं के
संस्कार जब
जाते है; मन
उनसे बोझिल हो
जाता है।
अधूरे और
अपूर्ण संस्कार
मन में झूलते
रहते है। क्योंकि
उनके घटित
होते समय उन्हें
देखने का मौका
नहीं मिला था।
इस
लिए रात में
फिर उन्हें
लौटकर देखो—प्रतिक्रम
में। यह मन के
निर्ग्रंथ की,
सफाई की
प्रक्रिया
है। और
इस
प्रक्रिया
में जब तुम
सुबह बिस्तर
से जागते की
पहली घटना तक
पहुंचोगे तो
तुम्हारा मन
फिर से उतना
ही ताजा हो
जाएगा। जितना ताजा
बह सुबह था।
और तब तुम्हें
वैसी नींद
आएगी जैसी
छोटे बच्चे
को आती है।
तुम
इस विधि को
अपने पूरे
अतीत जीवन में
जाने के लिए
भी उपयोग कर
सकते हो।
महावीर ने
प्रतिक्रमण
की इस विधि का
बहुत उपयोग
किया।
अभी
अमेरिका में
एक आंदोलन है,
जिसे
डायनेटिक्स
कहते है। वे
इसी विधि का
उपयोग करता
है। यह रोग
मानसिक मालूम
होता है। तो
उसके लिए क्या
किया जाए। यदि
किसी को कहां
कि तुम्हारा
रोग मानसिक
मालूम होता
है। तो उससे
बात बनने की बजाएं
बिगड़ती है।
यह सुनकर कि
मेरा रोग
मानसिक है।
किसी भी व्यक्ति
को बुरा लगता
है। तब उसे
लगता है कि अब
कोई उपाय नहीं
है। और वह
बहुत अहसास
महसूस करता
है।
प्रतिक्रमण
एक चमत्कारिक
विधि है। अगर
तुम पीछे
लौटकर अपने मन
की गाँठें
खोलों तो तुम
धीरे-धीरे उस
पहले क्षण को
पकड़ सकते हो
जब यह रोग
शुरू हुआ था।
उस क्षण को
पकड़कर तुम
पता चलेगा कि
यह रोग अनेक
मानसिक
घटनाओं और
कारणों से
निर्मित हुआ
है। प्रतिक्रमण
से वे कारण
फिर से प्रकट
हो जाते है।
अगर
तुम उसी क्षण
से गुजर सको
जिसमे पहले
पहल इस रोग ने
तुम्हें
घेरा था, अचानक
तुम्हें पता
चल जाएगा। कि
किन
मनोवैज्ञानिक
कारणों से यह
रोग बना था।
तब तुम्हें
कुछ करना नहीं
है। सिर्फ उन
मनोवैज्ञानिक
कारणों को बोध
में ले आना
है। इस
प्रतिक्रमण
से अनेक रोगों
की ग्रंथियां
टूट जाती है।
और अंतत: रोग
विदा हो जाता
है। जिन
ग्रंथियों को तुम
जान लेते हो
वे ग्रंथियां
विसर्जित हो
जाती है। और
उनसे बने रोग
समाप्त हो
जाते है।
यह
विधि गहरे
रेचन की विधि
है। अगर तुम
इसे रोज कर
सको तो तुम्हें
एक नया स्वास्थ
और एक नई
ताजगी का
अनुभव होगा।
और अगर हम अपने
बच्चों को
रोज इसका प्रयोग
करना सिखा दें
तो उन्हें
उनका अतीत कभी
बोझल नहीं बना
सकेगा। तब बच्चों
को अपने अतीत
में लौटने की
जरूरत नहीं
रहेगी। वे सदा
यहां और अब,
यानी वर्तमान
में रहेंगे।
तब
उन पर अतीत का
थोड़ा सा भी
बोझ नहीं
रहेगा। वे सदा
स्वच्छ और
ताजा रहेंगे।
तुम
इसे रोज कर
सकते हो। पूरे
दिन को इस तरह
उलटे क्रम से
पुन: खोलकर
देख लेने से
तुम्हें नई अंत
दृष्टि
प्राप्त
होती है। तुम्हारा
मन तो चाहेगा
कि यादों को
सिलसिला सुबह
से शुरू करें।
लेकिन उससे मन
निर्ग्रंथक
नहीं होता।
उलटे पूरी चीज
दुहरा कर और
मजबूत हो जाती
है। इस लिए
सुबह से शुरू
करना गलत होगा।
भारत
में ऐसे अनेक
तथाकथित गुरु
है। जो सिखाते
है कि पूरे
दिन का पुनरावलोकन
करो और इस
प्रक्रिया
को सुबह से
शुरू करो।
लेकिन यह गलत
और नुकसानदेह
है। उससे मन मजबूत
होगा और अतीत
का जाल बड़ा
और गहरा हो
जाएगा। इसलिए
सुबह से श्याम
की तरफ कभी मत
चलो, सदा पीछे
की और गति
करो। और तभी
तुम मन को
पूरी तरह निर्ग्रंथ
कर पाओगे,
खाली कर
पाओगे। स्वच्छ
कर पाओगे।
मन
तो सुबह से
शुरू करना
चाहेगा। क्योंकि
वह आसान है।
मन उस क्रम को भलीभाँति
जानता है।
उसमें कोई
अड़चन नहीं
है। प्रतिक्रमण
में भी मन उछल
कर सुबह पर
चला जाता है।
और फिर आगे
चला चलेगा। वह
गलत है, वैसा
मत करो। सजग
हो जाओ और
प्रतिक्रम से
चलो।
इसमें
मन को
प्रशिक्षित
करने के लिए
अनय उपाय भी
काम में लाए
जा सकते है।
सौ से पीछे की
तरह गिनना
शुरू करो—निन्यानवे,
अट्ठानवे, सत्तानवे,।
प्रतिक्रम से
सौ से एक तक
गिनो। इसमे भी
अड़चन होगी।
क्योंकि मन
की आदत है एक
से सौ कि और
जाने की है। सौ
से एक की और
जाने की नहीं।
इसी क्रम में
घटनाओं को
पीछे लौटकर स्मरण
करना है।
क्या
होगा? पीछे लौटते
हुए मन को फिर
से खोलकर
देखते हुए तुम
साक्षी हो
जाओगे। अब तुम
उन चीजों को
देख रहे हो जो
कभी तुम्हारे
साथ घटित हुई
थी, लेकिन अब
तुम्हारे
साथ घटित नहीं
हो रही है। अब
तो तुम सिर्फ
साक्षी हो, और
वे घटनाएं मन
के पर्दे पर
घटित हो रही
है।
अगर
इस ध्यान को
रोज जारी रखो
तो किसी दिन
अचानक तुम्हें
दुकान पर या
दफ्तर में काम
करते हुए ख्याल
होगा कि क्यों
नहीं अभी घटने
वाली घटनाओं
के प्रति भी साक्षी
भाव रख जाए।
अगर समय में
पीछे लौटकर
जीवन की घटनाओं
को देखा जा
सकता है। उनका
गवाह हुआ जा
सकता है। दिन
में किसी ने
तुम्हारा
अपमान किया थ
और तुम बिना
क्रोधित हुए
उस घटना को
फिर से देख
सकते हो—तो क्या
कारण है कि उस
घटनाओं को जो
अभी घट रही है,
नहीं देखा जा
सकता है।
कठिनाई क्या
है?
कोई
तुम्हारा
अपमान कर रहा
है। तुम अपने
को घटना से पृथक
कर सकते हो।
और देख सकते
हो। कि कोई
तुम्हारा
अपमान कर रहा
है। तुम यह भी
देख सकते हो कि
तुम अपने शरीर
से, अपने मन से
और उससे भी जो
अपमानित हुआ
है। पृथक हो।
तुम सारी चीज
के गवाह हो
सकते हो। और
अगर ऐसे गवाह
हो सको तो फिर
तुम्हें
क्रोध नहीं
होगा। क्रोध
तब असंभव हो
जायेगा।
क्रोध तो तब
संभव होता है
जब तुम तादात्म्य
करते हो। अगर
तादात्म्य
नहीं है तो
क्रोध असंभव
है। क्रोध का
अर्थ तादात्म्य
है।
यह
विधि कहती है
कि अतीत की
किसी घटना को
देखो, उसमें
तुम्हारा
रूप उपस्थित
होगा। यह
सूत्र तुम्हारी
नहीं, तुम्हारे
रूप की बात
करता है। तुम
तो कभी वहां
थे ही नहीं।
सदा किसी घटना
में तुम्हारा
रूप उलझता है।
तुम उसमे नहीं
होते। जब तुम
मुझे अपमानित
करते हो तो सच
में तुम मुझे
अपमानित नहीं
करते। तुम
मेरा अपमान कर
ही नहीं सकते।
केवल मेरे रूप
का अपमान कर
सकते हो। मैं
जो रूप हूं
तुम्हारे
लिए तो उसी की
उपस्थिति
अभी है और तुम
उसे अपमानित
कर सकत हो। लेकिन
मैं अपने को
अपने रूप से
पृथक कर सकता
हूं।
यही
कारण है कि
हिंदू-रूप से
अपने को पृथक
करने की बात
पर जोर देता
है। तुम तुम्हारा
नाम रूप नहीं
हो, तुम वह
चैतन्य हो जो
नाम रूप को
जानता है। और
चैतन्य पृथक
है, र्स्वथा
पृथक है।
लेकिन
यह कठिन है।
इसलिए अतीत से
शुरू करो। वह
सरल है। क्योंकि
अतीत के साथ
कोई तात्कालिकता
का भाव नहीं
रहता है। किसी
ने बीस साल
पहले तुम्हें
अपमानित किया
था, उसमें
तात्कालिकता
का भा अब कैसे
होगा। वह आदमी
मर चुका होगा
और बात समाप्त
हो गई है। यह
एक मुर्दा
घटना है। अतीत
से याद की
हुई। उसके
प्रति जागरूक
होना आसान है।
लेकिन एक बार
तुम उसके
प्रति जागना
सीख गए तो अभी
और यहां होने
वाली घटनाओं
के प्रति भी
जाना हो सकता
है। लेकिन अभी
और यहां से
आरंभ करना
कठिन है। समस्या
इतनी तात्कालिक
है, निकट है,
जरूरी है कि
उसमे गति करने
के लिए जगह ही
कहां है।
थोड़ा दूरी
बनाना और घटना
से पृथक होना
कठिन बात है।
इसीलिए
सूत्र कहता है
कि अतीत से
आरंभ करो। अपने
ही रूप को
अपने से अलग
देखो और उसके
द्वारा रूपांतरित
हो जाओ।
इसके
द्वारा
रूपांतरित हो
जाओगे। क्योंकि
यह
निर्ग्रंथन
है—एक गहरी
सफाई है,
धुलाई है। और
तब तुम जानोंगे
कि समय में जो
तुम्हारा
शरीर है, तुम्हारा
मन है। अस्तित्व
है, वह तुम्हारा
वास्तविक
यथार्थ नहीं
है। वह तुम्हारा
सत्य नहीं
है। सार-सत्य
सर्वथा भिन्न
है। उस सत्य
से चीजें आती
जाती है। और
सत्य अछूता
रह जाता है।
तुम अस्पर्शित
रहते हो।
निर्दोष रहते हो,
कुँवारे रहते
हो। सब कुछ
गुजर जाता है।
पूरा जीवन गुजर
जाता है। शुभ
और अशुभ सफलता
और विफलता,
प्रशंसा और
निंदा, सब कुछ
गुजर जाता है।
रोग और स्वास्थ्य,
जवानी और
बुढ़ापा, जन्म
और मृत्यु,
सब कुछ व्यतीत
हो जाता है।
और तुम अछूते
रहते हो।
लेकिन
इस अस्पर्शित
सत्य को कैसे
जाना जाए?
इस
विधि का वही
उपयोग है।
अपने अतीत से
आरंभ करो।
अतीत को देखने
के लिए अवकाश
उपलब्ध है।
अंतराल उपलब्ध
है,
परिप्रेक्ष्य
संभव है। या
भविष्य को
देखो, भविष्य
का निरीक्षण
करो। लेकिन
भविष्य को
देखना भी कठिन
है। सिर्फ
थोडे से लोगों
के लिए भविष्य
को देखना कठिन
नहीं है।
कवियों और कल्पनाशील
लोगों के लिए
भविष्य को
देखना कठिन
नहीं है। वे
भविष्य को
ऐसे देख सकते
है जैसे वे
किसी यथार्थ
को देखते है।
लेकिन सामान्यत:
अतीत को उपयोग
में लाना अच्छा
है। तुम अतीत
में देख सकते
हो।
जवान
लोगों के लिए
भविष्य में
देखना अच्छा
रहता है। उनके
लिए भविष्य
में झांकना
सरल है, क्योंकि
वे भविष्योन्मुख
होते है। बूढे
लोगों के लिए
मृत्यु के
सिवाय कोई
भविष्य नहीं
है। वे भविष्य
में नहीं देख
सकते है। वे
भयभीत है। यही
वजह है कि
बूढ़े लोग सदा
अतीत के संबंध
में विचार
करते है। वे
पुन:-पुन: अपने
अतीत की स्मृति
में घूमते
रहते है।
लेकिन वे भी
वही भूल करते
है। वे अतीत
से शुरू कर
वर्तमान की और
आते है। यह
गलत है। उन्हें
प्रतिक्रमण
करना चाहिए।
अगर
वे बार-बार
अतीत में
प्रतिक्रम से
लौट सकें तो
धीरे-धीरे उन्हें
महसूस होगा कि
उनका सारा
अतीत बह गया।
तब कोई आदमी
अतीत से चिपके
बिना, अटके
बिना मर सकता
है। अगर तुम
अतीत को अपने
से चिपकने न
दो, अतीत में न अटकों,
अतीत को हटाकर
मर सको। तब
तुम सजग
मरोगे। तब तुम
पूरे बोध में,
पूरे होश में
मरोगे। और तब
मृत्यु तुम्हारे
लिए मृत्यु
नहीं रहेगी।
बल्कि वह
अमृत के साथ
मिलन में बदल
जाएगी।
अपनी
पूरी चेतना को
अतीत के बोझ से
मुक्त कर दो।
उससे अतीत के
मैल को
निकालकर उसे
शुद्ध कर दो।
और तब तुम्हारा
जीवन
रूपांतरित हो
जाएगा।
प्रयोग
करो। यह उपाय
कठिन नहीं है।
सिर्फ अध्यवसाय
की, सतत चेष्टा
की जरूरत है।
विधि में कोई
अंतर्भूत
कठिनाई नहीं
है। यह सरल
है। और तुम आज
से ही इसे
शुरू कर सकते
हो। आज ही रात अपने
बिस्तर में लेट
कर शुरू करो,
और तुम बहुत
सुंदर और
आनंदित अनुभव करोगे।
पूरा दिन फिर
से गुजर
जाएगा।
लेकिन
जल्दबाजी मत
करो। धीरे-धीर
पूरे क्रम से गूजरों,
ताकि कुछ भी
दृष्टि से
चूके नहीं। यह
एक आश्चर्यजनक
अनुभव है। क्योंकि
अनेक ऐसी
चीजें तुम्हारी
निगाह के
सामने आएँगी
जिन्हें दिन
में तुम चुक
गये थे। दिन
में बहुत व्यस्त
रहने के कारण
तुम बहुत
सुंदर चीजें
चूकते हो,
लेकिन मन उन्हें
भी अपने भीतर
इकट्ठा करता
जाता है। तुम्हारी
बेहोशी में भी
मन उनको ग्रहण
करता जाता है।
तुम
सड़क पर जा
रहे हो। और
कोई आदमी गा
रहा था। हो
सकता है कि
तुमने उसके
गीत पर कोई ध्यान
नहीं दिया हो।
तुम्हें यह
भी बोध न हुआ
हो कि तुमने
उसकी आवाज भी
सुनी। लेकिन
तुम्हारे मन
ने उसके गीत
को भी सुना और
अपने भीतर स्मृति
में रख लिया
था अब वह गीत
तुम्हें
पकड़े रहेगा।
वह तुम्हारी
चेतना पर
अनावश्यक
बोझ बना
रहेगा।
तो
पीछे लौट कर
देखो, लेकिन
बहुत
धीरे-धीरे उसमे
गति करो। ऐसा
समझो कि पर्दे
पर बहुत धीमी
गति से कोई
फिल्म दिखायी
जा रही है।
ऐसे ही अपने
बीते दिन की
छोटी से छोटी
घटना को गौर
से देखो, उसकी
गहराई में जाओ।
और तब तुम
पाओगे कि तुम्हारा
दिन बहुत बड़ा
था। वह सचमुच
बड़ा था। क्योंकि
मन को उसमे
अनगिनत
सूचनाएं मिली
और मन ने सबको
इकट्ठा कर
लिया।
तो
प्रतिक्रमण
करो। धीरे-धीरे
तुम उस सबको
जानने में सक्षम
हो जाओगे।
जिन्हें
तुम्हारे मन
ने दिन भर में
अपने भीतर इकट्ठा
कर लिया था।
वह टेप रिकार्डर
जैसा है। और
तुम जैसे-जैसे
पीछे जाओगे।
मन का टेप पुछता
जाएंगा। साफ
होता जाएगा।
और तब तक तुम सुबह
की घटना के
पास पहुंचोगे
तुम्हें नींद
आ जाएगी। और
तब तुम्हारी
नींद की
गुणवता और
होगी। वह नींद
भी ध्यान
पूर्ण होगी।
और
दूसरे दिन
सुबह नींद से
जागने पर अपनी
आंखों को
तुरंत मत खोलों।
एक बार फिर
रात की घटनाओं
में
प्रतिक्रम से लोटों।
आरंभ में यह
कठिन होगा।
शुरू में बहुत
थोड़ी गति
होगी। कभी कोई
स्वप्न का
अंश, उस स्वप्न
का अंश जिसे
ठीक जागने के
पहले तुम देख
रहे थे। दिखाई
पड़ेगा।
लेकिन
धीरे-धीरे
तुम्हें ज्यादा
बातें स्मरण
आने लगेंगी।
तुम गहरे
प्रवेश करने
लगोंगे। और
तीन महीने के
बाद तुम समय
के उस छोर पर
पहूंच जाओगे।
जब तुम्हें
नींद लगी थी।
जब तुम सो गए
थे।
और
अगर तुम अपनी
नींद में
प्रतिक्रम से
गहरे उतर सके
तो तुम्हारी
नींद और जागरण
की गुणवता
बिलकुल बदल
जाएगी। तब
तुम्हें
सपने नहीं आएँगे,
तब सपने व्यर्थ
हो जायेंगे।
अगर दिन और
रात दोनों में
तुम
प्रतिक्रमण
कर सके तो फिर
सपनों की
जरूरत नहीं रहेगी।
अब
मनोवैज्ञानिक
कहते है कि
सपना भी मन को
फिर से खोलने,
खाली करने की
प्रक्रिया
है। और अगर तुम
स्वयं यह काम
प्रतिक्रमण
के द्वारा कर
लो तो स्वप्न
देखने जरूरत
ही नहीं
रहेगी। सपना
इतना ही तो
करता है कि जो
कुछ मन में
अटका है। अधूरा
पडा था,
अपूर्ण था,
उसे वह पूरा
कर देता है।
तुम
सड़क से गुजर
रहे थे और
तुमने एक
सुंदर मकान
देखा और तुम्हारे
भीतर उस मकान
को पाने की
सूक्ष्म
वासना पैदा हो
गई। लेकिन उस
समय तुम दफ्तर
जा रहे थे। और
तुम्हारे
पास दिवा-स्वप्न
देखने का समय
नहीं था। तुम
उस कामना को
टाल गये। तुम्हें
यह पता भी
नहीं चला कि
मन ने मकान को
पाने की कामना
निर्मित कर ली
है। लेकिन यह
कामना अब भी
मन के किसी
कोने में अटकी
पड़ी है। और
अगर तुमने उसे
वहां से नहीं
हटाया तो वह
तुम्हारी
नींद मुश्किल
कर देगी।
नींद
की
कठिनाई यही
बताती है कि
तुम्हारा
दिन अभी भी
तुम पर हावी
है और तुम
उससे मुक्त
नहीं हो पा
रहे हो। तब
रात में तुम
स्वप्न देखेंगे
कि तुम उस
मकान के मालिक
हो गए हो, और अब
तुम उस मकान
में वास कर
रहे हो। और
जिस क्षण यह
स्वप्न
घटित होता है।
क्योंकि
सपने तुम्हारी
अधूरी चीजों
को पूरा करने
में सहयोगी
होते है।
और
ऐसी चीजें है
जो पूरी नहीं
हो सकती। तुम्हारा
मन अनर्गल कामनाए
किए जाता है।
वे यथार्थ में
पूरी नहीं हो
सकती। तो क्या
किया जाए? वे
अधूरी कामनाए
तुम्हारे
भीतर बनी रहती
है। और तुम
आशा किए जाते
हो। सोच विचार
किए जाते हो।
तो क्या किया
जाए? तुम्हें एक
सुंदर स्त्री
दिखाई देती
है। और तुम
उसके प्रति
आकर्षित हो
गए। अब उसे
पाने की कामना
तुम्हारे
भीतर पैदा हो
गई। जो हो
सकता है संभव
न हो। हो सकता
है वह स्त्री
तुम्हारी
तरफ ताकना भी
पसंद न करे।
तब क्या हो?
स्वप्न
यहां तुम्हारी
सहायता करता है।
स्वप्न में
तुम उस स्त्री
को पा सकते
हो। और तब
तुम्हारा मन
हलका हो
जाएगा। जहां
तक मन का
संबंध है, स्वप्न
और यथार्थ में
कोई फर्क नहीं
है। मन के तल
पर क्या फर्क? किसी
स्त्री को
यथार्थत:
प्रेम करने और
सपने में प्रेम
करने में क्या
फर्क है?
कोई
फर्क नहीं है।
अगर फर्क है
तो इतना ही कि
स्वप्न
यथार्थ से ज्यादा
सुंदर होगा।
स्वप्न की
स्त्री कोई
अड़चन नहीं
खड़ी करेगी।
स्वप्न
तुम्हारा और
उसमे तुम जो
चाहे कर सकते
हो। वह स्त्री
तुम्हारे
लिए कोई बाधा
नहीं पैदा
करेगी। वह तो
है ही नहीं,
तुम ही हो।
वहां कोई
अड़चन नहीं
है। तुम जो
चाहो कर सकते हो,
मन के लिए कोई
भेद नहीं है।
मन स्वप्न
और यथार्थ में
कोई भेद नहीं
कर सकता है।
उदाहरण
के लिए तुम्हें
यदि एक साल के
लिए बेहोश
करके रख दिया
जाए और उस
बेहोशी मे तुम
सपने देखते
रहो। तो एक साल
तक तुम्हें
बिलकुल पता
नहीं चलेगा कि
जो भी तुम देख
रहे हो वह सपना
है। सब यथार्थ
जैसा लगेगा।
और स्वप्न साल
भर चलता
रहेगा।
मनोवैज्ञानिक
कहते है कि
अगर किसी व्यक्ति
को सौ साल के
लिए कौमा में
रख दिया जाए
तो वह सौ साल
तक सपने देखता
रहेगा। और उसे
क्षण भर के
लिए भी संदेह
नहीं होगा। कि
जो मैं कर रहा
हूं वह स्वप्न
है। और यदि
कोमा में ही
मर जाएगा तो
उसे कभी पता
नहीं चलेगा कि
मेरा जीवन एक
स्वप्न था।
सच नहीं था।
मन
के लिए कोई
भेद नहीं है।
सत्य और स्वप्न
दोनों समान
है। इसलिए मन
अपने को सपनों
में भी
निर्ग्रंथ कर
सकता है। अगर
इस विधि का
प्रयोग करो तो
सपना देखने की
जरूरत नहीं
है। तब तुम्हारी
नींद की गुणवता
ही पूरी तरह
से बदल
जायेगी। क्योंकि
सपनों की
अनुपस्थिति
में तुम अपने
अस्तित्व
की आत्यंतिक
गहराई में उतर
सकोगे। और तब
नींद में भी
तुम्हारा
बोध कायम
रहेगा।
कृष्ण
गीता में यही
बात कह रहे है
कि जब सभी
गहरी नींद में
होते है तो
योगी जागता
रहता है। इसका
यह अर्थ नहीं
कि योगी नहीं
सोता। योगी भी
सोता है। लेकिन
उसकी नींद का
गुणधर्म भिन्न
है। तुम्हारी
नींद ऐसी है
जैसे नशे की
बेहोशी होती
है। योगी की
नींद प्रगाढ़
विश्राम है।
जिसमे कोई
बेहोशी नहीं
रहती है। उसका
सारा शरीर विश्राम
में होता है।
एक-एक कोश
विश्राम में
होता है। वहां
जरा भी तनाव
नहीं रहता। और
बड़ी बात कि
योगी अपनी
नींद के प्रति
जागरूक रहता
है।
इस
विधि का
प्रयोग करो। आज
रात से ही
प्रयोग शुरू
करो। और फिर
सुबह भी इसका
प्रयोग करना।
एक सप्ताह में
तुम्हें
मालूम होगा कि
तुम विधि से
परिचित हो गए
हो। एक सप्ताह
के बाद अपने
अतीत पर
प्रयोग करो।
बीच में एक
दिन की छुट्टी
रख सकेत हो।
किसी एकांत स्थान
में चले जाओ।
अच्छा हो कि
उपवास करा—उपवास
और मौन। एकांत
समुद्र तट पर
या किसी झाड़
के नीचे लेटे
रहो, वहां से,
उसी बिंदु से
अपने अतीत में
प्रवेश करो।
अगर तुम
समुद्र तट पर
लेटे हो तो रेत
को अनुभव करो।
धूप को अनुभव
करो और तब
पीछे की और सरको।
और सरकते चले
जाओ। अतीत में
गहरे उतरते
चले जाओ। देखो
कि कौन सी
आखिर बात स्मरण
आती है।
तुम्हें
आश्चर्य
होगा कि
सामान्यत:
तुम बहुत कुछ
स्मरण नहीं
कर सकते हो।
सामान्यत:
अपनी चार या पाँच
वर्ष की उम्र
के आगे नहीं जा
सकोगे। जिनकी
याददाश्त
बहुत अच्छी
है वे तीन
वर्ष की सीमा
तक जा सकते
है। उसके बाद
अचानक एक
अवरोध
मिलेगा।
जिसके आगे सब
कुछ अँधेरा मिलेगा।
लेकिन अगर तुम
इस विधि का
प्रयोग करते
रहे तो धीरे-धीरे
यह अवरोध टूट
जाएगा। तुम
अपने जन्म के
प्रथम दिन को
भी याद कर
पाओगे।
और वह
एक बड़ा रहस्योद्घाटन
होगा। तब धूप,
बालू और सागर
तट पर लौटकर
तुम एक दूसरे
ही आदमी होगें।
यदि तुम
श्रम करो तो
तुम गर्भ तक
जा सकते हो।
तुम्हारे
पास मां के
पेट की स्मृतियां
है। मां के
साथ नौ महीने
होने की बातें
भी तुम्हें
याद है। तुम्हारे
मन में उन नौ
महीनों की कथा
भी लिखी है।
जब तुम्हारी
मां दुःखी हुई
थी तो तुमने
उसको भी मन में
लिख लिया था।
क्योंकि मां
के दुःखी होने
से तुम भी दुःखी
हुये थे। तुम
अपनी मां के
साथ इतने जुडे
थे। संयुक्त
थे कि जो कुछ
तुम्हारी
मां को होता
था वह तुम्हें
भी होता था।
जब वह क्रोध करती
थी तो तुम भी
क्रोध करते
थे। जब वह खुश
थी तो तुम भी
खुश थे। जब
कोई उसकी प्रशंसा
करता था तो
तुम भी
प्रशंसित
होते थे। और जब
वह बीमार होती
थी तो उसकी
पीड़ा से तुम
भी पीडित होते
थे।
यदि
तुम गर्भ की
स्मृति में प्रवेश
कर सको तो
समझो कि मिल
गई। और जब तुम और
गहरे उतर सकते
हो। तब तुम उस
क्षण को भी
याद कर सकते
हो जब तुमने
मां के गर्भ में
प्रवेश किया
था। इसी जाति
स्मरण के
कारण महावीर और
बुद्ध कह सके
कि पूर्वजन्म
है और पुनर्जन्म
काई सिद्धांत नहीं
है। वह एक गहन
अनुभव है।
और
अगर तुम उस
क्षण की स्मृति
को पकड़ सको,
जब तुमने मां
के गर्भ में
प्रवेश किया
था तो तुम
उससे भी आगे
जा सकते हो।
तुम अपने
पूर्व जीवन की
मृत्यु को भी
याद कर सकते
हो। और एक बार
तुमने उस
बिंदू को छू
लिया तो समझो
कि विधि तुम्हारे
हाथ लग गई। तब
तुम आसानी से
अपने सभी पूर्व
जन्मों में
गति कर सकते
हो।
यह
एक अनुभव है, और
इसके परिणाम
आश्चर्यजनक
है। जब तुम्हें
पता चलता है
कि तुम जन्मों
–जन्मों से
उसी व्यर्थता
को जी रहे हो।
जो अभी तुम्हारे
जीवन में है।
एक ही मूढ़ता
को तुम जन्मों-जन्मों
में दुहराते
रहे हो। भीतरी
ढंग ढांचा वही
है। सिर्फ
ऊपर-ऊपर थोड़ा
फर्क है। अभी
तुम इस स्त्री
के प्रेम में हो,
कल किसी अन्य
स्त्री के
प्रेम मैं थे।
कल तुमने धन
बटोरा था, आज
भी धन बटोर
रहे हो। फर्क
इतना है कि कल
के सिक्के और
थे आज के सिक्के
और है। लेकिन
सारा ढांचा
वही है, जो पुनरावृत्त
होता रहा है।
और
एक बार तुम
देख लो कि जन्मों–जन्मों
से एक ही तरह
की मूढ़ता एक दुस्चक्र
की भांति घूमती
रही है। तो
अचानक तुम जाग
जाओगे। और तुम्हारा
पूरा अतीत स्वप्न
से ज्यादा नहीं
रहेगा। तब
वर्तमान सहित
सब कुछ स्वप्न
जैसा लगेगा।
तब तुम उससे
सर्वथा टूट
जाओगे। और अब नहीं
चाहोगे कि
भविष्य में
फिर से मूढ़ता
दोहरे। तब
वासना समाप्त
हो जाएगी। क्योंकि
वासना भविष्य
में अतीत का
प्रक्षेपण
है। उससे अधिक
कुछ नहीं है।
तुम्हारा
अतीत का अनुभव
भविष्य में दुहराना
चाहता है। वही
तुम्हारी
कामना है, चाह
है।
पुराने
अनुभव को फिर
से भोगने की
चाह कि कामना
है। ओर जब तक
तुम इस पुरी
प्रक्रिया के
प्रति होश पूर्ण
नहीं होते हो
तब तक वासना
से मुक्त
नहीं हो सकते।
कैसे हो सकते
हो? तुम्हारा
समस्त अतीत
एक अवरोध बनकर
खड़ा है;
चट्टान की तरह
तुम्हारे
सिर पर सवार
है और वही
तुम्हें
तुम्हारे
भविष्य की और
धका रहा है।
अतीत कामना को
जन्म देकर
उसे भविष्य में
प्रक्षेपित
करता है।
अगर
तुम अपने अतीत
को स्वप्न
की तरह जान
जाओ तो सभी
कामनाए बांझ हाँ
जाएंगी। और कामनाओं
के गिरते ही
भविष्य
समाप्त हो
जाता है। और इस
अतीत और भविष्य
की समाप्ति
के साथ तुम
रूपांतरित हो
जाते हो।
ओशो
विज्ञान
भैरव तंत्र
(तंत्र-सूत्र—भाग-1)
प्रवचन-15
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